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बुधवार, 24 नवंबर 2021

रैप सांग

रैप सांग  :
*
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
फिसल पड़े हो 
अड़े खड़े हो
*
न भीत भागो 
न भीख माँगो 
न व्यर्थ उलझो 
तुरत ही सुलझो 
न भाड़ झोंको 
न व्यर्थ टोंको  
रही न नानी
कहो कहानी 
एक था राजा 
एक थी रानी 
न राज बदला 
न ताज बदला 
न पेट पलता 
न काम चलता
अटक पड़े हो 
अड़े खड़े हो
*
न झूठ बोलो 
न सत्य तोलो 
व्यथा भुलाओ 
गले लगाओ 
न रोना रोना 
न धैर्य खोना 
बहा पसीना 
फुला ले सीना 
है तू कंकर 
तुझी में कंकर 
खड़ा जमीं पे 
नज़र गगन पे  
न फूल खिलना 
न धूल मिलना
उखड गड़े हो 
अड़े खड़े हो
***
गीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***

शिशु गीत

शिशु गीत सलिला : 3
संजीव 'सलिल'
*
21. नाना
मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।
खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1
कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2
नानी जी के गोरे बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?
चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा
चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में लगते बच्चे।।
चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें।
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ
प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा
मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी
मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*
28. दोस्त
मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह
सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज
आसमान में आया सूरज,
सबके मन को भाया सूरज।
लाल-लाल आकाश हो गया-
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी
आँख दिखा गरमाया सूरज।
रात-अँधेरे से डर लगता
घर जाकर सुस्ताया सूरज।।
*

मुक्तिका

मुक्तिका
देख जंगल
कहाँ मंगल?
हर तरफ है
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
***
मुक्तिका:

जीवन की जय गायें हम..
संजीव 'सलिल'.
*
जीवन की जय गायें हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहरायें हम..
*
बाधा-संकट -अड़चन से
जूझ-जीत मुस्कायें हम..
*
गिरने से क्यों डरें?,
गिर.उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गायें हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खायें हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षायें हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनायें हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजायें हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलायें हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जायें हम..


***
मुक्तिका
*
ऋतुएँ रहीं सपना जगा।
मनु दे रहा खुद को दगा।।
*
अपना नहीं अपना रहा।
किसका हुआ सपना सगा।।
*
रखना नहीं सिर के तले
तकिया कभी पगले तगा।।
*
कहना नहीं रहना सदा
मन प्रेम में नित ही पगा।।
*
जिससे न हो कुछ वासता
अपना हमें वह ही लगा।।
***
संजीव
२७-११-२०१८

लीक से हटकर एक प्रयोग:

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको बेच-खाता है..
*
न खाना और ना पानी, मगर बढ़ती है जनसँख्या.
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.

मगर ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टंगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फंसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जायेंगा, महज धमकायेगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
*

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

सरस्वती स्तवन मालवी

सरस्वती स्तवन
मालवी
संजीव
*
उठो म्हारी मैया जी
उठो म्हारी मैया जी, हुई गयो प्रभात जी।
सिन्दूरी आसमान, बीत गयी रात जी।
फूलां की सेज मिली, गेरी नींद लागी थी।
भाँत-भाँत सुपनां में, मोह-कथा पागी थी।
साया नी संग रह्या, बिसर वचन-बात जी
बांग-कूक काँव-काँव, कलरव जी जुड़ाग्या।
चीख-शोर आर्तनाद, किलकिल मन टूट रह्या।
छंद-गीत नरमदा, कलकल धुन साथ जी
राजहंस नीर-छीर, मति निरमल दीजो जी।
हात जोड़, शीश झुका, विनत नमन लीजो जी।
पाँव पडूँ लाज रखो, रो सदा साथ जी
***
मात सरस्वती वीणापाणी
मात सरस्वती वीणापाणी, माँ की शोभा न्यारी रे!
बाँकी झाँकी हिरदा बसती, यांकी छवि है प्यारी रे!
वेद पुराण कहानी गाथा, श्लोक छंद रस घोले रे!
बालक-बूढ़ा, लोग-लुगाई, माता की जय बोले रे !
मैया का जस गान करी ने, शब्द-ब्रह्म पुज जावे रे
नाद-ताल-रस की जै होवे, छंद-बंद बन जावे रे!
आल्हा कजरी राई ठुमरी, ख्याल भजन रच गांवां रे!
मैया का आशीष शीश पर, आसमान का छांवा रे!
***

लघुकथा

लघुकथा
बदलाव का मतलब
*
जन प्रतिनिधियों के भ्रष्टाचरण, लगातार बढ़ते कर और मँहगाई, संवेदनहीन प्रशासन और पूंजीपति समर्थक नीतियों ने जीवन दूभर कर दिया तो जनता जनार्दन ने अपने वज्रास्त्र का प्रयोग कर सत्ताधारी दल को चारों खाने चित्त कर विपक्षी दल को सत्तासीन कर दिया।
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में निरंतर पेट्रोल-डीजल की कीमत में गिरावट के बावजूद ईंधन के दाम न घटने, बीच सत्र में अधिनियमों द्वारा परोक्ष कर वृद्धि और बजट में आम कर्मचारी को मजबूर कर सरकार द्वारा काटे और कम ब्याज पर लंबे समय तक उपयोग किये गये भविष्य निधि कोष पर करारोपण से ठगा अनुभव कर रहे मतदाता को समझ ही नहीं आया बदलाव का मतलब।
​३-३-२०१६ ​

दोहा, गीत

दोहा सलिला 

दिल से दिल की बात हो, जब तब रहता मौन। 
मौन भंग हो तो लगे, पड़ा खीर में नौन।। 
*
काैन किसका सगा है, ठगता हर संबंध।  
नेह न नाता नित्य है, छलता बन अनुबंध।।  
*
चिल्लाने से नियति कब, सुनती? व्यर्थ पुकार। 
मौन भाव से टेर प्रभु, सुन करते उद्धार।। 
***
गीत:
किरण कब होती अकेली…
*
किरण कब होती अकेली?
नित उजाला बाँटती है
जानती है सूर्य उगता और ढलता,
उग सके फिर
सांध्य-बेला में न जगती
भ्रमित होए तिमिर से घिर
चन्द्रमा की कलाई पर,
मौन राखी बाँधती है
चाँदनी भेंटे नवेली
किरण कब होती अकेली…
*
मेघ आच्छादित गगन को
देख रोता जब विवश मन
दीप को आ बाल देती,
झोपड़ी भी झूम पाए
भाई की जब याद आती,
सलिल से प्रक्षाल जाए
साश्रु नयनों से करे पुनि
निज दुखों का आचमन
वेदना हो प्रिय सहेली
किरण कब होती अकेली…
*
पञ्च तत्वों में समाये
पञ्च तत्वों को सुमिरती
तीन कालों तक प्रकाशित
तीन लोकों को निहारे
भाईचारा ही सहारा
अधर शाश्वत सच पुकारे
गुमा जो आकार हो साकार
नभ को चुप निरखती
बुझती अनबुझ पहेली
किरण कब होती अकेली…
***


सोमवार, 22 नवंबर 2021

मुक्तिका, कुण्डलिया, दोहा, अनुप्रास

मुक्तिका
.
लोहा हो तो सदा तपाना पड़ता है
हीरा हो तो उसे सजाना पड़ता है
.
गजल मुक्तिका तेवरी या गीतिका कहें
लय को ही औज़ार बनाना पड़ता है
.
कथन-कहन का हो अलहदा तरीका कुछ
अपने सुर में खुद को गाना पड़ता है
.
बस आने से बात नहीं बनती लोगों
वक्त हुआ जब भी चुप जाना पड़ता है
.
चूक जरा भी गए न बख्शे जाते हैं
शीश झुकाकर सुनना ताना पड़ता है
***
मुक्तिका
रामसेवक राम सेवक हो गए
*
कुछ कहा जाता नहीं है क्या कहूँ?
मित्र! तुमको याद कर पल-पल दहूँ।
चाहता है मन कि बनकर अश्रु अब
नर्मदा में नेह की गुमसुम बहूँ
मोह बंधन तोड़कर तुम चल दिए
याद के पन्ने पलटकर मैं तहूँ
कौन समझेगा कि क्या नाता रहा
मित्र! बिछुड़न की व्यथा कैसे सहूँ?
रामसेवक राम सेवक हो गए
हाथ खाली हो गए यादें गहूँ
***

