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बुधवार, 3 नवंबर 2021

लेख : बोली जड़ें, वृक्ष है हिंदी

लेख :
बोली जड़ें, वृक्ष है हिंदी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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भारत का भाषा परिवार  
भारत के भाषाई इतिहास के स्रोत ब्राह्मी लिपि के साथ आरम्भ होते हैं जो तृतीय शताब्दी ईसापूर्व में जन्मी मानी जाती है। सिन्धु घाटी लिपि में लिखी वस्तुएँ खुदाई में मिलीं हैं किन्तु इस लिपि को अभी तक ठीक-ठीक पढ़ा नहीं जा सका है। भारत में विश्व के सबसे चार प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती है। सामान्यत: उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय भाषा परिवार की भाषाओं को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुंडारी भाषा समूह तथा पूर्वोत्तर में रहने वाले तिब्बती-बर्मी, नृजातीय भाषाओं को चीनी-तिब्बती (नाग भाषा समूह) के रूप में जाना जाता है।
आर्य भाषा परिवार
यह परिवार भारत का सबसे बड़ा भाषाई परिवार है। इसका विभाजन 'इन्डो-युरोपीय' (हिन्द यूरोपीय) भाषा परिवार से हुआ है, इसकी दूसरी शाखा 'इन्डो-इरानी' भाषा परिवार है जिसकी प्रमुख भाषायें फारसी, ईरानी, पश्तो, बलूची इत्यादि हैं। भारत की दो तिहाई से अधिक आबादी हिन्द आर्य भाषा परिवार की कोई न कोई भाषा विभिन्न स्तरों पर प्रयोग करती है। जिसमें संस्कृत समेत मुख्यत: उत्तर भारत में बोली जानेवाली अन्य भाषायें जैसे: हिन्दी, उर्दू, मराठी, नेपाली, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
द्रविड़ भाषा परिवार
यह भाषा परिवार भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है। इस परिवार की सदस्य भाषायें ज्यादातर दक्षिण भारत में बोली जाती हैं। इस परिवार का सबसे बड़ा सदस्य तमिल है जो तमिलनाडु में बोली जाती है। इसी तरह कर्नाटक में कन्नड़, केरल में मलयालम और आंध्रप्रदेश में तेलुगू इस परिवार की बड़ी भाषायें हैं। इसके अलावा तुलू और अन्य कई भाषायें भी इस परिवार की मुख्य सदस्य हैं। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और भारतीय कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसी परिवार की ब्राहुई भाषा भी बोली जाती है जिसपर बलूची और पश्तो जैसी भाषाओं का असर देखने को मिलता है।
आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार
यह प्राचीन भाषा परिवार मुख्य रूप से भारत में झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के ज्यादातर हिस्सों में बोली जाती है। संख्या की दृष्टि से इस परिवार की सबसे बड़ी भाषा संथाली या संताली है। यह पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और असम में मुख्यरूप से बोली जाती है। इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हो, मुंडारी, संथाली या संताली, खड़िया, सावरा इत्यादी भाषायें हैं।
चीनी-तिब्बती भाषा परिवार
इस परिवार की ज्यादातर भाषायें भारत के सात उत्तर-पूर्वी राज्यों जिन्हें 'सात-बहनें' भी कहते हैं, में बोली जाती है। इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम, त्रिपुरा और असम का कुछ हिस्सा शामिल है। इस परिवार पर चीनी और आर्य परिवार की भाषाओं का मिश्रित प्रभाव पाया जाता है और सबसे छोटा भाषाई परिवार होने के बावज़ूद इस परिवार के सदस्य भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है। इस परिवार की मुख्य भाषाओं में नागा, मिज़ो, म्हार, मणिपुरी, तांगखुल, खासी, दफ़ला, चम्बा, बोडो, तिब्बती,लद्दाखी ,लेव्या तथा आओ इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
अंडमानी भाषा परिवार
जनसंख्या की दृष्टि से यह भारत का सबसे छोटा भाषाई परिवार है। इसकी खोज पिछले दिनों मशहूर भाषा विज्ञानी प्रो॰ अन्विता अब्‍बी ने की। इसके अंतर्गत अंडबार-निकाबोर द्वीप समूह की भाषाएं आती हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अंडमानी, ग्रेड अंडमानी, ओंगे, जारवा आदि।
'हिंदी' का अर्थ और मूल
दुनिया की किसी भी अन्य भाषा की तरह हिंदी का मूल उसकी बोलियाँ ही हैं। संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं की उच्चार प्रणाली लगभग समान है। बोलिओं में देशज प्रभाव के कारण कुछ ध्वनियाँ बदल जाती हैं। इसी तरह हमारे 'स' और 'ध' फ़ारसी में क्रमश: 'ह' और 'द' हो जाते हैं। तदनुसार भारत का 'सिंध', 'सिंधी' और 'सिंधु' क्रमश: 'हिंद', 'हिंदी' और 'हिंदु' हो जाते हैं। मोटे तौर पर हिंद (भारत) की किसी भाषा को 'हिंदी' कहा जा सकता है। अंग्रेजी शासन के पूर्व इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया जाता था। पर वर्तमानकाल में सामान्यतः इसका व्यवहार उस विस्तृत भूखंड की भाषा के लिए होता है जो पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर पश्चिम में अंबाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल की तराई, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण पूर्व में रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खंडवा तक फैली हुई है। हिंदी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी।
फारस के लोग सिंध नदी को हिंद, सिंधु नदी के दक्षिण तट के उस पार रहनेवालों और उनकी भाषा को 'हिंदी' (हिंदवी) तथा उनकी भूमि को हिन्दुओं का स्थान 'हिंदुस्तान' कहते रहे। इक़बाल ने हिंदु मुस्लिम एकता के संबंध में लिखा था- 'हिंदी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा।' संस्कृत अथवा किसी भी भारतीय भाषा के पुरातन ग्रंथों में 'हिंदी, हिंदी, हिंदुस्तान' शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया। पुरातन ग्रंथों में इस भूभाग को जंबूद्वीप, आर्यावर्त, भरतखण्ड, भारतववर्ष, भारत, भारतमाता आदि कहा गया। भूगर्भशास्त्र में करोड़ों वर्ष प्राचीन भारतीय भूभाग को 'गोंडवाना लैंड्स' संबोधन मिला। अंग्रेजी में फारसी की 'हि' ध्वनि 'इ' तथा 'द' का उच्चार 'ड' होता है। तदनुसार 'इंड, इंडस, इंडिया, इंडियन' शब्द प्रयोग में लाए गए। शब्दार्थ की दृष्टि से भारत की सकल अथवा किसी भी आर्य, द्रविड़ या अन्य कुल की भाषाओँ / बोलिओं को 'हिंदी' कहा जा सकता है। वर्तमान में उत्तर भारत के मध्य तथा निचले भाग में व्यवहृत भाषा-बोलिओं के लिए 'हिंदी' शब्द का प्रयोग किया जाता है जबकि हिन्द शब्द से समूचा भारत देश, तथा हिंदु शब्द से सनातन धर्मावलंबी समझा जाता है। हिंदी भाषी भूभाग से आशय राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरयाणा आदि से मान्य है। गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि अर्ध हिंदी भाषी कहे जा सकते हैं। इस भूभाग की स्थानीय भाषाओँ-बोलिओं जैसे बृज, अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, काठियावाड़ी, मालवी, निमाड़ी, बुंदेली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी आदि को हिंदी में समाविष्ट मान लिया जाता है।
हिंदी, हिंदवी, खड़ी बोली
भारतीय तथा फ़ारसी भाषाओँ के मिश्रित रूप को हिंदवी अथवा हिंदुस्तानी कहा जाता रहा है। इसे फ़ारसी लिपि में लिखने पर इसे उर्दू कहा गया। ग्रियर्सन१ ने भाषा सर्वे में इसे 'वर्नाकुलर हिंदुस्तानी' नाम दिया। पूर्वप्रचलित बोलिओं से भिन्नता दिखाने के लिए लल्लूलाल जी ने प्रेमसागर में पहले-पहल इसे 'खड़ी बोली' कहा- ''एक समै व्यासदेव कृत श्रीमतभगवत के दशम स्कंध की कथा को चतुर्भुज मिश्र ने दोहे चौपाई में बृज भाषा किया। सो पाठशाला के लिए श्री महाराजाधिराज सकल गुणीनिधान, पुण्यवान महाजन मारकुइस वलिजलि गवरनर जनरल प्रतापी के राज और श्रीयुत गुनगाहक, गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्ट महाशय जी आज्ञा से सम्वत १८६० में श्री लल्लू जी लाल कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्त्र अवदीच आगरेवाले ने विस का सार ले यामनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ी बोली में कह प्रेम सागर नाम धरा।''२
''ब्रजभाषा की अपेक्षा यह बोली वास्तव में कुछ खड़ी लगती है, कदाचित इसी कारण इसका नाम खड़ी बोली पड़ा। साहित्यिक हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी इन तीनों रूपों का संबंध इस खड़ी बोली से ही है। आधुनिक साहित्यिक हिंदी के उस दूसरे साहित्यिक रूप का नाम उर्दू है जिसका व्यवहार उत्तर भारत के शिक्षित मुसलमानों तथा उनसे अधिक संपर्क में आनेवाले कुछ हिन्दुओं जैसे पंजाबी, देसी, काश्मीरी तथा पुराने कायस्थों आदि में पाया जाता है। भाषा की दृष्टि से इन दोनों साहित्यिक भाषाओँ में विशेष अंतर नहीं, वास्तव में दोनों का मूलाधार मेरठ-बिजनौर की खड़ी बोली है। अत: जन्म से ही उर्दू और आधुनिक साहित्यिक हिंदी सगी बहिनें हैं। विक्सित होने पर इनमें जी अंतर हुआ उसे रूपक में यों कह सकते हैं एक तो हिन्दुआनी बनी रही और दूसरी ने मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया। साहित्यिक वातावरण, शब्द-समूह तथा लिपि में हिंदी-उर्दू में आकाश पाताल का भेद है। साहित्यिक हिंदी इन सब बातों के लिए भारत की प्राचीन संस्कृति तथा उसके वर्तमान रूप की ओर देखती है। भारत के वातावरण में उत्पन्न होने और पलने पर भी उर्दू शैली फारस और अरब की सभ्यता और साहित्य से जीवन-श्वास ग्रहण करती है।'३ खड़ी बोली फारसी-अरबी शब्दों के अर्ध तत्सम अथवा तद्भव रूपों का प्रयोग करती है। खड़ी बोली मुख्यत: उत्तर प्रदेश (रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुज़्ज़फ़्फ़रनगर, सहारनपुर, देहरादून मैदानी भाग, अंबाला, कलसिया तथा पटियाला पूर्वी भाग) तथा संपूर्ण मध्य प्रदेश के नागर क्षेत्रों में बोली जाती है।
उर्दू
भारत में स्थायी रूप से बसने पर बहुत दिनों तक फारसी, तुर्की और अरबी बोलनेवाले मुसलमानों का केंद्र दिल्ली रहा। आम जनता से बातचीत-व्यवहार हेतु मुसलमानों ने स्थानीय बोली में अपने विदेश शब्द-समूह को मिला दिया जिसे 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नाम से शाही फ़ौजी बाज़ारों में बोला जाता था। धीरे-धीरे रोजमर्रा के काम में, बाजार में इस भाषा का व्यवहार होने लगा। 'उर्दू' शब्द का कोषीय अर्थ बाजार है, उर्दू बाजारू भाषा थी जिसे शाही दरबार और कारिंदों से बातचीत के लिए भारतीय प्रयोग करने लगे थे। अंग्रेज विद्वान ग्राहम बैली उर्दू की उत्पत्ति लाहौर-पंजाब से, तथा इसका मूलाधार पंजाबी मानते हैं चूँकि दिल्ली आने से पहले लगभग २०० वर्ष तक मुसलमान पंजाब में रहे थे। उत्तर भारत में उर्दू को गुलामों से बातचीत की भाषा के रूप में हेय थी। रचनाओं में विदेश शब्दों की अधिकता के कारण भाषा को 'रेख्ता' (मिश्रित भाषा) और स्त्रियों की भाषा 'रेख़्ती' कही जाती थी। उर्दू का साहित्य में प्रयोग पहले-पहल हैदराबाद के निजामी दरबार में हुआ। हैदराबादियों की मूल भाषा 'तेलुगु' द्रविड़ कुल थी, इसलिए वहाँ शासकों की भाषा के रूप में उर्दू को सम्मान मिला। उर्दू साहित्य के प्रथम प्रतिष्ठित कवि वली, हैदराबादी ही थे। इस भाषा को 'दक्खिनी उर्दू' कहा गे चूँकि इसमें फ़ारसी शब्द बहुत कम होते थे। दिल्ली और लखनऊ के दरबारों में उर्दू को प्रवेश बहुत बाद में मिला। लखनऊ में उर्दू का एक भिन्न रूप विकसित हुआ जिस पर बृज और अवधी का असर था। उर्दू की तीनों (दिल्ली, लखनवी और हैदराबादी) शैलियाँ फारसी लिपि के कारण मुसलमानों तथा राज-काज से जुड़े भारतीयों तक सीमित रहीं। एवं शासन समाप्त होने पर उर्दू का महत्व घटा और आखिरकार आम लोगों तक पहुँचाने के लिए उसे मजबूरन देवनागरी लिपि को अपनाना पड़ा। 'उर्दू ग़ज़ल पढ़नेवाले लाख-सवा लाख हैं तो उसी उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी लिपि में , ग़ज़ल गायकी में, ज़िंदगी की गुफ्तगू में हिंदुस्तान=पाकिस्तान क्या दुनिया के मुइखतलिफ़ हिस्सों में (पढ़नेवाले) करोड़ों-करोड़ों हैं। इस बड़ी तख्त का अंदाज़ा हमारे उन किताबी नक्कादों को नहीं हो रहा है जो आज की ग़ज़ल को फारसी ग़ज़ल की उतरन समझते हैं।'४ यह कड़वी सचाई है कि उर्दू साहित्यकारों की संकीर्ण मानसिकता आज भी हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओँ की तुलना में अरबी-फारसी को अधिक महत्व देती है जबकि उनके घरों के चूल्हे हिंदी में पढ़े जाने की वजह से जलते हैं।
