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शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

अक्टूबर ११, बघेली, दोहा मुक्तिका, वास्तु, भवन, हरिगीतिका, लघुकथा, मुक्तक


सलिल सृजन अक्टूबर ११
*
हिंदी ग़ज़ल
हाथ में खंजर, मन में कपट
देखिए मंजर, वह है निकट
.
पाकर मौका कभी न छोड़ो
जैसे ही हो झट लो झपट
.
हाथ मिलाए तस्कर-थाना
व्यर्थ कराओ मत तुम रपट
.
आग लगाई गर पड़ोस में
झुलसा देगी तुमको लपट
.
गलत करे जैसे ही बच्चा
कर न अदेखा झट दो डपट
.
कह न सके गर सच को सच तुम
नहीं आदमी तुम हो पपट
१०.१०.२०२५
०००

मुक्तक
धरती की बर्बाद चाँद पे जा रए हैं २३
चंदा डर सें पीरो, जे मुस्का रए हैं २३
एक दूसरे की धरती पै बम फेंकें २२
संधि बार्ता कैंसी दोउ गुर्रा रए हैं २३
***
गीत
चंदा! हमैं वरदान दै
(रुहेली)
*
चंदा! हमैं वरदान दै,
पाँयन तुमारिन सै परैं।
पूनम भौत भाती हमैं
उम्मीद दै जाती हमैं।
उजियारते देवा तुमई
हर साँझ हरसाते हमैं।
मम्मा! हमैं कछु ज्ञान दै,
अज्ञान सागर सै तरैं।।
दै सूर्य भैया उजारो
बहिन उसा नैं पुकारो।
तारों सैं यारी पुरानी
रजनी में सासन तुमारो।
बसबे हमें स्थान दै,
लै बिना ना दर सै टरैं।।
तुम चाहते हौ सांत हौं
सबसै मिलें हम प्रेम से।
किरपा तुमारी मिलै तौ
तुम पै बसें हम छेम से।
खुस हो तुरत गुनगान सें ,
हम सब बिनै तुम सै करैं।।
११-१०-२०२३
***
दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
नवगीत:
कम लिखता हूँ...
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
***
मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..
गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..
कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में
चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..
ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..
राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.
चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..
वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.
ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..
'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.
शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..
***
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों
को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई,
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की
दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश
अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की
तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक
दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा
आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा
एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों।
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों।
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन -
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
हरिगीतिका:
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..
*
अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..
*
माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
मुक्तिका:
*
काम कर बेकाम, कोई क्यों निठल्ला रह मरे?
धान इस कोठे का बनिया दूजे कोठे में भरे.
फोड़ सर पत्थर पे मिलता है अगर संतोष तो
रोकता कोई नहीं, मत आप करने से डरे
काम का परिणाम भी होता रहा जग में सदा
निष्काम करना काम कब चाहा किसी ने नित करे?
नाम ने बदनाम कर बेनाम होने ना दिया
तार तो पाता नहीं पर चाहता है नर तरे
कब हरे हमने किसी के दर्द पहले सोच लें
हुई तबियत हरी, क्यों कोई हमारा दुःख हरे
मिली है जम्हूरियत तो कद्र हम करते नहीं
इमरजेंसी याद करती रूह साये से डरे
बेहतर बहता रहे चुपचाप कोई पी सके
'सलिल' कोई आ तुझे अपनी गगरिया में भरे
११-१०-२०१५
***
नवगीत
बचपन का
अधिकार
उसे दो
याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने
अब अपना
स्वीकार
उसे दो
पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें
देखो हँस
मनुहार
उसे दो
इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें
आओ!
नवल निखार
इसे दो
***
लघुकथा
सफलता
*
गुरु छात्रों को नीति शिक्षा दे रहे थे- ' एकता में ताकत होती है. सबको एक साथ हिल-मिलकर रहना चाहिए- तभी सफलता मिलती है.'
' नहीं गुरु जी! यह तो बीती बात है, अब ऐसा नहीं होता. इतिहास बताता है कि सत्ता के लिए आपस में लड़ने वाले जितने अधिक नेता जिस दल में होते हैं' उसके सत्ता पाने के अवसर उतने ज्यादा होते हैं. समाजवादियों के लिए सत्ता अपने सुख या स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं जनसेवा का माध्यम थी. वे एक साथ मिलकर चले, धीरे-धीरे नष्ट हो गए. क्रांतिकारी भी एक साथ सुख-दुःख सहने कि कसमें खाते थे. अंतत वे भी समाप्त हो गए. जिन मौकापरस्तों ने एकता की फ़िक्र छोड़कर अपने हित को सर्वोपरि रखा, वे आज़ादी के बाद से आज तक येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पर काबिज हैं.' -होनहार छात्र बोला.
गुरु जी चुप!
११-१०-२०१४
***
दोहा सलिला
दोहे बात ही बात में
*
बात करी तो बात से, निकल पड़ी फिर बात
बात कह रही बात से, हो न बात बेबात
*
बात न की तो रूठकर, फेर रही मुँह बात
बात करे सोचे बिना, बेमतलब की बात
*
बात-बात में बढ़ गयी, अनजाने ही बात
किये बात ने वार कुछ, घायल हैं ज़ज्बात
*
बात गले मिल बात से, बन जाती मुस्कान
अधरों से झरता शहद, जैसे हो रस-खान
*
बात कर रही चंद्रिका, चंद्र सुन रहा मौन
बात बीच में की पड़ी, डांट अधिक ज्यों नौन?
*
आँखों-आँखों में हुई, बिना बात ही बात
कौन बताये क्यों हुई, बेमौसम बरसात?
*
बात हँसी जब बात सुन, खूब खिल गए फूल
ए दैया! मैं क्या करूँ?, पूछ रही चुप धूल
*
बात न कहती बात कुछ, रही बात हर टाल
बात न सुनती बात कुछ, कैसे मिटें सवाल
*
बात काट कर बात की, बात न माने बात
बात मान ले बात जब, बढ़े नहीं तब बात
*
दोष न दोषी का कहे, बात मान निज दोष
खर्च-खर्च घटत नहीं, बातों का अधिकोष
*
बात हुई कन्फ्यूज़ तो, कनबहरी कर बात
'आती हूँ' कह जा रही, बात कहे 'क्या बात'
११-१०-२०११
***

