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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

हास्य क्षणिकाएँ

रमेश मनोहरा,जावरा, रतलाम

अहसान

नेता का पहला नारा है

हमें वोट दीजिये

फिर आप

हमसे काम लीजिये।

हमने उनको वोट दिया

बदले में इस तरह

काम का अहसान jataya,

अब वे बकरे की तरह

हलाल कर खाते हैं

पूरे पाँच साल तक

ईद मनाते हैं.
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चुनाव
इस बार वे

फिर चुनाव जीत गए।

यानि कि

बेरोजगार होते-होते

बच गए.
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दुम
कुत्तों से अधिक दुम

वे लोग हिलाते हैं

जो मंत्री जी के

खास चमचे

कहलाते हैं.
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अस्तबल
इन दिनों राजनीती

बन गयी है अस्तबल

जहाँ कुछ

चुने हुए घोडे आते हैं

और हरी-हरी घास

चरकर सो जाते हैं.
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भिखारी

भीख दोनों ही मांगते हैं

इसलिए दोनों ही

भिखारी कहलाते हैं।

फर्क दोनों में इतना है

पहला रोजाना माँगकर खाता है

दूसरा पाँच साल में

एक बार माँगने आता है.
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ग़ज़ल मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

ग़ज़ल

मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

जिसने थामा अम्बर को वो तुझे सहारा भी देगा,

जिसने नज़र अता की है, वो कोई नज़ारा भी देगा

छोड़ न यूँ उम्मीद का दामन, ऐसे भी मायूस न हो,

अभी छुपा है बेशक, पर वो कभी इशारा भी देगा

छोड़ अभी साहिल के सपने, मौजों से टकराता चल

यहीं हौसला नैया का, इक रोज किनारा भी देगा

दूर उफ़क से नज़र हटा मत, रात भले ये गहरी है

अंधियारों के बाद, वो तुझको सुबह का तारा भी देगा

देखे फ़कत सराब, मगर यूँ मूँद न तरसी आँखों को

प्यास का ये जज़्बा सहरा में, जल की धारा भी देगा

लाख मिटाए वक्त, तू अपनी कोशिश को जिंदा रखना,

हार का ये अपमान ही इक दिन, जीत का नारा भी देगा

साकी की नज़रें ही पीने वालों की तकदीरें हैं

करता है जो जाम फ़ना, वो जाम सहारा भी देगा

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

गीत

आचार्य संजीव 'सलिल'

नीचे-ऊपर,
ऊपर नीचे,
रहा दौड़ता
अँखियाँ मीचे।
मेघा-गागर
हुई न रीती-
पवन थका,
दिन-रात उलीचे

नाव नदी में,
नदी नाव में,
भाव समाया है,
अभाव में।
जीवन बीता-
मोल-भाव में।
बंद रहे-
सद्भाव गलीचे

नहीं कबीरा,
और न बानी।
नानी कहती,
नहीं कहानी।
भीड-भाड़ में,
भी वीरानी।
ठाना- सींचें,
स्नेह-बगीचे

कंकर- कंकर
देखे शंकर।
शंकर में देखे
प्रलयंकर।
साक्ष्य- कारगिल
टूटे बनकर।
रक्तिम शीतल
बिछे गलीचे

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हाइकु गीत

नलिनीकांत, प. बंगाल।

सबसे बड़ा

प्रश्न और उत्तर

मधुर मौन।

गाछ-गाछ के

पत्ते-पत्ते पे लिखा

प्रभु का पत्र।

सही शख्स को

मिलती है जिंदगी

मौत के बाद।

मुस्काया मुन्ना

तो खुशियों से भरा

आँचल माँ का।

बूंदों की चोट

टीन पर, गोलियां

ज्यों पीठ पर।

मेघ मल्हार

गा रही रसवन्ती

वधु श्रावणी।

फूल बेचता

हूँ मैं ताज़ा, फाव में

देता खुशबू।

लहरों का क्या

विश्वास किनारे को,

मारता धक्का.

