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गुरुवार, 25 सितंबर 2014

kaljayee kavita: sarveshwar dayal saxena


कालजयी कविता 


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 
*
इस दुनिया में
आदमी की जान से बड़ा 

कुछ भी नहीं है
न ईश्‍वर
न ज्ञान
न चुनाव
न संविधान

इसके नाम पर 

कागज पर लिखी 
कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्‍धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्‍दूक की नली से
हत्‍यारों 
का धन्‍धा है ( हथियारों )

यदि तुम यह नहीं मानते 
तो मुझे एक क्षण भी 
तुम्‍हें नहीं सहना है 
एक बच्‍चे की हत्‍या 
एक औरत की मौत 
एक आदमी का गोलियों से चिथड़ा तन 
किसी शासन का नहीं 
सम्‍पूर्ण राष्‍ट्र का है पतन 
ऐसा खून बहकर 
धरती में जज्‍ब नहीं होता 
आकाश में फहराते झण्‍डों को 
थामा करता है 

जिस धरती पर 
फौजी बूटों के निशान हों 
और उन पर लाशें गिर रही हो 
वह धरती 
यदि तुम्‍हारे खून में आग बनकर नहीं दौड़ती 
तो समझ लो 
तुम बंजर हो गये हो 
तुम्‍हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार 
तुम्‍हारे लिए नहीं रहा यह संसार 

आखिरी बात 
बिल्‍कुल साफ 
किसी भी हत्‍यारे को 
कभी मत करो माफ 
चाहे हो वह तुम्‍हारा यार 
धर्म का ठेकेदार 
चाहे लोकतंत्र का स्‍वनामधन्‍य पहरेदार 
***

बुधवार, 24 सितंबर 2014

navgeet: sanjiv

नवगीत  
संजीव
*
इसरो को शाबाशी 
किया अनूठा काम 

'पैर जमाकर 
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में' 
कहा कभी 
न्यूटन ने 
सत्य किया 
इसरो ने 

पैर रखे 
धरती पर 
नभ छूते अरमान 
एक छलाँग लगाई 
मंगल पर 
है यान 

पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम 

अभियंता-वैज्ञानिक 
जाति-पंथ 
हैं भिन्न 
लेकिन कोई 
किसी से 
कभी न 
होता खिन्न 

कर्म-पुजारी 
सच्चे 
नर हों या हों नारी 
समिधा 
लगन-समर्पण 
देश हुआ आभारी 

गहें प्रेरणा हम सब 
करें विश्व में नाम 
** 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
पानी-पानी
हुए बादल

आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल

कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर

तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर

त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल

जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और

खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल

***



nav geet: sanjiv

 नवगीत:

असत कथा को
सत्य नारायण 
कह बाँचे पंडित

जो पढ़ता पंडित 
कब करता?
बिना भोग कब
 देव पिघलता?

महिमा गाते 
जिन मूल्यों की 
आप करें खंडित 

नहीं तनिक 
है शेष विराग
विधवा मन 
पर चाह सुहाग  

वैदिक सच तज 
क्यों पुराण में 
असत हुआ मंडित 

*

bal kavita: sanjiv


बाल कविता :
भय को जीतो 
संजीव 
*
बहुत पुरानी बात है मित्रों!
तब मैं था छोटा सा बालक। 
सुबह देर से उठना 
मन को भाता था। 

ग्वाला लाया  दूध 
मिला पानी तो  
माँ ने बंद कर दिया 
लेना उससे।

निकट खुली थी डेरी 
कहा वहीं से लाना।
जाग छह बजे 
निकला घर से 
डेरी को मैं 
लेकर आया दूध 
मिली माँ से शाबाशी। 

कुछ दिन बाद 
अचानक 
काला कुत्ता आया 
मुझे देख भौंका 
डर कर 
मैं पीछे भागा। 
सज्जन एक दिखे तो 
उनके पीछे-पीछे गया, 
देखता रहा 
न कुत्ता तब गुर्राया।

घर आ माँ को 
देरी का कारण बतलाया 
माँ बोली: 
'जो डरता है 
उसे डराती सारी दुनिया। 
डरना छोड़ो,
हिम्मत कर 
मारो एक पत्थर। 
तब न करेगा 
कुत्ता पीछा। 

अगले दिन 
हिम्मत कर मैंने  
एक छड़ी ली और 
जेब में पत्थर भी कुछ। 
ज्यों ही कुत्ता दिखा 
तुरत मारे दो पत्थर। 
भागा कालू पूँछ दबा
कूँ कूँ कूँ कूँ कर। 

घर आ माँ को 
हाल बताया  
माँ मुस्काई,
सर सहलाया
बोली: 'बनो बहादुर तब ही 
दुनिया देगी तुम्हें रास्ता।'
*** 

navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव 
*
अँगना सूना 
बिन गौरैया 

उषा उदास 
न कलरव बाकी 
गुमसुम है 
मुँडेर वह बाँकी 
शुक-शिशु 
करे न 
ता-ता-थैया 

चुग्गा-दाना 
किसे खिलायें?
कौन कीट का
भोग लगाये  
कौन चुगे कृमि 
बेकल गैया 

संझा बेकल 
खिड़की सूनी 
कल खो गयी 
बेकली दूनी 
गुम पछुआ 
पुरवैया 

-------

geet: gopal baghel

गोपाल बघेल 'मधु'
Gopal Baghel 'Madhu'
Greetings and gratitude with today's poem
७ जुलाई २०१४ सोमवार ०९:०९
आपकी आज की शुभकामनाओं के
शुभाशीष से सृजित अभी २ की कविता
ढाल कर पुष्प प्राणो में
ढाल कर पुष्प प्राणो में, भरे तानों वितानों में;
विचर पृथ्वी की अँगड़ाई, अखिल सौग़ात जग पाई ।
लगा हर प्राण मन भाया, तरंगित होके उर आया;
लिये झोंके में सुर मेरा, बहा आकाश स्वर प्रेरा ।
जन्म दिन जीव हर उमगा, रहा सुलगा प्रकृति संग गा;
भरा पूरा जगत उसका, रहा पुलका झलक ढ़ुलका ।
वत्स मुझको बना जग में, पुनः नव चेतना में ले ;
गोद भूमा बिठा पल में, ज्योति की श्वेत चादर में ।
'मधु' जीवन नया पाया, स्वजन बन निकट वह आया;
धमनियों औ सुष्मना में, प्रदीप्तित ओज आभा में ।
To:Sanjiv Verma,

