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मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

janmdin

हास्य कविता:

जन्म दिन

*























*
पत्नी जी के जन्म दिवस पर, पति जी थे चुप-मौन.
जैसे उन्हें न मालुम है कुछ, आज पधारा कौन? 

सोचा तंग करूँ कुछ, समझीं पत्नी: 'इन्हें न याद. 
पल में मजा चखाती हूँ, भूलेंगे सारा स्वाद'..

बोलीं: 'मैके जाती हूँ मैं, लेना पका रसोई. 
बर्तन करना साफ़, लगाना झाड़ू, मदद न कोई..'

पति मुस्काते रहे, तमककर की पूरी तैयारी. 
बाहर लगीं निकलने तब पति जी की आयी बारी..

बोले: 'प्रिय! मैके जाओ तुम, मैं जाता ससुराल.
साली-सासू जी के हाथों, भोजन मिले कमाल..'

पत्नी बमकीं: 'नहीं ज़रूरत तुम्हें वहाँ जाने की. 
मुझको पता पता है, छोडो आदत भरमाने की..'

पति बोले: 'ले जाओ हथौड़ी, तोड़ो जाकर ताला.'
पत्नी गुस्साईं: 'ताला क्या अकल पे तुमने डाला?'

पति बोले : 'बेअकल तभी तो तुमको किया पसंद.'
अकलवान तुम तभी बनाया है मुझको खाविंद..''

पत्नी गुस्सा हो जैसे ही घर से बाहर  निकली. 
द्वार खड़े पीहरवालों को देख तबीयत पिघली..

लौटीं सबको ले, जो देखा तबियत थी चकराई. 
पति जी केक सजा टेबिल पर रहे परोस मिठाई..

'हम भी अगर बच्चे होते', बजा रहे थे गाना. 
मुस्काकर पत्नी से बोले: 'कैसा रहा फ़साना?' 

पत्नी झेंपीं-मुस्काईं, बोलीं: 'तुम तो मक्कार.'
पति बोले:'अपनी मलिका पर खादिम है बलिहार.' 

साली चहकीं: 'जीजी! जीजाजी ने मारा छक्का. 
पत्नी बोलीं: 'जीजा की चमची! यह तो है तुक्का..'

पति बोले: 'चल दिए जलाओ, खाओ-खिलाओ केक. 
गले मिलो मुस्काकर, आओ पास इरादा नेक..

पत्नी घुड़के: 'कैसे हो बेशर्म? न तुमको लाज.
जाने दो अम्मा को फिर मैं पहनाती हूँ ताज'.. 

पति ने जोड़े हाथ कहा:'लो पकड़ रहा मैं कान.
ग्रहण करो उपहार सुमुखी हे! रहे जान में जान..'

***
१६-१०-२०१० 
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

सोमवार, 5 दिसंबर 2016

dohanjali

दोहांजलि
*
जयललिता-लालित्य को
भूल सकेगा कौन?
शून्य एक उपजा,
भरे कौन?
छा गया मौन.
*
जननेत्री थीं लोकप्रिय,
अभिनेत्री संपूर्ण.
जयललिता
सौन्दर्य की
मूर्ति, शिष्ट-शालीन.
*
दीन जनों को राहतें,
दीं
जन-धन से खूब
समर्थकी जयकार में
हँसीं हमेशा डूब
*
भारी रहीं विपक्ष पर,
समर्थकों की इष्ट
स्वामिभक्ति
पाली प्रबल
भोगें शेष अनिष्ट
*
कर विपदा का सामना
पाई विजय विशेष
अंकित हैं
इतिहास में
'सलिल' न संशय लेश


