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मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

chitr par kavita:

चित्र पर कविता:


बसंत के आगमन पर झूमते तन-मन की बानगी लिए चित्र देखिये और रच दीजिए भावप्रवण रचना। संभव हो तो रचना के छंद का उल्लेख करें।


डॉ. प्राची.सिंह
छंद त्रिभंगी
*
मन निर्मल निर्झर, शीतल जलधर, लहर लहर बन, झूमे रे..
मन बनकर रसधर, पंख  प्रखर  धर, विस्तृत अम्बर, चूमे रे..
ये मन सतरंगी, रंग बिरंगी, तितली जैसे, इठलाये..
जब प्रियतम आकर, हृदय द्वार पर, दस्तक देता, मुस्काये..

टीप: त्रिभंगी छंद के रचना विधान तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा चुके हैं।

त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने.. 
**
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
 
         चित्र पर रचना -

 कौन तुम किस लोकवासी
  तुहिन-वदना अप्सरा सी
प्रकट सहसा सरित-जल पर
  शरद-ऋतु की पूर्णिमा सी 
आचार्य संजीव जी  द्वारा इंगित त्रिभंगी-छंद  में उक्त कलाकृति पर
कुछ पंक्तिया लिखने का प्रयास किया है  । इस छंदके  व्याकरण और शिल्प पर
उनके आलेख की मेल मेरे कंप्यूटर से लोप हो चूकी थी अस्तु  उनके दूसरे त्रिभंगी छंद
को पढ़ कर अपने अनुमान  से यह रचना प्रस्तुत कर  रहा हूँ । आशा है आचार्य जी अपनी
प्रतिक्रिया में इसके व्याकारण  दोष और शिल्प-दोष पर प्रकाश डालेंगे ।   
      
       
           छंद त्रिभंगी षट -रस रंगी अमिय सुधा-रस पान करे
         छवि का बंदी कवि-मन आनंदी स्वतः त्रिभंगी-छंद झरे
     
        दृश्यावलि सुन्दर लोल-लहर पर अलकावलि अति सोहे
        पृथ्वी-तल पर सरिता-जल पर पसरी कामिनी मन मोहे
   
        उषाकाल नव-किरण जाल जल का उछाल  यह लख रे
        सद्यस्नाता  कंचन गाता रति-रूप  लजाता दृश्य अरे
 
      सस्मित निरखत रस रूप-सुधा घट चितवत नेह-पगा रे
     गगन मुदित रवि नैसर्गिक छवि विस्मित  मौन ठगा रे
 
    श्यामल केश कमल-मुख श्वेत रुचिर परिवेश प्रदान करे
    नयन खुले  से निमिष-तजे से अधर  मंद  मुस्कान भरे

   उभरे  वक्षस्थल  जलक्रीडा स्थल लहर उछल मन प्राण हरे
   सोई सुषमा सी विधु ज्योत्स्ना सी शरद पूर्णिमा नृत्य करे

   रोमांचित तन प्रमुदित मन आलोकित सिकता-कण बिखरे
  सस्मित आकृति अनमोल कलाकृति मुग्ध प्रकृति इस पल रे

  उतरी जल-परि सी सिन्धु-लहर सी प्रात प्रहर सुर-धन्या सी
   दीप-शिखा सी नव-कालिका सी इठलाती  हिम-कन्या   सी

   दादा 
 
***

29 टिप्‍पणियां:

Saurabh Pandey ने कहा…

Saurabh Pandey

ऋतुराज बसंत की अगवानी को उठे स्वर की आवृति इतनी लयात्मक है कि एक चित्र सा खिंचता जाता है. ध्रुवों के पाशों का आमंत्रण कितना आह्लादकारी होता है इसे शब्द-रूप देना इतना सरल नहीं जितनी सरलता से छंद-रचना में उभर कर आया है. पारस्परिक आकर्षण जब सुन्दरता के सात्विक तत्व को संतुष्ट करे तो यह पंक्ति उसका परिचायक हो उठती है - पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..

