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गुरुवार, 30 मई 2013

taanka in hindi : deepti - sanjiv

विश्ववाणी हिंदी - जापानी सेतु :
तांका: एक परिचय
दीप्ति - संजीव
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
यह जापान की  प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा मानी जाती है ! यह  ५ पंक्तियों  की  कविता होती है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में  पाँच  शब्द  और शेष में सात  शब्द   होते   हैं ! इसके विषय प्रक्रति , मौसम, प्रेम और उदासी आदि होते हैं !
Tanka : Deepti
Tanka is a Japanese poetry type of five lines, the first and third composed of five syllables and the rest of seven. Tanks poems are written about nature, seasons, love, sadness and other strong emotions.  Tanka is the oldest type of poetry in Japan.
*  
Lovely,  lively ,  pretty,  colourful, beautiful                           -  5

Nature   is  God's  eternal    and  divine  creation                    - 7

Makes  us  fresh   and  energetic                                                  -  5    

It's     my    best    friend , teacher   and   guide                            - 7
                                                  
Always    with   me    in   happiness   and    grief                          - 7     
*
उदाहरण : सलिल
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
*

vaishakh divas deepti gupta-sanjiv

वैशाख दिवस पर :

दीप्ति गुप्ता-संजीव 
*

Every test in our life makes us bitter or better, 
Every problem comes to make us or break us,
Choice is our whether we become victim or victorious !!!  
Search a beautiful heart not a beautiful face.
Beautiful things are not always good but good things are always beautiful.
Remember me on this WESAK DAY like a pressed flower in your Notebook.
It may not be having any fragrance but will remind
you of my existence forever in your life.
Have a Graceful day...

Wesak, also spelt Vesak, is a day celebrated by Buddhists around the world........... a holy day celebrated by Buddhists. It represents the birth, the Nirvana (enlightenment) and the Parinirvana (death) of Gautama .
*
जन्म मृत्यु निर्वाण दिन, दुर्लभ होना एक।
संदेसा वैशाख का , जागृत रखें विवेक।।
बुद्ध न हो अतिरेक का, किंचित कभी शिकार।
आत्म दीप ज्योतित करे, तज अविवेक विकार।।
*
बदतर से बेहतर करे, जीवन में हर दाँव।
सुदृढ़ करे या तोड़ दे, वह साँसों का ठाँव।।
विजय-पराजय क्या वरें?, करना हमें चुनाव।
तन कम मन सुन्दर अधिक, तब हो सके निभाव।।
सदा रूप उत्तम नहीं, उत्तम रहे सुरूप।
मन-पुस्तक में कुसुम सम, पाऊँ साथ अनूप।।
*
गुमे ताजगी-गंध पर, देगा संग आनंद।
याद करें मुझ मीत को, जब-जब गायें छन्द।

बुधवार, 29 मई 2013

geet tum naheen hote manoshi

गीत    



तुम नहीं होते…
--मानोशी
*
तुम नहीं होते अगर जीवन विजन सा द्वीप होता। 

मैं किरण भटकी हुई सी थी तिमिर में, 
काँपती सी एक पत्ती 
ज्यों शिशिर में, 
भोर का सूरज बने तुम,
पथ दिखाया,
ऊष्मा से भर नया 
जीवन सिखाया।

तुम बिना जीवन निठुर, मोती रहित इक सीप होता।

चंद्रिका जैसे बनी है चन्द्र-रमणी,
प्रणय-मदिरा पी गगन में
फिरे तरुणी, 
मन हुआ गर्वित मगर 
क्योंकर लजाया?
हृद-सिंहासन पर मुझे 
तुमने सजाया।

तुम नहीं तो यही जीवन लौ बिना इक दीप होता ।

शुक्र का जैसे गगन में 
चाँद संबल,  
मील का पत्थर बढ़ाता 
पथिक का बल,
दी दिशा चंचल नदी को 
कूल बन कर, 
तुम मिले किस प्रार्थना के 
फूल बन कर? 
जो नहीं तुम यह हृदय-प्रासाद बिना महीप होता।
अंजुमन प्रकाशन द्वारा सद्य प्रकाशित कृत "उन्मेष" से

रविवार, 26 मई 2013

paryavaran geet: kis tarah aye basant sanjiv

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.

जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.

शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

Haiku in Bhojpuri sanjiv

भोजपुरी हाइकु:
संजीव
*
आपन बोली
आ ओकर सुभाव
मैया क लोरी.
*
खूबी-खामी के
कवनो लोकभासा
पहचानल.
*
तिरिया जन्म
दमन आ शोषण
चक्की पिसात.
*
बामनवाद
कुक्कुरन के राज
खोखलापन.
*
छटपटात
अउरत-दलित
सदियन से.
*
राग अलापे
हरियल दूब प
मन-माफिक.
*
गहरी जड़
देहात के जीवन
मोह-ममता.
*
टीप: भोजपुरी पर अधिकार न होने पर भी लेखन का प्रयास किया है. त्रुटियाँ इंगित करने पर सुधार सकूँगा.
रवि किरणें क्षितिजा करें, धरती से तम दूर.
बोली मन का तम हरे, खुशियाँ दे भरपूर..

varta: baster men naxalvaad - mahendra karma with rajiv ranjan prasad

नक्सलवाद गलत शासकीय नीतियों और प्रशासनिक भूलों का दुष्परिणाम :
राजीव रंजन प्रसाद

आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा की हत्या के विरोध में

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[प्रस्तुत तस्वीर तथा यह साक्षात्कार अक्टूबर-2012 का है]