***

doha

दोहा सलिला-
कवि-कविता
*
जन कवि जन की बात को, करता है अभिव्यक्त
सुख-दुःख से जुड़ता रहे, शुभ में हो अनुरक्त
*
हो न लोक को पीर यह, जिस कवि का हो साध्य
घाघ-वृंद सम लोक कवि, रीति-नीति आराध्य
*
राग तजे वैराग को, भक्ति-भाव से जोड़
सूर-कबीरा भक्त कवि, दें समाज को मोड़
*
आल्हा-रासो रच किया, कलम-पराक्रम खूब
कविपुंगव बलिदान के, रंग गए थे डूब
*
जिसके मन को मोहती, थी पायल-झंकार
श्रंगारी कवि पर गया, देश-काल बलिहार
*
हँसा-हँसाकर भुलाई, जिसने युग की पीर
मंचों पर ताली मिली, वह हो गया अमीर
*
पीर-दर्द को शब्द दे, भर नयनों में नीर
जो कवि वह होता अमर, कविता बने नज़ीर
*
बच्चन, सुमन, नवीन से, कवि लूटें हर मंच
कविता-प्रस्तुति सौ टका, रही हमेशा टंच
*
महीयसी की श्रेष्ठता, निर्विवाद लें मान
प्रस्तुति गहन गंभीर थी, थीं न मंच की जान
*
काका की कविता सकी, हँसा हमें तत्काल
कथ्य-छंद की भूल पर, हुआ न किन्तु बवाल
*
समय-समय की बात है, समय-समय के लोग
सतहीपन का लग गया, मित्र आजकल रोग
*

रविवार, 4 दिसंबर 2016

muktika

कार्यशाला
मुक्तिका
दिल लगाना सीखना है आपसे
२१२२ २१२२ २१२
*
दिल लगाना सीखना है आपसे
जी चुराना सीखना है आपसे
*
वायदे को आप जुमला कह गए
आ, न आना सीखना है आपसे
*
आस मन में जगी लेकिन बैंक से
नोट लाना सीखना है आपसे
*
बस गए मन में निकलते ही नहीं
हक जमाना सीखना है आपसे
*
देशसेवा कर रहे हम भी मगर
वोट पाना सीखना है आपसे
*
सिखाने के नाम पर ले सीख खुद
गुरु बनाना सीखना है आपसे
*
ध्यान कर, कुछ ध्यान ही करना नहीं
ध्येय ध्याना सीखना है आपसे
*  
मूँद नैना, दिखा ठेंगा हँस रहे
मुँह बनाना सीखना है आपसे
*  
आह भरते देख, भरना आह फिर
आजमाना सीखना है आपसे
*****

गीत

एक रचना * आकर भी तुम आ न सके हो पाकर भी हम पा न सके हैं जाकर भी तुम जा न सके हो करें न शिकवा, हो न शिकायत * यही समय की बलिहारी है घटनाओं की अय्यारी है हिल-मिलकर हिल-मिल न सके तो किसे दोष दे, करें बगावत * अपने-सपने आते-जाते नपने खपने साथ निभाते तपने की बारी आई तो साये भी कर रहे अदावत * जो जैसा है स्वीकारो मन गीत-छंद नव आकारो मन लेना-देना रहे बराबर इतनी ही है मात्र सलाहत * हर पल, हर विचार का स्वागत भुज भेंटो जो दर पर आगत जो न मिला उसका रोना क्यों? कुछ पाया है यही गनीमत ***

आपने वोट किया है अतः आप परिणाम जानने के अधिकारी हैं

आदरणीय दोस्तो
विवेक के अभिवादन
    आप जानते हैं कि  इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के काउंसिल मेम्बर के चुनाव में  मै मित्रो के आग्रह पर आप सब के सहयोग से इस उद्देश्य से खड़ा हुआ था कि एक नई उर्जा का संचार संस्था में किया जावे तथा समाज में इंजीनियर्स को प्रतिष्ठित महत्वपूर्ण स्थान मिले तथा इंस्टीट्यूशन की गतिविधियो को समाजोन्मुख बनाया जावे . मैने पूरे इलेक्शन के निर्धारित समय काल में बार बार आप सब से ई संपर्क किया , आपके प्रत्युत्तरो से लगा कि ज्यादातर सदस्य मेरे प्रस्ताव से सहमत हैं .
    दिनांक १७ नवम्बर २०१६  को मतो की गणना की गई , मैने तब से मेल व फोन से बार बार चुनाव परिणाम जानने के लिये कलकत्ता मुख्यालय मे संबंधितो से संपर्क किया किन्तु वेबसाइट व मोबाइल के इस समय में भी इंजीनियर्स की शीर्ष संस्था जिसने देश में सर्वप्रथम ई वोटिंग की प्रक्रिया अपनाई है , ने अब तक चुनाव परिणाम गुप्त रखे हैं यह आश्चर्यकारी है , व इंगित करता है कि चुनाव प्रक्रिया में संशोधन तथा पारदर्शिता की जरूरत है . मुझे अब तक इंस्टीट्यूशन से चुनाव परिणाम के संबंध में कोई सूचना नही दी गई है . अन्य जो उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे उनमें से किसी से ज्ञात हुआ कि मेरा नाम विजयी सदस्यो में शामिल नहीं है .
        मैं हृदय से उन दोस्तो का आभार व्यक्त करना चाहता हूं जिन्होने मुझ पर विश्वास व्यक्त किया .मैं प्रतिबद्धता व्यक्त करना चाहता हूं कि फैलो सदस्य के रूप में मैं संस्था  व इंजीनियर्स की प्रतिष्ठा हेतु निरंतर कार्य करता रहूंगा , आप से निवेदन है कि इस दिशा में निसंकोच मेरे संपर्क में रहें .
यदि उचित समझें तो hcsberry@rediffmail.com अध्यक्ष बोर्ड आफ स्क्रुटिनर को लेख करते हुये प्रतिलिपि मुझे व sdg@ieindia.in को चुनावो में पारदर्शिता व गणना के तुरंत बाद चुनाव परिणाम घोषित करने व इस बार के चुनाव परिणाम जानने हेतु मेल करने का कष्ट करें .
मित्रो आपने वोट किया है अतः आप परिणाम जानने के अधिकारी हैं , मै चुनाव में उम्मीदवार था अतः मुझे कितने वोट मिले यह जानना मेरा नैसर्गिक अधिकार है . हमारी संस्था क्यो हमारे इन सहज अधिकारो का हनन कर रही है यह संदिग्ध है .