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बुधवार, 1 अप्रैल 2009

शिशु गीत --कृष्णवल्लभ पौराणिक, इंदौर


कुत्ता बोला भौं भौं भौं
गफलत में क्यों रहते?
चौंकन्ने तुन सदा रहो.

बिल्ली बोली म्याऊँ-म्याऊँ
भूख लगी है मुझको
क्या अन्दर आ जाऊँ?

मुर्गा बोला कुकडूकूं
भोर हो गयी मुन्ने
कब तक तुझे पुकारूँ?

गधा बोलता ढेंचू-ढेंचू
भर बहुत लड़ा है
मैं कैसे खैन्चूं?

घोड़ा हिन्-हिन् बोला
आओ! सैर कराऊँ
मैं तुमको हरदिन.

गाय बोली म्यां
मेरा बछडा नहीं मिला
वह खो गया कहाँ?

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तसलीस (उर्दू त्रिपदी) अज़ीज़ अहमद अंसारी, इंदौर


सब नज़ारे दिखाई देते हैं
मुझको छोटे से अपने इस घर में
चाँद तारे दिखाई देते हैं.

आप अपना जवाब होते हैं
जिनमें होती है दूरअंदेशी
वो सदा कामयाब होते हैं.

प्यार में अब यकीं नहीं मिलता
जिस्म ही आदमी का मिलता है
जिस्म में दिल कहीं नहीं मिलता.

क्या ये आँखों को खोलता भी है?
तुमने पूछा था पहले दिन मुझसे
अब वो तुतला के बोलता भी है.

जो मिले उसके संग होती है
जिंदगानी 'अज़ीज़' बच्चों सी
जैसे पानी का रंग होती है.

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गीतिका कैलाशनाथ तिवारी, इंदौर

बात कहने की हो तभी कहिये.
वर्ना बेहतर यही कि चुप रहिये.

प्यार से जिन्दगी संवरती है.
व्यर्थ विद्वेष में नहीं दहिये.

माना अब तो नहीं जरा फुर्सत.
गाहे-बगाहे पे मिलते रहिये.

हम तो हर रोज धूप सहते हैं.
आप भी धूप याँ कभी सहिये.

गीत गायें बड़ों के हर्ज़ नहीं.
बांह गिरतों की भी कभी गहिये.

सब जगह दुप धुल शोर भरा.
रहने जाऊं कहाँ ये अब कहिये.

फूल को खिलने के लिए ऐ दोस्त!
धूप ज्यादा नहीं पे कुछ चाहिए.

जिंदगी जीने का सही यह ढंग.
उससे मत लड़िये, उसमें ही बहिये.

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ग़ज़ल -- रसूल अहमद 'सागर'

हमें अपने वतन में आजकल अच्छा नहीं लगता.
हमारा देश जैसा था हमें वैसा नहीं लगता.

मेरी ममता के महलों को किया खंडहर विद्वेषों ने.
यहाँ थी प्रेम की बस्ती कभी ऐसा नहीं लगता.

भुलाये हमने सब आदर्श सीता-राम-लक्ष्मण के
हमारा आचरण रघुवंश के घर का नहीं लगता.

मिलन के नाम पर त्यौहार और उत्सव नहीं होते.
सभी धर्मों के सम्मलेन का अब मेला नहीं लगता.

कि जिनकी एक-इक रग में भरा है ज़हर नफरत का.
उन्हीं लोगों को अमृत प्रेम का मीठा नहीं लगता.

दिया विश्वास ने धोखा भरोसा घात कर बैठा.
हमारा खून भी 'सागर' हमें अपना नहीं लगता.

छंद: सुघोष (कोकिल- मूल अश्त्पदीय)
सूत्र: तगन गन गन - चार आवृत्ति
बहर; हजज सालिम मुसम्मन सालिम
अरकान: मफाईलुन - चार बार

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मंगलवार, 31 मार्च 2009

साहित्य जगत: काव्य मन्दाकिनी २००८ प्रकाशित

सामान्यतः आरोपित किया जाता है कि भारतीय रचनाकारों में राष्ट्रीयता की भावना कम है पर पीठ का अनुभव इसके विपरीत रहा. योजना लगभग सौ रचनाओं का संकलन निकलने की थी किन्तु सहभागी बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित हुए. फलतः, इसे दो भागों में प्रकाशित किया जाना तय किया गया. 'नमामि मातु भारतीम' शीर्षक से प्रथम भाग का प्रकाशन गत दिनों पूर्ण हो गया.

