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शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

गीत- हम वही हैं

एक रचना-
हम वही हैं
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो; आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को

यह न भूलो
हम वही है।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
सँग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

मुक्तिका

मुक्तिका:
संजीव
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई
गर पालक का साग न होता
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते
अगर भाग में भाग न होता
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***

समीक्षा- उम्र जैसे नदी हो गई प्रो. विश्वंभर शुक्ल

कृति चर्चा:
'उम्र जैसे नदी हो गई' हिंदी गजल का सरस प्रवाह
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
. [कृति विवरण: उम्र जैसे नदी हो गई, हिंदी ग़ज़ल / गीतिका संग्रह, प्रो. विश्वंभर शुक्ल, प्रथम संस्करण, २०१७, आई एस बी एन ९७८.९३.८६४९८.३७.३, पृष्ठ ११८, मूल्य २२५/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द जैकेट सहित, अनुराधा प्रकाशन, जनकपुरी, नई दिल्ली, रचनाकार संपर्क ८४ ट्रांस गोमतीए त्रिवेणी नगर, प्रथम, डालीगंज रेलवे क्रोसिंग, लखनऊ २२६०२०, चलभाष ९४१५३२५२४६]
* 
. विश्ववाणी हिंदी का गीति काव्य विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में अधिक व्यापक, गहन, उर्वर, तथा श्रेष्ठ है। इस कथन की सत्यता हेतु मात्र यह इंगित करना पर्याप्त है कि हिंदी में ३२ मात्रा तक के मात्रिक छंदों की संख्या ९२, २७, ७६३ तथा २६ वर्णों तक के वर्णिक छंदों की संख्या ६,७१,०८,८६४ है। दंडक छंद, मिश्रित छंद, संकर छंद, लोक भाषाओँ के छंद असंख्य हैं जिनकी गणना ही नहीं की जा सकी है। यह छंद संख्या गणित तथा ध्वनि-विज्ञान सम्मत है। संस्कृत से छान्दस विरासत ग्रहण कर हिंदी ने उसे सतत समृद्ध किया है। माँ शारदा के छंद कोष को संस्कृत अनुष्टुप छंद के विशिष्ट शिल्प के अंतर्गत समतुकांती द्विपदी में लिखने की परंपरा के श्लोक सहज उपलब्ध हैं। संस्कृत से अरबी-फारसी ने यह परंपरा ग्रहण की और मुग़ल आक्रान्ताओं के साथ इसने भारत में प्रवेश किया। सैन्य छावनियों व बाज़ार में लश्करी, रेख्ता और उर्दू के जन्म और विकास के साथ ग़ज़ल नाम की यह विधा भारत में विकसित हुई किंतु सामान्य जन अरबी-फारसी के व्याकरण-नियम और ध्वनि व्यवस्था से अपरिचित होने के कारण यह उच्च शिक्षितों या जानकारों तक सीमित रह गई। उर्दू के तीन गढ़ों में से एक लखनऊ से ग़ज़ल के भारतीयकरण का सूत्रपात हुआ।

