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बुधवार, 10 नवंबर 2021

रामरती कौशल

लेख
बाल सत्याग्रही रामरती कौशल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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            बहुत पुरानी बात है। रावण द्वारा सीताहरण के पश्चात् श्री राम सीता मुक्ति हेतु लंका पर चढ़ाई कर रहे थे। मार्ग में बाधक बने समुद्र पर सेतु निर्माण के लिए वानर सेना नल-नील के मार्गदर्शन में प्राण-प्रण से लगी हुई थी। तभी हनुमान जी की दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी जो बार-बार समुद्र में नहाती, किनारे आकर रेत पर लोटती और सेतु निर्माण में जुटे वानर दल के समीप पूँछ झटकारती। उन्हें गिलहरी के इस कृत्य का औचित्य समझ में नहीं आया, साथ ही चिंता भी हुई कि वह किसी वानर के पैरों तले दब न जाए। उन्होंने मना किया पर गिलहरी ने उनकी बात न मानी। तब वे उसे उठाकर श्री राम के निकट ले आए। श्री राम ने गिलहरी को हथेली में उठाकर उससे पूछ कि वह क्या और क्यों कर रही है? क्या उसे अपने प्राण जाने का भय नहीं है। गिलहरी ने हाथ (आगे वाले दोनों पैर) जोड़कर प्रभु को प्रणाम करते हुए कहा 'प्रभु! सीता मैया का हरण कर रावण उन्हें गगन पथ से ले गया। मैं उड़ नहीं सकती, इसलिए जमीन से देखती और रावण को कोसती रह गयी, कुछ न कर सकी। अब सीता मैया के उद्धार के लिए सेतु बनाया जा रहा है। मैं चाह कर भी विशाल शिलायें उठाकर नहीं ले जा सकती। अपनी सामर्थ्य के अनुसार सहयोग देने के लिए सागर के पानी में गीली होकर समुद्र की रेत अपने बदन पर लपेटकर, पत्थरों के साथ झाड़ देती हूँ। प्रभु मेरी इससे अधिक सामर्थ्य नहीं है। इस पुण्य कार्य में प्राण चले भी जाएँ तो जन्म सार्थक हो जाएगा।' 

            श्री राम ने गिलहरी की पीठ पर स्नेह पूर्वक हाथ फेरते हुए गिलहरी से कहा कि उसका योगदान नगण्य नहीं, बहुत महत्वपूर्ण है। उसकी पीठ पर त्रिलोक की प्रतीक तीन रेखाएँ होंगी और उसे सीता मैया और राम जी दोनों की कृपा प्राप्त होगी। कहते हैं पहले गिलहरी की पीठ पर रेखाएँ नहीं होती थीं किन्तु श्री राम के आशीर्वाद से इस घटना के बाद से गिलहरी की पीठ पर तीन रेखाएँ होती हैं।   

            इससे स्पष्ट है कि किसी देश का इतिहास केवल बड़े ही नहीं बनाते, निर्बल और बच्चे भी यथासमय यथाशक्ति योगदान कर देश के इतिहास को नया मोड़ दे सकते हैं अथवा किसी महायज्ञ में अपनी समिधा समर्पित कर उसे सफल बनाने में सहायक हो सकते हैं। कहावत है 'बूँद बूँद से घट भरे'।  

            विडंबना है कि इतिहास लिखते समय केवल बड़ों के योगदान का ही उल्लेख किया जाता है और बच्चों का अवदान बहुधा अनदेखा-अनलिखा रह जाता है। जॉन ऑफ़ आर्क (१४१२-३० मई १४३१) का नाम पूरी दुनिया में विख्यात है कि उसने मात्र १२ वर्ष की आयु से फ़्रांस से अंग्रेजों को खदेड़ने का सपना देखा और युद्ध हारती हुई सेना की बागडोर सम्हाल कर उसे विजय की राह पर ले गई। भारतीय स्वातंत्र्य समर में नाना साहेब की किशोरी बेटी मैना देवी के बलिदान की अमर गाथा भुलाई नहीं जा सकती। 

            महात्मा गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह के दौर में केवल बड़ों ने नहीं अपितु तरुणों, किशोरों और बच्चों ने भी महती भूमिका का निर्वहन किया था। वयस्क क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों के संघर्ष और बलिदान को याद करते समय  तरुणों और किशोरों के योगदान की चर्चा बहुत कम ही सही पर हो जाती है किन्तु गृहणियों और बच्चों के अवदान का कोई उल्लेख नहीं नहीं मिलता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के इतिहास से जुडी एक बाल स्वंत्रता सत्याग्रही रामरती कौशल के अवदान को उद्घाटित करते हुए, कृतज्ञ देश की ओर से प्रनामांजलि अर्पित है।

            सनातन सलिला नर्मदा तट पर बसी संस्कारधानी जबलपुर को तब यह विशेषण मिलना तो दूर, जब स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अहर्निश किये जा रहे उसके प्रयासों को भी यथोचित पहचाना नहीं गया था, उस समय का है यह प्रसंग। १८५७ के स्वातंत्र्य समर के दौरान अंग्रेजों ने नागपुर के भौंसलों के अधीन कार्यरत सागर के राजा के अंत पश्चात् परिवार की विधवाओं को जबलपुर स्थानांतरित कर शहर कोतवाली के पास  बसाया।  इससे एक तीर से दो निशाने साढ़े गए कि सागर में उनके साथ क्रन्तिकारी संपर्क न कर सकें और उन पर निगाह रखी जा सके।  

            राजा सागर के बाड़े के सामने ही था (अब भी भग्न रूप में है) सुन्दरलाल तहसीलदार का बाड़ा।  सुन्दरलाल जी पन्ना के राजा के विश्वस्त अधिकारी थे। पन्ना नरेश क्रांतिकारियों से गुप्त रूप से सहानुभूति रखते हुए भी प्रगट रूप से अंग्रेजों के साथ थे ताकि उनके राज्य की जनता सुरक्षित रहे। अंग्रेजों ने राजा सागर के परिवार की विधवाओं और बच्चों को अपनी कैद में लिया तो सभी रजवाड़ों को उनकी सुरक्षा की चिंता हुई। पन्ना नरेश ने अंग्रेजों की कुदृष्टि से राजा सागर परिवार को बचने के उद्देश्य से अपने विश्वस्त अधिकारी सुंदरलाल तहसीलदार को विशेष सहायक के रूप में जबलपुर भेजा कि वे राजा सागर परिवार पर निगाह रखेंगे जबकि उन्हें गुप्त रूप से राजा सागर परिवार की सुरक्षा और सहायता करनी थी। उन्हें भोंसला राजाओं की टकसाल (जहाँ सिक्के ढलते थे) के स्थान पर रहने के लिए जमीन दी गई। वे ज़ाहिर तौर पर अंग्रेजों के लिए काम करते और खुफिया तौर पर क्रांतिकारियों और राजा सागर परिवार के सहायक होते। इस भूमि पर सुंदरलाल जी के मकान के आसपास व्यक्तिगत विश्वसनीय सेवकों लुहार, बढ़ई, नाई, माली  आदि के लिए भी कमरे बनाये गए। बाड़े के मुख्य द्वार पर सुंदरलाल जी की बग्घी, घोड़े आदि का स्थान था। किले के द्वारों की तरह एक बड़ा लौह द्वार था। 
 
            कालांतर में १९३० के आसपास इस बाड़े के एक मकान में किरायेदार के रूप में रहने आए नन्हें भैया सोनी। वे सोने-चाँदी के जेवर बनानेवाले कारीगर थे, निकट ही सराफा बाजार (अब भी है) में व्यापारियों की दुकानों से काम मिलता और उनका परिवार पलता। नन्हें भैया के चार बच्चे हुए पहली दो पुत्रियाँ कृष्णा और रामरती तथा बाद में दो पुत्र मणिशंकर और गौरी शंकर।

            रामरती (१५.९.१९३५-२३.५.२००२) केवल सात वर्ष की थी, जब १९४२ का स्वतंत्रता सत्याग्रह आरंभ हुआ। माता-पिता की लाड़ली छोटी बिटिया रामरती दूसरी कक्षा की छात्रा थी। रामरती बाड़े के मैदान और दो शिवमंदिरों के समीप अन्य बच्चों के साथ चिड़ियों की तरह फुदकती-खेलती। बच्चे ऊँच-नीच का भेद नहीं जानते। मकान मालिक धर्मनारायण वर्मा वकील की बड़ी लड़की ऊषा, लड़का बीरु, और अन्य किरायेदारों के बच्चे टीपरेस, कन्ना गोटी, खर्रा, खोखो खेलते। उन्हें सबसे अधिक ख़राब लगते थे ज्वाला चच्चा (ज्वाला प्रसाद वर्मा, स्वतंत्रता सत्याग्रही जिन्हें १९३० में जबलपुर से गिरफ्तार कर दमोह जेल में कैद किया गया था) जो अपने कुछ साथियों के साथ आते। सबके सिरों पर सफ़ेद टोपी और सफेद ही कपड़े होते। वे आपस में अजीब अजीब बातें करते। आस-पास खेलते-खेलते रामरती को अंग्रेज, आजादी, सत्याग्रह, अत्याचार, तिरंगा आदि शब्द सुनाई दे जाते तो उसके मन में उत्सुकता जागती कि वे लोग किनके बारे में बातें करते हैं? ज्वाला चच्चा थैलों में बहुत से पर्चे और छोटी-छोटी किताबें लाते, अपने साथियों में में बाँट देते और सब साथी झटपट ऊपरैनगंज, सिमरियावाली रानी की कोठी, मौलाना की कुलिया  और अन्य गलियों में चले जाते। जब-तब पुलिस के सिपाही भी बाड़े में आते, बड़ों को डाँटते, छोटों को भगा देते। ज्वाला चच्चा की मित्र मंडली एक-दो सत्यों को बाड़े में घुसने के रास्तों पर निगरानी के लिए खड़ा रखते जो पुलिस की आहत पाते ही संकेत करता और पुलिस के आने के पहले ही वे सब दबे पाँव गलियों में गुम हो जाते, पुलिसवाले अपना सा मुँह लेकर खाली हाथों लौट जाते।

            एक दिन खेलते-खेलते बाड़े में बने पुराने कुएँ के निकट जा पहुँची रामरती। उसने देखा कुएँ की जगत पर एक नाम खुदा है, उसने पढ़ा 'ना न क चं द'। कौन था यह नानक चंद? घर आकर अपनी माँ से पूछा तो डाँट पड़ी कि फालतू बातों से दूर रहो। एक दिन वह पड़ोस के बच्चों के बाड़े के साथ बाड़े के बड़े दरवाजे के पास साथ सड़क पर खेल रही थी क्योंकि ज्वाला चच्चा अपने मित्रों के साथ शिव मंदिर के पीछे बातचीत कर रहे थे। आज साथी कम थे, निगरानी के लिए कोई न था। एकाएक रामरती की नजर सड़क की तरफ पड़ी तो उसे कुछ सिपाही आते दिखे, बाकी बच्चे तो खेल में मग्न थे पर रामरती को न जाने क्या सूझा, ज्वाला चच्चा से डाँट पड़ने का भय भूलकर वह मंदिर की ओर दौड़ पड़ी चिल्लाते हुए 'पुलिस पुलिस'। रोज डाँटकर भागने वाले ज्वाला चच्चा ने इशारे से पूछा कहाँ? रामरती ने मुख्या द्वार की और इशारा करते हुए बताया वहाँ। ज्वाला चच्चा ने एक भी पल गँवाए  बिना सत्याग्रहियों को संकेत किया और पलक झपकते वे सब वे बाड़े के पिछवाड़े से मुसलमानों की गली में कूद कर नौ दो ग्यारह हो गए। पुलिस के जवान जब तक बाड़े के अंदर घुसे, चिड़िया उड़ चुकी थी, उनके हाथ कुछ न लगा। आसपास के लोगों को धमकाते-गालियाँ बकते पूछताछ करते रहे पर किसी ने कुछ न बताया। खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे, आखिरकार वापिस लौट गए पर जाते-जाते कह गए खबर तो पक्की मिली है कि वे लोग यहीं बैठक करते हैं। आज नहीं तो कल पकड़े जाएँगे। 

            उस दिन के बाद ज्वाला चच्चा और उनके साथी बच्चों को डाँटते नहीं थे। बच्चे खेलते रहते, वे लोग अपना काम करते रहते, कभी-कभी बच्चों के हाथ पर अधेला रख देते कि सेव-जलेबी खा लेना। रामरती उनके स्नेह की विशेष पात्र थी। एक दिन ज्वाला चच्चा पर्चों का थैला लिए आए लेकिन उनके कुछ साथ नहीं आए। वे परेशान थे कि उनके पर्चे कैसे सब साथियों तक पहुँचाए जाएँ? रामरती देखती थी ज्वाला चच्चा के साथ रहनेवाले कंछेदी चच्चा, जमुना कक्का, कल्लू कक्का (कल्लूलाल सोनी, १९३० तथा १९३२ में कारावास), कन्हैया दादा (कन्हैया लाल पंडा, १९४२ में कारावास)  नहीं थे। जमुना कक्का उसके पिता के भी मित्र थे, कई बार दोनों साथ-साथ काम करते थे। रामरती पिता के साथ जमुना कक्का के घर भी हो आई थी। उसने ज्वाला चच्चा से पूछ लिया 'जमुना कक्का नई आए?' चच्चा ने घूर कर देखा तो वह डर गई पर हिम्मत कर फिर कहा 'हमें उनको घर मालून आय, परचा पौंचा दें?' अब चच्चा ने उस की तरफ ध्यान दिया और पूछा 'डर ना लगहै?, कैसे जइहो? पुलिस बारे टाक में आँय।'

