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बुधवार, 30 सितंबर 2020

सरस्वती वंदना रीमा मिश्रा

सरस्वती वंदना 
रीमा मिश्रा 
आसनसोल, बंगाल 
जय ,जय,जय हे माँ सरस्वती
आज तोमाए दिके ताकाछी
आमी हाँथ छड़िये दिछि।
आमी अजानतेई घूरे बेडाछि
आमाके नतून पथ देखान
आपनी आमार शुखनो मोने आछेन,
आसुन एवम प्रज्ञा एवम वृष्टि देखान
आमाके शक्ति दाऊ माँ
आमी प्रति सेकेण्ड हराछि
एखन मातृभूमि सेवा कोरछेन
माँ हावुया उचित जीवनेर भीति
कर्म अमादेर उपासना होबे,
माँ देयाल हए हायेछेंन, 
स्वार्थपर नय।
हे शारद आमाके आशीर्वाद करुण
आमी अपनाके ओनेक दिन 
धोरे डाकचिलम।
विणा पद्मनेर प्रश्नशित,
स्तयोर गान वर्णना करछी
तोमार माँ, सादा केशिक
नम्र आचरण प्रदर्शन करा।
अंधकार अंधाकारेर ज्ञान दिन,
सराखन आमाके घिरे आछे।
जय, जय ,जय हे माँ सरस्वती, 
आज तोमाए दिके ताकची।
हिंदी अर्थ-
जय, जय, जय हे माँ सरस्वती,
तुमको आज निहार रही हूँ ।
अपने हाथ पसार रही हूँ ।।
ज्ञान-शून्य हो भटक रही हूँ,
मुझको नव-पथ तू दर्शा दे ।
सूखे मानस में तू मेरे,
ज्ञान-सुधा आकर बरसा दे ।
मुझको शक्ति दे दे माता,
पल-पल में मैं हार रही हूँ ।।
मातृभूमि की सेवा ही अब,
जीवन का आधार बने माँ ।
कर्म हमारी पूजा होगी,
स्वार्थ नहीं दीवार बने माँ ।
दे आशीष मुझे ओ शारद,
कबसे तुम्हें पुकार रही हूँ ।।
कर कमलों में वीणा शोभित,
सत्कर्मों के गीत सुनाते ।
श्वेत-वसन पावन माँ तेरे,
विमल आचरण को दर्शाते ।
ज्ञान किरण दे, घोर तिमिर में,
घिरता मैं हर बार रही हूँ ।
जय, जय, जय हे माँ सरस्वती,
तुमको आज निहार रही हूँ ।
*

तरही मुक्तिका ३ : क्यों है?

तरही मुक्तिका ३ :
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
३०-९-२०१० 
***********************
-- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

कुछ नए छंद : सलिल

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा आविष्कृत, नामित लिखित कुछ नए छंद 

१. कृष्णमोहन छन्द
विधान-
१. प्रति पंक्ति ७ मात्रा
२. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम गुरु लघु गुरु लघु लघु
गीत
रूप चौदस
.
रूप चौदस
दे सदा जस
.
साफ़ हो तन
साफ़ हो मन
हों सभी खुश
स्वास्थ्य है धन
बो रहा जस
काटता तस
बोलती सच
रूप चौदस.
.
है नहीं धन
तो न निर्धन
हैं नहीं गुण
तो न सज्जन
ईश को भज
आत्म ले कस
मौन तापस
रूप चौदस.
.
बोलना तब
तोलना जब
राज को मत
खोलना अब
पूर्णिमा कह
है न 'मावस
रूप चौदस
.
मैल दे तज
रूप जा सज
सत्य को वर
ईश को भज
हो प्रशंसित
रूप चौदस
.
वासना मर
याचना मर
साथ हो नित
साधना भर
हो न सीमित
हर्ष-पावस
साथ हो नित
रूप चौदस
.......
२ सड़गोड़ासनी (बुंदेली छंद)
विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
***


वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
-----------
४ मातंगी सवैया
विधान:
१. प्रति पंक्ति ३६ मात्रा
२. sss की ६ आवृत्तियाँ
३. यति १२-२४-३६ पर
४. आदि-अंत sss
*
दौड़ेंगे-भागेंगे, कूदेंगे-फांदेंगे, मेघों सा गाएँगे
वृक्षों सा झूमेंगे, नाचेंगे-गाएँगे, आल्हा गुन्जाएँगे
आतंकी शैतानों, मारेंगे-गाड़ेंगे, वीरों सा जीतेंगे
चंदा सा, तारों सा, आकाशी दीया हो, दीवाली लाएँगे
***
५. सुरेश सवैया
विधान:
वर्णिक - १० - ५ - ८ = २३
मात्रिक - १० - ७ - १० = २७
अधर पर धर अधर, कर आधार, बन आधार प्रिय तू!
नजर पर रख नजर, कर स्वीकार, बन सिंगार प्रिय तू!!
सृजन-पथ कर वरण, गति व्यापार, बन झंकार प्रिय तू!
डगर पर रख चरण, भव हो पार, बन ओंकार प्रिय तू!!
६. रौद्रक जातीय हरि छंद
*
छंद-लक्षण:
प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, चरणारंभ गुरु,
यति ६ - ६ - ११, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।

लक्षण छंद:
रास रचा / हरि तेइस / सखा-सखी खेलते
राधा की / सखियों के / नखरे हँस झेलते
गुरु से शुरु / यति छह-छह / ग्यारह पर सोहती
अंत रहे / गुरु लघु गुरु / कला 'सलिल' मोहती

उदाहरण:
१. राखो पत / बनवारी / गिरधारी साँवरे
टेर रही / द्रुपदसुता / बिसरा मत बावरे
नंदलाल / जसुदासुत / अब न करो देर रे
चीर बढ़ा / पीर हरो / मेटो अंधेर रे

२. सीता को / जंगल में / भेजा क्यों राम जी?
राधा को / छोड़ा क्यों / बोलो कुछ श्याम जी??
शिव त्यागें / सती कहो / कैसे यह ठीक है?
नारी भी / त्यागे नर / क्यों न उचित लीक है??