कार्यशाला-
विधा - कुण्डलिया छंद
कवि- भाऊ राव महंत
०१
सड़कों पर हो हादसे, जितने वाहन तेज
उन सबको तब शीघ्र ही, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का तब वेग, हमेशा थम ही जाता।
कह महंत कविराय, आजकल के लड़कों पर
चढ़ा हुआ है भूत, तेज चलते सड़कों पर।।
१. जितने वाहन तेज होते हैं सबके हादसे नहीं होते, यह तथ्य दोष है. 'हो' एक वचन, हादसे बहुवचन, वचन दोष. 'हों' का उपयोग कर वचन दोष दूर किया जा सकता है।
२. तब के साथ जब का प्रयोग उपयुक्त होता है, सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज।
३. सबको मौत की सेज नहीं मिलती, यह भी तथ्य दोष है। हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज
४. मौत की सेज मिलने के बाद यम का बुलावा या यम का बुलावा आने पर मौत की सेज?
५. जीवन का वेग थमता है या जीवन (साँसों) की गति थमती है?
६. आजकल के लड़कों पर अर्थात पहले के लड़कों पर नहीं था,
७. चढ़ा हुआ है भूत... किसका भूत चढ़ा है?
सुझाव
सड़कों पर हों हादसे, जब हों वाहन तेज
हाथ-पैर टूटें कभी, मिले मौत की सेज।
मिले मौत की सेज, बुलावा यम का आता
जीवन का रथचक्र, अचानक थम सा जाता।
कह महंत कविराय, चढ़ा करता लड़कों पर
जब भी गति का भूत, भागते तब सड़कों पर।।
०२
बन जाता है हादसा, थोड़ी-सी भी चूक
जीवन की गाड़ी सदा, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको।
कह महंत कविराय, सुरक्षित रखिए जीवन
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत बन।।
१. हादसा होता है, बनता नहीं। चूक पहले होती है, हादसा बाद में क्रम दोष
२. सड़कों पर जो मीत, चलें इतराकर जिनको- अभिव्यक्ति दोष
३. रखिए, मत बन संबोधन में एकरूपता नहीं
हो जाता है हादसा, यदि हो थोड़ी चूक
जीवन की गाड़ी कभी, हो जाती है मूक।
हो जाती है मूक, मौत आती है उनको
सड़कों पर देखा चलते इतराकर जिनको।
कह महंत कवि धीरे चल जीवन रक्षित हो
चलकर चाल कुचाल, मौत का भागी मत हो।
*
दोहा सलिला:
कुछ दोहे अनुप्रास के
संजीव
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
===
कुंडलिया छंद
*
सत्य अनूठी बात, महाराष्ट्र है राष्ट्र में।
भारत में ही तात, युद्ध महाभारत हुआ।।
युद्ध महाभारत हुआ, कृष्ण न पाए रोक।
रक्तपात संहार से, दस दिश फैला शोक।।
स्वार्थ-लोभ कारण बने, वाहक बना असत्य।
काम करें निष्काम हो, सीख मिली चिर सत्य।।
*

गीत, शिशु गीत, नवगीत

गीत:
पहले जीभर.....
संजीव 'सलिल'
*
पहले जीभर लूटा उसने,
फिर थोड़ा सा दान कर दिया.
जीवन भर अपमान किया पर
मरने पर सम्मान कर दिया.....
*
भूखे को संयम गाली है,
नंगे को ज्यों दीवाली है.
रानीजी ने फूँक झोपड़ी-
होली पर भूनी बाली है..
तोंदों ने कब क़र्ज़ चुकाया?
भूखों को नीलाम कर दिया??
*
कौन किसी का यहाँ सगा है?
नित नातों ने सदा ठगा है.
वादों की हो रही तिजारत-
हर रिश्ता निज स्वार्थ पगा है..
जिसने यह कटु सच बिसराया
उसका काम तमाम कर दिया...
*
जो जब सत्तासीन हुआ तब
'सलिल' स्वार्थ में लीन हुआ है.
धनी अधिक धन जोड़ रहा है-
निर्धन ज्यादा दीन हुआ है..
लोकतंत्र में लोभतंत्र ने
खोटा सिक्का खरा कर दिया...
**********
शिशु गीत सलिला : 1
संजीव 'सलिल'
*
1.श्री गणेश
श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
*
2. सरस्वती
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान,
ललित कलाओं की हैं खान।
जो जमकर अभ्यास करे-
वही सफल हो, पा वरदान।।
*
3. भगवान
सुन्दर लगते हैं भगवान,
सब करते उनका गुणगान।
जो करता जी भर मेहनत-
उसको देते हैं वरदान।।
*
4. देवी
देवी माँ जैसी लगती,
काम न लेकिन कुछ करती।
भोग लगा हम खा जाते-
कभी नहीं गुस्सा करती।।
*
5. धरती माता
धरती सबकी माता है,
सबका इससे नाता है।
जगकर सुबह प्रणाम करो-
फिर उठ बाकी काम करो।।
*
6. भारत माता
सजा शीश पर मुकुट हिमालय,
नदियाँ जिसकी करधन।
सागर चरण पखारे निश-दिन-
भारत माता पावन।
*
7. हिंदी माता
हिंदी भाषा माता है,
इससे सबका नाता है।
सरल, सहज मन भाती है-
जो पढ़ता मुस्काता है।।
*
8. गौ माता
देती दूध हमें गौ माता,
घास-फूस खाती है।
बछड़े बैल बनें हल खीचें
खेती हो पाती है।
गोबर से कीड़े मरते हैं,
मूत्र रोग हरता है,
अंग-अंग उपयोगी
आता काम नहीं फिकता है।
गौ माता को कर प्रणाम
सुख पाता है इंसान।
बन गोपाल चराते थे गौ
धरती पर भगवान।।
*
9. माँ -1
माँ ममता की मूरत है,
देवी जैसी सूरत है।
थपकी देती, गाती है,
हँसकर गले लगाती है।
लोरी रोज सुनाती है,
सबसे ज्यादा भाती है।।
*
10. माँ -2
माँ हम सबको प्यार करे,
सब पर जान निसार करे।
माँ बिन घर सूना लगता-
हर पल सबका ध्यान धरे।।
*
नवगीत:
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
बीड़ी-गुटखा बहुत जरूरी
साग न खा सकता मजबूरी
पौआ पी सकता हूँ, लेकिन
दूध नहीं स्वीकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
कौन पकाये घर में खाना
पिज़्ज़ा-चाट-पकौड़े खाना
चटक-मटक बाजार चलूँ
पढ़ी-लिखी मैं नार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
रहें झींकते बुड्ढा-बुढ़िया
यही मुसीबत की हैं पुड़िया
कहते सादा खाना खाओ
रोके आ सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
हुआ कुपोषण दोष न मेरा
खुद कर दूँ चहुँ और अँधेरा
करे उजाला घर में आकर
दखल न दे सरकार
जो जी चाहे करूँ
मुझे तो है इसका अधिकार
***
नवगीत:
अहर्निश चुप
लहर सा बहता रहे
आदमी क्यों रोकता है धार को?
क्यों न पाता छोड़ वह पतवार को
पला सलिला के किनारे, क्यों रुके?
कूद छप से गव्हर नापे क्यों झुके?
सुबह उगने साँझ को
ढलता रहे
हरीतिमा की जयकथा
कहता रहे
दे सके औरों को कुछ ले कुछ नहीं
सिखाती है यही भू माता मही
कलुष पंकिल से उगाना है कमल
धार तब ही बह सकेगी हो विमल
मलिन वर्षा जल
विकारों सा बहे
शांत हों, मन में न
दावानल दहे
ऊर्जा है हर लहर में कर ग्रहण
लग न लेकिन तू लहर में बन ग्रहण
विहंगम रख दृष्टि, लघुता छोड़ दे
स्वार्थ साधन की न नाहक होड़ ले
कहानी कुदरत की सुन,
अपनी कहे
स्वप्न बनकर नयन में
पलता रहे
***



