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सोमवार, 22 सितंबर 2025

फूलों पर गीत

स्वर्ण चम्पा
स्वर्ण चम्पा से सुवासित बाग 
सोनपरियाँ झुलसतीं ले आग 
० 
ज्योत्सना आकर रही है छेड़
जगाती है संत में अनुराग 
० 
फागुनी हैं हवाएँ मदमस्त
रंग ले आईं लगाएँ दाग 
० 
उषा किरणें लिपटतीं ले मोह
जलन से काला हुआ है काग 
० 
शीत छेदे बदन, मारे तीर  
सिहरता ज्यों डँस रहा हो नाग
० 
दामिनी हो कामिनी गिरती
बिन दिए कंधा रही है दाग 
० 
कर 'सलिल' में  स्नान हो शीतल      
नर्मदा को नमन कर झट जाग 
*
            स्वर्ण चम्पा एक शानदार फूल है। इसकी तेज सुगंध पेड़ से २० मीटर दूर तक अनुभव की जा सकती है।इसकी स्वर्गिक सुगन्ध एक बार अनुभव हो तो आप अपने आसपास चौक कर देखने लगते हैं कि यह किधर से आ रही है। इसी मनमोहक सुगंध के कारण इसे अगरबत्ती और इत्र बनाने में उपयोग किया जाता है। यह सुगंध इसके फूल को सुखा देने के बाद भी बनी रहती है। इसका पेड़ बड़ा होता है। आकर्षित करने वाला सुगंध होने के कारण लोग निचली डालियों से फूल तोड़ने से स्वयं को नहीं रोक पाते। इसकी डालियाँ बहुत ही ठनकी होती हैं, प्रायः टूट जाती हैं। इसीलिए निचली डालियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, ऊँची डालियों में लगे फूल ही अपनी सुगंध बिखेरते रहते हैं।

            यह फूल पीला होता है जैसे कि सोना। सोना को संस्कृत में स्वर्ण कहते हैं। चम्पा मैगनोलिया वर्ग के कई प्रकार के फूलों को कहते हैं जिन्हें चम्पा के आगे अलग-अलग उपसर्ग लगा कर पुकारते हैं। इसीलिए इस फूल को स्वर्ण-चम्पा नाम दिया गया है। कुछ अन्य प्रकार के फूलों को कठ-चंपा, कटेली चंपा आदि नाम से भी पुकारा जाता है। 

            स्वर्ण चम्पा को हिमालयन चम्पा के नाम से भी जाना जाता है। यह मूल रूप में दक्षिण पूर्वी एशिया का पेड़ है जो नमी वाली मिट्टी और धूप को पसन्द करता है। देसी पेड़ होने के कारण इसका उल्लेख कुछ हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। मंदिर परिसर में भी यह पेड़ लगाया जाता है। स्वर्ण चम्पा और बकुल के पेड़ों को मंदिर मुख्य द्वार के दोनों ओर लगाने का प्रचलन है। आवासीय परिसरों के मुख्य द्वार के पास स्वर्ण चम्पा वृक्ष लगाया जाता है। 

स्वर्ण चम्पा का वृक्ष

            स्वर्ण चम्पा श्री गणेश, शिव जी, श्री विष्णु और देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि चम्पा और केवड़े के फूल शिव को अर्पित नहीं किये जाते जिसके लिए कुछ लोकगाथाओं का उदहारण दिया जाता है। केवड़े के फूल के बारे में यह सही हो सकता है परन्तु चम्पा के लिए यह सत्य नहीं है। आदिशंकराचार्य द्वारा रचित "शिवमानस पूजा" में लिखा है,

"जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम गृह्यताम |"

            अर्थात - हे दयालु पशुपति महादेव ! हृदय में कल्पना कर जूही, चम्पा, बेलपत्र, फूल और धूप -दीप आपको समर्पित करता हूँ। कृपया, ग्रहण कीजिए।

            इससे स्पष्ट है कि चम्पा के फूल शिव को अर्पित किये जाते हैं | एक अन्य लोकगाथा जो महाभारत के समकालीन है के अनुसार ओड़िसा के बरुण पर्वत के समीप कुंती ने महादेव को एक लाख स्वर्ण चम्पा फूल अर्पित किये थे इस अभिलाषा से कि महाभारत युद्ध में उनके पुत्रों की विजय हो। अर्थात शिव को यह पुष्प प्रिय है। यह फूल माता लक्ष्मी को भी अर्पित किया जाता है। वस्तुतः स्वर्ण चम्पा देवी लक्ष्मी का प्रतिनिधित्व करता है। पीले पुष्प गणेश और विष्णु को पसन्द हैं। अतः, यह फूल इन दोनो देवताओं को भी चढ़ाया जाता है। फूलों का मौसम समाप्त होने के बाद इनमे फल लगते हैं जो न्यूनाधिक रूप में अंगूर के गुच्छे जैसे होते हैं।

सोन चंपा (स्वर्ण चंपा) का पौधा गमले में लगाने की विधि:

सामग्री: सोन चंपा का पौधा (छोटा या बड़ा), मिट्टी का मिश्रण (६०% रेतीली मिट्टी, ३०% वर्मी कम्पोस्ट, १०% गोबर की खाद), गमला (पौधे के आकार से थोड़ा बड़ा), पानी, कंकड़ या बजरी (जल निकासी के लिए)। 

विधि: गमले में जल निकासी छेदों की जाँच करें। यदि छेद छोटे हैं या पर्याप्त नहीं हैं तो उन्हें बड़ा करें। गमले के तल में कंकड़ या बजरी की एक परत बिछाएँ। यह जल निकासी में सुधार करने में मदद करेगा और जड़ सड़न को रोकेगा। मिट्टी के मिश्रण को गमले में आधा भरें। पौधे को गमले के केंद्र में रखें। बजरी  मिट्टी के मिश्रण से पौधे को भरें। मिट्टी को हल्के से दबाएँ ताकि पौधा मजबूती से टिक जाए। पौधे को अच्छी तरह से पानी दें। गमले को ऐसी जगह पर रखें जहाँ उसे प्रत्यक्ष सूर्य की रोशनी मिले। मिट्टी को सूखने पर नियमित रूप से पानी दें। हर २-३  महीने में पौधे को खाद दें।

        सोन चंपा को थोड़ी अम्लीय मिट्टी पसंद है। आप मिट्टी की अम्लता को कम करने के लिए थोड़ा नींबू का रस या सिरका पानी में मिला सकते हैं। गर्मियों में पौधे को अधिक पानी दें, और सर्दियों में कम। सुनिश्चित करें कि गमले में जल निकासी छेद हैं। मुरझाए हुए या पीले पत्तों को नियमित रूप से हटा दें। यदि आप पौधे को घर के अंदर रखते हैं, तो उसे एक नम ट्रे पर रखें। सोन चंपा एक सुंदर और सुगंधित फूल वाला पौधा है।
***