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

shaheed kanak lata baruaa: mridula sharma





अमर शहीद कनकलता बरुआ ( जन्म- 22 दिसंबर, 1924; शहादत- 20 सितम्बर, 1942) भारत की ऐसी शहीद पुत्री थीं, जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिलीं। मात्र 18 वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं। एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया था। तिरंगा फहराने आई हुई भीड़ पर गोलियाँ दागी गईं और यहीं पर कनकलता बरुआ ने शहादत पाई।
एक गुप्त सभा में 20 सितंबर, 1942 ई. को तेजपुर की कचहरी पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया। कनकलता आत्म बलिदानी दल की सदस्या थीं। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा थामे कनकलता उस जुलूस का नेतृत्व कर रही थीं। कनकलता शेरनी के समान गरज उठी- "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?" ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुँजाती हुई थाने की ओर बढ़ चलीं। आत्म बलिदानी जत्था थाने के क़रीब जा पहुँचा। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। उस जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड़-सी मच गई। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। थाने का प्रभारी पी. एम. सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा- "हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।"
पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। गोली बोगी कछारी नामक सिपाही ने चलाई थी। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियाँ चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए। उन युवकों के मन में स्वतंत्रता की अखंड ज्योति प्रज्वलित थी, जिसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढ़ते गए। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का तिरंगा झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ़ गया। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया गया
शहीद मुकंद काकोती के शव को तेजपुर नगरपालिका के कर्मचारियों ने गुप्त रूप से दाह–संस्कार कर दिया, किंतु कनकलता का शव स्वतंत्रता सेनानी अपने कंधों पर उठाकर उसके घर तक ले जाने में सफल हो गए। उसका अंतिम संस्कार बांरगबाड़ी में ही किया गया। अपने प्राणों की आहुति देकर उसने स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक मजबूती लाई। स्वतंत्रता सेनानियों में उसके बलिदान से नया जोश उत्पन्न हुआ। इस तरह अनेक बलिदानियों का बलिदान हमारी स्वतंत्रता की नींव के पत्थर हैं। उनके त्याग और बलिदान की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता रूपी भवन खड़ा है। बांरगबाड़ी में स्थापित कनकलता मॉडल गर्ल्स हाईस्कूल जो कनकलता के आत्म–बलिदान की स्मृति में बनाया गया है, आज भी यह भवन स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रेरणा दे रहा है।

maa ki mahima : pawan pratap sinh rajput

::::: माँ के नौ रूपों का वर्णन - छन्द सवैया :::::

पवन प्रताप सिंह राजपूत 

चन्द्रप्रभा सम वर्ण अलौकिक, रूप अतुल्य सुरंजनकारी।

नाम रटे जग शैलपुत्री गिरि, राज हिमालय की सुकुमारी।
पंकज वाम भुजा कर दाहिनि, सोहत तेज त्रिशूल सँहारी।
शम्भु प्रिया जग की जननी तुम, हो करती वृष नंदि सवारी।

जन्म लिया पहला तब भी सति, शंकर की बनि पत्नी दुलारी।
गावत है गुन तोरि विरंचि, नरायण संग सदा त्रिपुरारी।
कानन जीव सदा रहते सुख, से रहती अनुकम्पा तुम्हारी।
सौरभ संकट में जब हो तुम, ही करुणा करना महतारी ।
(प्रथम रूप : माँ शैलपुत्री)

दुष्कर ताप लगी करने तपचारिणि शंकर को वरने को।
शाक अहार किया जल के बिन, भी रह ली न डरी मरने को।
शीश नवावत है नर जो पद, मात तपश्विनी की धरने को।
संयम बुद्धि बढ़ावत माँ चलि, आवत व्याधि सभी हरने को 
(द्वितीय रूप : माँ ब्रह्मचारिणी)

घंट अकार विराजत है शशि, भाल त्रिलोक करे उजियारी।
अद्भुत रूप सुवर्ण की भाँति, बलिष्ठ भयानक बाघ सवारी।
दस्सभुजा शर-चाप, त्रिशूल, गदा, असि आदि अनेककटारी।
राक्षस को यम लोक पठावत, भक्तन की करती रखवारी ।

ध्यावत जो जननी तुमको नव, रात्रि तृतीय दिवानर-नारी।
बुद्धि विवेक चिरायु मिले दुख, दूर रहे बन जाएँ सुखारी।
काज अमंगल हो न कभी जब, माँ सँग होवत मंगलकारी।
सौरभ स्वच्छ रखो मन को यह, मात त्रिनेत्रि सदा हितकारी।। 
(तृतीय रूप : माँ चन्द्रघण्टा)

सृष्टि नहीं जब थी तब था चहु ओर अमावस-सा तम छाया।
माँ प्रगटी फिर दिव्य प्रकाश लिये अतिमद्धमसे मुसकाया।
चन्द्र दिवाकर नौ ग्रह को गढ़ के सगरे ब्रह्मांड बनाया।
नाम उसी दिन से तुमरो जननी जग की कुषमांड धराया।।
(चतुर्थ रूप : माँ कुष्माण्डा)

