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सोमवार, 11 मार्च 2019

लघुकथा कन्हैया

लघुकथा
कन्हैया
*
नामकरण संस्कार को इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है? यह तो व्यक्ति के जीवन का एक पल मात्र है, उसे किस नाम से पुकारा जाता है इससे औरों को क्या फर्क पड़ता है? मित्र ने पूछा।
नामकरण किसी को पुकारना मात्र नहीं है। नाम रखना, नाम धरना, नाम थुकाना, नाम करना और नाम होना सबका अलग-अलग बहुत महत्त्व है। किसी जातक के संभावित गुणों का पूर्वानुमान कर तदनुसार पुकारना नामकरण करना है- जनक वह जो पिता की तरह प्रजा का पालन करे, शंकर वह जो शंका का अरि हो अर्थात शंका का अंत कर विश्वास का सृजन करे, श्याम अँधेरे का अंत कर सके, भारत जो प्रकाश फ़ैलाने में रत हो। नाम देते समय औचित्य का विचार अपरिहार्य है। किसी का नाम रखना या नाम धरना एक मुहावरा है जिसका अर्थ किसी त्रुटी के लिए दोषी ठहराना है। 'नाम थुकाना' अर्थात बदनामी कराना। नाम करना या नामवर होना का आशय यश पाना है। नाम होना का मतलब कीर्ति फैलाना है।
जन मानस गुण-धर्म को स्मरण रखता है। भाई से द्रोह करने वाले विभीषण, सबको रुलानेवाले रावण, शासक की पीठ में छुरा भोंकनेवाले मीरजाफर, स्वामिनी को गलत सलाह देनेवाली मंथरा, शिशु वध का प्रयास करनेवाली पूतना, अत्याचारी कंस, अहंकारी दुर्योधन आदि के नाम आज तक कोई अपनी सन्तान क्या पशुओं तक को नहीं देता।
तब तो भविष्य में 'कन्हैया' नाम भी इसी श्रेणी में सम्मिलित हो जाएगा, मित्र ने कहा।
***

हाइकु

हाइकु के रँग
संजीव
*
धरने पर
बैठा मुख्यमंत्री
आँखें चुराये
*
रंग-बिरंगे
नमो गुजरात को
रोज भुनाएं
*
ममो का मौन
अनकहनी कह
होली मनाये
*
झोपड़ी में जा
शहजादा लालू को
गले लगाये
*
नारी बेचारी
ममता की मारी है
ख्वाब सजाये
*
अन्ना हजारे
मुसीबत के मारे
खोजें सहारे
*
माया की काया
दे न किसी को कभी
थोड़ी भी छाया
*
बाल्टी का रंग
अम्मा को पड़े कम
करुणा दंग
*

मुक्तिका: खुली आँख सपने

मुक्तिका:
खुली आँख सपने…
संजीव
*
खुली आँख सपने बुने जा रहे हैं
कहते खुदी खुद सुने जा रहे हैं
वतन की जिन्हें फ़िक्र बिलकुल नहीं है
संसद में वे ही चुने जा रहे हैं
दलतंत्र मलतंत्र है आजकल क्यों?
जनता को दल ही धुने जा रहे हैं
बजा बीन भैसों के सम्मुख मगन हो
खुश है कि कुछ तो सुने जा रहे हैं
निजी स्वार्थ ही साध्य सबका हुआ है
कमाने के गुर मिल गुने जा रहे है
११.३.२०१४ 

नव गीत

नव गीत: 
ऊषा को लिए बाँह में, 
संध्या को चाह में. 
सूरज सुलग रहा है- 
रजनी के दाह में... 
*
पानी के बुलबुलों सी
आशाएँ पल रहीं.
इच्छाएँ हौसलों को
दिन-रात छल रहीं.
पग थक रहे, मंजिल कहीं
पाई न राह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*
तृष्णाएँ खुद ही अपने
हैं हाथ मल रहीं.
छायाएँ तज आधार को
चुपचाप ढल रहीं.
मोती को रहे खोजते
पाया न थाह में.
सूरज सुलग रहा है-
रजनी के दाह में...
*

११-३-२०१० 

मुक्तक

मुक्तक
मुक्तक: 
समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले. 
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले. 
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर- 
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*

समय बदला तो समय के साथ ही प्रतिमान बदले.
प्रीत तो बदली नहीं पर प्रीत के अनुगान बदले.
हैं वही अरमान मन में, है वही मुस्कान लब पर-
वही सुर हैं वही सरगम 'सलिल' लेकिन गान बदले..
*

रूप हो तुम रंग हो तुम सच कहूँ रस धार हो तुम.
आरसी तुम हो नियति की प्रकृति का श्रृंगार हो तुम..
भूल जाऊँ क्यों न खुद को जब तेरा दीदार पाऊँ-
'सलिल' लहरों में समाहित प्रिये कलकल-धार हो तुम..

*
नारी ही नारी को रोके इस दुनिया में आने से.
क्या होगा कानून बनाकर खुद को ही भरमाने से?.
दिल-दिमाग बदल सकें गर, मान्यताएँ भी हम बदलें-
'सलिल' ज़िंदगी तभी हँसेगी, क्या होगा पछताने से? 

*
ममता को सस्मता का पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
*

११.३.२०१० 

रविवार, 10 मार्च 2019



चार मुक्‍तक

(प्रो.सी़.बी. श्रीवास्‍तव ‘‍ विदग्ध ’  ए १ , शिलाकुंज, नयागांव जबलपुर )


धृणा,द्वेष और बैर रख ही चलता पाकिेस्‍तान है
अपने हर व्‍यवहार में वह सदा से बेईमान है।
हमारी सद्भाव की सब कोशिशें निष्‍फल हुई
उसे अपनी दुष्‍टता पर ही रहा अभिमान है।।


सद्भाव के बदले भी जिसका शत्रुता का आचरण
उस कृतघ्नी प्रति हो कैसे क्रोध का अब संवरण?
दिया जिसने दगा नित उस पर  भला कैसा  भरोसा।
किया जाना उचित उसका इस समय निर्मम दमन।।

राष्‍ट्र की बलि वेदी पर जो हो गये अनुपम हवन
उन शहीदों को हमारा अश्रुपूरित शतशत नमन।
है प्रबल आक्रोश हर एक मन यही है चाहता
इस बढ़े आतंक का अब चाहिये निर्मम दमन।।


    ले लिया पुलवामा का बदला भी हमने खून से
कोई उलझे व्‍यर्थ न अब मेरे हिन्‍दुस्‍तान से।
  समझ लें दुश्‍मन सभी इस समय की सच्‍चाई को
करेगा जो शत्रुता वह जायेगा अब जान से।।




मिली भगत’ आज से आपके लिए उपल्बध् है

मिली भगत

हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन

संपादक - विवेक रंजन श्रीवास्तव

मूल्यः 400 रू हार्ड बाउंड संस्करण , पृष्ठ संख्या 256

प्रकाशक: रवीना प्रकाशन, दिल्ली-110094

फोन- 8700774571,9205127294

क्या है मिली भगत------

विसंगतियो पर व्यंग्य के प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “व्यंग्य“ . पिछली अर्धशती में हास्य और व्यंग एक नयी साहित्यिक विधा के रूप में स्थापित हुआ है .यद्यपि व्यंग्य अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है , संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है , प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में व्यंग्य है , पर उनका यह कटाक्ष किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने के लिए ही होता है . कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता तो केवल उसकी ढाल है. हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है , जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है . व्यंग्य के कटाक्ष हमें तिलमिलाकर रख देते हैं . व्यंग्य लेखक के , संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है . शायद व्यंग्य , उन्ही तानो और कटाक्ष का साहित्यिक रचना स्वरूप है , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं . कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है , भी कुछ कुछ व्यंग्य , छींटाकशी , हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है .

बात उन दिनो की है जब मैं किशोरावस्था में था , हम मण्डला में रहते थे . घर पर कई सारे अखबार और पत्रिकायें खरीदी जाती थी . साप्ताहिक हिंदुस्तान , धर्मयुग , सारिका , नंदन आदि पढ़ना मेरा शौक बन चुका था . नवीन दुनिया अखबार के संपादकीय पृष्ठ का एक कालम सुनो भाई साधो और नवभारत टाइम्स का स्तंभ प्रतिदिन मैं रोज बड़े चाव से पढ़ता था . पहला परसाई जी का और दूसरा शरद जी का कालम था . छात्र जीवन में जब मैं इस तरह का साहित्य पढ़ रहा था और इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर का नाट्यरूपांतरण देख रहा था शायद तभी मेरे भीतर अवचेतन में एक व्यंगकार का भ्रूण आकार ले रहा था . बाद में संभवतः इसी प्रेरणा से मैने डा देवेन्द्र वर्मा जो मण्डला में पदस्थ एक अच्छे व्यंगकार थे व वहां संयुक्त कलेक्टर भी रहे , के व्यंग संग्रह का नाम “जीप पर सवार सुख“ रखा जो स्कूल के दिनो में पढ़ी शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से अभिप्रेरित रहा होगा . मण्डला से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र मेकलवाणी में मैने “ दूरंदेशी चश्मा “ नाम से एक व्यंग्य कालम भी कई अंको में निरंतर लिखा . फिर मेरी किताबें रामभरोसे , कौआ कान ले गया तथा मेरे प्रिय व्यंग लेख व धन्नो बसंती और बसंत , पुस्तकें छपीं व पुरस्कृत हुईं . मैने कई पत्रिकाओ के संपादन का काम किया है , ब्लागर्स पार्क , विद्युत सेवा , ब्रम्होति ,रेवा तरंग, चित्रांश चर्चा उनमें से कुछ हैं . शक्ति संदेश , इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की पत्रिका आदि के संपादन मण्डल में लगातार हूं . राष्ट्रीय हिन्दी मेल के साहित्य पृष्ठ के संपादन की जबाबदारी भी अवैतनिक रूप में उठाता रहा हूं , इसी क्रम में विचार प्रकाशन की इस व्यंग्य संग्रह प्रकाशन योजना से जुड़ना मेरे लिये गौरव की बात है .