रविवार, 21 सितंबर 2025

सितंबर १९, हम वही हैं, निशा तिवारी, मेघ

सलिल सृजन सितंबर १९
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : समन्वय प्रकाशन जबलपुर
बचपन के दिन : साझा संस्मरण संकलन
संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान द्वारा विश्व कीर्तिमान स्थापित कर रहे साझा संकलनों दोहा दोहा नर्मदा २५०/-, दोहा सलिला निर्मला २५०/-, दोहा दिव्य दिनेश ३००/-, हिंदी सॉनेट सलिला ५००/-, चंद्र विजय अभियान ११००/- तथा फुलबगिया ११००/- की श्रंखला में बाल संस्मरण संकलन 'बचपन के दिन' का प्रकाशन किया जाना है। रचनाकारों से १३-१४ वर्ष तक की आयु के रोचक-प्रामाणिक संस्मरण संबंधित चित्रों तथा संक्षिप्त परिचय सहित आमंत्रित हैं। हर सहभागी को २ प्रतियाँ दी जाएँगी। सहभागिता निधि ३५०/- प्रति पृष्ठ (एक पृष्ठ पर लगभग २५० शब्द) + २००/- अग्रिम वाट्स ऐप क्रमांक ४९२५१८३२४४ पर संस्मरण के साथ भेजें। परिचय बिंदु- नाम, जन्म तारीख माह वर्ष स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी के नाम, शिक्षा, संप्रति, उपलब्धि, प्रकाशित स्वतंत्र कृति, डाक का पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स ऐप क्रमांक।    

सहभागी - 
नीलिमा रंजन जी भोपाल, खंजन सिन्हा जी भोपाल, शिप्रा सेन जी जबलपुर, जहांआरा 'गुल' जी लखनऊ, अवधेश सक्सेना जी शिवपुरी, सरला वर्मा जी भोपाल, अंजली बजाज जी नैरोबी, प्रदीप सिंह जी मुंबई, अर्जुन चव्हाण जी, कोल्हापुर, पवन सेठी जी मुंबई, बसंत शर्मा जी प्रयागराज, मनीषा सहाय राँची, अरविंद श्रीवास्तव झाँसी, शीरीन कुरेशी सरदारपुर, संतोष शुक्ला जी नवसारी, अस्मिता शैली जी जबलपुर, संगीता भारद्वाज भोपाल, भागवत प्रसाद तिवारी जी जबलपुर, मुकुल तिवारी जी जबलपुर, छाया सक्सेना जी जबलपुर, शोभा सिंह जी जबलपुर, मृगेंद्र नारायण सिंह जी जबलपुर, अश्विनी पाठक जी जबलपुर, सुरेन्द्र पवार जी जबलपुर, दुर्गेश ब्योहार जी जबलपुर, अविनाश ब्योहार जी जबलपुर, उमेश साहू जी, नवनीता चौरसिया जी जावरा। 