पद्म विराजत वाहन शेर चतुर्भुज दो कर नीरज भाता।
श्वेत शरीर शिखा-नख से रमणीय छबी मन को हरषाता।
राखत हो निज गोद तले तुम स्कन्द कुमार छुपाकर माता।
पूजन पंचम को करता भक्त जो मनवाँछित वो फल पाता।।
(पंचम् रूप : माँ स्कन्ध माता)

सिंह सवार सुसज्जित रूप मनोहर आनन की सुघराई।
तात ऋषी कति आयन हैं कात्यायनी हो इस हेतु कहाई।
चार भुजा असि फूल सुवस्तिक आशिष की मुदरा धरि माई।
दानव पापिन को रण में यमलोक सँहार सदैव पठाई।

वैदिक काल हुआ महिषासुर राक्षस था खल जो अन्यायी।
नाशन हेतु उसे ऋषियों सब के हर काज सँवारन आयी।
ध्यान छठे नवरात दिवा कात्यायिनी की अति है फलदायी।
रोग भगावत कष्ट निवारत होत सहाई बड़ी सुखदायी।
(षष्टम् रूप : माँ कात्यायनी)

राक्षसहीन धरा करने जग में अवतार लिया महतारी।
यद्यपि रूप भयानक है फिर भी यह है अति मंगलकारी।
सप्त दिवा नवरातर के करती दुनिया यह पूजन सारी।
मुक्त करे सगरे भय से हरती निज भक्तन का दुख भारी।।

रूप भयानक रैन अमावस के जितना दिखता तन काला।
केस घने बिखरे गर राक्षस मुण्डन की पहनी तुममाला।
चार भुजा दुई अस्त्र तथा दुई अभ्य मुद्रा वरआशिष वाला।
गर्दभ आरुढ़ त्रीनयनी मुख घ्राण निरन्तर आवत ज्वाला। 
(सप्तम् रूप : माँ कालरात्रि)

दुग्ध सरेख शरीर शशांक लजावत मातु की उज्जवलताई।
हाथ त्रिशूल लिये डमरू वर की मुदरा अति दिव्य दिखाई।
ताप कठोर किया तब जा शिवशंकर की प्रिय तीय कहाई।
आठ बरीस मनीषि तथा कवि जीवन की कुल आयु बताई।

गौरी महा उर में बसती जिनके उनके सब दु:ख कटेहैं।
दोष निवारण होत उपस्थित जीवन के सब पाप हटे हैं।
उन्नति होत निरन्तर मान बढ़े यश वैभव नाहिं घटे हैं।
पूरित माँग करे नवरातर अष्टम भक्त जु नाम रटे हैं।
(अष्टम् रूप : माँ महागौरी) 

केहरि वाहन नीरज आसन मोहनि रूप हिया हरषाता।
शंख सरोज गदा अरु चक्र अतीव अलौकिकता दर्शाता।
साधक जो नवरातर के नववें दिन लीन हो ध्यान लगाता।
आठहुँ सिद्धि प्रदान करें उसको खुस हो करके यह माता।

आठहुँ सिद्धि मिले जिसको वह विश्व जितार मनुष्य कहावे।
नाहिं अगम्य रहे जग में कछु सृष्टि रहस्?

सोमवार, 22 सितंबर 2014

vimarsh: ucharan truti, maryada, vishwas -sanjiv

विमर्श: 
उच्चारण-त्रुटि दंडनीय क्यों???
संजीव 
*
भारत में विविध भाषा कुल के लोग हैं. वे सब अपनी मूलभाषा  का उच्चारण करते हैं. हम 'बीजिंग' को 'पीकिंग' कहते आये हैं. हमारे लिए 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' कहना, 'मास्टर साहब' को 'मास्साब' कहना सही है. 
पिछले दिनों वाचिका को 'Xi' को इलेवन पढ़ने पर नौकरी से अलग कर दिया गया. उन दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत में थे, उनके नाम का उच्चारण गलत हो गया तो अधिक से अधिक समाचार लेखक और वाचक को  स्पष्टीकरण पत्र देकर भविष्य में सतर्क रहने के लिए चेतावनी दी जा सकती थी. 
यहाँ समाचार वाचक का दोष नहीं है. उसने कागज पर जो देखा वह पढ़ा. 
क्या समाचार लिखनेवाले को  चीनी लिपि में 'Xi 'के स्थान पर देवनागरी में 'शी' नहीं लिखना था? यदि इस तरह लिखा होता तो त्रुटि नहीं होती। 
यह एक सामान्य मानवी त्रुटि है जिसे चर्चा कर भविष्य में सुधारा जा सकता है. यदि दंड देना जरूरी हो तो  समाचार लेखक को दिया जाए. हमारी नौकरशाही सबसे कमजोर कड़ी पर प्रहार करती है. प्रायः, समाचार लेखक स्थाई और वाचक अस्थायी होते हैं.

राजनय की मर्यादा 

विदेशियों को सर-आँखों पर बैठने की हमारी लत अब भी सुधरी नहीं है.  
पिछले दिनों चीन की पहली महिला ने पूर्वोत्तर की एक छात्रा से कहा 'वह चीनी है'. गनीमत है कि छत्रा सजग थी. उसने उत्तर दिया 'नहीं, मैं  भारतीय हूँ'. यदि घबड़ाहट में उसने 'हाँ' कह दिया होता तो क्या होता? चीनी नेता और हमारी प्रेस तूफ़ान खड़ा कर देते। 
​​
विस्मय कि हमारी सरकार ने इस पर आपत्ति तक नहीं की. भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी राष्ट्रीय गौरवभाव से दूर हैं,  पूर्वोत्तर  भरोसाः  है तभी तो इस दौरे में विवादस्पद अंचल के कर्मचारियों प्रांतीय सरकार, सांसदों विधायकों यहाँ तक कि एकमात्र केंद्रीय मंत्री तक को दूर रखा गया. यदि हम इन सबको चीनी राष्ट्राध्यक्ष के सामने लाते और वे एक स्वर से खुद को भारतीय बताते तो चीन का दावा  कमजोर होता। 