हिंदी की बोलियाँ
प्राचीन मध्यदेश में प्रचलित ८ मुख्य बोलियों को भाषा शास्त्र की दृष्टि से शौरसेनी-प्राकृत से विकसित पश्चिमी (खड़ी बोली, बाँगरू, बृज, कन्नौजी, बुंदेली) तथा मागधी-प्राकृत से विकसित पूर्वी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी) में वर्गीकृत किया गया है।
पश्चिमी और पूर्वी हिंदी
सीमित भाषाशास्त्रीय अर्थ में हिंदी के दो उपरूप माने जाते हैं - पश्चिमी हिंदी और पूर्वी हिंदी।
पश्चिमी हिन्दी
पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से हुआ है। इसके अंतर्गत पाँच बोलियाँ हैं - खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रज, कन्नौजी और बुंदेली। खड़ी बोली अपने मूल रूप में मेरठ, रामपुर, मुरादाबाद, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर,बिजनौर,बागपत के आसपास बोली जाती है। इसी के आधार पर आधुनिक हिंदी और उर्दू का रूप खड़ा हुआ। बांगरू को जाटू या हरियाणवी भी कहते हैं। यह पंजाब के दक्षिण पूर्व में बोली जाती है। कुछ विद्वानों के अनुसार बांगरू खड़ी बोली का ही एक रूप है जिसमें पंजाबी और राजस्थानी का मिश्रण है। ब्रजभाषा मथुरा के आसपास ब्रजमंडल में बोली जाती है। हिंदी साहित्य के मध्ययुग में ब्रजभाषा में उच्च कोटि का काव्य निर्मित हुआ। इसलिए इसे बोली न कहकर आदरपूर्वक भाषा कहा गया। मध्यकाल में यह बोली संपूर्ण हिंदी प्रदेश की साहित्यिक भाषा के रूप में मान्य हो गई थी। पर साहित्यिक ब्रजभाषा में ब्रज के ठेठ शब्दों के साथ अन्य प्रांतों के शब्दों और प्रयोगों का भी ग्रहण है। कन्नौजी गंगा के मध्य दोआब की बोली है। इसके एक ओर ब्रजमंडल है और दूसरी ओर अवधी का क्षेत्र। यह ब्रजभाषा से इतनी मिलती जुलती है कि इसमें रचा गया जो थोड़ा बहुत साहित्य है वह ब्रजभाषा का ही माना जाता है। बुंदेली बुंदेलखंड की उपभाषा है। बुंदेलखंड में ब्रजभाषा के अच्छे कवि हुए हैं जिनकी काव्यभाषा पर बुंदेली का प्रभाव है।
पूर्वी हिन्दी
पूर्वी हिंदी की तीन शाखाएँ हैं - अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। अवधी अर्धमागधी प्राकृत की परंपरा में है। यह अवध में बोली जाती है। इसके दो भेद हैं - पूर्वी अवधी और पश्चिमी अवधी। अवधी को बैसवाड़ी भी कहते हैं। तुलसी के रामचरितमानस में अधिकांशत: पश्चिमी अवधी मिलती हैं और जायसी के पदमावत में पूर्वी अवधी। बघेली बघेलखंड में प्रचलित है। यह अवधी का ही एक दक्षिणी रूप है। छत्तीसगढ़ी पलामू (झारखण्ड) की सीमा से लेकर दक्षिण में बस्तर तक और पश्चिम में बघेलखंड की सीमा से उड़ीसा की सीमा तक फैले हुए भूभाग की बोली है। इसमें प्राचीन साहित्य नहीं मिलता। वर्तमान काल में कुछ लोकसाहित्य रचा गया है। बिहारी, राजस्थानी बिहारी हिंदी के अंतर्गत मगही,भोजपुरी,आदि बोलियां आती हैं - बिहारी, राजस्थानी और पहाड़ी हिन्दी। 
बिहारी की तीन शाखाएँ हैं - भोजपुरी, मगही और मैथिली। बिहार के एक कस्बे भोजपुर के नाम पर भोजपुरी बोली का नामकरण हुआ पर भोजपुरी का प्रसार बिहार से अधिक उत्तर प्रदेश में है। बिहार के शाहाबाद, चंपारन और सारन जिले से लेकर गोरखपुर तथा बारस कमिश्नरी तक का क्षेत्र भोजपुरी का है। भोजपुरी पूर्वी हिंदी के अधिक निकट है। हिंदी प्रदेश की बोलियों में भोजपुरी बोलनेवालों की संख्या सबसे अधिक है। इसमें प्राचीन साहित्य तो नहीं मिलता पर ग्रामगीतों के अतिरिक्त वर्तमान काल में कुछ साहित्य रचने का प्रयत्न भी हो रहा है। मगही के केंद्र पटना और गया हैं। इसके लिए कैथी लिपि का व्यवहार होता है। पर आधुनिक मगही साहित्य मुख्यतः देवनागरी लिपि में लिखी जा रही है। मगही का आधुनिक साहित्य बहुत समृद्ध है और इसमें प्रायः सभी विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन हुआ है।
मैथिली
मैथिली एक स्वतंत्र भाषा है जो संस्कृत के करीब होने के कारण हिंदी से मिलती जुलती लगती है। मैथिली हिंदी की अपेक्षा बांग्ला के अधिक निकट है। मैथिली गंगा के उत्तर में दरभंगा के आसपास प्रचलित है। इसकी साहित्यिक परंपरा पुरानी है। विद्यापति के पद प्रसिद्ध ही हैं। मध्ययुग में लिखे मैथिली नाटक भी मिलते हैं। आधुनिक काल में भी मैथिली का साहित्य निर्मित हो रहा है। मैथिली भाषा भारत और नेपाल के संविधान में राजभाषा के रूप में भी दर्ज है। नेपाल में दूसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा मैथिली है।
राजस्थानी
राजस्थानी का प्रसार पंजाब के दक्षिण में है। यह पूरे राजपूताने और मध्य प्रदेश के मालवा में बोली जाती है। राजस्थानी का संबंध एक ओर ब्रजभाषा से है और दूसरी ओर गुजराती से। पुरानी राजस्थानी को डिंगल कहते हैं। जिसमें चारणों का लिखा हिंदी का आरंभिक साहित्य उपलब्ध है। राजस्थानी में गद्य साहित्य की भी पुरानी परंपरा है। राजस्थानी की चार मुख्य बोलियाँ या विभाषाएँ हैं- मेवाती, मालवी, जयपुरी और मारवाड़ी। मारवाड़ी का प्रचलन सबसे अधिक है। राजस्थानी के अंतर्गत कुछ विद्वान्‌ भीली को भी लेते हैं।
पहाड़ी
पहाड़ी उपभाषा राजस्थानी से मिलती जुलती हैं। इसका प्रसार हिंदी प्रदेश के उत्तर हिमालय के दक्षिणी भाग में नेपाल से शिमला तक है। इसकी तीन शाखाएँ हैं - पूर्वी, मध्यवर्ती और पश्चिमी। पूर्वी पहाड़ी नेपाल की प्रधान भाषा है जिसे नेपाली और परंबतिया भी कहा जाता है। मध्यवर्ती पहाड़ी कुमायूँ और गढ़वाल में प्रचलित है। इसके दो भेद हैं - कुमाउँनी और गढ़वाली। ये पहाड़ी उपभाषाएँ नागरी लिपि में लिखी जाती हैं। इनमें पुराना साहित्य नहीं मिलता। आधुनिक काल में कुछ साहित्य लिखा जा रहा है। कुछ विद्वान्‌ पहाड़ी को राजस्थानी के अंतर्गत ही मानते हैं। पश्चिमी पहाड़ी हिमाचल प्रदेश में बोली जाती है। इसकी मुख्य उपबोलियों में मंडियाली, कुल्लवी, चाम्बियाली, क्योँथली, कांगड़ी, सिरमौरी, बघाटी और बिलासपुरी प्रमुख हैं।
प्रयोग-क्षेत्र के अनुसार वर्गीकरण
हिन्दी भाषा का भौगोलिक विस्तार काफी दूर–दूर तक है जिसे तीन क्षेत्रों में विभक्त किया जा सकता है:-
(क) हिन्दी क्षेत्र – हिन्दी क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यत: सत्रह बोलियाँ बोली जाती हैं, जिन्हें पाँच बोली वर्गों में इस प्रकार विभक्त कर के रखा जा सकता है- पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, पहाड़ी हिन्दी और बिहारी हिन्दी।
(ख) अन्य भाषा क्षेत्र– इनमें प्रमुख बोलियाँ इस प्रकार हैं- दक्खिनी हिन्दी (गुलबर्गी, बीदरी, बीजापुरी तथा हैदराबादी आदि), बम्बइया हिन्दी, कलकतिया हिन्दी तथा शिलंगी हिन्दी (बाजार-हिन्दी) आदि।
(ग) भारतेतर क्षेत्र – भारत के बाहर भी कई देशों में हिन्दी भाषी लोग काफी बड़ी संख्या में बसे हैं। सीमावर्ती देशों के अलावा यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, रुस, जापान, चीन तथा समस्त दक्षिण पूर्व व मध्य एशिया में हिन्दी बोलने वालों की बहुत बडी संख्या है। लगभग सभी देशों की राजधानियों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी एक विषय के रूप में पढी-पढाई जाती है। भारत के बाहर हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ – ताजुज्बेकी हिन्दी, मारिशसी हिन्दी, फीज़ी हिन्दी, सूरीनामी हिन्दी आदि हैं।
हिंदी प्रदेशों की हिंदी बोलियाँ
पश्चिमी हिंदी
खड़ी बोली-देहरादून,सहारनपुर,मुजफ्फरनगर,मेरठi,बिजनौर,रामपुर और मुरादाबाद।
बृजभाषा-आगरा,मथुरा,अलीगढ़,मैनपुरी,एटा,हाथरस,बदायूं,बरेली,धौलपुर।
हरियाणवी-हरियाणा और दिल्ली का देहाती प्रदेश।
बुंदेली-झांसी,जालौन,हमीरपुर,ओरछा,सागर,नृसिंहपुर, सिवनी,होशंगाबादल
कन्नौजी : उत्तर प्रदेश के इटावा, फ़र्रूख़ाबाद, शाहजहांपुर, कानपुर, हरदोई और पीलीभीत, जिलों के ग्रामीणांचल में बहुतायत से बोली जाती है।
पूर्वी हिंदी
अवधी - कानपुर, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फतेहपुर, अयोध्या, गोंडा, प्रयागराज, जौनपुर, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर जिले।
बघेली - रीवा, सतना, मैहर, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर, सीधी, नागौद।
छत्तीसगढ़ी - बिलासपुर, दुर्ग, रायपुर, रायगढ़, नांदगांव, कांकेर, महासमुंद, सरगुजा, कोरिया।
राजस्थानी - मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी आदि। 
पहाड़ी - पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमाऊंनी और गढ़वाली), पश्चिमी पहाड़ी (हिमाचल प्रदेश की बोलियाँ मंडियाली, कुल्लुई, सिरमौरी, किरनी आदि)।
बिहारी भाषा - भोजपुरी, मगही, कैथी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया आदि। 
हिंदीतर प्रदेशों की हिंदी बोलियाँ
बंबइया हिंदी, कलकतिया हिंदी, दक्खिनी हिंदी। 
विदेशों में बोली जाने वाली हिंदी बोलियाँ
उजबेकिस्तान, मारिशस, फिजी, सूरीनाम, मध्यपूर्व, ट्रिनिदाद और टोबैगो, दक्षिण अफ्रीका। 
भारत में भाषा सर्वे
हिंदी भारत के उत्तरी हिस्सों में ही नहीं, पूरे भारत में भी सबसे व्यापक बोली जानेवाली भाषा है। भारतीय जनगणना "हिंदी" की व्यापक विविधता के रूप में "हिंदी" की व्यापक संभव परिभाषा लेती है। २०११ की जनगणना के अनुसार, ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित कर दिया है। भाषिक आँकड़े २६ जून २०१८ को जारी किए गए थे। भिली / भिलोदी १.०४ करोड़ वक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली गैर अनुसूचित भाषा थी, इसके बाद गोंडी २९ लाख वक्ताओं के साथ थीं। भारत की जनगणना २०११ में भारत की आबादी का ९७.७१%, २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक अपनी मातृभाषा के रूप में बोलता है।
बोलने वालों की संख्या के आधार पर प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाषाएँ (२०११ की जनगणना) जारी किया गया २६-६-२०१८ 
भाषाप्रथम भाषाभाषीप्रथम भाषाभाषी
कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में
द्वितीय भाषाभाषी (करोड़ में)तृतीय भाषाभाषी (करोड़ में)सभी भाषाभाषी (i करोड़ में)कुल जनसंख्या के प्रतिशत
के रूप में कुल भाषाभाषी
हिंदी५२,८३,४७,१९३४३.६३१३.९०  २.४०  ६९.२० ५७.१० 
अंग्रेज़ी२,५९,६७८ ०.०२ ८.३० ४.६० १२.९० १०.६० 
बंगाली९,७२,३७, ६६९८.३० ०.९० ०.१०10.7८.९० 
मराठी८, ३०,२६,६८०७.०९ १.३० ०.३० 9.9८.२० 
तेलुगू८,११,२७,७४० ६.९३ १.२० ०.१०७.८० 
तमिल६९०, २६,८८१ ५.८९ ०.७० ०.१०७.७० ६.३० 
गुजराती५.५४.९२,५५४ ४.७४ ०.४० ०.१०६.०० ५.०० 
उर्दू५,०७,७२,६३१ ४.३४ १.१० ०.१० ६.३० ५.२० 
कन्नड़४,३७,०६,५१२ ३.७३ १.४० ०.१० ५.९०  ४.९४ 
ओड़िया३,७५,२१,३२४ ३.२० ०.५० ३,१९,५२५ ४.३०  ३.५६ 
मलयालम३,४८,३८,८१९ २.९७४,९९,१८८ १,९५,८८५ ३,३७,६१,४६५ ३.२८ 
पंजाबी३,३१,२४,७२६ २.८३ ३२,७२,१५१ ३,१९,५२५ ३, ६६,०९,१२२३.५६ 
संस्कृत२४,८२१ <०.०१ १२,३४,९३१ ३७,४२,२२३ ४९,९१,२८९ ०.४९ 