. . हरदोई निवासी डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल उद्भव और विकास' प्रस्तुत किया। सागर मीराजपुरी ने गज़लपुर, नवग़ज़लपुर तथा गीतिकायनम के नाम से तीन शोधपरक कृतियों में हिंदी ग़ज़ल के सम्यक विश्लेषण का कार्य किया। हिंदी ग़ज़ल को स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान देने की भावना से प्रेरित रचनाकारों ने इसे मुक्तिका, गीतिका, तेवरी, अनुगीत, लघुगीत जैसे नाम दिए किंतु नाम मात्र बदलने से किसी विधा का इतिहास नहीं बदला करता।
. हिंदी ग़ज़ल को महाप्राण निराला द्वारा प्रदत्त 'गीतिका' नाम से स्थापित करने के लिए प्रो . विश्वंभर शुक्ल ने अपने अभिन्न मित्र ओम नीरव के साथ मिलकर अंतरजाल पर निरंतर प्रयत्न कर नव पीढ़ी को जोड़ा। फलत: 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' तथा 'गीतिकालोक' शीर्षक से दो महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित हुईं जिनसे नई कलमों को प्रोत्साहन मिला।
. . विवेच्य कृति 'उम्र जैसे नदी हो गयी' इस पृष्ठभूमि में हिंदी छंदाधारित हिंदी ग़ज़ल की परिपक्वता की झलक प्रस्तुत करती पठनीय-मननीय कृति है। गीतिका, रोला, वाचिक भुजंगप्रयात, विजात, वीर/आल्ह, सिंधु, मंगलवत्थु, दोहा, आनंदवर्धक, वाचिक महालक्ष्मी, वाचिक स्रग्विणी, जयकरी चौपाई, वर्णिक घनाक्षरी, राधाश्यामी चौपाई, हरिगीतिका, सरसी, वाचिक चामर, समानिका, लौकिक अनाम, वर्णिक दुर्मिल सवैया, सारए लावणी, गंगोदक, सोरठा, मधुकरी चौपाई, रारायगा, विजात, विधाता, द्वियशोदा, सुखदा, ताटंक, बाला, शक्ति, द्विमनोरम, तोटक, वर्णिक विमोहाए आदि छंदाधारित सरस रचनाओं से समृद्ध यह काव्य-कृति रचनाकार की छंद पर पकड़, भाषिक सामर्थ्य तथा नवप्रयोगोंमुखता की बानगी है। शुभाशंसान्तर्गत प्रो . सूर्यप्रकाश दीक्षित ने ठीक ही कहा है: 'इस कृति में वस्तु-शिल्पगत यथेष्ट वैविध्यपूर्ण काव्य भाषा का प्रयोग किया गया है, जो प्रौढ़ एवं प्रांजल है.... कृति में विषयगत वैविध्य दिखाई देता है। कवि ने प्रेम, सौन्दर्य, विरह-मिलन एवं उदात्त चेतना को स्वर दिया है। डॉ. उमाशंकर शुक्ल 'शितिकंठ' के अनुसार इन रचनाओं में विषय वैविध्य, प्राकृतिक एवं मानवीय प्रेम-सौन्दर्य के रूप-प्रसंग, भक्ति-आस्था की दीप्ति, उदात्त मानवीय मूल्यों का बोध, राष्ट्रीय गौरव की दृढ़ भावनाएँ विडंबनाओं पर अन्वेषी दृष्टि, व्यंग्यात्मक कशाघात से तिलमिला देनेवाले सांकेतिक चित्र तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण समाहित हैं।'
. 'गीतिका है मनोरम सभी के लिए' में ९० रचनाकारों की १८० रचनाओं के अतिरिक्त, दृगों में इक समंदर है तथा मृग कस्तूरी हो जाना दो गीतिका शतकों के माध्यम से इस विधा के विकास हेतु निरंतर सचेष्ट प्रो. विश्वंभर शुक्ल आयु के सात दशकीय पड़ाव पार करने के बाद भी युवकोचित उत्साह और ऊर्जा से छलकते हुए उम्र के नद-प्रवाह को इस घाट से घाट तक तैरकर पराजित करते रहते हैं। भाव-संतरण की महायात्रा में गीतिका की नाव और मुक्तकों के चप्पू उनका साथ निभाते हैं। प्रो. शुक्ल के सृजन का वैशिष्ट्य देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप भाषा- शैली और शब्दों का चयन करना है। वे भाषिक शुद्धता के प्रति सजग तो हैं किंतु रूढ़-संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हैं। वे भारत की उदात्त परंपरानुसार परिवर्तन को जीवन की पहचान मानते हुए कथ्य को शिल्प पर वरीयता देते हैं। 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा' और 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' की सनातन परंपरा के क्रम में वे कहते हैं-
. 'कर्म के खग पंख खोलें व्योम तक विचरण करें
. शिथिल हैं यदि चरण तब यह जीवनी कारा हुई
. काटकर पत्थर मनुज अब खोजता है नीर को
. दग्ध धरती कुपित यह अभिशप्तए अंगारा हुई
. पर्वतों को सींचता है देवता जब स्वेद से
. भूमि पर तब एक सलिला पुण्य की धारा हुई '
. जीवन में सर्वाधिक महत्व स्नेह का हैण् तुलसीदास कहते है-
. 'आवत ही हरसे नहींए नैनन नहीं सनेह
. तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे नेह'
शुक्ल जी इस सत्य को अपने ही अंदाज़ में कहते हैं.
. 'आदमी यद्यपि कभी होता नहीं भगवान है
. किंतु प्रिय सबको वही जिसके अधर मुस्कान है