महेन्द्र कर्मा नहीं रहे। लाल आतंकवाद ने जिस तरह से बस्तर को खोखला किया है वह उनकी हत्या की भयावह विभीषिका के तौर पर सामने आ गया है। बस्तर की राजनीति में महेन्द्र कर्मा एक जाना-पहचाना नाम थे तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने के बाद इन दिनो वे कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेताओं में गिने जाने लगे थे। उनका एक परिचय यह भी है कि सलवाजुडुम अभियान का उन्होंने अग्रिम पंक्ति में खड़े हो कर नेतृत्व किया था। महेन्द्र कर्मा प्रखर वक्ता भी थे तथा बस्तर पर अपने विचार वे दृढता और आत्मविश्वास के साथ रखते थे। बस्तर पर किये जा रहे अपने अध्ययन के दौरान महेन्द्र कर्मा से मेरी मुलाकात दंतेवाड़ा में हुई थी। मैने उनका साक्षात्कार रिकॉर्ड किया था जिसमें बिना अपना मत-मंतव्य जोडे शब्दश: प्रस्तुत कर रहा हूँ -
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राजीव रंजन: कर्मा जी, महाराजा प्रवीर का समय और आज का बस्तर; दोनों समयों मे आप कैसा परिवर्तन महसूस करते है?
महेन्द्र कर्मा: देखिए प्रवीर का पूरा समय राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच फँसा हुआ समय था। प्रवीर राजतंत्र की अन्तिम कड़ी होने के साथ-साथ बहुत अच्छे विधायक थे। उन्होंन राजतंत्र के मानकों को उभारा जिसके परिणाम में 1966 का गोलीकाण्ड हुआ। प्रवीर बस्तरवासियों के बीच में बहुत ही लोकप्रिय थे तथा अपने समय के डेमोक्रेटिक सेटअप में एक अच्छे लीडर हो सकते थे। उन्होंने लीडर बनने की बजाय एक राजा होने की भूमिका ज्यादा निभाई।.....मैं समझता हूँ कि बस्तर ही नहीं पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खासकर, परिवर्तन और विकास की आहट बहुत कम सुनाई दी है। जो भी डेवलेप्टमेन्ट; जो भी चेंजेज़ आए हैं वे बहुत ही स्लो हैं, धीमी प्रोसेज में आये हैं। बस्तर की जहाँ तक बात है, अचानक 1967 - 68 के उपरान्त जैसे ही यहाँ बैलाडिला प्रोजेक्ट आया तो वह यहाँ के शान्त माहौल में हलचल की तरह आया या कहिये एक शान्त झील में कोई बड़ा सा पत्थर फेंकने के बाद उठी लहरों का अहसास यहां के लोगों ने किया है। बैलाडिला के लिए भी यहाँ के लोग तैयार नहीं थें। अगर सरकार थोड़ा भी यहाँ के लोगों को इस बड़े और प्रभावित करने वाले अध्याय से जोड़ती, यहाँ के लोगों को इससे सीधे जोड पाती, यहाँ के शिक्षित लोगों के लिये यह एक अवसर की तरह आता तो मैं समझता हूँ कि इसका स्वागत भी होता और इसके दूरगामी परिणाम कुछ और बेहतर हो सकते थे, जो नही हुआ।
राजीव रंजन: बैलाडिला तो आ गया लेकिन उस बीच में बस्तर में बोधघाट परियोजना बन्द हो गई या नगरनार प्रोजेक्ट बन्द हो गया। जिन्हें हम विकास परियोजनाएं कहते हैं वे बस्तर अंचल से एक-एक करके खत्म होती चली गई....?
महेन्द्र कर्मा: बस्तर में इस सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधारा हैं। एक विचारधारा वो, जो ऑर्थोडॉक्स है; वो लोग यहां के समाज, संस्कृति, धर्म जैसे बातों का भय दिखा कर बस्तर के विकास को रोक रहे हैं। दूसरी विचारधारा है जो यहाँ के संसाधनों पर आधारित हैं, यहाँ के लोगों के लिये विकास की पहल कर रही हैं। इसमें हम लोग भी हैं।....बस्तर में काम पैदा होना चाहिये, जितना सही तरह से संभव हो उद्योग धंधे भी लगने चाहिए, इस बात के हम लोग शुरू से सर्मथक रहे हैं। हमारा कहना है कि यहाँ के संसाधन सिर्फ ग्लोबल नहीं होने चाहिए, उन पर कहीं न कहीं इस जमीन का पहले हक है पर वेल्यूऐटेड डेवलपमेंट होना चाहिए। वेल्युएडिशन की स्थिति में यहा एम्प्लॉयमेंट बढ जायेगा। आज जो बस्तर का आदमी है वह भी बदल गया है। उसके लिये अब बिलकुल एक नया युग हैं। उसकी सोच ही अलग हैं। वह बदलती दुनिया के साथ अपने आप को एडजेस्ट करना चाहता हैं। अभी इस तरह की तमाम चीजों पर बाते एक ब्लास्टिंग मोड में हैं....नए अवसर खुल सकते हैं। हम जो उनको नही दे पा रहे, इसका कोई तुक नहीं है। मेरा मानना है कि डिसाईजिव स्थिति में रहने के बाद भी, साधन सम्पन्नता के बाद भी हम यहाँ के लोगों के लिये विकास से सही अवसर खोल पाने में अब तक असफल ही रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी, अपने बहुत खुलकर एक बात की है। इसी से जुड़ा हुआ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि जिन दिनों ब्रह्मदेव शर्मा बस्तर में रहें, दो महत्वपूर्ण काम हुए। पहला तो प्रशासक के तौर पर उनके प्रयासों द्वारा अबूझमाड़ क्षेत्र को आम दुनिया से काट दिया गया और उसे एक आईसोलेटेड क्षेत्र बना दिया गया। दूसरा एक एक्टिविस्ट के तौर पर उन्होंने मावलीभाटा के पास बनने वाले स्टील प्लांट का विरोध किया; हालाकि बाद में उसका विरोध भी ब्रम्हदेव शर्मा को झेलना पड़ा था, दूसरे तरीके से। इन उदाहरणों से जुडा मेरा प्रश्न है कि क्या आप भी आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया को सही मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: दुनिया में जो भी विकास हुआ हैं, कुछ एक उदाहरणों को छोड दें तो आजादी के पहले से अब तक का जो पूरा हिन्दुस्तानी इतिहास हैं, वो सब संपर्कों पर आधारित इतिहास रहा हैं।...कितने सारे आक्रमणों का दौर आया, मुगलों का युग आया और फिर अंग्रेज....अंग्रेज हमें कोई एज्युकेट करने नहीं आए थे। वो लोग तो भारत में अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए आये थे। वह तो जो भी लोग उनके सम्पर्को में आये, उन लोगों ने संपर्कों का फायदा उठाया। संपर्क तो एक कैरियर है, एक वाहक है। दूसरी बात जिसका उदाहरण आपने स्वयं दिया- ब्रम्हदेव शर्मा; जो कि एक ऑर्थोडॉक्स आईडियोलॉजी का प्रतीक है। ये तमाम बस्तर की परियोजनाओं के विरोध करने वाले लोग कहीं न कही इसी आईडियोलॉजी के फॉलोअर लोग हैं। आदिवासी आईसोलेशन सही नहीं है।
राजीव रंजन: कर्मा जी, क्या आदिवासी आईसोलेशन की प्रक्रिया भी बस्तर में नक्सलिज्म का एक कारण हो सकता है?
महेन्द्र कर्मा: जी हाँ बिलकुल। आजादी के बाद, जैसे मैंने कहा कि यहाँ संपर्कों का अभाव बना दिया गया जिससे इस आदिवासी क्षेत्र में समस्यायें पैदा हुई। हमारा डेवलपमेंट कॉंसेप्ट बहुत ज्यादा त्रुटिपूर्ण है। हम शहरों से गाँवों की ओर धीरे-धीरे चले; हमको गाँवों से शहरों की और चलना चाहिए। यह जो नक्सलवाद जिसे आप कह रहे हैं इसी का खामियाजा है। नक्सलवादियों नें भी तो उन्हीं क्षेत्रों को को आईसोलेटेड थे, जहाँ प्रशासन की पहुँच नहीं थी, जहाँ विकास की रोशनी नहीं पहुँचाई गयी; उसी क्षेत्र को अपना आधार इलाका बनाया है। और अब ये सभी क्षेत्र और अधिक आईसोलेट और विचलित हो गये हैं। आईसोलेशन तो सीधे-सीधे कूपमण्डूकता हैं, समझ गए आइसोलेशन मतलब?.....अगर आज के दौर में हम किसी भी समाज को या एक समूह विशेष को पृथक रखने का, या आईसोलेट करने का कोई भी काम करते हैं तो हम एक बार फिर उन्हें अभिशप्त जिन्दगी जीने को प्रेरित और बाध्य दोनो ही कर रहे हैं।
राजीव रंजन: कर्मा जी इतिहास पलट कर देखा जाये तो हम पाते हैं कि बस्तर के आदिवासी हमेशा से जुझारू रहे है तथा अपनी लड़ाई लड़ने में सक्षम रहे हैं। क्या कारण रहा कि उनकी लड़ाई लड़ने के लिए बाहर से लोगों को आना पड़ा जिनका दावा हैं कि वे बस्तर के आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे हैं; मेरा इशारा नक्सलियों की तरफ हैं?
महेन्द्र कर्मा: असल में तो नक्सली अपनी आईडियोलॉजी यहाँ के लोगों पर थोप रहे हैं इसके बाद भी वे यही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये मूवमेंट उनका नहीं, आदिवासियों का हैं। जबकि नक्सलवाद से आदिवासियों का कोई सम्बन्ध नहीं है, वो इसीलिए नही भी नहीं हैं, क्योंकि आदिवासियों नें आज तक अपनी समस्याओं का निदान संविधान के दायरे से बाहर जा कर नहीं खोजा। वो संविधान के दायरे मे ही रहकर लोकतांत्रिक तरीके से, शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी बात कहता रहा है। इसके साथ ही यह भी कहना चाहिये कि वो गूंगा भी नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति के तथा अपनी बात को कहने के तरीके अलग हैं;  इस तरह की हिंसा का उसका चहरा या तरीका नहीं है।