वर्ष १९६१ की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग १६५२ भाषाएँ थीं। लेकिन वर्ष १९७१ तक इनमें से केवल ८०८ भाषाएँ ही बची थीं। वर्तमान में भारत सरकार केवल उन भाषाओं को मान्यता देती है जिसकी अपनी एक लिपि हो तथा व्यापक स्तर पर बोली जाती हो। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा १२२ भाषाओं को मान्यता दी गई है जो भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण द्वारा आकलित ७८० भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।
भाषाओँ-बोलिओं का संरक्षण क्यों और कैसे? 
वर्तमान में सर्वाधिक जटिल समस्या यह है कि भाषाओँ-बोलिओं को नष्ट होने से क्यों और कैसे बचाया जाए? इनमें से प्रथम प्रश्न का उत्तर जितना सरल है, दूसरे प्रश्न का उत्तर उतना ही जटिल है। 
भाषाओँ-बोलिओं को बचाना इसलिए आवश्यक है कि वे लोक संस्कृति व लोक सभ्यता की वाहक और प्रवाचक हैं। हर भाषा-बोली अपने शब्द भंडार में तात्कालिक समय के साक्ष्य समेटे होती है। शब्दों में निहित अर्थ समय सापेक्ष होते हैं। भाषा में मानव संस्कार, व्यवहार, आचार-विचार आदि अन्तर्निहित होते हैं। इसलिए भाषा और उसके शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, लोक कथाओं आदि को पुरातत्व, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता ही नहीं  विज्ञान और धर्म की दृष्टि से भी आवश्यक है। 
भाषाओँ-बोलिओं को बचने में सर्वाधिक बाधक उस भाषा-बोली को बोलनेवाले आम लोगों का दुहरा आचरण है। हम रोजगार मिलने की मृगतृष्णा में अपने बच्चों को विदेशी भाषा पढ़ाएँ और सरकारों या अन्य भाषा-भाषियों से चाहें कि वे हमारी भाषा-बोली की रक्षा करें तो यह असंभव है। पहले यह समझें कि भाषा से संस्कार और ज्ञान मिलता है। संस्कार से सामाजिक और पारिवारिक संरचना सुरक्षित होती है। ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से व्यवसाय मिलता है। मनोवैज्ञनिकों के अनुसार बच्चा अपनी मातृभाषा में अत्यधिक सरलता से सीखता है। शिशु ५ वर्ष की आयु तक जितना सीख लेता है उतना शेष पूरे जीवन में भी नहीं सीखता। अत:, शिशुओं और बच्चों को केवल और केवल मातृभाषा में ही शिक्षित किया जाना परमावश्यक है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के सर्वाधिक उन्नत १० देश वे हैं जिनमें शिक्षा माँ मध्यान स्वभाषा है। इनमें रूस, चीन, जापान, जर्मनी आदि हैं। दूसरी और दुनिया के १० सर्वाधिक पिछड़े १० देश वे हैं जिनमें शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा है। ये सभी अतीत में किसी अन्य देश के गुलाम रहे हैं। राजनैतिक आज़ादी भी इन्हें मानसिक दासता से मुक्त नहीं करा सकी। ऐसे ही स्थिति दुर्भाग्य से भारत की भी है। मैंने अंग्रेजी माध्यम से अभियांत्रिकी शिक्षा पाते समय भाषा के कारण ही विषय को दुरूह होते पाया है। ४० से अधिक वर्षों तक अभियंता के रूप में ९०% कार्य और संभाषण हिंदी में ही किया। यही स्थिति चिकित्सकों, वकीलों, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों, व्यापारियों आदि की भी है। देश में हिंदी भाषा-भाषी ५७-१०% हैं तो अंग्रेजी भाषा-भाषी मात्र १०.६०% हैं तथापि देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। यदि स्वतंत्रता के तुरंत बाद हम स्वदेशी भाषाओँ को उच्च शिक्षा का माध्यम बना सके होते तो आज विश्व जे सर्वोन्नत देशों में होते। 
भारत में जीतनी भाषाएँ-वोलियाँ हैं उन सबको सीखना या पढ़ाया जाना कदापि संभव नहीं है। अधिकाँश में शब्द भण्डार अत्यल्प है। अविकसित बोलिओं के शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, ध्वनि संकेतों को हिंदी शब्द कोष में सम्मिलित कर, साहित्यकारों द्वारा उनका उपयोग कर उन्हें काल के गाल में जाने से बचाया जा सकता है। पर्याप्त विकसित  भाषाओँ-बोलिओं को एक मानक लिपि में लिखा जाए तो हर भाषा-भाषी अन्य भाषाओँ को पढ़ सकेगा और क्रमश: उसका अर्थ समझने लगेगा। दुर्भाग्यवश हम अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्द ग्रहण नहीं करते जबकि विदेशी शब्द हमारी जिंदगी में हर दिन बढ़ते जाते हैं। हम अपने पहले की दो पीढ़ियों से तुलना करें तो समझ सकते हैं कि हमारे पितामह और पिता की तुलना में हम कितने अधिक विदेश शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं यदि यह गति आगामी दो पीढ़ी और जारी रहे तो हमारे पोते-पड़पोते केवल विदेशी भाषा हो बोलेंगे-समझेंगे। स्वदेशी भाषाओँ-बोलिओं को बचने का एक मात्र उपाय हम आम लोगों के पास ही है, वह यह कि हम स्वभाषा को दैनिक प्रयोग में लाएँ। बच्चों से केवल स्वभाषा में बात करें और अन्य भाषाओँ-बोलिओं को अधिकाधिक पढ़ें। हमारे बच्चों के विवाह होते हैं तो दामाद या बहुएँ देश के जिस अंचल से आएँ, उस अंचल की भाषा-बोली, रीति-रिवाज हम जान-समझ और अपना लें तो नए संबंधियों से मन मिलते देर नहीं लगेगी। बच्चों को आजीविका हेतु देश के जिस भाग में जाना पड़े, वह वहां की भाषा और रीति-रिवाज जान कर जाए तो आसानी से वहां के लोगों से घुल-मिल सकेगा। 
सरकारों और विश्वविद्यालयों से से भाषाओँ-बोलिओं के उन्नयन की अपेक्षा कतई न करें। नेता राजनैतिक स्वार्थवश भाषा के नाम पर लड़ाएँगे। प्राध्यापक वर्ग अपन ज्ञान के अहंकार के कारण भाषा का नियंता बनकर मनमाने मानक थोपने का प्रयास करेंगे। भाषाओँ-बोलिओं का जनक लोक अर्थात आम आदमी होता है। वह अपनी आवश्यकतानुसार नए-नए शब्द गढ़ता-बोलता है जिससे भाषा समृद्ध होती है। यह आम आदमी ही भाषाओँ-बोलिओं को बचा और बढ़ा सकता है। आइए, हम सब ईमानदारी से स्वदेशी भाषाओँ-बोलिओं को एक लिपि में लिखने, पढ़ने-समझने, व्यवहार में लाने की राह पर चल पड़ें।शेष बढ़ाएं और कठनाइयां खुद-बखुद खत्म होती जाएँगी।    

***
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व अवनि हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४  



कड़ियाँ
हिन्दी भाषा क्षेत्र (प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
हिंदी लोक शब्दकोश परियोजना
हिन्दी की बोलियों के शब्दकोश
हिन्दी की बोलियों की विस्तृत सूची (संस्कृति_यूके)
हिंदी के टूटने से देश की भाषिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी (करुणाशंकर उपाध्याय ; 27/07/2017)
बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध क्यों हो रहा है? (अमरनाथ ; 21/07/2017)


भारत में भाषा सर्वे
हिंदी भारत के उत्तरी हिस्सों में ही नहीं, पूरे भारत में भी सबसे व्यापक बोली जानेवाली भाषा है। भारतीय जनगणना "हिंदी" की व्यापक विविधता के रूप में "हिंदी" की व्यापक संभव परिभाषा लेती है।[३] २०११ की जनगणना के अनुसार, ४३.६३% भारतीय लोगों ने हिंदी को अपनी मूल भाषा या मातृभाषा घोषित कर दिया है।[४] भाषिक आँकड़े २६ जून २०१८ को जारी किए गए थे।[५] भिली / भिलोदी १.०४ करोड़ वक्ताओं के साथ सबसे ज्यादा बोली जाने वाली गैर अनुसूचित भाषा थी, इसके बाद गोंडी २९ लाख वक्ताओं के साथ थीं। भारत की जनगणना २०११ में भारत की आबादी का ९७.७१%, २२ अनुसूचित भाषाओं में से एक अपनी मातृभाषा के रूप में बोलता है।
बोलने वालों की संख्या के आधार प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय भाषाएँ (2011 की जनगणना)
भाषाप्रथम भाषाभाषी[6]प्रथम भाषाभाषी
कुल जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में
द्वितीय भाषाभाषी (करोड़ में)तृतीय भाषाभाषी (करोड़ में)सभी भाषाभाषी (in करोड़ में)[7][8]कुल जनसंख्या के प्रतिशत
के रूप में कुल भाषाभाषी
हिंदी52,83,47,19343.6313.92.469.257.10
अंग्रेज़ी2,59,6780.028.34.612.910.60
बंगाली9,72,37,6698.300.90.110.78.90
मराठी8,30,26,6807.091.30.39.98.20
तेलुगू8,11,27,7406.931.20.19.57.80
तमिल6,90,26,8815.890.70.17.76.30
गुजराती5,54,92,5544.740.40.16.05.00
उर्दू5,07,72,6314.341.10.16.35.20
कन्नड़4,37,06,5123.731.40.15.94.94
ओड़िया3,75,21,3243.200.5319,5254.33.56
मलयालम3,48,38,8192.97499,188195,88533,761,4653.28
पंजाबी3,31,24,7262.833,272,151319,52536,609,1223.56
संस्कृत24,821<0.011,234,9313,742,2234,991,2890.49