प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं , क्योकि किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य ,अखबार में फटाफट छपता है , पाठक को प्रभावित करता है , गुदगुदाता है , थोड़ा हंसाता है , कुछ सोचने पर विवश करता है , जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है , जैसे आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय . अखबार के साथ ही व्यंग्य भी रद्दी में बदल जाता है . उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है . किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो . मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है .

नये लेखक , युवा लेखक , बुजुर्ग लेखक , बहु प्रकाशित रचनाकार , अनेकानेक विधाओ के पारंगत लेखक , सुस्थापित व्यंग्यकार , वे जिनकी अनेक किताबें छप चुकी हैं तथा वे भी जिन्होने स्वयं अनेक संपादन किये हैं, स्त्री लेखिकायें, पुरुष लेखक , देश के लेखक , विदेशो से लेखक ,इंजीनियर , डाक्टर ,आस्ट्रेलिया , केनेडा , अबूधाबी से लेकर बिहार और मध्यप्रदेश के आंचलिक व्यंग्यकार भी इस मिली भगत में शामिल हैं, इसलिये विषयवस्तु , भाव भाषा में विविध आयाम हैं , अनेकता में एकता की यह मिली भगत मेरे लिये संतोष व गर्व का विषय है . प्राप्त रचनायें अलग अलग फांट में व अलग अलग तरीके से भेजी गई मिलीं थी , प्रयत्नपूर्वक सबको मिलाकर मिली भगत बनाना , दुष्कर काम था फिर भी यत्न किया है , व्यंग्यकार संपादक ठस्से से कह सकता है कि जो गलतियां हुई हो वे मेरी नही तकनीक की मानी जावें . व्यंग्य बड़ी मारक विधा है , जाने कब किसको कौन सा शब्द चुभ जावे , अतः वैधानिक डिस्क्लेमर यह है कि रचना के गुण धर्म कंटेंट के लिये रचनाकार स्वयं जिम्मेदार है , संपादक या प्रकाशक का लेना देना केवल वाहवाही लूटने तक ही है . बढ़िया बढ़िया गप , कड़वा कड़वा थू , यही तो आज समाज में प्रचलन में है . यदि मिली भगत आपके आपाधापी भरे , घड़ी की सुई के साथ घूमते जीवन में पल भर के लिये आपको सुकून का अहसास दे सके , आपके तनाव भरे चेहरे पर किंचित मुस्कान ले आये , पढ़ते हुये कही आपको लगे कि अरे यह तो मेरा देखा हुआ , भोगा हुआ यथार्थ ही है जिसे व्यंग्यकार ने अभिव्यक्ति दे दी है , तो हमारा प्रयत्न सफल . प्रकाशक जी को धन्यवाद और सभी व्यंग्यकारो को साधुवाद . पाठको से प्रतिक्रिया की अपेक्षा है, वही हम व्यंग्यकारो की वास्तविक उपलब्धि होगी .

विवेक रंजन श्रीवास्तव

संपादक

अनुक्रमणिका

१ अभिमन्यु जैन

१ बारात के बहाने

२ अभिनंदन

२ अनिल अयान श्रीवास्तव

१ देश भक्ति का सीजन

२ खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें

३ अलंकार रस्तोगी

१ साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज

२ एक मुठभेड़ विसंगति से

४ अरुण अर्णव खरे

१ बच्चों की गलती थानेदार और जीवन राम

२ बुजुर्ग वेलेंटाईन

५ इंजी अवधेश कुमार ’अवध’

१ पप्पू - गप्पू वर्सेस संता - बंता

२ सफाई अभिनय

६ .डॉ अमृता शुक्ला

१ कार की वापसी

२ बिन पानी सब सून

.७. बसंत कुमार शर्मा

१ वजन नही है

२ नालियाँ

८. ब्रजेश कानूनगो

१ उपन्यास लिख रहे हैं वे

२ वैकल्पिक व्यवस्था

९. छाया सक्सेना ’ प्रभु ’

१ फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते

२ ध्यानचंद्र बनाम ज्ञानचंद्र

१०. धर्मपाल महेंद्र जैन

१ एक तरफा ही सही

२ गड्ढ़े गड्ढ़े का नाम

११. जय प्रकाश पाण्डे

१ नाम गुम जाएगा

२ उल्लू की उलाहना

१२. किशोर श्रीवास्तव

१ सावधान, यह दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र है

२ घटे वही जो राशिफल बताये

१३. कृष्णकुमार ‘आशु

१ पुलिसिया मातृभाषा

२ फलित होना एक ‘श्राप’ का

१४. मंजरी शुक्ला

१ जब पडोसी को सिलेंडर दिया

२ बिना मेक अप वाली सेल्फी

१५. मनोज श्रीवास्तव

१ अथ श्री गधा पुराण

२ यमलोक

१६. महेश बारमाटे “माही“

१ बेलन, बीवी और दर्द

२ सब्जी क्या बने एक राष्ट्रीय समस्या

१७. ओम वर्मा

१ अनिवार्य मतदान के अचूक नुस्ख़े ।

२ ‘दो टूक’

१८. ओमवीर कर्ण

१ प्रेम कहानी के बहाने

२ पालिटीशियन और पब्लिक

१९. डाॅ. प्रदीप उपाध्याय

१ ढ़ाढ़ी और अलमाइजर का रिश्ता

२ उनको रोकने से क्या हासिल

२० .रमाकान्त ताम्रकार

१ दो रुपैया दो भैया जी

२ जरा खिसकना

२१. रमेश सैनी

१ ए.टी.एम. में प्रेम

२ बैगन का भर्ता

२२. राजशेखर भट्ट

१ निराधार आधार

२ वेलेंटाईन-डे की हार्दिक शुभकामनायें

२३ . राजशेखर चैबे

१ ज्योतिष की कुंजी

२ डागी फिटनेस ट्रेकर

२४. राजेश सेन

१ डार्विन, विकास-क्रम और हम

२ बतकही के शोले और ग्लोबल-वार्मिंग

२५. समीक्षा तैलंग

१ विदेश वही जो अफसर मन भावे

२ धुंआधार धुंआ पटाखा या पैसा

२६.संतराम पाण्डेय

१ लेने को थैली भली

२ बिना जुगाड़ ना उद्धार

२७. संजीव सलिल

१ हाय! हम न रूबी राय हुए

२ दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय

२८. इंजी संजय अग्निहोत्री

१ यथार्थ परक साहित्य

२ अदभुत लेखक

२९. संजीव निगम

१ लौट के उद्धव मथुरा आये

२ शिक्षा बिक्री केन्द्र

३०. समीर लाल उड़नतश्तरी

१ किताब का मेला या मेले की किताब

२ रिंग टोनः खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का

३१. शशांक मिश्र भारती

१ पूंछ की सिधाई

२ अथ नेता चरित्रम्

३२. प्रो.शरद नारायण खरे

१ ख़ुदा करे आपका पड़ोसी दुखी रहे

२ छोड़ें नेतागिरी

३३. शशिकांत सिंह ’शशि’

१ गैंडाराज

२ सुअर पुराण

३४. शिखर चंद जैन

१ आलराउंडर मंत्री

२ मुलाकात पार्षद से

३५. सुधीर ओखदे

१ विमला की शादी

२ गणतंत्र सिसक रहा है

३६. विक्रम आदित्य सिंह

१ देश के बाबा

२ ताजा खबर

३७. विनोद साव

१ दूध का हिसाब

३८. विनोद कुमार विक्की

१ पत्नी, पाकिस्तान और पेट्रोल

२ व्यथित लेखक उत्साहित संपाद

39. विजयानंद विजय

१ आइए, देश देश खेलते हैं

२ हम तो बंदर ही भले है

40. विवेक रंजन श्रीवास्त

१ सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिये

२ आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती

41. अमन चक्र

१ कुत्ता

2 मस्तराम

42. रमेश मनोहरा

१ उल्लुओ का चिंतन

43. दिलीप मेहरा

१ कलयुग के भगवान

२ विदाई समारोह और शंकर की उलझन

प्रकाशक

रवीना प्रकाशन, दिल्ली-110094

9205127294, 9700774571
Vivek Ranjan Shrivastava के साथ.

बुधवार, 6 मार्च 2019

लघुकथा कल से कल

प्रतिनिधि भारतीय लघुकथाएँ हेतु अब तक चयनित सहयोगी
१० पृष्ठ, १० लघुकथाएँ, चित्र-परिचय

१, संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
२. कांता राय, भोपाल
३. मिथलेश बड़गैया, जबलपुर
४. वंदना सहाय, मुंबई
५. प्रेरणा गुप्त, कानपूर
६..अरुण शर्मा, भिवंडी
७. सुनीता यादव
८. बसंत शर्मा
-----------------------
सार्थक भारतीय लघुकथाएँ हेतु अब तक चयनित सहयोगी
२ पृष्ठ, २ लघुकथाएं, चित्र-पता

१, संजीव वर्मा 'सलिल', जबलपुर
२. कांता राय, भोपाल
३. मिथलेश बड़गैया, जबलपुर
४. वंदना सहाय, मुंबई
५. प्रेरणा गुप्त, कानपूर
६.अरुण शर्मा, भिवंडी
७. सुनीता यादव
८. चन्द्रेश छ्तलानी
९. सरस्वती माथुर

१०. प्रभात दुबे
११. राजलक्ष्मी शिवहरे
१२. छाया त्रिवेदी 
१३. मिथलेश बड़गैया 
१४. बसंत शर्मा 
१५. 