आम्रकुंज के मतायेपन के मनोहारी वातावरण में सर्प-सर्पिणी के बिम्बों के माध्यम से निस्सृत लयात्मकता कवि के लालित्य बोध को सहज ही समक्ष लाती है. यह आपकी असंतृप्त रचनाधर्मिता ही है, आचार्यजी, जो छंद के माध्यम से सनातन सुन्दरता का शाश्वत आवाहन कर पा रही है.

गेयता और शिल्प के लिहाज से अति उन्नत छंदों पर सादर बधाई स्वीकार करें, आदरणीय. त्रिभंगी छंद का विन्यास अनुकरणीय तो है ही , इसका व्यवहार भी कोलाहलकारियों के लिए उदाहरण सदृश है.

SANDEEP KUMAR PATEL ने कहा…

SANDEEP KUMAR PATEL
वाह वाह आदरणीय सर जी क्या सुन्दर रसधार बहाई है मजा आ गया पढ़ कर
और गुरदेव की प्रतिक्रया तो जैसे शब्दों के सामने आइना रख दिया गया हो
इस सुन्दर छन्द हेतु बधाई हो


Laxman Prasad Ladiwala ने कहा…

Laxman Prasad Ladiwala

" मन मुग्ध कर दिया आपकी मधुर काव्य रचना नने , दिल से ढेरों बधाइयां स्वीकारे आदरणीय संजीव सलिल जी "

Dr.Prachi Singh ने कहा…

Dr.Prachi Singh

त्रिभंगी छंद पर बसंत ऋतु के लावण्य के मानक स्थापित करती सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय संजीव जी.

Er. Ganesh Jee "Bagi" ने कहा…

Er. Ganesh Jee "Bagi"

परम आदरणीय आचार्य जी, आपकी रचना पढ़ने के बाद मन मुग्ध है , शिल्प और भाव , वाह वाह, क्या कहने, शब्दों को जिस तारतम्य में आपने समायोजित किया है वो काबिले तारीफ़ है, बहुत बहुत बधाई स्वीकारें ।

vijay nikore ने कहा…


vijay nikore

त्रिभंगी छंद पर यह रचना पढ़ कर आनंद आ गया।

बधाई।

विजय निकोर

rajesh kumari ने कहा…

rajesh kumari

आदरणीय सलिल जी वसंत ऋतु के सौन्दर्य का त्रिभंगी छंद में इतना सुंदर वर्णन पढ़ कर मन झूम उठा हार्दिक बधाई आपको

वेदिका ने कहा…

वेदिका .

प्रत्येक कोण से रचना सुंदर है मनमोहक है।
शुभकामनायें!!

(त्रिभंगी सलिला क्या होता है?)

upasna siag ने कहा…

upasna siag
बहुत सुन्दर ......

mrs manjari pandey ने कहा…

mrs manjari pandey

"आदरणीय संजीव सलिल जी,

वासन्तिक सौन्दर्य की अद्भुत छठा बाँधी है आपने। आनंद आ गया।"

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

प्राची जी, गणेश जी, विजय जी, राजेश जी, वेदिका जी, उपासना जी. मंजरी जी

त्रिभंगी छंद की यह सलिला (नदी के प्रवाह की तरह गतिमय) आपको रुची तो रचनाकार का प्रयास सार्थक हो गया. आपकी गुण-ग्राहकता को नमन.

वेदिका जी त्रिभंगी छंद के रचना विधान पर एक आलेख प्रस्तुत कर चुका हूँ. पुराने पोस्ट में 'तीन बार हो भंग त्रिभंगी' शीर्षक आलेख देखें. उसे पढ़िये. छंद रचने में कोई कठिनाई हो तो बताइए. आपका स्वागत है

Indira Pratap ने कहा…

Indira Pratap द्वारा yahoogroups.com

रहम कीजिए संजीव भाई, अलमस्त अदा और त्रिभंगी छंद, मुझे तो मार ही डालेगी ,मुझे तो एक ही त्रिभंगी लाल (श्री कृष्ण ) का ठीक से पता है जो गोपिओं के दिल में ऐसे अड़े की फिर निकल ही नही सके | शायद कविवर पद्माकर या रत्नाकर किसने ऐसा ही कुछ लिखा है | चित्र तो बहुत सुन्दर है पर त्रिभंगी छड में कैसे लिखा जाएगा ,कठिन समस्या है | इतने कड़े इम्तिहान के लिए अभी पूरी तैयारी नहीं है पेपर थोडा सरल कर दीजिए | वर्ना हम तो फेल | हम तो भाई मुक्ति चाहते हैं ,छंदों के बंधन से आज़ाद कर दीजिए | कहीं ऐसा न हो की अपनी तो राम नाम सत्य | दिद्दा