३. नेता जी / भाषण में / जो कुछ है बोलते
बात नहीं / अपनी क्यों / पहले वे तोलते?
मुकर रहे / कह-कहकर / माफी भी माँगते
देश की / फ़िज़ां में / क्यों नफरत घोलते?

४. कौन किसे / बिना बात / चाहता-सराहता?
कौन जो न / मुश्किलों से / आप दूर भागता?
लोभ, मोह / क्रोध द्रोह / छोड़ सका कौन है?
ईश्वर से / कौन और / अधिक नहीं माँगता?
७. मन्वन्तर सवैया
मापनी- २१२ २११ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२।
२३ वार्णिक, ३२ मात्रिक छंद।
गण सूत्र- रभजजजजजलग।
मात्रिक यति- ८-८-८-८, पदांत ११२।
वार्णिक यति- ५-६-६-६, पदांत सगण।
*
उदाहरण
हो गयी भोर, मतदान करों, मत-दान करो, सुविचार करो।
हो रहा शोर, उठ आप बढ़ो, दल-धर्म भुला, अपवाद बनो।।
है सही कौन, बस सोच यही, चुन काम करे, न प्रचार वरे।
जो नहीं गैर, अपना लगता, झट आप चुनें, नव स्वप्न बुनें।।
*
हो महावीर, सबसे बढ़िया, पर काम नहीं, करता यदि तो।
भूलिए आज, उसको न चुनें, पछता मत दे, मत आज उसे।।
जो रहे साथ, उसको चुनिए, कब क्या करता, यह भी गुनिए।
तोड़ता नित्य, अनुशासन जो, उसको हरवा, मन की सुनिए।।
*
नर्मदा तीर, जनतंत्र उठे, नव राह बने, फिर देश बढ़े।
जागिए मीत, हम हाथ मिला, कर कार्य सभी, निज भाग्य गढ़ें।।
मुश्किलें रोक, सकतीं पथ क्या?, पग साथ रखें, हम हाथ मिला।
माँगिए खैर, सबकी रब से, खुद की खुद हो, करना न गिला।।
***
८. रामरति छंद
विधान :
वर्ण : ५ - ६ - ७ = १८
मात्रा : ८ - ८ - ११ = २७
पदांत : २२१।
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें नहीं सम्मान।।
९. महापौराणिकजातीय आनंदवर्धक छंद
विधान : १९ मात्रा, वर्ण १२  
पदांत : २१२   
*
जी रहा हूँ श्वास हर तेरे लिए
पी रहा हूँ प्यास हर तेरे लिए
हर ख़ुशी-आनंद है तेरे लिए
मीत! स्नेहिल छंद है तेरे लिए
*
सावनी जलधार है तेरे लिए
फागुनी मनुहार है तेरे लिए
खिला हरसिंगार है तेरे लिए
प्रिये ये भुजहार है तेरे लिए
*
१०. अमरकंटक छंद  
विधान-
1. प्रति पंक्ति 7 मात्रा
2. प्रति पंक्ति मात्रा क्रम लघु लघु लघु गुरु लघु लघु
गीत
नरक चौदस
.
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
चल मिटा तम
मिल मिटा गम
विमल हो मन
नयन हों नम
पुलकती खिल
विहँस चौदस  
मनुज की जय
नरक चौदस
.
घट सके दुःख
बढ़ सके सुख
सुरभि गंधित 
दमकता मुख
धरणि पर हो 
अमर चौदस 
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
विषमता हर
सुसमता वर
दनुजता को
मनुजता कर
तब मने नित 
विजय चौदस  
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
मटकना मत
भटकना मत
अगर चोटिल
चटकना मत
नियम-संयम
वरित चौदस
मनुज की जय  
नरक चौदस
.
बहक बादल
मुदित मादल
चरण नर्तित 
बदन छागल
नरमदा मन
'सलिल' चौदस 
मनुज की जय  
नरक चौदस
११. आर्द्रा छंद
*
द्विपदीय, चतुश्चरणी, मात्रिक आर्द्रा छंद के दोनों पदों पदों में समान २२-२२ वर्ण तथा ३५-३५ मात्राएँ होती हैं. प्रथम पद के २ चरण उपेन्द्र वज्रा-इंद्र वज्रा (जगण तगण तगण २ गुरु-तगण तगण जगण २ गुरु = १७ + १८ = ३५ मात्राएँ) तथा द्वितीय पद के २ चरण इंद्र वज्रा-उपेन्द्र वज्रा (तगण तगण जगण २ गुरु-जगण तगण तगण २ गुरु = १८ + १७ = ३५ मात्राएँ) छंदों के सम्मिलन से बनते हैं.
उपेन्द्र वज्रा फिर इंद्र वज्रा, प्रथम पंक्ति में रखें सजाकर
द्वितीय पद में सह इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा कहे हँसाकर
उदाहरण:
१. कहें सदा ही सच ज़िंदगी में, पूजा यही है प्रभु जी! हमारी
रहें हमेशा रत बंदगी में, हे भारती माँ! हम भी तुम्हारी
२. बसंत फूलों कलियों बगीचों, में झूम नाचा महका सवेरा
सुवास फ़ैली वधु ज्यों नवेली, बोले अबोले- बस में चितेरा
३. स्वराज पाया अब भारतीयों, सुराज पाने बलिदान दोगे?
पालो निभाओ नित नेह-नाते, पड़ोसियों से निज भूमि लोगे?
कहो करोगे मिल देश-सेवा, सियासतों से मिल पार होगे?
नेता न चाहें फिर भी दलों में, सुधार लाने फटकार दोगे?
१२. आशाकिरण छंद
विधान : वर्ण ५ 
मात्रा ७ 
पदांत नगण 
सूत्र - त ल ल।
*
मैया नमन
चाहूँ अमन...
ऊषा विहँस
आ सूर्य सँग
आकाश रँग
गाए यमन...
पंछी हुलस
बोलें सरस
झूमे धरणि
नाचे गगन...
माँ! हो सदय
संतान पर
दो भक्ति निज
होऊँ मगन...
माते! दरश
दे आज अब
दीदार बिन
माने न मन...
वीणा मधुर
गूँजे सतत
आनंदमय
हो शांत मन...
*
१३. त्रयोदशी छंद 
विधान 
वर्ण  १३ 
मात्रा १९ 
पदांत लघु गुरु 
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं
त्याज्य यह संसार हो तुझको नहीं
देह का व्यापार जो नर कर रहा
आत्म का आधार बिसरा मर रहा
१४. यगणादित्य घनाक्षरी
*
विधान- बारह यगण 
वर्ण : ३६ 
मात्रा : ६० 
यति : १०-२०-३०-४०-५०-६० 
संकेत-यगण = १२२, आदित्य = १२।
*
कन्हैया! कन्हैया! पुकारें हमेशा, तुम्हें राधिका जी! गुहारें हमेशा, सदा गीत गाएँ तुम्हारे हमेशा।
नहीं कर्म भूलें, नहीं मर्म भूलें, लड़ें राक्षसों से नहीं धर्म भूलें, तुम्हीं को मनाएँ-बुलाएँ हमेशा।।
कहा था तुम्हीं ने 'उठो पार्थ प्यारे!, लड़ो कौरवों से नहीं हारना रे!, झुका या डरो ना बुराई से जूझो।
करो कर्म सारे, न सोचो मिले क्या?, मिला क्या?, गुमा क्या?, रहा क्या? हमेशा।।
***
१५  नीराजना छंद
*
विधान :
१. प्रति पंक्ति २१ मात्रा।
२. पदादि गुरु।
३. पदांत गुरु गुरु लघु गुरु।
४. यति ११ - १०।
लक्षण छंद:
एक - एक मनुपुत्र, साथ जीतें सदा।
आदि रहें गुरुदेव, न तब हो आपदा।।
हो तगणी गुरु अंत, छंद नीराजना।
मुग्ध हुए रजनीश, चंद्रिका नाचना।।
टीप:
एक - एक = ११, मनु पुत्र = १० (इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट,
धृष्ट, करुषय, नरिष्यन्त, प्रवध्र, नाभाग, कवि भागवत)
उदाहरण:
कामदेव - रति साथ, लिए नीराजना।
संयम हो निर्मूल, न करता याचना।।
हो संतुलन विराग - राग में साध्य है।
तोड़े सीमा मनुज, नहीं आराध्य है।।
१६. उषानाथ छंद 
विधान : रूप चौदस छंद 
वर्ण : ७ - ७ = १४  
मात्रा :  ९ - ९ = १८ 
पदांत : गुरु लघुगुरु 
नमन उषानाथ! मुँह मत मोड़ना।  
ईश! कर अनाथ, मन मत तोड़ना।। 
देव तम हर लो, सतत प्रकाश दो- 
कर-उठा लें नभ, ह्रदय हुलास दो।। 
१७. दष्ठौन छंद
विधान :
वर्ण : १० 
मात्रा: १७ 
पदांत : गुरु गुरु गुरु 
*
दे भुला वायदा वही नेता
दे भुला कायदा वही जेता