दस लाख से कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ[संपादित करें]

बोलने वालेप्रतिशत
23खानदेशी973,7090.116%
24हो949,2160.113%
25खासी912,2830.109%
26मुंडारी861,3780.103%
27कोकबराक भाषा694,9400.083%
28गारो675,6420.081%
29कुई641,6620.077%
30मीज़ो538,8420.064%
31हलाबी534,3130.064%
32कोरकू466,0730.056%
33मुंडा413,8940.049%
34मिशिंग390,5830.047%
35कार्बी/मिकिर366,2290.044%
36सावरा273,1680.033%
37कोया भाषा270,9940.032%
38खड़िया225,5560.027%
39खोंड220,7830.026%
40अँग्रेजी178,5980.021%
41निशी173,7910.021%
42आओ172,4490.021%
43सेमा166,1570.020%
44किसान162,0880.019%
45आदी158,4090.019%
46रभा139,3650.017%
47कोन्याक137,7220.016%
48माल्तो भाषा108,1480.013%
49थाड़ो107,9920.013%
50तांगखुल101,8410.012%



वर्ष १९६१ की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग १६५२ भाषाएँ थीं। लेकिन वर्ष १९७१ तक इनमें से केवल ८०८ भाषाएँ ही बची थीं।
वर्तमान में भारत सरकार केवल उन भाषाओं को मान्यता देती है जिसकी अपनी एक लिपि हो तथा व्यापक स्तर पर बोली जाती हो। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा १२२ भाषाओं को मान्यता दी गई है जो भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण द्वारा आकलित ७८० भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।
इस विसंगति का एक प्रमुख कारण यह भी है कि भारत सरकार ऐसी किसी भाषा को मान्यता नहीं देती जिसे बोलने वालों की संख्या १०,००० से कम है।
यूनेस्को द्वारा अपनाए गए मानदंडों के अनुसार, कोई भाषा तब विलुप्त हो जाती है जब कोई भी व्यक्ति उस भाषा को नहीं बोलता है या याद रखता है। यूनेस्को ने लुप्तप्राय के आधार पर भाषाओं को निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया है:-
सुभेद्य (Vulnerable)
निश्चित रूप से लुप्तप्राय (Definitely Endangered)
गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Severely Endangered)
गंभीर संकटग्रस्त (Critically Endangered)
यूनेस्को ने ४२ भारतीय भाषाओं को गंभीर रूप से संकटग्रस्त माना है।
पतन के कारण:
भारत सरकार द्वारा १०,००० से कम लोगों द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषाओं को मान्यता नहीं दी जाती है।
समुदायों की प्रवासन एवं आप्रवासन की प्रवृत्ति के कारण पारंपरिक बसावट में कमी आती जा रही है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं को नुकसान पहुँचता है।
रोज़गार के प्रारूप में परिवर्तन बहुसंख्यक भाषाओं का पक्षधर है।
सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन।
‘व्यक्तिवाद’ की प्रवृत्ति में वृद्धि होना, समुदाय के हित से ऊपर स्वयं के हित को प्राथमिकता दिये जाने से भाषाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पारंपरिक समुदायों में भौतिकवाद का अतिक्रमण जिसके चलते आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य उपभोक्तावाद से प्रभावित होते है।
क्या किये जाने की आवश्यकता है?
भाषा के अस्तित्त्व को सुरक्षित रखने का सबसे बेहतर तरीका ऐसे विद्यालयों का विकास करना है जो अल्पसंख्यकों की भाषा (जनजातीय भाषाएँ) में शिक्षा प्रदान करते हैं। यह भाषा का संरक्षण करने और उसे समृद्ध बनाने में वक्ताओं को सक्षम बनाता है।
भारत की संकटग्रस्त भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिये प्रोजेक्ट टाइगर की तर्ज पर एक विशाल डिजिटल परियोजना शुरू की जानी चाहिये।
ऐसी भाषाओं के महत्त्वपूर्ण पहलुओं जैसे- कथा निरूपण, लोकसाहित्य तथा इतिहास आदि का श्रव्य दृश्य/ऑडियो विज़ुअल प्रलेखन (Documentation) किया जाना चाहिये।
इस तरह के प्रलेखन प्रयासों कोण बढ़ाने के लिये ग्लोबल लैंग्वेज हॉटस्पॉट्स (Global Language Hotspots) जैसी अभूतपूर्व पहल के मौजूदा लेखन कार्यों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण के लिये योजना (SPPEL)
Scheme for Protection and Preservation of Endangered Languages (SPPEL)
इसकी स्थापना वर्ष २०१३ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा की गई थी।
इस योजना का एकमात्र उद्देश्य देश की ऐसी भाषाओं का दस्तावेज़ीकरण करना और उन्हें संग्रहित करना है जिनके निकट भविष्य में लुप्तप्राय या संकटग्रस्त होने की संभावना है।
इस योजना की निगरानी कर्नाटक के मैसूर में स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (Central Institute of Indian Languages-CIIL) द्वारा की जाती है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission-UGC) अनुसंधान परियोजनाओं को शुरू करने के लिये केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिये केंद्र स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
इस योजना के अधीन केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान देश में 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी मातृभाषाओं और भाषाओं की सुरक्षा, संरक्षण एवं प्रलेखन का कार्य करता है।
केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान
Central Institute of Indian Languages- CIIL
मैसूर में स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान मानव संसाधन विकास मंत्रालय का एक अधीनस्‍थ कार्यालय है।
इसकी स्‍थापना वर्ष १९६९ में की गई थी।
यह भारत सरकार की भाषा नीति को तैयार करने, इसके कार्यान्‍वयन में सहायता करने, भाषा विश्‍लेषण, भाषा शिक्षा शास्‍त्र, भाषा प्रौद्योगिकी तथा समाज में भाषा प्रयोग के क्षेत्रों में अनुसंधान द्वारा भारतीय भाषाओं के विकास में समन्‍वय करने हेतु स्‍थापित की गई है।
इसके अंतर्गत इनके उद्देश्‍यों को बढ़ावा देने के लिये यह बहुत से कार्यक्रमों का आयोजन करता है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
भारतीय भाषाओं का विकास
क्षेत्रीय भाषा केंद्र
सहायता अनुदान योजना
राष्‍ट्रीय परीक्षण सेवा





१. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (७-१-१८५१-१९४१) अंग्रेजों के जमाने में "इंडियन सिविल सर्विस" के कर्मचारी, बहुभाषाविद् और आधुनिक भारत में भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले पहले भाषावैज्ञानिक थे। ग्रियर्सन १८७० के लगभग आई.सी.एस. होकर भारत आये। वे बंगाल और बिहार के कई उच्च पदों पर १८९९ तक कार्यरत रहे। फिर वापस आयरलैंड चले गये। भारत में रहते हुए ग्रियर्सन ने कई क्षेत्रों में काम किया। तुलसीदास और विद्यापति के साहित्य का महत्त्व प्रतिपादित करनेवाले वे सम्भवतः पहले अंग्रेज विद्वान थे। हिन्दी क्षेत्र की बोलियों के लोक साहित्य (गीत-कथा) का संकलन और विश्लेषण करनेवाले कुछेक विद्वानों में भी ग्रियर्सन अग्रिम पंक्ति के विद्वानों में थे। भारतीय विद्याविशारदों में, विशेषतः भाषाविज्ञान के क्षेत्र में, उनका स्थान अमर है। वे "लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया" के प्रणेता के रूप में अमर हैं। ग्रियर्सन को भारतीय संस्कृति और यहाँ के निवासियों के प्रति अगाध प्रेम था। भारतीय भाषाविज्ञान के वे महान उन्नायक थे। नव्य भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन की दृष्टि से उन्हें बीम्स, भांडारकर और हार्नली के समकक्ष रखा जा सकता है। एक सहृदय व्यक्ति के रूप में भी वे भारतवासियों की श्रद्धा के पात्र बने। -विकीपीडिया।
२. प्रेम सागर, लल्लू लाल जी, ३. ग्रामीण हिंदी, धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ १०, ४. अमीर खुसरो-ता-ग़ज़ल २०००, बशीर बद्र,

नवगीत

नवगीत
*
दर्द होता है
मगर
चुपचाप सहता।
*
पीर नदियों की
सुनाते घाट देखे।
मंज़िलों का दर्द
कहते ठाठ लेखे।
शूल पैरों को चुभे
कितने, कहाँ, कब?
मौन बढ़ता कदम
चुप रह
नहीं कहता?
*
चूड़ियों की कथा
पायल ने कही है।
अचकनों की व्यथा
अनसुन ही रही है।
मर्द को हो दर्द
जग कहता, न होता
शिला निष्ठुर मौन
झरना
पीर तहता।
*
धूप को सब चाहते
सूरज न भाता।
माँग भर सिंदूर
अनदेखा लजाता।
सौंप देता गृहस्थी
लेता न कुछ भी
उठाता नखरे
उपेक्षित
नित्य दहता।
*
संजीव
३.११.२०१८
९४२५१८३२४४

मुक्तक, दोहा

कार्यशाला ३२
मुक्तक लिखें
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों?
*
उदाहरण-
आज की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों?
तोड़ती चिड़िया स्वयं ही नीड़ क्यों?
जी रही 'लिव इन रिलेशन' खुद सुता
मायके की उठे मन में हीड़ क्यों?
*
टीप- हीड़ = याद
शब्द की पंक्ति हुई है भीड़ क्यों, यह कौन जाने?
समय है बेढब, न सच्ची बात कोई सुने-माने
कल्पना का क्या कभी आकाश, भू छूती कभी है
प्रेरणा मिथलेश सी हो विनीता मति, ध्येय ठाने
*
मुक्तक 
वामन दर पर आ विराट खुशियाँ दे जाए 
बलि के लुटने से पहले युग जय गुंजाए 
रूप चतुर्दशी तन-मन निर्मल कर नव यश दे 
पंच पर्व है; प्राण-वर्तिका तम पी पाए
*
दोहा

दोहा दिवाली
*
मृदा नीर श्रम कुशलता, स्वेद गढ़े आकार।
बाती डूबे स्नेह में, ज्योति हरे अँधियार।।
*
तम से मत कर नेह तू, झटपट जाए लील।
पवन झँकोरों से न डर, जल बनकर कंदील।।
*
संसद में बम फूटते, चलें सभा में बाण।
इंटरव्यू में फुलझड़ी, सत्ता में हैं प्राण।।
*
पति तज गणपति सँग पुजें, लछमी से पढ़ पाठ।
बाँह-चाह में दो रखे, नारी के हैं ठाठ।।
*
रिद्धि-सिद्धि, हरि की सुने, कोई न जग में पीर।
छोड़ गए साथी धरें, कैसे कहिए धीर।।
*
सदा रहें समभाव से, सभी अपेक्षा त्याग।
भुला उपेक्षा दें तुरत, दिया रखे अनुराग।।
*

दया उसी पर कीजिए, जो मन से विकलांग
तन तो माटी में मिले, कोई रचा ले स्वांग
*
माटी है तो दीप बन, पी जा सब अँधियार
इंसां है तो ते सीप सम, दे मुक्ता हर बार
*
व्यर्थ पटाखे फोड़कर, क्यों करता है शोर
मौन-शांति की राह चल, ऊगे उज्जवल भोर
*
दोहा दीप
*
अच्छे दिन के दिए का, ख़त्म हो गया तेल
जुमलेबाजी हो गयी, दो ही दिन में फेल
*
कमल चर गयी गाय को, दुहें नितीश कुमार
लालू-राहुल संग मिल, खीर रहे फटकार
*
बड़बोलों का दिवाला, छुटभैयों को मार
रंग उड़े चेहरे झुके, फीका है त्यौहार
*
मोदी बम है सुरसुरी, नितिश बाण दमदार
अमित शाह चकरी हुए, लालू रहे निहार
*
पूँछ पकड़ कर गैर की, बिसरा मन का बैर
मना रही हैं सोनिया, राहुल की हो खैर
*
शत्रु बनाकर शत्रु को, चारों खाने चित्त
हुए, सुधारो भूल अब. बात बने तब मित्त
*
दूर रही दिल्ली हुआ, अब बिहार भी दूर
हारेंगे बंगाल भी, बने रहे यदि सूर
*
दीवाला तो हो गया, दिवाली से पूर्व
नर से हार नरेंद्र की, सपने चकनाचूर
*
मीसा से विद्रोह तब, अब मीसा से प्यार
गिरगिट सम रंग बदलता, जब-तब अजब बिहार
***
संजीव, ३.११.२०१५
९४२५१८३२४४