. सूख जाते हैं समंदर जिस ह्रदय में स्नेह के
. जानिए वह देवता भी सिर्फ रेगिस्तान है
. पाहनों को पूज लेताए मोड़ता मुँह दीन से
. प्यार.ममता के बिना मानव सदा निष्प्राण हैण्
. प्रेम करुणा की सलिल सरिता जहाँ बहती नहीं
. जीव ऐसा जगत में बस स्वार्थ की दूकान है'
प्रकृति के मानवीकरण ओर रूपक के माध्यम से जीवन-व्यापार को शब्दांकित करने में शुक्ल जी का सानी नहीं है. भोर में उदित होते भास्कर पर आल्हाध्वीर छंद में रचित यह मुक्तिका देखिए-
. 'सोई हुई नींद में बेसुध, रजनी बाला कर श्रृंगार
. रवि ने चुपके से आकर के, रखे अधर पर ऊष्ण अंगार
. अवगुंठन जब हटा अचानक, अरुणिम उसके हुए कपोल
. प्रकृति वधूटी ले अँगड़ाई, उठी लाज से वस्त्र सँवार
. सकुचाई श्यामा ने हँसकर, इक उपहार दिया अनमोल
. प्रखर रश्मियों ने दिखलाए, जी भर उसके रंग हजार
. हुआ तिरोहित घने तिमिर का, फैला हुआ प्रबल संजाल
. उषा लालिमा के संग निखरी, गई बिखेर स्वर्ण उपहार
. प्रणय समर्पण मोह अनूठे, इनसे खिलती भोर अनूप
. हमें जीवनी दे देता है, रिश्तों का यह कारोबार'
. पंचवटी में मैथिलीशरण जी गुप्त भोर के दृश्य का शब्दांकन देखें-
. 'है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर
. रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होनेपर
. और विरामदायिनी अपनी संध्या को दे जाता है
. शून्य श्याम तनु जिससे उसका नया रूप झलकाता है'
दो कवियों में एक ही दृश्य को देखकर उपजे विचार में भिन्नता स्वाभाविक है किंतु शुक्ल जी द्वारा किए गए वर्णन में अपेक्षाकृत अधिक सटीकता और बारीकी उल्लेखनीय है।
उर्दू ग़ज़ल के चुलबुलेपन से प्रभावित रचना का रंग अन्य से बिलकुल भिन्न है-
'हमारे प्यार का किस्सा पुराना है
कहो क्या और इसको आजमाना है
गज़ब इस ज़िंदगी के ढंग हैं प्यारे
पता चलता नहीं किस पर निशाना है।'
एक और नमूना देखें -
'फिर से चर्चा में आज है साहिब
दफन जिसमें मुमताज है साहिब
याद में उनके लगे हैं मेले
जिनके घर में रिवाज़ है साहिब'
भारतीय आंचलिक भाषाओँ को हिंदी की सहोदरी मानते हुए शुक्ल जी ने बृज भाषा की एक रचना को स्थान दिया है। वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद का माधुर्य आनंदित करता है-
करि गोरि चिरौरि छकी दुखियाए छलिया पिय टेर सुनाय नहीं
अँखियाँ दुइ पंथ निहारि थकींए हिय व्याकुल हैए पिय आय नहीं
तब बोलि सयानि कहैं सखियाँ ए तनि कान लगाय के बात सुनो
जब लौं अँसुआ टपकें ण कहूँए सजना तोहि अंग लगाय नहीं
ग्रामीण लोक मानस ऐसी छेड़-छाड़ भरी रचनाओं में ही जीवन की कठिनाइयों को भुलाकर जी पाता है।
राष्ट्रीयता के स्वर बापू और अटल जी को समर्पित रचनाओं के अलावा यत्र-तत्र भी मुखर हुए हैं-
'तोड़ सभी देते दीवारें बंधन सीमाओं के
जन्मभूमि जिनको प्यारी वे करते नहीं बहाना
कब-कब मृत्यु डरा पाई है पथ के दीवानों को
करते प्राणोत्सर्ग राष्ट्र-हित गाते हुए तराना
धवल कीर्ति हो अखिल विश्व में, नवोन्मेष का सूरज
शस्य श्यामला नमन देश को वन्दे मातरम गाना'
यदा-कदा मात्रा गिराने, आयें और आएँ दोनों क्रिया रूपों का प्रयोग, छुपे, मुसकाय जैसे देशज क्रियारूप खड़ी हिंदी में प्रयोग करना आदि से बचा जा सकता तो आधुनिक हिंदी के मानक नियमानुरूप रचनाएँ नव रचनाकारों को भ्रमित न करतीं।
शुक्ल जी का शब्द भण्डार समृद्ध है। वे हिंदीए संस्कृत, अंगरेजी, देशज और उर्दू के शब्दों को अपना मानते हुए यथावश्यक निस्संकोच प्रयोग करते हैं , कथ्य के अनुसार छंद चयन करते हुए वे अपनी बात कहने में समर्थ हैं-
'अब हथेली पर चलो सूरज उगाएँ
बंद आँखों में अमित संभावनाएँ
मनुज के भीतर अनोखी रश्मियाँ है
खो गयी हैंए आज मिलकर ढूँढ लाएँ
एक सूखी झील जैसे हो गए मन
है जरूरी नेह की सरिता बहाएँ
आज का चिंतन मनन अब तो यही है
पेट भर के ग्रास भूखों को खिलाएँ
तोड़ करके व्योम से लायें न तारे
जो दबे कुचले उन्हें ऊपर उठाएँ'
सारत: 'उम्र जैसे नदी हो गयी' काव्य-पुस्तकों की भीड़ में अपनी अलग पहचान स्थापित करने में समर्थ कृति है। नव रचनाकारों को छांदस वैविध्य के अतिरिक्त भाषिक संस्कार देने में भी यह कृति समर्थ है। शुक्ल जी का जिजीविषाजयी व्यक्तित्व इन रचनाओं में जहाँ-तहाँ झलक दिखाकर पाठक को मोहने में कोई कसर नहीं छोड़ता। 
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, वेब: www.divyanarmada.in