विवेक रंजन श्रीवास्तव


शनिवार, 3 दिसंबर 2016

गीत

एक रचना
*
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
हँसने की चाहत में मनुआ
कभी न खुलकर कहीं रो सका
*
लोक-लाज पग की बेड़ी बन
रही रोकती सदा रास्ता
संबंधों के अनुबंधों ने
प्रतिबंधों का दिया वास्ता
जिया औपचारिकताओं को
अपनापन ही नहीं बो सका?
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*
जाने कब-क्यों मन ने पाली
चाहत ज्यों की त्यों रहने की?
और करी जिद अनजाने ही
नेह नर्मदा बन बहने की
नागफनी से प्रलोभनों में
फँसा, दाग कब-कभी धो सका?
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*
कंगूरों की करी कल्पना,
नीवों की अनदेखी की है
मन-अभियंता, तन कारीगर
सुरा सफलता की चाही है
इसकी-उसकी नींद उड़ाकर
नैन मूँद कब कभी सो सका
जो पाना था,
नहीं पा सका
जो खोना था,
नहीं खो सका
*

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

samyik rachna

सामयिक रचना

चलचित्रागार में राष्ट्रगान क्यों?

राष्ट्रगीत का गान गर्व अनुभूति कराता
भारतीय हम एक हमेशा याद कराता
जन-मन-रंजन हित चलचित्र बनाये जाते
समय पूर्व हम पहुँच व्यर्थ ही समय गँवाते
राष्ट्रीय कानों में गूँजे हो सर ऊँचा
देश प्रेम गर नहीं झुकेगा मस्तक नीचा
बच्चों के कच्चे मन पर यह अंकित होगा
जो न रखेगा मान देश का दण्डित होगा
लगे कैमरे चित्र खींच लें, दोष बतायें
नागरिकों को फर्ज़ सदा हो याद कराएँ
ऊँच-नीच को मिटा करे स्थापित समता
मालिक नौकर हों न दूर, पल पाए ममता
स्त्री-पुरुष,धनी-निर्धन सब एक साथ मिल
देश गीत गुंजायें भारत मान जाए खिल
*
Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

muktak


कार्यशाला-
एक मुक्तक
*
तुम एक सुरीला मधुर गीत, मैं अनगढ़ लोकगीत सा हूँ 
तुम कुशल कलात्मक अभिव्यंजन, मैं अटपट बातचीत सा हूँ - फौजी
तुम वादों को जुमला कहतीं, मैं जी भर उन्हें निभाता हूँ
तुम नेताओं सी अदामयी, मैं निश्छल बाल मीत सा हूँ . - सलिल
****
आप प्रथम दो पंक्तियों का आधार लेकर मुक्तक को अपनी पंक्तियों से टिप्पणी में पूर्ण करें

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

geet

एक रचना
अनाम
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
***

chhand

रसानंद दे छंद नर्मदा ​ ​५६ :