जूझता जो रहा नहीं हारा
है रहा जीतता सदा चेता

नाव पानी बिना नहीं डूबी
घाट नौका कभी नहीं खेता

भाव बाजार ने नहीं बोला
है चुकाता रहा खुदी क्रेता

कौन है जो नहीं रहा यारों?
क्या वही जो रहा सदा देता?

छोड़ता जो नहीं वही पंडा
जो चढ़ावा चढ़ा रहा लेता

कोकिला ने दिए भुला अंडे
काग ही तो रहा उन्हें सेता
१८.  ग्यारस छंद 
विधान:
वर्ण : ११ 
मात्रा : १७ 
पदांत : लघु लघु गुरु 
*
हाथ पे हाथ जो बढ़ा रखते
प्यार के फूल भी हसीं खिलते

जो पुकारो जरा कभी दिल से
जान पे खेल के गले मिलते

जो न देखा वही दिखा जलवा
थामते तो न हौसले ढलते

प्यार की आँच में तपे-सुलगे
झूठ जो जानते; नहीं जलते

दावते-हुस्न जो नहीं मिलती
वस्ल के ख्वाब तो नहीं पलते

जीव 'संजीव' हो नहीं सकता
आँख से अश्क जो नहीं बहते

नेह की नर्मदा बही जब भी
मौन पाषाण भी कथा कहते
१९. सत्यमित्रानंद सवैया
*
विधान: 
वर्ण : २६ 
मात्रा : ४० 
यति : ७-६-६-७ ।
*
गए हो तुम नहीं, हो दिलों में बसे, गई है देह ही, रहोगे तुम सदा।
तुम्हीं से मिल रही, है हमें प्रेरणा, रहेंगे मोह से, हमेशा हम जुदा।
तजेंगे हम नहीं, जो लिया काम है, करेंगे नित्य ही, न चाहें फल कभी।
पुराने वसन को, है दिया त्याग तो, नया ले वस्त्र आ, मिलेंगे फिर यहीं।
*
तुम्हारा यश सदा, रौशनी दे हमें, रहेगा सूर्य सा, घटेगी यश नहीं।
दिये सा तुम जले, दी सदा रौशनी, बँधाई आस भी, न रोका पग कभी।
रहे भारत सदा, ही तुम्हारा ऋणी, तुम्हीं ने दी दिशा, तुम्हीं हो सत्व्रती।
कहेगा युग कथा, ये सन्यासी रहे, हमेशा कर्म के, विधाता खुद जयी।
*
मिला जो पद तजा, जा नई लीक पे, लिखी निर्माण की, नयी ही पटकथा।
बना मंदिर नया, दे दिया तीर्थ है, नया जिसे कहें, सभी गौरव कथा।
महामानव तुम्हीं, प्रेरणास्रोत हो, हमें उजास दो, गढ़ें किस्मत नयी।
खड़े हैं सुर सभी, देवतालोक में, प्रशस्ति गा रहे, करें स्वागत सभी।
*
२०. द्वि इंद्रवज्रा सवैया
 विधान : 
वर्ण : ११ - ११ = २२ वर्ण 
मात्रा : १८ - १८ = ३६ 
पदांत : लघु गुरु गुरु 
माँगो न माँगो भगवान देंगे, चाहो न चाहो भव तार देंगे। 
होगा वही जो तकदीर में है, तदबीर के भी अनुसार देंगे।। 
हारो न भागो नित कोशिशें हो, बाधा मिलें जो कर पार लेंगे।
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!, नौका न चाहें मँझधार लेंगे।