अविश्वास क्यों?:

कल्पना कीजिए की चीनी राष्ट्रपरि को गुजरात के स्थान पर पूर्वोत्तर राज्यों में ले जाया गया होता और वहां की लोकतान्त्रिक पद्धति से चुनी गयी सरकारें, जन प्रतिनिधि और जातीय मुखिय गण चीनी राष्ट्रपति को वही उत्तर देते जो दिल्ली की छात्रा ने दिया था तो क्या भारत का गौरव नहीं बढ़ता। निस्संदेह इसके लिए साहस और विश्वास चाहिए, कमी कहाँ है? मोदी जी के पास इन दोनों तत्वों की कमी नहीं है, कमी नौकरशाही में है जो शंका और अविश्वास अपनी सजगता मानती है और कमजोर को प्रताड़ित कर गौरवान्वित होती है.    

इन बिन्दुओं पर सोचना और अपनी राय मंत्रालयों और नेताओं की साइट से उन तकक्या पहुँचाना क्या हम नागरिकों  दायित्व नहीं है ? 
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

रविवार, 21 सितंबर 2014

shabana azami, kundli aur samman : vijay raj bali mathur

शबाना आज़मी को सम्मान क्यों? ---विजय राजबली माथुर



हिंदुस्तान,लखनऊ, 05 अप्रैल 2012 को प्रकाशित चित्र जो राष्ट्रपति महोदया  से  'पद्म भूषण'  लेते समय हिंदुस्तान,आगरा,03 जून,2007 को प्रकाशित कुंडली 

शीर्षक देख कर चौंके नहीं। मै शबाना आज़मी जी को पुरस्कार प्राप्त होने का न कोई विरोध कर रहा हू और न यह कोई विषय है। मै यहाँ आपको प्रस्तुत शबाना जी की जन्म कुंडली के आधार पर उन ग्रह-नक्षत्रो से परिचय करा रहा हूँ जो उनको सार्वजनिक रूप से सम्मान दिलाते रहते हैं।

शुक्र की महा दशा मे राहू की अंतर्दशा 06 मार्च 1985 से 05 मार्च 1988 तक फिर ब्रहस्पत की अंतर्दशा 05 नवंबर 1990 तक थी। इस दौरान शबाना आज़मी को 'पद्म श्री' पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी कुंडली मे पंचम भाव मे चंद्रमा,सप्तम भाव मे बुध,अष्टम भाव मे शुक्र और दशम भाव मे ब्रहस्पत स्व-ग्रही हैं। इन अनुकूल ग्रहो ने शबाना जी को कई फिल्मी तथा दूसरे पुरस्कार भी दिलवाए हैं। वह कई बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री भी इनही ग्रहो के कारण चुनी गई हैं। सूर्य और ब्रहस्पत की स्थिति ने उन्हे राजनीति मे भी सक्रिय रखा है। वह भाकपा की कार्ड होल्डर मेम्बर भी रही हैं। 06 नवंबर 1996 से 05 जनवरी 1998 तक वह शुक्र महादशा मे केतू की अंतर्दशा मे थीं तभी उन्हे राज्य सभा के लिए नामित किया गया था।

वर्तमान 'पद्म भूषण'पुरस्कार ग्रहण करते समय चंद्रमा की महादशा के अनर्गत शुक्र की अंतर्दशा चल रही है  जो 06 नवंबर 2011 से लगी है और 05 जूलाई 2013 तक रहेगी।* यह समय स्वास्थ्य के लिहाज से कुछ नरम भी हो सकता है। हानि,दुर्घटना अथवा आतंकवादी हमले का भी सामना करना पड़ सकता है। अतः खुद भी उन्हे सतर्क रहना चाहिए और सरकार को भी उनकी सुरक्षा का चाक-चौबन्द बंदोबस्त करना चाहिए। इसके बाद 29 नवंबर 2018 तक समय उनके अनुकूल रहेगा।

शबाना जी की जन्म लग्न मे राहू और पति भाव मे केतू बैठे हैं जिसके कारण उनका विवाह विलंब से हुआ। पंचम-संतान भाव मे नीच राशि का मंगल उनके संतान -हींन रहने का हेतु है। यदि समय पर 'मंगल' ग्रह की शांति कारवाई गई होती तो वह कन्या-संतान प्राप्त भी कर सकती थी। इसी प्रकार वर्तमान अनिष्टकारक समय मे 'बचाव व राहत प्राप्ति' हेतु उन्हें शुक्र मंत्र-"ॐ शु शुकराय नमः " का जाप प्रतिदिन 108 बार पश्चिम की ओर मुंह करके और धरती व खुद के बीच इंसुलेशन बना कर अर्थात किसी ऊनी आसन पर बैठ कर करना चाहिए।

कुछ तथाकथित प्रगतिशील और तथाकथित विज्ञानीज्योतिष की कटु आलोचना करते हैं और इसके लिए जिम्मेदार हैं ढ़ोंगी लोग जो जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ते हैं। ऐसे ही लोगो के कारण 'मानव जीवन को सुंदर,सुखद व समृद्ध'बनाने वाला ज्योतिष विज्ञान हिकारत की नजरों से देखा जाता है। ये ग्रह-नक्षत्र क्या हैं और इंनका मानव जीवन पर प्रभाव किस प्रकार पड़ता है यदि यह समझ आ जाये तो व्यक्ति दुखो व कष्टो से बच सकता है यह पूरी तरह उस व्यक्ति पर ही निर्भर है जो खुद ही अपने भाग्य का निर्माता है। जो भाग्य को कोसते हैं उनको विशेषकर नीचे लिखी बातों को ध्यान से समझना चाहिए की भाग्य क्या है और कैसे बंनता या बिगड़ता है-

