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सोमवार, 3 जून 2019

दोहा

दोहा सलिला:
संजीव
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भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान 
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान 
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धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
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जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
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अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
३०-५-२०१५
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