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मंगलवार, 1 जून 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
जंगल काटे, पर्वत खोदे, बिना नदी के घाट रहे हैं। 
अंतर में अंतर पाले वे अंतर्मन-सम्राट रहे हैं?
जननायक जनगण के शोषक, लोकतंत्र के भाग्य-विधाता
निज वेतन-भत्ता बढ़वाकर अर्थ-व्यवस्था चाट रहे हैं
सत्य-सनातन मूल्य, पुरातन संस्कृति की अब बात मत करो
नव विकास के प्रस्तोता मिल इसे बताते हाट रहे हैं
मखमल के कालीन मिले या मलमल के कुरते दोनों में
अधुनातनता के अनुयायी बस पैबन्दी टाट रहे हैं
पट्टी बाँधे गांधारी सी, न्याय-व्यवस्था निज आँखों पर
धृतराष्ट्री हैं न्यायमूर्तियाँ, अधिवक्तागण भाट रहे हैं
राजमार्ग निज-हित के चौड़े, जन-हित की पगडंडी सँकरी
जात-पाँत के ढाबे-सम्मुख ऊँच-नीच के खाट रहे हैं
'सेवा से मेवा' ठुकराकर 'मेवा हित सेवा' के पथ पर
पग रखनेवाले सेवक ही नेता-साहिब लाट रहे हैं
'मन की बात' करें मनमानी, जन की बात न तंत्र सुन रहा। 
लोकतंत्र के शव से धनपति लोभ खाई को पाट रहे हैं।। 
मिथ्या मान-प्रतिष्ठा की दे रहे दुहाई बैठ खाप में
'सलिल' अत्त के सभी सयाने मिल अपनी जड़ काट रहे हैं
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हाट = बाज़ार, भारत की न्याय व्यवस्था की प्रतीक मूर्ति की आँखों पर पट्टी चढ़ी है, लाट साहिब = बड़े अफसर, खाप = पंचायत, जन न्यायालय, अत्त के सयाने = हद से अधिक होशियार = व्यंगार्थ वास्तव में मूर्ख।
१-६-२०१० 
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