शिव-दोहावली

शिव-दोहावली 
*
हर शंका को दूर कर, रख शंकर से आस. 
श्रृद्धा-शिवा सदय रहें, यदि मन में विश्वास.
*
शिव नीला आकाश हैं, सविता रक्त सरोज
रश्मि-उमा नित नमन कर, देतीं जीवन-ओज
*
शिव जीवों में प्राण है, विष्णु जीव की देह
ब्रम्हा मति को जानिए, जीवन जिएँ विदेह
*
उमा प्राण की चेतना, रमा देह का रूप
शारद मति की तीक्ष्णता, जो पाए हो भूप
*
चिंतन-लेखन ब्रम्ह है, पठन विष्णु को जान
मनन-कहाँ शिव तत्व है, नमन करें मतिमान
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द विष्णु अवतार
शिव समर्थ दें अर्थ तब, लिख-पढ़ता संसार
*
अक्षर की लिपि शारदा, रमा शब्द का भाव
उमा कथ्य निहितार्थ हैं, मेटें सकल अभाव
*
कलम ब्रम्ह, स्याही हरी, शिव कागज विस्तार
शारद-रमा-उमा बनें, लिपि कथ्यार्थ अपार
*
नव लेखन से नित्य कर, तीन-देव-अभिषेक
तीन देवियाँ हों सदय, जागे बुद्धि-विवेक
*
जो न करे रचना नई, वह जीवित निर्जीव
नया सृजन कर जड़ बने, संचेतन-संजीव
*
सविता से ऊर्जा मिले, ऊषा करे प्रकाश
वसुधा हो आधार तो, कर थामें आकाश
*
२३-२-२०१८

कविता- धरती

एक कविता
धरती
संजीव 'सलिल'
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
**************
२३-२-२०११

कविता- जान वेदना

एक रचना 
काव्य और जन-वेदना 
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘लोक प्रतिनिधि
लोक जैसा ही रहे?
करे सेवक मौज, 
मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना। 
*** 

हिग्स-बोसॉन कण

लेख: 
हिग्स-बोसॉन कण – धर्म और विज्ञान की सांझी विरासत 
संजीव वर्मा ‘सलिल’
.
भारतीय दर्शन सृष्टि निर्माता को सृष्टि के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में उपस्थित तथा सकल सृष्टि का कर्म विधायक मानता है। अहम् ब्रम्हास्मि, शिवोsssहं, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर में शंकर, आत्मा सो परमात्मा आदि उक्तियाँ यही दर्शाती हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा ही कण-कण की मूल चेतना है। परमात्मा ही कण-कण के कर्म विधान का लेखा-जोखा रखता है तथा कर्मानुसार फल देता है। कर्म योग का यह सिद्धांत परमात्मा को मूलतः निर्गुण, निराकार, अजर, अमर, अनादि, अनंत, अनश्वर बताता है। आकार का जन्म कणों के समुच्चय से होता है, इसलिए कण-कण में भगवान् कहा जाता है। आकार से चित्र बनता है।जो निराकार या आकारहीन हो उसका चित्र नहीं हो सकता। उसका चित्र गुप्त है इसलिए उस परमसत्ता को चित्र गुप्त कहा गया, वह परम सत्य है इसलिए उसे सत्य नारायण (सच्चा स्वामी) भी कहा गया। 