एक रचना
अनाम
*
कहाँ छिपे तुम?
कहो अनाम!
*
जग कहता तुम कण-कण में हो
सच यह है तुम क्षण-क्षण में हो
हे अनिवासी!, घट-घटवासी!!
पर्वत में तुम, तृण-तृण में हो
सम्मुख आओ
कभी हमारे
बिगड़े काम
बनाओ अकाम!
*
इसमें, उसमें, तुमको देखा
छिपे कहाँ हो, मिले न लेखा
तनिक बताओ कहाँ बनाई
तुमने कौन लक्ष्मण रेखा?
बिन मजदूरी
श्रम करते क्यों?
किंचित कर लो
कभी विराम.
*
कब तुम माँगा करते वोट?
बदला करते कैसे नोट?
खूब चढ़ोत्री चढ़ा रहे वे
जिनके धंधे-मन में खोट
मुझको निज
एजेंट बना लो
अधिक न लूँगा
तुमसे दाम.
***

केनोपनिषद यथावत काव्यानुवाद-टीका

ॐ     
केनोपनिषद यथावत काव्यानुवाद-टीका
*
केनोपनिषद तलवगार ब्राह्मण के अंतर्गत उपनिषद है। इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद- परंपरा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। गुरु-शिष्य परंपरान्तर्गत प्रश्नोत्तर शैली में रचित यह उपनिषद गहन परमतत्व (परब्रह्म) का ज्ञान सहजता से कराता है। इसका वैशिष्ट्य तत्व विवेचन की सहज-सरल बोधगम्य शैली है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।
खंड १
शांतिपाठ
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणी च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्तव निराकरणं मेsस्तु।
तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु, ते मयि संतु। ॐ शांति: शांति: शांति:।।
दोहा
ॐ पुष्ट मम अंग हों सभी। वाक् प्राण दृग कर्णेन्द्रिय भी।।
सर्व ब्रह्म उपनिषद बताते, मैं न नकारूँ; ईश न त्यागे।।

हो संबंध अटूट हमेशा। मेरा उसका कभी न टूटे।।
उपनिषदों में कहे धर्म सब। जिनमें वह; वे सब मुझे हों।।

ॐ शांति हो, शांति हो, शांति हो।। 

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्त:।।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।१।।

ॐ किसके चाहे पतित मन। किसके कहे प्राण करता कुछ।।
किसके चाहे वाक् कहे कुछ। दृग-श्रुति देख-सुने, वह को है।।१।।

ॐ किसकी इच्छा से मन विषयों में लीन होकर; पतित होता है? किसके द्वारा नियुक्त किए जाने पर प्राण अपना कार्य करता है? किसकी इच्छा होने पर वाक्शक्ति कुछ बोलती है? वह कौन हैः जिसके कहने पर आँख कुछ देखती है या कान कुछ सुनते हैं?।।१।।
*
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।
चक्षुषश्चक्षुरतिम्युच्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवंति।।२।।

जो कानों का कान है वही। मन का मन; वाणी की वाणी।
प्राण प्राण का; आँख आँख की। धीर तजें निज बुद्धि; हों अमर।।२।।

जो कानों का भी कान है और जो मन का भी मन है, और जो वाणी की वाणी भी है। वही प्राण का प्राण और आँखों की ऑंखें है। (उसी की शक्ति और प्रेरणा से सब इन्द्रियाँ कार्य करती हैं।) इसलिए धैर्यवान स्वबुद्धि का त्याग कर इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं।।२।।
*
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो नो विद्यो न विजानीमो
यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे।।३।।

नहीं ब्रह्म तक नेत्र वाक् मन जाते; हम न जानते उसको।।
कैसे कहें शिष्य से उसको, भिन्न ज्ञात-अज्ञात सभी से।।
ऐसा सुना पूर्व पुरुषों से, जिनने हमें ब्रह्म बतलाया।।३।।

उस ब्रह्म तक आँखें, बोली या मन नहीं पहुँच पाते (ये इन्द्रियाँ ब्रह्म को जानने के लिए उपयुक्त नहीं हैं)। इसलिए हम उसे नहीं जान पाते। हम नहीं जानते कि ब्रह्म के विषय में शिष्यों को किस तरह बताया जाए? जो कुछ हम जानते हैं या जो कुछ हम नहीं जानते हैं, ब्रह्म उस सबसे भिन्न है। ऐसा हमने उन पूर्वपुरुषों (गुरुओं) से सुना है जिन्होंने हमें ब्रह्म के विषय में समझाया।।३।।
*
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।

वह न वाक् से कहा जा सके, वाक् हुई अभिव्यक्त उसी से।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।४।।

वाणी उस ब्रह्म को अभिव्यक्त नहीं कर सकती, उसकी सामर्थ्य से वाणी स्वयं अभियक्त होती है। तुम उसी ब्रह्म को समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।४।।
*
यन्मनसा न मनुते येनाss हुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।

जिसका मन से ज्ञान न होता, जिससे मन जाना; कहते हैं।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।५।।

मन के द्वारा जिसे नहीं जाना जा सकता, जिससे मन का ज्ञान होता है; तुम उस ब्रह्म को समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।५।।
*
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।६।।

देख न पातीं आँखें जिसको, जो आँखों को देखा करता।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।६।।

चर्म चक्षुओं से जिसे देखा नहीं जा सकता, जो चक्षुओं की वृत्तियों को देखता है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।६।।
*
यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोतमिदं श्रुतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।७।।

कान न जिसको सुन सकते हैं, जिससे कान सुने जाते हैं।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।७।।

जिसे कानों के द्वारा कभी नहीं सुना जा सकता, जो स्वयं कानों को सुनाता है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।७।।
*
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।८।।

जो न वायु से जीवन पाता, जिससे वायु प्रवृत्त होती है।
उसी ब्रह्म को तुम समझो अब, हुआ उपासित जो न ब्रह्म है।।८।।

जो प्राणवायु के द्वारा जीवन नहीं पाता, जिसके द्वारा प्राणवायु प्रवृत्त होती है, तुम उसे ही ब्रह्म समझो। जो उपासित होता है (जिसकी उपासना की जाती है) वह ब्रह्म नहीं है।।८।।
*
खंड २  
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम्।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम्।।१।।

समझ रहे तुम जान गए हो, ब्रह्म रूप; थोड़ा; न ब्रह्म है।
ब्रह्मरूपवत देव जानते, अल्प; विचारो; ज्ञात हो गया।।१।।

यदि (तुम) समझते हो कि मैं (ब्रह्म को) अच्छे से जानता हूँ तो निश्चय ही तुम जो जानते ही वह बहुत थोड़ा होगा, निश्चय ही ब्रह्म नहीं होगा। इस ब्रह्म के जिस रूप को तुम देवताओं में देखते हो वह भी थोड़ा ही है। इसलिए तुम ब्रह्म का विचार करो। तब शिष्य ने कहा मैं समझता हूँ कि मुझे ज्ञात हो गया।।१।।
*
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।।२।।

जान गया; मैं नहीं मानता, नहीं जानता; सही नहीं है।
जो न जानता; जान रहा यह, वही ब्रह्म को जान रहा है।।२।।

शिष्य बोला- मैं ब्रह्म को भली-भाँति जानता हूँ; ऐसा नहीं है और ब्रह्म को बिलकुल भी नहीं जानता हूँ;ऐसा भी नहीं है। जो कि ब्रह्म को न तो जानता है; न नहीं जानता है; वही ब्रह्म को जानता है।।२।।
*
यस्यामतं तस्य मतं यस्य न वेद स:।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।३।।

जिसे ज्ञात; वह नहीं जानता, जो न जानता जान रहा है।
है अज्ञात; समझता है जो, नहीं ज्ञान का विषय; जानता।।३।।

जो ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म को ज्ञान का विषय नहीं मानता; उसने ब्रह्म को जान लिया है। जिसके अनुसार वह ब्रह्म को जानता है वास्तव में वही ब्रह्म को नहीं जानता है। जो ब्रह्म को को किसी के ज्ञान का विषय नहीं समझता; वही ब्रह्म को जानता है।।३।।
*
प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विंदते।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेsमृतम्।।४।।

ज्ञान वही हो सुबोध जिसका, जिससे ज्ञानामृत मिल जाए।
आत्मज्ञान हो जाए जिससे, अमिय रूप निज प्राप्त कर सके।।४।।