            'चच्चा तनकऊ फिकिर नें करो हम बस्ता में किताबों के बीच परचा छिपा लैहें और गौरी भैया कौन कैंया में लै लै, दे आहें। हमने बाबू (पिता) के संगै उनको घर देखो है।' चच्चा हिचकते रहे पर और कोई चारा न देख रामरती के बस्ते में पर्चे रख दिए। रामरती ने छोटे भाई गौरी को गोद में उठाया और नन्हे-नन्हें पग रखती, इधर-उधर देखती हुए सामने मुसलमानों के बाड़े में घुस गई। पीठ पर टंगे बस्ते में किताबों के बीच रखे पर्चे पहुँचाकर जब तक वह लौट न आई, तब तक ज्वाला चच्चा को चैन न था। चच्चा के साथी 'एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गाँधी की' बोलकर घर-घर से चवन्नी माँगते, झंडा ऊँचा रहे हमारा, चलो दिल्ली, जय हिन्द जैसे नारे लगाते। सुन-सुन कर यह नारा बच्चों को भी नारे याद हो गए। वे र बड़ों की नकल कर एक के पीछे एक चलकर जुलुस निकलते और नारे लगाते। पुलिस के सिपाही खिसियाकर पकड़ने दौड़ते तो बच्चे झट से घरों में जा छिपते। सत्याग्रहियों और बच्चों में यह तालमेल चलता रहा, पुलिस के सिपाही खिसियाते रहे। एक दिन एक सिपाही ने रामरती की पीठ पर धौल जमा दी, वह औंधे मुँह गिरी तो घुटना और माथा चोटिल हो गया। माँ ने पूछा तो उसने कहा कि एक सांड दौड़ा आ रहा था, उससे बचने के लिए दौड़ी तो गिर पड़ी। रामरती इस घटना के बाद भी पर्चे पहुँचाने, चंदा इकठ्ठा करने, पुलिस के सिपाहियों से  से सत्याग्रहियों को खबरदार करने जैसे काम करती रही।

            रामरती सातवीं कक्षा में थी जब सुना कि देश आज़ाद हो गया। खूब रौनक रही। रामरती 'पुअर बॉयस फंड' से वजीफा पाकर सेंट नॉर्बट स्कूल में पढ़ रही थी। उसके भाई मणि को उनके निस्संतान रेलवेकर्मी मामा नारायणदास अवध ने गोद ले लिया था। आठवीं कक्षा पासकर रामरती अपनी ननहाल राहतगढ़ (सागर) चली गई। मैट्रिक पास कर, ट्रेनिंग कर शिक्षिका हो गई और प्राइवेट पढ़ती भी रही। कांग्रेस सेवादल के कैंप में उसकी मुलाकात एक अन्य कार्यकर्ता श्यामलाल कौशल से हुई जो बेगमगंज का निवासी था। वह भोपाल रियासत के कोंग्रेसी नेता शंकर दयाल शर्मा (कालांतर में भोपाल के मुख्यमंत्री, राज्यपाल, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति) का स्नेहपात्र था। वह प्राइवेट बस में कंडक्टरी और पढ़ाई साथ-साथ करता, शंकरदयाल जी के छोटे-मोठे काम और प्रचार आदि करता। कांग्रेस की गतिविधियों और बस से स्कूल जाते-आते समय उनकी मुलाकातें पहले आकर्षण और फिर प्रेम में बदल गई। दोनों ने विवाह करना चाहा तो दोनों के घरवालों ने जातिभेद के कारण विरोध किया। शंकरलाल की मेहनत और ईमानदारी के कारण वह शर्मा जी के घर के सदस्य की तरह हो गया था। शर्मा जी के आशीर्वाद से दोनों ने शादी कर ली। दोनों का जीवट और संघर्ष लाया। शंकर लाल डिप्लोमा पास कर बी. एच. ई. एल. भोपाल में सुपरवाइज़र हो गया। रामरती शासकीय शिक्षिका हो गई। दोनों के तीन बच्चे हुए। रामरती की कलात्मक अभिरुचि ने उसे सहकर्मी शिक्षिकाओं से अलग कुछ करने के लिए प्रेरित किया। वह बच्चों के पाठ्य क्रम पढ़ाने के अतिरिक्त स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में बताती।  गणतंत्र दिवस व स्वाधीनता दिवस पर संस्कृति कार्यक्रम करवाती। उसके निर्देशन में बच्चे पुरस्कृत होते। उसे विद्यालय की और से राष्ट्रीय पर्वों पर झाँकियाँ बनाए का दायित्व मिला। पहले जिला स्तर, फिर राज्य स्तर पर पुरस्कृत होने के बाद उसके मार्गदर्शन में दिल्ली गणतंत्र दिवस परेड में भी उसने झाँकी में भाग लिया। रामरती पदोन्नत होकर प्राचार्य हो गई किन्तु उसने बच्चों को पढ़ाना, सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेना बंद नहीं किया। वह विद्यालय परिसर में बच्चों से पौधे लगवाती। अन्य सरकारी विद्यालयों की तरह उसके विद्यालय में भी संस्धानों और धन का अभाव होता पर वह अपने वेतन का एक अंश देकर कभी किसी बच्चे को किताबें देती, कभी किसी अन्य को पोशाक। 

            रामरती जब भी अवसर मिलता जबलपुर आती और सुंदरलाल तहसीलदार के बाड़े में रुकती। परिवार का साथ तो विवाह के समय ही छूट गया था। पिता फिर माँ चल बसी थीं, भाईयों के विवाह हो चुके थे। उनसे स्नेह न मिलता तो वह दुखी होती पर बचपन की यादों को समेटते हुए, मन ही मन खुश भी होती। दम्मू चच्चा (धर्मनारायण वर्मा वकील, ज्वाला प्रसाद जी के अग्रज) का घर उसका ठिकाना होता। समय बदलता गया, उसकी सहेलियों दम्मू चच्चा की बेटियों के विवाह हो गए, बहुओं को ऐसे मुँहबोले रिश्तों को निभाने में रूचि न थी। कहते हैं कि ईश्वर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोल देता है। रज्जू चच्चा (ज्वालाप्रसाद जी के छोटे भाई राजबहादुर वर्मा, जेल अधीक्षक) का परिवार बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने  बाड़े में अपने मकान में आ बसा। रामरती को रज्जू चच्चा, चाची से अगाध स्नेह-प्रेम मिला। रामरती (रत्ती जिज्जी) से राखी बँधवाने का सौभाग्य मुझे कई वर्षों मिला। वह जीवन के अंतिम वर्षों तक भी अपने बचपन की यादों को सहेजने-दुलराने जबलपुर आती, बाड़े में शिव मंदिर के आसपास उनकी अनेक यादें बसीं थीं। सुधियों की सौगात उन्हें जबलपुर में ही मिलती।    

            श्यामलाल शंकरलाल, शर्मा जी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कारावास भी जा चुका था। स्वतंत्रता सत्याग्रहियों को सम्मान और लाभ मिलने के अनेक अवसर आए पर दोनों ने इंकार कर दिया कि उन्होंने जो भी किया, देश के लिए किया, यह उनका कर्तव्य था और उन्हें इसके बदले कोई सम्मान या लाभ स्वीकार नहीं है। एक ओर सुविधाओं की लालच में लोग स्वतंत्रता सत्याग्रही होने के झूठे दावे कर रहे थे, दूसरी यह सच्चा सत्याग्रही दंपत्ति किसी लाभ को लेने से इंकार कर जीवन में संघर्ष कर रहा था। इस कारण दोनों का सम्मान बढ़ा। शंकर दयाल शर्मा जी का राजनैतिक कद बढ़ता गया, श्यामलाल और रामरती उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे किन्तु कभी किसी तरह का लाभ नहीं चाहा। 

            दोनों के बच्चों के विवाह में शर्मा जी उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होते हुए भी बच्चों को आशीर्वाद देने आए। रामरती ने अपने बच्चों के अंतर्जातीय विवाह बिना किसी लेन-देन के किए। रामरती का बड़ा लड़का विजय वायुसेना में ग्रुपकैप्टन पद से सेवानिवृत्त होकर अहमदाबाद में है। छोटा लड़का विनय दिल्ली में उद्योगपति है और लड़की वंदना अपनी ससुराल में कोलकाता है। बच्चों ने अपने माता-पिता से मिली विरासत के अनुसार खुद को अपने पैरों पर खड़ा किया और परिश्रम तथा ईमानदारी के साथ अपना जीवन यापन किया। श्यामलाल के निधनोपरांत रामरती ने उनकी स्मृति में एक शिव मंदिर का निर्माण भोपाल में कराया। रामरती निस्वार्थ, समर्पित, कर्मठ और देश प्रेम से लबरेज बच्चों ने देश की स्वतंत्रता प्राप्ति में और स्वतंत्र होने पर देश के नव निर्माण में खुद को खपा दिया पर बदले में कुछ न चाहा। 

            शहीद अशफ़ाक़ुल्ला खां ने लिखा था - 
                                          शहीदों की मजारों पर भरेंगे हर बरस मेले। 
                                           वतन पर मरनेवालों का यही बाकी निशां होगा।।
            विधि की विडंबना कि आज हालत सर्वथा विपरीत है। 
                                            एक वो भी थे जो मुल्क पर कुर्बान हो गए। 
                                            एक हम भी हैं कि उनका नाम तक नहीं लेते।।  

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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर, ४८२००१ 
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४  