पुरोवाक 
लघुकथा : कल से कल  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि मानव ने प्रकृति (नदियों, झरनों, हवा, भूकंप आदि), जंतुओं, पंछियों, पशुओं आदि के साथ ध्वनि का उच्चार तथा प्रयोग सीखकर उसे अपनी स्मृति में रखने और उसे किसी विशिष्ट अर्थ से संयुक्त कर अपने साथियों और संतति को सिखाने में जैसे-जैसे दक्षता प्राप्त की, वैसे-वैसे वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिकाधिक विकसित होता गया। अपने अनुभवों को चित्रांकित कर, सुरक्षित रखने की विधि विकसित करने के बाद भी वह अपने सब अनुभव अगली पीढ़ी को नहीं दे पा रहा था। अत:, उसने ध्वनि-समुच्चय को अर्थ के साथ जोड़कर शब्द, शब्द समुच्चय से वाक्य और वाक्य को सुरक्षित रखने के लिए लिपि का आविष्कार किया और अन्य जीवों से अधिक उन्नत हो गया। अपनी शारीरिक कमजोरी को बौद्धिक शक्ति से आवृत्त कर मनुष्य ने शेष सभी जीवों पर जय प्राप्त कर ली। अपने जीवनानुभवों और अनुभूतियों को अन्य जनों से बाँटने की चाह में मनुष्य ने भाषा (वाक् + लिपि), भाषा में  गद्य-पद्य की शैलियाँ विकसित कीं। गद्य में वर्णनात्मकता और पद्य में चारुत्व के समावेशन ने मनुष्य को दोनों शैलियों में विविध विधाओं के विकास की और प्रवृत्त किया। लघुकथा गद्य के अंतर्गत विकसित ऐसी ही एक विधा है। इन विधाओं का विकास विश्व के विविध भागों में रह रहे मानव-समूहों में होता रहा जिसका कोई तुलनात्मक विवरण उपलब्ध नहीं है। मानव समूहों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय ये विधाएँ भी स्थानांतरित व विकसित होती रहीं। 

आधुनिक लघुकथा की पृष्ठभूमि  
आधुनिक हिंदी ने उद्भव काल में पारंपरिक संस्कृत, लोक भाषाओँ और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की उर्वर विरासत ग्रहण कर विकास के पथ पर कदम रखा। गुजराती, बांग्ला और मराठी भाषाओँ का क्षेत्र हिंदी भाषी क्षेत्रों के समीप था। विद्वानों और जन सामान्य के सहज आवागमन ने भाषिक आदान-प्रदान को सुदृढ़ किया। मुग़ल आक्रांताओं की अरबी-फ़ारसी और भारतीय मजदूर-किसानों की भाषा के मिलन से लश्करी का जन्म सैन्य छावनियों में हुआ जो लश्करी, रेख्ता और उर्दू के रूप में विकसित हुई। राजघरानों, जमींदारों तथा समृद्ध जनों में अंग्रेजी शिक्षा तथा विदेश जाकर उपाधियाँ ग्रहण करने पर अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण बढ़ा। शासन की भाषा अंग्रेजी होने से उसे श्रेष्ठ माना जाने लगा। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों के मन में अपने विरासत के प्रति हीनता का भाव सुनियोजित तरीके से पैदा किया गया। स्वतंत्रता के संघर्ष काल में साम्यवाद परिवर्तन की चाहत पाले युवा वर्ग को आकर्षित कर सका। स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र तथा अहिंसक दोनों तरीकों से प्रयास किये जाते रहे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आकस्मिक रूप से लापता होने पर स्वन्त्रता प्राप्ति का पूर्ण श्रेय गाँधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह को मिला। फलत:, कोंग्रेस सत्तारूढ़ हुई। श्री नेहरू के व्यक्तित्व में अंग्रेजी राजतंत्र और साम्यवादी व्यवस्था के प्रति विकट सम्मोहन ने स्वातंत्र्योत्तर काल में इन दोनों तत्वों को सत्ता और साहित्य में सहभागी बना दिया जबकि भारतीय सनातन परंपरा में विश्वास करने वाले तत्व पारस्परिक फूट के कारण बलिपंथी होते हुए भी पिछड़ गए। आधुनिक हिंदी को उद्भव के साथ ही संस्कृतनिष्ठ तथा बोलचाल की सहज दो शैलियाँ मिलीं। लघुकथा को भी इन दोनों शैलियों के माध्यम से ही आगे बढ़ना पड़ा।  

लघुकथा की चुनौतियाँ   
स्वतंत्रता के पश्चात् शिक्षा संस्थानों और साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित कर साम्यवादी रचनाकार सृजन और समीक्षा के मानकों को अपने विचारधारा के अनुरूप ढलने में कुछ काल के लिए सफल हो गए। उन्होंने लघु कथा, व्यंग्य लेख, नवगीत, चित्रांकन, फिल्म निर्माण आदि क्षेत्रों में सामाजिक वर्गीकरण, विभाजन, शोषण, टकराव, वैषम्य, पीड़ा, दर्द, दुःख और पतन को केंद्र में रखकर रचनाकर्म किया। संभवत: लक्ष्य सामाजिक टकराव को बढ़ाकर सत्ता पाना था किंतु उपलब्धि शिक्षा और साहित्य में विचारधारा के अनुरूप मानक निर्धारित कर, साहित्य प्रकाशित करने, पुरस्कृत होने तक सीमित रह गई। भारतीय जन मानस चिरकाल से सात्विक, आस्थावान, अहिंसक, सहिष्णु, उत्सवधर्मी तथा रचनात्मक प्रवृत्तियुक्त है। पराभव काल में अशिक्षा, छुआछूत, सती प्रथा, पर्दा प्रथा और जन्मना वर्ण विभाजन जैसी बुराइयाँ पनपीं किन्तु स्वतंत्रता की चाह ने एकता बनाए रखी। स्वाधीनता के पश्चात् सर्वोदय और नक्सलवाद जैसे समांतरी आंदोलल चले। उनके अनुरूप साहित्य की रचना हुई। लघुकथा को आरंभ में उपेक्षा और अवमानना झेलनी पड़ी। तथाकथित प्रगतिशीलों ने भारतीय वांग्मय की सनातन विरासत और परंपरा को हीन, पिछड़ा, अवैज्ञानिक और अनुपयुक्त कहकर अंग्रेजी साहित्य की दुहाई देते हुए, उसकी आड़ में टकराव और बिखराव केंद्रित जीवनमूल्यों को विविध विधाओं का मानक बता दिया। फलत:, रचनाकर्म का उद्देश्य समाज में व्याप्त शोषण, टकराव, बिखराव, संघर्ष, टूटन, फुट, विसंगति, विडंबना, असंतोष, विक्षोभ, कुंठा, विद्रोह आदि का शब्दांकन मात्र हो गया। उन्होंने देश में हर क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय प्रगति, सद्भाव, एकता, साहचर्य, सहकारिता, निर्माण, हर्ष, उल्लास, उत्सव आदि की जान-बूझकर अनदेखी और उपेक्षा की। कोढ़ में खाज यह कि इस वैचारिक पृष्ठभूमि के अनेक जन उच्च प्रशासनिक पदों पर जा बैठे और उन्होंने 'अपने लोगों' को न केवल महिमामण्डित किया अपितु भिन्न विचारधारा के साहित्यकारों का दमन और उपेक्षा भी की।

लघुकथा और पहचान का संकट कोई उपयोगी बात बार-बार कही जाने पर, वक्ता उसे अधिकाधिक रोचक बनाने के साथ देश-काल-परिस्थिति अनुसार कुछ जोड़ता-घटाता रहा। इस तरह कहने की कला का जन्म और विकास हुआ जिसे कहानी कहा गया। कहानी को गागर में सागर की तरह कम शब्दों में अधिक सार कहने को 'लघुकथा' संज्ञा प्राप्त हुई। हिंदी की आधुनिक लघुकथा, छोटी कहानी (शार्ट स्टोरी) नहीं है। उपन्यास, उपन्यासिका (आख्यायिका), कहानी, छोटी कहानी और लघुकथा में मुख्य अंतर उनके कथ्य में समाहित घटनाओं की संख्या और उन घटनाओं में अन्तर्निहित घटनाओं का होता है। उपन्यास समूचे जीवन, अनेक घटनाओं तथा अनेक पात्रों का समुच्चय होता है। उपन्यासिका अपेक्षाकृत कम कालावधि, पात्रों व घटनाओं को समेटती है। कहानी में कुछ घटनाएँ, जीवन का कुछ भाग, पात्रों का चरित्र-चित्रण आदि होता है। छोटी कहानी अपेक्षाकृत कम समय, कम घटनाओं, कम पात्रों से बनती है। लघुकथा क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना या विचार के कथ्‍य-बीज की संक्षिप्त फलक पर शब्दों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति है।  अंग्रेजी साहित्य में गद्य (प्रोज) के अंतर्गत उपन्यास (नावेल), निबन्ध (एस्से), कहानी (स्टोरी), व्यंग्य (सैटायर), लघुकथा (शार्ट स्टोरी), गल्प (फिक्शन), संस्मरण (मेमायर्स), आत्मकथा (ऑटोबायग्राफी) आदि प्रमुख हैं। अंग्रेजी की कहानी (स्टोरी) लघु उपन्यास की तरह तथा शार्ट स्टोरी सामान्यत:६-७ पृष्ठों तक की होती है। हिंदी लघु कथा सामान्यत: एक घटना पर केंद्रित, कुछ वाक्यों से लेकर एक-डेढ़ पृष्ठ तक होती है। स्पष्ट है कि शार्ट स्टोरी और लघुकथा सर्वथा भिन्न विधाएँ हैं। 'शॉर्ट स्टोरी' छोटी कहानी हो सकती है 'लघुकथा' नहीं। हिंदी साहित्य में विधाओं का विभाजन आकारगत नहीं अन्तर्वस्तु या कथावस्तु के आधार पर होता है। उपन्यास सकल जीवन या घटनाक्रम को समाहित करता है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, वातावरण, भाषा शैली आदि हैं। कहानी जीवन के काल विशेष या घटना विशेष से जुड़े प्रभावों पर केंद्रित होती है, जिसके तत्व कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, उद्देश्य तथा भाषा शैली हैं। लघुकथा किसी क्षण विशेष में घटित प्रसंग और उसके प्रभाव पर केंद्रित होती है। प्रसिद्ध समीक्षक लक्ष्मीनारायण लाल ने लघु कथा और कहानी में तात्विक दृष्टि से कोई अंतर न मानते हुए व्यावहारिक रूप से आकारगत अंतर स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'लघुकथा' में भावनाओं का उतना महत्व नहीं है जितना किसी सत्य का, किसी विचार का विशेषकर उसके सारांश का महत्व है।'