वस्तुत:, वही ज्ञान ज्ञान है जिसका बोध हो गया हो। उसी से साधक अपने अमृत स्वरूप को पा सकता है। उस ज्ञान को पाने की सामर्थ्य ही निज रूप का ज्ञान कराता है जिससे साधक अपने अमृतमय रूप को जान लेता है।।४।।
*
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवंति।।५।।

जानें खुद को तो न नाश हो, जान न पाएँ तो विनाश हो।
सबमें ब्रह्म धीरजन देखें, लौट लोक से अमर हो सकें।।५।।

मनुष्य इसी जन्म में अपने अमृत स्वरूप को जान ले तो नाश नहीं होता; यदि न जान पाए तो विनाश हो जाता है। धैर्यवान (बुद्धिमान) सब पदार्थों में उसी ब्रह्म का साक्षात्कार कर; संसार (भव सागर) से जाने पर अमर हो जाते हैं।।५।।
*
खंड ३   उपनिषद वार्ता ४, केनोपनिषद  

ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त।
त ऐक्षंतास्माकमेवायं विजयोsस्माकमेवायं महिमेत।।१।।

ब्रह्मा ने असुरों को जीता, गए सारे देवता पूजे।
सोचें देव- जयी हम ही हैं, महिमा है अपनी ही सारी।।१।।

ब्रह्म ने (देवासुर संग्राम में, सृष्टि की रक्षा के लिए) असुरों को जीत लिया। (ब्रह्म अदृष्ट होने के कारण) देवता ने संसार में पूजे गए। देवताओं ने विचार कि यह विजय और महिमा हमारी ही है।।१।।
*
तद्धेषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्बभूव तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति।।२।।

कहा गया तब ब्रह्मा ने था, जान लिया घमंड देवों का।
गर्व-हरण हित सम्मुख प्रगटा, देव न जान सके थे उसको।।२।।

कहा जाता है कि देवताओं के मिथ्या अहंकार को जान लेने पर उसे दूर करने के लिए ब्रह्म देवताओं के सम्मुख प्रगट हुए किन्तु देवता नहीं जान सके कि कौन प्रगट हुआ हैं?।।२।।
*
तेsग्निमब्रुवंजातवेद एतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति।।३।।

उन देवों ने कहा अग्नि से, हे अग्ने! यह यक्ष कौन है?
पता लगाओ सत्य बात का, कहा अग्नि ने 'हो ऐसा ही'।।३।।

उन देवताओं ने अग्नि से कहा'हे अग्नि! यह यक्ष कौन है? इसका पता लगाओ, तब अग्नि ने कहा ऐसा ही होगा।।३।।
*
तदभ्यद्रवत् तदभ्यवदत् कोsसीत्यग्निर्वा अहस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहस्मीति।।४।।

दौड़ यक्ष तक गया अग्नि तब, कौन? अग्नि से उसने पूछा।
कहा अग्नि ने - नाम अग्नि है, ख्यात जातवेदा हूँ मैं ही।।४।।

अग्नि शीघ्रता से उस यक्ष के समीप गया तो यक्ष ने अग्नि से पूछा - तुम कौन हो? अग्नि ने कहा - मैं अग्नि हूँ, मैं जातवेदा नाम से भी प्रसिद्ध हूँ।।५।।
*
तस्मिंस्त्वयि किं वीरमित्यपीदंसर्वं दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति।।५।।

कहा यक्ष ने - है प्रसिद्ध क्यों, अग्नि जातवेदा? क्या तुममें?
कहा अग्नि ने - पृथ्वी पर है, जो कुछ उसे जला मैं सकता।।५।।

यक्ष ने अग्नि से पूछा अग्नि और जातवेदा नाम से प्रसिद्ध तुम्हारे अंदर क्या सामर्थ्य है? अग्नि ने उत्तर दिया - पृथ्वी पर जी कुछ भी दिखाई देता है, मैं उसे जला सकता हूँ।।५।।
*
तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं स तत एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्ष मिति।।६।।

तृण रख बोला यक्ष - जलाओ, अग्नि वेग से जला न पाया।
लौट देवताओं से बोला, जान यक्ष को नहीं सका मैं।।६।।

तब उस दिव्य यक्ष ने अग्नि के समक्ष एक तिनके को रखकर कहा - इसे जलाओ। अग्नि उस तिनके के पास पूरे वेग से गया पर उसे जलाने में समर्थ न हो सका। उसने लौटकर देवताओं से कहा जो यह यक्ष है; इसे जान नहीं सका।।६।।
*
अथ वायुमब्रुवन्वायवे तद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति।।७।।

तब देवों ने कहा वायु से, वायुदेव! यह पता लगाओ।
कौन यक्ष यह? कहा वायु ने, जाता हूँ मैं, ऐसा ही हो।।७।।

तब देवताओं ने वायुदेव से कहा - हे वायु! यह यक्ष जो दिख रहा है, कौन है? पता लगाओ। तब वायु ने कहा - ऐसा ही होगा।।७।।
*
तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोsसीति। वायुर्वा अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति।।८।।

गया यक्ष के निकट शीघ्र जब, वायु; यक्ष ने पूछा कौन?
कहा वायु ने - वायु नाम है, हूँ मैं प्रसिद्ध मातरिश्वा भी।।८।।

जब वायु द्रुत गति से उस यक्ष के समीप पहुँचा तो यक्ष ने पूछा - तुम कौन हो? तब वायु ने कहा - मैं वायु हूँ, मैं मातरिश्वा नाम से भी प्रसिद्ध हूँ ।।८।।
*
तस्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपीदंसर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति।।९।।

कहा यक्ष ने - हो प्रसिद्ध तुम, वायु मातरिश्वा क्या शक्ति?
कहा वायु ने - उड़ा सकूँ मैं, जो कुछ भी इस पृथ्वी पर है।।९।।

यक्ष ने वायु से पूछा - हे प्रसिद्ध वायु और मातरिश्वा! तुम्हरे अंदर क्या शक्ति है? वायु बोला - मैं पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उस सब को उड़ा सकता हूँ।।९।।
*
तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाकाssदातुं स तत एव निववृते, नैतदशकं विज्ञातुं यतेतद्यक्षमिति।।१०।।

तृण रख बोला यक्ष - उड़ाओ, वायु निकट जा उड़ा न पाया।
लौट कहा देवों से उसने, नहीं यक्ष को जान सका मैं।।१०।।

उस यक्ष ने वायु के सामने एक तिनका रखकर कहा कि इसे उड़ाकर दिखाओ। वायु अपने पूरे वेग से भी उसे उड़ा नहीं सका। हारकर देवताओं के पास जाकर वह बोले मैं इस यक्ष (की सामर्थ्य) को नहीं जान सका।।१०।।
*
अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्य द्रवत्तस्मात्तिरोदधे।।११।।

तब देवों ने कहा इंद्र से, कौन यक्ष यह पता लगाओ।
कहा इंद्र ने ऐसा ही हो, शीघ्र गया; वह हुआ लापता।।११।।

इसके बाद देवताओं ने इंद्र से कहा कि यह यक्ष कौन है, पता लगाओ। इंद्र ने कहा ऐसा ही हो और वह शीघ्रता से यक्ष तक गया किन्तु यक्ष अदृश्य हो गया।।११।।
*
स तस्मिन्नेवाssकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमांहैमवतीं तांहोवाच किमेतद्यक्षमिति।।१२।।

उसी गगन में दिखी इंद्र को, रूपवती स्त्री; झट धाया।
उमा हिमालयतनया थी वह, कौन यक्ष यह उनसे पूछा।।१२।।

जहाँ वह यक्ष अदृश्य हुआ था वहीं गगन में इंद्र ने एक सुंदर स्त्री को देखा। वह हिमालय की कन्या उमा थी। इंद्र ने उमा से पूछा यह यक्ष कौन है।।१२।।
***
खंड ४
सा ब्रह्मोति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदांचकार ब्रह्मेति।।१।।

कहा उमा ने- निश्चय ही है, ब्रह्म देवगण! इसकी जय में।
पूजित होते तुम सब सुरगण, जान सका तब इंद्र ब्रह्म को ।।१।।