लेख नवगीत और देश

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विशेष लेख
नवगीत और देश
आचार्य संजीव 'सलिल'
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विश्व की पुरातनतम संस्कृति, मानव सभ्यता के उत्कृष्टतम मानव मूल्यों, समृद्धतम जनमानस, श्रेष्ठतम साहित्य तथा उदात्ततम दर्शन का धनी देश भारत वर्तमान में संक्रमणकाल से गुजर रहा है। पुरातन श्रेष्ठता, विगत सुदीर्घ पराधीनता, स्वतंत्रता पश्चात संघर्ष और विकास के चरण, सामयिक भूमंडलीकरण, उदारीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, दिशाहीन मीडिया के वर्चस्व, विदेशों के प्रभाव, सत्तोन्मुख दलवादी राजनैतिक टकराव, आतंकी गतिविधियों, प्रदूषित होते पर्यावरण, विरूपित होते लोकतंत्र, प्रशासनिक विफलताओं तथा घटती आस्थाओं के इस दौर में साहित्य भी सतत परिवर्तित हुआ।छायावाद के अंतिम चरण के साथ ही साम्यवाद-समाजवाद प्रणीत नयी कविता ने पारम्परिक गीत के समक्ष जो चुनौती प्रस्तुत की उसका मुकाबला करते हुए गीत ने खुद को कलेवर और शिल्प में समुचित परिवर्तन कर नवगीत के रूप में ढालकर जनता जनार्दन की आवाज़ बनकर खुद को सार्थक किया ।
किसी देश को उसकी सभ्यता, संस्कृति, लोकमूल्यों, धन-धान्य, जनसामान्य, शिक्षा स्तर, आर्थिक ढाँचे, सैन्यशक्ति, धार्मिक-राजनैतिक-सामाजिक संरचना से जाना जाता है। अपने उद्भव से ही नवगीत ने सामयिक समस्याओं से दो-चार होते हुए, आम आदमी के दर्द, संघर्ष, हौसले और संकल्पों को वाणी दी। कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर नवगीत ने वैशिष्ट्य पर सामान्यता को वरीयता देते हुए खुद को साग्रह जमीन से जोड़े रखा प्रेम, सौंदर्य, श्रृंगार, ममता, करुणा, सामाजिक टकराव, चेतना, दलित-नारी विमर्श, सांप्रदायिक सद्भाव, राजनैतिक सामंजस्य, पीढ़ी के अंतर, राजनैतिक विसंगति, प्रशासनिक अन्याय आदि सब कुछ को समेटते हुइ नवगीत ने नयी पीढ़ी के लिये आशा, आस्था, विश्वास और सपने सुरक्षित रखने में सफलता पायी है।
पुरातन विरासत:
किसी देश की नींव उसके अतीत में होती है। नवगीत ने भारत के वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक काल से लेकर अधिक समय तक के कालक्रम, घटना चक्र और मिथकों को अपनी ताकत बनाये रखा है। वर्तमान परिस्थितियों और विसंगतियों का विश्लेषण और समाधान करता नवगीत पुरातन चरित्रों और मिथकों का उपयोग करते नहीं हिचकता। (जागकर करेंगे हम क्या? / सोना भी हो गया हराम / रावण को सौंपकर सिया / जपता मारीच राम-राम - मधुकर अष्ठाना, वक़्त आदमखोर), अंधों के आदेश / रात-दिन ढोता राजमहल / मिला हस्तिनापुर को / जाने किस करनी का फल (जय चक्रवर्ती, थोड़ा लिखा समझना ज्यादा) में देश की पुरातन विरासत पर गर्वित नवगीत सहज दृष्टव्य है।
संवैधानिक अधिकार:
भारत का संविधान देश के नागरिकों को अधिकार देता है किन्तु यथार्थ इसके विपरीत है- मौलिक अधिकारों से वंचित है / भारत यह स्वतंत्र नागरिक / वैचारिक क्रांति अगर आये तो / ढल सकती दोपहरी कारुणिक (आनंद तिवारी, धरती तपती है), क्यों व्यवस्था / अनसुना करते हुए यों / एकलव्यों को / नहीं अपना रही है? (जगदीश पंकज, सुनो मुझे भी), तंत्र घुमाता लाठियाँ / जन खाता है मार / उजियारे की हो रही अन्धकार से हार / सरहद पर बम फट रहे / सैनिक हैं निरुपाय / रण जीतें तो सियासत / हारें, भूल बताँय / बाँट रहे हैं रेवाड़ी / अंधे तनिक न गम / क्या सचमुच स्वाधीन हम? (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सड़क पर) आदि में नवगीत देश के आम नागरिक के प्रति चिंतित है।
गणतंत्र:
देश के संविधान, ध्वज हर नागरिक के लिये बहुमूल्य हैं। गणतंत्र की महिमा गायन कर हर नागरिक का सर गर्व से उठ जाता है - गणतंत्र हर तूफ़ान से गुजर हुआ है / पर प्यार से फहरा हुआ है ताल दो मिलकर / की कलियुग में / नया भारत बनाना है (पूर्णिमा बर्मन, चोंच में आकाश)। नवगीत केवक विसंकटी और विडम्बना का चित्रण नहीं है, वह देश के प्रति गर्वानुभूति भी करता है - पेट से बटुए तलक का / सफर तय करते मुसाफिर / बात तू माने न माने / देश पर अभिमान करने / के अभी लाखों बहाने (रामशंकर वर्मा, चार दिन फागुन के), मुक्ति-गान गूँजे, जब / मातृ-चरण पूजें जब / मुक्त धरा-अम्बर से / चिर कृतज्ञ अंतर से / बरबस हिल्लोल उठें / भावाकुल बोल उठें / स्वतंत्रता- संगरो नमन / हुंकृत मन्वन्तरों नमन (जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण', तमसा के दिन करो नमन) आदि में देश के गणतंत्र और शहीदों को नमन कर रहा है नवगीत।
वर्ग संघर्ष-शोषण:
कोई देश जब परिवर्तन और विकास की राह पर चलता है तो वर्ग संघर्ष होना स्वाभाविक है. नवगीत ने इस टकराव को मुखर होकर बयान किया है- हम हैं खर-पतवार / सड़कर खाद बनते हैं / हम जले / ईंटे पकाने / महल तनते हैं (आचार्य भगवत दुबे, हिरन सुगंधों के), धूप का रथ / दूर आगे बढ़ गया / सिर्फ पहियों की / लकीरें रह गयीं (प्रो. देवेंद्र शर्मा 'इंद्र'), सड़क-दर-सड़क / भटक रहे तुम / लोग चकित हैं / सधे हुए जो अस्त्र-शास्त्र / वे अभिमंत्रित हैं (कुमार रवीन्द्र), व्यर्थ निष्फल / तीर और कमान / राजा रामजी / क्या करे लक्षमण बड़ा हैरान / राजा राम जी (स्व. डॉ. विष्णु विराट) आदि में नवगीत देश में स्थापित होते दो वर्गों का स्पष्ट संकेत करता है।
विकासशील देश में बदलते जीवन मूल्य शोषण के विविध आयामों को जन्म देता है. स्त्री शोषण के लिए सहज-सुलभ है. नवगीत इस शोषण के विरुद्ध बार-बार खड़ा होता है- विधवा हुई रमोली की भी / किस्मत कैसी फूटी / जेठ-ससुर की मैली नजरें / अब टूटीं, तब टूटीं (राजा अवस्थी, जिस जगह यह नाव है), कहीं खड़ी चौराहे कोई / कृष्ण नहीं आया / बनी अहल्या लेकिन कोई राम नहीं पाया / कहीं मांडवी थी लाचार घुटने टेक पड़ी (गीता पंडित, अब और नहीं बस), होरी दिन भर बोझ ढोता / एक तगाड़ी से / पत्नी भूखी, बच्चे भूखे / जब सो जाते हैं / पत्थर की दुनिया में आँसू तक खो जाते हैं (जगदीश श्रीवास्तव) कहते हुए नवगीत देश में बढ़ रहे शोषण के प्रति सचेत करता है।
परिवर्तन-विस्थापन:
देश के नवनिर्माण की कीमत विस्थापित को चुकानी पड़ती है. विकास के साथ सुरसाकार होते शहर गाँवों को निगलते जाते हैं- खेतों को मुखिया ने लूटा / काका लुटे कचहरी में / चौका सूना भूखी गैया / प्यासी खड़ी दुपहरी में (राधेश्याम /बंधु', एक गुमसुम धूप), सन्नाटों में गाँव / छिपी-छिपी सी छाँव / तपते सारे खेत / भट्टी बनी है रेत / नदियां हैं बेहाल / लू-लपटों के जाल (अशोक गीते, धुप है मुंडेर की), अंतहीन जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती / मन भीतर जलप्रपात है / धुआँधार की मोहक वादी / सलिल कणों में दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी (रामकिशोर दाहिया, अल्लाखोह मची), प्रतिद्वंदी हो रहे शहर के / आसपास के गाँव / गाये गीत गये ठूंठों के / जीत गये कंटक / ज़हर नदी अपना उद्भव / कह रही अमरकंटक / मुझे नर्मदा कहो कह रहा / एक सूखा तालाब (गिरिमोहन गुरु, मुझे नर्मदा कहो), बने बाँध / नदियों पर / उजड़े हैं गाँव / विस्थापित हुए / और मिट्टी से कटे / बच रहे तन / पर अभागे मन बँटे / पथरीली राहों पर / फिसले हैं पाँव (जयप्रकाश श्रीवास्तव, परिंदे संवेदना के) आदि भाव मुद्राओं में देश विकास के की कीमत चुकाते वर्ग को व्यथा-कथा शब्दित कर उनके साथ खड़ा है नवगीत।
पर्यावरण प्रदूषण:
देश के विकास साथ-साथ की समस्या सिर उठाने लगाती है। नवगीत ने पर्यावरण असंतुलन को अपना कथ्य बनाने से गुरेज नहीं किया- इस पृथ्वी ने पहन लिए क्यों / विष डूबे परिधान? / धुआँ मंत्र सा उगल रही है / चिमनी पीकर आग / भटक गया है चौराहे पर / प्राणवायु का राग / रहे खाँसते ऋतुएँ, मौसम / दमा करे हलकान (निर्मल शुक्ल, एक और अरण्य काल), पेड़ कब से तक रहा / पंछी घरों को लौट आएं / और फिर / अपनी उड़ानों की खबर / हमको सुनाएँ / अनकहे से शब्द में / फिर कर रही आगाह / क्या सारी दिशाएँ (रोहित रूसिया, नदी की धार सी संवेदनाएँ) कहते हुए नवगीत देश ही नहीं विश्व के लिए खतरा बन रहे पर्यावरण प्रदूषण को काम करने के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करता है।
भ्रष्टाचार:
देश में पदों और अधिकारों का का दुरुपयोग करनेवाले काम नहीं हैं। नवगीत उनकी पोल खोलने में पीछे नहीं रहता- लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार / अपना काम पड़े तो देना / टेबिल के नीचे से लेना (ओमप्रकाश तिवारी, खिड़कियाँ खोलो) स्वर्णाक्षर सम्मान पत्र / नकली गुलदस्ते हैं / चतुराई के मोल ख़रीदे / कितने सस्ते हैं (महेश अनघ), आत्माएँ गिरवी रख / सुविधाएँ ले आये / लोथड़ा कलेजे का, वनबिलाव चीलों में / गंगा की गोदी में या की ताल-झीलों में / क्वाँरी माँ जैसे, अपना बच्चा दे आये (नईम), अंधी नगरी चौपट राजा / शासन सिक्के का / हर बाज़ी पर कब्जा दिखता / जालिम इक्के का (शीलेन्द्र सिंह चौहान) आदि में नवगीत देश में शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार को उद्घाटित कर समाप्ति हेतु प्रेरणा देता है।
उन्नति और विकास:
नवगीत विसंगति और विडम्बनाओं तक सीमित नहीं रहता, वह आशा-विश्वास और विकास की गाथा भी कहता है- देखते ही देखते बिटिया / सयानी हो गयी / उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह नौकरी करने चली / कल तलक थी साथ में / अब कर्म पथ वरने चली (ब्रजेश श्रीवास्तव, बाँसों के झुरमुट से), मुश्किलों को मीत मानो / जीत तय होगी / हौसलों के पंख हों तो।/ चिर विजय होगी (कल्पना रामानी, हौसलों के पंख) कहते हुए नवगीत देश की युवा पीढ़ी को आश्वस्त करता है की विसंगतियों और विडम्बनाओं की काली रात के बाद उन्नति और विकास का स्वर्णिम विहान निकट है।
प्यार :
किसी देश का निर्माण सहयोग, सद्भाव और प्यार से हो होता है. टकराव से सिर्फ बिखराव होता है. नवगीत ने प्यार की महत्ता को भी स्वर दिया है- प्यार है / तो ज़िंदगी महका / हुआ एक फूल है / अन्यथा हर क्षण / ह्रदय में / तीव्र चुभता शूल है / ज़िंदगी में / प्यार से दुष्कर / कहीं कुछ भी नहीं (महेंद्र भटनागर, दृष्टि और सृष्टि), रातरानी से मधुर / उन्वान हम / फिर से लिखेंगे / बस चलो उस और सँग तुम / प्रीत बंधन है जहाँ (सीमा अग्रवाल, खुशबू सीली गलियों की) में नवगीत जीवन में प्यार और श्रृंगार की महक बिखेरता है।
आव्हान :
सपनों से नाता जोड़ो पर / जाग्रति से नाता मत तोड़ो तथा यह जीवन / कितना सुन्दर है / जी कर देखो... शिव समान / संसार हेतु / विष पीकर देखो (राजेंद्र वर्मा, कागज़ की नाव), सबके हाथ / बराबर रोटी बाँटो मेरे भाई (जयकृष्ण तुषार), गूंज रहा मेरे अंतर में / ऋषियों का यह गान / अपनी धरती, अपना अम्बर / अपना देश महान (मधु प्रसाद, साँस-साँस वृन्दावन) आदि अभिव्यक्तियाँ नवगीत के अंतर में देश के नव निर्माण की आकुलता की अभव्यक्ति करते हुई आश्वस्त करती हैं की देश का भविष्य उज्जवल है और युवाओं को विषमता का अंत कर समता-ममता के बीज बोने होंगे।
***

गीत देव उठनी एकादशी, गन्ना ग्यारस

देव उठनी एकादशी (गन्ना ग्यारस) पर
नवगीत:
देव सोये तो
सोये रहें
हम मानव जागेंगे
राक्षस
अति संचय करते हैं
दानव
अमन-शांति हरते हैं
असुर
क्रूर कोलाहल करते
दनुज
निबल की जां हरते हैं
अनाचार का
शीश पकड़
हम मानव काटेंगे
भोग-विलास
देवता करते
बिन श्रम सुर
हर सुविधा वरते
ईश्वर पाप
गैर सर धरते
प्रभु अधिकार
और का हरते
हर अधिकार
विशेष चीन
हम मानव वारेंगे
मेहनत
अपना दीन-धर्म है
सच्चा साथी
सिर्फ कर्म है
धर्म-मर्म
संकोच-शर्म है
पीड़ित के
आँसू पोछेंगे
मिलकर तारेंगे
***
२८ -११-२०१४
संजीवनी चिकित्सालय रायपुर
देव उठनी एकादशी पर
नव गीत
सोये बहुत देव अब जागो
*
सोये बहुत
देव! अब जागो...
तम ने
निगला है उजास को।
गम ने मारा
है हुलास को।
बाधाएँ छलती
प्रयास को।
कोशिश को
जी भर अनुरागो...
रवि-शशि को
छलती है संध्या।
अधरा धरा
न हो हरि! वन्ध्या।
बहुत झुका
अब झुके न विन्ध्या।
ऋषि अगस्त
दक्षिण मत भागो...
पलता दीपक
तले अँधेरा ।
हो निशांत
फ़िर नया सवेरा।
टूटे स्वप्न
न मिटे बसेरा।
कथनी-करनी
संग-संग पागो...
**************
रविवार, १५ मार्च २००९

षट्पदी, मुक्तक

एक षट्पदी
*
संजीवनी मिली कविता से सतत चेतना सक्रिय है
मौन मनीषा मधुर मुखर, है, नहीं वेदना निष्क्रिय है
कभी भावना, कभी कामना, कभी कल्पना साथ रहे
मिली प्रेरणा शब्द साधना का चेतन मन हाथ गहे
व्यक्त तभी अभिव्यक्ति करो जब एकाकार कथ्य से हो
बिम्ब, प्रतीक, अलंकारों से रस बरसा नव बात कहो
*
एक मुक्तक
कविता उबालें, भूनें, तलें तो, धोना न भूलें यही प्रार्थना है
छौंकें-बघारें तो हो आंच मद्दी, जला दिल न लेना यही कामना है
जो चटनी सी पीसो तो मिर्ची भी डालो, मगर हो न ज्यादा खटाई तनिक हो
पुदीना मिला लो, ढेली हो गुड़ की, चटखारे लेना सफल साधना है
*

अंग्रेजी नाटक

अंग्रेजी नाटक

पश्चिमी नाटकीय परंपरा की उत्पत्ति प्राचीन ग्रीस में हुई है ।परंपरा यह है कि ५३४ ईसा पूर्व के डायोनिसिया में, पिसिस्ट्रेटस के शासनकाल के दौरान, डिथिरैम्ब के प्रमुख गायक, थेस्पिस नाम के एक व्यक्ति ने कोरस में एक अभिनेता को जोड़ा, जिसके साथ उन्होंने एक संवाद किया, इस प्रकार संभावना की शुरुआत की। नाटकीय कार्रवाई का।

'ड्रामा इस द इमिटेशन ऑफ़ एन एक्शन।' -अरस्तू

'ड्रामा इस नॉट ए नरेशन बट एन एक्शन, सीरियस, कंप्लीट एंड सरटेन मैग्नीट्यूड एंड लैंग्वेज ब्यूटीफाइड इन डिफरेंट पार्ट्स विथ डिफरेंट टाइम ऑफ़ ।' -अरस्तू

अंक १ - एक्स्पोजिशन, परिचय।  यथा खलनायक ने नायक के माता पिता की हत्या की। 
अंक २ - कॉन्फ्लिक्ट कोंप्लिकेशन, संघर्ष जटिलता। यथा दोनों भाई बिछड़ गए।  
अंक ३ - क्लाइमेक्स, चरमोत्कर्ष। यथा एक  भाई पुलिस में, दूसरा अपराधी। 
अंक ४ - डिनोमेंट, पारिस्थितिक अनुकूलन। यथा दोनों भाई मिले।  
अंक ५ - एकास्ट्रो, समापन, समाधान। यथा - खलनायक पकड़ा गया।  
यूनिटी ऑफ़ टाइम, प्लेस एंड एक्शन। 
'ट्रेजिक हीरो फ्रॉम अमंग्स्ट अस'।ह्यूमन बीइंग, नॉट परफेक्ट,  ईश्वर नायक नहीं, वे असामान्य, असाधारण।  

पाश्चात्य नाटक ग्रीस से आया। लगभग २५०० वर्ष पूर्व, सर्व प्तथम धार्मिक नाटक आये। ५ ऑक्सफोर्ड प्रोफेसर मार्लो, लिली आदि 
मिस्ट्री प्ले मिरेकल प्लेमोरेलिटी मोरेलिटी प्ले  
चार आरंभिक नाटक संग्रह - चेस्टर, यॉर्क, टाउनली, वेकफील्ड।  यॉर्क में बाइबिल के अनुसार सृष्टि के आरंभ से प्रलय तक की गाथाओं का नाट्य रूपांतरण।  
रेनेसां 