​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन / सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता / शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ गीता छंद ​से
गीता छंद
*
छंद-लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद - मात्रा २६ मात्रा, यति १४ - १२, पदांत गुरु लघु.
लक्षण छंद:
चौदह भुवन विख्यात है, कुरु क्षेत्र गीता-ज्ञान
आदित्य बारह मास नित, निष्काम करे विहान
अर्जुन सदृश जो करेगा, हरि पर अटल विश्वास
गुरु-लघु न व्यापे अंत हो, हरि-हस्त का आभास
संकेत: आदित्य = बारह
उदाहरण:
१. जीवन भवन की नीव है , विश्वास- श्रम दीवार
दृढ़ छत लगन की डालिये , रख हौसलों का द्वार
ख्वाबों की रखें खिड़कियाँ , नव कोशिशों का फर्श
सहयोग की हो छपाई , चिर उमंगों का अर्श
२. अपने वतन में हो रहा , परदेश का आभास
अपनी विरासत खो रहे , किंचित नहीं अहसास
होटल अधिक क्यों भा रहा? , घर से हुई क्यों ऊब?
सोचिए! बदलाव करिए , सुहाये घर फिर खूब
३. है क्या नियति के गर्भ में , यह कौन सकता बोल?
काल पृष्ठों पर लिखा क्या , कब कौन सकता तौल?
भाग्य में किसके बदा क्या , पढ़ कौन पाया खोल?
कर नियति की अवमानना , चुप झेल अब भूडोल।
४. है क्षितिज के उस ओर भी , सम्भावना-विस्तार
है ह्रदय के इस ओर भी , मृदु प्यार लिये बहार
है मलयजी मलय में भी , बारूद की दुर्गंध
है प्रलय की पदचाप सी , उठ रोक- बाँट सुगंध
*********

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
**********************

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
***********************

navgeet

नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
***

navgeet

नवगीत:
रस्म की दीवार
करती कैद लेकिन
आस खिड़की 
रूह कर आज़ाद देती
सोच का दरिया
भरोसे का किनारा
कोशिशी सूरज
न हिम्मत कभी हारा
उमीदें सूखी नदी में
नाव खेकर
हौसलों को हँस
नयी पतवार देती
हाथ पर मत हाथ
रखकर बैठना रे!
रात गहरी हो तो
सूरज लेखना रे!
कालिमा को लालिमा
करती विदा फिर
आस्मां को
परिंदा उपहार देती
*

navgeet

नवगीत:
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ को
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में न
दावानल दहे
ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे
***
जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएँ 
आदरणीया लावण्य शर्मा शाह को 
*
उमर बढ़े बढ़ते रहे ओज, रूप, लावण्य 
हर दिन दिनकर दे नए सपने चिर तारुण्य 
सपने चिर तारुण्य विरासत चिरजीवी हो
पा नरेंद्र-आशीष अमर मन मसिजीवी हो
नमन 'सलिल' का स्वीकारें पा करती-यश अमर
चिरतरुणी हों आप असर दिखाए ना उमर
***

shubhkamna

जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएं 
अप्रतिम तेवरीकार अभियंता दर्शन कुलश्रेष्ठ 'बेजार' को 
*
दर्शन हों बेज़ार के, कब मन है बेजार 
दो हजार के नोट पर, छापे यदि सरकार 
छापे यदि सरकार, देखिएगा तब तेवर
कवि धारेगे नोट मानकर स्वर्णिम जेवर
सुने तेवरी जो उसको ही नोट मिलेगा
और कहे जो वह कतार से 'सलिल' बचेगा
***

geet

गीत:

पहले जीभर.....

संजीव 'सलिल' 
*
पहले जीभर लूटा उसने,
फिर थोड़ा सा दान कर दिया.
जीवन भर अपमान किया पर
मरने पर सम्मान कर दिया.....
*
भूखे को संयम गाली है,
नंगे को ज्यों दीवाली है.
रानीजी ने फूँक झोपड़ी-
होली पर भूनी बाली है..
तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?
भूखों को नीलाम कर दिया??
*
कौन किसी का यहाँ सगा है?
नित नातों ने सदा ठगा है.
वादों की हो रही तिजारत-
हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..
जिसने यह कटु सच बिसराया
उसका काम तमाम कर दिया...
*
जो जब सत्तासीन हुआ तब
'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.
धनी अधिक धन जोड़ रहा है-
निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..
लोकतंत्र में लोभतंत्र ने
खोटा सिक्का खरा कर दिया...
**********