इस संकलन में देश के विविध प्रान्तों से सवा सौ से अधिक कवियों की राष्ट्रीय भावपरक रचनाएँ, चित्र तथा संक्षिप्त परिचय दो पृष्ठों में प्रकाशित किया गया है. पाठ्य-शुद्धि के प्रति पर्याप्त सजगता राखी जाने पर भी अहिंदीभाषी प्रदेश से मुद्रण होने पर कुछ त्रुटियां होना स्वाभाविक है. संपादन की छाप प्रायः हर पृष्ठ पर अनुभबव की जा सकती है.
संकलन के आदि में श्री सलिल द्वारा लिखित सारगर्भित अग्रालेख राष्ट्रीयता पर समग्रता से चिंतन को प्रेरित करता है. इस भावधारा के पूर्व प्रकाशित संकलनों का उल्लेख व् संक्षिप्त चर्चा शोधार्थियों के लिए उपयोगी होगी. इस सकल योजना के संयोजक प्रो. श्यामलाल उपाध्याय का अहर्निश श्रम श्लाघनीय है. यह सुमुद्रित संकलन कड़े सादे किन्तु आकर्षक जिल्द में मेट २९९ रु. में पीठ के कार्यालय में उपलब्ध है.
पीठ का पता- प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७ / ए / ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर, कोलकाता ७०००५३.
: प्रेषक - मन्वंतर.

दोहे लोकतंत्र के - चंद्रसेन 'विराट'

लोकतंत्र का नाम है. कहाँ लोक का तंत्र?
भीड़-तंत्र कहना उचित, इसमें भीड़ स्वतंत्र.

सधे लोकहित लोक से, तभी लोक का तंत्र.
पर कुछ चतुरों ने किया, इसे वोट का यंत्र.

राजनीति जनतंत्र की, है कापालिक तंत्र.
शाखाओं को सीचती, भूल मूल का मन्त्र.

यह भेड़ों की भीड़ है, यह भेड़ों की चल.
अर्ध शती बीती मगर, वही हाल बेहाल.

भेडें हैं भोली बहुत, समझ न पातीं चाल.
रहते इनमें भेडिये, ओढ़ भेड़ की खाल.

भेड़जनों के भेडिये, बनकर पहरेदार,
लोकतंत्र के नाम पर, करते स्वेच्छाचार.

भेडचाल छूटी नहीं, रहे भेड़ के भेड़.
यही चाहते भेडिये, खाएं खाल उधेड़.

भेड़ों में वह भेडिया, शामिल बनकर भेड़.
रोज भेड़ कम हो रहीं, खून रँगी है मेड.

यह भेड़ों की भीड़ जो, सबसे अधिक विशाल.
उसे हाँकते भेडिये, बदल-बदलकर खाल.

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व्यंग लेख हवाई सर्वेक्षण डॉ. रमेश चन्द्र खरे.

आजकल सर्वेक्षण की सर्वत्र चर्चा है.वह हर समस्या का तात्कालिक, सर्व हितकारी, सर्वोपलब्ध, सर्व विदित निदान हैकि उसे समय के साथ सरकाया जा सके. ऊपर से हवाई सर्वेक्षण हो तो कहना ही क्या? नेताजी बड़े अधिकारियों और पत्रकारों के साथ परिवार का भी दिल संवेदना प्रदर्शन को लालच जाता है. काश सभी को अवसर मिलता.