नाते निभाना मत भूल जाना, वादा किया है करके निभाना।
या तो न ख़्वाबों तुम रोज आना, या यूँ न जाना करके बहाना। 
तोड़ा भरोसा जुमला बताया, लोगों न कोसो खुद को गिराया।
छोड़ो तुम्हें भी हम आज भूले, यादों न आँसू हमने गिराया।

भवानी छंद

 हिंदी में नए छंद : १.

पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
*************************
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४

दोहा सलिला

दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*

एकाक्षरी दोहा

एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावातारी जातीय बीर छंद में है

नवगीत

 नवगीत:

समय पर अहसान अपना...
संजीव 'सलिल'
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*

दोहा पंचक

 दोहा पंचक

*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
*
संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
*
वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
*****
salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
*

कुंडलिया

कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
*
दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर?
नज़र झुकाकर देखते/ नहीं आपसे दूर। .
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिये
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
***

लोकगीत - पोंछो हमारी कार

लोकगीत:
पोछो हमारी कार.....
संजीव 'सलिल'
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ,
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
२९-९-२०१० 
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

सोमवार, 28 सितंबर 2020

पुरोवाक : तुम्हें मेरी कसम - धर्मेंद्र आज़ाद

पुरोवाक्
"तुम्हें मेरी कसम" समय-साक्षी कविताएँ 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सृष्टि में मानव के विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पड़ाव वाक् शक्ति से परिचित होना है। कंठ के वाक्-सामर्थ्य का आभास होते ही मानव ने निरंतर प्रयास कर ध्वनियों में भेद करना, उनके प्रभाव को स्मृति कोष में संचित कर उनसे घटनाओं का पूर्वानुमान करना, विविध मनस्थितियों को व्यक्त करना सीखा। अनुभूत को अभिव्यक्त करते समय 'कम से कम में' 'अधिक से अधिक' कहने की चाह ने पूर्ण वाक्य के स्थान पर संक्षिप्त कथन, कहे को स्मरण रख सकने के लिए सरस बनाने हेतु समान उच्चारण के शब्दों का चयन, कहे हुए को शत्रु न समझ सकें इसलिए प्रतीकों में बात कहने, प्रिय को प्रसन्न करने के लिए कोमलकांत पदावली का प्रयोग आदि चरणों ने काव्य रचना को महत्वपूर्ण ही नहीं, अपरिहार्य भी बना दिया। वेद पूर्व काल में ही कविता आम जनों से लेकर विदवज्जनों तक के बीच में रच-बस चुकी थी और उसे कहने, स्मरण रखने और समझने में सहायक मान लिया गया था। कविता में ध्वनि खंडों की आवृत्ति ने छंदों को जन्म दिया। समान पदभार, गति-यति और पदांत योजना ने गीत, मुकतक, मुक्तिका (ग़ज़ल, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, सजल) आदि विधा-वैविध्य का विकासकर पिंगल शास्त्र को इतनी प्रतिष्ठा दी कि आचार्य पिंगल, आचार्य भरत और आचार्य नंदिकेश्वर अमर हो गए। इनमें से आचार्य नंदिकेश्वर नर्मदा तट पर जबलपुर में निर्मित बरगी बाँध के समीपवर्ती ग्राम के निवासी थे जो बाँध की झील में डूब गया। आचार्य नन्दिकेश्वर द्वारा पूजित शिवलिंग को एक पहाड़ी पर शिवालय बनाकर प्रतिष्ठित कर दिया गया है। इसलिए निर्विवाद है कि नर्मदांचल में काव्य रचना का संस्कार आदिकाल से पुष्ट होता रहा है। 
कवि पूर्व-वर्तमान तथा भविष्य में एक साथ जीते हुए काव्य रचना करता है इसलिए उसे त्रिकालदर्शी कहा जा सकता है। वह यथार्थ के संग कल्पित-अकल्पित का संयोग कर काव्य रचता है, इसलिए उसे अपनी काव्य सृष्टि का ब्रह्मा कहा जाता है। विज्ञान के हर बढ़ते चरण के साथ साहित्य और कविता पर समाप्ति का खतरा अनुभव किया जाता है किंतु 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं.....' अपितु अधिकाधिक मजबूत होती जाती है। अद्यतन अन्तर्जाल (इंटरनेट), चलभाष (मोबाइल) आदि के विकास के साथ साहित्य और पुस्तक संस्कृति पर खतरे की बात खूब की गयी किंतु दिन-ब-दिन नए कवि जन्म ले रहे हैं और अधिकाधिक संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। किसी समय वर्षों में एक पुस्तक की एक प्रति तैयार होती थी, अब हर दिन लाखों पुस्तकें छप रही हैं। विस्मय यह कि विपुल लेखन निरंतर होने पर भी नवता नष्ट नहीं हुई, न कभी होगी। हर नया कवि अपनी अनुभूतियों को भिन्न विधि से व्यक्त करता है। श्रोता और पाठक उसे भिन्न-भिन्न अर्थों में सुन-पढ़-ग्रहण कर प्रतिक्रिया देता है। कहते हैं 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि।' 