भारतीय आर्ष ग्रंथों में सृष्टि उत्पत्ति का जो सिद्धांत वर्णित है वही विज्ञान भी मानता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि भार युक्त भौतिक परमाणुओं के सम्मिलन से बनी है। भार युक्त परमाणुओं को संयुक्त करनेवाली शक्ति अस्तित्व में हुए बिना परमाणुओं से पदार्थ कैसे बन सकता है? भार रहित परमाणुओं को भार देनेवाले कणों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व अथवा भार नहीं होता। भारतीय दर्शन इस शक्ति को विश्वकर्मा (विश्व का निर्माता) कहती है। वैज्ञानिकों के अनुसार शून्यता के रहते हुए पदार्थों के परमाणु गतिवान होते हुए भी आपस में जुड़ नहीं सकते। हिग्स-बोसॉन सिद्धांत के अनुसार रिक्त स्थान में परमाणु को भार देनेवाले कण उपस्थित होते हैं। इनका कोई भार या द्रव्यमान नहीं होता. वैज्ञानिकों ने इन्हीं कणों की अनुभूति की है और इन्हें हिग्स-बोसॉन कण या देव कण (गॉड पार्टिकल) कहा है। 
भारतीय चिन्तन काया और चेतना का अलग-अलग अस्तित्व मानता है। ऋग्वेद से लेकर उपनिषदों, ब्राम्हण ग्रंथों, आरण्यकों, पुराणों आदि में इस विषय पर वैज्ञानिक दृष्टि और जिज्ञासा से परिपूर्ण व्यापक चर्चा है।  ऋग्वेद में विश्वकर्मा की स्तुति करते हुए जिज्ञासा है कि श्रृष्टि के सृजन से पूर्व सृष्ट-रचना की सामग्री कहाँ से लायी गयी? नारदीय सूक्त (ऋ. १० / १२९) में असत और सत के भी पूर्व काल के संबंध में प्रश्न है। अणु जैसे सूक्ष्म घटक की जानकारी उपनिषद काल में भी थी। कठोपनिषद में कहा गया है कि ‘वह’ अणु से भी छोटा और विराट से भी बड़ा है, वह शरीर में रहकर भी अशरीरी अर्थात भारविहीन है। वैज्ञानिक प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार भाररहित उपपरमाणुओं तथा भाररहित परमाणुओं की टकराहट से पृथ्वी, चन्द्र, तारामंडल, ग्रहों आदि का निर्माण हुआ। यह निष्कर्ष अंतिम न होने पर भी ध्यान देने योग्य है। भारत में ज्योतिष शास्त्र परंपरागत रूप से मंगल को पृथ्वी से उत्पन्न (पुत्र) मानता है तथा उज्जैन में मंगल के पृथक होने का स्थान मान्य है। 
ऋग्वेद (१०.७२.६) में परमाणुओं को देव कहा गया है: ‘हे देव! आपके नृत्य से उत्पन्न धूलि से पृथ्वी का निर्माण हुआ। यह प्रतीक सरल-सहज बोधगम्य है। देव यही भारहीन कण है। इन्हीं की हलचल और टकराव से भाररहित  परमाणुओं में जुड़ने की प्रवृत्ति और शक्ति उत्पन्न हुई। ऋग्वेद में इस मंत्र के पहले (१०.७२.२) कहा गया है कि परम सत्ता ने अव्यक्त को लोहार की धौंकनी की तरह पकाया। आचार्य श्री राम शर्मा ने इसे वर्तमान विज्ञान सम्मत ‘बिग बैंग’ (महाविस्फोट) ठीक ही कहा है। ऋग्वेद (१०.७२.३) कहता है असत से सत आया। असत भारहीनता अर्थात अदृश्यता की स्थिति है, सत भारयुक्तता अर्थात दृश्यमान अस्तित्व की। 
मुन्डकोपनिषद (२.९) के अनुसार ‘वह’ परम आकाश में सब जगह उपस्थित है, कलाओं से रहित है, अवयवशून्य और निर्मल है।  कलारहित अवयवशून्य से तात्पर्य भारहीनता ही है। श्वेताश्वतर उपनिषद (६.१९) उसे निष्कलं (कलारहित), शांतं, निरवद्यं तथा निरंजनं कहता है। भारहीन के लिए वैदिक ऋषियों के ये शब्द प्रयोग विज्ञानसम्मत होने के साथ-साथ मधुर भी हैं। परमात्मा की अनुभूति इसी शरीर सी होने पर भी उसे ‘अशरीरी’ (शरीर से परे) कहा गया है। ईशावास्योपनिषद के अष्टम खंड में उसे अकायं (कायारहित) तथा अस्रविरं (स्रावरहित) अर्थात शुद्ध बताया गया है।
हिग्स-बोसॉन कण ही देव कण है क्योंकि इसके अभाव में सृष्टि में सृजन असंभव है। सृष्टि के हर पदार्थ के सृजन में इन कणों की भूमिका है। ईशावास्योपनिषदकार घोषणा करता है ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्’ अर्थात सकल सृष्टि में सर्वत्र ईश्वर की ही उपस्थिति है। ईशावास्योपनिषद का ईश्वर ही कण रूप में भाररहित होकर भी अनंत को आच्छादित करता है। ऐसा देव कण केवल एक ही है या ऐसे अनेक देव कण हैं? वेद अनेक देव बताता है किंतु इस संबंध में विज्ञान निरुत्तर है। विज्ञान की सीमा है किन्तु परमसत्ता असीम है। ईशावास्योपनिषद (मन्त्र ५) कहता है ‘तद्दूरे तद्वन्तिके तदन्तस्य सर्वस्य तदु सर्वस्याय बाह्यतः’ अर्थात व्ह अति दूर होते हुए भी अति निकट है, वह हमारे अंदर होते हुए भी सबको बाहर से भी घेरता है।
विज्ञान भौतिक जगत की शोध करता है जबकि परमसत्ता जड़ भौतिक पदार्थ मात्र नहीं हो सकती, वह ‘सत’ और ‘असत’ दोनों है और दोनों से परे भी है। अतः, वह कण मात्र कैसे हो सकता है? सृष्टि का हर एक और सभी कण, अणु, परमाणु, छंद, वाणी, स्पन्दन, स्थिरता, गति, स्पर्श, गंध आदि में वही है और होते हुए भी नहीं है। इसे दृष्टांत रूप में इस तरह समझें की भारत सरकाए के हर कर्मचारी-अधिकारी के रूप में राष्ट्रपति की सत्ता है अर्थत राष्ट्रपति हैं किन्तु नहीं भी हैं। विज्ञान पदार्थ, गति, ऊर्जा, समय और अंतरिक्ष में अंतर्संबंध और बाह्यसंबंध की खोज करता है। वह अज्ञात को ज्ञात की परिधि में समाविष्ट करता है किन्तु सृष्टि के कण-कण में अंतर्भूत सृष्टा का रहस्य अज्ञात की परिधि मात्र नहीं, अज्ञेय का विस्तार भी है। विश्व विख्यात चीनी दार्शनिक लाओत्से रचित ‘ताओ तेह चिंग’ के अनुसार अन्धकार से प्रकाश, अरूप से रूप अस्तित्व में आया। यह ऋग्वेद में बहुत पहले वर्णित ‘असत से सत’ आगमन के सत्य की पुनरावृत्ति है। लाओत्से ब्रम्ह या ईश्वर के स्थान पर ‘ताओ’ शब्द का प्रयोग कर लिखता है कि ज्ञान या तर्क से उसका बोध नहीं होता, उसमें कितना भी जोड़ो या घटाओ उसमें फर्क नहीं पड़ता। 
ताओ से सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृहदारण्यकोपनिषद कहता है ‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ अर्थात परमसत्ता पूर्ण था, पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटा देने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है। मुंडकोपनिषद (२.२१०) के अनुसार न सूर्य है, न चाँद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत् केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशवान है। वृहदारण्यकोपनिषद (१.५.२) कहता है ‘संचरण च असन्चरण च- अर्थात वह गतिशील भी है, गतिहीन स्थिर भी है। तैत्तरीयोपनिषद (२.६) के अनुसार वह वह निरुक्त है, अनिरुक्त है, निलयन है, अनिलयन है, विज्ञान है, अविज्ञान है। श्रीमद्भगवद्गीता का आत्म तत्व भी भारहीन कण जैसा ही है जिसे हथियार मार नहीं सकते, अग्नि जला नही सकती, पानी गीला नहीं कर सकता, हवा सुखा नहीं सकती। यह ‘आत्म’ परमात्म का ही अंश है इसलिए यह सर्वथा न्यायसंगत है। 
केनोपनिषदकार उदात्त घोषणा करता है: ‘नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च’ अर्थात मैं नहीं मानता कि मैं उसे ठीक से जानता हूँ, न यह मानता हूँ कि मैं उसे नहीं जानता।’ विज्ञान ने अभी उस परमसत्ता की ओर यात्रा का आरम्भ मात्र किया है। योगियों ने अनाहद नाद के रूप में उस गुंजार की प्रतीति की है जो सतत गुंजरित और अधिकाधिक सघन होकर बिग-बैंग को जन देता है, जिसे ॐ से अभिव्यक्त किया जाता है और जिसके सृष्टि की हर काया में स्थित होने के सत्य को जानने और माननेवाले खुद को ‘कायस्थ’ (कायास्थिते सः कायस्थ: अर्थात जो सत्ता काया का सृजन कर अंश रूप में  आत्मा बनकर उसमें स्थित होती है कायस्थ कही जाती है) वे ईश्वर का अंश मानकर अन्य सभी जातियों, धर्मों, वर्णों, भाषा-भाषियों, देशवासियों को समभाव से देखते हैं। वे हर रूप में परमसत्ता को पूजनीय मानते हैं, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, देश, भाषा, भूषा, लिंग, नस्ल, वंश आदि के आधार पर अपना-पराया मानने को स्वीकार नहीं करते। वे ‘विश्वैक नीडं’ (विश्व एक घोंसला या घर है), ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सकल वसुधा एक कुटुंब है) ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानं’ (परमसत्ता के प्रति श्रद्धा रखनेवाला ही उसका ज्ञान पा सकता है) तथा ‘विश्वासं फलदायकं’ (परमसत्ता के प्रति विश्वास ही फल देनेवाला होता है) जैसे आर्ष जीवनदर्शक सिद्धांतों का अनुसरण करते हैं। उनका इष्ट ‘श्रृद्ध-विश्वास रूपिणौ’ (श्रृद्धा-विश्वास के रूप में) ही होता है। विज्ञान श्रृद्धा-विश्वास पर नहीं तर्क पर विश्वास करता है।  इसलिए विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं पूरक हैं। हिग्स-बोसॉन कण (देव कण) ने धर्म और विज्ञान को उनकी सांझी विरासत के निकट लाकर एक-दूसरे को अधिक समझने का अवसर उपलब्ध कराया है। 
***
२३-२-२०१५ 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