आजकल हर ओर बाढ़ के समाचार चर्चित हैं, जो अनावृष्टि को रोते यहे, अतिवृष्टि कको रो रहे हैं.कुछ सर्वेक्षक खुश भी हो रहे हैं. राहत कार्य शुरू होंगे. नदियाँ उफनती हैं. छोटे-मोटे बाँध और पुल टूट रहे हैं, झोपडियाँ बह रही हैं. बाढ़ के सम्भावना है और नदियों के किनारे घर बने हैं. उन्हें क्यों हटाया जाए? फिर समस्या और निदान कहाँ रहेंगे?
सर्वत्र हाहाकार है. संवेदनशील हवाई सर्वेक्षण पर निकले हैं. सदलबल प्रति वर्षानुसार स्वस्थ परंपरा का निर्वाह हो रहा है. कैमरे साक्ष्य हैं. सनद रहे वक्त पर काम आये. कहीं तो उपाय, योजना और बजट स्वीकृति में प्रमाण होगा- चुनावों में जन-सेवा का भी प्रमाण पात्र. रातों से रहत्दाताओं को भी कुछ राहत मिलेगी जो सूके की क्षतिपूर्ति होगी. देखिये, विरोधी दल कृपया इस पर राजनीति न करें. यह राष्ट्रीय संकट है.

देश में गरीबी की भी बाढ़ आयी हुई है. इतना बड़ा गरीबों का अमीर देश.उसकी बाढ़ में घिरे कंक्रीट के कुछ बहुमंजिले टापू भी अवश्य नजर आते हैं पर बाढ़ का पानी अभी उनके खतरे के निशान से नीचे है. सावधानीपूर्वक इसका हवाई सर्वेक्षण होते रहना चाहिए. वैसे चुनाव इसके लिए सर्वोत्तम समय होता है. जब 'गरीबी हटाओ' के लोक लुभावन नारे हर दल के डंडों और झंडों के साथ लहराते हैं क्योंकि बड़ी हमदर्दी है हमारे नेताओं की उनके प्रति., वर्षों से रही है और रहेगी., हम इसका वचन देते हैं. बदले में उनके तुच्छ मतदान के सिवा हमें कुछ नहीं चाहिए.

नहीं, नहीं नगण्य क्यों?, राष्ट्र के लिए वह बहुत महत्वपूर्ण है. उनका एक-एक रूपया लाखों के बराबर है. हवाई सर्वेक्षण में ऐसी ही अकूत राशि बिखरी पडी है.यह भूमि रत्नगर्भा है. उसका हवाई सर्वेक्षण जरूरी है की महत्वपूर्ण नेताओं के लिए आरक्षित क्षेत्र पूर्व निश्चित हों. हवाई सर्वेक्षण तो जैसे अपार खनिज संपदा का, अनंत हरित वनों का, अनगिनत स्रोतों दोहन की कुंजी है. लोग कहते हैं हवाई बातें हैं, लेकिन नेताजी के अनुसार हवाई सपने देखना भी जरूरी है. जैसे पिछडे बुंदेलखंड विकास की संभावनाओं का सर्वेक्षण किया जा रहा है वैसे ही अगडे क्षेत्रों के और आधिक विकास का भी सर्वेक्षण किया जाना चाहिए. तभी सर्वेक्षकों का विकास होगा.

शिक्षा क्षेत्र के सर्वेक्षण पर तो स्थानाभाव है. वर्षों से पिछडे बुंदेलखंड के विकास के लिए रेल लाइनें बिछाने का सर्वेक्षण किया जा रहा है. एक पंचम नगर बाँध बनाने का सर्वेक्षण हो रहा है. अन्य औद्योगिक संभावनाओं की भावनाएँ सर्वेक्षित हैं. बड़ी अच्छी बातें हैं. एक नेता सर्वेक्षण करता है, दूसरा अपना स्वार्थ आदे आते ही उसे रद्द करा देता है. एक सरकार चुनाव आने पर कहती hai सर्वेक्षण कार्य समाप्ति पर है, अगली पारी में शुरू हो जायेगा. सरकार बदलते ही वह अनावश्यक हो जाता है. नए तेलशोधक कारखाने का शिलान्यास होने पर भी वह शिलावत हो जाता है. स्वर्णिम चतुय्र्भुज योजना, गति धीमी कर देने से ही चारों खाने चित्त हो जाती है. शेरी का सवाल है. कोई दुर्घटना-मामला शांत हो गया तो उसे नए सिरे से सर्वेक्षित कराओ क्योंकि उसकी अशांति में ही तो हमारी परम शांति है.