कवि कुल के युवा सदस्य धर्मेन्द्र तिजोड़ीवाले 'आजाद' माँ सरस्वती के दरबार में भाव पुष्पों की थाली 'तुम्हें मेरी कैसम' सजाकर पूजार्चन हेतु प्रस्तुत हैं। प्रकाशकों के अनुसार काव्य संकलन सबसे कम बिकते हैं तथापि कविता लिखने, पढ़ने और सुननेवाले सर्वाधिक हैं। इसका कारण केवल यह है कि कविता मनुष्य के मन के निकट है जबकि गद्य मस्तिष्क के। मनुष्य ने पहले गद्य लिखा या पद्य इसका उत्तर पहले मुर्गी हुई या अंडा की तरह अनुत्तरित है। मैं नवजात शिशु में इसका उत्तर खोजता हूँ जो कोई भाषा-बोली, शब्द, धर्म, लिंग, क्षेत्र, दल या मनुष्य को बाँटनेवाला विचार नहीं जानता। वह जानता है तो ममता, प्यार और अपनत्व। यही कविता का मूल है। 
आदिकवि वाल्मीकि ने मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिये द्वारा वध किये जाने पर उसकी संगिनी का करुण क्रंदन सुन, करुणा पूर्ण ह्रदय से पहली कविता कही। फारस में इसी प्रसंग का रूपांतरण कर शिकारी द्वारा मृगशावक का वध किये जाने पर हिरणी का क्रंदन सुनकर ग़ज़ल कही जाने का मिथक गढ़ा गया और 'गज़ाला चश्म' को ग़ज़ल के साथ जोड़ दिया गया। शैली ने लिखा 'अवर स्वीटेस्ट सांग्स आर दोस विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थॉट'। कविवर सुमित्रनंदन पंत ने कहा 'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान'। गीतकार शैलेंद्र के शब्दों में 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'। आज़ाद तबीयत आदमी अपने तक सीमित नहीं रह पाता, वह औरों के सुख से सुखी और दुःख में दुखी हो, यह स्वाभाविक है। 
बुंदेलखंड में कहा जाता है किसी के सुख में सम्मिलित न हो सको तो कोई बात नहीं पर दुःख में अवश्य सहभागी हो। काव्य संकलन 'मीत मेरे' में मेरी कविता सुख-दुःख की पंक्तियाँ है- 
सुख 
आदमी को बाँटता है। 
मगरूर बनाता है 
परिवेश से काटता है। 
दुःख आदमी को जोड़ता है, 
दिल से मिलने के लिए 
दिल दौड़ता है। 
फिर क्यों, क्यों हम
दुःख से दूर भागते हैं?
सुख की भीख माँगते हैं?
काश! सुख को 
दुःख की तरह बाँट पाते, 
काश! दुःख को 
सुख की तरह चाह पाते,
अपनी मुस्कान दे 
औरों के आँसू पी पाते, 
आदमी तो हैं, 
इंसान बनकर जी पाते। 
बकौल मिर्ज़ा ग़ालिब 'आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना'। धर्मेंद्र की कवितायेँ आदमी से इंसान होने के बीच की जीवन यात्रा के बीच हुई अनुभूतियों की अभिव्यक्तियाँ हैं। 'हाँ, ये इन दिनों की ही बात है' शीर्षक रचना 'स्व' और 'सर्व' को ही समेटे है। 
यहाँ एक बाग़-बगीचा था 
जिसे सबने मिलके ही सींचा था। 
न तो रंग थे, न ही नाम थे 
न खुदा, ईसा, न ही राम थे 
सभी गुल ही एक समान थे 
सभी एक दूजे की जान थे
काश! यह यह 'था', 'है' हो सके। 
धर्मेंद्र अनुभूति के श्रम गहनतन स्तर पर जो अनुभव करते हैं, वही कहते हैं- 
'प्यार के बदले में प्यार चाहना भी प्यार नहीं' 
यह पंक्ति सूक्ति की तरह चिरस्मरणीय है। प्यार केवल 'देने' का नाम है, 'चाहना' प्यार को दूषित कर देता है-
जैसे करते हो प्यार रब को मुझे ऐसे करो 
जैसे माँ करती है दुलार, मुझे वैसे करो 
बच्चन के के गीत की पंक्ति है 'मगर मैं हूँ कि सब कुछ जानकर अनजान बनता हूँ', धर्मेंद्र की अनुभूति है-
जानता हूँ एक पत्थर है जिसे मैं पूजता हूँ 
उसके घर में रौशनी करने स्वयं तिल-तिल जला हूँ 
दीप उसके दर जलाया है हमेशा शुद्ध घी का
और उसके भोग की खातिर कभी भूखा रह हूँ 
जखन पर मरहम लगाने आये वो या फिर न आये 
तो क्या उसके सामने ये दिल सिसकना छोड़ देगा 
'पिता' शीर्षक रचना गागर में सागर की तरह है जिसमें माँ केवल उपस्थित नहीं है, एक पंक्ति में ही माँ का पूरा अस्तित्व ही समाहित हो गया है। 'बंद संदूक' और 'खाली बंदूक' जितना पिता के विषय में कहते हैं, उससे अधिक 'राधा से अधिक दीवानापन' माँ के विषय में कह देता है। यह सामर्थ्य सहज नहीं होती। 
बंद पड़ा संदूक पिता 
इक खाली बंदूक पिता 
दिल उनका है इक कविता 
हर इक झुर्री एक कहानी 
जाने ऐसा क्या है उनमें 
माँ राधा से बड़ी दीवानी 
शनि सिंगणापुर गाँव में लोह घरों में ताले नहीं लगाते, यह अतीत की बात है। अब हमारा समाज पढ़-लिखकर सभ्य हो गया है, अब बैंक की तिजोरियाँ और ए टी एम भी सुरक्षित नहीं हैं। कवि की कामना 'विगत' को 'आगत' बनाना चाहती है- 
दरवाजे हों भी तो ताले या दीवार न हो 
ऐसी दुनिया, ऐसा घर या ऐसी रीत रचो 
कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की कालजयी रचना है गीतफरोश - 'मैं गीत बेचता हूँ जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ'। धर्मेंद्र 'गीतों के सौदागर' हैं -
दुःख इसका लें, उसका भी लें 
खुशियाँ देकर आँसू पी लें 
भीड़ भरी दुनिया में साथी 
हम वो हैं जो तनहा जी लें 
सागर हैं फिर भी गागर हैं 
हम गीतों के सौदागर हैं 
सियासत उन्हीं का खून चूसती है जो उसे जन्म देते हैं। धर्मेंद्र प्रचलित शब्दों को अप्रचलित अर्थों में उपयोग कर पाते हैं या यूँ कहें कि सामान्य शब्दों से नव अर्थों की प्रतीति करा पाते हैं। यह कमाल दुष्यंत कुमार ने बखूबी किया- 'अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।' आपातकाल के दौर में सेंसर से बचकर ऐसे पंक्तियाँ वह सब कह सकीं जो इनका सामान्य अर्थ नहीं है। 'बुद्ध मुस्कुराये' में धर्मेंद्र ने बुद्ध, पाकिस्तान आदि शब्दों का प्रयोग भिन्नार्थों में किया है- 
अप्पने-अपने स्वारथ से ही 
घर-घर पाकिस्तान बनाये 
बुद्ध मंद-मंद मुस्काये.... 
.... हिरोशिमा-नागासाकी के 
जब दोनों को सपने आये 
ताजमहल में हाथ मिलाये 
लेकिन ह्रदय नहीं मिल पाये 
फिर गुर्राये 
समकालिक सियासत पर तीक्ष्ण व्यंग्य काबिले-तारीफ़ है। यह पूरी रचना अपने समय का जीवित दस्तावेज है। ओ राधे, चल सको तो चलो, लड़की के सपने, आखिरकार, किराये का घर, लोकतंत्र में हनुमान आदि कवितायें समय और सत्ता की विद्रूपता को निष्पक्षता और निर्ममता सहित उद्घाटित करती हैं। 
ईश्वर के पास, साक्षात्कार, आहट, साहस, गीता, रोशनी, ऊँचा, गंदगी, यादों की देह, लड़की के बारे में, धुआँ, संघर्ष, बेटियाँ जानती है जैसी लघ्वाकारी रचनाएँ आइना हैं जिनमें कवि के आज़ाद ख्यालों के नाक-नक्श देखे जा सकते हैं। इन रचनाओं में अन्तर्निहित तीखापन और बेबाकी मंटो की याद दिलाता है- 
किसी साक्षात्कार में 
एक औरत से 
दनादन सवाल पूछे गये 
नौकरी क्यों करना चाहती हो?
आपके पतिदेव क्या करते हैं?
धर्म राजनीति शिक्षा साहित्य 
न्याय और इतिहास के अलावा 
दुनिया के बारे में क्या जानती हो?
जवाब में उसने बटनें खोलीं 
नाडा खोला 
और अचानक नंगी हो गई। 
एक बानगी और देखें -
कण-कण में नहीं है ईश्वर 
अगर होता तो 
टट्टी पेशाब में भी होता 
और नहीं होता अगर 
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा चर्च 
जैसी जगहों में तो नहीं ही होता। 
इस रचना का अंत भी चौंकाता और सोचने के लिए विवश करता है- 
समझ से परे है 
मेरा हर एक विचार 
कठोर नास्तिकता के बावजूद 
ईश्वर के पक्ष में क्यों है?
कहना न होगा कि ये रचनाएँ कवि को एक वर्ग विशेष के आक्रोश का पात्र बना सकती हैं। इस समय ऐसी रचनाएँ लिखने और प्रकाशित करने के अपने खतरे हैं लेकिन खतरों से खेले बिना कवि धर्म का निर्वहन हो भी नहीं सकता। 'आज़ाद' तबियत कवि 'आज़ाद' रहे बिना समय का सत्य कह भी नहीं सकता। 
संकलन में ४७ गीतों के साथ ४२ गज़लें भी सम्मिलित हैं। इन्हें समान रचनाकाल के आधार पर एक संकलन में सँजोया गया है। लोक साहित्य के समतुकांती दोहड़ों, साखियों और संस्कृत के श्लोकों में प्रयुक्त ध्वनि-खण्डों के आधार पर अरबी-फ़ारसी में समभारिक ध्वनिखंड रखकर बनाये गए रुक्नों और बह्रों का प्रयोग करते ग़ज़ल लिखी गयी। मुगलों आक्रांताओं और सैनिकों के बीच सैन्य शिविरों में आरंभ हुई बातचीत में उनके देशों तथा भारत के पश्चिमी सीमान्त क्षेत्रों की भाषाओँ के सम्मिलन से लश्करी  का जन्म हुआ जो क्रमशः उर्दू और रेख़्ता के रूप में विकसित हुई। 
कुछ लोगों के मतानुसार अरब में ग़ज़ल नामक एक कवि था जिसने अपनी आयु प्रेम और मस्ती में बिता दी। उसकी प्रेमपरक कविताएँ ग़ज़ल कहलाईं (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना)। अन्य मतानुसार ग़ज़ल को  अरब में अरबी-फ़ारसी 'कसीदा' लघु प्रेम गीत की तश्बीब (शुरुआत)  को तग़ज़्ज़ुल (ग़ज़ल) कहा गया (यदा कदा, डॉ. बाबू जोसेफ-स्टीव विंसेंट, पृ. ५)। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ 'औरतों से बातें करना' (शमीमे बलाग़त, पृ. ४), 'जवानी का हाल बयान करना' (सरवरी, जदीद उर्दू शायरी पृ. ४८), 'इश्क़ व् जवानी का ज़िक्र' (कादिरी, तारीखो तनक़ीद, पृ. १०१), 'दिलवरों की बात (डॉ. सैयद ज़ाफ़र, तनक़ीद और अंदाज़े नज़र, पृ. १४४), 'नाज़ुक खयाली  का जरिआ' (तनक़ीद क्या है, पृ. १३३), मजे की चीज (डॉ. सैयद अब्दुल्ला) है। आरंभ में खुसरो, सरवरी आदि ग़ज़ल का  उर्दू में, एक फ़ारसी में लिखते थे।  जिस ग़ज़ल में खयालात व जज़्बात  औरतों की तरफ से हो उसे रेख़्ती (शमीमे बलाग़त पृ. ४८) कहा गया। 