सदकर्म,दुष्कर्म,अकर्म -का फल जो व्यक्ति अपने वर्तमान जीवन मे प्राप्त नहीं कर पाता है आगामी जीवन हेतु संचित रह जाता है। ये कर्मफल भौतिक शरीर नष्ट होने के बाद आत्मा के साथ-साथ चलने वाले कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर के साथ गुप्त रूप से चलते रहते हैं। आत्मा के चित्त पर गुप्त रूप से अंकित रहने के कारण ही इन्हे 'चित्रगुप्त' संज्ञा दी गई है। चित्रगुप्त ढोंगियों द्वारा बताया गया कोई देवता या कायस्थों का सृजक नहीं है।

कर्मानुसार आत्मा 360 डिग्री मे बंटे ब्रह्मांड मे (भौतिक शरीर छोडने के बाद ) प्रतिदिन एक-एक राशि मे भ्रमण करती है और सदकर्म,दुष्कर्म,अकर्म जो अवशिष्ट रहे थे उनके अनुसार आगामी जीवन हेतु निर्देश प्राप्त करती है। 30-30 अंश मे फैली एक-एक राशि के अंतर्गत सवा दो-सवा दो नक्षत्र आते हैं। प्रत्येक नक्षत्र मे चार-चार चरण होते हैं। इस प्रकार 12 राशि X 9 ग्रह =108 या 27 नक्षत्र X4 चरण =108 होता है। इसी लिए 108 को एक माला का क्रम माना गया है जितना एक बार मे जाप करना निश्चित किया गया है। इस जाप के द्वारा अनिष्ट ग्रह की शांति उच्चारण की तरंगों (VIBRATIONS) द्वारा उस ग्रह तक संदेश पहुंचाने से हो जाती है।

जन्मपत्री के बारह भाव 12 राशियों को दर्शाते हैं और जन्म समय ,स्थान और तिथि के आधार पर ज्ञात 'लग्न' के अनुसार अंकित किए जाते हैं। नवो ग्रह उस समय की आकाशीय स्थिति के अनुसार अंकित किए जाते हैं। इनही की गणना से आगामी भविष्य का ज्ञान होता है जो उस व्यक्ति के पूर्व जन्म मे किए गए सदकर्म,दुष्कर्म एवं अकर्म पर आधारित होते हैं। अतः व्यक्ति खुद ही अपने भाग्य का निर्माता है वह बुद्धि,ज्ञान व विवेक का प्रयोग कर दुष्प्रभावो को दूर कर सकता है या फिर लापरवाही करके अच्छे को बुरे मे बदल डालता है।

उपरोक्त कुंडली का विश्लेषण वैज्ञानिक आधार पर है। कुंडली जैसी अखबार मे छ्पी उसे सही मान कर विश्लेषण किया गया है।

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शनिवार, 20 सितंबर 2014

bramhanon ki kutilata:

विमर्श: श्रम और बुद्धि 

ब्राम्हणों ने अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये ग्रंथों में अनेक निराधार, अवैज्ञानिक, समाज के लिए हानिप्रद और सनातन धर्म के प्रतिकूल बातें लिखकर सबका कितना अहित किया? तो पढ़िए व्यास स्मृति विविध जातियों के बारे में क्या कहती है?

जानिए और बताइये क्या हमें व्यास का सम्मान कारण चाहिए???

व्यास स्मृति, अध्याय १

वर्द्धकी नापितो गोपः आशापः कुम्भकारकः
वीवक किरात कायस्थ मालाकर कुटिम्बिनः 
एते चान्ये च वहवः शूद्रा भिन्नः स्वकर्मभिः    -१०
चर्मकारः भटो भिल्लो रजकः पुष्ठकारो नट:
वरटो भेद चाण्डाल दासं स्वपच कोलकाः        -११
एते अन्त्यज समाख्याता ये चान्ये च गवारान:
आशाम सम्भाषणाद स्नानं दशनादरक वीक्षणम् -१२

अर्थ: बढ़ई, नाई, अहीर, आशाप, कुम्हार, वीवक, किरात, कायस्थ, मालाकार कुटुम्बी हैं। ये भिन्न-भिन्न कर्मों के कारण शूद्र हैं. चमार, भाट, भील, धोबी, पुस्तक बांधनेवाले, नट, वरट, चाण्डालों, दास, कोल आदि माँसभक्षियों अन्त्यज (अछूत) हैं. इनसे बात करने के बाद स्नान तथा देख लेने पर सूर्य दर्शन करना चाहिए। 

उल्लेख्य है कि मूलतः ब्राम्हण और कायस्थ दोनों की उत्पत्ति एक ही मूल ब्रम्ह या परब्रम्ह से है। दोनों बुद्धिजीवी रहे हैं. बुद्धि का प्रयोग कर समाज को व्यवस्थित और शासित करनेवाले अर्थात राज-काज को मानव की उन्नति का माध्यम माननेवाले कायस्थ (कार्यः स्थितः सह कायस्थः) तथा बुद्धि के विकास और ज्ञान-दान को मानवोन्नति का मूल माननेवाले ब्राम्हण (ब्रम्हं जानाति सः ब्राम्हणाः) हुए। 

ये दोनों पथ एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्राम्हणों ने वैसे ही निराधार प्रावधान किये जैसे आजकल खाप के फैसले और फतवे कर रहे हैं. उक्त उद्धरण में व्यास ने ब्राम्हणों के समकक्ष कायस्थों को श्रमजीवी वर्ग के समतुल्य बताया और श्रमजीवी कर्ज को हीन कह दिया। फलतः, समाज विघटित हुआ। बल और बुद्धि दोनों में श्रेष्ठ कायस्थों का पराभव केवल भुज बल को प्रमुख माननेवाले क्षत्रियों के प्रभुत्व का कारण बना। श्रमजीवी वर्ग ने अपमानित होकर साथ न दिया तो विदेशी हमलावर जीते, देश गुलाम हुआ। 