हवाई जहाज का युग है इसलिए हर क्षेत्र में कई हवाई सर्वेक्षणों की श्रृंखला जरूरी है, तभे एहम प्रगतिशील-विकसित देश होने की ओर बढ़ेंगे. वैसे घर बैठे मानसिक रूप से भी हवाई सर्वेक्षण किया जा सकता है, पिछली गलतियों का भी और आगामी उज्जवल संभावनाओं का भी. हमारी शुभ कामनाएँ हैं.

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लेखक परिचय: जन्म: १९-७-१९३७, होशंगाबाद.शिक्षा: एम्.ए., दीप. टी., पी-एच. डी., शोध- अम्बिका प्रसाद 'दिव्य' : व्यक्तित्व और कृतित्व. प्रकाशित कृतियाँ: महाकाव्य- विरागी-अनुरागी, व्यंग संग्रह- अधबीच में लटके, शेष कुशल है, काव्य- संवेदनाओं के सोपान, बाल साहित्य- आओ, गायें शाला शाला में पढ़ते-पढ़ते, आओ सीखें मैदान में गाते-गाते, कहानियां बुद्धि और विवेक की, प्रकृति से पहचान, अनेक सम्मान. संपर्क: श्यामायन एम्.आई.जी. बी ७३ विवेकानंद नगर, दमोह ४७०६६१ / ०९८९३३४०६०४ / ०७८१२२२१९२८.

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सोमवार, 30 मार्च 2009

कविता वर दो दुर्गा माता... डॉ. कमल जौहरी डोगरा, भोपाल


हे दुगा माँ! शक्तिरूपिणी!
बना दे भारत की हर नारीको
दुरगा चांदी का रूप.
जो करे सामना साहस से
शोषण, उत्पीडन. बलात्कार का
जले न जीवित अग्नि दाह में
करे न आत्म हत्या फांसी से
माँ-बाप करें न भेदभाव
दें शिक्षा और दिलासा
समझें भार न कन्या को
ब्याही हो चाहे अनब्याही
कन्या देवी दुर्गा का रूप
बने रणचंडी जब हो उत्पीडन.
शिक्षा-समाज के रखवालों
उसे सिखाओ आज कराटे.
एन. सी. सी. कर दो अनिवार्य
खेल-कूद के क्षेत्र में भी
उसे बनाओ भागीदार.
गौरव से सीना तान चले वह
सर न झुकाए लज्जा से,
अपनी रक्षा आप करे वह,
निर्भर नहीं पुरुष पर हो.
ऐसा वर दो माता तुम
भारत की हर नारी को.

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गीत

वीर प्रसूता माँ के उदगार

डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, बरेली

चलो, देश के काम आ गया, अपना प्यारा लाल...

जिसकी अर्थी ने जीवन का अर्थ हमें समझाया.
दुनिया के माया-जालों में कभी नहीं उलझाया.
जिसे तिरंगे में पाकर, उन्नत है मेरा भाल....

सीमा के उस प्रहरी ने मातृत्व सफल कर डाला.
मृत्युंजय बनकर जिसने सारा विषाद हर डाला.
अनुरागी नब गया उसी का, निष्ठुर चाहे काल...

बलिदानी सूत एक अकेला, बना मुझे वरदान.
सौंप गया है, भारत माँ को अमृतमय मुस्कान.
और पुत्र ऐसे पाकर हो, माता सदा निहाल...

वीर-प्रसूता रह्हों, सदा जब-जब मैं जीवन पाऊँ.
विदुला और कभी जीजाबाई बनकर हरषाऊँ.
हो बन्दूक खिलौना, उसकी वीरोचित हो चाल...

हर माँ अपने बालक को मानव बनना सिखलाये.
अर्थवान जीवन हो, ऐसा काम देश के आये.
रुद्र और दुर्गा सी सन्तति, करती सदा कमाल...