एक अन्य मत के अनुसार ग़ज़ल शब्द की उत्पत्ति ग़िज़ाला अर्थात हिरनी से हुई (नरेश नदीम, उर्दू कविता और छंद शास्त्र, पृ. १५)।गज़ाला-चश्मी (प्रेमिका से बातचीत) को भी ग़ज़ल कहा गया। भारत में मिथुनरत नर क्रौंच का बहेलिये द्वारा वध होने पर क्रौंची का विलाप सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से निकली पंक्तियों से काव्योत्पत्ति मान्य है। अरब के रेगिस्तान में क्रौंच नहीं मिलता। इसलिए हिरनी के बच्चे का वध होने पर उसके मुख से निकली चीत्कार को ग़ज़ल की उत्पत्ति बता दिया गया। कुछ लोगों के ख़याल में छंद और तुक की पाबंदी ग़ज़ल के पाँव में पड़ी बेड़ियाँ हैं (उर्दू काव्यशास्त्र में काव्य का स्वरूप, डॉ. रामदास नादार, पृ. ९५)। उस्ताद शायरों मिर्ज़ा ग़ालिब ने ग़ज़ल को  'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' विशेषणों से नवाज़ा (ऑफ़ एन्ड ऑन, अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह, अनिल जैन, पृ. १६ )। कालांतर में ग़ज़ल ने इश्क़े मज़ाजी (लौकिक प्रेम) के साथ-साथ इश्के-हक़ीक़ी (अलौकिक प्रेम) को भी आत्मसात कर लिया।  
इस पृष्ठ भूमि में धर्मेंद्र की ग़ज़लें न तो विषय, न लय दृष्टि से उर्दू ग़ज़ल हैं। हिंदी ग़ज़ल  पर प्रथम शोध करनेवाले डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के अनुसार साठोत्तरी उर्दू ग़ज़ल वास्तव में हिंदुस्तानी ग़ज़ल है (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ . रोहिताश्व अस्थाना, पृ. १५)। फ़िराक गोरखपुरी ग़ज़ल को 'असंबद्ध कविता और समर्पणवादी मिज़ाज की' मानते हैं (उर्दू भाषा और साहित्य, रघुपति सहाय फ़िराक, पृ. ३५०-३५१)।कबीर प्रथम हिंदी ग़ज़लकार हैं। हिंदी ग़ज़ल का वैशिष्ट्य देशज शब्दों व हिंदी छंदों का समावेशन है। हिंदी ग़ज़ल हिंदी व्याकरण और पिंगल को अपनाती है। तदनुसार ङ, ञ, ड, ड़, ण, ऋ आदि वर्णों तथा क्त, ख्य, ज्ञ, च्छ, ट्य, ठ्य , त्य, क्त, क्ष, त्र, आदि संयुक्ताक्षरों का प्रयोग करती है। ज़हीर कुरैशी के अनुसार 'हिंदी प्रकृति की ग़ज़ल आम आदमी की जनवादी (भीड़वादी नहीं) अभिव्यक्ति है (हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास, डॉ . रोहिताश्व अस्थाना, पृ. १५८)। शिवओम अंबर के अनुसार 'समसामयिक हिंदी ग़ज़ल भाषा के भोजपत्र पर लिखी हुई विप्लव की अग्निऋचा है'। डॉ. उर्मिलेश हिंदी ग़ज़ल में 'हिंदी की आत्मा' की उपस्थिति आवश्यक मानते हैं कुंवर बेचैन इसे 'जागरण के बाद उल्लास' कहते हैं। वस्तुत: आनुभूतिक तीव्रता और संगीतात्मकता हिंदी ग़ज़ल के प्राण हैं। हिंदी ग़ज़ल शिल्प पक्ष पर ग़ज़लपुर, नव ग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम नामित तीन शोध कृतियों के कृतिकार सागर मीरजापुरी ग़ज़ल को मुक्तिका, मतला को उदयिका, मकता को अंतिका, काफिया को तुकांत, रदीफ़ को पदांत कहते हैं। मूलत: संस्कृत कालांतर में हिंदी छंदों आधार पर बनी फ़ारसी रुक्नों और बह्रों का खुलासा सृजन -आर. पी. शर्मा 'महरिष', संवेदनाओं के क्षितिज -रसूल अहमद साग़र, ग़ज़ल ज्ञान -रामदेव लाल विभोर आदि अनेक पुस्तकों में किया गया है। हिंदी ग़ज़ल को मुक्तिका, गीतिका, सजल, तेवरी, अनुगीत आदि नाम हैं। धर्मेंद्र हिंदी ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल ही कहते हैं।
बाईस मात्रिक महारौद्र जातीय कुंडल छंद में कही ग़ज़ल में धर्मेंद्र संगत का असर उदयिका में बताते हैं-
मटर के साथ में गर घास-फूस सिंचता है
चने के साथ में 'आज़ाद' घुन भी पिसता है।
प्रथम द्विपदी में उपनाम का प्रयोग, वह भी शब्द कोशीय अर्थ में करना गज़लकार की सामर्थ्य का साक्ष्य है।
सत्रह मात्रिक महासंस्कारी जातीय छंद में कहन की सादगी देखते ही बनती है -
दोष उनका भी तो बराबर था
क्यों मुझे ही मिली सजा तन्हा
मैं तुम्हें साथ ले नहीं सकता
जब गया आदमी गया तनहा
धर्मेंद्र गहरे सवाल भी मासूमियत से पूछते हैं-
पास मेरे हल नहीं इस बात का
प्रेम से क्यों पेट यह भरता नहीं?
पौराणिक पात्रों के माध्यम से कम शब्दों में अधिक अर्थ की अभिव्यक्ति देखें -
दोस्तो घर में विभीषण की तरह जो लोग हैं
राज की बातों से उनको बेखबर रक्खा करो
सुना है राम होता है 'धरम' आराम में लेकिन
वो दिल बीमार करने का कभी मौका नहीं देते
व्यंजना शक्ति का कमाल देखिये -
दोस्ती है ये ऐतबार करें
एक दूजे पे आओ वार करें
अब तो दुश्मन भी दुआ देते हैं
क्या हुई मुझसे खता याद नहीं       
'तुम्हें मेरी कसम' की रचनाएँ पाठक को चिंतन-मनन प्रेरित करेंगी। ये रचनाएँ गुदगुदाती नहीं तिलमिलाती हैं, यह तिलमिलाहट बदलाव की मानसिकता को जन्म देने में समर्थ हो, यही कामना है। 
*****
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४ , ईमेल salil.sanjiv@gmail.com   