लघु कथा: चन्द्र ग्रहण

लघु कथा:
चन्द्र ग्रहण
*
फेसबुक पर रचनाओं की प्रशंसा से अभिभूत उसने प्रशंसिका के मित्रता आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। एक दिन सन्देश मिला कि वह प्रशंसिका उसके शहर में आ रही है और उससे मिलना चाहती है। भेंट के समय आसपास के पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने का प्रस्ताव उसने सहज रूप से स्वीकार कर लिया। नौका विहार आदि के समय कई सेल्फी भी लीं प्रशंसिका ने। लौटकर वह प्रशंसिका को छोड़ने उसके कमरे में गया ही था कि कमरे के बाहर भाग-दौड़ की आवाज़ आई और जोर से दरवाजा खटखटाया गया।
दरवाज़ा खोलते ही कुछ लोगों ने उसे घेर लिया। गालियाँ देते हुए, उस पर प्रशंसिका से छेड़छाड़ और जबरदस्ती के आरोप लगाये गए, मोबाइल की सेल्फ़ी और रात के समय कमरे में साथ होना साक्ष्य बनाकर उससे रकम माँगी गयी, उसका कीमती कैमरा और रुपये छीन लिए गए। किंकर्तव्यविमूढ़ उसने इस कूटजाल से टकराने का फैसला किया और बात मानने का अभिनय करते हुए द्वार के समीप आकर झटके से बाहर निकलकर द्वार बंद कर दिया अंदर कैद हो गई प्रशंसिका और उसके साथी।
तत्काल काउंटर से उसने पुलिस और अपने कुछ मित्रों से संपर्क किया। पुलिसिया पूछ-ताछ से पता चला वह प्रशंसिका इसी तरह अपने साथियों के साथ मिलकर भयादोहन करती थी और बदनामी के भय से कोई पुलिस में नहीं जाता था किन्तु इस बार पाँसा उल्टा पड़ा और उस चंद्रमुखी को लग गया चंद्रग्रहण।
***
१०-११-२०१५ 

नवगीत

नवगीत:
मौन सुनो सब, गूँज रहा है
अपनी ढपली
अपना राग
तोड़े अनुशासन के बंधन
हर कोई मनमर्जी से
कहिए कैसे पार हो सके
तब जग इस खुदगर्जी से
भ्रान्ति क्रांति की
भारी खतरा
करे शांति को नष्ट
कुछ के आदर्शों की खातिर
बहुजन को हो कष्ट
दोष व्यवस्था के सुधारना
खुद को उसमें ढाल
नहीं चुनौती अधिक बड़ी क्या
जिसे रहे हम टाल?
कोयल का कूकना गलत है
कहे जा रहा
हर दिन काग
संसद-सांसद भृष्ट, कुचल दो
मिले न सहमत उसे मसल दो
पिंगल के भी नियम न माने
कविपुंगव की नयी नसल दो
गण, मात्रा,लय,
यति-गति तज दो
शब्दाक्षर खुद
अपने रच लो
कर्ता-क्रिया-कर्म बंधन क्यों?
ढपली ले,
जो चाहो भज लो
आज़ादी है मनमानी की
हो सब देख निहाल
रोक-टोक मत
कजरी तज
सावन में गायें फाग
*
१०-११-२०१४

एक रचना:
बतलाओ तो
*
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
औंधे मुँह गिर पड़े हैं
वाग्मी जुमलेबाज।
तक्षशिला पर हो गया
फिर तिकड़म का राज।
संग सुशासन-घुटाले
करते बंदरबाँट।
मीसा सत्ता की सगी
हक़ छीने किस व्याज?
बिसर गयी सिद्धांत सब
हाय! सियासत आज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
केर-बेर के साथ पर
गर्व करें या लाज?
बेच-खरीद उसूल कह
खुद पर करते नाज।
बड़बोला हर शख्श है
कोई न जिम्मेदार।
दइया रे! हो गया है
आज कोढ़ संग खाज।
रक्षक बने कपोत के
क्रूर-शिकारी बाज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
अफसर हैं प्यारे इन्हें
चाहें करें न काज।
रैंक-पेंशन बन गिरी
अफसरियत पर गाज।
जनगण का शोषण करें
बढ़ा-थोपकर टैक्स।
सब्जी-दाल विलासिता
दूभर हुआ अनाज।
चाह एक न्यूज शीश पर
हो सत्ता का ताज।
बतलाओ तो
धन्वन्तरी!
क्या है कोई इलाज?
.
१०-११-२०१५

स्वास्थ्य दोहावली

स्वास्थ्य दोहावली
*
स्वास्थ्य संपदा है सलिल, सचमुच ही अनमोल
वह खाएँ जो पच सके, रखें याद यह बोल
*
अदरक थोड़ी चूसिये, अजवाइन के साथ
हो खराश से मुक्ति यदि, कॉफ़ी भी लें साथ
*
सुख पाने के हेतु कर, हर दिन लाख उपाय.
मन न पराजित हो अगर, विधना बने सहाय.
*
मन प्रशांत हो तो करे, पूर्ण शक्ति से काम.
मन अशांत हो यदि 'सलिल', समझें विधना वाम.
*
मिश्र न हो सुख-दुख अगर, जीवन हो रसहीन.
बने 'सलिल' रसखान यदि, रहे सदा रसलीन.
*

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
(सप्त मात्रिक)
*
नमन मंगल
करो मंगल
शांति सुख दो
न हो दंगल
हरे हों फिर
सघन जंगल
तीर्थ नूतन
बाँध नंगल
याद आते
हमें हंगल
*
९-११-२०२१

गीत, हिमालय

गीत
संजीव
*
वंदन
पर्वत राज तुम्हारा
*
पहरेदार देश के हो तुम
देख उच्चता होश हुए गुम
शिखर घाटियाँ उच्च-भयावह
सरिताएँ कलकल जाती बह
अम्बर
ने यशगान उचारा
*
जगजननी-जगपिता बसे हैं
मेघ बर्फ में मिले धँसे हैं
ब्रम्हपुत्र-कैलाश साथ मिल
हँसते हैं गंगा के खिलखिल
चाँद-
चाँदनी ने उजियारा
*
दशमुख-सगर हुए जब नतशिर
समाधान थे दूर नहीं फिर
पांडव आ सुरपुर जा पाये
पवन देव जय गा मुस्काये
भास्कर
ने तम सकल बुहारा
*
शीश मुकुट भारत माँ के हो
रक्षक आक्रान्ताओं से हो
जनगण ने सर तुम्हें नवाया
अपने दिल में तुम्हें बसाया
सागर
ने हँस बिम्ब निहारा
***

मुक्तक:
संजीव
*
हमें प्रेरणा बना हिमालय
हर संकट में तना हिमालय
निर्विकार निष्काम भाव से
प्रति पल पाया सना हिमालय
*
सर उठाकर ही जिया है, सर उठाकर ही जियेगा
घूँट यह अपमान का, मर जाएगा पर ना पियेगा
सुरक्षित है देश इससे, हवा बर्फीली न आएं
शत्रुओं को लील जाएगा अधर तत्क्षण सियेगा
*
सुबह अरुण ऊग ऊषा संग जैसे ऊगा करता है
बाँह साँझ की थामे डूब जैसे डूबा करता है
तीन तलाक न बोले, दोषी वह दहेज का हुआ नहीं
ब्लैक मनी की फ़िक्र न किंचित, हँस सर ऊँचा करता है
*
एक षटपदी-
कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, कल्पना-कांता के संग
कभी संग मिथलेश छेड़ती दोहा की जंग
करे साधना 'सलिल' संग हो रजनी सविता
बन तरंग आ जाती है फिर भी संग कविता
*

समीक्षा, ओमप्रकाश तिवारी

कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
संजीव
*
[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
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-समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
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तेवरी

तेवरी के तेवर :
संजीव 'सलिल'
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव.
सस्ता हुआ नमक का भाव..
मँझधारों-भँवरों को पार
किया, किनारे डूबी नाव..
सौ चूहे खाने के बाद
हुआ अहिंसा का है चाव..
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव..
ठण्ड भगाई नेता ने.
जला झोपड़ी, बना अलाव..
डाकू तस्कर चोर खड़े.
मतदाता क्या करे चुनाव..
नेता रावण जन सीता
कैसे होगा 'सलिल' निभाव?.
***********
२.
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोए शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डुबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
****************
३.
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
राम न भाते, भाती रम..
***

सोमवार, 8 नवंबर 2021

गीत पाँच पर्व

गीत 
: पाँच पर्व :
*
पाँच तत्व की देह है,
ज्ञाननेद्रिय हैं पाँच।
कर्मेन्द्रिय भी पाँच हैं,
पाँच पर्व हैं साँच।।
*
माटी की यह देह है,
माटी का संसार।
माटी बनती दीप चुप,
देती जग उजियार।।
कच्ची माटी को पका
पक्का करती आँच।
अगन-लगन का मेल ही
पाँच मार्ग का साँच।।
*
हाथ न सूझे हाथ को
अँधियारी हो रात।
तप-पौरुष ही दे सके
हर विपदा को मात।।
नारी धीरज मीत की
आपद में हो जाँच।
धर्म कर्म का मर्म है
पाँच तत्व में जाँच।।
*
बिन रमेश भी रमा का
तनिक न घटता मान।
ऋद्धि-सिद्धि बिन गजानन
हैं शुभत्व की खान।।
रहें न संग लेकिन पुजें
कर्म-कुंडली बाँच।
अचल-अटल विश्वास ही
पाँच देव हैं साँच।।
*
धन्वन्तरि दें स्वास्थ्य-धन
हरि दें रक्षा-रूप।
श्री-समृद्धि, गणपति-मति
देकर करें अनूप।।
गोवर्धन पय अमिय दे
अन्नकूट कर खाँच।
बहिनों का आशीष ले
पाँच शक्ति शुभ साँच।।
*
पवन, भूत, शर, अँगुलि मिल
हर मुश्किल लें जीत।
पाँच प्राण मिल जतन कर
करें ईश से प्रीत।।
परमेश्वर बस पंच में
करें न्याय ज्यों काँच।
बाल न बाँका हो सके
पाँच अमृत है साँच
*****
संजीव, ११.११.२०१५

कार्यशाला, मुक्तक, हाइकु,

कार्यशाला- ७-११-१६
आज का विषय- पथ का चुनाव
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं।
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें।
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
*
झिलमिलायीं
दीपकों की कतारें
खिलखिलायीं.
*
सूरज ढला
तिमिर को मिटाने
दीपक जला.
*
ओबामा बम
नेताओं की घोषणा
दोनों बेकाम.
*
मना दिवाली
हो गयी जेब खाली
आगे कंगाली.
*
देव सोये हैं
जागेंगे ग्यारस को
पूजा कैसे की?.
*
न हो उदास
दीप से बोली बाती
करो प्रयास.
*
दीपों ने घेरा
हारा, भागा अँधेरा
हुआ सवेरा..
*
भू पर आये
सूरज के वंशज
दीपक बन.
*
महल छोड़
कुटियों में जलते
चराग हँसते.
*
फुलझड़ियाँ
आशाओं की लड़ियाँ
जगमगायीं.
*
रह अचला
तो स्वागत, वर्ना जा
लक्ष्मी चंचला.
*
किसी की सगी
लक्ष्मी नहीं रही
फिर भी पुजी.
*
है उपहार
ध्वनि-धुआँ प्रदूषण
मना त्यौहार.
*
हुए निसार
खुद पर खुद ही
हम बेकार.
*
लिया उधार
खूब मना त्यौहार
अब बेज़ार.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, टुकनर गुरु-लघु, पदांत गुरु-लघु-लघु-लघु) ​
*