विशेष आकर्षण- महापुरुषों का बचपन, बचपन पर डाक टिकिट, बाल साहित्य पत्रिकाएँ, बचपन संबंधी चित्रपटीय गीत सूची, बाल कल्याण हेतु सक्रिय संस्थाएँ आदि। सहभागी शीघ्रता करें। ३० सितंबर तक संस्मरण तथा संबंधित चित्र आदि सामग्री व सहभागिता निधि वाट्सऐप ९४२५१८३२४४ पर भेजिए।
०००
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
*क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
भू की बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
***
एक गीत -
हम वही हैं
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
*
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
*
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
*
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
*
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
*
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
*
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
*
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
*
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
*
जय हिंद
जय भारत
वन्दे मातरम्
भारत माता की जय
*
पुस्तक चर्चा -
वर्तमान युग का नया चेहरा: 'काल है संक्रांति का'
समीक्षक: डॉ. निशा तिवारी
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', वर्ष २०१६, आवरण बहुरँगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२८, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैक २००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ०७६१२४१११३१, गीतकार संपर्क- ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*
'काल है संक्रांति का' संजीव वर्मा 'सलिल' का २०१६ में प्रकाशित नवीन काव्य संग्रह है। वे पेशे से अभियंता रहे हैं। किन्तु उनकी सर्जक प्रतिभा उर्वर रही है। सर्जना कभी किसी अनुशासन में आबद्ध नहीं रह सकती। सर्जक की अंत:प्रज्ञा (भारतीय काव्य शास्त्र में 'प्रतिभा' काव्य शास्त्र हेतु), संवेदनशीलता, भावाकुलता और कल्पना किसी विशिष्ट अनुशासन में बद्ध न होकर उन्मुक्त उड़ान भरती हुई कविता में निःसृत होती है। यही 'सलिल जी' की सर्जन-धर्मिता है। यद्यपि उनके मूल अनुशासन का प्रतिबिम्ब भी कहीं-कहीं झलककर कविता को एक नया ही रूप प्रदान करता है। भौतिकी की 'नैनो-पीको' सिद्धांतिकी जिस सूक्ष्मता से समूह-क्रिया को संपादित करती है, वह सलिल जी के गीतों में दिखाई देती है। उत्तर आधुनिक वैचारिकी के अन्तर्गत जिस झंडी-खण्ड चेतना का रूपायन सम-सामयिक साहित्य में हो रहा है वही चिन्तना सलिल जी के गीतों में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, साहित्यिक विसंगतियों के रूप में ढलकर आई है- रचनाकार की दृष्टि में यही संक्रांति का काल है। संप्रति नवलेखन में 'काल' नहीं वरन 'स्पेस' को प्रमुखता मिली है।
शब्दों की परंपरा अथवा उसके इतिहास के बदले व्यंजकों के स्थगन की परिपाटी चल पड़ी है। सलिल जी भी कतिपय गीतों में पुराने व्यंजकों को विखण्डित कर नए व्यंजकों की तलाश करते हैं। उनका सबसे प्रिय 'व्यंजक' सूर्य है। उनहोंने सूर्य के 'आलोक' के परंपरागत अर्थ 'जागरण' को ग्रहण करते हुए भी उसे नए व्यंजक का रूप प्रदान किया है। 'उठो सूरज' गीत में उसे साँझ के लौटने के संदर्भ में 'झुको सूरज! विदा देकर / हम करें स्वागत तुम्हारा' तथा 'हँसों सूर्य भाता है / खेकर अच्छे दिन', 'आओ भी सूरज! / छँट गए हैं फुट के बदल / पतंगें एकता की मिल उड़ाओ। / गाओ भी सूरज!', 'सूरज बबुआ! / चल स्कूल। ', 'हनु हुआ घायल मगर / वरदान तुमने दिए सूरज!', 'खों-खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी' इत्यादि व्यंजक सूरज को नव्यता प्रदान करते हैं, यद्यपि कवि का परंपरागत मन सूरज को 'तिमिर-विनाशक' के रूप में ही ग्रहण करता है।
कवि का परंपरागत मन अपने गीतों में शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों के मंगलाचरण के अभियोजन को भी विस्मृत नहीं कर पाता। मंगलाचरण के रूप में वह सर्वप्रथम हिंदी जाति की उपजाति 'कायसिहों' के आराध्य 'चित्रगुप्त जी' की वंदना करता है। यों भी चित्रगुप्त जी मनुष्य जाति के कर्मों का लेखा-जोखा रखनेवाले देवता हैं। ऐसा माना जाता है कि उत्तर आधुनिक युग में धर्मनिरपेक्षता का तत्व प्रबल है- कवि की इस वन्दना में चित्रगुप्त जी को शिव, ब्रम्हा, कृष्ण, पैग़ंबर, ईसा, गुरु नानक इत्यादि विभिन्न धर्मों के ईश्वर का रूप देकर सर्वधर्म समभाव का परिचय दिया गया है। चित्रगुप्त जी की वन्दना में भी कवि का प्रिय व्यंजक सूर्य उभरकर आया है - 'तिमिर मिटाने / अरुणागत हम / द्वार तिहरे आए।'
कला-साहित्य की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अभ्यर्थना में कवि ने एक नवीन व्यंजना करते हुए ज्ञान-विज्ञान-संगीत के अतिरिक्त काव्यशास्त्र के समस्त उपादानों की याचना की है और सरस्वती माँ की कृपा प्राप्त प्राप्त करने हेतु एक नए और प्रासंगिक व्यंजक की कल्पना की है- 'हिंदी हो भावी जगवाणी / जय-जय वीणापाणी।' विश्वभाषा के रूप में हिंदी भाषा की यह कल्पना हिंदी भाषा के प्रति अपूर्व सम्मान की द्योतक है।
हिन्दू धर्म में प्रत्येक मांगलिक कार्य के पूर्व अपने पुरखों का आशिर्वाद लिया जाता है। पितृ पक्ष में तो पितरों के तर्पण द्वारा उनके प्रति श्रद्धा प्रगट की जाती है। गीत-सृजन को अत्यंत शुभ एवं मांगलिक कर्म मानते हुए कवि ने पुरखों के प्रति यही श्रद्धा व्यक्त की है। इस श्रद्धा भाव में भी एक नवीन संयोजन है- 'गीत, अगीत, प्रगीत न जानें / अशुभ भुला, शुभ को पहचानें / मिटा दूरियाँ, गले लगाना / नव रचनाकारों को ठानें कलश नहीं, आधार बन सकें / भू हो हिंदी-धाम। / सुमिर लें पुरखों को हम / आओ! करें प्रणाम।' कवि अपनी सीमाओं को पहचानता है, सर्जना का दंभ उसमें नहीं है और न ही कोई दैन्य है। वह तो पुरखों का आशीर्वाद प्राप्त कर केवल हिंदी को विश्व भाषा बनाने का स्वप्न पूरा करना चाहता है। यदि चित्रगुप्त भगवान की, देवी सरस्वती की और पुरखों की कृपा रही तो हिंदी राष्ट्रभाषा तो क्या, विश्व भाषा बनकर रहेगी। सलिल जी के निज भाषा-प्रेम उनके मंगलाचरण अथवा अभ्यर्थना का चरम परिपाक है।
उनकी समर्पण कविता इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि उनहोंने उसमें रक्षाबन्धन पर्व की एक सामान्यीकृत अभिव्यंजना की है। बहिनों के प्रत्येक नाम संज्ञा से विशेषण में परिवर्तित हो गए हैं और रक्षासूत्र बाँधने की प्रत्येक प्रक्रिया, आशाओं का मधुवन बन गयी है। मनुष्य और प्रकृति का यह एकीकरण पर्यावरणीय सौंदर्य को इंगित करता है। 'उठो पाखी' कविता में भी राखी बाँधने की प्रक्रिया प्रकृति से तदाकार हो गयी है।
कविता मात्र वैयक्तिक भावोद्गार नहीं है, उसका सामाजिक सरोकार भी होता है। कभी-कभी कवि की चेतना सामाजिक विसंगति से पीड़ित और क्षुब्ध होकर सामाजिक हस्तक्षेपभी करती है। श्री कान्त वर्मा ने आलोचना को 'सामाजिक हस्तक्षेप' कहा है। मेरी दृष्टि में कविता भी यदा-कदा सामाजिक हस्तक्षेप हुआ करती है। प्रतिबद्ध कवि में तो यह हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है। कवि सलिल ने राजनैतिक गुटबाजी, नेताओं अफसरों की अर्थ-लोलुपता, पेशावर के न्र पिशाचों की दहशतगर्दी, आतंकवाद का घिनौना कृत्य, पाक की नापाकी, लोकतंत्र का स्वार्थतंत्र में परिवर्तन, अत्याचार और अनाचार के प्रति जनता का मौन,नेताओं की गैर जिम्मेदारी, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी राजनीतिक कुतंत्र में वास्तविक आज़ादी प्राप्त न कर पाना इत्यादि कुचक्रों पर गीत लिखकर अपनी कृति को 'काल है संक्रांति का' नाम दिया है। वास्तव में देश की ये विसंगतियाँ संक्रमण को सार्थक बनाती हैं किन्तु उनके गीत 'संक्रांति काल है' -में संक्रांति का संकेत भर है तथा उससे निबटने के लिए कवी ने प्रेरित भी किया है। यों भी छोटे से गीत के लघु कलेवर में विसंगति के विस्तार को वाणी नहीं दी जा सकती। कवि तो विशालता में से एक चरम और मार्मिक क्षण को ही चुनता है। सलिल ने भी इस कविता में एक प्रभावी क्षण को चुना है। वह क्षण प्रभावोत्पादक है या नहीं, उसकी चिंता वे नहीं करते। वे प्रतिबद्ध कवु न होकर भी एक सजग औए सचेत कवि हैं।
सलिल जी ने काव्य की अपनी इस विधा को गीत-नवगीत कहा है। एक समय निराला ने छंदात्मक रचना के प्रति विद्रोह करते हुए मुक्त छंद की वकालत की थी लेकिन उनका मुक्त छंद लय और प्रवाह से एक मनोरम गीत-सृष्टि करता था। संप्रति कविताएँ मुक्त छंद में लिखी जा रही हैं किन्तु उनमें वह लयात्मकता नहीं है जो जो उसे संगीतात्मक बना सके। ऐसी कवितायेँ बमुश्किल कण्ठस्थ होती हैं। सलिल जी ने वर्तमान लीक से हटकर छंदात्मक गीत लिखे हैं तथा सुविधा के लिए टीप में उन छंदों के नाम भी बताए हैं। यह टीप रचनाकार की दृष्टि से भले ही औचित्यपूर्ण न हो किन्तु पाठक-समीक्षक के लिए सुगम अवश्य है। 'हरिगीतिका' उनका प्रिय छंद है।
सलिल जी ने कतिपय अभिनव प्रयोग भी किये हैं। कुछ गीत उनहोंने बुन्देली भाषा में लिखे हैं। जैसे- 'जब लौं आग' (ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज पर), मिलती कांय नें (ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित) इत्यादि तथा पंजाबी एवं सोहर लोकगीत की तर्ज पर गीत लिखकर नवीन प्रयोग किये हैं।
कवि संक्रांति-काल से भयभीत नहीं है। वह नया इतिहास लिखना चाहता है- 'कठिनाई में / संकल्पों का / नव है लिखें हम / आज नया इतिहास लिखें हम।'' साथ ही संघर्षों से घबराकर वह पलायन नहीं करता वरन संघर्ष के लिए प्रेरित करता है- 'पेशावर में जब एक विद्यालय के विद्यार्थियों को आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया था तो उसकी मर्मान्तक पीड़ा कवि को अंतस तक मठ गई थी किंतु इस पीड़ा से कवि जड़ीभूत नहीं हुआ। उसमें एक अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई और कवि हुंकार उठा-
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उदा दूँगा।
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा।
मैं लिखूँगा।
मैं लड़ूँगा।।
*
१९.९.२०१६
संपर्क समीक्षा: डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टँकी के सामने, जबलपुर ४८२००१
चलभाष; ९४२५३८६२३४, दूरलेख: pawanknisha@gmail.com
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नवगीत:
*
मेघ बजे
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे, बिजुरिया बिना लजे...
*
दादुर देते ताल, पपीहा-प्यास बुझी.
मिले मयूर-मयूरी मन में छाई खुशी...
तोड़ कूल-मरजाद नदी उफनाई तो-
बाबुल पर्वत रूठे, तनया तुरत तजे...
*
पल्लव की करताल, बजाती नीम मुई.
खेत कजलियाँ लिये, मेड़ छुईमुई हुई..
जन्मे माखनचोर, हरीरा भक्त पिए.
गणपति बप्पा, लाये मोदक हुए मजे...
*
टप-टप टपके टीन, चू गयी है बाखर.
डूबी शाला हाय!, पढ़ाए को आखर?
डूबी गैल, बके गाली अभियंता को.
डुकरो काँपें, 'सलिल' जोड़ कर राम भजे...
*
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर फिर मेघ बजे.
ठुमुक बेड़नी नचे बिजुरिया, बिना लजे...
१९.९.२०१० 
***

