कविता:
'दुलारते शब्द'
'दुलारते शब्द'
दीप्ति गुप्ता

शब्द तुम्हारे अथाह प्यार में सीझे
मुझे दुलारते, हौले
से छूते, पूछते
‘कैसी हो....ठीक तो हो न.......?’
अपना खूब ख्याल
रखना...!’
ये शब्द मेरे जीने
का कितना बड़ा सहारा है
कोई मुझसे जाने,
कोई मुझसे पूछे
मैं तुम्हारे शब्दों से झरते प्यार में तर,
मिठास में डुबक,
निशब्द
मुस्कुरा के रह
जाती हूँ
मेरी उस मगन
खामोशी को
तुम पास हो या दूर हो,,
न जाने कैसे
पढ़ लेते हो...!
और समझ लेते हो
मेरे महीन से महीनतर
सुकुमार से
सुकुमारतर मदिर, मधुर एहसासों को
सहमती हूँ, डरती
हूँ कि इन्हें
न लग जाए मेरी ही
नज़र !

मेरे मन में बसी
प्यार की 'मनस-झील'
तुम्हारे एकनिष्ठ लाड-दुलार
से भरती जाती है
पल-पल छिन-छिन, टुप-टुप, टिप-टिप
प्यार में खोई - मौन
साधना में लीन
उस सघन झील में तुम
कभी भी
हरहरा कर बहते
अपने प्यार का छींटा
कहीं से भी इस
तेज़ी से उछाल देते हो कि
अपनी दुनिया में खोई निशब्द, निस्पंद
वो मनस-झील सिहर उठती है
और कम्पायमान रहती
है, बहुत लम्बे समय तक
तुम्हारे प्यार का
छींटा इतना ऊर्जित और सशक्त है
इस झील को गहरे तक
तरंगायित करने के लिए
गर, किसी दिन
तुमने ढेर प्यार एकसाथ उड़ेल दिया तो
ये अपने कूल तोड
कर ओर-छोर न बह निकले....
तब मैं कैसे
सम्हालूंगी ‘इसे ’, ‘अपने को’ और
तुम पर उमड़े
अपने ‘प्यार को ’.......!.
मैं अक्सर सोचती
हूँ और सोचती रह जाती हूँ
और तुम्हारे प्यार
में डूबती जाती हूँ........!!


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