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

दिद्दा
सादर नमन।
चित्र पर कविता में छंद-बंधन न रहा है, न अभी है। रचनाकार जिस विधा में चाहे लिखे। आपकी अनुमति हो तो लघुकथा रचने की भी छूट दी जा सकती है।
छंद सजा नहीं है। प्राची सिंह के त्रिभंगी का आनंद लेने में कोई कठिनाई होनी नहीं चाहिए। रामचरित मानस में अनेक त्रिभंगी हैं।

आपकी प्रेरणा से कुछ और त्रिभंगी प्रस्तुत हैं।

deepti gupta ने कहा…

आदरणीय संजीव जी ,

आपकी यह 'त्रिभंगी' बहुत अनुपम बन पड़ी है ! कुछ पंक्तियाँ तो विशेष रूप से मनोमुग्धकारी है -

पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..... अनुप्रास भी और उच्चारण व श्रवण दोनों दृष्टियों से सुन्दर भी........

लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले.. कमल को देख कर भंवरो का सजकर संवरना, संयम के मज़बूत किले का हिलना....बहुत उत्तम


सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी........गंगा की तरह पावन, जन मन को भाने वाली .....बहुत सुन्दर बासंती कथा
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी.....प्रणय की प्रतीति वाकई स्रष्टि का ऐसा भाव है, एक सनातन हिस्सा है जो सदैव स्पंदित रहता है !

ढेर सराहना स्वीकारें !

सादर,
दीप्ति

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

दीप्ति जी आपकी समीक्षात्मक टिप्पणियों से नव रचना की प्रेरणा मिलती है। बहुत धन्यवाद

Pranava Bharti ने कहा…

Pranava Bharti


चित्र से संबंधित नहीं है परन्तु माँ की लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं----------

बसंत की बयार डोले ,पक्षीगण डार -डार ,
कोकिला की तान चौतरफ़ सुनाई दे,
मंद सुगंध शुचि शीतल समीर चले,
जन-मन खेद हरे अति सुखदाई दे ---------
हो सकता है कुछ गडबड की हो पर इस बहाने माँ को याद कर लिया ।

चित्र पर कुछ पंक्तियाँ ---प्रयास भर------फिर लिख नहीं पाऊँगी

तन झूम उठा,मन झूम उठा,
लहराया हर कोना मन का ।
मेरा मन वश में न मेरे ,
स्पर्श हुआ आलिंगन का ।
स्मृतियों की वह पुण्य पवन ,
प्रियतम के द्वारे जा पहुंची ,
तन से लहरों में झूम रही,
किसलय सी मन को चूम उठी ।
जैसे संध्या के पंखी सब ,
उड़ जाते अपने नीडों में ,
मैं भी ऐसे तिरना चाहूँ,
शीतल सागर की लहरों मैं।

प्रणव

Kanu Vankoti ने कहा…

Kanu Vankoti,
आदरणीय आचार्य जी ,
आप तो छन्द के विशेषग्य हैं. त्रिभंगी सलिला में लिखी गई '''ऋतुराज मनोहर..'' बहुत प्यारी रचना है .

ढेर सराहना के साथ ,
कनु

Kanu Vankoti ने कहा…

Kanu Vankoti
वाह आचार्य जी चित्र पर कविता बड़ी मन मोहिनी है - चित्र की मनमोहिनी की भांति .....

सादर,
कनु

santosh kumar bhauwala ने कहा…

Santosh Bhauwala


आदरणीय सलिल जी ,

चित्र पर रचना बहुत अच्छी लगी ,बड़ी मनोहर !!

संतोष भाऊवाला

mukesh shrivastav ने कहा…

Mukesh Srivastava, kavyadhara


ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने

छा गए संजीव जी .....