सितंबर २१, कायस्थ, कुलनाम, सॉनेट, हाइकु गीत, दोहे, अनुप्रास,


सलिल सृजन सितंबर २१
*
चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं?? 
*
            परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। 

             कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं। 

            काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है। 

            आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तरुण-तरुण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर आदि कायस्थ हैं। 

कायस्थ और वर्ण 

            मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टं गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में  विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित कर सकते हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सं नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है। 

जाति 

            बुंदेली कहावत 'जात का बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ जात का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। 

कुलनाम और अल्ल 

            प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।

गोत्र 

            चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुई। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था किंतु कालांतर में कायस्थों के स्थान परिवर्तन करने पर स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करने तथा फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र संहलने के कारण कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा गया। अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया।  

अल्ल 

            किसी कुल में हुए पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित किसी गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) कहते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। गहोई वैश्यों में इसे 'आँकने' कहा जाता है। एक अल्ल के दो जातक आपस में विवाह वर्जित है। वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कार पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना है।     
    
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम)  और उनके अर्थ 

            कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब  

            गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया। 

            कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-

अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त । 
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले। 
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले। 
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ। 
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था।  कायस्थ/ब्राह्मण  उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।  
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।  
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले। 
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका  जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।  
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया। 
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।    
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त। 
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।  
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।। 
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है। 
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।  
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले। 
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी। 
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं। 
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे। 
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले। 
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।  
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।  
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
***
दोस्त दोस्त की आँख हो, दोस्त दोस्त का कान।
दोस्त नहीं कहता मगर, बसे दोस्त में जान।
२१.९.२०२५ 
***
सॉनेट
राजू भाई!
*
बहुत हँसाया राजू भाई!
संग हमेशा रहे ठहाके
झुका न पाए तुमको फाके
उन्हें झुकाया राजू भाई!
खुद को पाया राजू भाई!
आम आदमी के किस्से कह
जन गण-मन में तुम पाए रह
युग-सच पाया राजू भाई!
हो कठोर क्यों गया ईश्वर?
रहे अनसुने क्रंदन के स्वर
दूर धरा से गया गजोधर
चाहा-पाया राजू भाई!
किया पराया राजू भाई!
बहुत रुलाया राजू भाई!
२१-९-२०२२
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
*
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२१-९-२०१३
***
हाइकु गीत :
प्रात की बात
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोए?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गई.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी खबरें.
*
दुर्घटनाएँ,
रिश्वत, हत्या, चोरी,
पढ़ ऊबा हूँ.
*
चहक रही
गौरैया, समझूँ क्या
कहती वह?
*
चें-चें करती
नन्हीं चोचें दिखीं
ज़िन्दगी हँसी.
*
घुसा हवा का
ताज़ा झोंका, मुस्काया
मैं बाकी आशा.
*
मिटा न सब
कुछ अब भी बाकी
उठूँ-सहेजूँ.
२१.९.२०१०
***