'लघु' अर्थात आकार में छोटी, 'कथा' अर्थात जो कही जाए, जिसमें कहने योग्य बात हो, बात ऐसी जो मन से निकले और मन तक पहुँच जाए। 'कहने' का कोई उद्देश्य भी होता ही है। उद्देश्य की विविधता लघुकथा के वर्गीकरण का आधार होती है। बाल कथा, बोध कथा, उपदेश कथा, दृष्टान्त कथा, वार्ता, आख्यायिका, उपाख्यान, पशु कथा, अवतार कथा, संवाद कथा, व्यंग्य कथा, काव्य कथा, गीति कथा, लोक कथा, पर्व कथा आदि की समृद्ध विरासत संस्कृत, भारतीय व विदेशी भाषाओँ के वाचिक और लिखित साहित्य में प्राप्त है। गूढ़ से गूढ़ और जटिल से जटिल प्रसंगों को इनके माध्यम से सरल-सहज बनाकर समझाया गया। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल कथाएँ, अलीबाबा, सिंदबाद आदि की कहानियाँ मन-रंजन के साथ ज्ञानवर्धन के उद्देश्य को लेकर कही-सुनी और लिखी-पढ़ी गईं। धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवचनों में गूढ़ सत्य को कम शब्दों में सरल बनाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी सदियों तक परिपुष्ट हुई।  दुर्भाग्य से दुर्दांत विदेशी हमलावरों ने विजय पाकर भारतीय साहित्य और सांस्कृतिक संस्थाओं का विनाश लगातार लंबे समय तक किया। इस दौर में कथा साहित्य धार्मिक पूजा-पर्वों में कहा-सुना जाकर जीवित तो रहा पर उसका उद्देश्य भयभीत और संकटग्रस्त जन-मन में शुभत्व के प्रति आस्था बनाये रखकर, जिजीविषा को जिलाए रखना था। बहुधा घर के बड़े-बुजुर्ग इन कथाओं को कहते, उनमें किसी स्त्री-पुरुष के जीवन में आए संकटों-कष्टों के कारण शक्तियों की शरण में जाने, उपाय पूछने और अपने तदनुसार आचरण में सुधार करने पर दैवीय शक्तियों की कृपा से संकट पर विजयी होने का संदेश होता था। ऐसी कथाएँ शोषित-पीड़ित ही नहीं सामान्य या सम्पन्न मनुष्य में भी अपने आचरण में सुधार, सद्गुणों व पराक्रम में वृद्धि, एकता, सुमति या खेती-सड़क-वृक्ष या रास्तों की स्वच्छता, दीन-हीन की मदद, परोपकार, स्वाध्याय आदि की प्रेरणा का स्रोत बनता था। ये लघ्वाकारी कथाएँ महिलाओं या पुरुषों द्वारा अल्प समय में कह-सुन ली जाती थीं, बच्चे उन्हें सुनते और इस तरह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्य पहुँचते रहते। देश, काल, परिस्थिति, श्रोता-वक़्ता, उद्देश्य आदि के अनुसार कथावस्तु में बदलाव होता रहता और देश के विविध भागों में एक ही कथा के विविध रूप कहे-सुने जाते किन्तु सबका उद्देश्य एक ही रहता। आहत मन को सांत्वना देना, असंतोष का शमन करना, निराश मन में आशा का संचार, भटकों को राह दिखाना, समाज सुधार या राष्ट्रीय स्वाधीनता के कार्यक्रमों हेतु जन-मन को तैयार करना कथावाचक और उपदेशक धर्म की आड़ में करते रहे। फलत:, राजनैतिक पराभव काल में भी भारतीय जन मानस अपना मनोबल, मानवीय मूल्यों में आस्था और सत्य की विजय का विश्वास बनाए रह सका।

लघुकथा क्या है?, अंधों का हाथी ?
सन १९८४ में सारिका के लघु कथा विशेषांक में राजेंद्र यादव ने 'लघुकथा और चुटकुला में साम्य' इंगित करते हुए लघुकथा लेखन को कठिन बताया। मनोहरश्याम जोशी ने' लघु कथाओं को चुटकुलों और गद्य के बीच' सर पटकता बताया। मुद्राराक्षस के अनुसार 'लघु कथा ने साहित्य में कोई बड़ा स्थान नहीं बनाया'। शानी ने भी 'लघुकथाओं को चुटकुलों की तरह' बताया। इसके विपरीत पद्म श्री लक्ष्मीनारायण लाल ने लघुकथा को लेखक का 'अच्छा अस्त्र' कहा है।  
सरला अग्रवाल के शब्दों में 'लघुकथा में किसी अनुभव अथवा घटना की टीस और कचोट को बहुत ही गहनता के साथ उद्घाटित किया जाता है।' प्रश्न उठता है कि टीस के स्थान पर रचना हर्ष और ख़ुशी को उद्घाटित करे तो वह लघुकथा क्यों न होगी? गीत सभी रसों की अभिव्यक्ति कर सकता है तो लघुकथा पर बन्धन क्यों? डॉ. प्रमथनाथ मिश्र के मत में लघुकथा 'सामाजिक बुराई के काले-गहरे बादलों के बीच दबी विद्युल्लता की भाँति है जो समय-बेसमय छटककर पाठकों के मस्तिष्क पर एक तीव्र प्रभाव छोड़कर उनके सुषुप्त अंत:करण को हिला देती है।' सामाजिक अच्छाई के सफेद-उजले मेघों के मध्य दामिनी क्यों नहीं हो सकती लघुकथा? रमाकांत श्रीवास्तव लिखते हैं 'लघुकथा का नि:सरण ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कविता का। अत:, वह यथार्थपरक कविता के अधिक निकट है, विशेषकर मुक्त छंद कविता के।' मुक्तछंद कविता से हिंदी पाठक के मोहभंग काल में उसी पथ पर ले जाकर लघुकथा का अहित करना ठीक होगा या उसे लोकमंगल भाव से संयुक्त रखकर नवगीत की तरह नवजीवन देना उपयुक्त होगा? कृष्णानन्द 'कृष्ण' लघुकथा लेखक के लिए 'वैचारिक पक्षधरता' अपरिहार्य बताते हैं। एक लघुकथा लेखक के लिए किसी विचार विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी क्यों हो? कथ्य और लक्ष्य की आवश्यकतानुसार विविध लघुकथाओं में विविध विचारों की अभिव्यक्ति प्रतिबंधित करना सर्वमान्य कैसे हो सकता है? एक रचनाकार को किसी राजनैतिक विचारधारा का बन्दी क्यों होना चाहिए? रचनाकार का लक्ष्य लोक-मंगल हो या राजनैतिक स्वार्थपूर्ति? 

'हिंदी लघुकथा को लेखन की पुरातन दृष्टान्त, किस्सा या गल्प शैली में अवस्थित रहना है या कथा लेखन की वर्तमान शैली को अपना लेना है- तय हो जाना चाहिए' बलराम अग्रवाल के इस मत के संदर्भ में कहना होगा कि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह लघुकथा के स्वरूप में अंतिम निर्णय करने का अधिकार पाठक और समय के अलावा किसी का नहीं हो सकता। तय करनेवालों ने तो गीत के मरण की घोषणा कर दी थी किंतु वह पुनर्जीवित हो गया। समाज किसी एक विचार या वाद के लोगों से नहीं बनता। उसमें विविध विचारों और रुचियों के लोग होते हैं जिनकी आवश्यकता और परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, तदनुसार साहित्य की हर विधा में रचनाओं का कथ्य, शल्प और शैली बदलते हैं। लघुकथा इसका अपवाद कैसे हो सकती है? लघुकथा को देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष्य होने के लिए विविधता को ग्रहण करना ही होगा। पुरातन और अद्यतन में समन्वय से ही सनातन प्रवाह और परंपरा का विकास होता है। अवध नारायण मुद्गल उपन्यास को नदी, कहानी को नहर और लघुकथा को उपनहर बताते हुए कहते हैं कि जिस बंजर जमीन को नहरों से नहीं जोड़ा जा सकता उसे उपनहरों से जोड़कर उपजाऊ बनाया जा सकता है। यदि उद्देश्य अनछुई अनुपजाऊ भूमि को उर्वर बनाना है तो यह नहीं देखा जाता कि नहर बनाने के लिए सामग्री कहाँ से लाई जा रही है और मजदूर किस गाँव, धर्म राजनैतिक विचार का है? लघुकथा लेखन का उद्देश्य उपन्यास और कहानी से दूर पाठक और प्रसंगों तक पहुँचना ही है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह पहुँच बोध, उपदेश, व्यंग्य, संवाद किस माध्यम से की गयी? उद्देश्य पड़ती जमीन जोतना है या हलधर की जाति-पाँति देखना?