समीक्षा स्वाति तिवारी

पुस्तक सलिला –
‘मेरी प्रिय कथाएँ’ पारिवारिक विघटन की व्यथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मेरी प्रिय कथाएँ, स्वाति तिवारी, कहानी संग्रह, प्रथम संस्करण २०१४, ISBN९७८-८३-८२००९-४९-८, आकार २२ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ १३२, मूल्य २४९/-, ज्योतिपर्व प्रकाशन, ९९ ज्ञान खंड ३, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद २०१०१२, दूरभाष९८११७२११४७, कहानीकार सम्पर्क ई एन १ / ९ चार इमली भोपाल, चलभाष ९४२४०११३३४ stswatitiwari@gmail.com ]
*
स्वाति तिवारी लिखित २० सामयिक कहानियों का संग्रह ‘मेरी प्रिय कथाएँ’ की कहानियाँ प्रथम दृष्टया ‘स्त्री विमर्शात्मक’ प्रतीत होने पर भी वस्तुत: पारिवारिक विघटन की व्यथा कथाएँ हैं. परिवार का केंद्र सामान्यत: ‘स्त्री’ और परिधि ‘पुरुष’ होते हैं जिन्हें ‘गृह स्वामिनी’ और गृह स्वामी’ अथवा ‘लाज और ‘मर्यादा कहा जाता है. कहानी किसी केन्द्रीय घटना या विचार पर आधृत होती है इसलिए बहुधा नारी पात्र और उनके साथ हुई घटनाओं का वर्णन इन्हें स्त्रीप्रधान बनाता है. स्वाति बढ़ाई की पात्र इसलिए हैं कि ये कहानियाँ ‘स्त्री’ को केंद्र में रखकर उसकी समस्याओं का विचारण करते हुए भी कहीं एकांगी, अश्लील या वीभत्स नहीं हैं, पीड़ा की गहनता शब्दित करने के लिए उन्हें पुरुष को नाहक कटघरे में खड़ा करने की जरूरत नहीं होती. वे सहज भाव से जहाँ-जितना उपयुक्त है उतना ही उल्लेख करती हैं. इन कहानियों का वैशिष्ट्य संश्लिष्ट कथासूत्रता है.
अत्याधुनिकता के व्याल-जाल से पाठकों को सचेष्ट करती ये कहानियाँ परिवार की इकाई को परोक्षत: अपरिहार्य मानती-कहती ही सामाजिककता और वैयक्तिकता को एक-दूसरे का पर्याय पति हैं. यह सनातन सत्य है की समग्रत: न तो पुरुष आततायी है, न स्त्री कुलटा है. दोनों में व्यक्ति विशेष अथवा प्रसंग विशेष में व्यक्ति कदाचरण का निमित्त या दोषी होता है. घटनाओं का सामान्यीकरण बहुधा विवेचना को एकांगी बना देता है. स्वाति इससे बच सकी हैं. वे स्त्री की पैरोकारी करते हुए पुरुष को लांछित नहीं करतीं.
प्रथम कहानी ‘स्त्री मुक्ति का यूटोपिया’ की नायिका के माध्यम से तथाकथित स्त्री-मुक्ति अवधारणा की दिशाहीनता को प्रश्नित करती कहानीकार ‘स्त्री मुक्ति को दैहिक संबंधों की आज़ादी मानने की कुधारणा’ पर प्रश्न चिन्ह लगाती है.
‘रिश्तों के कई रंग’ में ‘लिव इन’ में पनपती अवसरवादिता और दमित होता प्रेम, ‘मृगतृष्णा’ में संबंध टूटने के बाद का मन-मंथन, ‘आजकल’ में अविवाहित दाहिक सम्बन्ध और उससे उत्पन्न सन्तति को सामाजिक स्वीकृति, ‘बंद मुट्ठी’ में आत्मसम्मान के प्रति सचेष्ट माँ और अनुत्तरदायी पुत्र, ‘एक फलसफा जिंदगी’ में सुभद्रा के बहाने पैसे के लिए विवाह को माध्यम बनाने की दुष्प्रवृत्ति, ‘बूँद गुलाब जल की’ में पारिवारिक शोषण की शिकार विमला पाठकों के लिए कई प्रश्न छोड़ जाती हैं. विधवा विमला में बलात गर्भवती कर बेटा ले लेनेवाले परिवार के प्रति विरोधभाव का न होना और सुभद्रा और शीरीन में अति व्यक्तिवाद नारी जीवन की दो अतिरेकी किन्तु यथार्थ प्रवृत्तियाँ हैं.
‘अस्तित्व के लिए’ संग्रह की मार्मिक कथा है जिसमें पुत्रमोह की कुप्रथा को कटघरे में लाया गया है. मृत जन्मी बेटी की तुलना अभिमन्यु से किया जाना अप्रासंगिक प्रतीत होता है ‘गुलाबी ओढ़नी’ की बुआ का सती बनने से बचने के लिए ससुराल छोड़ना, विधवा सुंदर नन्द को समाज से बहाने के लिए भाभी का कठोर होना और फिर अपनी पुत्री का कन्यादान करना परिवार की महत्ता दर्शाती सार्थक कहानी है.
‘सच तो यह है कि आज फैक्ट और फिक्शन में कोई फर्क नहीं रह गया है- हम एक खबर की तरह हो गए हैं’, एक ताज़ा खबर कहानी का यह संवाद कैंसरग्रस्त पत्नी से मुक्तिचाहते स्वार्थी पति के माध्यम से समाज को सचेत करती है. ‘अचार’ कहानी दो पिरियों के बीच भावनात्मक जुड़ाव का सरस आख्यान है. ‘आजकल मैं बिलकुल अम्मा जैसी होती जा रही हूँ. उम्र का एक दौर ऐसा भी आता है जब हम ‘हम’ नहीं रहते, अपने माता-पिता की तरह लगने लगते हैं, वैसा ही सोचने लगते हैं’. यह अनुभव हर पाठक का है जिसे स्वाति जी का कहानीकार बयां करता है.
‘ऋतुचक्र’ कहानी पुत्र के प्रति माँ के अंध मोह पर केन्द्रित है. ‘उत्तराधिकारी’ का नाटकीय घटनाक्रम ठाकुर की मौत के बाद, नौकर की पत्नी से बलात-अवैध संबंध कर उत्पन्न पुत्र को विधवा ठकुरानी द्वारा अपनाने पर समाप्त होता है किन्तु कई अनसुलझे सवाल छोड़ जाता है. ‘बैंगनी फूलोंवाला पेड़’ प्रेम की सनातनता पर केन्द्रित है. ‘सदियों से एक ही लड़का है, एक ही लड़की है, एक ही पेड़ है. दोनों वहीं मिलते हैं, बस नाम बदल जाते हैं और फूलों के रंग भी. कहानी वही होती है. किस्से वही होते हैं.’ साधारण प्रतीत होता यह संवाद कहानी में गुंथकर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है. यही स्वाति की कलम का जादू है.
‘मुट्ठी में बंद चाकलेट’ पीटीआई के प्रति समर्पित किन्तु प्रेमी की स्मृतियों से जुडी नायिका के मानसिक अंतर्द्वंद को विश्लेषित करती है. ‘मलय और शेखर मेरे जीवन के दो किनारे बनकर रह गए और मैं दोनों के बीच नदी की तरह बहती रही जो किसी भी किनारे को छोड़े तो उसे स्वयं सिमटना होगा. अपने अस्तित्व को मिटाकर, क्या नदी किसी एक किनारे में सिमट कर नदी रह पाई है.’ भाषिक और वैचारिक संयम की तनिक सी चूक इस कहानी का सौन्दर्य नाश कर सकती है किन्तु कहानीकार ऐसे खतरे लेने और सफल होने में कुशल है. ‘एक और भीष्म प्रतिज्ञा’ में नारी के के प्रेम को निजी स्वार्थवश नारी ही असफल बनाती है. ‘स्वयं से किया गया वादा’ में बहु के आने पर बेटे के जीवन में अपने स्थान को लेकर संशयग्रस्त माँ की मन:स्थिति का वर्णन है. ‘चेंज यानी बदलाव’ की नायिका पति द्वारा विव्हेटर संबंध बनने पर उसे छोड़ खुद पैरों पर खड़ा हो दूसरा विवाह कर सब सुख पति है जबकि पति का जीवन बिखर कर रह जाता है. ‘भाग्यवती’ कैशौर्य के प्रेमी को माँ के प्रति कर्तव्य की याद दिलानेवाली नायिका की बोधकथा है. ‘नौटंकीवाली’ की नायिका किशोरावस्था के आकर्षण में भटककर जिंदगीभर की पीड़ा भोगती है किन्तु अंत तक अपने स्वजनों की चिंता करती है. कहानी के अंत का संवाद ‘सुनो, गाँव जाओ तो किसी से मत कहना’ अमर कथाकार सुदर्शन के बाबा भारती की याद दिलाता है जब वे दस्यु द्वारा छलपूर्वक घोडा हथियाने पर किसी से न कहने का आग्रह करते हैं.
स्वाति संवेदनशील कहानीकार है. उनकी कहानियों को पढ़ने-समझने के लिए पाठक का सजग और संवेदशील होना आवश्यक है. वे शब्दों का अपव्यय नहीं करती. जितना और जिस तरह कहना जरूरी है उतना और उसी तरह कह पाती न. उनके पात्र न तो परंपरा के आगे सर झुकाते हैं, न लक्ष्यहीन विद्रोह करते हैं. वे सामान्य बुद्धिमान मनुष्य की तरह आचरण करते हुए जीवन का सामना करते हैं. ये कहानियों पाठक के साथ नवोदित कहानिकारें के सम्मुख भी एक प्रादर्श की तरह उपस्थित होती हैं. स्वाति सूत्रबद्ध लेखन में नहीं उन्मुक्त शब्दांकन में विश्वास रखती है. उनका समग्रतापरक चिंतन कहानियों को सहज ग्राह्य बनाता है. पाठक उनके अगले कहानी संग्रह की प्रतीक्षा करेंगे ही.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

कविता: दिया

कविता:
दिया १
संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला।
फिर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
होठों को नहीं सिला,
न किया शिकवा गिला।
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया।
इसीलिए तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया।
***

दिया २
*
दिया
राजनीति का,
लोकतंत्र की
झोपड़ी को जला रहा है।
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है।
जब तक जनता
मूक हो देखती जाएगी।
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चर जाएगी।
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब।
बहुत अँधेरा देखा
दिया एक जलाओ अब।
***

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

"काल है संक्रांति का" रामदेव लाल 'विभोर'