शनिवार, 20 सितंबर 2025

सितंबर २०, हिंदी ग़ज़ल, सॉनेट, मुक्तिका, भक्ति गीत, तुम, प्रार्थना

सलिल सृजन सितंबर २०
*
हिंदी ग़ज़ल
.
राम राम करते गिरीश जी
सत्य मानिए हैं मनीश जी
.
जिन्हें हकीकत यह मालुम हैं
कहें न लेकिन हैं हरीश जी
.
भिन्न न हरि-हर कृपा कर रहे
जब रमेश जी तब सतीश जी
.
पृथा पुत्र मनु, धरती माता
खुद को मत मानें पृथीश जी
.
राम काम निष्काम कीजिए
'सलिल' सदय होंगे कपीश जी
***
एक दोहा 
छाया शुक्ला हो गई, छवि श्यामल है खूब।
दर्श राधिका-कान्ह कर, गए हर्ष में डूब।।
१९.९.२०२५
***
कार्यशाला
सॉनेट गणपति
शिप्रा सेन
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा, 
गणधीश्वर विघ्न हरो। 
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,  
ओमकार पार्वति तनया नमो।  
चिंतामणि ही सिद्धिविनायक,  
गुणप्रदायका नमो नमो।  
महा गणपतये विघ्नेश्वरा,  
प्रथम पूज्य की जय बोलो।  
प्रणव स्वरूपा गण नाथा,  
अंबा भवानी कुमार शंभो।  
कारूण्य लावण्य लंबोदरा,  
शरणम् शरणम् प्रभो। 
महादेवादिदेव विनायका,  
अष्ट विनायक श्री गणराया।।  
सॉनेट की सभी १४ पंक्तियों का पदभार समान होना जरूरी है। उक्त में ११ से १७ उच्चारों का प्रयोग है। 
*
सॉनेट संशोधित
गणपति
(पदभार १६)
*
वरद विनायक मयूरेश्वरा,
हे गणधीश्वर! विघ्न हरो प्रभु,
गिरिजात्मजा बल्लारेश्वरा,
हे ओंकार! पार्वती-तनय विभु।
चिंतामणि श्री सिद्धिविनायक,
गुणप्रदायका नमो नमो हे!
श्री गणपतये विघ्न ईश्वरा,
प्रथम पूज्य की जय बोलो रे!
प्रणव स्वरूपा हे गणनाथा!,
अंबा भवानी-शंभु कुमार,
शरणम् शरणम् हे जगनाथ!
क्षमा करें प्रभो! परम उदार।
श्री गणराया हे विनायका!
नमन नमन प्रभु वर प्रदायका।।
२०-९-२०२३
*
सॉनेट
अरण्य वाणी
*
मनुज पुलक; सुन अरण्य वाणी
जीवन मधुवन बन जाएगा
कंकर शंकर बन गाएगा
श्वास-आस होगी कल्याणी
भुज भेंटे आलोक तिमिर से
बारी-बारी आए-जाए
शयन-जागरण चक्र चलाए
सीख समन्वय गिरि-निर्झर से
टिट्-टिट् करती विहँस टिटहरी
कुट-कुट कुतरे सुफल गिलहरी
गरज करे वनराज अफसरी
खेलें-खाएँ हिल-मिल प्राणी
मधुरस पूरित टपरी-ढाणी
दस दिश गुंजित अरण्य वाणी
२०-९-२०२२
***
मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आए-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
२०-९-२०१७
***
मुक्तक सलिला:
*
प्रभु ने हम पर किया भरोसा, दिया दर्द अनुपम उपहार
धैर्य सहित कर कद्र, न विचलित हों हम, सादर कर स्वीकार
जितनी पीड़ा में खिलता है, जीवन कमल सुरभि पाता-
'सलिल' गौरवान्वित होता है, अन्यों का सुख विहँस निहार
***
भक्ति गीत:
*
हे प्रभु दीनानाथ दयानिधि
कृपा करो, हर विघ्न हमारे.
जब-जब पथ में छायें अँधेरे
तब-तब आशा दीप जला रे….
*
हममें तुम हो, तुममें हम हों
अधर हँसें, नैन ना नम हों.
पीर अधीर करे जब देवा!
धीरज-संबल कहबी न कम हों.
आपद-विपदा, संकट में प्रभु!
दे विवेक जो हमें उबारे….
*
अहंकार तज सकें ज्ञान का
हो निशांत, उद्गम विहान का.
हम बेपर पर दिए तुम्हीं ने
साहस दो हरि! नव उड़ान का.
सत-शिव-सुंदर राह दिखाकर
सत-चित-आनंद दर्श दिखा रे ….
*
शब्द ब्रम्ह आराध्य हमारा
अक्षर, क्षर का बना सहारा.
चित्र गुप्त है जो अविनाशी
उसने हो साकार निहारा.
गुप्त चित्र तव अगम, गम्य हो
हो प्रतीत जो जन्म सँवारे ….
२०-९-२०१३
***
नव गीत :
उत्सव का मौसम.....
*
तुम मुस्काईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
लगे दिहाड़ी पर हम
जैसे कितने ही मजदूर.
गीत रच रहे मिलन-विरह के
आँखें रहते सूर..
नयन नयन से मिले झुके
उठ मिले मिट गया गम.
तुम शर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
देखे फिर दिखलाये
एक दूजे को सपन सलोने.
बिना तुम्हारे छुए लग रहे
हर पकवान अलोने..
स्वेद-सिंधु में नहा लगी
हर नेह-नर्मदा नम.
तुम अकुलाईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
*
कंडे थाप हाथ गुबरीले
सुना रहे थे फगुआ.
नयन नशीले दीपित
मना रहे दीवाली अगुआ..
गाल गुलाबी 'वैलेंटाइन
डे' की गाते सरगम.
तुम भर्माईं जिस पल
उस पल उत्सव का मौसम.....
***
प्रार्थना
भक्ति-भाव की विमल नर्मदा में अवगाहन कर तर जाएँ.
प्रभु ऐसे रीझें, भू पर आ, भक्तों के संग नाचें-गाएँ..
हम आरती उतारें प्रभु की, उनके चरणों पर गिर जाएँ.
जय महेश! जय बम-बम भोले, सुन प्रभु हमको कंठ लगाएँ..
स्वप्न देख ले 'सलिल' सुनहरे, पूर्व जन्म के पुण्य भुनाएँ..
प्रभु को मन-मंदिर में पाकर, तन को हँसकर भेंट चढ़ाएँ..
२०-९-२०१०
***

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

सितंबर १८, गीत, हिंदी, दोहे, यमक, अलंकार,


सितंबर १८
*
युगीय गीत
----------
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
पूर्ण कंपित, अंश डँसता मुस्कुराए
एक पर निष्ठा नहीं रह गई बाकी
दो न अनगिन को पिलाए सुरा साकी
बाँह में इक, चाह में दुई, देख तीजी-
बहक मन ने खोज चौथी राह ताकी
आ प्रपंचन पाँचवी घर-घट दिखाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