इस विमर्श का आशय यह कि अतीत से सबक लें। समाज के उन्नयन में हर वर्ग का महत्त्व समझें, श्रम को सम्मान देना सीखें। धर्म-कर्म पर केवल जन्मना ब्राम्हणों का वर्चस्व न हो। होटल में ५० रु. टिप देनेवाला रिक्शेवाले से ५-१० रु. का मोल-भाव न करे, श्रमजीवी को इतना पारिश्रमिक मिले कि वह सम्मान से परिवार पाल सके। पूंजी पे लाभ की दर से श्रम का मोल अधिक हो। आपके अभिमत की प्रतीक्षा है। 

फ़ोटो: वाल्मीकि रामायण को कोई नहीं पूछता लेकिन आज भी तुलसीदास रचित रामचरितमानस की पारायण सप्ताह बिठाई जाती है, जिस में ओबीसी-शुद्र, एससी-एसटी-अति शुद्रो और महिलाओ के बारे में स्पष्ट लिखा है, -
"पुजिये विप्र शील, गुण हिना, न पुजिये शुद्र गुण ज्ञान प्रवीना."
"ढोल, गंवार, शुद्र अरु पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी."
"जे वरणाधिम तेली कुम्हारा, कोल, किरात, कलवारा.".अयौद्या कांड "

छत्रपति शिवाजी महाराज कुणबी थे इसी लिए महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने उन को शुद्र बताकर राज्याभिषेक करने से इंकार कर दिया था. ओबीसी समुदाय की जातियों वर्ण में ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय नहीं है इसीलिए उन को जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं था. 

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. भारत को छोड़कर विश्व के एक भी देश में मानव के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और अवर्ण ऐसा जन्मजात विभाजन नहीं है.

इश्वर, कुदरत या प्रकृति ने हाथी, घोडा, गाय और मानव जैसे प्राणियो का विश्व में सर्जन किया है. जन्मजात वर्ण इश्वर या प्रकृति का सर्जन नहीं है. अगर ऐसा होता तो इश्वर ने मानव की तरह ही गध्धे में भी ब्राह्मण गध्धा,क्षत्रिय गध्धा, वैश्य गध्धा, शुद्र गध्धा और अवर्ण गध्धा का सर्जन किया होता.

पौराणिक ब्राह्मण धर्म के माध्यम से कुछ चालाक और धूर्त लोगो ने खुद को श्रेष्ठ, सर्वोच्च और पृथ्वी पर के भूदेव के तौर पर घोषित कर के सदियों से बिन ब्राह्मणों को उच्च नीच के भेदभाव में बांट के रख दिया है, जिन के शिकार आज का ओबीसी समुदाय, एससी समुदाय और एसटी समुदाय बना हुवा है.



navgeet: sanjiv

नवगीत:
संजीव
*
अजब निबंधन
गज़ब प्रबंधन

नायक मिलते
सैनिक भिड़ते
हाथ मिलें संग
पैर न पड़ते

चिंता करते
फ़िक्र न हरते
कूटनीति का
नाटक मंचन
*
झूले झूला
अँधा-लूला
एक रायफल
इक रमतूला

नेह नदारद
शील दिखाएँ
नाहक करते
आत्म प्रवंचन
*
बिना सिया-सत
अधम सियासत
स्वार्थ सिद्धि को
कहें सदाव्रत

नाम मित्रता
काम अदावत
नैतिकता का
पूर्ण विखंडन
***

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

geet shamiyana: sanjiv

विमर्श: शामियाना

गीत:

धरा की शैया सुखद है
अमित  नभ का शामियाना
मनुज लेकिन संग तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना

जोड़ता तू फिर रहा है
मोह-तम में घिर रहा है
पुत्र है तू ब्रम्ह का पर
वासना में घिर रहा है

पंक में पंकज सदृश रह
सीख पगले मुस्कुराना

उग रहा है सूर्य नित प्रति
सांझ खुद ही ढल रहा है
पालता है जो किसी को
वह किसी से पल रहा है

उसको उतना ही मिलेगा
जितना जिसका आबो-दाना

लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??
कौन जाता संग किसके?
संग जग आनंद में हो
पीर आपद देख खिसके

औपचारिक भावनाएं
अधर पर मीठा बहाना

रहे जिसमें ढाई आखर
खुशनुमा है वही बाखर
सुन रहा खन-खन सतत जो
कौन है उससे बड़ा खर?

छोड़ पद-मद धन सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना

कब भरी है बोल गागर?
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
कर्म की हँस 'सलिल' चादर

हंस उड़ चल बस वहीं तू
है जहाँ अंतिम ठिकाना

*****
व्यवसाय बहुत से लोग करते हैं किन्तु श्री अशोक खुराना सबसे अलग हैं. 
कैसे? 
ऐसे कि वे अपने व्यवसाय से रोजी-रोटी कमाने के साथ-साथ व्यवसाय के हर पहलू पर सोचते हैं और औरों को सोचने-कहने के लिए प्रेरित करते हैं.   
कैसे?  
ऐसे की वे हर वर्ष अपने व्यवसाय पर केंद्रित कवितायेँ कवियों से लिखवाते-बुलवाते, उनका संकलन निजी खर्च छपवाते और कवियों को निशुल्क भिजवाते हैं.