रविवार, 5 अक्टूबर 2025

शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा: १६ चन्द्र कलाएँ एवं महारास
***
सॉनेट 
शरत्चंद्र 
शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से 
मन नीलाभ गगन हो हँसता 
रश्मिरथी दे अमृत, झट से 
कंकर हो शंकर भुज कसता 
सलज उमा, गणपति आहट पा 
मग्न साधना में हो जाती 
ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ 
शीश नवा, माँ के जस गाती
हो संजीव, सलिल लहरें उठ 
गौरी पग छू सकुँच ठिठकती 
अंजुरी भर कर पान उमा झुक 
शिव को भिगा रिझाकर हँसती 
शुक्ल स्मृति पायस सब जग को 
दे अमृत कण शरत्चंद्र का 

(शेक्सपियरी शैली)
९-१०-२०२२, १५-४३ 
●●●

            शरत पूर्णिमा का महापर्व वास्तव में 'श्री' प्राप्ति हित किया जानेवाला व्रत है। श्री का अर्थ सुख-समृद्धि-संतोष-सफलता और सायुज्य प्राप्ति से है।  तदनुसार चंद्रमा की आराधना इसलिए की उपयुक्त है कि चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त अमृत का पर्याय और मन का स्वामी है।  निम्न श्लोक  विभिन्न वेदों और उपनिषदों में मिलता है, जैसे ऋग्वेद १०/९०/१३, यजुर्वेद ३१/१२ और अथर्ववेद १९/६ आदि।  

चन्द्रमा मनसो जाताश्चक्षो सूर्यो अजायत।
श्रोत्रांवायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत।।  
 

            शरत पूर्णिमा का महापर्व 'कोजागरी पूनम' के नाम से भी जाना जाता है। यह त्योहार आश्विन शुक्ल १५ पूर्णिमा को मनाया जाता है। लोक मान्यता है कि इस दिनधन की देवी लक्ष्मी रात्रि में आकाश में विचरण करती हैं और नीचे जाग रहे लोगों को ढूँढ़ती हुई 'को जागर्ति' पूछती हैं। संस्कृत में, 'को जागर्ति' का अर्थ है, 'कौन जाग रहा है?' और जो जाग रहे हैं उन्हें वह धन का उपहार देती हैं।