लघुकथा के रूप-निर्धारण की कोशिशें
डॉ. सतीश दुबे मिथक, व्यंग्य या संवेदना के स्तरों पर लघुकथाएँ लिखी जाने का अर्थ हर शैली में अभिव्यक्त होने की छटपटाहट मानते हैं। वे लघुकथा के तयशुदा स्वरूप में ऐसी शैलियों के आने से कोई खतरा नहीं देखते। यह तयशुदा स्वरूप साध्य है या साधन? यह किसने, कब और किस अधिकार से तय किया? यह पत्थर की लकीर कैसे हो सकता जिसे बदला न जा सके? यह स्वरूप वही है जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप और पाठक की रुचि के अनुसार लघुकथा का जो स्वरूप उपयुक्त होगा वह जीवित रहेगा, शेष भुला दिया जाएगा। लघुकथा के विकास के लिए बेहतर होगा कि हर लघुकथाकार को अपने कथ्य के उपयुक्त शैली और शिल्प का संधान करने दिया जाए। उक्त मानक थोपने के प्रयास और मानकों को तोड़नेवाले लघुकथाकारों पर सुनियोजित आक्रमण तथा उनके साहित्य की अनदेखी करने की विफल कोशिशें यही दर्शाती हैं कि पारंपरिक शिल्प और शैली से खतरा अनुभव हो रहा है और इसलिए विधान के रक्षाकवच में अनुपयुक्त और आयातित मानक थोपे जाते रहे हैं। यह उपयुक्त समय है जब अभिव्यक्ति को कुंठित न कर लघुकथाकार को सृजन की स्वतंत्रता मिले।

सृजन की स्वतंत्रता और सार्थकता
पारंपरिक स्वरूप की लघुकथाओं को जन स्वीकृति का प्रमाण यह है कि समीक्षकों और लघुकथाकारों की समूहबद्धता, रणनीति और नकारने के बाद भी बोध कथाओं, दृष्टान्त कथाओं, उपदेश कथाओं, संवाद कथाओं आदि के पाठक श्रोता घटे नहीं हैं। सच तो यह है कि पाठक और श्रोता कथ्य को पढ़ता और सराहता या नकारता है, उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि समीक्षक उस रचना को किस खाँचे में वर्गीकृत करता है। समय की माँग है कि लघुकथा को स्वतंत्रता से साँस लेने दी जाए। स्व. नामवर सिंह भारतीय लघुकथाओं को पाश्चात्य लघुकथाओं का पिछलग्गू नहीं मानते तथा हिंदी लघुकथाओं को निजत्व और विराट भावबोध से संपन्न मानते हैं। हिंदी भाषा जिस जमीन पर विकसित हुई उसकी लघुकथा उस जमीन में आदि काल से कही-सुनी जाती लघुकथा की अस्पर्श्य कैसे मान सकती है? सिद्धेश्वर लघुकथा को सर्वाधिक प्रेरक, संप्रेषणीय, संवेदनशील और जीवंत विधा मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में स्थान दिए जाने की पैरवी करते हैं जिससे हर लघुकथाकार सहमत होगा किन्तु जन-जीवन में कही-सुनी जा रही देशज मूल्यों, भाषा और शिल्प की लघुकथाओं की वर्जना कर केवल विचारधारा विशेष को प्रोत्साहित करती लघुकथाओं का चयन पाठ्यक्रम में करने की परंपरा शासक दल को अपनी विचारधारा थोपने की ओर प्रवृत्त करेगा। इसलिए लघुकथा के रूढ़ और संकीर्ण मानकों को परिवर्तित कर देश की सभ्यता-संस्कृति और जन मानस के आस्था-उल्लास-नैतिक मूल्यों के अनुरूप रची तथा राष्ट्रीयता को बढ़ावा ही लघुकथा का मानक होना उचित है। तारिक असलम 'तनवीर' लिजलिजी और दोहरी मानसिकता से ग्रस्त समीक्षकों की परवाह करने के बजाय 'कलम की ताकत' पर ध्यान देने का मश्वरा देते हैं।
डॉ. कमलकिशोर गोयनका, कमलेश भट्ट 'कमल' को दिए गए साक्षात्कार में लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं। कोई बच्चा 'माँ विहीन' कैसे हो सकता है? हर बच्चे का स्वतंत्र अस्तित्व और विकास होने पर भी उसमें जीन्स माता-पिता के ही होते हैं। इसी तरह लघुकथा भी लघुकथाकार तथा उसके परिवेश से अलग होते हुए भी उसकी शैली और विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। लघुकथाकार रचना में सतही तौर पर न दिखते हुई भी पंक्ति-पंक्ति में उसी तरह उपस्थित होता है जैसे रोटी में नमी के रूप में पानी या दाल में नमक। अत:, स्पष्ट है कि हिंदी की आधुनिक लघुकथा को अपनी सनातन पृष्ठभूमि तथा आधुनिक हिंदी के विकास काल की प्रवृत्तियों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करते हुए भविष्य के लिए उपयुक्त साहित्य सृजन के लिए सजग होना होगा। लघुकथा एक स्वतंत्र विधा के रूप में अपने कथ्य और लक्ष्य पाठक वर्ग को केंद्र में रखकर लिखी जाय और व्यवस्थित अध्ययन की दृष्टि से उसे वर्गीकृत किया जाए किंतु किसी विचारधारा विशेष की लघुकथा को स्वीकारने और शेष को नकारने की दूषित प्रथा बंद करने में ही लघुकथा और हिंदी की भलाई है। लघुकथा को उद्यान के विविध पुष्पों के रंग और गन्ध की तरह विविधवर्णी होने होगा तभी वह जी सकेगी और जीवन को दिशा दे सकेगी।

लघुकथा के तत्व
कुँवर प्रेमिल कथानक, प्रगटीकरण तथा समापन को लघुकथा के ३ तत्व मानते हैं। वे लघुकथा को किसी बंधन, सीमा या दायरे में बाँधने के विरोधी हैं। जीवितराम सतपाल के अनुसार लघुकथा में अमिधा, लक्षणा व व्यंजना शब्द की तीनों शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। वे लघुकथा को बरसात नहीं फुहार, ठहाका नहीं मुस्कान कहते हैं। गुरुनाम सिंह रीहल कलेवर और कथनीयता को लघुकथा के २ तत्व कहते हैं। मोहम्मद मोइनुद्दीन 'अतहर' के अनुसार भाषा, कथ्य, शिल्प, संदर्भगत संवेदना से परिपूर्ण २५० से ५०० शब्दों का समुच्चय लघुकथा है। डॉ. शमीम शर्मा के अनुसार लघुकथा में 'विस्तार के लिए कोई स्थान नहीं होता। 'थोड़े में अधिक' कहने की प्रवृत्ति प्रबल है। सांकेतिकता एवं ध्वन्यात्मकता इसके प्रमुख तत्व हैं। अनेक मन: स्थितियों में से एक की ही सक्रियता सघनता से संप्रेषित करने का लक्ष्य रहता है।'

बलराम अग्रवाल के अनुसार कथानक और शैली लघुकथा के अवयव हैं, तत्व नहीं। वे वस्तु को आत्मा, कथानक को हृदय, शिल्प को शरीर और शैली को आचरण कहते हैं। योगराज प्रभाकर लघु आकार और कथा तत्व को लघुकथा के तत्व बताते हैं। उनके अनुसार किसी बड़े घटनाक्रम में से क्षण विशेष को प्रकाशित करना, लघुकथा लिखना है। कांता रॉय लघुकथा के १५ तत्व बताती है जो संभवत: योगराज प्रभाकर द्वारा सुझाई १५ बातों से नि:सृत हैं- कथानक, शिल्प, पंच, कथ्य, भूमिका न हो, चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्त, बोध-नीति-शिक्षा न हो, इकहरापन, संदेश, चुटकुला न हो, शैली तथा सामाजिक महत्व। बलराम अग्रवाल कथानक को तत्व नहीं मानते, कांता रॉय मानती हैं। डॉ. हरिमोहन के अनुसार लघुकथा विसंगतियों से जन्मी तीखे तेवर वाली व्यंग्य परक विधा है तो डॉ. पुष्पा बंसल के अनुसार 'घटना की प्रस्तुति मात्र'। अशोक लव 'संक्षिप्तता में व्यापकता' को लघुकथा का वैशिष्ट्य कहते हैं तो विक्रम सोनी 'मूल्य स्थापन' को। कहा जाता है कि दो अर्थशास्त्रियों के तीन मत होते हैं। यही स्थिति लघुकथा और लघुकथाकारों की है 'जितने मुँह उतनी बातें'।नया लघुकथाकार और पाठक क्या करे?  

लघुकथा के तत्व 
मेरे अनुसार उक्त तथा अन्य सामग्री के अध्ययन-मनन से स्पष्ट है कि लघुकथा के ३ तत्व, १. क्षणिक घटना, २. संक्षिप्त कथन तथा ३. तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इनमें से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। घटना न हो तो लघुकथा का जन्म ही न होगा, घटना हो पर उस पर कुछ कहा न जाए तो भी लघुकथा नहीं हो सकती, घटना घटित हो, कुछ लिखा भी जाए पर उसका कोई प्रभाव न हो तो लिखना - न लिखना बराबर हो जायेगा। घटना लंबी, जटिल, बहुआयामी, अनेक पात्रों से जुडी हो तो सबके साथ न्याय करने पर लघुकथा कहानी का रूप ले लेगी। इस ३ तत्वों का प्रयोग कर एक अच्छी लघुकथा की रचना हेतु कुछ लक्षणों का होना आवश्यक है। योगराज प्रभाकर तथा कांता रॉय इन लक्षणों को तत्व कहते हैं। वस्तुत:, लक्षण उक्त ३ तत्वों के अंग रूप में उनमें समाहित होते हैं। 
१. क्षणिक घटना - दैनन्दिन जीवन में सुबह से शाम तक अनेक प्रसंग व विचार उपजते हैं। सब पर लघुकथा नहीं लिखी जा सकती। घटना-क्रम, दीर्घकालिक घटनाएँ, जटिल घटनाएँ, एक-दूसरे में गुँथी घटनाएँ लघुकथा लेखन की दृष्टि से अनुपयुक्त हैं। बादल में कौंधती बिजली जिस तरह एक पल में चमत्कृत या आतंकित कर जाती है, उसी तरह लघुकथा का प्रभाव होता है। क्षणिक घटना पर बिना सोचे-विचार त्वरित प्रतिक्रिया की तरह लघुकथा को स्वाभाविक होना चाहिए। लघुकथा सद्यस्नाता की तरह ताजगी की अनुभूति कराती है, ब्यूटी पार्लर से सज्जित सौंदर्य जैसी कृत्रिमता की नहीं। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी की तर्ज़ पर कहा जा सकता है घटना घटी, लघुकथा हुई। लघुकथा के उपयुक्त कथानक व कथ्य वही हो सकता है जो क्षणिक घटना के रूप में सामने आया हो। 