दूध छठ का छठी को लख याद आए
सातवीं आ दिवस में तारे दिखाए
आठवीं ने खड़ी कर दी खाट पल में-
नाश करने आई नौवीं पथ भुलाए
देह दुर्गज दहाई को शून्य पाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
घटा-जोड़ा जो नहीं कुछ हाथ आया
गुणा गुण का भाग दे अवगुण बनाया
भिन्न ने अभिन्न हो अवमूल्यन कर-
नीति को बेदाम कर बेदम कराया
वरण कर बदनाम का अंधे कहाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
पीढ़ियों की सीढ़ियों की नींव खोई
माँग जा बाजार में बेजार रोई
पूर्ति को मंहगाई ने बंधक बनाया-
मूलधन की नाव ब्याजों ने डुबोई
पूंजियों ने प्राण श्रम के नोच खाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
अर्थ ने न्योता अनर्थों को अजाने
पुजारी रख पूज्य गिरवी लगा खाने
वर्गमूलों पर करें आघात घातें-
वक्फ की दौलत लगा मुल्ला उड़ाने
पादरी को ननों का सौंदर्य भाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
सियासत ने सिया-सत को खो दिया है
आग घर में लगाता जलता दिया है
शारदा को लक्ष्मी नीलाम करती-
प्रेयसी-हाथों छला जाता पिया है
नाव में पतवार बच, नौका डुबाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
दस दिशाओं से तिमिर ने हमें घेरा
आठ प्रहरों से दुखी संध्या-सवेरा
बजा बारह बारहों महिने ठठाते-
हुआ बेघर घर, लगे भूतों का डेरा
न्याय को अन्याय नीलामी चढ़ाए
हो रही खंडित ईकाई प्रभु बचाए
१८.९.२०२५
०००
हिंदी की तस्वीर
*
हिंदी की तस्वीर के, अनगिन उजले पक्ष
जो बोलें वह लिख-पढ़ें, आम लोग, कवि दक्ष
*
हिदी की तस्वीर में, भारत एकाकार
फूट डाल कर राज की, अंग्रेजी आधार
*
हिंदी की तस्वीर में, सरस सार्थक छंद
जितने उतने हैं कहाँ, नित्य रचें कविवृंद
*
हिंदी की तस्वीर या, पूरा भारत देश
हर बोली मिलती गले, है आनंद अशेष
*
हिंदी की तस्वीर में, भरिए अभिनव रंग
उनकी बात न कीजिए, जो खुद ही भदरंग
*
हिंदी की तस्वीर पर अंग्रेजी का फेम
नौकरशाही मढ़ रही, नहीं चाहती क्षेम
*
हिंदी की तस्वीर में, गाँव-शहर हैं एक
संस्कार-साहित्य मिल, मूल्य जी रहे नेक
१८.९.२०१६
***
:अलंकार चर्चा ०९ :
यमक अलंकार
भिन्न अर्थ में शब्द की, हों आवृत्ति अनेक
अलंकार है यमक यह, कहते सुधि सविवेक
पंक्तियों में एक शब्द की एकाधिक आवृत्ति अलग-अलग अर्थों में होने पर यमक अलंकार होता है. यमक अलंकार के अनेक प्रकार होते हैं.
अ. दुहराये गये शब्द के पूर्ण- आधार पर यमक अलंकार के ३ प्रकार १. अभंगपद, २. सभंगपद ३. खंडपद हैं.
आ. दुहराये गये शब्द या शब्दांश के सार्थक या निरर्थक होने के आधार पर यमक अलंकार के ४ भेद १.सार्थक-सार्थक, २. सार्थक-निरर्थक, ३.निरर्थक-सार्थक तथा ४.निरर्थक-निरर्थक होते हैं.
इ. दुहराये गये शब्दों की संख्या अर्थ के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है.
उदाहरण :
१. झलके पद बनजात से, झलके पद बनजात
अहह दई जलजात से, नैननि सें जल जात -राम सहाय
प्रथम पंक्ति में 'झलके' के दो अर्थ 'दिखना' और 'छाला' तथा 'बनजात' के दो अर्थ 'पुष्प' तथा 'वन गमन' हैं. यहाँ अभंगपद यमक अलंकार है.
द्वितीय पंक्ति में 'जलजात' के दो अर्थ 'कमल-पुष्प' और 'अश्रु- पात' हैं. यहाँ सभंग यमक अलंकार है.
२. कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय
या खाये बौराय नर, वा पाये बौराय
कनक = धतूरा, सोना -अभंगपद यमक
३. या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरैहौं
मुरली = बाँसुरी, मुरलीधर = कृष्ण, मुरली की आवृत्ति -खंडपद यमक
अधरान = पर, अधरा न = अधर में नहीं - सभंगपद यमक
४. मूरति मधुर मनोहर देखी
भयेउ विदेह विदेह विसेखी -अभंगपद यमक, तुलसीदास
विदेह = राजा जनक, देह की सुधि भूला हुआ.
५. कुमोदिनी मानस-मोदिनी कहीं
यहाँ 'मोदिनी' का यमक है. पहला मोदिनी 'कुमोदिनी' शब्द का अंश है, दूसरा स्वतंत्र शब्द (अर्थ प्रसन्नता देने वाली) है.
६. विदारता था तरु कोविदार को
यमक हेतु प्रयुक्त 'विदार' शब्दांश आप में अर्थहीन है किन्तु पहले 'विदारता' तथा बाद में 'कोविदार' प्रयुक्त हुआ है.
७. आयो सखी! सावन, विरह सरसावन, लग्यो है बरसावन चहुँ ओर से
पहली बार 'सावन' स्वतंत्र तथा दूसरी और तीसरी बार शब्दांश है.
८. फिर तुम तम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्ध्यान
'तम' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
९. यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी
'परदे' पहली बार स्वतंत्र, दूसरी बार शब्दांश.
१०. घटना घटना ठीक है, अघट न घटना ठीक
घट-घट चकित लख, घट-जुड़ जाना लीक
११. वाम मार्ग अपना रहे, जो उनसे विधि वाम
वाम हस्त पर वाम दल, 'सलिल' वाम परिणाम
वाम = तांत्रिक पंथ, विपरीत, बाँया हाथ, साम्यवादी, उल्टा
१२. नाग चढ़ा जब नाग पर, नाग उठा फुँफकार
नाग नाग को नागता, नाग न मारे हार
नाग = हाथी, पर्वत, सर्प, बादल, पर्वत, लाँघता, जनजाति
जबलपुर, १८-९-२०१५
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बुधवार, 17 सितंबर 2025