राजीव रंजन: इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं आपसे सलवा जुडुम की भी बात करना चाहूँगा। कर्मा जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि सलवा जुडुम का इतिहास क्या है तथा इसके आरंभ होने की क्या परिस्थिति थी?
महेन्द्र कर्मा: आपको याद होगा कि सलवा जुडुम से पहले एक जन जागरण अभियान भी चला था 89 से 91 लगभग दो सालों तक; बिल्कुल वैसे ही, ये भी चला था। घटना यह हुई कि एक गाँव में...गाँव का नाम नहीं ले रहा हूँ नहीं तो उस गाँव के लोगों को नक्सली मार देंगे। तो एक गाँव में नक्सलियों की बैठक चल रही थी; बिल्कुल रोड़ किनारे यह सब चल रहा था। फोर्स का राशन जा रहा था, ड्राइवर नक्सलियों से मिला हुआ था; अचानक वो रोड छोड़कर गाँव की ओर मुड़ गया। बिल्कुल बगल मे ही नक्सली लोग मीटिंग कर रहे थे तो फोर्स वाले जो दो जो ऊपर बैठे थे वो भाग के आ गए और राशन को उनके हैण्डओवर कर दिया। नक्सली वो राशन को लूट-लाट कर ले गए। दूसरे दिन फोर्स जाकर गाँव के कुछ लोगों को उठाकर थाना ले आई। थाने में बैठे लोगों नें विचार किया कि एक गलत आदमी की वजह से गाँव के सियाने लोगों को पुलिस क्यों बिठाएगी? तो उन लोगों नें पुलिस से कहा कि एक आदमी की वजह से गाँव के सभी बड़े सयाने क्यों परेशान हों? वो लोग गाँव गये और दोषी को पकडकर ले आये और पुलिस के हवाले कर दिया। पकड़ के तो ले आये लेकिन फिर गाँव वालों में डर भी जगा कि अब अगर हमने लोगों को हमारे साथ नही जोड़ा तो नक्सली आकर हमारे गाँव को तो भून देंगे। इस प्रकार से वहाँ के नक्सलियों के खिलाफ डर से शुरु होकर सलवाजुडुम एक प्रतिष्ठा की लड़ाई, स्वाभिमान की लड़ाई, आन-बान की लड़ाई बनता गया। यह घटना तो बस शुरूआत थी। वहाँ के लोगों ने तब दस गाँव के लोंगों कों बुलाया। कहते है, बड़े आन्दोलन की शुरूआत या एक बड़े विद्रोह की शुरूआत छोटे कारणों से होती रही हैं। इतिहास इस बात का गवाह है।....अपने समय के समकालीन लोग किसी ईवेंट को कैसे देखते हैं; किसी घटना को किस तरह लेते हैं; हम लोगों नें इसे वैसे ही देखा हैं। ये मई की घटना थी, 18-19 जून को मैं दिल्ली में था। वहाँ मैं पेपर पढ़कर इस घटना को देख-समझ रहा था, फिर मुझे लगा, वहाँ तुरंत जाना चाहिए, ऐसी जगह पर जहाँ लोग तो अपने आप आन्दोलन करने के लिये इकट्ठा हो रहे हैं लेकिन उनके लिये लीडरशीप का पता नहीं हैं। मेरे वहाँ पहुँचते-पहुँचते 26 तारीख लग गई। वहाँ पहुँचने के बाद मैने इसे सिस्टमेटिक ढंग से चलाने की कोशिश की है। सलवाजुडुम के उपर जो हत्या-बलात्कार के आरोप लगाये गये हैं वो दुष्प्रचार है; जो भी नक्सलियों के खिलाफ कोई आन्दोलन खड़ा करने की कोशिश करेगा उसको इसी प्रकार से दबाने का षडयंत्र किया जाता है। सच यह है कि हम लोग न तो अपने ही लोगों को मार सकते हैं न उनका बलात्कार कर सकते हैं।
राजीव रंजन: सलवा जुडुम को क्या आप एक सशस्त्र आंदोलन के खिलाफ एक दूसरा सशस्त्र आंदोलन मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसा था ही नहीं। इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी समस्या का समाधान मास-मूमेंट होता है और यह हमारा मास-मूमेंट था। वह सशस्त्र था ही नहीं। हम हजारों लोग जब विलेज टू विलेज मूव कर रहे तो हमारी सुरक्षा में एक फोर्स था। फोर्स को अपनी भूमिका निभानी होती है; आज कोई भी जंगल जाएगा कोई जाँच कमेटी भी जाएगी तो उसके लिए भी फोर्स लगायी जायेगी; हम तो फिर भी नक्सलियों के खिलाफ में लड़ रहे थे। यह बिल्कुल सशस्त्र मूवमेन्ट नहीं था....बहुत ज्यादा हुआ तो हमने अपने परम्परागत हथियार को जिनमे टंगिया, कुल्हाडी, तीर-धनुष को अपने साथ रखा। सभी जानते हैं कि यह हमारे परम्परागत हथियार हैं; कुछ लोंगों ने इसे ही फोर्स अटैक बताया; जैसे हम सशस्त्र लड़ाई लड़ रहे हैं।
राजीव रंजन: सलवाजुडुम के समाप्त होने में आप किसकी भूमिका मानते हैं?
महेन्द्र कर्मा: नक्सलियों के खिलाफ जब भी कोई बात या मूमेंट या बहस फ्लोर पर होती है तो उसे बहुत योजनाबद्ध तरीके से डिफ्यूज किया जाता है; और ऐसा करनेवाले बहुत अच्छी तरह इसे करने में अब तक सफल रहे है... समझ गए। इन दिनों एक रूझान सा देखने को मिल रहा हैं...एंटी सिस्टम बातें करना आम हो गया हैं। मुझे लगता है इस मामले को हम लोग सही तरह से उठा नहीं पाये; हम अपना सही प्रेजेंटेशन नहीं दे पाये; सही पूछिये तो हमने उसकी जरूरत भी नहीं समझी। जमीन पर तो हम अपना पक्ष रोज रख रहे थे, लेकिन दिल्ली, भोपाल तक हम लोग अपना प्रेजेन्टेशन नहीं दे पाये...... हम इस बात की जरूरत नहीं समझ रहे थे। जब हम जंगल में जमीनी लड़ाई लड़ रहे हैं तो हमें क्या जरूरत है कि दिल्ली और भोपाल में जाकर अपना पक्ष रखें जो हमारी खिलाफत करने वाले लोग है वो प्रेजेंटेशन दिल्ली भोपाल में लगातार देते रहे।....इसी से हम हार गये। बहुत जबरदस्त धक्का लगा हमारे मूमेंट को। इतने बडे पब्लिक मूमेंट में ठहराव आ गया है, आन्दोलन खत्म हो गया है....यही चाह रहे थे नक्सली और वे सफल रहे; हम लोग हार गए।
राजीव रंजन: तो आपको अफसोस है?
महेन्द्र कर्मा: बहुत ज्यादा, और वो अफसोस तब तक रहेगा जब तक नक्सलवादी रहेगें। ये अफसोस बना रहेगा जब तक हमें फिर नई शुरूआत कोई नयी लड़ाई नहीं मिल जाती।
राजीव रंजन: कर्मा जी तो अब प्रश्न उठता है कि इस समस्या से कैसे निपटा जा सकता है?
महेन्द्र कर्मा: अब तो ऐसा है कि यह बात सिर्फ बस्तर की ही नहीं रह गयी है; अब तो यह पूरे देश की बात है। इसका समाधान पब्लिक के पास हैं; सरकार के पास है; फोर्सेज के पास है और कहीं न कहीं इन सभी को कलेक्टिवली सामने आना ही पडे़गा। एक बड़े सपोर्ट के साथ में; एक बड़े वॉल्यूम के साथ में। आज हम लोग कहां हैं?...और वो लोग कितना जबरदस्त दबाव बनाते हैं, गाँव के मुखिया से ले कर, एक सरपंच से लेकर परम्परिक जो हमारे रूरल ट्रैडिशनल सिस्टम हैं इन सभी को क्रश कर के रख दिया है। न गायता हैं, न पुजारी, न कोतवाल है, न पटेल है, न सरपंच है। गाँव में अब कोई भी नहीं है। जो भी है वो उनका आदमी है; वो हमारे ट्रेडिशन सेटअप को रिलीजियस सिस्टम को टारगेट करता हैं....देखिये कि जो ट्राइबल है वह नेचर के साथ रहने वाला आदमी है; प्रकृति का एक अभिन्न हिस्सा है और उसका अपना एक डेली रूटीन भी है। वो अपने कस्टम-सिस्टम के साथ जीनेवाला आदमी हैं। लेकिन नक्सलवादी ये चाहता है कि ट्राइबल उसका अपना जो कुछ है उसको छोड दे; अपने जीने का तरीका बदल दे; कस्टम-सिस्टम छोड़ दे। उसी बात को वह अब कहीं बोल नहीं सकता, कहीं सही तरह से अभिव्यक्त नही कर पाता। इसीलिये उसके अन्दर एक गुस्सा है; इसी बात से वह लड़नें के लिए लालायित है; यही एक फैक्टर है जो उसको टैम्पर कर रहा हैं.......... वो अपनी बेसिक पहचान खो रहा हैं। समाधान इसलिये नहीं हो रहा है कि बडी पॉलिटिकल विल चाहिये। जब तक किसी सरकार में कुर्बानी देने के माद्दा नहीं आयेगा तब तक....। हमने पंजाब में देखा है, हमने नार्थ-ईस्ट में देखा है कि सरकारों को आतंकवाद नें निगला है। अगर ऐसा ही रहा तो मुझे लगता है बहुत जल्दी इस देश में  भी नेपाल की स्थिति बन सकती हैं क्योंकि इस आतंकवाद को कोई रोक ही नहीं रहा हैं।
राजीव रंजन: आदिवासी नेता छत्तीसगढ़ की राजनीति में कहाँ है?
महेन्द्र कर्मा: अब करवट ले रहा हैं। आदिवासी नेतृत्व आगे आ रहा है। उसे अब आप रोक भी नहीं सकते। इतने बर्निंग प्वाईंट पर आदमी यहाँ पर स्ट्रगल कर रहा है, ऐसे आदमी की आवाज को ज्यादा रोका नहीं जा सकता है।
राजीव रंजन: आपसे बहुत सी बातें हुईं; बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
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doha: maila huaa cricket kumar gaurav ajitendu