देश-धर्म पर मिटानेवाले ही जिंदा कहलाते हैं.
चट्टानों औ' गिरिश्रृंगों को, वे पल में दहलाते हैं.
हस शहीद के मेले पर, हृदयों में उठा, उबाल...

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राष्ट्र वन्दना

मेरा आज नमन

प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, कोलकाता


भारत! तेरी शक्ति चिरंतन, मेरा आज नमन.

देश-विरोधी दीमक बनकर, देश चाटते जाते.
धंधों में काला-सफ़ेद कर, मस्ती-मौज मानते.

कौन लादे इन तूफानों से?, कैसे राह बनाये?
कौन जुटाए सहस कैसे?, ऐसे मन के पाए.

चिंता बहुत अधिक हम करते, मानव अधिकारों की.
उन्हें खोज रखते सहेजकर, थाती व्यापारों की.

काश! कहीं चिंता होती, हैं क्या करणीय हमारे.
कभी नहीं कर्त्तव्य विमुख, होते ये प्राणि सारे.

शासन को है सदा अपेक्षा, बल की-अनुशासन की.
बिना विवेक और अनुशासन, कहाँ चली शासन की.

इव्घतन है विनाश का सूचक, घातक एक कुमंत्र.
नहें बचोगे अपनेको औ' अपना जनतंत्र.

बनकर तुम स्वायत्त देश को नहीं बचा पाओगे.
प्रेम, शांति, भ्रातत्व-bhav से दूर चले jaaoge.

एकनिष्ठ-निरपेक्ष राष्ट्र, संप्रभु-स्वायत्त रहेगा.
विघटन से बच, सार्वभौम सत्ता के भर सहेगा.

राष्ट्र सोच हो, राष्ट्र कर्म हो, राष्ट्र-धर्म सेवा हो.
जन-मन अर्पित राष्ट्र भाव हो, शांति-प्रेम-श्रद्धा हो.

नयी सोच के अंखुवे तनकर नए प्राण विकसायें.
अंधकार-निर्धनता-शोस्गन आप स्वयं सर जाएँ.

लो संकल्प उठाओ! खर्षर, अपने तन=मन-धन.
भारत तेरी भक्ति चिरंतन, मेरा आज नमन.

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चिन्तन-सलिला

महात्मा सच्च्चे


डॉ. रामकृष्ण सराफ, भोपाल

एक जंगल में एक महात्मा रहा करते थे. जंगल में रहते हुए वे सदा त्यागमय जीवन व्यतीत करते थे. संसार की किसी भी वस्तु के प्रति उनके मन में कोई आकांक्षा नहीं थी. उनका सारा समय हरी नाम स्मरण तथा दूसरों के कल्याण कार्य में व्यतीत होता था.

महात्मा जे प्रतिदिन दिन में तीन बार प्रातः काल, मध्यान्ह तथा संध्या समय गंगा में स्नान करने जाते थे. मार्ग में एक गणिका का निवास स्थान पड़ता था. जब भी महात्मा जी वहां से निकलते, गणिका अपने घर से निकलती और महात्मा जी को प्रणाम करती. महात्मा जी उसे आशीर्वाद देते. उसके बाद गणिका उनसे एक ही प्रश्न किया करती थी- 'महात्मा जी सच्चे की झूठे?' महात्मा जी प्रतिदिन गणिका के इस प्रश्न को सुनते और बिना कुछ कहे आगे बढ़ जाते. यही क्रम बराबर चलता रहा.

कुछ समय बीता, महात्मा जी बीमार पड़े. उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया. वे मरणासन्न हो गए. तब उनहोंने भक्तों से गणिका को बुलाने के लिए कहा. गणिका आयी. उसने देखा की महात्मा जी अपने जीवन की अंतिम घडियां गिन रहे थे. वह स्तब्ध अवाक् रह गयी. उसने महात्मा जी को प्रणाम किया. इस बार गणिका ने कोई प्रश्न नहीं किया किन्तु महात्मा जी ने आज गणिका के दीर्घकालीन अनुत्त्ररित प्रश्न का उत्तर स्वयं दिया और कहा- 'महात्मा जी सच्चे'. इस उत्तर को सुनकर गणिका की आँखें खुलीं और महात्मा जी ने अपनी आँखें सदा के लिए मूँद लीं.