ढेर सराहना स्वीकारे ,

सादर,
मुकेश

Pranava Bharti ने कहा…

Pranava Bharti


संजीव जी रहते छाये हैं सदा ,
मनभावन उनका सब लिखा।
हम शत शत वन्दन करते हैं ,
सम्मान समर्पित करते हैं।
आगे ही आगे बढ़ें सदा ,
हम यही प्रार्थना करते हैं।
अनेकानेक साधुवाद
सादर
प्रणव

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

आत्मीय दिद्दा, दीप्ति जी, प्रणव जी, कनु जी, संतोष जी, मुकेश जी,
आपकी गुणग्राहकता और उदारता को सादर नमन

Mamta Sharma द्वारा yahoogroups.com 6:03 pm (0 मिनट पहले) ekavita आदरणीय सलिल जी यह ही वह रचना है जिसके बारे में मैने पूछा है , मेरे लिए बिलकुल नए प्रकार का अनुभव है . आप के द्वारा ही ये पता लग सकता है की येकिस प्रकार का छंद है।इसके पश्चात् भी एक और निवेदन , आप से ये भी जानने की इच्छा है की मात्राऒ की गणना किसी दोहे में या छंद में कैसे की जाए, जानती हूँ आपको कष्ट दे रही हूँ मगर अगर नहीं पूछा तो कभी भी पता नहीं चलेगा , ने कहा…

Mamta Sharma


आदरणीय सलिल जी यह ही वह रचना है जिसके बारे में मैने पूछा है , मेरे लिए बिलकुल नए प्रकार का अनुभव है . आप के द्वारा ही ये पता लग सकता है की येकिस प्रकार का छंद है।इसके पश्चात् भी एक और निवेदन , आप से ये भी जानने की इच्छा है की मात्राऒ की गणना किसी दोहे में या छंद में कैसे की जाए, जानती हूँ आपको कष्ट दे रही हूँ मगर अगर नहीं पूछा तो कभी भी पता नहीं चलेगा ,

dks poet ekavita ने कहा…

dks poet

ekavita


आदरणीय सलिल जी,
छंदों में आपका कोई सानी नहीं। बधाई स्वीकारें।
सादर

धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

Mahipal Tomar ने कहा…

Mahipal Tomar द्वारा yahoogroups.com
ekavita


ऋतुराज मनोहर ,प्रीत धरोहर ,
लहरें सिहरें ,भँवरें संवरें ,
स्नेह सरोवर ,गवती सोहर,
अमुआ ,महुआ की मदमाती गंध ,
अमराई-पनघट ,नैन मिलाई मंच ।

मन मुग्ध हो गया ,ऐसा सरस ,सजग
चित्रण पढ़ कर ,बार बार बधाई ,संजीव जी ,
आपकी कलम के कमाल में
एक और पन्ना जुड़ गया इस " त्रिभंगी सलिला "
के श्रजन से ।

महिपाल ,14 फरवरी 2013

achal verma ने कहा…

achal verma

मुझे
आ. आचार्य जी,
ये मधुर त्रिभन्गी रास आइ,
अधरों पर लेकर हास आइ
हैं प्रकृति नटी के रूप कई
सब ही सुन्दर आनन्द मई॥


अचल वर्मा

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

अचल जी, महिपाल जी, सज्जन जी

जो पढ़े तिरंगी मन बहुरंगी होकर झूमे, नृत्य करे.
बिसराए पस्ती, पल-पल मस्ती, हास-लास शुचि पंथ वरे..
छंदों का गायन, कर पारायण, आत्मानान्दित हो विचरे.
वैरागी रागी, हो अनुरागी, कंकर शंकर बन संवरे..

Santosh Bhauwala ने कहा…

Santosh Bhauwala द्वारा yahoogroups.com
आदरणीय भैया कमल जी ,छंद का तो मुझे ज्ञान नहीं पर रचना पढ़ कर मजा आ गया । अति उत्तम शब्द शिल्प !!

संतोष भाऊवाला

sanjiv verma 'salil' ने कहा…

दादा
बधाई. प्रथम दो पंक्तियाँ त्रिभ्नागी की लय को साध सकी हैं. कृपया इसी लय पर अन्य पंक्तियों में परिवर्तन कर सकें तो निर्दोष छन्द की रचना आनंद देगी.