'शामियाना ३' इस श्रंखला की तीसरी कड़ी है. २४० पृष्ठ के इस सजिल्द संकलन में १८८ रचनाएँ हैं. निरंकारी अब्बा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी तथा कुंवर बेचैन के आशीर्वचनों से समृद्ध इस संकलन में गीत, ग़ज़ल, कवितायेँ और शेर आदि सम्मिलित हैं. परम्परानुसार शुभारम्भ आचार्य भगवत दुबे रचित गणेश-सरस्वती वंदना से हुआ है. शामियाना (टेंट हाउस) व्यवसाय से आजीविका अर्जित कर अपने पुत्र को आई.पी. एस. अधिकारी बनानेवाले अशोक जी से प्रेरणा लेकर अन्य व्यवसायी भी अपने व्यवसाय के विविध पहलुओं पर चिंतन के साथ सारस्वत रचनाकर्म को प्रोत्साहित कर सकते हैं. 

इस शारदेय अनुष्ठान में मेरी समिधा से आप ऊपर आनंदित हो ही चुके हैं. जो रचनाकार बंधू शामियाना के अगले अंक में रचनात्मक भागीदारी करना चाहें वे अपना नाम, पता, ईमेल आई. डी., चलभाष / दूरभाष कंमांक तथा एक रचना यहाँ लगा दें. रचनाएँ यथा समय श्री अशोक खुराना तक पहुंचा दी जाएंगी.    

   

geet: harsingar muskaye -sanjiv

 

गीत:

हरसिंगार मुस्काए


 संजीव

*
खिलखिला
यीं पल भर तुम
हरसिंगार मुस्काए 

अँखियों के पारिजात
उठें-गिरें पलक-पात
हरिचंदन देह धवल 
मंदारी मन प्रभात 
शुक्लांगी नयनों में
शेफाली शरमाए 

परजाता मन भाता 
अनकहनी कह जाता
महुआ तन महक रहा 
टेसू रंग दिखलाता
फागुन में सावन की
हो प्रतीति भरमाए 

पनघट खलिहान साथ, 
कर-कुदाल-कलश हाथ
सजनी-सिन्दूर सजा- 
कब-कैसे सजन-माथ? 
हिलमिल चाँदनी-धूप 
धूप-छाँव बन गाए
*
हरसिंगार पर्यायवाची: हरिश्रृंगार, परिजात, शेफाली, श्वेतकेसरी, हरिचन्दन, शुक्लांगी, मंदारी, परिजाता,  पविझमल्ली, सिउली, night jasmine, coral jasmine, jasminum nitidum, nycanthes arboritristis, nyclan,

cheen hindu rashtra tha: alaknanda singh

सच है कि...कभी हिंदू राष्‍ट्र था चीन

-अलकनंदा सिंह 
वैसे तो संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू साम्राज्य स्थापित था। जम्बूद्वीप के 9 देश थे उसमें से 3 थे- हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष। उक्त तीनों देशों को मिलाकर आज इस स्‍थान को चीन कहा जाता है। चीन प्राचीनकाल में हिन्दू राष्ट्र था। 1934 में हुई एक खुदाई में चीन के समुद्र के किनारे बसे एक प्राचीन शहर च्वानजो 1000 वर्ष से भी ज्यादा प्राचीन हिन्दू मंदिरों के लगभग एक दर्जन से अधिक खंडहर मिले हैं। यह क्षेत्र प्राचीन काल में हरिवर्ष कहलाता था, जैसे भारत को भारतवर्ष कहा जाता है।
वैसे वर्तमान में चीन में कोई हिन्दू मंदिर तो नहीं हैं, लेकिन एक हजार वर्ष पहले सुंग राजवंश के दौरान दक्षिण चीन के फूच्यान प्रांत में इस तरह के मंदिर थे लेकिन अब सिर्फ खंडहर बचे हैं।
भारतीय प्रदेश अरुणाचल के रास्ते लोग चीन जाते थे और वहीं से आते थे। दूसरा आसान रास्ता था बर्मा। हालांकि लेह, लद्दाख, सिक्किम से भी लोग चीन आया-जाया करते थे लेकिन तब तिब्बत को पार करना होता था। तिब्बत को प्राचीनकाल में त्रिविष्टप कहा जाता था। यह देवलोक और गंधर्वलोक का हिस्सा था।
मात्र 500 से 700 ईसापूर्व ही चीन को महाचीन एवं प्राग्यज्योतिष कहा जाता था लेकिन इसके पहले आर्य काल में यह संपूर्ण क्षेत्र हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष नाम से प्रसिद्ध था।
महाभारत के सभापर्व में भारतवर्ष के प्राग्यज्योतिष (पुर) प्रांत का उल्लेख मिलता है। हालांकि कुछ विद्वानों के अनुसार प्राग्यज्योतिष आजकल के असम (पूर्वात्तर के सभी 8 प्रांत) को कहा जाता था। इन प्रांतों के क्षेत्र में चीन का भी बहुत कुछ हिस्सा शामिल था।
रामायण बालकांड (30/6) में प्राग्यज्योतिष की स्थापना का उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में इस प्रांत का दूसरा नाम कामरूप (किंपुरुष) मिलता है। स्पष्ट है कि रामायण काल से महाभारत कालपर्यंत असम से चीन के सिचुआन प्रांत तक के क्षेत्र प्राग्यज्योतिष ही रहा था। जिसे कामरूप कहा गया। कालांतर में इसका नाम बदल गया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग और अलबरूनी के समय तक कभी कामरूप को चीन और वर्तमान चीन को महाचीन कहा जाता था। अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य ने भी 'चीन' शब्द का प्रयोग कामरूप के लिए ही किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कामरूप या प्राग्यज्योतिष प्रांत प्राचीनकाल में असम से बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, चीन, इंडोनेशिया, जावा, सुमात्रा तक फैला हुआ था अर्थात यह एक अलग ही क्षेत्र था जिसमें वर्तमान चीन का लगभग आधा क्षेत्र आता है।
इस विशाल प्रांत के प्रवास पर एक बार श्रीकृष्ण भी गए थे। यह उस समय की घटना है, जब उनकी अनुपस्थिति में शिशुपाल ने द्वारिका को जला डाला था। महाभारत के सभापर्व (68/15) में वे स्वयं कहते हैं- कि 'हमारे प्राग्यज्योतिष पुर के प्रवास के काल में हमारी बुआ के पुत्र शिशुपाल ने द्वारिका को जलाया था।'
चीनी यात्री ह्वेनसांग (629 ई.) के अनुसार इस कामरूप प्रांत में उसके काल से पूर्व कामरूप पर एक ही कुल-वंश के 1,000 राजाओं का लंबे काल तक शासन रहा है। यदि एक राजा को औसतन 25 वर्ष भी शासन के लिए दिया जाए तो 25,000 वर्ष तक एक ही कुल के शासकों ने कामरूप पर शासन किया। अंग्रेज इतिहासकारों ने कभी कामरूप क्षेत्र के 25,000 वर्षीय इतिहास को खोजने का कष्ट नहीं किया। करते भी नहीं, क्योंकि इससे आर्य धर्म या हिन्दुत्व की गरिमा स्थापित हो जानी थी।
कालांतर में महाचीन ही चीन हो गया और प्राग्यज्योतिषपुर कामरूप होकर रह गया। यह कामरूप भी अब कई देशों में विभक्त हो गया। कामरूप से लगा 'चीन' शब्द लुप्त हो गया और महाचीन में लगा 'महा' शब्द हट गया।
पुराणों के अनुसार शल्य इसी चीन से आया था जिसे कभी महाचीन कहा जाता था। माना जाता है कि मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्रवंशी हैं। इनमें से तातार के लोग अपने को अय का वंशज कहते हैं, यह अय पुरुरवा का पुत्र आयु था। (पुरुरवा प्राचीनकाल में चंद्रवंशियों का पूर्वज है जिसके कुल में ही कुरु और कुरु से कौरव हुए)। इस आयु के वंश में ही सम्राट यदु हुए थे और उनका पौत्र हय था। चीनी लोग इसी हय को हयु कहते हैं और अपना पूर्वज मानते हैं।
एक दूसरी मान्यता के अनुसार चीन वालों के पास 'यू' की उत्पत्ति इस प्रकार लिखी है कि एक तारे (तातार) का समागम यू की माता के साथ हो गया। इसी से यू हुआ। यह बुद्घ और इला के समागम जैसा ही किस्सा है। इस प्रकार तातारों का अय, चीनियों का यू और पौराणिकों का आयु एक ही व्यक्ति है। इन तीनों का आदिपुरुष चंद्रमा था और ये चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं।
 