पुस्तक चर्चा-
नवगीत के निकष पर "काल है संक्रांति का"
रामदेव लाल 'विभोर'
*
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र. दूरभाष ०७६१ २४१११३१, प्रकाशन वर्ष २०१६, मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, कवि संपर्क चलभाष ९४२५१८३२४४, दूरलेख salil.sanjiv@gmail.com ]
*
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' विरचित गीत-कृति "काल है संक्रांति का" पैंसठ गीतों से सुसज्जित एक उत्तम एवं उपयोगी सर्जना है। इसे कृतिकार ने गीत व नवगीत संग्रह स्वयं घोषित किया है। वास्तव में नवगीत, गीत से इतर नहीं है किन्तु अग्रसर अवश्य है। अब गीत की अजस्र धारा वैयक्तिकता व अध्यात्म वृत्ति के तटबन्ध पर कर युगबोध का दामन पकड़कर चलने लगी है। गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप ने उसे 'नवगीत' नामित किया है। युगानुकूल परिवर्तन हर क्षेत्र में होता आ रहा है। अत:, गीतों में भी हुआ है। नवगीत में गीत के कलेवर में नयी कविता के भाव-रंग दिखते हैं। नए बिंब, नए उपमान, नए विचार, नयी कहन, वैशिष्ट्य व देश-काल से जुडी तमाम नयी बातों ने नवगीत में भरपूर योगदान दिया है। नवगीत प्रियतम व परमात्मा की जगह दीन-दुखियों की आत्मा को निहारता है जिसे दीनबन्धु परमात्मा भी उपयुक्त समझता होगा।
स्वर-देव चित्रगुप्त तथा वीणापाणी वंदना से प्रारंभ प्रस्तुत कृति के गीतों का अधिकांश कथ्य नव्यता का पक्षधर है। अपने गीतों के माध्यम से कृतिकार कहता है कि 'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती' है और 'गेयता संवेदनों का गान करती' है। नवगीत को एक प्रकार से परिभाषित करनेवाली कृतिकार की इन गीत-पंक्तियों की छटा सटीक ही नहीं मनोहारी भी है। निम्न पंक्तियाँ विशेष रूप से दृष्टव्य हैं-
''नव्यता संप्रेषणों में जान भरती / गेयता संवेदनों का गान करती''
''सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती / मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती''
''लाक्षणिकता, भाव, रस, रूपक सलोने, बिम्ब टटकापन मिले बारात सजती''
''नाचता नवगीत के संग लोक का मन / ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?''
''छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता / किंतु बन आरोह या अवरोह पलता'' -पृष्ठ १३-१४
इस कृति में 'काल है संक्रांति का' नाम से एक बेजोड़ शीर्षक-गीत भी है। इस गीत में सूरज को प्रतीक रूप में रख दक्षिणायन की सूर्य-दशा की दुर्दशा को एक नायाब तरीके से बिम्बित करना गीतकार की अद्भुत क्षमता का परिचायक है। गीत में आज की दशा और कतिपय उद्घोष भरी पंक्तियों में अभिव्यक्ति की जीवंतता दर्शनीय है-
''दक्षिणायन की हवाएँ कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी काटती है झाड़'' -पृष्ठ १५
"जनविरोधी सियासत को कब्र में दो गाड़
झोंक दो आतंक-दहशत, तुम जलाकर भाड़" -पृष्ठ १६
कृति के गीतों में राजनीति की दुर्गति, विसंगतियों की बाढ़, हताशा, नैराश्य, वेदना, संत्रास, आतंक, आक्रोश के तेवर आदि नाना भाँति के मंज़र हैं जो प्रभावी ही नहीं, प्रेरक भी हैं। कृति से कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
"प्रतिनिधि होकर जन से दूर / आँखें रहते भी हो सूर" -पृष्ठ २०
"दोनों हाथ लिए लड्डू / रेवड़ी छिपा रहा नेता
मुँह में लैया-गजक भरे / जन-गण को ठेंगा देता" - पृष्ठ २१
"वह खासों में खास है / रुपया जिसके पास है....
.... असहनीय संत्रास है / वह मालिक जग दास है" - पृष्ठ ६८
"वृद्धाश्रम, बालश्रम और / अनाथालय कुछ तो कहते है
महिलाश्रम की सुनो सिसकियाँ / आँसू क्यों बहते रहते हैं?" - पृष्ठ ९४
"करो नमस्ते या मुँह फेरो / सुख में भूलो, दुःख में हेरो" - पृष्ठ ४७
ध्यान आकर्षण करने योग्य बात कि कृति में नवगीतकार ने गीतों को नव्यता का जामा पहनाते समय भारतीय वांग्मय व् परंपरा को दृष्टि में रखा है। उसे सूरज प्रतीक पसन्द है। कृति के कई गीतों में उसका प्रयोग है। चन्द पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हैं -
"चंद्र-मंगल नापकर हम चाहते हैं छुएँ सूरज"
"हनु हुआ घायल मगर वरदान तुमने दिए सूरज" -पृष्ठ ३७
"कैद करने छवि तुम्हारी कैमरे हम भेजते हैं"
"प्रतीक्षा है उन पलों की गले तुमसे मिलें सूरज" - पृष्ठ ३८
कृति के गीतों में लक्षणा व व्यंजना शब्द-शक्तियों का वैभव भरा है। यद्यपि कतिपय यथार्थबोधक बिम्ब सरल व स्पष्ट शब्दों में बिना किसी लाग-लपेट के विद्यमान हैं किन्तु बहुत से गीत नए लहजे में नव्य दृष्टि के पोषक हैं। निम्न पंक्तियाँ देखें-
"टाँक रही है अपने सपने / नए वर्ष में धूप सुबह की" - पृष्ठ ४२
"वक़्त लिक्खेगा कहानी / फाड़ पत्थर मैं उगूँगा" - पृष्ठ ७५
कई गीतों में मुहावरों का का पुट भरा है। कतिपय पंक्तियाँ मुहावरों व लोकोक्तियों में अद्भुत ढंग से लपेटी गई हैं जिनकी चारुता श्लाघनीय हैं। एक नमूना प्रस्तुत है-
"केर-बेर सा संग है / जिसने देखा दंग है
गिरगिट भी शरमा रहे / बदला ऐसा रंग है" -पृष्ठ ११५
कृति में नवगीत से कुछ इतर जो गीत हैं उनका काव्य-लालित्य किंचित भी कम नहीं है। उनमें भी कटाक्ष का बाँकपन है, आस व विश्वास का पिटारा है, श्रम की गरिमा है, अध्यात्म की छटा है और अनेक स्थलों पर घोर विसंगति, दशा-दुर्दशा, सन्देश व कटु-नग्न यथार्थ के सटीक बिम्ब हैं। एक-आध नमूने दृष्टव्य हैं -
"पैला लेऊँ कमिसन भारी / बेंच खदानें सारी
पाछूँ घपले-घोटालों सौं / रकम बिदेस भिजा री!" - पृष्ठ ५१
"कर्म-योग तेरी किस्मत में / भोग-रोग उनकी किस्मत में" - पृष्ठ ८०
वेश संत का मन शैतान / खुद को बता रहे भगवान" - पृष्ठ ८७
वही सत्य जो निज हित साधे / जन को भुला तन्त्र आराधें" - पृष्ठ ११८
कृति की भाषा अधिकांशत: खड़ी बोली हिंदी है। उसमें कहीं-कहीं आंचलिक शब्दों से गुरेज नहीं है। कतिपय स्थलों पर लोकगीतों की सुहानी गंध है। गीतों में सम्प्रेषणीयता गतिमान है। माधुर्य व प्रसाद गुण संपन्न गीतों में शांत रस आप्लावित है। कतिपय गीतों में श्रृंगार का प्रवेश नेताओं व धनाढ्यों पर ली गयी चुटकी के रूप में है। एक उदाहरण दृष्टव्य है -
इस करवट में पड़े दिखाई / कमसिन बर्तनवाली बाई
देह साँवरी नयन कँटीले / अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी / जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मीपुत्र को / बना भिखारी वह जाती है - पृष्ठ ८३
पूरे तौर पर यह नवगीत कृति मनोरम बन पड़ी है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' को इस उत्तम कृति के प्रणयन के लिए हार्दिक साधुवाद।
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समीक्षक संपर्क- ५६५ के / १४१ गिरिजा सदन,
अमरूदही बाग़, आलमबाग, लखनऊ २२६००५, चलभाष- ९३३५७५११८८
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समीक्षा नवगीत योगेंद्र वर्मा 'व्योम'

पुस्तक सलिला
"रिश्ते बने रहें" पाठक से नवगीत के
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*�
[पुस्तक विवरण- रिश्ते बने रहें, गीत-नवगीत, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', वर्ष २०१६ ISBN ९७८-९३-८०७५३-३१-७, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, आकार डिमाई, पृष्ठ १०४, मूल्य २००/-, गुंजन प्रकाशन सी १३० हिमगिरि कॉलोनी, कांठ रोड, मुरादाबाद २४४००१ गीतकार संपर्क- ए एल ४९ सचिन स्वीट्स क्व पीछे, दीनदयाल नगर प्रथम, कांठ रोड मुरादाबाद २४४००१ चलभाष ९४१२८०५९८१ ईमेल vyom70 @gmail.com]
*
समय के साथ सतत होते परिवर्तनों को सामयिक विसंगतियों और सामाजिक विडंबनाओं मात्र तक सीमित न रख, उत्सवधर्मिता और सहकारिता तक विस्तारित कर ईमानदार संवेदनशीलता सहित गति-यतिमय लयात्मत्कता से सुसज्ज कर नवगीत का रूप देनेवाले समर्थ नव हस्ताक्षरों में श्री योगेंद्र वर्मा 'व्योम' भी हैं। उनके लिए नवगीत रचना घर-आँगन की मिट्टी में उगनेवाले रिश्तों की मिठास को पल्लवित-पोषित करने की तरह है। व्योम जी कागज़ पर नवगीत नहीं लिखते, वे देश-काल को महसूसते हुए मन में उठ रहे विचारों साथ यात्राएँ कर अनुभूतियों को शब्दावरण पहना देते हैं और नवगीत हो जाता है।
कुछ यात्राएँ /बाहर हैं /कुछ मन के भीतर हैं
यात्राएँ तो / सब अनंत हैं / बस पड़ाव ही हैं
राह सुगम हो / पथरीली हो / बस तनाव ही हैं
किन्तु नयी आशाओंवाले / ताज़े अवसर हैं
गत सात दशकों से विसंगति और वैषम्यप्रधान विधा मानने की संकीर्ण सोच से हटकर व्योम जी के गीत मन के द्वार पर स्वप्न सजाते हैं, नई बहू के गृहप्रवेश पर बन्दनवार लगाते हैं, आँगन में सूख रही तुलसी की चिंता करते हैं, बच्चे को भविष्य के बारे में बताते हैं, तन के भीतर मन का गाँव बसाते हैं, पुरखों को याद कर ताज़गी अनुभव करते हैं, यही नहीं मोबाइल के युग में खत भी लिखते हैं।
मोबाइल से / बातें तो काफ़ी / हो जाती हैं
लेकिन शब्दों की / खुशबुएँ / कहाँ मिल पाती हैं?
थके-थके से / खट्टे-मीठे / बीते सत्र लिखूँ
कई दिनों से / सोच रहा हूँ , तुमको पत्र लिखूँ
निराशा और हताशा पर नवाशा को वरीयता देते ये नवगीत घुप्प अँधेरे में आशा- किरण जगाते हैं।
इस बच्चे को देखो / यह ही / नवयुग लाएगा
संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद
मौलिकता गुम हुई / कहीं, अब / हावी हैं अनुवाद
घुप्प अँधेरे में / आशा की / किरण जगाएगा
व्योम जी का कवि ज़िंदगी की धूप-छाँव, सुख-दुःख समभाव से देखता है। वे गली में पानी भरने से परेशान नहीं होते, उसका भी आनंद लेते हैं। उन्हें फिसलना-गिरना भी मन भाता है यूँ कहें कि उन्हें जीना आता है।
गली-मुहल्लों की / सड़कों पर / भरा हुआ पानी
चोक नालियों के / संग मिलकर / करता शैतानी
ऐसे में तो / वाहन भी / इतराकर चलते हैं...
... कभी फिसलना / कभी सँभलना / और कभी गिरना
पर कुछ को / अच्छा लगता है / बन जाना हिरना
उतार-चढ़ाव के बावज़ूद जीवन के प्रति यह सकारात्मक दृष्टि नवगीतों का वैशिष्ट्य है।व्योम जी का कवि अंधानुकरण में नहीं परिवर्तन हेतु प्रयासों में विश्वास करता है।
संबंधों सपनों / की सब /परिभाषाएँ बदलीं
तकनीकी युग में / सबकी / अभिलाषाएँ बदलीं
संस्कृति की मीनार / यहाँ पर / अनगिन बार ढही
विवेच्य संकलन के नवगीत विसंगतियों, त्रासदियों और विडंबनाओं की मिट्टी, खाद, पानी से परिवर्तन की उपज उगाते हैं। ये नवगीत काल्पनिक या अतिरेकी अभाव, दर्द, टकराव, शोषण, व्यथा, अश्रु और कराह के लिजलिजेपन से दूर रहकर शांत, सौम्य, मृदुभाषी हैं। वे हलाहल-पान कर अमृत लुटाने की विरासत के राजदूत हैं। उनके नवगीत गगनविहारी नहीं, धरती पर चलते-पलते, बोलते-मुस्काते हैं।
गीतों को / सशरीर बोलते-मुस्काते / देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
साधक है वह / सिर्फ न कवि है / एक तपस्वी जैसी छवि है
शांत स्वभाव, / सौम्य मृदुभाषी / मुख पर प्रतिबिंबित ज्यों रवि है
सदा सादगी / संग ताज़गी को / गाते देखा है मैंने / तुमने भी देखा?
राजनैतिक स्वार्थ और वैयक्तिक अहं जनित सामाजिक टकरावों के होते हुए भी ये नवगीत स्नेह-सरसिज उगाने का दुस्साहस कर आर्तनादवादियों को चुनौती देते हैं।
इन विषमता के पलों में / स्वार्थ के इन मरुथलों में
नेह के सरसिज उगायें / हों सुगंधित सब दिशाएँ
भूमिका में श्री माहेश्वर तिवारी ठीक लिखते हैं कि इन नवगीतों की भाषा अपनी वस्तु-चेतना के अनुरूप सहज, सरल और बोधगम्य है। ये नवगीत बतियाहट से भरे हैं। मेरी दृष्टि में व्योम जी रचित ये नवगीत 'मुनिया ने / पीहर में / आना-जाना छोड़ दिया', ' दहशत है अजब सी / आज अपने गाँव में', 'अपठनीय हस्ताक्षर जैसे / कॉलोनी / के लोग', 'जीवन में हम / ग़ज़लों जैसा / होना भूल गए', 'उलझी / वर्ग पहेली जैसा / जीवन का हर पल', 'जीन्स-टॉप में / नई बहू ने / सबको चकित किया', 'संबंधों में मौन / शिखर पर / बंद हुए संवाद', 'गौरैया / अब नहीं दीखती / छतों-मुँडेरों पर', 'सुना आपने? / राजाजी दौरे पर आयेंगे / सुनहरे स्वप्न दिखायेंगे' जैसी विसंगतियों में जीने के बाद भी आम आदमी की आशा-विश्वास के साक्षी बने रह सके हैं। ये गीत नेता, पत्रकार, अधिकारी, मठाधीश या साहित्यकार नहीं माँ और पिता बने रह सके हैं। 'माँ का होना / मतलब दुनिया / भर का होना है' तथा 'याद पिता की / जगा रही है / सपनों में विश्वास'। नवगीत भली भाँति जानते, मानते और बताते हैं 'माँ को खोना / मतलब दुनिया / भर को खोना है' तथा 'जब तक पिता रहे / तब तक ही / घर में रही मिठास'।
अपनी थाती और विरासत के प्रति बढ़ते अविश्वास, सामाजिक टकराव राजनैतिक संकीर्णताओं के वर्तमान संक्रमण काल में व्योम जी के नवगीत सूर्य तरह प्रकाश और चंद्रमा की तरह उजास बिखरते रहें। उनके नवगीतों की आगामी मंजूषा से निकलने वाले नवगीत रत्नों की प्रतीक्षा होना स्वाभाविक है।
***
समीक्षक संपर्क- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४।
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गीत राकेश खण्डेलवाल