दोहे - 
मैला हुआ क्रिकेट

https://mail-attachment.googleusercontent.com/attachment/u/0/?ui=2&ik=dad2fa7c6e&view=att&th=13ecc2c3ed38b7d1&attid=0.1&disp=inline&realattid=file1&safe=1&zw&saduie=AG9B_P8iolpeP3f4iPAHowfQMMHF&sadet=1369537716047&sads=BBVGZWXS7ytwhs4-3hMTghqwUp0

कुमार गौरव अजीतेन्दु
            
*
बिके हुए प्यादे सभी, बिका हुआ रनरेट।
लुप्त हुई है स्वच्छता, मैला हुआ क्रिकेट॥

लगा रहा है बैट तो, सौदे पर ही जोर।
टर्न हो रही गेंद भी, सट्टाघर की ओर॥

मैदानों पर चल रहा, बैट-बॉल का खेल।
परदे पीछे हो रहा, जुआरियों का मेल॥

खिलाड़ियों ने शौक से, बेच दिया है देश।
बाहर बैठे डॉन के, मान रहे निर्देश॥

माटी ने पैदा किया, पाला सालों-साल।
सुरा-सुंदरी के लिए, बिका देश का लाल॥

पकड़े तो कीड़े गये, बिच्छू हैं आजाद।
मारेंगे फिर डंक वो, कुछ अरसे के बाद॥

फैलाती डी-कंपनी, फिक्सिंग का ये जाल।
भारत के दुश्मन सभी, होते मालामाल॥

बीसीसीआई डरी, खड़े कर दिये हाथ।
नेटवर्क इतना बड़ा, कौन फँसाये माथ॥

गई कबड्डी काम से, खो-खो भी गुमनाम।
क्रिकेटिया इस भूत ने, हमको किया गुलाम॥

देशद्रोहियों को नहीं, मिले क्षमा का दान।
बहिष्कार इनका करो, कहता यही विधान॥
पटना - 801502 (बिहार)

शनिवार, 25 मई 2013

angika doha muktika acharya sanjiv verma 'salil'

अंगिका दोहा मुक्तिका
संजीव
*
काल बुलैले केकर, होतै कौन हलाल?
मौन अराधें दैव कै, एतै प्रातःकाल..
*
मौज मनैतै रात-दिन, हो लै की कंगाल.
संग न आवै छाँह भी, आगे कौन हवाल?
*
एक-एक कै खींचतै, बाल- पकड़ लै खाल.
नींन नै आवै रात भर, पलकें करैं सवाल..
*
कौन हमर रच्छा करै, मन में 'सलिल' मलाल.
केकरा से बिनती करभ, सब्भै हवै दलाल..
*
धूल झौंक दैं आँख में, कज्जर लेंय निकाल.
जनहित कै  नाक रचैं, नेता निगलैं माल..
*
मत शंका कै नजर सें, देख न मचा बवाल.
गुप-चुप हींसा बाँट लै, 'सलिल' बजा नैं गाल..
*
ओकर कोय जवाब नै, जेकर सही सवाल.
लै-दै कै मूँ बंद कर, ठंडा होय उबाल..
===
टीप: अंगिका से अधिक परिचय न होने प् भी प्रयास किया है. जानकार बंधु त्रुटि इंगित करें तो सुधार सकूँगा.

gazal shardula

ग़ज़ल:
शार्दूला 
 
*
प्यार के ख़त किताब होने दो 
रतजगों का हिसाब होने दो 

इल्म की लौ ज़रा करो ऊँची 
इस सिहाई में आब होने दो 

गैर ही की सही, ग़ज़ल गाओ 
रात को ख़्वाब ख़्वाब होने दो 

ज़िन्दगी ख़ार थी, बयाँबा थी   
दफ़्न सँग में गुलाब होने दो 

जिस अबाबील का लुटा कुनबा *  
अबके उस को उकाब होने दो 

सूरमा तिल्फ़ से लड़े क्यों कर
अफसरों का दवाब? होने दो!


*  उकाब - ईगल ;  अबाबील - स्वालो पंछी
अबाबील प्रजाति के कुछ ख़ास पक्षी अपनी लार से घोंसला बनाते हैं। इसके स्वास्थ्यलाभकारी  गुणों के कारण चीन, दक्षिण-पूर्वी एशिया (सिंगापुर, हांकांग)  और अमरीका में इसकी बहुत मांग है और यह घोंसाला लगभग लाख-दो लाख रुपये किलो बिकता है - अधिकतर इसे " बर्ड्स नेस्ट सूप " के लिए खरीदा जाता है । इससे  अबाबील की प्रजाति को व्यापक दोहन का सामना करना पड़ता है। इससे उनके अस्तित्व को  खतरा है।

muktika andhera chahnevale sanjiv

मुक्तिका:
अँधेरा चाहनेवाले...
संजीव
*
अँधेरा चाहनेवाले, उजाला पा नहीं सकते
भले पी लें नयन से, हुस्न को वे खा नहीं सकते

गला सबको मिला है. बात अपनी कहने का हक है
न रहता मौन कागा, जग कहे तुम गा नहीं सकते

सहज सन्यास का विन्यास लेकिन कठिन आराधन
न तुम तक आयेंगे वे, तुम भी उन तक जा नहीं सकते