समीक्षा, नवगीत, रामकिशोर दाहिया

कृति चर्चा:
अल्लाखोह मची - नवगीतीय भाव-भंगिमा मँजी
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: अल्लाखोह मची, नवगीत संग्रह, रामकिशोर दाहिया, वर्ष २०१४, ३००/-, पृष्ठ १४३, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, जैकेट सहित, उद्भावना प्रकाशन, एच ५५ सेक्टर २३, राजनगर, गाज़ियाबाद, चलभाष: ९८११५८२९०२, नवगीतकार संपर्क: गौर मार्ग, दुर्गा चौक, जुहला कटनी ४८३५०१, चलभाषा: ०९७५२५३९८९६]
*
'अल्लाखोह मची' अर्थात 'हाहाकार मचा' ऐसी नवगीत कृति है जिसका शीर्षक ही उसके रचनाकार की दृष्टि और सृष्टि, परिवेश और परिस्थिति, आभ्यंतरिक अन्तर्वस्तु और बाह्य आचरणजनित प्रभावों का संकेत करता है। नवगीत की रचना वैयक्तिक दर्द और पीड़ाजनित न होकर सामूहिक और पारिस्थितिक वैषम्य एवं विडम्बनाकारित अनुभूतियों के सम्प्रेषण हेतु की जाती है। नवगीत का प्रादुर्भाव होता है या वह रचा जाता है, आदिकवि वाल्मीकि रचित प्रथम काव्य पंक्तियों की तरह नवगीत किसी घटना की स्वत: स्फूर्त प्राकृतिक क्रिया है अथवा किसी घटना या किन्हीं घटनाओं के कारण उत्पन्न प्रतिक्रियाओं के संचित होते जाने और निराकृत न होने पर रचनाकार के सुचिंतन का सारांश इस पर मत वैभिन्न्य हो सकता है किन्तु यह लगभग निर्विवाद है कि नवगीत आम जन की अनुभूतियों का शब्दांकन है, न कि व्यक्तिगत चिन्तन का प्रस्तुतीकरण। विवेच्य कृति की हर रचना गीतकार के साक्षीभाव का प्रमाण है।
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार श्री अवधबिहारी श्रीवास्तव के अनुसार 'ईमानदार कवि ने जो करीब से देखा, महसूस किया, भीतर-भीतर जिन घटनाओं की संवेदना उसके भीतर उतर गयी है, उस सच का बयान है, ये गीत फैशन और बहाव में लिखे गीत नहीं हैं. ये गीत एयरकण्डीशनरों में बैठकर कल्पना से गाँव, गरीबी, परिश्रम और पसीने का अनुगायन नहीं है। इन्हें एक गरीब किसान के बेटे ने कड़ी धूप में खड़े होकर भूख और प्यास की पीड़ा सहते हुए धरती की छाती पर लिखा है, इसीलिये इनके गीतों में पसीने से भीगी माटी की गंध आ रही है।' खुद रामकिशोर जी मानते हैं कि उनका लेखन 'घुटन, टूटन, संत्रास, उपेक्षा के शिकार, संघर्षरत आम आदमी की समस्याओं को ज्यों का त्यों रेखांकित करने का प्रयास है।' प्रयास हमेशा सायास होता है, अनायास नहीं। 'ज्यों का त्यों सायास' प्रस्तुतिकरण इन नवगीतों का प्रथम वैशिष्ट्य है।
इन नवगीतों का दूसरा वैशिष्ट्य 'स्वर में आक्रामकता' है, वैषम्य और विडम्बनाओं के प्रहार निरंतर सहनेवाला मन कितना भी भीरु हो, उनमें सुधारने और सुधार न सके तो तोड़ने की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। एक बच्चे के पास कोई खिलौना हो और दूसरे के पास न हो तो वह खिलौना पाने की ज़िद करता है और न मिलने पर तोड़ देता है, भले ही बाद में दंडित हो। यह आक्रामकता इन गीतों में है।
शीश नहीं / कंधे पर लेकिन / रुण्ड हवा में / लाठी भाँजे।
सोना-तपा / खरा हो निकला / चमका जितना / छीले-माँजे।
इस आक्रामकता को दिशाहीन होने से जो प्रवृत्ति बचाती है वह है 'गाम्भीर्य'। संयोगवश रामकिशोर जी शिक्षक हैं, वे रचनाकार का गंभीर होना उसका नैतिक दायित्व मानते हैं तो शिक्षक का संयमित होना कैसे भूल सकते हैं? आक्रामकता, गंभीरता और संयम की त्रिवेणी इन नवगीतों को उनके गाँव में प्रवहित झिरगिरी नदी के प्रवाह की तरह उफनने, गरजने, शांत होने, तृषा हरने की प्रवृत्ति से युक्त करते हैं।
ईंधन आग / जलाने के हम / फिर से / झोंके गए भाड़ में ।
जान सौंपकर / किये काम को / ताकत-हिम्मत / रही हाड़ में ।
इन नवगीतों का सर्वाधिक उल्लेखनीय तत्व इनकी लोकधर्मिता है। यह लोकधर्मिता रामकिशोर जी को उनके लोकगायक पिता से विरासत में मिली है। बुंदेलखंड-बघेलखण्ड का सीमावर्ती अंचल बुढ़ार, उमरिया, मानपुर, बरही आदि कुछ समय के लिए मेरा और लम्बे समय तक रामकिशोर जी का कार्यक्षेत्र रहा है। वे नयी पीढ़ी को शिक्षित करने में जुटे थे और मैं नदियों पर सेतु परियोजनाओं के प्रस्ताव तैयार करने और निर्माण कराने में जुटा था। तब हमारी भेंट भले ही नहीं हो सकी किन्तु अंचल के आदमी के अभाव, दर्द, बेचैनी, उकताहट के साक्षी होने का अवसर अवश्य ही दोनों को मिला। वहाँ रहकर देखने, भोगने और सीखने के काल ने वह पैनी दृष्टि दी जो आवरणों को भेदकर सत्य की प्रतीति कर सके।
फूटी पाँव / बिवाई धरती / एक बूँद भी / लगे इमरती
भारी महा गिरानी / आसों बादल टाँगे पानी।
आधा डोल / कहे अब आके। / कुएँ लगे पेंदी से जाके।
गया और / जलस्तर नीचे। / सावन सूखा पड़ा उलीचे।
'सावन सूखा' की विडंबना लगातार झेलती पीड़ा का संवेदनशील चक्षुसाक्षी, नीरो की तरह वेणुवादन कर प्रेम और शांति के राग नहीं गा सकता। कादम्बरीकार बाणभट्ट और मेघदूत सर्जक कालिदास के काल से विंध्याटवी के इस अंचल में लगातार वन कटने, पहाड़ खुदने और नदियों का जलग्रहण क्षेत्र घटने के बाद भी अकल्पनीय प्राकृतिक सौंदर्य है। सौंदर्य कितना भी नैसर्गिक और दिव्य हो उससे क्षुधा और तृषा शांत नहीं होती। जाने-अनजाने कोलाहल को जीता-पीता हुआ वह मोहकवादियों में भी तपिश अनुभव करता है।
अंतहीन / जलने की पीड़ा / मैं बिन तेल दिया की बाती।
मन के भीतर / जलप्रपात है / धुआँधार की मोहकवादी।
सलिल कणों में / दिन उगते ही / माचिस की तीली टपका दी।
सूख रही / नर्मदा पेट से / ऊपर जलती धू-धू छाती।
निर्जन वन का / सूनापन भी / भरे कोलाहल भीतर जैसे।
मैं विस्मित हूँ / खोह विजन में / चिल-कूट करते तीतर कैसे?
बरसों से जड़वत-निष्ठुर राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था और अधिकाधिक संवेदहीन-प्रभावहीन होती सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत सिर्फ और सिर्फ असंतोष को जन्म देती है जो घनीभूत होकर क्षोभ और आक्रोश की अभिव्यक्ति कर नवगीत बन जाती है। विडंबना यह कि विदेशी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने पर देशप्रेम और जनसमर्थन तो प्राप्त होता पर तथाकथित स्वदेशी सम्प्रभुओं ने वह राह भी नहीं छोड़ी है। अब शासन-प्रशासन के विरुद्ध जाने की परिणति नक्सलवादऔर आतंकवाद में होती है। इस संग्रह के प्रथम खंड 'धधकी आग तबाही' के अंतर्गत समाहित नवगीत अनसुनी-अनदेखी शिकायतों के जीवंत दस्तावेज हैं-
डंपर-ट्रॉली / ढोते ट्रक हैं / नंबर दो की रेत।
महानदी के / तट कैसे / दाबे कुचले खेत।
लिखी शिकायत / केश उखाड़े / सबको गया टटोला।
पीली-लाल / बत्तियों पर / संयुक्त मोर्चा खोला।
छान-बीन / तफ्तीशें जारी / डंडे भूत-परेत।
असंतुष्ट पर से भूत-प्रेत उतारते व्यवस्था के डंडे कल से कल तक का अकाट्य सत्य है। आम आदमी को इस सत्य से जूझते देख उसकी जिजीविषा पर विस्मिय होता है। रामकिशोर जी का अंदाज़े-बयां 'कम लिखे से जादा समझना' की परिपाटी का पालन करता है-
दवा सरीखे / भोजन मिलता / रस में टँगा मरीज रहा हूँ।
दैनिक / वेतनभोगी की मैं / फटती हुई कमीज रहा हूँ।
गर्दन से / कब सिर उतार दे / पैनी खड्ग / व्यवस्था इतनी।....
.... झोपड़पट्टी के / आँगन में / राखी-कजली / तीज रहा हूँ।
आम आदमी की यह ताकत जो उसे राखी, कजली, तीज अर्थात पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के अनुबंधों से मिलती है, वही सर्वस्व ध्वंस के अवांछित रास्तों पर जाने से रोकती है किन्तु अंतत: इससे मुक्ताकाश में पर तौलने के इच्छुक पर कतरे जाकर बकौल रहीम 'रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय' कहते हैं तो आम आदमी की जुबान से सिर्फ यह कह पाते हैं-
मेरी पीड़ा मेरा धन है। / नहीं बाँटता मेरा मन है।
सूम बने रहना / ही बेहतर / खुशहाली में घर-आँगन है।
संग्रह का दूसरा खंड 'पागल हुआ रमोली' के हुआ सवेरा जैसे गीत कवि के अंतर्मन में बैठे आशावादी शिक्षक की वाणी हैं- 'उठ जा बेटे! हुआ सवेरा । / हुई भोर है गया अँधेरा। / जागा सूरज खोले आँखें / फ़ैल रही किरणों की पाँखें'। नवाशा का यह स्वर भोर की ताजगी की ही तरह शीघ्र ही गायब हो जाता है और शेष रह जाती है 'मूँड़ फूट जाएगा लगता / हींसों के बँटवारे में' की आशंका, 'लाल-पीली / बत्तियों का / हो गया / कानून बंधुआ' का कड़वा सच, 'ले गयी है / बाढ़ हमसे / छीनकर घर-द्वार पूरा' का दर्द, 'वजनदार हो फ़ाइल सरके / बाबू बैठा हुआ अकड़ के / पटवारी का काला-पीला' से उपजा शोषण, 'झमर-झिमिर भी / बरसे पानी / हालत सार-सरीखी घर की' की बेचारगी, 'चांवल, दाल / गेहूं सोना है। / रोजी-रोटी का रोना है' की विवशता, 'खौल रहा / अंदर से लेकिन / बना हुआ गंभीर लेड़ैया / नहीं बोलता / हुआ हुआ का' की हताशा और 'झोपड़पट्टी टूट रही है / सिर की छाया छूट रही है .... चलता / छाती पर / बुलडोजर / बेजा कब्जा खाली होता' की आश्रय हीनता।
'मेरी अपनी जीवन शैली / अलग सोच की अलग / कहन है' कहनेवाले रामकिशोर जी का शब्द भण्डार स्पृहणीय है। वे कुनैते, दुनका, चरेरू, बम्हनौही, कनफोर, क़मरी, सरौधा, अइसन, हींसा, हरैया, आसन, पिटपासों, दुनपट, फरके, छींदी, तरोगा, चिंगुटे, हँकरा, गुंगुआना, डहडक, टूका, पुरौती, ठोंढ़ा, तुम्मी, अकिल, पतुरिया, कुदारी, चुरिया, मिड़वइया आदि देशज बुंदेली-बघेली शब्द, इंटरनेट, लान, ड्रीम, डम्पर, ट्रॉली, ट्रक, नंबर, लीज, लिस्ट, सील, साइन, एटम बम, कोर्ट, मार्किट, रेडीमेड, ऑप्शन, मशीन, पेपरवेट, रेट, कंप्यूटर, ड्यूटी जैसे अंग्रेजी शब्द तथा फरेब, रोज, किस्मत, रकम, हकीम, ऐब, रौशनी, रिश्ते, ज़हर, अहसान, हर्फ़, हौसला, बोटी, आफत, कानून, बख्शें, गुरेज, खानगी, फरमाइश, बेताबी, खुराफात, सोहबत, ख़ामोशी, फ़क़त, दहशत, औकात आदि उर्दू शब्द खड़ी हिंदी के साथ समान सहजता और सार्थकता के साथ उपयोग कर पाते हैं। पूर्व नवगीत संग्रह की तरह ठेठ देशज शब्दों के अर्थ पाद टिप्पणी में दिए जान शहरी तथा अन्य अंचलों के पाठकों के लिए आवश्यक है क्योंकि ऐसे शब्दों के अर्थ सामान्य शब्दकोशों में भी नहीं मिलते हैं।
'अपने दम पर / मैं अभाव के / छक्के छुड़ा दिआ', 'मैं फरेबी धुंध की / वह छोर खोजा हूँ' जैसी एक-दो त्रुटिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपवाद को छोड़कर पूर्ण संग्रह भाषिक दृष्टि से निर्दोष है। पारम्परिक गीत की छंदरूढ़ता और प्रगतिवादी काव्य की छंदहीनता के बीच सहज साध्य छंदयोजना के अपनाते हुए रामकिशोर जी इन नवगीतों की लयबद्धता को सरस और रूचि पूर्ण रख सके हैं। 'ज़िंदा सरोधा' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में २३ मात्रिक छंद रौद्राक जातीय उपमान छंद का, मुखड़े में २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद का, 'भरे कोलाहल भीतर', 'रस में टँगा मरीज' शीर्षक नवगीतों के मुखड़े-अंतरों में ३२ मात्रिक लाक्षणिक छंद, 'रुण्ड हवा में' शीर्षक नवगीत के मुखड़े में ४२ मात्रिक कोदंड जातीय तथा अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद का, 'घूँघट वाला अँचरा' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा, २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंद का अन्तरा, 'हींसों के बँटवारे' में ३० मात्रिक महातैथिक जातीय छंद का मुखड़ा तथा १६ मात्रिक संस्कारी जातीय ७ पंक्तियों का अंतरा प्रयोग किया गया है। अपवादस्वरूप कुछ नवगीतों में अंतरों में भी अलग-अलग छंद प्रयुक्त हुए है जो नवगीतकार की प्रयोगधर्मिता को इंगित करता है।
समीक्ष्य संग्रह के नवगीत रामकिशोर के व्यक्तित्व और चिंतन के प्रतीति कराते हैं। लेखनमें किसी अन्य से प्रभावित हुए बिना अपनी लीक आप बनाते हुए, पारम्परिकता, नवता और स्वीकार्यता की त्रिवेणी प्रवाहित करते हुए रामकिशोर जी के अगले संकलन की प्रतीक्षा हेतु उत्सुकता जगाता है यह संग्रह।
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-समन्वयम २०४ विजय, अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ salil.sanjiv@gmail.com, o७६१ २४१११३१ / ९४२५१८३२४४
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संदेह अलंकार