उस (उमा) ने कहा- यह निश्चय ही ब्रह्म ही है। ब्रह्म की ही विजय में तुम देवगण पूजा प्राप्त कर रहे हो। उमा द्वारा इस प्रकार बताने पर ही इंद्र ने यह ब्रह्म है ऐसा जाना।
*
तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यांदे वान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पशपृशुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदांचकार ब्रह्मेति।।२।।

इस कारण दीगर देवों से, श्रेष्ठ अग्नि वायु वा इंद्र हैं।
उनने इसको जाना पहले, ब्रह्म ब्रह्म है इस प्रकार से।।२।।

अग्नि वायु व इंद्र अन्य देवताओं से अधिक श्रेष्ठ इसलिए मान्य हैं चूँकि ब्रह्म ही ब्रह्म है; यह सबसे पहले उन्हीं ने जाना था।
*
तस्माद्वा इंद्रोsतितरामिवान्यान् देवान् स ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श स ह्येनत्प्रथमो विदांचकार ब्रह्मेति।।३।।

मान्य श्रेष्ठ हैं इंद्र अन्य से, वह ही अधिक निकट जा पाया।
सबसे पहले उसने जाना, ब्रह्म ब्रह्म हैं इस प्रकार से।।३।।

इंद्र शेष सभी देवताओं से अधिक श्रेष्ठ इसलिए हुआ कि उसने ही अन्यों से अधिक निकट जाकर सबसे पहले ब्रह्म को स्पर्श किया (जाना)।।३।।
*
तस्यैष आदेशो यतेतद् विद्युतो व्युदयुतदाsइतीन्नमीमिषदाsइत्यधिदैवतं।।४।।

उसका वर्णन विद्युत् चमके, पलकें झपका करतीं जैसे।
अनुपमेय है ब्रह्म वस्तुत:, उपमानों से गया बताया।।४।।

वह ब्रह्म बिजली के चमकने या पलकों के झपकने की तरह प्रगट और लुप्त हो जाता है। इस उपमानों द्वारा उस ब्रह्म का वर्णन किया गया है।।४।।
*
अथाध्यात्मं यदेतद्गच्छतीव च मनोsनेन चैतदुपस्मरत्यभीक्षणंसंकल्प:।।५।।

यह मन; जाता हुआ ब्रह्म की ओर; लग रहा है; इस मन से।
बार-बार जो सुमिरन करता, कर संकल्प ब्रह्म को पाता।।५।।

यह मन ब्रह्म की ओर जाता हुआ प्रतीत होता है। जो इस मन से बार-बार ब्रह्म का स्मरण करता है और जो संकल्प पूर्वक ब्रह्म का चिंतन करता है, उसे ब्रह्म की प्रतीति होती है।।५।।
*
तद्ध तदवन्न नाम तद्वन मित्युपासितव्यं स य एतदेवं वेदाभि हैनं सर्वाणि भूतानि संवांछन्ति।।६।।

निश्चय तद्वन नाम ब्रह्म का, इसी नाम से उसे उपासें।
वह जो भी इस तरह जानता, उसकी सब जग करे प्रार्थना।।६।।

निश्चय ही उस ब्रह्म का नाम तद्वन है। उसकी उपासना इसी नाम से करनी चाहिए। जो ब्रह्म को इस प्रकार जानकर उसकी उपासना करता है, उस उपासक की सब जग प्रार्थना करता है।।६।।
*
उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद् ब्राह्मीं वाव त उपनिषदं ब्रूमेति।।७।।

चिंतनीय जो गुरु वह कहिए, कहा शिष्य ने तब गुरु बोले।
ब्राह्म उपनिषद तुम्हें बताया, अब ब्राह्मी उपनिषद कहेंगे।।७।।

हे गुरु! उपनिषद कहिए। तब गुरु बोले - तुम्हारे लिए चिन्तनीय ब्राह्म उपनिषद बताया; अब ब्राह्मी (ब्रह्म को जाननेवालों अर्थात ब्राह्मणों से संबंधित) उपनिषद कहेंगे।।७।।
*
तस्यै तपो दम: कर्मेति प्रतिष्ठा वेदा: सर्वांगानि सत्यमायतनम्।।८।।

उसका तप दम कर्म प्रतिष्ठा, वेदों सह वेदांगों में भी।
और सत्य में सदा वास है, यहीं उसे पाया जा सकता।।८।।


उस ब्रह्म का तप (शारीरिक, वाचिक और मानसिक ), दम (निवृत्ति), कर्म (कायिक, वाचिक, मानसिक, सात्विक, राजस, तामसिक, संचित, प्रारब्ध), प्रतिष्ठा (कुल, कर्म), वेद (ऋग्, साम, यजुर्, अथर्व), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त) और सत्य (वैचारिक, व्यावहारिक, सर्वकालिक, तात्कालिक, सर्वहितकारी, स्वहितकारी) में निवास है।।८।।
*
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते स्वर्गे लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति।।९।।

जो जानता ब्रह्मविद्या को, वैसे ही जैसी वह सच में।
सकल अविद्या का विनाश कर, वह अनंत स्वर्ग में रहता।।९।।

जो भी इस ब्रह्मविद्या को यथावत जानता है, वह अविद्या को नष्टकर अविनाशी स्वर्गलोक में रहता है, रहता है (लौटकर वापिस नहीं आता) ।।९।।
*
सत्यकाम: स्वयंसिद्ध: सर्वेशो य: स्वशक्तित:।
स एवांत:प्रविष्टोsहमुपास्य: सर्वदेहिनाम्।।

सत्यकाम हो; स्वयंसिद्ध हो, सब प्रभु उसमें; आत्मशक्ति से। 
वह प्रविष्ट होता है ऐसे, हर उपास्य में देहधारियों।। 
शांतिपाठ 
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणचक्षु: श्रोतमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेsस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि संतु, ते मयि संतु।। ॐ शांति: शांति:शांति:

ॐ पुष्ट हों अंग मेरे वाक् प्राण दृग श्रोत इन्द्रियाँ।
सर्व ब्रह्म है, मैं उससे या वह ही मुझसे विमुख न होए।।
रहें परस्पर हम अभिन्न ही, कभी तनिक अलगाव न होए।
उपनिषदों में कहा धर्म जो वह मुझमें हो, वह मुझमें हो।।
त्रिविध ताप की सदा शान्ति हो।
***

रविवार, 21 नवंबर 2021

पद, गीत, छंद बह्र

एक पद-
अभी न दिन उठने के आये
चार लोग जुट पायें देनें कंधा तब उठना है
तब तक शब्द-सुमन शारद-पग में नित ही धरना है
मिले प्रेरणा करूँ कल्पना ज्योति तिमिर सब हर ले
मन मिथिलेश कभी हो पाए, सिया सुता बन वर ले
कांता हो कैकेयी सरीखी रण में प्राण बचाए
अपयश सहकर भी माया से मुक्त प्राण करवाए
श्वास-श्वास जय शब्द ब्रम्ह की हिंदी में गुंजाये
अभी न दिन उठने के आये
*
एक नया प्रयोग-
गीत
करेंगे वही
(छंद- अष्ट मात्रिक वासव जातीय, पंचाक्षरी)
[बहर- फऊलुन फ़अल १२२ १२]
*
करेंगे वही
सदा जो सही
*
न पाया कभी
न खोया कभी
न जागा हुआ
न सोया अभी
वरेंगे वही
लगे जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
सुहाया वही
लुभाया वही
न खोया जिसे
न पाया कभी
तरेंगे वही
बढ़े जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
गिराया हुआ
उठाया नहीं
न नाता कभी
भुनाया, सही
डरेंगे वही
नहीं जो सही
करेंगे वही
सदा जो सही
*
इस लय पर मुक्तक, हाइकु, ग़ज़ल, जनक छंद आदि का स्वागत है।