सितंबर १७, मुक्तिका, हिंदी ग़ज़ल, वैणसगाई, लाटानुप्रास, अलंकार, गणेश, दोहा यमक, सरहद, संसद,हिंग्लिश

सलिल सृजन सितंबर १७
*
हिंग्लिश गजल . दोस्तों की दोस्ती ही बेस्ट है डिश अनोखी है अनोखा टेस्ट है . फ्लैट-बंगलों की इसे जरुरत नहीं रहे दिल में हार्ट इसका नेस्ट है . एनिमी से लड़े अर्जुन की तरह वज्र सा स्ट्रांग सचमुच चेस्ट है . टूट मन पाए नहीं संकट में भी दोस्ती दिल जोड़ने का पेस्ट है . प्रोग्रेस इन्वेंशन हिलमिल करे दोस्ती ही टैक्निक लेटेस्ट है . जिंदगी की बंदगी है दोस्ती गॉड गिफ्टेड 'सलिल' यह ही फेस्ट है . जीव को 'संजीव' करती दोस्ती कोशिशों का, परिश्रम का क्रेस्ट है १७.९.२०२५ ०००
मुक्तिका
हिंदी ग़ज़ल
*
बाग़ क्यारी फूल है हिंदी ग़ज़ल
या कहें जड़-मूल है हिंदी ग़ज़ल
.
बात कहती है सलीके से सदा-
नहीं देती तूल है हिंदी ग़ज़ल
.
आँख में सुरमे सरीखी यह सजी
दुश्मनों को शूल है हिंदी ग़ज़ल
.
जो सुधरकर खुद पहुँचती लक्ष्य पर
सबसे पहले भूल है हिंदी ग़ज़ल
.
दबाता जब जमाना तो उड़ जमे
कलश पर वह धूल है हिंदी ग़ज़ल
.
है गरम तासीर पर गरमी नहीं
मिलो-देखो कूल है हिंदी ग़ज़ल
.
मुक्तिका है नाम इसका आजकल
कायदा है, रूल है हिंदी ग़ज़ल
१७.९.२०१८
***
गीत
*
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद है
बलिदानी
संसद-जां प्यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
२७-२-२०१८
***
क्रमांक - वाक्यांश या शब्द-समूह - शब्द
०१.जिसका जन्म नहीं होता अजन्मा
०२. पुस्तकों की समीक्षा करने वाला समीक्षक , आलोचक
०३. जिसे गिना न जा सके अगणित
०४. जो कुछ भी नहीं जानता हो अज्ञ
०५ . जो बहुत थोड़ा जानता हो अल्पज्ञ
०६. जिसकी आशा न की गई हो अप्रत्याशित
०७. जो इन्द्रियों से परे हो अगोचर
०८. जो विधान के विपरीत हो अवैधानिक
०९. जो संविधान के प्रतिकूल हो असंवैधानिक
१०. जिसे भले -बुरे का ज्ञान न हो अविवेकी
११. जिसके समान कोई दूसरा न हो अद्वितीय
१२. जिसे वाणी व्यक्त न कर सके अनिर्वचनीय
१३. जैसा पहले कभी न हुआ हो अभूतपूर्व
१४. जो व्यर्थ का व्यय करता हो अपव्ययी
१५. बहुत कम खर्च करने वाला मितव्ययी
१६. सरकारी गजट में छपी सूचना अधिसूचना
१७. जिसके पास कुछ भी न हो अकिंचन
१८. दोपहर के बाद का समय अपराह्न
१९. जिसका निवारण न हो सके अनिवार्य
२०. देहरी पर चित्रकारी अल्पना
२१. आदि से अन्त तक
२२. जिसका परिहार सम्भव न हो अपरिहार्य
२३. जो ग्रहण करने योग्य न हो अग्राह्य
२४ जिसे प्राप्त न किया जा सके अप्राप्य
२५. जिसका उपचार सम्भव न हो असाध्य
२६. जिसे भगवान में विश्वास हो आस्तिक
२७. जिसे भगवान में विश्वास न हो नास्तिक
२८. आशा से अधिक आशातीत
२९. ऋषि की कही गई बात आर्ष
३०. पैर से मस्तक तक आपादमस्तक
३१. अत्यंत लगन एवं परिश्रम वाला अध्यवसायी
३२. आतंक फैलाने वाला आंतकवादी
३३. विदेश से कोई वस्तु मँगाना आयात
३४. जो तुरंत कविता बना सके आशुकवि
३५. नीले रंग का फूल इन्दीवर
३६. उत्तर-पूर्व का कोण ईशान
३७. जिसके हाथ में चक्र हो चक्रपाणि
३८. जिसके मस्तक पर चन्द्रमा हो चन्द्रमौलि
३९. जो दूसरों के दोष खोजे छिद्रान्वेषी
४०. जानने की इच्छा जिज्ञासा
४१. जानने को इच्छुक जिज्ञासु
४२. जीवित रहने की इच्छा जिजीविषा
४३. इन्द्रियों को जीतनेवाला जितेन्द्रिय
४४. जीतने की इच्छा वाला जिगीषु
४५. जहाँ सिक्के ढाले जाते हैं टकसाल
४६. जो त्यागने योग्य हो त्याज्य
४७. जिसे पार करना कठिन हो दुस्तर
४८. जंगल की आग दावाग्नि
४९. गोद लिया हुआ पुत्र दत्तक
५०. बिना पलक झपकाए हुए निर्निमेष
५१. जिसमें कोई विवाद ही न हो निर्विवाद
५२. जो निन्दा के योग्य हो निन्दनीय
५३. मांस रहित भोजन निरामिष
५४. रात्रि में विचरण करनेवाला निशाचर
५५. किसी विषय का पूर्ण ज्ञाता पारंगत
५६. पृथ्वी से सम्बन्धित पार्थिव
५७. रात्रि का प्रथम प्रहर प्रदोष
५८. जिसे तुरंत उचित उत्तर सूझ जाए प्रत्युत्पन्नमति
५९. मोक्ष का इच्छुक मुमुक्षु
६०. मृत्यु का इच्छुक मुमूर्षु
६१. युद्ध की इच्छा रखनेवाला युयुत्सु
६२. जो विधि के अनुकूल है वैध
६३. जो बहुत बोलता हो वाचाल
६४. शरण पाने का इच्छुक शरणार्थी
६५. सौ वर्ष का समय शताब्दी
६६. शिव का उपासक शैव
६७. देवी का उपासक शाक्त
६८. समान रूप से ठंडा और गर्म समशीतोष्ण
६९. जो सदा से चला आ रहा हो सनातन
७०. समान दृष्टि से देखने वाला समदर्शी
७१. जो क्षण भर में नष्ट हो जाए क्षणभंगुर
७२. फूलों का गुच्छा स्तवक
७३. संगीत जाननेवाला संगीतज्ञ
७४. जिसने मुकदमा किया है वादी
७५. जिसके विरुद्ध मुकदमा हो प्रतिवादी
७६. मधुर बोलने वाला मधुरभाषी
७७. धरती-आकाश के बीच का स्थान अंतरिक्ष
७८. महावत के हाथ का लोहे का हुक अंकुश
७९. जो बुलाया न गया हो अनाहूत,
८०. सीमा का अनुचित उल्लंघन अतिक्रमण
८१. जिसका पति विदेश चला गया हो प्रोषित पतिका
८२. जिसका पति विदेश से आया हो आगत पतिका
८३. जिसका पति परदेश जानेवाला हो प्रवत्स्यत्पतिका
८४. जिसका मन दूसरी ओर हो अन्यमनस्क
८५. संध्या और रात्रि के बीच की वेला गोधूलि
८६. माया करनेवाला मायावी
८७. टूटी-फूटी इमारत का अंश भग्नावशेष
८८. दोपहर से पहले का समय पूर्वाह्न
८९. कनक जैसी आभावाला कनकाभ
९०. हृदय को विदीर्ण कर देनेवाला हृदय विदारक
९१. हाथ से कार्य करने का कौशल हस्तलाघव
९२. स्त्रियों से हाव-भाववाला पुरुष स्त्रैण
९३. जो लौटकर आया है प्रत्यागत
९४. जो कार्य कठिनता से हो सके दुष्कर
९५. जो देखा न जा सके अलक्ष्य
९६. बाएँ हाथ से तीर चला सकनेवाला सव्यसाची
९७. वह स्त्री जिसे सूर्य ने भी न देखा हो असूर्यम्पश्या
९८. हाथी पर बैठने हेतु आसंदी हौदा
९९. जिसे साधना सम्भव न हो असाध्य
१००. अन्य की जगह अस्थाई नियुक्त स्थानापन्न
***
भोजपुरी भाषा की विशेषता : गागर में सागर
एक शब्द सारे मायने बदल देता है-
के मारी? = किसने मारा?
केके मारी? = किसको मारा?
के केके मारी? = किसने किसको मारा?
केके केके मारी? = किसको-किसको मारा?
के केके केके मारी? = किसने किसको किसको मारा?
केके केके के के मारी? = कॉस्को किसको किसने किसने मारा?
***
अलंकार चर्चा : ९
वैणसगाई अलंकार
जब-जब अंतिम शब्द में, प्रथमाक्षर हो मीत
वैणसगाई जानिए, काव्य शास्त्र की रीत
जब काव्य पंक्ति का पहला अक्षर अंतिम शब्द में कहीं भी उपस्थित हो वैणसगाई अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. माता भूमि मान
पूजै राण प्रतापसी
पहली पंक्ति में 'म' तथा दूसरी पंक्ति में प' की आवृत्ति दृष्टव्य है,
२. हरि! तुम बिन निस्सार है,
दुनिया दाहक दीन.
दया करो दीदार दो,
मीरा जल बिन मीन. - संजीव
३. हम तेरे साये की खातिर धूप में जलते रहे
हम खड़े राहों में अपने हाथ ही मलते रहे -देवकीनन्दन 'शांत'
४. नीरव प्रशांति का मौन बना बना - जयशंकर प्रसाद
५. सब सुर हों सजीव साकार …