अलंकार सलिला: २९
संदेह अलंकार
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किसी एक में जब दिखें, संभव वस्तु अनेक।
अलंकार संदेह तब, पहिचानें सविवेक।।
निश्चय करना कठिन हो, लख गुण-धर्म समान ।
अलंकार संदेह की, यह या वह पहचान ।।
गुरुदत्त जी, वहीदा जी, रहमान जी तथा जॉनी वाकर जी के जीवंत अभिनय, निर्देषम, कथा और मधुर गीतों के लिये
स्मरणीय हिंदी सिनेमा की कालजयी कृति 'चौदहवीं का चाँद' को हम याद कर रहे हैं शीर्षक गीत के लिये...
चौदहवीं का चाँद हो / या आफताब हो?
जो भी हो तुम / खुदा की कसम / लाजवाब हो।
नायिका के अनिंद्य रूप पर मुग्ध नायक यह तय नहीं कर पा रहा कि उसे चाँद माने या सूर्य? एक अन्य पुराना फिल्मी गीत है-
ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत / कौन हो तुम बतलाओ?
देर से इतनी दूर खड़ी हो / और करीब आ जाओ।
यह तो आप सबने समझ ही लिया है कि नायक नायिका को देखकर सपना है या सच है? का निश्चय नहीं कर पा रहा है
और यह तय करने के लिये उसे निकट बुला रहा है। एक और फिल्मी गीत को लें-
मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाए
बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए?
आप सोच रहे होंगे अलंकार चर्चा के इच्छुक काव्य रसिकों से यह कैसा सलूक कि अलंकार छोड़कर सिनेमाई गीत वो भी
पुराने दोहराये जाएँ? धैर्य रखिये, यह अकारण नहीं है।
घबराइये मत, हम आपसे न तो गीत सुनाने को कह रहे हैं, न गीतकार, गायक या संगीतकार का नाम ही पूछ रहे हैं।
बताइए सिर्फ यह कि इन गीतों में कौन सी समानता है?
क्या?.. पर्दे पर नायक ने गाया है... यह तो पूछने जैसी बात ही नहीं है असल में ...समानता यह है कि तीनों गीतों में
नायक दुविधा का शिकार है- चाँद या सूरज?, सपना या सच?, मारे या छोड़े ?
यह दुविधा, अनिर्णय, संशय, शक या संदेह की मनःस्थिति जिस अलंकार की जननी है, उसका नाम है संदेह अलंकार।
रूप, रंग आदि की समानता होने के कारण उपमेय में उपमान का संशय होने पर संदेह अलंकार होता है।
जहाँ रूप, रंग और गुण की समानता के कारण किसी वस्तु को देखकर यह निश्चचय न हो सके कि यह वही वस्तु है या
नहीं? वहाँ संदेह अलंकार होता है।
यह अलंकार तब होता है जब एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का संदेह तो हो पर निश्चय न हो। इसके वाचक शब्द कि,
किधौं, धौं, अथवा, या आदि हैं।
यह-वह का संशय बने, अलंकार संदेह।
निश्चय बिन हिलता लगे, विश्वासों का गेह।।
इस-उस के निश्चय बिना हो मन हो डाँवाडोल।
अलंकार संदेह को, ऊहापोह से तोल।।
उदाहरण:
१. कौन बताये / वीर कहूँ या धीर / पितामह को?
२. नग, जुगनू या तारे? / बूझ न पाये हारे
३. नर्मदा हो, वर्मदा हो / शर्मदा हो धर्मदा
जानता माँ मात्र इतना / तुम सनातन मर्मदा
४. सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
सारी ही कि नारी है कि नारी ही कि सारी है।।
यहाँ द्रौपदी के चीरहरण की घटना के समय का चित्रण है कि द्रौपदी के चारों और चीर के ढेर देखकर दर्शकों को संदेह
हुआ कि साड़ी के बीच नारी है या नारी के बीच साड़ी है?
५. को तुम तीन देव मँह कोऊ, नर नारायण की तुम दोऊ।
यहाँ संदेह है कि सामने कौन उपस्थित है ? नर, नारायण या त्रिदेव (ब्रम्हा-विष्णु-महेश)।
६ . परत चंद्र प्रतिबिम्ब कहुँ जलनिधि चमकायो।
कै तरंग कर मुकुर लिए शोभित छवि छायो।।
कै रास रमन में हरि मुकुट आभा जल बिखरात है।
कै जल-उर हरि मूरति बसत ना प्रतिबिम्ब लखात है।।
पानी में पड़ रही चंद्रमा की छवि को देखकर कवि संशय में है कि यह पानी में चन्द्र की छवि है या लहर हाथ में दर्पण लिये
है? यह रास लीला में निमग्न श्री कृष्ण के मुकुट की परछाईं है या सलिल के ह्रदय में बसी प्रभु की प्रतिमा है?
७. तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि,
केशों में निशा ने मुक्तावलि सजायी है।
बिखर गयी है चूर-चूर है के चंद कैधों,
कैधों घर-घर दीपमालिका सुहाई है।।
इस प्रकृति चित्रण में संशय है कि आसमान में तारे अतिथि बनकर आये हैं, अथवा रजनी ने मुक्तावलि सजायी है,
चंद्रमा चूर होकर बिखर गया है या घर -घर में दिवाली मनाई जा रही है.
८. कज्जल के तट पर दीपशिखा सोती है कि,
श्याम घन मंडल में दामिनी की धारा है?
यामिनी के अंचल में कलाधर की कोर है कि,
राहू के कबंध पै कराल केतु तारा है?
'शंकर' कसौटी पर कंचन की लीक है कि,
तेज ने तिमिर के हिए में तीर मारा है?
काली पाटियों के बीच मोहिनी की मांग है कि,
ढाल पर खांडा कामदेव का दुधारा है.?
इस छंद में संदेह अलंकार की ४ बार आवृत्ति है. संदेह है कि- काजल के किनारे दिये की बाती है या काले बादलों के बीच बिजली?, रात के आँचल में चंद्रमा की कोर है या राहू के कंधे पर केतु?, कसौटी के पत्थर पर परखे जा रहे सोने की रेखा है या अँधेरे के दिल में उजाले का तीर?, काले बालों के बीच सुन्दरी की माँग है या ढाल पर कामदेव का दुधारा रखा है?
९. नित सुनहली साँझ के पद से लिपट आता अँधेरा,
पुलक पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा।
कौन जाने बसा है उस पार
तम या रागमय दिन? - महादेवी वर्मा
१०. जननायक हो जनशोषक
पोषक अत्याचारों के?
धनपति हो या धन-गुलाम तुम
दोषी लाचारों के? -सलिल
११. भूखे नर को भूलकर, हर को देते भोग।
पाप हुआ या पुण्य यह?, करुँ हर्ष या सोग?.. -सलिल
१२. राधा मुख आली! किधौं, कैधौं उग्यो मयंक?
१३. कहहिं सप्रेम एक-इक पाहीं। राम-लखन सखि! होब कि नाहीं।।
१४. संसद या मंडी कहूँ?
हल्ला-गुल्ला हो रहा
आम आदमी रो रहा।
१५. जीत हुई या हार
भाँज रहे तलवार
जन हित होता उपेक्षित।
संदेह अलंकार का प्रयोग सामाजिक विसंगतियों और त्रासदियों के चित्रण में भी किया जा सकता है।
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समीक्षा, नवगीत, पूर्णिमा बर्मन