कार्यशाला-
गीत-प्रतिगीत
राकेश खण्डेलवाल-संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गह​​न निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मे​रा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
३१ अक्टूबर २०१६
गीतसम्राट अग्रजवत राकेश खंडेलवाल को सादर समर्पित
​​
प्रति गीत
*
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
श्वास न रास आस की सकती थाम, तुम्हारे बिना निमिष भर
*
पावस के अँधियारे में बन विद्युत्छ्टा राह दिखलातीं
बौछारों में साथ भीगकर तन-मन एकाकार बनातीं
पलक झुकी उठ नयन मिले, दिल पर बिजली तत्काल गिर गयी
झुलस न हुलसी नव आशाएँ, प्यासों की हर प्यास जिलातीं
मेरा आत्म अवश मिलता है, विरति-सुरति में सद्गति बनकर,
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
खरा हो गया खोटा सिक्का, पारस परस पुलकता पाया
रोम-रोम ने सिहर-सिहर कर, सपनों का संतूर बजाया
अपनों के नपनों को बिसरा, दोहा-पंक्ति बन गए मैं-तुम
मुखड़ा मुखड़ा हुआ ह्रदय ही हुआ अंतरा, गीत रचाया
मेरा काय-कुसुम खिलता है, कोकिल-कूक तुम्हारी सुनकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
दीप-पर्व हर रात जगमगा, रंग-पर्व हर दिन झूमा सा
तम बेदम प्रेयसि-छाया बन, पग-वंदन कर है भूमा सा
नीलकंठ बन गरल-अमिय कर, अर्ध नारि-नर द्वैत भुलाकर
एक हुए ज्यों दूर क्षितिज पर नभ ने
मेरा मन मुकुलित होता है, तेरे मणिमय मन से मिलकर
मेरा प्राण दीप जलता है, स्नेह तुम्हारा अक्षय पाकर
*
टीप- भूमा = धरती, विशाल, ऐश्वर्य, प्राणी।
२.११.२०१६ जबलपुर
***

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
ज्यों मोती को आवश्यकता सीपोंकी.
मानव मन को बहुत जरूरत दीपोंकी..

संसद में हैं गर्दभ श्वेत वसनधारी
आदत डाले जनगण चीपों-चीपोंकी..

पदिक-साइकिल के सवार घटते जाते
जनसंख्या बढ़ती कारों की, जीपोंकी..

चीनी झालर से इमारतें है रौशन
मंद हो रही ज्योति झोपड़े-चीपों की..

नहीं मिठाई और पटाखे कवि माँगे
चाह सभी को है ताली-तारीफों की..
***
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
सारा जग पाये उपहार ये दीपोंका.
हर घर को भाये सिंगार ये दीपोंका..

रजनीचर से विहँस प्रभाकर गले मिले-
तारागण करते सत्कार ये दीपोंका..

जीते जी तम को न फैलने देते हैं
हम सब पर कितना उपकार ये दीपोंका..

निज माटी से जुड़ी हुई जो झोपड़ियाँ.
उनके जीवन को आधार है दीपों का..

रखकर दिल में आग, अधर पर हास रखें.
सलिल' सीख जीवन-व्यवहार ये दीपोंका..
***
मुक्तिका:
किसलिए?...
संजीव 'सलिल'
*
हर दिवाली पर दिए तुम बालते हो किसलिए?
तिमिर हर दीपक-तले तुम पालते हो किसलिए?


चाह सूरत की रही सीरत न चाही थी कभी.
अब पियाले पर पियाले ढालते हो किसलिए?

बुलाते हो लक्ष्मी को लक्ष्मीपति के बिना
और वह भी रात में?, टकसालते हो किसलिए?

क़र्ज़ की पीते थे मय, ऋण ले के घी खाते रहे.
छिप तकादेदार को अब टालते हो किसलिए?

शूल बनकर फूल-कलियों को 'सलिल' घायल किया.
दोष माली पर कहो- क्यों डालते हो किसलिए?
***
२-११-२०१०