अहम् का वहम, माया-मोह जब तक उड़ न जाएगा
धरा का ताप हरने, मेघ बनकर छा नहीं सकते

न चाहा जिन्हें तुमने, चाहने का दिखावा करके
भुलावे में रहो मत 'सलिल', उनको भा नहीं सकते

नहीं कुछ मोल जिसका, जो बाजारों में नहीं बिकता
'सलिल' ईमान को खोकर, दुबारा ला नहीं सकते

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Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

शुक्रवार, 24 मई 2013

navgeet likhen ham sanjiv

नवगीत
लिखें हम
संजीव
*
नया आज
इतिहास लिखें हम...
*
अब तक जो बीता सो बीता,
अब न आस-घट होगा रीता.
अब न साध्य हो स्वार्थ-सुभीता,
अब न कभी लांछित हो सीता.
भोग-विलास
न लक्ष्य रहे अब,
हया, लाज,
परिहास लिखें हम.
नया आज
इतिहास लिखें हम...
*
रहें न हमको कलश साध्य अब,
कर न सकेगी नियति बाध्य अब.
स्नेह-स्वेद-श्रम हों आराध्य अब,
कोशिश होगी सतत मध्य अब.
श्रम पूँजी का
भक्ष्य न हो अब,
शोषक हित
खग्रास लिखें हम.
नया आज
इतिहास लिखें हम...
*
मिल काटेंगे तम की कारा,
उजियारे के हों पौ बारा.
गिर उठ बढ़कर मैदां मारा-
दस दिश में गूंजे जयकारा.
कठिनाई में
संकल्पों का
नव हास लिखें हम.
नया आज
इतिहास लिखें हम...
*
Sanjiv verma 'Salil'

bundeli muktika acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली मुक्तिका:
मंजिल की सौं...
संजीव
*
मंजिल की सौं, जी भर खेल
ऊँच-नीच, सुख-दुःख. हँस झेल

रूठें तो सें यार अगर
करो खुसामद मल कहें तेल

यादों की बारात चली
नाते भए हैं नाक-नकेल

आस-प्यास के दो कैदी
कार रए साँसों की जेल

मेहनतकश खों सोभा दें
बहा पसीना रेलमपेल
*

goha gatha 9 acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा गाथा ९ : दोहा कम में अधिक है 
 संजीव 

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
पल में परलय होयेगी, बहुरि करैगो कब्ब.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर.
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर.

*
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय.
टूटे तो फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय.
*
दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य.
जन-मन बसे रहीम हैं, जैसे सूक्ति अनित्य.                                                      
कबीर
दोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत.
नए काल में नेह की, 'सलिल' नयी हो नीत.

सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान.
शान्ति सौख्य संतोष दो, मुझको हे भगवान.

गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ.
औरों की करने मदद, बढ़े रहें मम हाथ.


       
दोहा रचकर आपको, मिले सफलता-हर्ष.
नेह नर्मदा नित नहा, पायें नव उत्कर्ष.

नए सृजन की रश्मि दे, खुशियाँ कीर्ति समृद्धि.
पा जीवन में पूर्णता, करें राष्ट्र की वृद्धि.

जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य.
इसके जैसी है नहीं, भाषा कोई अन्य.

'सलिल' शीश ऊँचा रखें, नहीं झुकाएँ माथ.
ज्यों की त्यों चादर रहे, वर दो हे जगनाथ.


दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिट हैं, वह हैं कबीर ( संवत १४५५ - संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कि अनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गज विद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी का संग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं।



मुगल सम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० - संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदि के भक्त कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वत कोष के रत्न हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं ( ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृज एवं अवधी से प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये--     

नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।


कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव २००९  में मुख्य अतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु...

छंद क्या है? 
संस्कृत काव्य में छंद का रूप श्लोक है जो कथ्य की आवश्यकता और संधि-नियमों के अनुसार कम या अधिक लम्बी, कम या ज्यादा पंक्तियों का होता है। संकृत की क्लिष्टता को सरलता में परिवर्तित करते हुए हिंदी छंदशास्त्र में वर्णित अनुसार नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति, यति का पालन करते हुए की गयी काव्य रचना छंद है। श्लोक तथा दोहा क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी भाषा के छंद हैं। ग्वालियर निवास स्वामी ॐ कौशल के अनुसार-

दोहे की हर बात में, बात बात में बात.
ज्यों केले के पात में, पात-पात में पात.

श्लोक से आशय किसी पद्यांश से है। जन सामान्य में प्रचलित श्लोक किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति की लम्बाई परिवर्तनशील होती है।

दोहा घणां पुराणां छंद:


११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।

सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.

आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की को बंधक बनाते ही आतंकवादी छोड़ दिए जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट के बाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश को भयभीत कर दिया था।

संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए? संकटग्रस्त के परिजनों को क़तर न होकर देश हित में सर्वोच्च बलिदान का अवसर पाने को अपना सौभाग्य मानना चाहिए। 

भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.


भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.
*
अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.

भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.


गोष्ठी के अंत में : 

दोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षर अनहद नाद.
बिछुडे अपनों की तरह, फ़िर-फ़िर आता याद.

बिसर गया था आ रहा, फ़िर से दोहा याद.
दोहा रचना सरल यदि, होगा द्रुत संवाद.
 
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.


दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता, निडरता, स्पष्टता से  संक्षिप्तता में कहता है-

पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.


गुण पूजित हो कौन सा?,क्या अवगुण दें त्याग?
वरित पूज्य- तज चम्पई, अवरित बिन अनुराग..
चम्पई = चंपकवर्णी सुन्दरी

बेवफा प्रियतम को साथ लेकर न लौटने से लज्जित दूती को के दुःख से भावाकुल प्रेमिका भावाकुल के मन की व्यथा कथा दोहा ही कह सकता है-

सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु

यदि प्रिय घर आता नहीं, दूती क्यों नत मुख?
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख..


हर प्रियतम बेवफा नहीं होता। सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है। जिस विरहणी की अंगुलियाँ प्रियतम के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही।

जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.

प्रिय जब गये प्रवास पर, बतलाये जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.


परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गये तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आये तो खुशी के कारण नींद गुम हो गयी। करें तो क्या करे?

पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.

प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.


मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है। 'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?

रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.

एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.


दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे। बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-

श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरनन करत, आल्हा छंद बनाय.


इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-

पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.


कवि को नम्र प्रणाम:

राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो में दोहा ने महाकवि चंद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-

भारत किय भुव लोक मंह, गणतिय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.


बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-

जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
 

खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.
*
वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार. 


दोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास.
'मावस भी पूनम बने, फागुन भी मधुमास.

बौर आम के देखकर, बौराया है आम.
बौरा गौरा ने वरा, खास- बताओ नाम?

लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल.
जलता है या फूलता, बूझे कौन सवाल?

लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन.
नील गगन हँसता, लगे- पवन वसन बिन दीन.

सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ.
हँसते-रोते हैं नयन, उठता-झुकता माथ. 


 राम राज्य का दिखाते, स्वप्न किन्तु खुद सूर.
दीप बुझाते देश का, क्यों कर आप हुजूर?

'कम लिखे को अधिक समझना' लोक भाषा का यह वाक्यांश दोहा रचना का मूलमंत्र है. उक्त दोहों के भाव एवं अर्थ समझिये. 

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात.
ज्यों खर्चो त्यों-त्यों बढे, बिन खर्चे घट जात.

करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान.