कृति चर्चा :
पारम्परिक नवता की तलाश: चोंच में आकाश
चर्चाकार: संजीव
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[कृति विवरण: चोंच में आकाश, नवगीत संग्रह, पूर्णिमा बर्मन, प्रथम संस्करण २०१४, डिमाई आकार, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद]
आदिमानव ने सलिल प्रवाह की कलकल, परिंदों के कलरव, मेघों के गर्जन पवन की सन-सन से ध्वनियों से अभिभूत होकर उसके विविध प्रभावों हर्ष, विषाद, भय आदि की अनुभूति की। कलकल एवं कलरव ने उसे ध्वनियों के आरोह-अवरोहजनित नैरन्तर्य और माधुर्य का परिचय दिया। कालांतर में इन ध्वनियों को दुहराते हुए ध्वनिसंकेतों के माध्यम से पारस्परिक संवाद स्थापित कर मानव ने कालजयी आविष्कार किया। विविध मानव समूहों ने मूल एक होते हुए भी उनसे अपनी उच्चारण क्षमता के अनुसार विविध भाषाओँ क विकास किया। ध्वनि संकेतों का स्थान ध्वनि खण्डों ने लिया। कालांतर में ध्वनि खंड शब्दों में बदले और शब्दों का सातत्य सूक्ष्म और लघु गीतों का वाहक हुआ। छंद की गति-यति ने लय निर्धारण कर गीत की सरसता को समृद्ध किया तो स्थाई या मुखड़े की आवृत्ति ने अंतरों को एक सूत्र में पिरोते हुए भाव-माला बनाकर शब्द चित्र को पूर्णता प्रदान की। छंदबद्ध हर रचना गेय होने पर भी गीत नहीं होती। गीत में लय, गति, ताल, मुखड़ा तथा अन्तरा होना आवश्यक है। गीत में शिथिलता, नवता का भाव तथा बिम्ब-प्रतीकों का बासीपन, दीर्घता, तह छायावाद की अस्पष्टता होने पर उसके असमय काल कवलित होने की उद्घोषणा ने नवजीवन का पथ प्रशस्त किया। गीत के शिल्प और कथ्य का जीर्णोद्धार होने पर नवगीत का भवन प्रगट हुआ।
आरम्भ में गीत के शिल्प में प्रगतिवादी कविता का कलेवर अपनाने के पश्चात नव गीत क्रमशः लयात्मकता, पारम्परिकता और अधुनातनता की त्रिवेणी को एक कर वह रूपाकार पा सका जिससे साक्षात कराता है हिंदी को विश्ववाणी के रूप में समर्थ होते देखने की इच्छुक सरस्वतीपुत्री पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संग्रह चोच में आकाश। नवगीत में 'नव गति, नव लय, ताल, छंद नव' तो होना ही चाहिए। पूर्णिमा जी की 'नवल दृष्टि' छंद, बिम्ब, प्रतीक, जीवन मूल्य, पारम्परिक लोकाचार, अधुनातनता तथा समसामयिक संदर्भो के सप्त तत्वों का सम्मिश्रण कर नवगीतों की रचना करती है। नवगीत को प्रगतिवादी कविताओं की प्रतिक्रिया और हर परंपरा के विरोध में शब्दास्त्र माननेवालों को इन नवगीतों में नवता की न्यूनता अनुभव हो तो यह उनकी संकुचित दृष्टि का सीमाबाह्य सत्य को न देख सकने का दोष होगा। पूर्णिमा जी ने भारतीय संस्कृति की उत्सवधर्मी लोकाचारिक परंपरा की पड़ती जमीन पर उग आयी जड़ता की खरपतवार को अपनी सामयिक परिस्थितियों के बखर तथा संवेदनशीलता के हल से अलग कर सांगीतिक सरसता के बीज मात्र नहीं बोये अपितु विदेशी धरती पर पंप रही विश्व संस्कृति और भारत के नगर-ग्रामों में परिव्याप्त पारम्परिक सभ्यता के उर्वरकों का प्रयोग कर नवत्व के समीरण से पाठकों / श्रोताओं को आनंदित होने का अवसर सुलभ कराया है।
भाषिक प्रयोग :
पारम्परिक काव्य मानकों की लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने कुछ भाषिक प्रयोग किये हैं। परीक्षकीय दृष्टि इन्हें काव्य दोष कह सकती है किन्तु नवता की तलाश में प्रयोगधर्मी नवगीतकार ने इन्हें अनजाने नहीं जान बूझकर प्रयोग किया है, ऐसा मुझे लगता है तथापि इन पर चर्चा होनी चाहिए। नव प्रयोग करना दो बाँसों से बँधी रस्सी पर चलने की तरह दुष्कर होता है, संतुलन जरा सा डगमगाया तो परिणाम विपरीत हो जाता है। पूर्णिमा जी ने यह खतरा बार-बार उठाया है, भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता की वृद्धि हेतु ऐसे प्रयोग आवश्यक हैं।
'रामभरोसे' में 'नफरत के एलान बो रहे', 'आँसू-आँसू गाल रो रहे' ऐसे ही प्रयोग हैं। एलान किया जाता है बोया नहीं जाता है। 'बोने' की क्रिया एक से अनेक की उत्पत्ति हेतु होती है। 'नफरत का एलान' उसे शतगुणित करने हेतु हो तो उसे 'नफरत को बोना' कहा जाना ठीक लगता है किंतु 'गाल का रोना'? रुदन की क्रिया पीड़ाजनित होती है, अपनी या अन्य की पीड़ा से व्याकुल-द्रवित होना रुदन का उत्स है। आँख से अश्रु बहना भौतिक क्रिया है, मन या दिल का रोना भावनात्मक अभिव्यक्ति है। शरीरविज्ञान का 'दिल' धड़कने, रक्तशोधन तथा पंप करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता पर साहित्य का दिल भावनात्मक अभिव्यक्ति में भी सक्षम होता है।सामान्यतः 'गाल' का स्पर्श अथवा चुम्बन प्रेमाभिव्यक्ति हेतु तथा गाल पर प्रहार चोट पहुँचाने के लिये होता है। रोने की क्रिया में गाल का योगदान नहीं होता अतः 'गाल का रोना' प्रयोग सटीक नहीं लगता।
'सकल विश्व के विस्तृत प्रांगण / मंद-मंद बुहरें' के संदर्भ में निवेदन है कि क्रिया 'बुहारना' का अर्थ झाड़ना या स्वच्छ करना होता है। 'बुहारू' वह उपकरण जिससे सफाई की जाती है। किसी स्थान को बुहारा जाता है, वह अपने आप कैसे 'बुहर' सकता है? यहाँ तथ्यपरक काव्य दोष प्रतीत होता है।
ओंकार या अनहद नाद को सृष्टि कहा गया है. 'शुभ ओंकार करें' से ध्वनित होता कि कोई 'अशुभ ओंकार' भी हो सकता है जबकि ऐसा नहीं है। ओंकार तो हमेशा शुभ ही होता है, यह काव्य दोष शुभ के स्थान पर 'नित' के प्रयोग से दूर किया जा सकता है।
एक नवगीत में प्रयुक्त 'इस डग पर हम भी हैं' (पृष्ठ ५४) के सन्दर्भ में निवेदन है कि 'डग' का अर्थ कदम होता है. जैसे ५ डग चलो या ५ कदम चलो, वह अर्थ यहाँ उपयुक्त नहीं प्रतीत होता, यहां डेग को मग के अर्थ में लिया गया है। यदि 'इस डग पर हम भी हैं' को 'इस मग पर हम भी हैं' किया जाए तो अर्थ अधिक स्पष्ट होता है मग = मार्ग।
'जिस भाषा में बात शुरू की / वह बोली ही बदल गयी' (पृष्ठ ५५) में भाषा और बोली का प्रयोग समानार्थी के रूप में हुआ प्रतीत होता है पर वस्तुतः दोनों शब्दों के अर्थ भिन्न हैं। भाषा में बात करें तो भाषा ही बदलेगी।
सटीक शब्द चयन:
नवगीत कमसे कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ समाहित करने की कला है। यहाँ भाव या कल्पना को विस्तार देने का स्थान ही नहीं होता। पूर्णिमा जी सटीक शब्दचयन में निपुण हैं। वे सुदीर्घ विदेश प्रवास के बावजूद जमीन से जुडी हैं। देशज शब्दों ने उनके नवगीतों को जनमानस को व्यक्त करने में सक्षम बनाया है। दियना, पठवाई (भोजपुरी), गलबहियाँ, सगरी, मिठबतियाँ, टेरा, मुण्डेरा, बिराना, सतुआ, हूला, मुआ, रेले, हरियरी, हौले, कथरी, भदेस, भिनसारा, चौबारा, खटते, हिन्दोल, दादुर, बाँचो आदि शब्द इन नवगीतों को भोर की हवा के झोंके की ताज़गी देते हैं। समृद्धि, तरह आदि शब्दों के देशज रूपों समरिधि, तरहा का प्रयोग बिना हिचक किया गया है। तौलने की क्रिया में तौले गये पदार्थ के लिये 'तुलान' शब्द का प्रयोग पूर्णिमा जी की जमीनी पकड़ दर्शाता है। यह शब्द हिंदी के आधुनिक शब्दकोशों में भी नहीं है। हिंदी की भाषिक क्षमता पर संदेह करनेवालों को ऐसे शब्द एकत्रकर शब्दकोशों में जोड़ना चाहिए।
संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त पूर्णिमा जी की भाषा में संस्कृतनिष्ठ शब्द होना स्वाभाविक है, वैशिष्ट्य यह की इन शब्दों के प्रयोग से भाषा कलिष्ट या बोझिल नहीं हुई अपितु प्राणवान हुई है। स्वहित, समेकित, वल्कल, अभिज्ञान, नवस्पन्दन, नवता, वाट्स, मकरंद, अलिंद आदि शब्द कोंवेंटी पाठकों को कठिन लग सकते हैं पर सामान्य हिंदी पाठक के लिए सहज ग्राह्य हैं।
हिंदी की अरबी-फ़ारसी शब्दप्रधान शैली उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्द पूर्णिमा जी के लिए पराये नहीं है। हिंदी को विश्ववाणी का रूप पाने के लिए अन्य भाषाओँ-बोलिओं के शब्दों को अपनी प्रकृति और आवश्यकता के अनुसार आत्मसात करना ही होगा। जश्न, ख्वाब, वक़्त, खुशबू, अहसास, इन्तिज़ार,रौशनी, सफर, दर्द, ज़ख्म, गुलदस्ता, बेकल पैगाम आदि उर्दू शब्द तथा मीडिया, टी. वी., फिल्म, लैंप, टाइप, ट्रेफिक, लॉन आदि अंग्रेजी शब्द यथावसर प्रयुक्त हुए हैं।
पूर्णिमा जी ने इन गीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग कर गीत के कथ्य को सरसता दी है। तन-मन, धन-धान्य, ताने-बाने, ज्ञान-ध्यान-विज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, जीर्ण-शीर्ण, आप-धापी, रेले-मेले, यहाँ-वहाँ-सभी कहाँ, जगर-मगर आदि शब्द युग्मों से भाषा प्राणवंत हुई है।
भाषिक चेतना :
अन्य नवगीत संग्रहों से अलग हटकर यह कृति हिंदी की वैश्विकता को रेखांकित करती है।'हिंदी अपने पंख फैलाये उड़ने को तैयार' तथा 'अब भी हिंदी गानों पर मन / विव्हल होता है' पूर्णिमा जी के हिंदी प्रेम को उद्घाटित करता है। यथास्थान मुहावरों तथा लोकोक्तियों के प्रयोग ने नवगीतों को भाषा को सरसता दी है। ढोल पीटना, लीप-पोत देना, चमक-दमक आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग दृष्टव्य है। आजकाल नवगीतों में विशिष्ट शब्द-चयन से सहजता पर सलीके को वरीयता देने का जो चलन दीखता है उसे पूर्णिमा जी विनम्रता से परे कर सुबोधतापरक वैविध्य और नवता से अपनी बात कह पाती हैं। 'अधभर गगरी छलकत जाए' मुहावरे का मनोहर प्रयोग देखें: कब तक ढोऊँ अधजल घट यह / रह-रह छलके नीर।
भाषिक प्रवाह:
पूर्णिमा जी के इन नवगीतों में भाषा का स्वाभाविक प्रवाह दृष्टव्य है : ' माटी की / खुशबू में पलते / एक ख़ुशी से / हर दुःख छलते / बाड़ी चौक गली अमराई / हर पत्थर गुरुद्वारा थे / हम सूरज / भिन्सारा थे, दुनिया ये आनी-जानी है / ज्ञानी कहते हैं फानी है / चलाचली का / खेला है तो / जग में डेरा कौन बनाये / माया में मन कौन रमाये आदि में मन रम सा जाता है।
अलंकार :
नवगीतों में मुखड़े / स्थाई होने के कारण अन्त्यानुप्रास होता ही है, प्रायः अंतरों में भी अनुप्रास आ ही जाता है। पूर्णिमा जी पदांत की समता को खींच-तान कर नहीं मिलतीं अपितु सम उच्चारण के शब्द अपने आप ही प्रवाह में आते हुए प्रतीत होते हैं: जर्जर मन पतवार सखी री! / छूटे चैतन्य अनार सखी री, जिनको हमने नहीं चुना / उनको हमने नहीं गुना / अपना मन ही नहीं सुना, नीम-नीम धरती है, नीम-नीम छत / फूल-फूल बिखरी है बाँटती रजत / टाँकती दिशाओं में रेशमी अखत / थिरकेगी तारों पर मंद्र कोई गत, सोन चंपा महकती रही रात भर / चाँदनी सुख की झरती रही रात भर / दीठि नटिनी ठुमकती रही रात भर / रूप गंधा लहकती रही रात भर / धुन सितारों की बजती रही रात भर जैसे अँतरे रस नर्मदा में अवगाहन कराकर पाठक को आत्मानंदित होने का अवसर देते हैं। उपमा पूर्णिमा जी का प्रिय अलंकार है। घुंघरू सी कलियाँ, रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ, आरती सी दीप्त पँखुरी, अनहद का राम किला, गुलमोहर सी ज्वालायें, तितली सी इच्छएं, मकड़ी के जालों सी निराशाएं जैसी अनेक मौलिक उपमाएं सोने में सुहागा हैं।
टुकड़े-टुकड़े टूट जायेंगे / मनके मनके में यमक की सुंदर छवि दृष्टव्य है।
आध्यात्मिक चेतना :
प्रकृति के सानिंध्य में आध्यात्मिक चेतना की और झुकाव स्वाभाविक है। ओंकार, अनहद, कमल, चक्र, ज्योति, प्रकाश, घट, चैतन्य, अशोक, सुखमन आदि शब्द पाठक को आध्यात्मिक भावलोक में ले जाते हैं। पिंगल की परंपरा के अनुसार इस नवगीत संग्रह का श्री गणेश गणेश वंदना से उचित ही हुआ है। मन मंदिर में दिया जलने का स्नेहिल अनुरोध समाहित किये दूसरे नवगीत में ' चक्र गहन कर्मों के बंधन / स्थिर रहे न धीर / तीन द्वीप और सात समंदर / दुनिया बाजीगीर' आध्यात्मिक प्रतीकों से युक्त है। 'कमल खिला' शीर्षक नवगीत में 'चेतन का द्वार खुला / सुखमन ने / जीत लिया अनहद का राम किला / कमल खिला' फिर आध्यात्म संसार से साक्षात कराता है। 'झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया' का कबीरी रंग 'अनबन के ताने को / मेहनत के बाने को / निरानंद विमल मिला / सुधियों ने / झीनी इस चादर को आन सिला / कमल खिला' में दृष्टव्य है।
पर्यावरणीय चेतना:
सामान्यतः नवगीत संग्रह में पर्यावरणीय चेतना होना आवश्यक नहीं होता, न ही यह समलोचकीय मानक है किंतु इस संग्रह के शीर्षक से अंत तक पर्यावरण के प्रति नवगीतकार की चेतना जाने-अनजाने प्रवाहित हुई है। उसकी अनदेखी कैसे संभव है? 'चोंच में आकाश' शीर्षक नभ और नभचरों के प्रति पूर्णिमा जी की संवेदना को अभियक्त करता है। नभ चल हों तो थलचर और जलचर भी आ ही जायेंगे और नभ के साथ वायु, ध्वनि धूम्र का होना स्वाभाविक है। पर्यावरणविदों का चिंतन और चिंता के इन केन्द्रों को केंद्र में रखनेवाली कृति पर्यावरणीय चेतना की वाहक न हो, यह कैसे संभव है?
न्यूटन ने कहा था: मुझे खड़े होने के लिये जमीन दो, मैं आकाश को हाथों में उठा लूँगा। पंछी के हाथ उसके पंख होते हैं। इसलिए न्यूटन का विचार पंछी कहे तो यही कहेगा 'तुम मुझे उड़ने के लिये पंख दो, मैं आकाश को चोच में भर लूँगा'। 'चोंच में आकाश' परोक्षतः जिजीविषाजयी पखेरू की जयगाथा ही है। वह पखेरू जिसके उड़ाते ही 'शिव' भी 'शव' हो जाता है। यह प्राण-पखेरू पक्षियों, पशुओं, पौधों, पुष्पों और आध्यात्मिक प्रतीकों के रूप में इस संग्रह में सर्वत्र व्याप्त है। कमल, अमलतास, कचनार, गुलमोहर, हरसिंगार, महुआ, पलाश, बोगनविला, चंपा आदि पुष्प-वृक्ष, महुआ, अनार जिसे फल-वृक्ष, ताड़ सा रस-वृक्ष, नीम सा औषधि-वृक्ष, बोनसाई, घास, दूब आदि हरियाली, तितली, केका, मयूर, पाखी, चिड़िया, कोयलिया, विहग, पक्षी आदि नभचर, मछली, सर्प,हरिण, खरगोश आदि प्राणी इस संग्रह को जीवंत कर रहे हैं।
पर्यावरण के प्रति चिंता बार-बार अभिव्यकर होती है: छाया मिले न रंग फाग के / मौसम सूने गए बाग़ के / जंगलों खिलती आग / किासे उठे दिलों में राग / स्वारथ हवस चढ़ा आँखों पर / अब क्या खड़ा बावरा सोचे,
संगीत चेतना:
नवगीत के जन्मदाता निराला जी पारम्परिक संगीत के साथ-साथ बंग संगीत के भी जानकार थे. संभवतः इसी कारण वे लयतथा रस को क्षति पहुँचाये बिना छंद के रूपाकार में, गति-यतिजनित परिवर्तन कर नव छंदों और नवगीतों का सृजन कर सके। इस संग्रह को पढ़ने से पूर्णिमाजी की संगीत सम्बन्धी जानकारी की पुष्टि होती है। इकतारा, संतूर, ढोल, करताल, दादरी, मल्हार आदि की यथास्थान उपस्थिति से नवगीत माधुर्यमय हुए हैं। 'थिरकेगी तारों पर मंद्र /कोई गत' में 'मंद्र' तथा 'गत' का अर्थवाही प्रयोग पूर्णिमा जी के अवचेतन में क्रियाशील सांगीतिक चेतना ही प्रयोग कर सकती है।
शैल्पिक नवता:
'लीक छोड़ तीनों चलें शायर, सिंह, सपूत' की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए पूर्णिमा जी ने शब्दों को सामान्य से हटकर विशिष्ट अर्थ संकेतन हेतु प्रयोग किया है। इस दिशा में अनन्य कबीर जिन्होंने प्रचलित से भिन्नार्थों में अनेक शब्दों का प्रयोग किया और वे जनसामान्य तथा विद्वानों में समान रूप से मान्य भी हुए। इसलिए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को भाषा का डिक्टेटर भी कहा। पूर्णिमा जी भाषा की डिक्टेटर न सही भाषा की सशक्त प्रयोक्ता तो हैं ही। मरमरी उंगलियाँ, मूँगिया हथेली, चितवन की चौपड़, परंपरा के खटोले, प्यार की हथेली, चैत की छबीली जैसी सटीक अभिव्यक्तियाँ पूर्णिमा जी का वैशिष्ट्य है। 'जगह बनाती कोहनियाँ / घुटने बोल गये, आस की शक्ल में सपनों को / लिये जाती है, मन में केका-पीहू जगता, काले बालों में चाँदी ने लड़ियाँ डाली हैं, विलसिता से व्याकुल हर चित / आचारों में निरा दुराग्रह, हर हिटलर की वाट लग गयी, परंपरा की / घनी धरोहर और / प्रगति से प्यार मंदिर दियना बार सखी री! / मंगल दियना बार, अपने छूटे देस बिराना आदि पंक्तियाँ शब्द-शक्ति की जय-जयकार करती प्रतीत होती हैं।
व्यंग्य परकता :
'नवता नए व्याकरण खोले / परंपरा के उठे खटोले / आभिजात्य की नयी दूकान / बोनसाई के ऊँचे दाम' में परंपरा विरोधियों पर प्रखर व्यंग्य प्रहार है। राम भरोसे शीर्षक गीत व्यंग्य से सराबोर है: अमन-चैन के भरम पल रहे / राम भरोसे । राजनैतिक गतिविधियों और उनके आकाओं पर चुटीला व्यंग्य देखें: कैसे-कैसे शहर जल रहे राम भरोसे / जैसा चाहा बोया-काटा / दुनिया को मर्जी से बाँटा / उसकी थाली अपना काँटा / इसको डाँटा उसको चाँटा / राम नाम की ओढ़ चदरिया / कैसे आदम जात छल रहे / राम भरोसे।कथनी-करनी के अंतर पर इसी गीत में शब्द बाण है: दया-धर्म नीलम हो रहे / नफरत के एलान बो रहे / आँसू-आँसू गाल रो रहे / बारूदों के ढेर ढो रहे / जप कर माला विश्व शांति की / फिर भी जग के काम चल रहे / राम भरोसे। मुफलिसी में फकीराना मस्ती सारे दुखों की दवा बन जाती है: भाड़ में जाए रोटी-दाना/ अपनी डफली पाना गाना / लाख मुखौटा चढ़े भीड़ में / चेहरा लेकिन है पहचाना।
मूल्यांकन :
नवगीत संग्रहों की सामान्य लीक से हटकर पूर्णिमा जी ने इस संग्रह के ५५ गीतों को स्वस्ति गान - २ गीत, फूल-पान १० गीत, देश गाम १४ गीत, मन मान १२ गीत तथा धूप धान १७ गीत शीर्षक पञ्चाध्यायों में व्यवस्थित किया है।
प्रख्यात नवगीतकार यश मालवीय जी ने ठीक ही कहा है कि पूर्णिमा जी ने मौसम को शिद्दत से महसूस करते हुए उससे मन के मौसम का संगम कराकर गीत के रूप विधान में कुछ ऐसा नया जोड़ दिया है की बात नवगीत से भी आगे चली गयी है।
नचिकेता जी ने इन गीतों में नवगीत की बँधी लीक का अंधानुकरण न होने से अस्वीकृति की कहट्रे को इन्गिर करते हुए कहा है: 'मुमकिन है की इनके गांठीं, सहज और सुबोध गीतों में कुछ हदसूत्री आधुनिकतावादियों को कोई प्रयोगधर्मी नवीनता दिखाई न दे, इसलिए वे इन्हें नवगीत मैंने से ही इंकार कर दें'।
नवगीत के मूल तत्वों में शिल्प के अंतर्गत मुखड़ा और अन्तरा होना आवश्यक है. मुखड़ा तथा अँतरे की अंतिम पंक्ति का मुखड़े के सामान पदभार व सम पदांत का होना सामान्यतः आवश्यक है, इस शिल्प बंधन को पूर्णिमा जी ने सामान्यतः स्वीकारा है किन्तु 'ढूंढ तो लोगे' शीर्षक गीत में मुखड़ा नहीं है। इस गीत में ७-७ पंक्तियों के ४ पद हैं। ' नमन में मन' में प्रथम पद में ७ पंक्तियाँ है शेष ३ पदों में ८-८ पंक्तियाँ है। एक पंक्ति कम होने से प्रथम पद को ७ पंक्ति का मुखड़ा कहा सकते हैं। शैपिल प्रयोगधर्मिता का परिचय देते इस संग्रह के गीतों में १ पंक्ति से ७ पंक्ति तक के मुखड़े हैं।
पदांत और पंक्त्यांत में तुक बंधन का पालन होते हुए भी भिन्नता है: कहीं सिर्फ मात्र का साम्य है जैसे क्यों पलाश गमलों में रोपे / उसको बात बात में टोके / अब क्या खड़ा बावरा सोचे तथा जैसे हों कागज़ के खोखे में केवल 'ए' की मात्रा की समानता है जबकि 'बोगन विला' शीर्षक नवगीत में में फूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, झूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया, हूला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया में केवल प्रथम अक्षर भिन्न है जबकि ऊ की मात्रा के साथ ला मुंडेरे पर बोगनविला / ओ पिया का पदांत है। निस्संदेह ऐसे शैल्पिक प्रयोग के लिए नवगीतकार का शब्द भण्डार और भाषिक पकड़ असाधारण होना आवश्यक है।
नवगीतों में गेयता पर पठनीयता के हावी होने से असहमत पूर्णिमा जी ने इन गीतों को सहजता, स्वाभाविकता, रागात्मकता, सामूहिकता तथा संगीतात्मकता से संस्कारित किया है। वे यथर्थ के नाम पर गद्यात्मक ठहराव न आने देने के प्रति सचेष्ट रही हैं। राष्ट्र और राष्ट्र भाषा के प्रति उनकी चिंता इन गीतों में व्यक्त हुई है: तिरंगा और मेरी माटी मेरा देश ऐसे ही नवगीत हैं।
सारतः पूर्णिमा बर्मन जी के ये नवगीत उन्हें पाठकों-श्रोताओं के लिए सहज ग्रहणीय बनाते है। किताबी समीक्षक भले ही यथार्थ वैषम्य और विसंगतियों की कमी को न्यूनता कहें किन्तु मेरे मत में इससे उनके गीत दुरूह, नीरस और असहज होने से बचे हैं। अपने वर्तमान रूप में ये गीत आम जन की बात आमजन की भाषा में कह सके हैं। इनकी ताकत है और वैशिष्ट्य यह है की ये ज़ेहन पर वज़न नहीं डालते, पढ़ते-सुनते की मन को छू पते हैं और दुबारा पढ़ने-सुनने पे अरुचिकर नहीं लगते। यह पूर्णिमा जी का प्रथम नवगीत संग्रह है। उअनके सभी पाठकों - श्रोताओं की तरह अगले संकलन की प्रतीक्षा करते हुए मैं भी यही कहूँगा 'अल्लाह करे जोरे कलम और ज़ियादा'।
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-समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
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चर्चा : शब्द और अर्थ