रविवार, 27 सितंबर 2020

छत्तीसगढ़ी पर्व संगोष्ठी २७-९-२०२०

छत्तीसगढ़ी पर्व संगोष्ठी  २७-९-२०२०  
हे हरि! ठाकुर हो तुम्हीं, मधुर पुनीता याद  
राष्ट्र-लक्ष्मी शत नमन, श्रम सीकर हो खाद  
कर चेतन माँ भारती, ज्ञान रश्मि विस्तार
शक्ति ईश्वरी साथ हो, दे संतोष अपार 
ज्ञान लता सुषमा अमित, दे संतोष हमेश 
गीता-सूरज तम हरे, सपन सजाये देश 
रजनी पूनम की हँसे, पा संगीता साथ 
गोवर्धन पर तपस्या, करें कन्हैया नाथ 
वीणा सुन तन्मय सु मन, जमुना सलिल अथाह 
टीकेश्वरी तारकेश्वरी, पावन सृजन प्रवाह 
काव्य चमेली की महक, रामकली है साथ 
बोधिराम मीनू गहें, सलिल एनुका हाथ 
तम हर लेती वर्तिका, अरुणा लिए उजास 
निधि जीवन की नव सृजन, आशा लिए हुलास  
अन्य समस्त सहयोगियों को नमन        
  
      

बघेली सरस्वती वंदना

बघेली सरस्वती वंदना
डॉ. नीलमणि दुबे
शहडोल
*
को अब आइ सहाइ करै,पत राखनहार सरस्सुति मइया,
तोर उजास अॅंजोर भरै,उइ आइ मनो रस-रास जुॅंधइया!
बीन बजाइ सॅंभारि करा,हमरे तर आय न आन मॅंगइया,
भारत केर उबार किहा,महॅंतारि बना मझधार क नइया!!
नीलमणि दुबे
दिनांक २६-०९-२०१९

सरस्वती कवच

सरस्वती कवच

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार विश्वविजय सरस्वती कवच का नित्य पाठ करने से साधक में अद्भुत शक्तियों का संचार होता है तथा जीवन के हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। देवी सरस्वती के इस विश्वविजय सरस्वती कवच को धारण करके ही महर्षि वेदव्यास, ऋष्यश्रृंग, भरद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पाई थी। यह विश्वविजय सरस्वती कवच इस प्रकार है

*
श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वत:।
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु।।
ऊं सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्र पातु निरन्तरम्।
ऊं श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु।।
ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोवतु।
ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु।।
ऊं श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपंक्ती: सदावतु।
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु।।
ऊं श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धं मे श्रीं सदावतु।
श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्ष: सदावतु।।
ऊं ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्।
ऊं ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम पृष्ठं सदावतु।।
ऊं सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु। ऊं
रागधिष्ठातृदेव्यै सर्वांगं मे सदावतु।।
ऊं सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु।
ऊं ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु।।
ऊं ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा।
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु।।
ऊं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैर्ऋत्यां मे सदावतु।
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु।।
ऊं सदाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु।
ऊं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेवतु।।
ऊं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु।
ऊं ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोध्र्वं सदावतु।।
ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु।
ऊं ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोवतु।।
(ब्र. वै. पु. प्रकृतिखंड ४/७३-८५)

गीत

गीत 
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सिया हरण को देख रहे हैं
आँखें फाड़ लोग अनगिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
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'गिरि गोपाद्रि' न नाम रहा क्यों?
'सुलेमान टापू' क्यों है?
'हरि पर्वत' का 'कोह महाजन'
नाम किया किसने क्यों है?
नाम 'अनंतनाग' को क्यों हम
अब 'इस्लामाबाद' कहें?
घर में घुस परदेसी मारें
हम ज़िल्लत सह आप दहें?
बजा रहे हैं बीन सपेरे
राजनीति नाचे तिक-धिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
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हम सबका 'श्रीनगर' दुलारा
क्यों हो शहरे-ख़ास कहो?
'मुख्य चौक' को 'चौक मदीना'
कहने से सब दूर रहो
नाम 'उमा नगरी' है जिसका
क्यों हो 'शेखपुरा' वह अब?
'नदी किशन गंगा' को 'दरिया-
नीलम' कह मत करो जिबह
प्यार न जिनको है भारत से
पकड़ो-मारो अब गिन-गिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
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पण्डित वापिस जाएँ-बसाएँ
स्वर्ग बनें फिर से कश्मीर
दहशतगर्द नहीं बच पाएँ
कायम कर दो नई नज़ीर
सेना को आज़ादी दे दो
आज नया इतिहास बने
बंगला देश जाए दोहराया
रावलपिंडी समर ठने
हँस बलूच-पख्तून संग
सिंधी आज़ाद रहें हर दिन
द्रुपद सुता के चीरहरण सम
घटनाएँ होतीं हर दिन।
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