कब ? क्या ? नवंबर २०२१

कब ? क्या ? नवंबर २०२१
कार्तिक/अगहन (मार्गशीर्ष)
शंकराचार्य संवत २५२८, विक्रम संवत २०७८, ईस्वी २०२१, शक संवत १९४३, हिजरी १४४३, बांग्ला १४२८
*
०१. १८५८ भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कंपनी से ब्रिटिश सरकार ने लिया, १८८१ कोलकाता ट्राम सेवा आरंभ, १९१३ ग़दर आरंभ क्रांतिकारी तारकनाथ दास सैनफ्रांसिस्को कैलीफ़ोर्निया, १९२४ पद्मभूषण रामकिंकर उपाध्याय जन्म जबलपुर, १९२७ चित्रकार दीनानाथ भार्गव, १९४२ प्रभा खेतान जन्म, १९५० भारत का पहला रेल इंजिन चितरंजन रेल कारखाना, १९५४ फ़्राँस ने पांडिचेरी, करिकल, माहे तथा यानोन भारत को सौंपे, तापसी नागराज जन्म, ११९५५ डेल कारनेगी निधन, ९५६ कर्णाटक-केरल गठन, दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश, १९६६ पंजाब-हरियाणा गठन, १९७३ ऐश्वर्या राय जन्म, २००० छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश गठन।
०२. १५३४ चौथे गुरु रामदास जयंती, १७७४ रॉबर्ट क्लाइव आत्महत्या, १८९७ सोहराब मोदी जन्म, १९३६ बी बी सी दूरदर्शन आरंभ, १९४० ममता कालिया जन्म, १९५० जॉर्ज बर्नाड शॉ निधन, १९६५ शाहरुख़ खान जन्म, धनतेरस।
०३. १४९३ कोलंबस ने डोमोनोका द्वीप खोजा, १६८८ सवाई जयसिंह जन्म, १८३९ ब्रिटेन-चीन अफीम युद्ध आरंभ, १९०३ पनामा आज़ाद, १९०६ पृथ्वीराज कपूर जन्म, १९३७ संगीतकार लक्ष्मीकांत जन्म, १९३८ असम हिंदी प्रचार समिति स्थापित, १९४८ प्रधानमंत्री नेहरू संयुक्त राष्ट्र सभा प्रथम संबोधन, १९६२ स्वर्ण बांड योजना लागू, रूप चतुर्दशी (नरक चौदस)।
०४. १६१८ औरंगजेब जन्म, १८२२ दिल्ली जल आपूर्ति योजन आरंभ, १८८३ स्वामी दयानन्द निर्वाण (जन्म १२-२-१८२४), १९३९ गणितज्ञ शकुंतला देवी जन्म, १९४५ आज़ाद हिंद फौजियों पर लाल किला मुक़दमा, १९५४ हिमालय पर्वतारोहण संस्थान दार्जिलिंग स्थापना, १९८४ ओबी अग्रवाल एमेच्योर स्नूकर विश्व चैम्पियन, १९९७ सियाचीन बेस कैम्प विश्व का सर्वाधिक ऊँचा एस.टी.डी. बूथ स्थापित, २००० दूरदर्शन डायरेक्ट टु होम सेवा, २००८ गंगा राष्ट्रीय नदी घोषित, पहला भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्र कक्षा में, बराक ओबामा अफ़्रीकी मूल के प्रथम अमरीकी राष्ट्रपति, दीपावली।
०५. १५५६ पानीपत द्वितीय युद्ध अकबर ने हेमू को हराया, १६३० स्पेन-इंग्लैंड शांति समझौता, १८७० चितरंजन दास जन्म, १९१७ बनारसी दास गुप्ता जन्म, १९२० इंडियन रेडक्रॉस सोसायटी स्थापित, १९३० अर्जुन सिंह जन्म,१९९९ गेंदबाज मैल्कम मार्शल निधन, २००७ प्रथम चीनी यान चंद्र कक्षा में, २०१३ मंगल परिक्रमा अभियान रॉकेट प्रक्षेपण, अन्नकूट-गोवर्धन पूजा।
०६. १८६० अब्राहम लिंकन अमरीकी राष्ट्रपति, १९०३ पनामा स्वतंत्र, १९१३ द. अफ्रीका गांधी जी बंदी, १९४३ जापान ने अंदमान-निकोबार नेताजी को सौंपे, १९६२ राष्ट्रीय रक्षा परिषद्, १९८५ अभिनेता संजीव कुमार निधन, यम द्वितीया, चित्रगुप्त पूजा, भाई दूज।
०७. १६२७ बहादुरशाह द्वितीय निधन रंगून, १८५८ बिपिनचंद्र पाल जन्म, १८७६ बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय वंदे मातरम लिखा, १८८८ चंद्रशेखर वेंकट रमन जन्म, १९१७ रूस बोल्शेविक क्रांति सफल, १९३६ चंद्रकांत देवताले जन्म, १९५४ कमल हासन जन्म, विश्वामित्र जयंती।
०८. १९४५ हॉन्गकॉन्ग नौका दुर्घटना १५५० मरे, १९८८ चीन भूकंप ९०० मरे, २००८ प्रथम भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रकक्षा में, २०१६ भारत नोट विमुद्रीकरण,
०९. १२७० संत नामदेव जयंती, १८१८ इवान तुर्गेनेव जन्म, १८६२ कलकत्ता उच्च न्यायालय उद्घाटन, १८७७ इक़बाल जन्म, १९०४ वनस्पति विज्ञानी पंचानन माहेश्वरी जन्म, १९३६ सुदामा पाण्डे धूमिल जन्म, १९४८ जूनागढ़ भारत में विलय, १९५३ कंबोडिया स्वतंत्र, १९८९ ब्रिटेन मृत्यु दंड समाप्त, २००० उत्तराखंड दिवस, राष्ट्रीय क़ानूनी सेवा दिवस।
१०. १६५९ शिवजी ने प्रतापगढ़ दुर्ग के निकट अफ़ज़ल खान को मारा, १६९८ ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता ख़रीदा, १८४८ सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी जन्म, १८८५ गोटलिएब डेमलेर पहली मोटर साईकिल, १९२० दत्तोपंत ठेंगड़ी जन्म, सदानंद बकरे शिल्पकार-मूर्तिकार जन्म, १९६३ रोहिणी खाडिलकर प्रथम एशियाई शतरंज चैम्पियनशिप १९८१विजेता, १९७० फ़्रांस राष्ट्रपति डगाल दिवंगत, १९७५ अंकोला स्वतंत्र, १९८२ बिल गेट विंडो १ आरंभ, १९८९ बर्लिन जर्मन दीवार गिराना आरंभ, १९९० चंद्रशेखर भारत के प्रधान मंत्री, २००१ भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित किया, २००२ ऑस्ट्रेलिया ने इंग्लैंड से पहला ऐशेस मैच जीता, छठ पूजा। 
११. १६७५ गोबिंद सिंह सिख गुरु बने, १८८८ मौलाना अबुल कलाम आज़ाद-जे.बी.कृपलानी जन्म, १९१८ पोलैंड स्वतंत्र, १९३६ माला सिन्हा जन्म, १९४३ परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर जन्म, १९६२ कुवैत संविधान दिवस, १९७३ डाक टिकिट प्रथम अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी दिल्ली, १९७५ अंगोला स्वतंत्र, , राष्ट्रीय शिक्षा दिवस, जलाराम बापा जयंती, सहस्त्रबाहु जयंती। 
१२. १८४७ सर जेम्स यंग सिमसन क्लोरोफॉर्म का पहला औषधीय प्रयोग, १८९६ पक्षी विज्ञानी सालिम अली जन्म,१९१८ ऑस्ट्रिया गणतंत्र बना, १९३० प्रथम गोलमेज सम्मेलन लंदन, १९३६ केरल मंदिर सब हिन्दुओं हेतु खुले, १०४० अमजद खान जन्म, १९४६ मदनमोहन मालवीय निधन, २००८ बालासोर परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम के १५ का सफल परीक्षण, प्रथम भारतीय मानवरहित अंतरिक्ष यान चंद्रमा की अंतिम कक्षा में स्थापित, २००९ अतुल्य भारत अभियान वर्ल्ड ट्रेवेल अवार्ड २००८ प्राप्त, गोपाष्टमी। 
१३. १७८० रंजीत सिंह पंजाब शासक, १८९२ रायकृष्ण दास जन्म, १८९५ सी के नायडू जन्म, १८९८ सारदा माँ ने भगिनी निवेदिता के विद्यालय का उद्घाटन किया, १९१७ मुक्तिबोध जन्म, १९१८ ऑस्ट्रिया गणराज्य, १९६७ मीनाक्षी शेषाद्रि जन्म, १९६७ जुही चावला जन्म, १९७१ नासा मैरीनर ९ यान मंगल कक्षा में, १९७५ विश्व स्वास्थ्य संगठन एशिया चेचक मुक्त, १९८५ पूर्वी कोलंबिया ज्वालामुखी २३,००० मरे, २०१३ हरिकृष्ण देवसरे निधन,  आंवला / अक्षय नवमी। 
१४. १८८९ जवाहर लाल नेहरू जन्म, १९२२ बी बी सी रेडियो सेवा, १९२६ पीलू मोदी जन्म, १९५५ कर्मचारी राज्य बीमा निगम उद्घाटित, १९५७ बाल दिवस आरंभ, विश्व मधुमेह दिवस, १९७७ श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद दिवंगत।  
१५. १८७५ बिरसा मुंडा जन्म, १९२० लीग ऑफ़ नेशंस प्रथम बैठक जिनेवा, १९३७ जयशंकर प्रसाद निधन, १९३८ महात्मा हंसराज निधन, १९४९ नाथूराम गोडसे-नारायम दत्तात्रेय आप्टे को फाँसी,१९८२ विनोबा भावे निधन पवनार, १९८६ सानिया मिर्ज़ा जन्म, १९८८ फिलिस्तीन स्वतंत्र राष्ट्र घोषित, २००७ चिली भूकंप ७.७ रिक्टर, झारखण्ड दिवस, २०१७ कुंवर नारायण निधन, तुलसी विवाह, कालिदास जयंती।  
१६. १९०७ शंभु महाराज जन्म, १९२७ श्रीराम लागु जन्म, १९३० मिहिर सेन जन्म, १९७३ पुलेला गोपीचंद जन्म, २०१३ सचिन तेंडुलकर भारत रत्न, राष्ट्रीय प्रेस दिवस, विश्व सहिष्णुता दिवस। 
१७. १५५८ एलिजाबेथ प्रथम सत्तासीन, १९०० पद्मजा नायडू जन्म, १९२८ लाला लाजपत राय शहीद, १९३२ तीसरा गोलमेज सम्मलेन, १९६६ रीता फारिया मिस वर्ल्ड, १९७० रुसी लूनाखोद १ चंद्र तल पर, १९९९ अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस, अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस। । 
१८. १७२७ जयपुर दिवस वास्तुकार विद्याधर चक्रवर्ती, १७३८ फ़्रांस-ऑस्ट्रिया शांति समझौता, १८३३ हालेंड-बेल्जियम जोनहोवेन संधि, १९०१ वी. शांताराम जन्म, १९१० क्रन्तिकारी बटुकेश्वर दत्त जन्म, १९१८ लातविया स्वतंत्र, १९४६ कमलनाथ जन्म, १९४८ पटना स्टीमर नारायणी जलमग्न ५०० मरे, १९५६ मोरक्को स्वतंत्र, १९७२ बाघ राष्ट्रीय पशु, २०१३ नासा मंगल पर यान भेजा, २०१७ मानसी छिल्लर मिस वर्ल्ड। 
१९. १८२४ रूस सेंट पीटरसबर्ग बाढ़ १०,००० मरे, १८२८  रानी लक्ष्मी बाई जन्म, १८९५ फ्रेडरिक ई ब्लेसडेल पेंसिल का पेंटेट,  १९२८ दारासिंह जन्म,१९३३ स्पेन महिला मताधिकार,  १८३८ केशवचन्द्र सेन, १९१७ इंदिरा गाँधी जन्म, १९८२ नौवाँ एशियाई खेल आरंभ, १९९५ कर्णम मल्लेश्वरी भारोत्तोलन विश्व रिकॉर्ड, १९९४ ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड, १९९७ कल्पना चावला प्रथम भारतीय महिला अंतरिक्ष यात्री,    २००८ मून इम्पैक्ट प्रोब चाँद पर उतरा, राष्ट्रीय एकता दिवस, गुरु नानक जयंती। 
२०. १७५० टीपू सुल्तान जन्म, १९१७ यूक्रेन गणराज्य, १९२९ मिल्खा सिंह जन्म, १९८१ भास्कर उपग्रह प्रक्षेपित, १९८५ माइक्रोसॉफ्ट विंडोस १ जारी, १९१६ नायक यदुनाथ सिंह परमवीर चक्र, १९८९ बबीता फोगाट जन्म, २०१६ पी. वी, सिंधु चाइना ओपन सुपर सीरीज विजेता। 
२१. १८७७ प्रथम फोनोग्राम थॉमस एल्वा एडिसन, १८९९ हरेकृष्ण महताब, १९१४ क्रांतिकारी उज्ज्वला मजूमदार, १९३१ ज्ञानरंजन जन्म, १९४७ प्रथम भारतीय डाक टिकिट, १९५६ शिक्षक दिवस प्रस्ताव पारित, १९६२ भारत-चीन युद्ध विराम, १९६३ प्रथम भारतीय रॉकेट प्रक्षेपित थुम्बा, १९७० सी वी रमन निधन। 
२२. १८३० झलकारी बाई जन्म, १८६४ रुक्माबाई प्रथम भारतीय महिला चिकित्सक जन्म, १८९२ मीरा बेन जन्म, १९४८ सरोज खान जन्म, १९३९ मुलायम सिंह यादव जन्म, १९६३ अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी की हत्या, १९९७ डायना हेडेन मिस वर्ल्ड। 
२३. १९१४ कृष्ण चंदर जन्म, १९२६ सत्य साईं जन्म, १९३० गीता दत्त, १९३७ जगदीशचंद्र बोस निधन,  १९८३ भारत में प्रथम राष्ट्र मंडल शिखर सम्मेलन। 
२४. १७५९ इटली विसूवियस ज्वालामुखी विस्फोट, १८५९ चार्ल्स डार्विन ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज प्रकाशित, १८६७ जोसेफ ग्लीडन अमेरिका कंटीले तार का पेटेंट, १९१९ महिपाल जन्म अभिनेता शायर, १९४४ अमोल पालेकर जन्म, १९५५ इयान बॉथम जन्म, १९२६ श्री अरोबिन्दो घोष सिद्धि दिवस, १९६२ अरुंधति रॉय जन्म, २००३ टुनटुन (उमादेवी) निधन, २०१५ महिप सिंह निधन। 
२५. १८६६ इलाहाबाद उच्च न्यायालय उद्घाटित, १८६७ अल्फ्रेड नोबल डायनामाइट पेटेंट, १८९० सुनीत कुमार चटर्जी जन्म, १८९८ देवकी बोस जन्म, १९३० जापान भूकंप के ६९० झटके, १९४९ भारतीय संविधान हस्ताक्षरित व प्रभावी, १९७४ यू थांट निधन, १९८२ झूलन गोस्वामी जन्म।  
२६. १८७० डॉ. हरिसिंह गौर जयंती, १९२६ प्रो. यशपाल जन्म, १९६० कानपूर-लखनऊ एस टी डी, २०१२ आम आदमी पार्टी गठित। 
२७. १७९५ प्रथम बांगला नाटक मंचन, १८८५ उल्कापिंड प्रथम तस्वीर, १८९० ज्योतिबा फुले निधन, १८९५ नोबल पुरस्कार स्थापित, १९०७ हरिवंश राय बच्चन जन्म, १९३२ डॉन ब्रेडमैन दस हजार रन, १९४० ब्रूस ली जन्म, १९४२ मृदुला सिन्हा जन्म। 
२८. १८२१ पनामा स्वतंत्र। 
२९. १८६९ ठक्कर बापा जन्म, १९१३ अली सरदार ज़ाफ़री जन्म, १९६३ शरद सिंह। 
३०. १७३१ बीजिंग भूकंप एक लाख मृत, १८५८ जगदीशचंद्र बोस जन्म, १८८८ क्रांतिकारी गेंदा लाल दीक्षित जन्म, मायानन्द चैतन्य जयंती, १९३१ रोमिला थापर जन्म, १९४४ मैत्रेयी पुष्पा जन्म, १९६५ गुड़िया संग्रहालय दिल्ली, २००० प्रियंका चोपड़ा मिस वर्ल्ड। 
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सोमवार, 1 नवंबर 2021

दोहा सलिला

दोहा सलिला 
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अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, सका न कोई रोक
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कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
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एक नयन में अश्रु बिंदु है, दूजा जलता दीप 
इस कोरोना काल में, मुक्ता दुःख दिल सीप 
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गर्व पर्व पर हम करें, सबका हो उत्कर्ष  
पर्व गर्व हम पर करे, दें औरों को हर्ष 
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श्रमजीवी के अधर पर, जब छाए मुस्कान 
तभी समझना पर्व को, सके तनिक पहचान  
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झोपड़-झुग्गी भी सके, जब लछमी को पूज 
तभी भवन में निरापद, होगी भाई दूज 

समीक्षा मैं सागर में एक बूँद सही बीनू भटनागर

पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
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कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है.
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है.
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं.
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं.
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है.
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा.
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संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४, दूरडाक – salil.sanjiv@gmail.com

तापसी नागराज

कोकिलकंठी गायिका श्रीमती तापसी नागराज के
जन्मोत्सव पर अनंत मंगल कामना










नर्मदा के तीर पर वाक् गयी व्याप सी
मुरली के सुर सजे संगिनी पा आप सी
वीणापाणी की कृपा सदा रहे आप पर
कीर्ति नील गगन छुए विनय यही तापसी
बेसुरों की बर्फ पर गिरें वज्र ताप सी
आपसे से ही गायन की करे समय माप सी
पश्चिम की धूम-बूम मिटा राग गुँजा दें
श्रोता-मन पर अमिट छोड़ती हैं छाप सी
स्वर को नमन कलम-शब्दों का अभिनन्दन लें
भावनाओं के अक्षत हल्दी जल चन्दन लें
रहें शारदा मातु विराजी सदा कंठ में
संजीवित हों श्याम शिलाएं, शत वंदन लें
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