मधुकर अष्ठाना, समीक्षा

कृति चर्चा:
'पहने हुए धूप के चेहरे' नवगीत को कैद करते वैचारिक घेरे
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: पहने हुए धूप के चेहरे, नवगीत संग्रह, मधुकर अष्ठाना, प्रथम संस्करण २०१८, आई.एस.बी.एन. ९८७९३८०७५३४२३, प्रथम संस्करण २०१८, पृष्ठ १६०, मूल्य ३००/-, आवरण सजीओल्ड बहुरंगी जैकेट सहित, गुंजन प्रकाशन,सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ मार्ग, मुरादाबाद, नवगीतकार संपर्क विधायन, एसएस १०८-१०९ सेक्टर ई, एल डी ए कॉलोनी, कानपुर मार्ग लखनऊ २८६०१२, चलभाष ९४५०४७५७९]
*
नवगीत के इतिहास में जनवादी विचारधारा का सशक्त प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रतिनिधि हस्ताक्षर राजेंद्र प्रसाद अष्ठाना जिन्हें साहित्य जगत मधुकर अष्ठाना के नाम से जानता है, अब तक एक-एक भोजपुरी गीत संग्रह, हिंदी गीत संग्रह तथा ग़ज़ल संग्रह के अतिरिक्त ९ नवगीत संग्रहों की रचना कर चर्चित हो चुके हैं। विवेच्य कृति मधुकर जी के ६१ नवगीतों का ताज़ा गुलदस्ता है। मधुकर जी के अनुसार- "संवेदना जब अभिनव प्रतीक-बिम्बों को सहज रखते हुए, सटीक प्रयोग और अपने समय की विविध समस्याओं एवं विषम परिस्थितियों से जूझते साधारण जान के जटिल जीवन संघर्ष को न्यूनतम शब्दों में छांदसिक गेयता के साथ मार्मिक रूप में परिणित होती है तो नवगीत की सृष्टि होती है।"मधुकर के सृजन-कर्म का वैशिष्ट्य नवगीतों में समसामयिक विडंबनाओं, त्रासदियों, विरोधभासों आदि का संकेतन करना है। सटीक बिम्बों के माध्यम से पाठक उनके नवगीतों के कथ्य से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आम बोलचाल की भाषा में तत्सम - तद्भव शब्दावली उनके नवगीतों को जन-मन तक पहुँचाती है। ग्राम्यांचलों से नगरों की और पलायन से उपजा सामाजिक असंतुलन और पारिवारिक विघटन उनकी चिंता का विषय है-
बाबा लिए सुमिरनी झंखै
दादी को खटवाँस
जाये सब
परदेस जा बसे
घर में है वनवास
हरसिंगार की
पौध लगाई
निकले किन्तु बबूल
पड़ोसियों की
बात निराली
ताने हैं तिरसूल
'सादा जीवन उच्च विचार' की, पारंपरिक सीख को बिसराकर प्रदर्शन की चकाचौंध में पथ भटकी युवा पीढ़ी को मधुकर जी उचित ही चेतावनी देते हैं-
जिसमें जितनी चमक-दमक है
वह उतना नकली सोना है
आकर्षण के चक्र-व्यूह में
केवल खोना ही
खोना है
नयी पौध को दिखाए जा रहे कोरे सपने, रेपिस्टों की कलाई पर बाँधी जा रहे रही राखियां, पंडित-मुल्ला का टकराव,, सवेरे-सवेरे कूड़ा बीनता भविष्य, पत्थरों के नगर में कैद संवेदनाएँ, प्रगति बिना प्रगति का गुणगान, चाक-चौबंद व्यवस्था का दवा किन्तु लगातार बढ़ते अपराध, स्वप्न दिखाकर ठगनेवाले राजनेता, जीवनम में व्याप्त अबूझा मौन, राजपथों पर जगर-मगर घर में अँधेरा, नयी पीढ़ी के लिए नदी की धार का न बचना, पीपल-नीम-हिरन-सोहर-कजली-फाग का लापता होते जाना आदि-आदि अनेक चिंताएँ मधुकर जी के नवगीतों की विषय-वस्तु हैं। कथ्य में जमीनी जुड़ाव और शिल्प में सतर्क-सटीकता मधुकर जी के काव्य कर्म को अन्यों से अलग करता है। सम्यक भाषा, कथ्यानुरूप भाव, सहज कहन, समुचित बिम्ब, लोकश्रुत प्रतीकों और सर्वज्ञात रूपकों ने मधुकर जी की इन गीति रचनाओं को खास और आम की बात कहने में समर्थ बनाया है।
मधुकर जी के नवगीतकार की ताकत और कमजोरी उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता है। उनके गीतों में लयें हैं, छंद हैं, भावनाएँ हैं, आक्रोश है किंतु कामनाएँ नहीं है, हौसले नहीं हैं, अरमान नहीं है, उत्साह नहीं है, उल्लास नहीं है, उमंग नहीं है, संघर्ष नहीं है, सफलता नहीं है। इसलिए इन नवगीतों को कुंठा का, निराशा का, हताशा का वाहक कहा जा सकता है।
यह सर्वमान्य है कि जीवन में केवल विसंगतियाँ, त्रासदियाँ, विडंबनाएँ, दर्द, पीड़ा और हताशा ही नहीं होती। समाज में व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों की, मानवीय जिजीविषा की पराजय की जय-जयकार करना मात्र ही साहित्य की किसी भी विधा का साध्य कैसे हो सकता है? क्या नवगीत राजस्थानी की रुदाली परंपरा या शोकगीत में व्याप्त रुदन-क्रंदन मात्र है?
नवगीत के उद्भव-काल में लंबी पराधीनताजनित शोषण, सामाजिक बिखराव और विद्वेष, आर्थिक विषमताजनित दरिद्रता आदि के उद्घोष का आशय शासन-प्रशासन का ध्यान आकर्षित कर पारिस्थितिक सुधार के दिशा प्रशस्त करना उचित था किन्तु स्वतंत्रता के ७ दशकों बाद परिस्थितियों में व्यापक और गहन परिवर्तन हुआ है। दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते हुए क्रमश: अविकसित से विकासशील, अर्ध विकसित होते हुए विकसित देशों के स्पर्धा कर रहा देश विसंगतियों और विडम्बनाओं पर क्रमश: जीत दर्ज करा रहा है।
अब जबकि नवगीत विधा के तौर पर प्रौढ़ हो रहा है, उसे विसंगतियों का अतिरेकी रोना न रोते रहकर सच से आँख मिलाने का साहस दिखते हुए, अपने कथ्य और शिल्प में बदलाव का साहस दिखाना ही होगा अन्यथा उसके काल-बाह्य होने पर विस्मृत कर दिए जाने का खतरा है। नए नवगीतकार निरंतर चुनौतियों से जूझकर उन्नति पथ पर निरंतर बढ़ने के लिए तत्पर हैं। मधुकर अष्ठाना जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार की ओर नयी पीढ़ी बहुत आशा के साथ देख क्या वे आगामी नवगीत संग्रहों में नवगीत को यथास्थिति से जूझकर जयी होनेवाले तेवर से अलंकृत करेंगे?
नवगीत और हिंदी जगत दोनों के लिए यह आल्हादकारी है कि मधुकर जी के नवगीतों की कतिपय पंक्तियाँ इस दिशा का संकेत करती हैं। "आधा भरा गिलास देखिए / जीन है तो / दृष्टि बदलिए" में मधुयर्कार जी नवगीत कर का आव्हान करते हैं कि उन्हें अतीतदर्शी नहीं भविष्यदर्शी होना है। "यह संसद है / जहाँ हमारे सपने / तोड़े गए शिखर के" में एक चुनौती छिपी है जिसे दिनकर जी 'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध' लिखकर व्यक्त करते हैं। निहितार्थ यह कि नए सपने देखो और सपने तोड़ने वाली संसद बदल डालो। दुष्यंत ने 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो' कहकर स्पष्ट संकेत किया था, मधुकर जी अभी उस दिशा में बढ़ने से पहले की हिचकिचाहट के दौर में हैं। अगर वे इस दिशा में बढ़ सके तो नवगीत को नव आयाम देने के लिए उनका नाम और काम चिरस्मरणीय हो सकेगा।
इस पृष्ठभूमि में मधुकर जी की अनुपम सृजन-सामर्थ्य समूचे नवगीत लेखन को नई दिशाओं, नई भूमिकाओं और नई अपेक्षाओं से जोड़कर नवजीवन दे सकती है। गाठ ५ दशकों से सतत सृजनरत और ९ नवगीत संकलन प्रकाशित होने के बाद भी "समय के हाशिये पर / हम अजाने / रह गए भाई" कहते मधुकर जी इस दिशा और पथ पर बढ़े तो उन्हें " अधर पर / कुछ अधूरे / फिर तराने रह गए भाई" कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा। "होती नहीं / बंधु! वर्षों तक / खुद से खुद की बात", "छोटी बिटिया! / हुई सयानी / नींद गयी माँ की", "सोच संकुचित / रोबोटों की / अंतर मानव और यंत्र में", "गति है शून्य / पंगु आशाएँ", "अब न पीर के लिए / ह्रदय का कोई कण", "विश्वासों के / नखत न टूटे", "भरे नयन में / कौंध रहे / दो बड़े नयन / मचले मन में / नूपुर बाँधे / युगल चरण / अभी अधखिले चन्द्रकिरण के फूल नए / डोल रही सर-सर / पुरवैया भरमाई" जैसी शब्दावली मधुकर जी के चिंतन और कहन में परिवर्तन की परिचायक है।
"कूद रहा खूँटे पर / बछरू बड़े जोश में / आज सुबह से" यह जोश और कूद बदलाव के लिए ही है। "कभी न बंशी बजी / न पाया हमने / कोई नेह निमंत्रण" लिखनेवाली कलम नवल नेह से सिक्त-तृप्त मन की बात नवगीत में पिरो दे तो समय के सफे पर अपनी छाप अंकित कर सकेगा। "चलो बदल आएँ हम चश्मा / चारों और दिखे हरियाली" का संदेश देते मधुकर जी नवगीत को निरर्थक क्रंदन न बनने देने के प्रति सचेष्ट हैं। "दीप जलाये हैं / द्वारे पर / अच्छे दिन की अगवानी में" जैसी अभिव्यक्ति मधुकर जी के नवगीत संसार में नई-नई है। शुभत्व और समत्व के दीप प्रज्वलित कर नवगीत के अच्छे दिन लाये जा सकें तो नवगीतकार काव्यानंद-रसानंद व् ब्रम्हानंद की त्रिवेणी में अवगाहन कर समाज को नवनिर्माण का संदेश दे सकेंगे।
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com
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दोहा, मुक्तक, , मुक्तिका, कविता