महात्मा जी और गणिका के इस वृत्त में सच्चाई जो भी हो किन्तु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य निश्चित रूप से यहाँ उद्घाटित होता है. अपने चरित्र को यावज्जीवन निर्मल बनाये रखना वास्तव में एक महान और कठिन कार्य है.

कोई भी मनुष्य कितने ही प्रतिष्ठित , उच्च अथवा महत्त्वपूर्ण पद पर क्यों न हो, उसका उस पद पर विद्यमान होना मात्र, उसके चरित्र के विषय में कोई संकेत नहीं देता. उसका चरित्र निर्मल भी हो सकता है और अन्यथा भी हो सकता है. किसी भी व्यक्ति के चरित्र के विषय में बाहर से कोई भी निश्चित धरना नहीं बनाई जा सकती.

हमारा सारा जीवन चुनौतियों से भरा हुआ है. इन चुनौतियों के बीच चरित्र रक्षा एक बहुत बड़ा और कठिन कार्य है. पग-पग पर हमारे सामने विभिन्न प्रकार के आकर्षण और प्रलोभन हैं, जिनके बीच हमारे चरित्र की परीक्षा हो रही है. हमें अपने चरित्र से डिगने की परिस्थितियां हमारे चारों और विद्यमान हैं. इनसे अपने को बचाते हुए आगे बढ़ते जाना ही हमारे विवेक को चुनौती है. ऐसे उदाहरण हमारे सामने अनेक हैं जहाँ हमने बड़े-बड़े महर्षियों को नीचे गिरते और डूबते देखा है. उनके सारे जीवन की उपलब्धियों को धूल में मिलते देखा है.

अपने सारे जीवन को बिना किसी प्रकार की आँच आये निष्कलंक बचा ले जाना वास्तव में एक दुष्कर कार्य है. इस कार्य में हमारी सतत परीक्षा होती रहती है. कभी भी हम इधर-उधर गए कि सारे जीवन के सब किये कराये पर पानी फिर गया. इसीलिये इसके सम्बन्ध में हमें सतत सचेष्ट रहना पड़ता है. अपने चरित्र की परीक्षा में हम जीवन के प्रत्येक क्षण में सतत जागरूक रहकर ही उत्तीर्ण हो सकते हैं इसीलिये महात्मा जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षण में ही गणिका के उस प्रश्न का उत्तर देना उचित समझा. भले ही इस प्रश्न का उत्तर देना उनके लिए कभी भी कोई कठिन कार्य नहीं था किन्तु अपने उत्तर को जीवन के अंतिम क्षण तक तलने के पीछे महात्मा जी का उद्देश्य संभवतः यही बताना था कि संसत यही समझ ले कि अपने चरित्र की जीवन भर मर्यादा में रहते हुए रक्षा करना सामान्य काम नहीं है.

ससार में विभिन्न आकर्षणों एवं चुनौतियों के बीच अपने चंचल मन को वश में रखते हुए अपने चरित्र कि जो रक्षा कर सके वही सच्चा महात्मा है, फिर चाहे वह वन में रहे या महल में.

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Book Review

Showers to the Bowers : Poetry full of emotions

(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )

Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.

The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'

'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.

According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'

Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.

Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'

In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.