२. संक्षिप्त कथन - किसी क्षण विशेष अथवा अल्प समयावधि में घटित घटना-प्रसंग के भी कई पहलू हो सकते हैं। लघुकथा घटना के सामाजिक कारणों, मानसिक उद्वेगों, राजनैतिक परिणामों या आर्थिक संभावनाओं का विश्लेषण करे तो वह उपन्यास का रूप ले लेगी। उपन्यास और कहानी से इतर लघुकथा सूक्ष्मतम और संक्षिप्तम आकार का चयन करती है। वह गुलाबजल नहीं इत्र की तरह होती है। इसीलिए लघुकथा में पात्रों के चरित्र-चित्रण नहीं होता। 'कम में अधिक' कहने के लिए संवाद, आत्मालाप, वर्णन, उद्धरण, मिथक, पूर्व कथा, चरित्र आदि जो भी सहायक हो उसका उपयोग किया जाना चाहिए। उद्देश्य कम से कम कलेवर में कथ्य को प्रभावी रूप से सामने लाना है। शिल्प, मारक वाक्य (पंच) हो-न हो अथवा कहाँ हो, संवाद हों न हों या कितने किसके द्वारा हों, भूमिका न हो, इकहरापन, सन्देश, चुटकुला न हो तथा भाषा-शैली आदि संक्षिप्त कथन के लक्षण हैं। इन सबकी सम्मिलित उपस्थिति अपरिहार्य नहीं है। कुछ हो भी सकते हैं, कुछ नहीं भी हो सकते हैं। 

३.तीक्ष्ण प्रभाव- लघुकथा लेखन का उद्देश्य लक्ष्य पर प्रभाव छोड़ना है। एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य, चिंता, विरोध आदि विविध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एकाधिक मनोभावों को सामने लाने से लघुकथा का प्रभाव कम हो सकता है। कुशल लघुकथाकार घटना के एक पक्ष पर सारगर्भित टिप्पणी की तरह एक मनोभाव को इस तरह उद्घाटित करता है कि पाठक / श्रोता आह य वाह कह उठे। चिंतन हेतु उद्वेलन, विसंगति पूर्ण क्षण विशेष, कालखण्ड दोष से मुक्ति आदि तीक्ष्ण प्रभाव हेतु सहायक लक्षण हैं। तीक्ष्ण प्रभाव सोद्देश्य हो निरुद्देश्य? यह विचारणीय है। सामान्यत: बुद्धिजीवी मनुष्य कोई काम निरुद्देश्य नहीं करता। लघुकथा लेखन का उपक्रम सोद्देश्य होता है। व्यक्त करने हेतु कुछ न हो तो कौन लिखेगा लघुकथा? व्यक्त किये गए से कोई पाठक शिक्षा / संदेश ग्रहण करेगा या नहीं? यह सोचना लघुकथाकार काम नहीं है, न इस आधार पर लघुकथा का मूल्यांकन किया जाना उपयुक्त है। 

लघुकथा का उद्देश्य 
लघुकथा का उद्देश्य घटित या विचारित कथ्य को प्रभावी या मारक रूप में पाठक-श्रोता तक पहुँचाना है। लघुकथाकार इस हेतु उपयुक्त शब्दावली, भाषा शैली, शिल्प (संवाद या वर्णन) का चयन करे किन्तु उसमें अपनी और से यथासंभव कुछ न कहे। लघुकथा से शिक्षा देना या न देना, बोध होना या न होना। किसी समस्या का समाधान होना या न होना जैसे बिंदुओं से लघुकथाकार को प्रेरित नहीं होना चाहिए किन्तु बचना भी नहीं चाहिए। निर्लिप्त भाव से कथ्य प्रस्तुति ही लघुकथाकार का साध्य है। एक ही लघुकथा से कोई पाठक कुछ ग्रहण कर सकता है तो दूसरा नहीं भी ग्रहण कर सकता है। लघुकथा निष्पक्षता, निस्संगता, तटस्थता तथा लेखकीय वैचारिक ईमानदारी की माँग करती है। कल से आज तक की रचना यात्रा में लघुकथा के कथ्य, शिल्प और विन्यास में जितने परिवर्तन हुए हैं उनसे अधिक परिवर्तन आज से कल की यात्रा में होना निश्चित है। परिवर्तन ही जीवन है हुए लघुकथा जीवित रहेगी यह मेरा विश्वास है। 

***:
सन्दर्भ-
१. सारिका लघुकथा अंक १९८४
२. अविरल मंथन लघुकथा अंक सितंबर २००१, संपादक राजेन्द्र वर्मा
३. प्रतिनिधि लघुकथाएं अंक ५, २०१३, सम्पादक कुंवर प्रेमिल
४. तलाश, गुरुनाम सिंह रीहल
५. पोटकार्ड, जीवितराम सतपाल
६. लघुकथा अभिव्यक्ति अक्टूबर-दिसंबर २००७




नवगीत

एक रचना
सोते-सोते
*
सोते-सोते
बहें न सोते
या अपनी किस्मत को रोते?
सोच, समय कन्फ्यूज।
*
ब्यौहारी ब्यौहार निभाएँ
त्यौहारी त्यौहार मनाएँ
विजय हेतु मरते सैनिक पर
नेता-कवि मिल विजय भुनाएँ
असरदार को कोस रहे, खुद
असरदार बन लोग
देख समय कन्फ्यूज
*
सलिल-धार में नहा-नहाकर
घी-बाती के दीप बहाकर
करें गौकशी बिना छुरा क्यों
पॉलीथीन के ढेर लगाकर?
संत असंत बसंत मनाएँ
लाइलाज है रोग
लेख समय कन्फ्यूज
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संवस, ६-३-२०१९