 
दोहा गाथा की इस कड़ी के अंत में वह दोहा जो कथा समापन के लिये  ही लिखा गया है-

कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर हनुमान.
जो जन जहाँ से आए हैं, सो तंह करहु पयान।
 
हिन्दयुग्म ८.१ .२००९, ११.२.२००९ 


dharm aur vigyan 2 sanjiv

धर्म और विज्ञान: २
संजीव
*
धारण करने योग्य जो, कहा गया वह धर्म।
सर्व लोक हित जो- करें धारण, समझें मर्म।।

धारण नाद को मूल कह, करता अंगीकार।
अक्षर ईश्वर को कहे, कहाँ शेष तकरार।।

शब्द ब्रम्ह है ज्ञान का, वाहक नहीं विरोध।
निहित कथा-उपदेश में, शिक्षा मूल्य प्रबोध।।

नहीं व्यक्तिगत आचरण, पंथ- धर्म पर्याय।
वैज्ञानिक का आचरण, हैं न विषय अध्याय।।

धर्म-और धार्मिक नहीं, हो सकते हैं एक।
खूबी-खामी व्यक्ति में, धर्म अनेकानेक।।

हर युग का जो सत्य है, वही धर्म का अंग।
रच संगणक पुराण हम, भर सकते नव रंग।।

अणु-सूत्रों को समाहित, किये हुए ऋग्वेद।
वास्तु सिविल इंजीनियरिंग, क्यों न मानिए?खेद।।

मिले पुराणों में कई, नगर-न्यास-सिद्धांत।
मूल चिकित्सा-शास्त्र का, समझ न हम दिग्भ्रांत।।

कंद मूल जड़ पत्तियाँ मृदा, मिटातीं रोग।
धर्म करे उपयोग पर, 'ज्ञान करे उपभोग।।

धर्म प्रकृति को माँ कहे, पूजें-रक्षें मीत।
कह पदार्थ विज्ञान ने शोषण किया अनीत।।

धर्म और विज्ञानं हैं, सिक्के के दो पक्ष।
लक्ष्य एक मानव बने, जग-हितकारी दक्ष।।
*

गुरुवार, 23 मई 2013

dharm aur vigyan 1 -sanjiv

धर्म और विज्ञान १
संजीव
*
धर्म सनातन सत्य है, सत्य कहे विज्ञान
परिवर्तन विज्ञान की सदा रहा पहचान

अनहद या बिग बैंग में तनिक नहीं है फर्क
रव से कण पैदा हुआ, कहते श्रृद्धा-तर्क

कण के दो आवेश के प्रकृति-पुरुष हैं नाम
मिलें-अलग हों, फिर मिलें रचना सतत ललाम

विधि ब्रम्हा-बुधि शारदा, भाव-क्रिया संयोग
विष्णु विषाणु पचा, सके श्री लक्ष्मी को भोग

शिव विष को धर कंठ में, हुए चन्द्र के नाथ
शिवा समाईं अग्नि में, प्रगटीं लें दस हाथ

रक्ष-संकटों को दिया मार, दिए नव मूल्य
मानव दानव हो नहीं, हो न सृष्टि निर्मूल्य

आदि शक्तियों का नहीं, हम सा तन-आकार
गुण-धर्मों पर चित्र हैं, वे थे निर-आकार

गुण-धर्मों की विविधता, सृजे नित नए रूप
पञ्च तत्व को जानिए, सृजन-चक्र का भूप

जल-जलचर उत्पत्ति को, कहें मत्स्य अवतार
जल-थल पर कच्छप जिया, हुआ सृष्टि विस्तार

थल-जल में वाराह ने, किया क्रिया व्यापार
नरसिंह को थल ही रुचा, अतुलित बल आगार

वामन पशु से मनुज तक, यात्रा का गंतव्य
परशुराम के मूल्य थे, मानव का भवितव्य

राम मनुज रक्षक रहे, दनुज हुए सब वध्य
कृष्ण इंद्र से लड़ सके, रह भूवासी-मध्य

सम्यक संयम का लिए आये बुद्ध विचार
महावीर को हेय था संग्रह का आचार

धर्म या कि विज्ञान हैं एक सत्य दो नाम
राह भले दिखतीं अलग, मिले एक परिणाम

सत्ता रचती है सदा, अपने हित की राह
जनता करती है नहीं, बहुत अधिक परवाह

दीप जलाते ही तिमिर, छिपता नीचे आप
ज्योति बुझे तो निमिष में, जाता है तम व्याप

धर्म और विज्ञान हैं, व्याख्या-विधियाँ मात्र
उतना समझे सत्य वह, जो जितना है पात्र
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bundeli muktika: -- acharya sanjiv verma 'salil'

बुन्देली मुक्तिका :
काय रिसा रए
संजीव
*
काय रिसा रए कछु तो बोलो
दिल की बंद किवरिया खोलो

कबहुँ न लौटे गोली-बोली
कओ बाद में पैले तोलो

ढाई आखर की चादर खों
अँखियन के पानी सें धो लो

मिहनत धागा, कोसिस मोती
हार सफलता का मिल पो लो

तनकउ बोझा रए न दिल पे
मुस्काबे के पैले रो लो
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shriddhanjali: saaz jabalpuri -sanjiv

स्मरण:
साज़ गया आवाज शेष है...
संजीव
*
जबलपुर, १८ मई २००१३. सनातन सलिल नर्मदा तट पर पवित्र अग्नि के हवाले की गयी क्षीण काया चमकती आँखों और मीठी वाणी को हमेशा-हमेशा के लिए हम सबसे दूर ले गयी किन्तु उसका कलाम उसकी किताबों और हमारे ज़हनों में चिरकाल तक उसे जिंदा रखेगा. साज़ जबलपुरी एक ऐसी शख्सियत है जो नर्मदा के पानी को तरह का तरह पारदर्शी रहा. उसे जब जो ठीक लगा बेबाकी से बिना किसी की फ़िक्र किये कहा. आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक बंदिशें उसके कदम नहीं रोक सकीं.

उसने वह सब किया जो उसे जरूरी लगा... पेट पालने के लिए सरकारी नौकरी जिससे उसका रिश्ता तन के खाने के लिए तनखा जुटाने तक सीमित था, मन की बात कहने के लिए शायरी, तकलीफज़दा इंसानों की मदद और अपनी बात को फ़ैलाने के लिए पत्रकारिता, तालीम फ़ैलाने और कुछ पैसा जुगाड़ने के लिए एन.जी.ओ. और साहित्यिक मठाधीशों को पटखनी देने के लिए संस्था का गठन-किताबों का प्रकाशन. बिना शक साज़ किताबी आदर्शवादी नहीं, व्यवहारवादी था.

उसका नजरिया बिलकुल साफ़ था कि वह मसीहा नहीं है, आम आदमी है. उसे आगे बढ़ना है तो समय के साथ उसी जुबान में बोलना होगा जिसे समय समझता है. हाथ की गन्दगी साफ़ करने के लिए वह मिट्टी को हाथ पर पल सकता है लेकिन गन्दगी को गन्दगी से साफ़ नहीं किया जा सकता. उसका शायर उसके पत्रकार से कहीं ऊँचा था लेकिन उसके कलाम पर वाह-वाह करनेवाला समाज शायरी मुफ्त में चाहता है तो अपनी और समाज की संतुष्टि के लिए शायरी करते रहने के लिए उसे नौकरी, पत्रकारिता और एन. जी. ओ. से धन जुटाना ही होगा. वह जो कमाता है उसकी अदायगी अपनी काम के अलावा शायरी से भी कर देता है.

साज़ की इस बात से सहमति या असहमति दोनों उसके लिए एक बार सोचने से ज्यादा अहमियत नहीं रखती थीं. सोचता भी वह उन्हीं के मशविरे पर था जो उसके लिए निजी तौर पर मानी रखते थे. सियासत और पैसे पर अदबी रसूख को साज ने हमेशा ऊपर रखा. कमजोर, गरीब और दलित आदमी के लिए तहे-दिल से साज़ हमेशा हाज़िर था.