मुक्तिका
.
लोग हों सब साथ
हाथ में हों हाथ
.
छोड़ दें हम फ़िक्र
साध लें आ नाथ
.
रखो पैर सम्हाल
झुक न जाए माथ
.
लक्ष्य पाते पैर
सहायक हो पाथ
.
फूल बनते माल
डोर ले यदि गाँथ

*
एक रचना
*
भ्रमरवत करो सभी गुंजार,
बाग में हो मलयजी बयार.
अजय वास्तव में श्रीे के साथ
लिए चिंतामणि बाँटे प्यार.
बसन्ती कांति लुटा मिथलेश
करें माया की हँस मनुहार.
कल्पना कांता सत्या संग
छंद रच करें शब्द- श्रन्गार.
अदब की पकड़े लीक अजीम
हुमा दे दस दिश नवल निखार.
देख विश्वंभर छिप रति-काम
मौन हो गए प्रशांत, न धार.
सुमन ले सु-मन, विनीता कली
चंचला तितली बाग-बहार.
प्रेरणा गिरिधारी दें आज
बिना दर्शन मेघा बेज़ार.
विनोदी पुष्पा हो संजीव,
सरस रस वर्षा करे निहार.
रहे जर्रार तेज-तर्रार,
विसंगति पर हो शब्द-प्रहार.
अनिल भू नभ जल अग्नि अमंद
काव्यदंगल पर जग बलिहार.
***

मुक्तक
शब्द ही करते रहे हैं, नित्य मुझसे खेल.
मैं अकेले ही बिचारा , रहा उनको झेल.
चाहती भाषा रखूँ मैं, भाव का भी ध्यान-
शिल्प चाहे हो डली, कवि नाक में नकेल
*
दोहा द्विपदी ही नहीं-
दोहा द्विपदी ही नहीं, चरण न केवल चार
गौ-भाषा दुह अर्थ दे सम्यक, विविध प्रकार
*
तेरह-ग्यारह विषम-सम, चरण पदी हो एक
दो पद मिल दोहा बने, रचते कवि सविवेक
*
गुरु-लघु रखें पदांत में, जगण पदादि न मीत
लय रस भाव प्रतीक मिल, गढ़ते दोहा रीत
*
कहे बात संक्षेप में, दोहा तज विस्तार
गागर में सागर भरे, ज्यों असार में सार
*
तनिक नहीं अस्पष्टता, दोहे को स्वीकार्य
एक शब्द बहु अर्थ दे, दोहे का औदार्य
*
मर्म बेध दोहा कहे, दिल को छूती बात
पाठक-श्रोता सराहे, दोहा-कवि विख्यात
*
अमिधा मन भाती इसे, रुचे लक्षणा खूब
शक्ति व्यंजना सहेली, मुक्ता गहती डूब
*
आधा सम मात्रिक बना, है दोहे का रूप
छंदों के दरबार में, दोहा भूप अनूप
*
गति-यति दोहा-श्वास है, रस बिन तन बेजान
अलंकार सज्जित करें, पड़े जान में जान
*
बिंब प्रतीक मिथक हुए, दोहा का गणवेश
रहें कथ्य-अनुकूल तो, हों जीवंत हमेश
*
कहन-कथन का मेल हो, शब्द-भाव अनुकूल
तो दोहा हो फूल सम, अगर नहीं हो शूल
*
किस मिस किस मिस को किया, किस बतलाए कौन?
तिल-तिल कर तिल जल रहा, बैठ अधर पर मौन.
*
जो जगमग-जगमग करे, उसे न सोना जान.
जो जग कर कुछ तम हरे, छिड़क उसी पर जान.
*
बिल्ली जाती राह निज, वह न काटती राह
भरमाता खुद को मनुज, छोड़ तर्क की थाह.
*
कुछ दोहे अनुप्रास के
संजीव
अजर अमर अक्षर अमित, अजित असित अवनीश
अपराजित अनुपम अतुल, अभिनन्दन अमरीश
*
अंबर अवनि अनिल अनल, अम्बु अनाहद नाद
अम्बरीश अद्भुत अगम, अविनाशी आबाद
*
अथक अनवरत अपरिमित, अचल अटल अनुराग
अहिवातिन अंतर्मुखी, अन्तर्मन में आग
*
आलिंगन कर अवनि का, अरुण रश्मियाँ आप्त
आत्मिकता अध्याय रच, हैं अंतर में व्याप्त
*
अजब अनूठे अनसुने, अनसोचे अनजान
अनचीन्हें अनदिखे से,अद्भुत रस अनुमान
*
अरे अरे अ र र र अड़े, अड़म बड़म बम बूम
अपनापन अपवाद क्यों अहम्-वहम की धूम?
*
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
===