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

देवनागरी

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लेख:
देवनागरी लिपि कल, आज और कल  
संजीव वर्मा 'सलिल' 
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सत्ता और भाषा:   
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व देश में मुग़ल सत्ता की जड़ें मजबूत करने के लिए अरबी-फारसी और स्थानीय बोलिओं के सम्मिश्रण से सैन्य छावनियों में विकसित हुई 'लश्करी' तथा सत्ता स्थापित हो जाने पर व्यापारियों के साथ कारोबार करने के लिए विकसित हुई बाजारू भाषा 'उर्दू' का प्रभुत्व प्रशासन पर रहा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-
''जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिंदी भाषा हिंदी न रहकर उर्दू बन गयी। हिंदी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।''
तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी। मध्यकाल में अँग्रेज साम्राज्य की जड़ें मजबूत करने के लिए अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया गया। अभिजात्य वर्ग ने विदेशी संप्रभुओं से सादृश्य और सामीप्य की चाह में अंगरेजी पढ़ना-पढ़ाना आरंभ कर दिया। तथापि राष्ट्रीय चेतना का माध्यम हिंदुस्तानी और हिंदी बनने लगी। हिंदी के साथ ही देवनागरी लिपि का भी विकास होता रहा। कुछ प्रमुख कदम निम्न हैं- 
भाषा और राष्ट्रीय चेतना 
देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। सन् १७९६ ई०  में देवनागरी लिपि में मुद्राक्षर आधारित प्राचीनतम मुद्रण (जॉन गिलक्राइस्ट, हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण) कोलकाता से छपा। तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में थी।  सन १८६७ आगरा और अवध राज्यों के कुछ हिंदुओं ने उर्दू के स्थान पर हिंदी को राजभाषा बनाये जाने की माँग की। सन १९६८ में बनारस के बाबू शिवप्रसाद ने 'इतिहास तिमिर नाशक' नामक पुस्तक में मुसलमान शासकों पर भारत के पर फारसी भाषा और लिपि थोपने का आरोप लगाया। सन् १८८१ में बिहार में उर्दू के स्थान पर देवनागरी में लिखी हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। सन् १८८४ में प्रयाग में महामना मदन मोहन मालवीय जी के प्रयास से हिंदी  हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। सन् १८९३ ई.में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। मेरठ के पंडित गौरी दत्त ने सन् १८९४ न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया। २० अगस्त सन् १८९६ में राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिंदी  होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी। सन् १८९७ में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा गठित समिति ने संयुक्त प्रांत में केवल देवनागरी को ही न्यायालयों की भाषा होने संबंधी माँग ६०,००० हस्ताक्षरों से युक्त प्रतिवेदन अंग्रेज सरकार को देकर की। १५ अगस्त सन् १९०० में  शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाए।
न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र ने १९०५ ई. में  लिपि विस्तार परिषद की स्थापना कर भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि (देवनागरी) को सामान्य लिपि के रूप में प्रचलित करने का प्रयास किया। १९०७ में 'एक लिपि विस्तार परिषद' के लक्ष्य को आंदोलन का रूप देते हुए शारदा चरण मित्र ने परिषद की ओर से 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त, यानी १९१७ तक निकलता रहा।१९३५ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नागरी लिपि सुधार समिति बनायी गयी। ९ सितंबर १९४९में संविधान के अनुच्छेद ३४३ में संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी निधारित की गयी। सन् १९७५ में आचार्य विनोबा भावे के सत्प्रयासों से नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्ली की स्थापना हुई, जो नागरी संगम नामक त्रैमासिक पत्रिका निकालती है। 
भाषा और लिपि 
हिंदी और देवनागरी एक दूसरे से अभिन्न ही नहीं एक दूसरे का पर्याय बनकर तेजी से आगे बढ़ीं। भारत सरकार ने हिंदी के मानकीकरण तथा विकास हेतु सतत प्रयास किए।  संस्कृत, हिंदी, मराठी, उर्दू, सिंधी आदि को लिखने में प्रयुक्त देवनागरी में थोड़ा बहुत अंतर पाया जाता है। फारसी के प्रभावस्वरूप कुछ परंपरागत तथा नवागत ध्वनियों के लिए कुछ लोग नागरी में भी नुक्ते का प्रयोग करते हैं। मराठी लिपि के प्रभाव स्वरूप पुराने 'अ' के स्थान पर 'अ' या 'ओ' 'अु' आदि रूपों में सभी स्वरों के लिए 'अ' ही का प्रयोग होने लगा था। यह अब नहीं होता। अंग्रेजी शब्दों ऑफिस, कॉलेज जैसे शब्दों में ऑ का प्रयोग होने लगा हैं। उच्चारण के प्रति सतर्कता के कारण कभी-कभी हर्स्व ए, हर्स्व ओ को दर्शाने के लिए कुछ लोग (बहुत कम) ऍ, ऑ का प्रयोग करते है। यूनिकोड देवनागरी में सिंधी आदि अन्य भाषाओं को लिखने की सामर्थ्य के लिए कुछ नये 'वर्ण' भी सम्मिलित किए गये हैं (जैसे, ॻ ॼ ॾ ॿ) जो परंपरा गत रूप से देवनागरी में प्रयुक्त नहीं होते थे।
देवनागरी की उत्पत्ति 
नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इसकाअर्थ 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहत' करतेते हैं। गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खण्ड का प्रमाण देते हैं। नागर खंड में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाया। एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर'। नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनंदपुर) को ही 'नगर' और अपना मूल स्थान बतलाते हैं। नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मानने पर मानना होगा कि ये अक्षर गुजरात नागरब्राह्मणों के साथ ही गए। गुजरात में दूसरी और सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं। 
गुर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ (ई० स० ३९९) का ताम्रपत्र  सबसे पुराना प्रामाणिक लेख है जिसमें नागरी अक्षर भी हैं। यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर (स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरीय भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती जुलती है। गुजरात में जितने दानपत्र उत्तर भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यवहृत होने के कारण वह नागरी कहलाई। यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी जो सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई।
बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं। 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई० स० ३०८ में हुआ था। जैनों के 'पन्नवणा' सूत्र और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई० के पहले का बना है। 'नित्यासोडशिकार्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणत्रयवदुद्भवी लेखो वस्य तत्। नागर लिप्या साम्प्रदायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्)। यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' बना है। शेषकृष्ण नामक पंडित ने, जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है।
सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिन्ध नदी के पार के प्रदेशों (गांधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है। अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं। इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध स्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंक्ति में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है। इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है। अतंर इतना ही है कि इनमें दार्घ स्वरचिह्नों का अभाव है। दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं महावीर संवत् ८४ (= ई० स० पूर्व ४४३) का है। यह स्तंभ पर खुदे हुए किसी बड़े लेख का खंड है। उसमें 'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है। जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है। जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा। जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है'। अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिंदी निकली है। अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई। मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
ईसा की नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है। किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरों से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित होते होते बने हैं यह पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला' पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है।
मि० शामशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रकट किया है। उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे। उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे। इसी से इन अक्षरों का नाम 'देवनागरी' पड़ा'।
लगभग ई. ३५० के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएँ लेखन शैली के अनुसार मानी गई हैं। विंध्य से उत्तर की शैली उत्तरी तथा दक्षिण की (बहुधा) दक्षिणी शैली। उत्तरी शैली के प्रथम रूप का नाम "गुप्तलिपि" है। गुप्तवंशीय राजाओं के लेखों में इसका प्रचार था। इसका काल ईसवी चौथी पाँचवीं शती है। कुटिल लिपि का विकास "गुप्तलिपि" से हुआ और छठी से नवीं शती तक इसका प्रचलन मिलता है। आकृतिगत कुटिलता के कारण यह नामकरण किया गया। इसी लिपि से नागरी का विकास नवीं शती के अंतिम चरण के आसपास माना जाता है।
राष्ट्रकूट राजा "दंतदुर्ग" के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में "नागरी" का प्रचलन संवत् ६७५  (७५४ ई.) में था। वहाँ इसे "नंदिनागरी" कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में १६ वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है। देवनागरी (या नागरी) से ही "कैथी" (कायस्थों की लिपि), "महाजनी", "राजस्थानी" और "गुजराती" आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास "बँगला" का आविर्भाव हुआ। ११ वीं शताब्दी के बाद की "नेपाली" तथा वर्तमान "बँगला", "मैथिली", एवं "उड़िया", लिपियाँ इसी से विकसित हुई। भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी भागों में (जिसे सामान्यत: आज कश्मीर और पंजाब कहते हैं) ई. ८ वीं शती तक "कुटिललिपि" प्रचलित थी। कालांतर में ई. १० वीं शताब्दी के आस पास "कुटिल लिपि" से ही "शारदा लिपि" का विकास हुआ। वर्तमान कश्मीरी, टाकरी (और गुरुमुखी के अनेक वर्णसंकेत) उसी लिपि के परवर्ती विकास हैं।
दक्षिणी शैली की लिपियाँ प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली है जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेखों में, तथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, कार्ली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है। (भारतीय प्राचीन लिपिमाला)। निष्कर्षत: मूल रूप में "देवनागरी" का आदिस्रोत ब्राह्मी लिपि है। यह ब्राह्मी की उत्तरी शैली वाली धारा की एक शाखा है। गुप्तलिपि की भी पश्चिमी और पूर्वी शैली में स्वरूप अंतर है। पूर्वी शैली के अक्षरों में कोण तथा सिरे पर रेखा दिखाई पड़ने लगती है। इसे सिद्धमात्रिका कहा गया है। उत्तरी शाखा में गुप्तलिपि के अनन्तर कुटिल लिपि आती है। मंदसोर, मधुवन, जोधपुर आदि के "कुटिललिपि" कालीन अक्षर "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं। कुटिल लिपि से ही "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं।
देवनागरी लिपि मुस्लिम शासन के दौरान भी इस्तेमाल होती रही है। भारत की प्रचलित अतिप्राचीन लिपि देवनागरी ही रही है। विभिन्न मूर्ति-अभिलेखों, शिखा-लेखों, ताम्रपत्रों आदि में भी देवनागरी लिपि के सहस्राधिक अभिलेख प्राप्य हैं, जिनका काल खंड सन १००८  ई. के आसपास है। इसके पूर्व सारनाथ में स्थित अशोक स्तम्भ के धर्मचक्र के निम्न भाग देवनागरी लिपि में भारत का राष्ट्रीय वचन 'सत्यमेव जयते' उत्कीर्ण है। इस स्तम्भ का निर्माण सम्राट अशोक ने लगभग २५० ई. पूर्व में कराया था। मुसलमानों के भारत आगमन के पूर्व से, भारत की देशभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी या उसका रूपान्तरित स्वरूप था, जिसके द्वारा सभी कार्य सम्पादित किए जाते थे।
मुसलमानों के राजत्व काल के प्रारम्भ (सन १२०० ई) से सम्राट अकबर के राजत्व काल (१५५६ ई.-१६०५ ई.) के मध्य तक राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। भारतवासियों की फारसी भाषा से अनभिज्ञता के बावजूद उक्त काल में, दीवानी और फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा और उसकी लिपि का ही व्यवहार था। यह मुस्लिम शासकों की मातृभाषा थी।
भारत में इस्लाम के आगमन के पश्चात कालान्तर में संस्कृत का गौरवपूर्ण स्थान फारसी को प्राप्त हो गया। देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भारतीय शिष्टों की शिष्ट भाषा और धर्मभाषा के रूप में तब कुंठित हो गई। किन्तु मुस्लिम शासक देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा की पूर्ण उपेक्षा नहीं कर सके। महमूद गजनवी ने अपने राज्य के सिक्कों पर देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा को स्थान दिया था।
औरंगजेब के शासन काल (१६५८ ई.- १७०७ ई.) में अदालती भाषा में परिवर्तन नहीं हुआ, राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही। फारसी किबाले, पट्टे रेहन्नामे आदि का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य ही रहा। औरंगजेब राजत्व काल औरंगजेब परवर्ती मुसलमानी राजत्व काल (१७०७ ई से प्रारंभ) एवं ब्रिटिश राज्यारम्भ काल (२३ जून १७५७ई. से प्रारंभ) में यह अनिवार्यता सुरक्षित रही। औरंगजेब परवर्ती काल में पूर्वकालीन हिन्दी नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासन के उत्तरार्ध में उक्त हिन्दी अनुवाद की प्रथा का उन्मूलन अदालत के अमलों की स्वार्थ-सिद्धि के कारण हो गया और ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया। फारसी किबाले, पट्टे, रेहन्नामे आदि के हिन्दी अनुवाद का उन्मूलन किसी राजाज्ञा के द्वारा नहीं, सरकार की उदासीनता और कचहरी के कर्मचारियों के फारसी मोह के कारण हुआ। इस मोह में उनका स्वार्थ संचित था। सामान्य जनता फारसी भाषा से अपरिचित थी। बहुसंख्यक मुकदमेबाज मुवक्किल भी फारसी से अनभिज्ञ ही थे। फारसी भाषा के द्वारा ही कचहरी के कर्मचारीगण अपना उल्लू सीधा करते थे।
शेरशाह सूरी ने अपनी राजमुद्राओं पर देवनागरी लिपि को समुचित स्थान दिया था। शुद्धता के लिए उसके फारसी के फरमान फारसी और देवनागरी लिपियों में समान रूप से लिखे जाते थे। देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी परिपत्र सम्राट अकबर (शासन काल १५५६ ई.- १६०५ ई.) के दरबार से निर्गत-प्रचारित किये जाते थे, जिनके माध्यम से देश के अधिकारियों, न्यायाधीशों, गुप्तचरों, व्यापारियों, सैनिकों और प्रजाजनों को विभिन्न प्रकार के आदेश-अनुदेश प्रदान किए जाते थे। इस प्रकार के चौदह पत्र राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित हैं। औरंगजेब परवर्ती मुगल सम्राटों के राज्यकार्य से सम्बद्ध देवनागरी लिपि में हस्तलिखित बहुसंख्यक प्रलेख उक्त अभिलेखागार में द्रष्टव्य हैं, जिनके विषय तत्कालीन व्यवस्था-विधि, नीति, पुरस्कार, दंड, प्रशंसा-पत्र, जागीर, उपाधि, सहायता, दान, क्षमा, कारावास, गुरुगोविंद सिंह, कार्यभार ग्रहण, अनुदान, सम्राट की यात्रा, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु सूचना, युद्ध सेना-प्रयाण, पदाधिकारियों को सम्बोधित आदेश-अनुदेश, पदाधिकारियों के स्थानान्तरण-पदस्थानपन आदि हैं।
मुगल बादशाह हिन्दी के विरोधी नहीं, प्रेमी थे। अकबर (शासन काल १५५६ ई0- १६०५ ई.) जहांगीर (शासन काल १६०५  ई.- १६२७ ई.), शाहजहां (शासन काल १६२७ ई.- १६५८ ई.) आदि अनेक मुगल बादशाह हिन्दी के अच्छे कवि थे।
मुगल राजकुमारों को हिन्दी की भी शिक्षा दी जाती थी। शाहजहां ने स्वयं दाराशिकोह और शुजा को संकट के क्षणों में हिंदी भाषा और हिन्दी अक्षरों में पत्र लिखा था, जो औरंगजेब के कारण उन तक नहीं पहुंच सका। आलमगीरी शासन में भी हिन्दी को महत्व प्राप्त था। औरंगजेब ने शासन और राज्य-प्रबंध की दृष्टि से हिन्दी-शिक्षा की ओर ध्यान दिया और उसका सुपुत्र आजमशाह हिन्दी का श्रेष्ठ कवि था। मोजमशाह शाहआलम बहादुर शाह जफर (शासन काल १७०७ -१७१२ ई.) का देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी काव्य प्रसिद्ध है। मुगल बादशाहों और मुगल दरबार का हिन्दी कविताओं की प्रथम मुद्रित झांकी 'राग सागरोद्भव संगीत रागकल्पद्रुम' (१८४२-४३ई.), शिवसिंह सरोज आदि में सुरक्षित है।
 "देवनागरी" के आद्यरूपों का निरन्तर थोड़ा बहुत रूपांतर होता गया जिसके फलस्वरूप आज का रूप सामने आया। भारत सरकार का भाष संचालनालय हिंदी भाषा के मानकीकरण हेतु निरंतर प्रयास रत है। हिंदी के प्रति अन्य देशों के निरंतर बढ़ते आकर्षण और वैज्ञानिक-तकनीकी विषयों को हिंदी में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा और लिपि को अधिक परिष्कृत और समृद्ध करने की आवश्यकता है।  
                                                                                                                                          (संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                                                                                            २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
                                                                                                                        जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
                                                                                                                                 salil.sanjiv@gmail.com
                                                                               