साज़ की एक और खासियत जुबान के लिए उसकी फ़िक्र थी. वह हिंदी और उर्दू को माँ और मौसी  की तरह एक साथ सीने से लगाये रखता था. उसे छंद और बहर के बीच पुल बनाने की अहमियत समझ आती थी... घंटों बात करता था इन मुद्दों पर. कविता के नाम पर फ़ैली अराजकता और अभिव्यक्ति का नाम पर मानसिक वामन को किताबी शक्ल देने से उसे नफरत थी. चाहता तो किताबों का हुजूम लगा देता पर उसने बहुतों द्वारा बहुत बार बहुत-बहुत इसरार किये जाने पर अब जाकर किताबें छापना मंजूर किया.

साज़ की याद में मुक्तक :
*
लग्न परिश्रम स्नेह समर्पण, सतत मित्रता के पर्याय
दुबले तन में दृढ़ अंतर्मन, मौलिक लेखन के अध्याय
बहर-छंद, उर्दू-हिंदी के, सृजन सेतु सुदृढ़ थे तुम-
साज़ रही आवाज़ तुम्हारी, पर पीड़ा का अध्यवसाय
*
गीत दुखी है, गजल गमजदा, साज मौन कुछ बोले ना
रो रूबाई, दर्द दिलों का छिपा रही है, खोले ना
पत्रकारिता डबडबाई आँखों से फलक निहार रही
मिलनसारिता गँवा चेतना, जड़ है किंचित बोले ना
*
सम्पादक निष्णात खो गया, सुधी समीक्षक बिदा हुआ
'सलिल' काव्य-अमराई में, तन्हा- खोया निज मीत सुआ
आते-जाते अनगिन हर दिन, कुछ जाते जग सूनाकर
नैन न बोले, छिपा रहे, पर-पीड़ा कहता अश्रु  चुआ
*
सूनी सी महफिल बहिश्त की, रब चाहे आबाद रहे
जीवट की जयगाथा, समय-सफों पर लिख नाबाद रहे
नाखूनों से चट्टानों पर, कुआँ खोद पानी की प्यास-  
आम आदमी के आँसू की। कथा हमेशा याद रहे
*
साज़ नहीं था आम आदमी, वह आमों में आम रहा
आडम्बर को खुली चुनौती, पाखंडों प्रति वाम रहा
कंठी-तिलक छोड़, अपनापन-सृजनधर्मिता के पथ पर
बन यारों का यार चला वह, करके नाम अनाम रहा

आपके और साज़ के बीच से हटते हुए पेश करता हूँ साज़ की शायरी के चंद नमूने: 
अश'आर:
लोग नाखून से चट्टानों पे बनाते हैं कुआँ
और उम्मीद ये करते हैं कि पानी निकले
*
कत'आत
जिंदगी दर्द नहीं, सोज़ नहीं, साज़ नहीं
एक अंजामे-तमन्ना है ये आगाज़ नहीं
जिंदगी अहम् अगर है तो उसूलें से है-
सांस लेना ही कोई जीने का अंदाज़ नहीं
*
कोई बतलाये कि मेरे जिस्मो-जां में कौन है?
बनके उनवां ज़िन्दगी की दास्तां में कौन है?
एक तो मैं खुद हूँ, इक तू और इक मर्जी तिरी-
सच नहीं ये तो बता, फिर दोजहां में कौन है?
*
गजल
या माना रास्ता गीला बहुत है
हमारा अश्म पथरीला बहुत है

ये शायद उनसे मिलके आ रहा है
फलक का चाँद चमकीला बहुत है

ये रग-रग में बिखरता जा रहा है
तुम्हारा दर्द फुर्तीला बहुत है

लबों तक लफ्ज़ आकर रुक गए हैं
हमारा प्यार शर्मीला बहुत है

न कोई पेड़, न साया, न सब्ज़ा
सफर जीवन का रेतीला बहुत है

कहो साँपों से बचकर भाग जाएं
यहाँ इन्सान ज़हरीला बहुत है
 *
गजल 
 तन्हा न अपने आप को अब पाइये जनाब,
मेरी ग़ज़ल को साथ लिए जाइये जनाब।


ऐसा न हो थामे हुए आंसू छलक पड़े,
रुखसत के वक्त मुझको न समझाइये जनाब।


मैं ''साज़'' हूँ ये याद रहे इसलिए कभी,
मेरे ही शे'र मुझको सुना जाइये जनाब।।

*

बुधवार, 22 मई 2013

Rare photo ; funeral of mortyres bhagat sinh, rajguru & sukhdev

धरोहर :

geet-prati geet : mahesh chandr dwivedi-acharya sanjiv verma 'salil'

गीत-प्रतिगीत 
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महेश चन्द्र द्विवेदी
ॐकार बनना चाहता हूं

प्रकाश तक के आगमन का द्वार कर बंद
अभेद्य अपने को जो मान बैठा था स्वयं,
ना देखता था,  और ना सुनता किसी की
अनंत गुरुत्वाकर्षणयुक्त था वह आदिपिंड.

ऐसे आदिपिंड को जो चिरनिद्रा से जगा दे
उस प्रस्फुटन की ॐकार बनना चाहता हूं.

युगों तक जो बना रहता इक तिमिर-छिद्र
अकस्मात बन जाता विस्फोटक बम सशक्त.
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर बना देता गृह-नक्षत्र.

उस तिमिर-छिद्र को कुम्भकर्णी नींद से 
जो जगा दे,  मैं वह हुंकार बनना चाहता हूं.

नश्वर विश्व का अणु-अणु रहता अनवरत-
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
वृत्त-परिधि का हर विंदु स्वयं में है आदि,
और है स्वयं में ही एक अंत,  स्वसीमित.


लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं,  परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं.

आदि प्रलय की ॐकार बनना चाहता हूं.

Mahesh Dewedy <mcdewedy@gmail.com>
*
संजीव 
गीत:
चाहता हूँ ...
संजीव
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो

हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिय 

मंगलवार, 21 मई 2013

doha gatha : acharya sanjiv verma 'salil'

दोहा लें दिल में बसा
दोहा मित्रो,

मैं दोहा हूँ आप सब हैं मेरा परिवार.
कुण्डलिनी दोही सखी, 'सलिल' सोरठा यार.

जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है, उन सबका अभिनंदन। उन्हें समर्पित है एक दोहा-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान.
रसरी आवत-जात ते, सिल पर पड़त निसान.

हारिये न हिम्मत... लिखते और भेजते रहें दोहे। हम सब कुछ कालजयी दोहाकारों के लोकप्रिय-चर्चित दोहों का रसास्वादन कर धन्य हों।

दोहा है इतिहास:


दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में 'कउवों के अंत में 'दत्ता' नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है।

जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.

११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.

कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ

मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है। एक दोहा देखें-

वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु

कहे सोरठा दुःख कथा:

सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान पूरी मार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अमर हो गया। कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी।। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया। मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं-

वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.

दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकास यात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें कि हर काल की अपनी भाषा होती है। जिस तरह उक्त दोहों की भाषा समझना हमारे लिए त्कात्हीं है वैसे ही नमन कवियों की भाषा में आज दोहा रचें तो नयी पीढ़ी के लिए ग्राह्य करना कठिन होगा। अतः,  आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्द उपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें-

कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर.
पाछो लागे हरि फिरे, कहत कबीर-कबीर.

असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय.
संत समागम राम धन, तुलसी दुर्लभ होय.

बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि.
हिरदै से जब जाइगो, मर्द बदौंगो तोहि. - सूरदास

पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार.
सब सिंगार रतनावली, इक पियु बिन निस्सार.

अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ काम.
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिले न राम.

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 दोहा लें दिल में बसा, लें दोहे को जान.
दोहा जिसको सिद्ध हो, वह होता रस-खान.