घनाक्षरी

घनाक्षरी
*
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
*
घन अक्षरी गाइये, डूबकर सुनाइए, त्रुटि नहीं छिपाइये, सीखिये-सिखाइए।
शिल्प-नियम सीखिए, कथ्य समझ रीझिए, भाव भरे शब्द चुन, लय भी बनाइए।।
बिंब नव सजाइये, प्रतीक भी लगाइये, अलंकार कुछ नये, प्रेम से सजाइए।।
वचन-लिंग, क्रिया रूप, दोष न हों देखकर, आप गुनगुनाइए, वाह-वाह पाइए।।
*
फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िंदगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर धर, धीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो, काम जो भी करना हो, झटपट करिए।
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं, मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए।।
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें, खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए।।
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें, 'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये।।
*
न चाहतें, न राहतें, न फैसले, न फासले, दर्द-हर्ष मिल सहें, साथ-साथ हाथ हों।
न मित्रता, न शत्रुता, न वायदे, न कायदे, कर्म-धर्म नित करें, उठे हुए माथ हों।।
न दायरे, न दूरियाँ, रहें न मजबूरियाँ, फूल-शूल, धूप-छाँव, नेह नर्मदा बनें।।
गिर-उठें, बढ़े चलें, काल से विहँस लड़ें, दंभ-द्वेष-छल मिटें, कोशिशें कथा बुनें।।
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो।।
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो।
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो।।
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी।
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी।।
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी।
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी।।
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी।
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी।।
विप्र जब द्वार आये, राखी बाँध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी।
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी।।
*
सच बात जाने बिना, अफ़वाहे सच मान, धमकी जो दे रहे हैं, नादां राजपूत हैं.
सत्य के न न्याय के वे, साथ खड़े हो रहे हैं, मनमानी चाहते हैं, दहशत-दूत हैं.
जातिवादी सोच हावी, जाने कैसी होगी भावी, राजनीति के खिलौने, दंभी भी अकूत हैं.
संविधान भूल रहे, अपनों को हूल रहे, सत्पथ भूल रहे, शांति रहे लूट हैं.
*
हिंदी मैया का जैकारा, गुंजा दें सारे विश्वों, देवों, यक्षों-रक्षों में, वे भी आ हिंदी बोलें.
हिंदी मैया दिव्या भव्या, श्रव्या-नव्या दूजी कोई, भाषा ऐसी ना थी, ना है, ना होगी हिंदी बोलें.
हिंदी मैया गैया रेवा, भू माताएँ पाँचों पूजे, दूरी मेटें आओ भेंटें, एका हो हिंदी बोलें.
हिंदी है छंदों से नाता, हिंदी गीतों की उद्गाता, ऊषा-संध्या चंदा-तारे, सीखें रे हिंदी बोलें.
*
मेरा पूरा परिचय, केवल इतना बेटा, हिंदी माता का हूं गाता, हिंदी गीत हमेशा.
चारण हूं अक्षर का, सेवक शब्द-शब्द का, दास विनम्र छंद का, पाली प्रीत हमेशा.
नेह नरमदा नहा, गही कविता की छैया, रस गंगा जल पीता, जीता रीत हमेशा.
भाव प्रतीक बिंब हैं, साथी-सखा अनगिने, पाठक-श्रोता बांधव, पाले नीत हमेशा.
*

दोहा सलिला, छंद-बहर दोउ एक हैं ४, कुन्डलिया

दोहा सलिला
*
लहर-लहर लहरा रहे, नागिन जैसे केश।
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जूड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*

लखन लक्ष्मण या कहें, लछ्मन उसको आप.
राम-काम सौमित्र का, हर लेता संताप.
*
लक्ष्य रखे जो एक ही, वह जन परम सुजान.
लख न लक्ष मन चुप करे साध तीर संधान.*

फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यह बेहतर,
फेस 'बुक' हुआ है तो, छुडाना ही होगा।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो,
फेस की असलियत, जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो, पोल खुल जाएगी ही,
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं, लाइक पे लाइक जो,
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।
*२४-५-२००९

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
*
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
*
मुक्तक
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
*

कुन्डलिया
*
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
***
एक रचना
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
चिड़िया चहक-चहककर, नव आस बो रही है
*
तेरा नहीं ठिकाना, मंजिल है दूर तेरी
निष्काम काम कर ले, पल भर भी हो न देरी
कब लौटती है वापिस, जो सांस खो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
दिनकर करे मजूरी, बिन दाम रोज आकर
नागा कभी न करता, पर है नहीं वो चाकर
सलिला बिना रुके ही हर घाट धो रही है
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है
*
एक रचना
चीर तम का चीर आता,
रवि उषा के साथ.
दस दिशाएँ करें वंदन
भले आए नाथ.
करें करतल-ध्वनि बिरछ मिल,
सलिल-लहर हिलोर.
'भोर भई जागो' गाती है
प्रात-पवन झकझोर.
***
मुक्तिका
जो लिखा
*
जो लिखा, दिल से लिखा, जैसा दिखा, सच्चा लिखा
किये श्रद्धा सुमन अर्पित, फ़र्ज़ का चिट्ठा लिखा
समय की सूखी नदी पर आँसुओं की अँगुलियों से
दिल ने बेहद बेदिली से, दर्द का किस्सा लिखा
कौन आया-गया कब-क्यों?, क्या किसी को वास्ता?
गाँव अपने, दाँव अपने, कुश्तियाँ-घिस्सा लिखा
किससे क्या बोलें कहों हम?, मौन भी कैसे रहें?
याद की लेकर विरासत, नेह का हिस्सा लिखा
आँख मूँदे, जोड़ कर कर, सिर झुका कर-कर नमन
है न मन, पर नम नयन ले, दुबारा रिश्ता लिखा
*
मनुहार
.
कर रहे मनुहार कर जुड़ मान भी जा
प्रिये! झट मुड़ प्रेम को पहचान भी जा
.
जानता हूँ चाहती तू निकट आना
फ़ेरना मुँह है सुमुखि! केवल बहाना
.
बाँह में दे बाँह आ गलहार बन जा
बनाकर भुजहार मुझ में तू सिमट जा
.
अधर पर धर अधर आ रसलीन होले
बना दे रसखान मुझको श्वास बोले
.
द्वैत तज अद्वैत का मिल वरण कर ले
तार दे मुझको शुभान्गी आप तर ले
.

नवगीत

नवगीत:
वेश संत का
मन शैतान
छोड़ न पाये भोग-वासना
मोह रहे हैं काम-कामना
शांत नहीं है क्रोध-अग्नि भी
शेष अभी भी द्वेष-चाहना
खुद को बता
रहे भगवान
शेष न मन में रही विमलता
भूल चुके हैं नेह-तरलता
कर्मकांड ने भर दी जड़ता
बन बैठे हैं
ये हैवान
जोड़ रखी धन-संपद भारी
सीख-सिखाते हैं अय्यारी
बेचें भ्रम, क्रय करते निष्ठा
ईश्वर से करते गद्दारी
अनुयायी जो
है नादान
खुद को बतलाते अवतारी
मन भाती है दौलत-नारी
अनुशासन कानून न मानें
कामचोर-वाग्मी हैं भारी
पोल खोल दो
मन में ठान
***
नवगीत:
अंध श्रद्धा शाप है
आदमी को देवता मत मानिये
आँख पर अपनी न पट्टी बाँधिए
साफ़ मन-दर्पण हमेशा यदि न हो
गैर को निज मसीहा मत मानिए
लक्ष्य अपना आप है
कौन गुरुघंटाल हो किसको पता?
बुद्धि को तजकर नहीं करिए खता
गुरु बनायें तो परखिए भी उसे
बता पाये गुरु नहीं तुझको धता
बुद्धि तजना पाप है
नीति-मर्यादा सुपावन धर्म है
आदमी का भाग्य लिखता कर्म है
शर्म आये कुछ न ऐसा कीजिए
जागरण ही ज़िंदगी का मर्म है
देव-प्रिय निष्पाप है
***
नवगीत:
बग्घी बैठा
सठियाया है समाजवादी
हिन्दू-मुस्लिम को लड़वाए
अस्मत की धज्जियाँ उड़ाए
आँसू सिसकी चीखें नारे
आश्वासन कथरी लाशों पर
सत्ता पाकर
उढ़ा रहा है समाजवादी
खुद बीबी साले बेटी को
सत्ता दे, चाहे हेटी हो
घपलों-घोटालों की जय-जय
कथनी-करनी में अंतर कर
न्यायालय से
सजा पा रहा समाजवादी
बना मसीहा झाड़ू थामे
गाल बजाये, लाज न आए
कुर्सी मिले छोड़कर भागे
सपना देखे
ठोकर खाए समाजवादी
***

प्रेमा छंद

छंद सलिला :
प्रेमा छंद
संजीव
*
इस द्विपदीय, चार चरणीय छंद में प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ चरण उपेन्द्र वज्रा (१२१ २२१ १२१ २२) तथा तृतीय चरण इंद्रा वज्रा (२२१ २२१ १२१ २२) छंद में होते हैं. ४४ वर्ण वृत्त के इस छंद में ६९ मात्राएँ होती हैं.
उदाहरण:
१. मिलो-जुलो तो हमको तुम्हारे, हसीन वादे-कसमें लुभायें
देखो नज़ारे चुप हो सितारों, हमें बहारें नगमे सुनायें
२. कहो कहानी कविता रुबाई, लिखो वही जो दिल से कहा हो
देना हमेशा प्रिय को सलाहें, सदा वही जो खुद भी सहा हो
३. खिला कचौड़ी चटनी मिठाई, मुझे दिला दे कुछ तो खिलौने
मेला लगा है चल घूम आयें, बना न बातें भरमा नहीं रे!
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