रमन प्रभाव

विग्यान लेख
रमन प्रभाव
*
एकल तरंग दैर्घ्य प्रकाश (मोनोक्रोमेटिक) किरणें जब किसी पारदर्शक माध्यम (ठोस, द्रव या गैस) से गुजरती है तब इसकी छितराई किरणों में मूल प्रकाश किरणों के अलावा स्थिर अंतर पर बहुत कम तीव्रता का किरणें भी रहती हैं। इन किरणों को खोजकर्ता वैग्यानिक भारत रत्न सर चंद्रशेखर वेंकटेश्वर रमन के नाम पर रमन प्रभाव (रमन इफेक्ट) कहा जाता है। २८-२-१९२८ को सर रमन ने इस खोज की घोषणा की थी इसलिए २२ फरवरी को राष्ट्रीय विग्यान दिवस मनाया जाता है। प्रकाश-प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट मौलिक कार्य हेतु रमन को सन १८-२४ में रायल सोसायटी लंदन की फैलोशिप, १९३० में भौतिकी का नोबल पुरस्कार, १९५२ में भारत रत्न तथा १९५७ में लेनिन शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ।

राष्ट्रीय विग्यान दिवस का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को विग्यान के प्रति आकर्षित करना तथा जन सामान्य को वैग्यानिक उपलब्धियों के प्रति सजग करना है। रमन किरणें माध्यम के कणों के कंपन व घूर्णन के कारण मूल प्रकाश किरणों में ऊर्जा कम या अधिक होने से उत्पन्न होती हैं। रमन प्रभाव का  औषधि विग्यान, जीव विग्यापन, भौतिकी, खगोल विज्ञान व दूरसंचार के क्षेत्र में बहुत महत्व है। रमन प्रभाव के अनुसार कोई एकवर्णी प्रकाश किरणों या ठोसों से होकर गुजरे तो उसमें आपतित प्रकाश के साथ अत्यल्प तीव्रता का कुछ अन्य रंगों का प्रकाश दिखता है। रमन ने यह महत्वपूर्ण शोध पुराने किस्म के यंत्रों से किया। रमन प्रभाव ने विग्यान व प्रौद्योगिकी पर बहुत प्रभाव डाला। इससे बैक्टीरिया, रासायनिक प्रदूषण, विस्फोटकों आदि का पता चल जाता है। अमरीकी वैग्यानिकों ने काँच की अपेक्षा सिलिकॉन पर रमन प्रभाव दस हजार गुना अधिक तीव्र पाया है। इससे आर्थिक लाभ के साथ समय की बचत होती है।

वर्ष १९१७ में कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी प्राध्यापक का पद निर्मित होने पर कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने रमन को आमंत्रित किया। रमन ने कुछ पदार्थों में वस्तुओं में प्रकाश किरणों के संचलन का अध्ययन करते समय देखा कि किरणों का पूर्ण समूह एकदम सीधा नहीं चलता, उसका कुछ भाग पथ परिवर्तन कर बिखर जाता है। सन १९२१ में विश्वविद्यालयों की अॉक्सफोर्ड कांग्रेस में गए रमन ने मनोरंजन करने के स्थान पर सेंट पॉल गिरजाघर में उसके फुसफुसाते गलियारों का रहस्य समझा। जलयान से स्वदेश लौटते समय
रमन ने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता पहुँचकर रमन ने पदार्थों में प्रकाश के विकरण का अध्ययन आरंभ कर सात वर्षों में रमन प्रभाव की खोज की।

१९२७ में उनका ध्यान इस बात पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती है तो उनकी तरंग लंबाई बदल जाती है। प्रश्न उठा कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए? रमन ने पारद आर्क के प्रकाश का स्पेक्ट्रम स्पेक्ट्रोस्कोप में बनाया। इन दोनों के मध्य विविध रासायनिक पदार्थ रखकर पारद आर्क के प्रकाश को इनमें से गुजारकर स्पेक्ट्रम बनाए। आपने देखा कि हर स्पेक्ट्रम भिन्न होता है। आपने श्रेष्ठ स्पैक्ट्रम चित्र तैयार कर मापकर गणितीय गणना व सैद्धान्तिक व्याख्या की। उन्होंने प्रमाणित किया कि यह अंतर पारद प्रकाश की तरंग लंबाई में परिवर्तन के कारण होता है। रमन का यह कार्य पराधीन भारत में भारतीय मनीषा का विश्व स्तर पर लोहा मनवाया।
***
संवस

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

लावणी छंद

लावणी छंद
*
छंद विधान: यति १६-१४, समपदांती द्विपदिक मात्रिक छंद, पदांत नियम मुक्त।
पुस्तक मेले में पुस्तक पर, पाठक-क्रेता गायब हैं। 
थानेदार प्रकाशक कड़ियल, विक्रेतागण नायब हैं।।
जहाँ भीड़ है वहाँ विमोचन, फोटो ताली माला है।
इंची भर मुस्कान अधर पर, भाषण घंटों वाला है।।
इधर-उधर ताके श्रोता, मीठा-नमकीन कहाँ कितना?
जितना मिलना माल मुफ्त का, उतना ही हमको सुनना।।
फोटो-सेल्फी सुंदरियों के, साथ खिंचा लो चिपक-चिपक।
गुस्सा हो तो सॉरी कह दो, खोज अन्य को बिना हिचक।।
मुफ्त किताबें लो झोला भर, मगर खरीदो एक नहीं।
जो पढ़ने को कहे समझ लो, कतई इरादे नेक नहीं।।
हुई देश में व्याप्त आजकल, लिख-छपने की बीमारी।
बने मियाँ मिट्ठू आपन मुँह, कविगण करते झखमारी।।
खुद अभिनंदन पत्र लिखा लो, ले मोमेंटो श्रीफल शाल।
स्वल्पाहार हरिद्रा रोली, भूल न जाना मल थाल।।
करतल ध्वनि कर चित्र खींच ले, छपवा दे अख़बारों में।
वह फोटोग्राफर खरीद लो, सज सोलह सिंगारों में।।
जिम्मेदारी झोंक भाड़ में, भूलो घर की चिंता फ़िक्र।
धन्य हुए दो ताली पाकर, तरे खबर में पाकर ज़िक्र।।
***
११.१.२०१९

कौन हूँ मैं?