दोहा लेखन में द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु अक्षरों के रूपाकार और मात्रा गणना के लिए निम्न पर ध्यान दें-

अ. सभी दीर्घ स्वर: जैसे- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
 
आ. दीर्घ स्वरों की ध्वनि (मात्रा) से संयुक्त सभी व्यंजन। यथा: का, की, कू, के, कै, को, कौ आदि।

इ. बिन्दीयुक्त (अनुस्वार सूचक) स्वर। उदाहरण: अंत में अं, चिंता में चिं, कुंठा में कुं, हंस में हं, गंगा में गं,
खंजर में खं, घंटा में घं, चन्दन में चं, छंद में छं, जिंदा में जिं, झुंड में झुं आदि।

ई. विसर्गयुक्त ऐसे वर्ण जिनमें हलंत ध्वनित होता है। जैसे: अतः में तः, प्रायः में यः, दु:ख में दु: आदि।

उ. ऐसा हृस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात होता हो। यथा: भक्त में भ, मित्र में मि, पुष्ट में पु, सृष्टि में सृ, विद्या में वि, सख्य में स, विज्ञ में वि, विघ्न में वि, मुच्य में मु, त्रिज्या में त्रि, पथ्य में प, पद्म में प, गर्रा में र।

उक्त शब्दों में लिखते समय पहला अक्षर लघु है किन्तु बोलते समय पहले अक्षर के साथ उसके बाद का आधा अक्षर जोड़कर एक साथ बोला जाता है तथा संयुक्त अक्षर के उच्चारण में एक एकल अक्षर के उच्चारण में लगे समय से अधिक लगता है। इस कारण पहला अक्षर लघु होते हुए भी बाद के आधे अक्षर को जोड़कर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं

ऊ. शब्द के अंत में हलंत हो तो उससे पूर्व का लघु अक्षर दीर्घ मानकर २ मात्राएँ गिनी जाती हैं। उदाहरण: स्वागतम् में त, राजन् में ज. सरित में रि, भगवन् में न्, धनुष में नु आदि.

ए. दो ऐसे निकटवर्ती लघु वर्ण जिनका स्वतंत्र उच्चारण अनिवार्य न हो और बाद के अकारांत लघु वर्ण का उच्चारण हलंत वर्ण के रूप में हो सकता हो तो दोनों वर्ण मिलाकर संयुक्त माने जा सकते हैं। जैसे: चमन् में मन्, दिल् , हम् दम् आदि में हलंतयुक्त अक्षर अपने पहले के अक्षर के साथ मिलाकर बोला जाता है. इसलिए दोनों को मिलाकर गुरु वर्ण हो जाता है

मात्रा गणना हिन्दी ही नहीं उर्दू में भी जरूरी है। गजल में प्रयुक्त होनेवाली 'बहरों' ( छंदों) के मूल अवयव 'रुक्नों" (लयखंडों) का निर्मिति भी मात्राओं के आधार पर ही है। उर्दू छंद शास्त्र में भी अक्षरों के दो भेद 'मुतहर्रिक' (लघु) तथा 'साकिन' (हलंत) मान्य हैं। उर्दू में रुक्न का गठन अक्षर गणना के आधार पर होता है जबकि हिंदी में छंद का आधार उच्चारण समय पर आधारित मात्रा गणना है। वस्तुतः हिन्दी और उर्दू दोनों का उद्गम संस्कृत है, जिससे दोनों ने ध्वनि उच्चारण की नींव पर छंद शास्त्र गढ़ने की विरासत पाई और उसे दो भिन्न तरीकों से विकसित किया

मात्रा गणना को सही न जाननेवाला न तो दोहा या गीत सही लिख सकेगा न ही गजल। आजकल लिखी जानेवाली अधिकाँश पद्य रचनायें निरस्त किये जाने योग्य हैं, चूंकि उनके रचनाकार परिश्रम करने से बचकर 'भाव' की दुहाई देते हुए 'शिल्प' की अवहेलना करते हैं। ऐसे रचनाकार एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर स्वयं भले ही संतुष्ट हो लें किन्तु उनकी रचनायें स्तरीय साहित्य में कहीं स्थान नहीं बना सकेंगी। साहित्य आलोचना के नियम और सिद्धांत दूध का दूध और पानी का पानी करने नहीं चूकते। हिंदी रचनाकार उर्दू के मात्रा गणना नियम जाने और माने बिना गजल लिखकर तथा उर्दू शायर हिन्दी मात्रा गणना जाने बिना दोहे लिखकर दोषपूर्ण रचनाओं का ढेर लगा रहे हैं जो अंततः जानकारों और पाठकों / श्रोताओं द्वारा खारिज किया जा रहा है। अतः 'दोहा गाथा..' के पाठकों से अनुरोध है कि उच्चारण तथा मात्रा संबन्धी जानकारी को हृदयंगम कर लें ताकि वे जो भी लिखें वह समादृत हो

गंभीर चर्चा को यहीं विराम देते हुए दोहा का एक और सच्चा किस्सा सुनाएँ..
 
अमीर खुसरो का नाम तो आप सबने सुना ही है। वे हिन्दी और उर्दू दोनों के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार हैं। वे अपने समय की मांग के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ भाषा तथा अरबी-फारसी मिश्रित जुबान के साथ-साथ आम लोगों की बोलचाल की बोली 'हिन्दवी' में भी लिखते थे बावजूद इसके कि वे दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात थे

जनाब खुसरो एक दिन घूमने निकले। चलते-चलते दूर निकल गए, जोरों की प्यास लगी। अब क्या करें? आस-पास देखा तो एक गाँव दिखा। सोचा, चलकर किसी से पानी मांगकर प्यास बुझायें। गाँव के बाहर एक कुँए पर औरतों को पानी भरते देखकर खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। खुसरो चकराये कि सुनने के बाद भी उनमें से किसी ने तवज्जो नहीं दी। शायद पहचान नहीं सकीं। 
 
दोबारा पानी माँगा तो उनमें से एक ने कहा कि पानी एक शर्त पर पिलायेंगी कि खुसरो उन्हें उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गए कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर भी उनकी झुंझलाहट का आनंद लेते हुए अपनी मनोकामना पूरी करना चाहती हैंकोई और रास्ता भी न था, प्यास बढ़ती जा रही थी। खुसरो ने उनकी शर्त मानते हुए विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया और सोचा कि आज किस्मत खुल गयी। महाकवि खुसरो के दर्शन तो हुए ही चार-चार कवितायें सुनाने का मौका भी मिल गया। 
 
विषय सुनकर खुसरो एक पल झुंझलाये... कैसे बेढब विषय हैं? इन पर क्या कविता करें?, न करें तो अपनी अक्षमता दर्शायें... ऊपर से प्यास... इन औरतों से हार मानना भी गवारा न था... राज हठ और बाल हठ के समान त्रिया हठ के भी किस्से तो खूब सुने थे पर आज उन्हें एक-दो नहीं चार-चार महिलाओं के त्रिया हठ का सामना करना था। खुसरो ने विषयों पर गौर किया...खीर...चरखा...कुत्ता...और ढोल... चार कवितायें तो सुना दें पर प्यास के मरे जान निकली जा रही थी

इन विषयों पर ऐसी स्थति में आपको कविता करनी हो तो क्या करेंगे? चकरा रहे हैं न? ऐसे मौकों पर अच्छे-अच्छों की अक्ल काम नहीं करती पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप। उन्होंने शरण ली दोहे की और छोटे छंद दोहा ने उनकी नैया पार लगायी। खुसरो ने एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली। खुसरो का वह दोहा है- 
 
खीर  पकाई जतन से, चरखा दिया जलाय
आया  कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय।। 
                                        ला, पानी पिला... 
 
दोहे के साथ 'ला, पानी पिला' कहकर खुसरो ने पानी माँगा था किन्तु कालांतर में इस तरह कुछ शब्द जोड़कर दुमछल्ले दोहे खूब कहे-सुने-सराहे गये। उनकी शेष चर्चा यशास्थान होगी।
 
अंत में एक काम आपके लिए- अपनी पसंद का एक दोहा लिख भेजिए, दोहाकार का नाम और आपको क्यों पसंद है?,  जरूर बतायें। 
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हिन्दयुग्म २७ . १२ . २००८, २१ . ३ . २००९