.... तान-तान का हो विस्तार -मैथिली शरण गुप्त
६. पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल -निराला
७. हमने देखा सदन बने हैं
लोगों का अपनापन लेकर - बालकृष्ण शर्मा नवीन
८. जो हृदय की बात है वह आँख से जब बरस जाए - डॉ. रामकुमार वर्मा
९. चौकस खेतिहरों ने पाये ऋद्धि-सिद्धि के आकुल चुंबन -नागार्जुन
१०. तब इसी गतिशील सिंधु-यात्री हेतु -सुमित्रा कुमारी सिन्हा
***
दोहा सलिला
गणेश महिमा
*
श्री गणेश मंगल करें, ऋद्धि-सिद्धि हों संग
सत-शिव-सुंदर हो धरा, देख असुर-सुर दंग
*
जनपति, मनपति हो तुम्हीं, शत-शत नम्र प्रणाम
गणपति, गुणपति सर्वप्रिय, कर्मव्रती निष्काम
*
कर्म पूज्य सच सिखाया, बनकर पहरेदार
प्राण लुटाये फ़र्ज़ पर, प्रभु! वंदन शत-बार
*
व्यर्थ न कुछ भी सिखाने, गही मैल से देह
त्याज्य पूत-पावन वही, तनिक नहीं संदेह
*
शीश अहं का काटकर, शिव ने फेंका दूर
मोह शिवा का खिन्न था, देख सत्य भ्रम दूर
*
सबमें आत्मा एक है, नर-पशु या जड़-जीव
शीश गहा गज का पुलक, हुए पूज्य संजीव
*
कोई हीन न उच्च है, सब प्रभु की संतान
गुरु-लघु दंत बता रहे, मानव सभी समान
*
सार गहें थोथा सभी, उड़ा दूर दो फेक
कर्ण विशाल बता रहे, श्रवण करो सच नेक
*
प्रभु!भारी स्थिर सिर-बदन, रहे संतुलित आप
दहले दुश्मन देखकर, जाए भय से काँप
*
तीक्ष्ण दृष्टि सत-असत को, पल में ले पहचान
सूक्ष्म बुद्धि निर्णय करे, सम्यक दयानिधान!
*
क्या अग्राह्य है?, ग्राह्य क्या?, सूँढ सके पहचान
रस-निधि चुन रस-लीन हो, आप देव रस-खान
*
***
गणपति वंदना
वक्रतुण्ड महाकाय, सूर्यकोटि समप्रभ
निर्विघ्नं कुरु मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा
*
तिरछी सूँढ़ विशाल तन, कोटि सूर्य सम आभ
देव! करें निर्बाध हर, कार्य सदा अरुणाभ -- दोहानुवाद: संजीव
*
वक्र = टेढ़ी, curved; तुण्ड =सूंढ़, trunk
महा = विशाल, large; काय =शरीर, body
सूर्य = सूरज, sun; कोटि = करोड़, 10 million
समप्रभ = के समान प्रकाशवान, with the Brilliance of
निर्विघ्नं = बाधारहित, free of obstacles
कुरु = करिए,make
मे = मेरे, my
देव = ईश्वर, lord
सर्व = सभी, all
कार्येषु = कार्य, work
सर्वदा = हमेशा, always
*
O Lord Ganesha, blessed with Curved Trunk, Large Body, and Brilliance of a Million Suns, Please, always make all my Works Free of Obstacles, .
*
***
अलंकार चर्चा : ८
लाटानुप्रास अलंकार
एक शब्द बहुबार हो, किन्तु अर्थ हो एक
अन्वय लाट अनुप्रास में, रहे भिन्न सविवेक
जब कोई शब्द दो या अधिक बार एक ही अर्थ में प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय भिन्न हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है. भिन्न अन्वय से आशय भिन्न शब्द के साथ अथवा समान शब्द के साथ भिन्न प्रकार के प्रयोग से है.
किसी काव्य पद में समान शब्द एकाधिक बार प्रयुक्त हो किन्तु अन्वय करने से भिन्नार्थ की प्रतीति हो तो लाटानुप्रास अलंकार होता है.
उदाहरण:
१. राम ह्रदय, जाके नहीं विपति, सुमंगल ताहि
राम ह्रदय जाके नहीं, विपति सुमंगल ताहि
जिसके ह्रदय में राम हैं, उसे विपत्ति नहीं होती, सदा शुभ होता है.
जिसके ह्रदय में राम नहीं हैं, उसके लिए शुभ भी विपत्ति बन जाता है.
अन्वय अल्पविराम चिन्ह से इंगित किया गया है.
२. पूत सपूत तो क्यों धन संचै?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै??
यहाँ पूत, तो, क्यों, धन तथा संचै शब्दों की एकाधिक आवृत्ति पहली बार सपूत के साथ है तो दूसरी बार कपूत के साथ.
३. सलिल प्रवाहित हो विमल, सलिल निनादित छंद
सलिल पूर्वज चाहते, सलिल तृप्ति आनंद
यहाँ सलिल शब्द का प्रयोग चार भिन्न अन्वयों में द्रष्टव्य है.
४. मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अवतारी थी
यहाँ पहले दोनों तेज शब्दों का अन्वय मिला क्रिया के साथ है किन्तु पहला तेज करण करक में है जबकि दूसरा तेज कर्ता कारक में है. तीसरे तेज का अन्वय अधिकारी शब्द से है.
५. उत्त्तरा के धन रहो तुम उत्त्तरा के पास ही
उत्तरा शब्द का अर्थ दोनों बार समान होने पर भी उसका अन्वय धन और पास के साथ हुआ है.
६. पहनो कान्त! तुम्हीं यह मेरी जयमाला सी वरमाला
यहाँ माला शब्द दो बार समान अर्थ में है,किन्तु अन्वय जय तथा वार के साथ भिन्नार्थ में हुआ है.
७. आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ
चित्रपटीय गीत की इस पंक्ति में आदमी शब्द का दो बार समानार्थ में प्रयोग हुआ है किन्तु अन्वय हूँ तथा से के साथ होने से भिन्नार्थ की प्रतीति कराता है.
८. अदरक में बंदर इधर, ढूँढ रहे हैं स्वाद
स्वाद-स्वाद में हो रहा, उधर मुल्क बर्बाद
अभियंता देवकीनन्दन 'शांत' की दोहा ग़ज़ल के इस शे'र में स्वाद का प्रयोग भिन्न अन्वय में हुआ है.
९. सब का सब से हो भला
सब सदैव निर्भय रहें
सब का मन शतदल खिले.
मेरे इस जनक छंद (तेरह मात्रक त्रिपदी) में सब का ४ बार प्रयोग समान अर्थ तथा भिन्न अन्वय में हुआ है.
***
टिप्पणी: तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान!
चित्रपटीय गीत के इस अंश में मेरी जान शब्द युग्म का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु भिन्नार्थ में होने पर भी अन्वय भिन्न न होने के कारण यहाँ लाटानुप्रास अलंकार नहीं है। 'मेरी जान' के दो अर्थ मेरे प्राण, तथा मेरी प्रेमिका होने से यहाँ यमक अलंकार है.
१७-९-२०१५
***
मुक्तिका:
स्मरण
*
मोटा काँच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, शिशु बन पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न संग ले गईं, क्यों तुम सबकी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न सँग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, श्वास-श्वास में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
१७-९-२०१४
***
:दोहा सलिला :
गले मिले दोहा-यमक
*
चंद चंद तारों सहित, करे मौन गुणगान
रजनी के सौंदर्य का, जब तक हो न विहान
*
जहाँ पनाह मिले वहीं, झट बन जहाँपनाह
स्नेह-सलिल का आचमन, देता शांति अथाह
*
स्वर मधु बाला चन्द्र सा, नेह नर्मदा-हास
मधुबाला बिन चित्रपट, है श्रीहीन उदास
*
स्वर-सरगम की लता का,प्रमुदित कुसुम अमोल
खान मधुरता की लता, कौन सके यश तौल
*
भेज-पाया, खा-हँसा, है प्रियतम सन्देश
सफलकाम प्रियतमा ने, हुलस गहा सन्देश
*
गुमसुम थे परदेश में, चहक रहे आ देश
अब तक पाते ही रहे, अब देते आदेश
*
पीर पीर सह कर रहा, धीरज का विनिवेश
घटे न पूँजी क्षमा की, रखता ध्यान विशेष
*
माया-ममता रूप धर, मोह मोहता खूब
माया-ममता सियासत, करे स्वार्थ में डूब
*
जी वन में जाने तभी, तू जीवन का मोल
घर में जी लेते सभी, बोल न ऊँचे बोल
*
विक्रम जब गाने लगा, बिसरा लय बेताल
काँधे से उतरा तुरत, भाग गया बेताल
१७-९-२०१३

*