            सनत्कुमार संहिता में कोजागरी पूनम की कथा में वालखिल ऋषि बताते हैं कि प्राचीन काल में मगधदेश (बंगाल) में वलित नामक एक दीन ब्राह्मण रहता था। वह विद्वान और सदाचारी था किंतु उसकी पत्नी झगड़ालू थी और पति की इच्छा के विपरीत आचरण करती थी। एक बार उसके पिता के श्राद्ध के दिन उसने पिंड दान करते समय प्रथा के अनुसार पवित्र गंगा के बजाय, एक गंदे गड्ढे में फेंक दिया। इससे वलित क्रोधित हो गया। उसने धन की खोज में घर त्याग दिया। संयोग से वह रात आसो सुद पूनम की थी। जंगलों में उसकी भेंट कालिया नाग की कन्याओं से हुई। इन नागकन्याओं ने आसो सुद पूनम के दिन जागते हुए ‘कोजागरी व्रत’ किया था।  उसी समय, भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी सहित वहाँ से गुज़रे। वलित ने संयोगवश 'कोजागरी व्रत' रखा था, लक्ष्मी ने उन्हें प्रेम के देवता 'कामदेव' के समान रूप प्रदान किया। अब उनकी ओर आकर्षित होकर, नागकन्याओं ने वलित से विवाह किया और उन्हें अपना धन दान में दिया। फिर वह धन लेकर घर लौटे, जहाँ उनकी पत्नी ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। इस घटना के बाद, संहिता में घोषणा की गई कि जो लोग इस पूनम के दिन जागते रहेंगे, उन्हें धन की प्राप्ति होगी।

            इस रात, भगवान कृष्ण ने अपनी परमभक्त भक्त गोपियों, वृंदावन की गोपियों को अपने साथ महारास (पारंपरिक लोकनृत्य) खेलने के लिए आमंत्रित किया था। गोपियों ने सामाजिक और पारिवारिक वर्जना के विरुद्ध रास में सहभागिता की। श्री कृष्ण ने उन्हें अनन्य भक्ति प्रदान की। जब वे बृज में अपने घर छोड़कर वृंदावन पहुँचीं, तो श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया। अपने प्रति उनके प्रेम की और परीक्षा लेने के लिए, उन्होंने कहा: 'तुम जैसी चरित्रवान स्त्रियों को आधी रात में किसी अन्य पुरुष से मिलने के लिए घर से बाहर नहीं जाना चाहिए।' तब गोपियों अत्यंत दुःखी होकर कहा- 'हमारे चरण आपके चरण-कमलों से तनिक भी अलग नहीं होते। अतः हम व्रज कैसे लौट सकें?' अपने प्रति अटूट प्रेम से प्रसन्न श्रीकृष्ण ने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण कर महारास का सूत्रपात किया। गोपियाँ गर्व से फूल उठीं कि 'भगवान ने हम पर जो कृपा की है, उससे बढ़कर किसी की भक्ति नहीं हो सकती।' महारास को भगवान की कृपा मानने के बजाय, अहंकार ने उनकी भक्ति को कलंकित कर दिया। अतः श्री कृष्ण तुरन्त रास मण्डल से अन्तर्धान हो गए।गोपियाँ श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाओं का स्मरण कर विरह वेदना का विलाप करने लगीं और 'विरह गीत' -गाए-

'जयति ते-धिकम जन्मना व्रजहा.... (श्रीमद्भागवत १०/३१/०१)

            भागवत (१-/३०/२५) में 'लीला' का वर्णन करते हुए शुकदेवजी राजा परीक्षित से कहते हैं- 'हे परीक्षित! सभी रात्रियों में से शरद पुनम की वह रात्रि सबसे अधिक शोभायमान हो गई। श्रीकृष्ण गोपियों के साथ यमुना के किनारे घूमते थे, मानों सभी को अपनी लीला में कैद कर रहे हों।'

            भगवान स्वामीनारायण के परम भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी का जन्म शरद पूर्णिमा, संवत १८४१ को हुआ था। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से जागृत भक्तों को ईश्वर-साक्षात्कार का आशीर्वाद देकर 'धन' प्रदान किया।

लोक कथा 

            शरद पूर्णिमा की लोक कथा के अनुसार एक साहूकार की दो बेटियाँ थीं।  बड़ी बेटी हमेशा पूर्णिमा का व्रत पूरी श्रद्धा से करती थी, जबकि छोटी बेटी व्रत को अधूरा छोड़ देती थी। इस कारण बड़ी बेटी को स्वस्थ संतानें हुईं, पर छोटी बेटी की संतानें पैदा होते ही मर जाती थीं।  पंडितों की सलाह पर छोटी बेटी ने विधि-विधान से व्रत पूरा किया, तो उसे भी संतान हुई पर कुछ दिनों बाद वह भी मर गई। शोक में लीन छोटी बेटी ने मृत शिशु को पीढ़े पर लिटाकर कपड़ा ढक दिया और अपनी बड़ी बहन को वहीं बैठने को कहा। बड़ी बहन के छूते ही बच्चा जीवित हो गया। छोटी बेटी को पता चला कि यह बड़ी बहन के पूर्ण व्रत के पुण्य से हुआ है। इस घटना से दोनों बहनों ने नगरवासियों को पूर्णिमा व्रत की महिमा बताई, जिससे सभी ने व्रत रखना शुरू कर दिया। यह कथा  सिखाती है कि सच्चे और विधिपूर्वक किए गए व्रत का फल अवश्य मिलता है। 

            शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपनी सभी १६ कलाओं से पूर्ण होता है। सोलह कलाओं का अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये १६ कलाएँ सुप्त अवस्था में होती है। इणका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं।

प्रथम स्रोत- १.अन्नमय, २.प्राणमय, ३. मनोमय, ४.विज्ञानमय, ५.आनंदमय, ६.अतिशयिनी, ७.विपरिनाभिनी, ८.संक्रमिनी, ९.प्रभवि, १०.कुंथिनी, ११.विकासिनी, १२.मर्यादिनी, १३.सन्हालादिनी, १४.आह्लादिनी, १५.परिपूर्ण और १६.स्वरूपवस्थित।

द्वितीय स्रोत- १.श्री, २.भू, ३.कीर्ति, ४.इला, ५.लीला, ६.कांति, ७.विद्या, ८.विमला, ९.उत्कर्षणी , १०.ज्ञान, ११.क्रिया, १२.योग, १३.प्रहवि, १४.सत्य, १५.इसना और १६.अनुग्रह।

तृतीय स्रोत- १.प्राण, २.श्रधा, ३.आकाश, ४.वायु, ५.तेज, ६.जल, ७.पृथ्वी, ८.इन्द्रिय, ९.मन, १०.अन्न, ११.वीर्य, १२.तप, १३.मन्त्र, १४.कर्म, १५.लोक और १६. नाम।

            वास्तव में १६ कलाएँ बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की १५ अवस्थाएँ ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

१९ अवस्थाएँ: भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की ३ प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की १५ कला शुक्ल पक्ष की १ कल है। इनमें से आत्मा की १६ कलाएँ हैं। आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥

अर्थात : जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। - (भगवदगीता ८-२४ )

भावार्थ : श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं। अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।


            'जागृति' का आध्यात्मिक अर्थ है सतर्क रहना। वचनामृत  तृतीय-९ में, भगवान स्वामीनारायण इस सतर्कता की व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि हृदय में जागृति ही भगवान के दिव्य धाम का प्रवेश द्वार है। भक्तों को धन, वासना आदि सांसारिक इच्छाओं को अपने हृदय में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। सफलता और असफलता, सुख और दुख, मान और अपमान जैसी बाधाओं का सामना करते समय, भक्तों को ईश्वर की भक्ति में अडिग रहना चाहिए। इस प्रकार, उन्हें ईश्वर के प्रवेश द्वार पर सतर्क रहना चाहिए और किसी भी सांसारिक वस्तु को प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। जीवन में हर क्षण सतर्कता की आवश्यक है। यह अपने आप में एक सूक्ष्म तप बन जाता है। जिन लोगों ने बिना सतर्कता के कठोर तपस्या की, वे माया के वशीभूत हो गए। विश्वामित्र ने ६०,००० वर्षों तक तपस्या की, लेकिन मेनका के सान्निध्य में अपनी जागृति खो बैठे। इसी प्रकार, सतर्कता के अभाव ने सौभरि ऋषि, एकलशृंगी, पराशर आदि को भी परास्त कर दिया। 

            शरद पूर्णिमा की रात्रि का आकाश स्वच्छ और चंद्रप्रभा से परिपूर्ण होता है, साधक को भी अपने अंतःकरण को शुद्ध करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उसे देह-चेतना और सांसारिक इच्छाओं का उन्मूलन कर ब्रह्म-चेतना को आत्मसात करना होगा, ताकि परब्रह्म का निरंतर अनुभव हो सके। (गीता १८/५४, शिक्षापत्री ११६) इसके लिए साधक को गुणातीत साधु की खोज करनी होगी, जो मोक्ष (भगवान) का द्वार है, जैसा कि भागवत (३/२९/२०) में घोषित किया गया है:

प्रसंगमजारं पाशमात्मनहा कवयो विदुहु,
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम्।

            ऋषियों का आदेश है कि यदि कोई जीव अपने शरीर और शारीरिक संबंधियों में अत्यधिक आसक्त है, उसी प्रकार गुणातीत साधु में आसक्त हो जाए, तो उसके लिए मोक्ष के द्वार खुल जाएंगे। भगवान को 'दूध-पायस' यानी दूध में भिगोए हुए भुने चावल का भोग लगाकर भक्तगण प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद के स्वास्थ्यवर्धक गुण दशहरे के प्रसाद के समान ही हैं; यह पित्त की गड़बड़ी को दूर करता है। स्वामीनारायण संस्था सभी मंदिरों में रात्रि में बड़े उत्साह के साथ यह उत्सव मनाती है। भक्त अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामीकीर्तन गाते हैं और अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी की महिमा का गुणगान करते हैं। सभा के दौरान पाँच आरती की जाती हैं। प्रमुख स्वामी महाराज आमतौर पर गोंडल मंदिर में शरद पूर्णिमा मनाते हैं - जो गुणातीतानंद स्वामी के दाह संस्कार स्थल पर बना है।