चर्चा :
शब्द और अर्थ
शब्द के साथ अर्थ जुड़ा होता है। यदि अन्य भाषा के शब्द का ऐसा अनुवाद हो जिससे अभीष्ट अर्थ ध्वनित न हो तो उसे छोड़ना चाहिए जबकि अभीष्ट अर्थ प्रगट होता है तो ग्रहण करना चाहिए ताकि उस शब्द का अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सके।
'चलभाष' या 'चलित भाष' से गतिशीलता तथा भाषिक संपर्क अनुमानित होता है। इसका विकल्प 'चलवार्ता' भी हो सकता है। कोई व्यक्ति 'मोबाइल' शब्द न जानता हो तो भी उक्त शब्दों को सार्थक पायेगा। अतः, ये हिंदी के लिये उपयुक्त हैं।
साइकिल का वास्तविक अर्थ चक्र होता है। चक्र का अर्थ भौतिकी, रसायन, युद्ध विज्ञान, यातायात यांत्रिकी में भिन्न होते हैं।
अंग्रेजी में 'बाइसिकिल' शब्द है जिसे हम विरूपित कर हिंदी में 'साइकिल' वाहन के लिये प्रयोग करते हैं. यह प्रयोग वैसा ही है जैसे मास्टर साहब को' मास्साब' कहना। अंग्रेजी में भी बाइ = दो, साइकिल = चक्र भावार्थ दो चक्र का (वाहन), हिंदी में द्विचक्रवाहन। जो भाव व्यक्त करता शब्द अंग्रेजी में सही, वही भाव व्यक्त करता शब्द हिंदी में गलत कैसे हो सकता है?
संकेतों के व्यापक ताने-बाने को नेट तथा इसके विविध देशों में व्याप्त होने के आधार पर 'इंटर' को जोड़कर 'इंटरनेट' शब्द बना। इंटरनेशनल = अंतर राष्ट्रीय सर्व स्वीकृत शब्द है। 'इंटर' के लिये 'अंतर' की स्वीकार्यता है (अंतर के अन्य अर्थ 'दूरी', फर्क, तथा 'मन' होने बाद भी)। ताने-बाने के लिये 'जाल' को जोड़कर अंतरजाल शब्द केवल अनुवाद नहीं है, वह वास्तविक अर्थ में भी उपयुक्त है।
टेलीविज़न = दूरदर्शन, टेलीग्राम =दूरलेख, टेलीफोन = दूरभाष जैसे अनुवाद सही है पर इसी आधार पर टेलिपैथी में 'टेली' का भाषांतरण 'दूर' नहीं किया जा सकता। 'पैथी' के लिये हिंदी में उपयुक्त शब्द न होने से एलोपैथी, होमियोपैथी जैसे शब्द यथावत प्रयोग होते हैं।
दरअसल अंग्रेजी शब्द मस्तिष्क में बचपन से पैठ गया हो तो समानार्थी हिंदी शब्द उपयुक्त नहीं लगता। भाषा विज्ञान के जानकार शब्दों का निर्माण गहन चिंतन के बाद करते हैं।

बाल कविता

बाल कविता:
संजीव 'सलिल'
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..

अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..

एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..

अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..

छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा बह रही शीतल.
पंछी चहक रहे थे, मनहर लगता था जगती-तल..

तभी सुनायी दीं आवाजें, दो पैरों की भारी.
रीछ दिखा तो सिट्टी-पिट्टी भूले दोनों सारी..

मिंशू को झट पकड़ झाड़ पर चढ़ा दिया अंशू ने.
'भैया! भालू इधर आ रहा' बतलाया मिंशू ने..

चढ़ न सका अंशू ऊपर तो उसने अकल लगाई.
झट ज़मीन पर लेट रोक लीं साँसें उसने भाई..

भालू आया, सूँघा, समझा इसमें जान नहीं है.
इससे मुझको कोई भी खतरा या हानि नहीं है..

चला गए भालू आगे, तब मिंशू उतरा नीचे.
'चलो उठो कब तक सोओगे ऐसे आँखें मींचें.'

दोनों भाई भागे घर को, पकड़े अपने कान.
आज बचे, अब नहीं अकेले जाएँ मन में ठान..

धन्यवाद ईश्वर को देकर, माँ को सच बतलाया.
माँ बोली: 'संकट में धीरज काम तुम्हारे आया..

जो लेता है काम बुद्धि से वही सफल होता है.
जो घबराता है पथ में काँटें अपने बोता है..

खतरा-भूख न हो तो पशु भी हानि नहीं पहुँचाता.
मानव दानव बना पेड़ काटे, पशु मार गिराता..'

अंशू-मिंशू बोले: 'माँ! हम दें पौधों को पानी.
पशु-पक्षी की रक्षा करने की मन में है ठानी..'

माँ ने शाबाशी दी, कहा 'अकेले अब मत जाना.
बड़े सदा हितचिंतक होते, अब तुमने यह माना..'

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रविवार, 7 नवंबर 2021

भाषा और तकनीक

विशेष विमर्श
भाषा और तकनीक
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'भा' अर्थात् प्रकाशित करना। भाना, भामिनी, भाव, भावुक, भाषित, भास्कर आदि में 'भा' की विविध छवियाँ दृष्टव्य हैं।
विग्यान, तकनीक और यांत्रिकी में लोक और साहित्य में प्रचलित भावार्थ की लीक से हटकर शब्दों को विशिष्ट अर्थ में प्रयोग कर अर्थ विशेष की अभिव्यक्ति अपरिहार्य है।
'आँसू न बहा फरियाद न कर /दिल जलता है तो जलने दे' जैसी अभिव्यक्ति साहित्य में मूल्यवान होते हुए भी तथ्य दोष से युक्त है। विग्यान जानता है कि दिल (हार्ट) के दुखने का कारण विरह नहीं दिल की बीमारी है।
सामान्य बोलचाल में 'रेल आ रही है' कहा जाता है जबकि 'रेल' का अर्थ 'पटरी' होता है जिस पर रेलगाड़ी (ट्रेन) चलती है।
इसी तरह जबलपुर आ गया कहना भी गलत है। जबलपुर एक स्थान है जो अपनी जगह स्थिर है, आना-जाना वाहन या सवारी का कार्य है।
'तस्वीर तेरी दिल में बसा रखी है' कहकर प्रेमी और सुनकर प्रेमिका भले खुश हो लें, विग्यान जानता है कि प्राणी बसता-उजड़ता है, निष्प्राण तस्वीर बस-उजड़ नहीं सकती। दिल तस्वीर बसाने का मकान नहीं शरीर को रक्त प्रदाय करने का पंप है।
आशय यह नहीं है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति निरर्थक या त्याज्य हैं। कहना यह है कि शिक्षा पाने के साथ शब्दों को सही अर्थ में प्रयोग करना भी आवश्यक है विशेष कर तकनीकी विषयों पर लिखने के लिए भाषा और शब्द-प्रयोग के प्रति सजगता आवश्यक है।
साइज और शेप दोनों के लिए आकार या आकृति का प्रयोग करना गलत है। साइज के लिए सही शब्द परिमाप है।
सामान्य बोलचाल में 'गेंद' और 'रोटी' दोनों को 'गोल' कह दिया जाता है जबकि गेंद गोल (स्फेरिकल)तथा रोटी वृत्ताकार (सर्कुलर) है। विग्यान में वृत्तीय परिपथ को गोल या गोल पिंड को वृत्तीय कदापि नहीं कहा जा सकता।
'कला' के अंतर्गत अर्थशास्त्र या समाज शास्त्र आदि को रखा जाना भी भाषिक चूक है। ये सभी विषय सामाजिक विग्यान (सोशल साइंस) हैं।
शब्दकोशीय समानार्थी शब्द विग्यान में भिन्नार्थों में प्रयुक्त हो सकते हैं। भाप (वाटर वेपर) और वाष्प (स्टीम) सामान्यत: समानार्थी होते हुए भी यांत्रिकी की दृष्टि से भिन्न हैं।
अणु एटम है, परमाणु मॉलिक्यूल पर हम परमाणु बम को एटम बम कह देते हैं।
और तो और हम सब यह जानते हैं कि पौधा लगाया जाता है वृक्ष नहीं, फिर भी पौधारोपण की जगह वृक्षारोपण कहते हैं।
बल (फोर्स) और शक्ति (स्ट्रैंग्थ) को सामान्य जन समानार्थी मानकर प्रयोग करता है पर भौतिकी का विद्यार्थी इनका अंतर जानता है।
कोई भाषा रातों-रात नहीं बनती। ध्वनि विग्यान और भाषा शास्त्र की दृष्टि से हिंदी सर्वाधिक समर्थ है। हमारे सामने यह चुनौती है कि श्रेष्ठ साहित्यिक विरासत संपन्न हिंदी को विग्यान और तकनीक के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा बनाएँ।
नव रचनाकार उच्च शिक्षित होने के बाद भी भाषा की शुद्घता के प्रति प्रायः सजग नहीं हैं। यह शोचनीय है। कोई भी साहित्य या साहित्यकार शब्दों का गलत प्रयोग कर यश नहीं पा सकता। अत:, रचना प्रकाशित करने के पूर्व एक-एक शब्द की उपयुक्तता परखना आवश्यक है।
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३१-८-२०१९
७९९९५५९६१८