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Contact Acharya Sanjiv Verma 'Salil', email : salil.sanjiv@gmail.com / blog: sanjivsalil.blogspot.com

रविवार, 29 मार्च 2009

लघु कथा

शब्द और अर्थ

सलिल

शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।
शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'
'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गन विहीन गन तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गन मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा।

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कविता


परायों के घर
विजय कुमार सप्पत्ति, सिकंदराबाद
कल रात
दिल के दरवाजे पर
दस्तक हुई।
उनींदी आंखों से देखा तो
तुम थीं।
तुम मुझसे
मेरी नज़्म माग रहीं थीं।
उन नज्मों को
जिन्हें मैंने सम्हाल रखा था
तुम्हारे लिए
एक उम्र तक,
आज कहीं खो गयीं थीं,
वक़्त के धूल भरे रास्तों में
शायद उन्हीं रास्तों में
जिन पर चल कर
तुम यहाँ तक आयी हो।
क्या तुम्हें किसी ने नहीं बताया
की परायों के घर
भीगी आंखों से नहीं जाते।

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लेख

वर्तमान शिक्षा में नवाचार

अनुपमा सूर्यवंशी, छिंदवाडा

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का अर्थ सिर्फ़ संस्कारवान बनाना या ज्ञान विकसित करना ही नहीं है, अपितु बालक के ज्ञान को नवीन तकनीकों के साथ परिपूर्ण करना भी है। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु शिक्षा में नवाचार (इनोवेशन ) की महती आवश्यकता है।
नवाचार अर्थात उन प्रविधियों का समायोजन जो सर्वान्गीण विकास में योगदान दे। वर्तमान समय में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के कारण हर बालक का सम्पूर्ण बौद्धिक विकास होंना चाहिए।
नवाचार में नवीन पद्धतियों अर्थात दृश्य-श्रव्य सामग्री (मल्टीमीडिया रिच लर्निंग टैक्निक) जैसे प्रोजेक्टर, कंप्यूटर, टेली-कोंफ्रेंसिंग तथा सैटेलाइट आदि का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है।
आज-कल विज्ञानं तथा प्रौद्योगिकी में इतना विकास हो चुका है कि विद्यालय गए बिना भी पूरी शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। दूरस्थ शिक्षा की इस अवधारणा को इंदिरा गाँधी मुक्त विश्व विद्यालय, भोज विश्व विद्यालय आदि ने सम्भव कर दिखाया है।
शैक्षणिक अथवा किताबी शिक्षा के विश्व विद्यालय स्टार तक हो चुके इस विकास को अब तकनीकी प्राविधि तक भी ले जाना जरूरी है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में शिक्षक की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रविधियों के उचित समन्वय में दक्ष तथा प्रबंधन में कुशल शिक्षक ही विद्यार्थियों में नए ज्ञान के अंकुर आरोपित कर सकता है। पुरानों में समयानुकूल विद्या प्राप्ति को मनुष्य का तीसरा नेत्र कहा गया है- 'ज्ञानं मनुजस्य तृतीय नेत्रं"। ज्ञान को अनंत तथा असीम भी कहा गया है- 'स्काई इज द लिमिट।'
बालक का केवल बौद्धिक विकास करना ही ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान तो वह है जो बौद्दिक विकास के साथ-साथ चारित्रिक, नैतिक, सामाजिक, शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विकास भी करे।

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कविता

शर्म नहीं आती

देवेन्द्र कुमार मिश्रा, छिंदवाडा

शर्म नहीं आती उन्हें
मर चुका हो जिनकी
आंखों का पानी
बचते-भागते फिरते हों जो
धिक्कार है उनकी जवानी।
दो कौडी का तुम्हारा अभिमान
कुटिल खल कामी।
तुम्हें है
किस बात का गुमान?
अपना हित देखा
अपनी खातिर जिया
दूसरों को भाद में झोंकता
तू कहाँ रहा
मनुज की सन्तान?
बचपन में मिट्टी से खेला
जवानी में उसी की
कर दी मट्टीपलीद
बुढापे में भी
रोता रहा अपना रोना
तुझसे भली है
जानवरों की संतान।
न बुद्धि बल,
न हृदय बल,
न बांहों में जोर।
कपटी-कायर
तेरी नियत में खोट,
तेरे मं में चोर।
कुत्ते भी भौंकते हैं,
चोर की रह रोकते हैं।
मालिक के प्रति
होते हैं वफादार।
तू?
अपनों का नहीं,
गैरों का क्या होगा?
नीच, नराधम
अहसान फरामोश
नाली के कीडे
बता कहाँ से तुझमें
आदम का जोर ?

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