            जनश्रुति के अनुसार सिद्धार्थ ने वैशाख माह की पूर्णिमा को सुजाता से पायस ग्रहण करने के बाद ही बुद्धत्व पाया था। शरद पूर्णिमा आश्विन माह की पूर्णिमा को होती है किंतु पायस (दूध-चाँवल की खीर) का महत्व निर्विवाद है। 

***




अक्टूबर ५, पज्झटिका, सिंह, छंद, सूरज, लघुकथा, दुर्गा, नवगीत,

सलिल सृजन अक्टूबर ५
*
छंदशाला ३५
पज्झटिका छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल व डिल्ला छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, पदांत बंधन नहीं, ८+गुरु+४+गुरु, चौकल वर्जित।
लक्षण छंद-
पज्झटिका मात्रा सोलह है।
अठ पे फिर चौ पे गुरु शुभ है।।
जगण न चौकल में आ पाए।
काव्य कसौटी जीत दिलाए।।
उदाहरण-
जन गण का मन हो न अब दुखी।
काम करे सरकार बहुमुखी।।
भ्रष्टाचार न हो अब हावी।
वैमनस्य हो भाग्य न भावी।।
सद्भावों को मौका देंगे।
किस्मत अपनी आप लिखेंगे।।
नहीं सियासत के गुलाम हो।
नव आशा के बीज नए बो।।
स्वेद-परिश्रम की जय बोलें।
उन्नति का ताला झट खोलें।।
४-१०-२०२२
•••
छंदशाला ३६
सिंह छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला व पज्झटिका छंद)
विधान
प्रति पद १६ मात्रा, आदि II अंत IIS ।
लक्षण छंद-
लघु पदादि दो, अंत सगण हो।
समधुर छंद सरस शुभ प्रण हो।।
सिंह शुभ नाम छंद का रखिए।
रचिए कहिए सुनिए गुनिए।।
उदाहरण
हिलमिलकर रह साथ विहँसिए।
सुमन सदृश खिल, खूब महकिए।।
तितली निर्भय उड़कर रस ले।
जग-जीवन का मौन निरखिए।।
शंकर रहता है कंकर में
ठुकरा कभी न नाहक तजिए।।
विजयादशमी जीतें खुद को
बिन कुछ माँगे प्रभु को भजिए।।
जिसके मन में चाहें रखना
उसके मन में खुद भी बसिए।।
वह न कहाँ है? सभी जगह है।
नयन मूँद मन मंदिर लखिए।।
अपना कौन?, कौन नहिं अपना?
सबमें वह, सबके बन रहिए।।
विजयादशमी
५-१०-२०२२
•••
विमर्श : छंद - संकुचन और विस्तार १
*
- छंद क्या?
= जो छा जाए वह छंद।
- क्या सर्वत्र छा सकता है
= प्रकाश?
- प्रकाश सर्वत्र छा सकता तो छाया तथा ग्रहण न होते। सर्वत्र छा सकती है ध्वनि या नाद।
= क्या ध्वनि या नाद छंद है?
- नहीं, ध्वनि छंद का मूल है। जब नाद की बार-बार आवृत्ति हो तो निनाद जन्मता है।
निनाद में लयखंड समाहित होता है।
लयखंड की आवृत्ति कर छंद रचना की जाती है।
निनाद के उच्चार को उच्चार काल की दृष्टि से लघु उच्चार तथा गुरु उच्चार में वर्गीकृत किया गया है।
सर्वमान्य है कि वाक् का व्यवस्थित रूप भाषा है।
प्रकृति में सन् सन्, कलकल, गर्जन आदि ध्वनियाँ अंतर्निहित हैं।
सृष्टि का जन्म ही नाद से हुआ है।
जीव जन्मते ही ध्वनि का उच्चार कर अपने पदार्पण का जयघोष करता है।
कलरव, कूक, दहाड़ आदि में रस, लय तथा भाव की अनुभूति की जा सकती है।
क्रौंच-क्रंदन की पीर ही प्रथम काव्य रचना का मूल है।
वाक् के उच्चार काल के आवृत्तिजनित समुच्चय विविध लयखंडों को जन्म देते हैं।
सार्थक लयखंड एक की अनुभूति को अन्यों तक संप्रेषित करते हैं।
लोक इन लय खंडों को प्रकृति तथा परिवेश (जीव-जंतु) से ग्रहण कर उनका दोहराव कर बेतार के तार की तरह स्वानुभूति को अभिव्यक्त और प्रेषित करता है।
क्रमशः
विमर्श : रेफ युक्त शब्द
राकेश खंडेलवाल
रेफ़ वाले शब्दों के उपयोग में अक्सर गलती हो जाती हैं। हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है। '
१. कर्म, धर्म, सूर्य, कार्य
२. प्रवाह, भ्रष्ट, ब्रज, स्रष्टा