तकनीकी आलेख कागनेटिव रेडियो शोभित वर्मा

तकनीकी आलेख 
कागनेटिव रेडियो
शोभित वर्मा 
*
आज के इस आधुनिक युग में दूरसंचार के उपकरणों का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। इन उपकरणों के द्वारा सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिये वायरलैस माध्यमों द्वारा उपयोग किया जाता है। कई विकसित तकनीकें जैसे वाय-फाय, बलूटूथ आदि इस क्षेत्र में उपयोग की जा रही हैं।
इन सभी वायरलैस तकनीकों को साथ में उपयोग में लाने के कारण स्पेकट्रम की अनउपलब्धता एक बड़ी समस्या का रूप लेती जा रही है। वास्तव में स्पेकट्रम को लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही उपयोग करता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि स्पेक्ट्रम का उपयोग केवल लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता ही कर सके। इस कारण स्पेकट्रम का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनुपयोगी ही रह जाता है। स्पेकट्रम का आवंटन सरकार की नीतियों के अनुसार किया जाता
है।
इस समस्या के निराकरण हेतु 1999 में जे. मितोला ने कागनेटिव रेडियो का सिंद्धात प्रस्तुत किया। कागनेटिव रेडियो सिंद्धात के अनुसार जब भी लाइसेंस्ड उपयोगकर्तो स्पेकट्रम का उपयोग न कर रहा ही ऐसे समय में अनलाइसेंस्ड उपभोक्र्ता उस स्पेकट्रम का उपयोग कर सकता है और जैसे ही लाइसेंस्ड उपयोगकर्ता की वापसी होगी, अनलाइसेंस्ड उपयोगकर्ता किसी दूसरे खाली स्पेकट्रम की सहायता से अपना कार्य करने लगेगा। यह प्रक्रिया इस तरह चलती रहेगी जब तक सूचना का आदान-प्रदान नहीं हो जाता।
कागनेटिव रेडियो के बहुत से आयाम हैं जैसे कि स्पेकट्रम सेंसिग, स्पेकट्रम शेयरिंग, स्पेकट्रम मोबीलिटी आदि । हर आयाम अपने आप में शोध का विषय है। कागनेटिव रेडियो पर बहुत से शोध कार्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रहे हैं । अभी भी इस तकनीक को जमीनी स्तर पर लागू कर पाने में बहुत सी समस्याओं का सामाना करना पड़ रहा है। प्रयास यह भी हो रहे है कि कागनेटिव वायरलैस सेंसर नेटवर्क का विकास किया जाये ताकि वायरलैस संचार के क्षेत्र में प्रगति की जा सके।
भारत में भी इस विषय पर काफी कार्य हो रहा है। यहाँ तक कि इंजीनियरिंग पाठयक्रमों में भी इस विषय को पढ़ाया जा रहा है । यह एक सरहानीय प्रयास है युवा अभियंताओं में इस विषय पर रूचि जगाने का ताकि वह आगे चल कर इस तकनीक को और विकसित करने हेतु प्रयास कर सकें ।

नवगीत घमासान जारी है

एक गीत 
*
सरहद से 
संसद तक 
घमासान जारी है 
*
सरहद पर आँखों में
गुस्सा है, ज्वाला है.
संसद में पग-पग पर
घपला-घोटाला है.
जनगण ने भेजे हैं
हँस बेटे सरहद पर.
संसद में.सुत भेजें
नेता जी या अफसर.
सरहद पर
आहुति है
संसद में यारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर धांय-धांय
जान है हथेली पर.
संसद में कांव-कांव
स्वार्थ-सुख गदेली पर.
सरहद से देश को
मिल रही सुरक्षा है.
संसद को देश-प्रेम
की न मिली शिक्षा है.
सरहद है
जांबाजी
संसद ऐयारी है
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
*
सरहद पर ध्वज फहरे
हौसले बुलंद रहें.
संसद में सत्ता हित
नित्य दंद-फंद रहें.
सरहद ने दुश्मन को
दी कड़ी चुनौती है.
संसद को मिली
झूठ-दगा की बपौती है.
सरहद जो
रण जीते
संसद वह हारी है.
सरहद से
संसद तक
घमासान जारी है
***
२७-२-२०१८

गीत मानव और लहर

एक रचना : 
मानव और लहर 
संजीव 
*
लहरें आतीं लेकर ममता, 
मानव करता मोह
क्षुब्ध लौट जाती झट तट से,
डुबा करें विद्रोह
*
मानव मन ही मन में माने,
खुद को सबका भूप
लहर बने दर्पण कह देती,
भिक्षुक! लख निज रूप
*
मानव लहर-लहर को करता,
छूकर सिर्फ मलीन
लहर मलिनता मिटा बजाती
कलकल-ध्वनि की बीन
*
मानव संचय करे, लहर ने
नहीं जोड़ना जाना
मानव देता गँवा, लहर ने
सीखा नहीं गँवाना
*
मानव बहुत सयाना कौआ
छीन-झपट में ख्यात
लहर लुटाती खुद को हँसकर
माने पाँत न जात
*
मानव डूबे या उतराये
रहता खाली हाथ
लहर किनारे-पार लगाती
उठा-गिराकर माथ
*
मानव घाट-बाट पर पण्डे-
झण्डे रखता खूब
लहर बहाती पल में लेकिन
बच जाती है दूब
*
'नानक नन्हे यूँ रहो'
मानव कह, जा भूल
लहर कहे चंदन सम धर ले
मातृभूमि की धूल
*
'माटी कहे कुम्हार से'
मनुज भुलाये सत्य
अनहद नाद करे लहर
मिथ्या जगत अनित्य
*
'कर्म प्रधान बिस्व' कहता
पर बिसराता है मर्म
मानव, लहर न भूले पल भर
करे निरंतर कर्म
*
'हुईहै वही जो राम' कह रहा
खुद को कर्ता मान
मानव, लहर न तनिक कर रही
है मन में अभिमान
*
'कर्म करो फल की चिंता तज'
कहता मनुज सदैव
लेकिन फल की आस न तजता
त्यागे लहर कुटैव
*
'पानी केरा बुदबुदा'
कह लेता धन जोड़
मानव, छीने लहर तो
डूबे, सके न छोड़
*
आतीं-जातीं हो निर्मोही,
सम कह मिलन-विछोह
लहर, न मानव बिछुड़े हँसकर
पाले विभ्रम -विमोह
*