भारतीय का परिचय:
कौन हूँ मैं?...
संजीव 'सलिल'
*
क्या बताऊँ,

कौन हूँ मैं?
नाद अनहद

मौन हूँ मैं.

दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.


जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..


आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमे.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.


ॐ हूँ मैं,

व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला,

सोम हूँ मैं.

किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.


'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वंदित चर्चिता हूँ.


प्रार्थना हूँ,

वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा

चंदना हूँ.

ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.


शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.


केंद्र, त्रिज्या हूँ,

परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ,

सुरभि हूँ.

जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.


भाव जैसा तुम रखोगे

चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.


संकुचन-

विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का

व्यापार हूँ मैं.

हिंस्र खातिर काल हूँ मैं
हलाहल की ज्वाल हूँ मैं
कभी दुर्गा, कभी काली
दनुज-सर की माल हूँ मैं

चाहते हो स्नेह पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.

द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
रागिनी जग में गुँजाओ.

जलधि जल की
धार हूँ मैं
हिंद-हिंदी

सार हूँ मैं.

कायरों की मौत हूँ मैं
सज्जनों हित ज्योत हूँ मैं
नर्मदा हूँ, वर्मदा हूँ.
धर्मदा हूँ, कर्मदा हूँ.

कभी कंकर, कभी शंकर.
कभी सैनिक कभी बंकर.

दहशतगर्दों! मौत हूँ मैं.
ज़िंदगी की सौत हूँ मैं.

सुधर आओ
शरण हूँ मैं.
सिर रखो

शिव-चरण हूँ मैं.

क्या बताऊँ,
कौन हूँ मैं?
नाद अनहद

मौन हूँ मैं.

*****

हाइकु, सदोका नवगीत, दोहा, सवैया

आज की रचना- 
हाइकु 
हिंदी का फूल 
मैंने दिया, उसने 
अंग्रेजी फूल।
*
सदोका
है चौकीदार
वफादार लेकिन
चोरियाँ होती रही।
लुटती रहीं
देश की तिजोरियाँ
जनता रोती रही।
*
नवगीत:
अंतर में
पल रही व्यथाएँ
हम मुस्काएँ क्या?
*
चौकीदार न चोरी रोके
वादे जुमलों को कब टोंके?
संसद में है शोर बहुत पर
नहीं बैंक में कुत्ते भौंके।
कम पहनें
कपड़े समृद्ध जन
हम शरमाएँ क्या?
*
रंग बदलने में हैं माहिर
राजनीति में जो जगजाहिर।
मुँह में राम बगल में छूरी
कुर्सी पूज रहे हैं काफिर।
देख आदमी
गिरगिट लज्जित
हम भरमाएँ क्या?
*
लोक फिर रहा मारा-मारा,
तंत्र कर रहा वारा-न्यारा।
बेच देश को वही खा रहे
जो कहते यह हमको प्यारा।।
आस भग्न
सांसों लेने को भी
तड़पाएँ क्या?
***
दोहा
शुभ प्रभात अरबों लुटा, कहो रहो बेफिक्र।
चौकीदारी गजब की, सदियों होगा जिक्र।।
*
पिया मेघ परदेश में, बिजली प्रिय उदास।
धरती सासू कह रही, सलिल बुझाए प्यास।।
*
बहतरीन सर हो तभी, जब हो तनिक दिमाग।
भूसा भरा अगर लगा, माचिस लेकर आग।।
*
नया छंद : अठमग सवैया
विधान: ८ मगण + गुरु लघु
प्रकार: २६ वार्णिक, ५१ मात्रिक छंद
बातों ही बातों में, रातों ही रातों में, लूटेंगे-भागेंगे, व्यापारी घातें दे आज
वादों ही वादों में, राजा जी चेलों में, सत्ता को बाँटेंगे, लोगों को मातें दे आज
यादें ही यादें हैं, कुर्सी है प्यादे हैं, मौका पा लादेंगे, प्यारे जो लोगों को आज
धोखा ही धोखा है, चौका ही चौका है, छक्का भी मारेंगे, लूटेंगे-बाँटेंगे आज
***

बसंती दोहा सलिला

बसंती दोहा सलिला  
संजीव 'सलिल'
*
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..
चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण कुंतली भाल.
सरसिज पंखुड़ी से अधर, गुलकन्दी टकसाल..
वाक् सारिका सी मधुर, भौंह-नयन धनु-बाण.
वार अचूक कटाक्ष का, रुकें न निकलें प्राण..
देह-गंध मादक मदिर, कस्तूरी अनमोल.
ज्यों गुलाब-जल में 'सलिल', अंगूरी दी घोल..
दस्तक कर्ण कपट पर, देते रसमय बोल.
वाक्-माधुरी हृदय से, कहे नयन-पट खोल..
दाड़िम रद-पट मौक्तिकी, संगमरमरी श्वेत.
रसना मुखर सारिका, पिंजरे में अभिप्रेत..
वक्ष-अधर रस-गगरिया, सुख पा कर रसपान.
बीत न जाये उमरिया, शुष्क न हो रस-खान..
रसनिधि हो रसलीन अब, रस बिन दुनिया दीन.
तरस न तरसा, बरस जा, गूंजे रस की बीन..
रूप रंग मति निपुणता, नर्तन-काव्य प्रवीण.
बहे नर्मदा निर्मला, हो न सलिल-रस क्षीण..
कंठ सुराहीदार है, भौंह कमानीदार.
पिला अधर रस-धार दो, तुमसा कौन उदार..
रूपमती तुम, रूप के कद्रदान हम भूप.
तृप्ति न पाये तृषित गर, व्यर्थ 'सलिल' जल-कूप..
गाल गुलाबी शराबी, नयन-अधर रस-खान.
चख-पी डूबा बावरा, भँवरा पा रस-दान..
जुही-चमेली वल्लरी, बाँहें कमल मृणाल.
बंध-बँधकर भुजपाश में, होता 'सलिल' रसाल..
**************************