संदर्भ : कर्नल टॉड की पुस्तक ‘राजस्थान का इतिहास’ और पं. रघुनंदन शर्मा की पुस्तक ‘वैदिक संपत्ति’ और 'हिन्दी-विश्वकोश' आदि से।

अब छोड़ो भी से साभार 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

kundali: sanjiv

कुंडली:
संजीव
*
चीनी सेना घुस रही, भारत में हे राम!
स्वागत जिनपिंग का करें, हम तज शर्म तमाम
हम तज शर्म तमाम, पसारे हाथ खड़े हैं
है निवेश की आस, चरण पर हाय पड़े हैं
बंद करें आयात, न क्यों निज धरती छीनी
बदलें अपनी चाल तभी सुधरेंगे चीनी
*
हास्य कुंडली

'लालू जी! सुत आपका मेरा बच्चा एक
सचमुच नटखट है बहुत, लेकिन भोला नेक
लेकिन भोला नेक' सुना लालू चकराए
लाली यदि सुन सके तुरत शामत आ जाए
गए तुरत एकांत टालने नेता चालू
मिली नहीं तरकीब परेशां बेहद लालू

पूछा 'इमरतिया'? मगर गलत रहा अंदाज़
'हो जिलेबिया?', 'जी नहीं' जान न पाये राज़
'जुही?, चमेली?, गुलबिया?' पूछ-पूछ हैरान
'बच्चा कैसे? कब? कहाँ? सोच निकलती जान
हुए रुआँसे क्षमा माँग जब परिचय पूछा
'बच्चे की शिक्षिका' मिला तब उत्तर छूछा
*

muktika sagar palampuri

पहाड़ी मुक्तिका :


कीह्याँ सैर मनाइये ?

स्वर्गीय  ’साग़र’ पालमपुरी

मँघयाइया दा  जोर कीह्याँ सैर मनाइये ?
जीणे दा  क्या धोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

जे मैह्ल बणे म्हारिआ मिह्णती ने तिह्नाँ 
आई बस्से कोई होर कीह्याँ सैर मनाइये ?

कुथु खेह्लिये हण खोड़ाँकीह्याँ गाइये छंझोटी?
रुत  बड़ी मुँह्जोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

अपणेयाँ  कुलाचाराँ त्यागी ने असाँ लोक
होआ दे आँ कमजोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

सैह रूप नीं सैह रंग नीं धरियाइयाँ बणाँ दा
नचदे नईं हण मोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

किछ लाळचाँ लोब्भाँ देह्यी ग्रेथिओ दुनियाँ
जळबाँ दी  टकठोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

दान्नाँ ब्रताँजगाँ दा सुफल मिल्लै बी कीह्याँ?
बस्सेया  मनें चोरकीह्याँ सैर मनाइये ?

दड़ी जाइ्ये कुथु मित्तरोजमाने ते डरी ने
हण तोपिये कुण झोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

लोहुए ने दीया सान्जो बलाणाँ   पोऐ
निह्यारा  बड़ा घोर कीह्याँ सैर मनाइये ?

’साग़र’ दिखा जिस पास्से बह्दी गेह्यो  माह्णू
गोह्राँ बत्ताँ  सोर  कीह्याँ सैर मनाइये