३. राष्ट्र, ड्रा
जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है, जिसके ऊपर यह लगता है। रेफ़ के उपयोग में ध्यान देने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वर के ऊपर नहीं लगाया जाता। यदि अर्ध 'र' के बाद का वर्ण आधा हो, तब यह बाद वाले पूर्ण वर्ण के ऊपर लगेगा, क्योंकि आधा वर्ण में स्वर नहीं होता। उदाहरण के लिए कार्ड्‍‍स लिखना गलत है। कार्ड्स में ड् स्वर विहीन है, जिस कारण यह रेफ़ का भार वहन करने में असमर्थ है। इ और ई जैसे स्वरों में रेफ़ लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए स्पष्ट है कि किसी भी स्वर के ऊपर रेफ़ नहीं लगता।
ब्रज या क्रम लिखने या बोलने में ऐसा लगता है कि यह 'र' की अर्ध ध्वनि है, जबकि यह पूर्ण ध्वनि है। इस तरह के शब्दों में 'र' का उच्चारण उस वर्ण के बाद होता है, जिसमें यह लगा होता है ,
जब भी 'र' के साथ नीचे से गोल भाग वाले वर्ण मिलते हैं, तब इसके /\ रूप क उपयोग होता है, जैसे-ड्रेस, ट्रेड, लेकिन द और ह व्यंजन के साथ 'र' के / रूप का उपयोग होता है, जैसे- द्रवित, द्रष्टा, ह्रास।
संस्कृत में रेफ़ युक्त व्यंजनों में विकल्प के रूप में द्वित्व क उपयोग करने की परंपरा है। जैसे- कर्म्म, धर्म्म, अर्द्ध। हिंदी में रेफ़ वाले व्यंजन को द्वित्व (संयुक्त) करने का प्रचलन नहीं है। इसलिए रेफ़ वाले शब्द गोवर्धन, स्पर्धा, संवर्धन शुद्ध हैं।
''जो अर्ध 'र' या रेफ़ शब्द के ऊपर लगता है, उसका उच्चारण हमेशा उस व्यंजन ध्वनि से पहले होता है। '' के संबंध में नम्र निवेदन है कि रेफ कभी भी 'शब्द' पर नहीं लगाया जाता. शब्द के जिस 'अक्षर' या वर्ण पर रेफ लगाया जाता है, उसके पूर्व बोला या उच्चारित किया जाता है।
- संजीव सलिल:
''हिंदी में 'र' का संयुक्त रूप से तीन तरह से उपयोग होता है.'' के संदंर्भ में निवेदन है कि हिन्दी में 'र' का संयुक्त रूप से प्रयोग चार तरीकों से होता है। उक्त अतिरिक्त ४. कृष्ण, गृह, घृणा, तृप्त, दृष्टि, धृष्ट, नृप, पृष्ठ, मृदु, वृहद्, सृष्टि, हृदय आदि। यहाँ उच्चारण में छोटी 'इ' की ध्वनि समाविष्ट होती है जबकि शेष में 'अ' की।
यथा: कृष्ण = krishn, क्रम = kram, गृह = ग्रिह grih, ग्रह = grah, श्रृंगार = shringar, श्रम = shram आदि।
राकेश खंडेलवाल :
एक प्रयोग और: अब सन्दर्भ आप ही तलाशें:
दोहा:-
सोऽहं का आधार है, ओंकार का प्राण।
रेफ़ बिन्दु वाको कहत, सब में व्यापक जान।१।
बिन्दु मातु श्री जानकी, रेफ़ पिता रघुनाथ।
बीज इसी को कहत हैं, जपते भोलानाथ।२।
हरि ओ३म तत सत् तत्व मसि, जानि लेय जपि नाम।
ध्यान प्रकाश समाधि धुनि, दर्शन हों बसु जाम।३।
बांके कह बांका वही, नाम में टांकै चित्त।
हर दम सन्मुख हरि लखै, या सम और न बित्त।४।
रेफ का अर्थ:
-- वि० [सं०√रिफ्+घञवार+इफन्] १. शब्द के बीच में पड़नेवाले र का वह रूप जो ठीक बाद वाले स्वरांत व्यंजन के ऊपर लगाया जाता है। जैसे—कर्म, धर्म, विकर्ण। २. र अक्षर। रकार। ३. राग। ४. रव। शब्द। वि० १. अधम। नीच। २. कुत्सित। निन्दनीय। -भारतीय साहित्य संग्रह.
-- पुं० [ब० स०] १. भागवत के अनुसार शाकद्वीप के राजा प्रियव्रत् के पुत्र मेधातिथि के सात पुत्रों में से एक। २. उक्त के नाम पर प्रसिद्ध एक वर्ष अर्थात् भूखंड।
रेफ लगाने की विधि : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', शब्दों का दंगल में