नवगीत मैं नहीं

नवगीत
मैं नहीं 
संजीव
.
मैं नहीं नव
गीत लिखता
उजासों की
हुलासों की
निवासों की
सुवासों की
खवासों की
मिदासों की
मिठासों की
खटासों की
कयासों की
प्रयासों की
कथा लिखता
व्यथा लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
उतारों की
चढ़ावों की
पड़ावों की
उठावों की
अलावों की
गलावों की
स्वभावों की
निभावों की
प्रभावों की
अभावों की
हार लिखता
जीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
.
चाहतों की
राहतों की
कोशिशों की
आहटों की
पूर्णिमा की
‘मावसों की
फागुनों की
सावनों की
मंडियों की
मन्दिरों की
रीत लिखता
प्रीत लिखता
मैं नहीं नव
गीत लिखता
*

२१.२.२०१५ 

नवगीत: मानक

नवगीत: 
मानक 
संजीव
.
सबके 
अपने-अपने मानक 
.
‘मैं’ ही सही
शेष सब सुधरें.
मेरे अवगुण
गुण सम निखरें.
‘पर उपदेश
कुशल बहुतेरे’
चमचे घेरें
साँझ-सवेरे.
जो न साथ
उसका सच झूठा
सँग-साथ
झूठा भी सच है.
कहें गलत को
सही बेधड़क
सबके
अपने-अपने मानक
.
वही सत्य है
जो जब बोलूँ.
मैं फरमाता
जब मुँह खोलूँ.
‘चोर-चोर
मौसेरे भाई’
कहने से पहले
क्यों तोलूँ?
मन-मर्जी
अमृत-विष घोलूँ.
बैल मरखना
बनकर डोलूँ
शर-संधानूं
सब पर तक-तक.
सबके
अपने-अपने मानक
.
‘दे दूँ, ले लूँ
जब चाहे जी.
क्यों हो कुछ
चिंता औरों की.
‘आगे नाथ
न पीछे पगहा’
दुःख में सब संग
सुख हो तनहा.
बग्घी बैठूँ,
घपले कर लूँ
अपनी मूरत
खुद गढ़-पूजूं.
मेरी जय बोलो
सब झुक-झुक.
सबके
अपने-अपने मानक
१७.२.२०१५
*

नवगीत: चिन्तन करें

नवगीत:
चिन्तन करें
संजीव
.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए 
.
सघन कोहरा
छटना ही है.
आज न कल
सच दिखना ही है.
श्रम सूरज
निष्ठा की आशा
नव परिभाषा
लिखना ही है.
संत्रासों की कब्र खोदने
कोशिश गेंती
साथ चलायें
घटे विषमता,
समता वरिए
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
.
दल ने दलदल
बहुत कर दिया.
दलविहीन जो
ऐक्य हर लिया.
दीन-हीन को
नहीं स्वर दिया.
अमिया पिया
विष हमें दे दिया.
दलविहीन
निर्वाचन करिए.
नव निर्माणों
का पथ वरिए.
निज से पहले
जन हित धरिए.
चिन्तन करें,
न चिंता करिए
१६.२.२०१५, भांड़ई
*

नवगीत: झोपड़-झुग्गी से

नवगीत: 
झोपड़-झुग्गी से
संजीव
*
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे 
.
झाड़ू लेकर
राजनीति की
बात करें.
संप्रदाय की
द्वेष-नीति की
मात करें.
आश्वासन की
मृग-मरीचिका
ख़त्म करो.
उन्हें हराओ
जो निर्बल से
घात करें.
मैदानों में
शपथ लोक-
सेवा की लो.
मतदाता क्या चाहे
पूछो जा द्वारे
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
मन्दिर-मस्जिद
से पहले
शौचालय हो.
गाँव-मुहल्ले
में उत्तम
विद्यालय हो.
पंडित-मुल्ला
संत, पादरी
मेहनत कर-
स्वेद बहायें,
पूज्य खेत
देवालय हों.
हरियाली संवर्धन हित
आगे आ रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
जाती जन्म से
नहीं, कर्म से
बनती है.
उत्पादक अन-
उत्पादक में
ठनती है.
यह उपजाता
वह खाता
बिन उपजाये-
भू उसकी
जिसके श्रम-
सीकर सनती है.
अन-उत्पादक खर्च घटे
वह विधि ला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
श्रम की
सबसे अधिक
प्रतिष्ठा करना है.
शोषक पूँजी को
श्रम का हित
वरना है.
चौपालों पर
संसद-ग्राम
सभाएँ हों-
अफसरशाही
को उन्मूलित
करना है.
बहुत हुआ द्लतंत्र
न इसकी जय गा रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
.
बिना बात की
बहसें रोको,
बात करो.
केवल अपनी
कहकर तुम मत
घात करो.
जिम्मेवारी
प्रेस-प्रशासन
की भारी-
सिर्फ सनसनी
फैला मत
आघात करो.
विज्ञापन की पोल खोल
सच बतला रे!
झोपड़-झुग्गी से
बँगलेवाले हारे
१५-१६.२.२०१५
*