हिन्दी में रेफ अक्षर के नीचे “र” लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है?
यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है। यथा - प्रकाश, संप्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चंद्र।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर "र्" लगाने के लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? “र्" का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।
रेफ लगाने के लिए जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात "र" का उच्चारण हो रहा है। जैसे - प्रकाश, संप्रदाय , नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।
*
६३ ॥ श्री अष्टा वक्र जी ॥
दोहा:-
रेफ रेफ तू रेफ है रेफ रेफ तू रेफ ।
रेफ रेफ सब रेफ है रेफ रेफ सब रेफ ॥१॥
*
१५२ ॥ श्री पुष्कर जी ॥
दोहा:-
रेफ बीज है चन्द्र का रेफ सूर्य का बीज ।
रेफ अग्नि का बीज है सब का रेफैं बीज ॥१॥
रेफ गुरु से मिलत है जो गुरु होवै शूर ।
तो तनकौ मुश्किल नहीं राम कृपा भरपूर ॥२॥
*
चलते-चलते : अंग्रेजी में रेफ का प्रयोग सन्दर्भ reference और खेल निर्णायक refree के लिये होता है.
***
बाल गीत
सूरज
*
पर्वत-पीछे झाँके ऊषा
हाथ पकड़कर आया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
धूप संग इठलाया सूरज।
*
योग कर रहा संग पवन के
करे प्रार्थना भँवरे के सँग।
पैर पटकता मचल-मचलकर
धरती मैडम हुईं बहुत तँग।
तितली देखी आँखमिचौली
खेल-जीत इतराया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
नाक बहाता आया सूरज।
*
भाता है 'जन गण मन' गाना
चाहे दोहा-गीत सुनाना।
झूला झूले किरणों के सँग
सुने न, कोयल मारे ताना।
मेघा देख, मोर सँग नाचे
वर्षा-भीग नहाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
झूला पा मुस्काया सूरज।
*
खाँसा-छींका, आई रुलाई
मैया दिशा झींक-खिसियाई।
बापू गगन डॉक्टर लाया
डरा सूर्य जब सुई लगाई।
कड़वी गोली खा, संध्या का
सपना देख न पाया सूरज।
पूर्व प्राथमिक के बच्चे सा
कॉमिक पढ़ हर्षाया सूरज।
५.१०.२०२१
***
कार्य शाला: दोहा / रोला / कुण्डलिया
*
तुहिन कणों से सज गए,किसलय कोमल फूल।
"दीपा" कैसे दिख रहे, धूल सने सब शूल।। - माँ प्रदीपा
धूल सने सब शूल, त्रास दे त्रास पा रहे।
दे परिमल सब सुमन, जगत का प्यार पा रहे।।
सुलझे कोई प्रश्न, कभी कब कहाँ रणों से।
किसलय कोमल फूल सज गए तुहिन कणों से।। - संजीव
*
मन का डूबा डूबता , बोझ अचिन्त्य विचार ।
चिन्तन का श्रृंगार ही , देता इसे उबार ॥ -शंकर ठाकुर चन्द्रविन्दु देता इसे उबार, राग-वैराग साथ मिल। तन सलिला में कमल, मनस का जब जाता खिल।। चंद्रबिंदु शिव भाल, सोहता सलिल-धार बन। उन्मन भी हो शांत, लगे जब शिव-पग में मन।। -संजीव
*
शब्द-शब्द प्रांजल हुए, अनगिन सरस श्रृंगार।
सलिल सौम्य छवि से द्रवित, अंतर की रसधार।।-अरुण शर्मा
अंतर की रसधार, न सूखे स्नेह बढ़ाओ।
मिले शत्रु यदि द्वार, न छोड़ो मजा चखाओ।।
याद करे सौ बरस, रहकर वह बे-शब्द।
टेर न पाए खुदा को, बिसरे सारे शब्द।। - संजीव
५.१०.२०१८
***
लघुकथाएँ
सियाह लहरें
*
दस नौ आठ सात
उलटी गिनती आरम्भ होते ही सबके हृदयों की धड़कनें तेज हो गयीं। अनेक आँखें स्क्रीन पर गड गयीं। कुछ परदे पर दुःख रही नयी रेखा को देख रहे थे तो कुछ हाथों में कागज़ पकड़े परदे पर बदलते आंकड़ों के साथ मिलान कर रहे थे। कुछ अन्य कक्ष में बैठे अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों को कुछ बता रहे थे।
दूरदर्शन के परदे पर अग्निपुंज के बीच से निकलता रॉकेट। नील गगन के चीरता बढ़ता गया और पृथ्वी के परिपथ के समीप दूसरा इंजिन आरम्भ होते ही परिपथ में प्रविष्ट हो गया। आनंद से उछल पड़े वे सब।
प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री आदि ने प्रमुख वैज्ञानिक, उनके पूरे दल और सभी कर्मचारियों को बधाई देते हुए अल्प साधनों, निर्धारित से कम समय तथा पहले प्रयास में यह उपलन्धि पाने को देश का गौरव बताया। आसमान पर इस उपलब्धि का डंका पीट रही थीं रहीं थीं रॉकेट के जले ईंधन से बनी फैलती जा रही सियाह लहरें।
*
टुकड़े स्पात के
*
धाँय धाँय धाँय
भारी गोलाबारी ने काली रात को और अधिक भयावह बना दिया था किन्तु वे रेगिस्तान की रेत के बगुलों से भरी अंधी में भी अविचलित दुश्मन की गोलियों का जवाब दे रहे थे। अन्तिम पहर में दहशत फैलाती भरी आवाज़ सुनकर एक ने झरोखे से झाँका और घुटी आवाज़ में चीखा 'उठो, टैंक दस्ता'। पल भर में वे सब अपनी मशीन गनें और स्टेन गनें थामे हमले के लिये तैयार थे। चौकी प्रभारी ने कमांडर से सम्पर्क कर स्थिति की जानकारी दी, सवेरे के पहले मदद मिलना असम्भव था।
कमांडर ने चौकी खाली करने को कहा लेकिन चौकी पर तैनात टुकड़ी के हर सदस्य ने मना करते हुए आखिरी सांस और खून की आखिरी बूँद तक संघर्ष का निश्चय किया। प्रभारी ने दोपहर तह मुट्ठी भर जवानों के साथ दुश्मन की टैंक रेजमेंट का सामना करने की रणनीति के तहत सबको खाई और बंकरों में छिपने और टैंकों के सुरक्षित दूरी तक आने के पहले के आदेश दिए।
पैदल सैनिकों को संरक्षण (कवर) देते टैंक सीमा के समीप तक आ गये। एक भी गोली न चलने से दुश्मन चकित और हर्षित था कि बिना कोई संघर्ष किये फतह मिल गयी। अचानक 'जो बोले सो निहाल' की सिंह गर्जना के साथ टुकड़ी के आधे सैनिक शत्रु के जवानों पर टूट पड़े, टैंक इतने समीप आ चुके थे कि उनके गोले टुकड़ी के बहुत पीछे गिर रहे थे। दुश्मन सच जान पाता इसके पहले ही टुकड़ी के बाकी जवान हथगोले लिए टैंकों के बिलकुल निकट पहुँच गए और जान की बाजी लगाकर टैंक चालकों पर दे मारे। धू-धू कर जलते टैंकों ने शत्रु के फौजियों का हौसला तोड़ दिया। प्राची में उषा की पहली किरण के साथ वायुयानों ने उड़ान भरी और उनकी सटीक निशानेबाजी से एक भी टैंक न बच सका। आसमान में सूर्य चमका तो उसे भी मुट्ठी भर जवानों को सलाम करना पड़ा जिनके अद्भुत पराक्रम की साक्षी दे रहे थे मरे हुए शत्रु जवान और जलते टैंकों के इर्द-गिर्द फैले स्पात के टुकड़े।
५.९.२०१६
***
दोहा:
(मात्रिक छंद, १३-११)
*
दर्शन कर कैलाश के, पढ़ गीता को नित्य
मात-पिता जब हों सदय, शिशु को मिलें अनित्य
५.९.२०१५
***
गीत:
आराम चाहिए...
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाए हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
५.९.२०१४
***
प्रतिपदा पर शुभकामना सहित
दोहा सलिला
दुर्गा दुर्गतिनाशिनी
*
दुर्गा! दुर्गतिनाशिनी, दक्षा दयानिधान
दुष्ट-दंडिनी, दध्यानी, दयावती द्युतिवान
*
दीपक दीपित दयामयि!, दिव्याभित दिनकांत
दर्प-दर्द-दुःख दमित कर, दर्शन दे दिवसांत
*
देह दुर्ग दुर्गम दिपे, दिनकरवत दिन-रात
दुश्मन&दल दहले दिखे, दलित&दमित जग&मात
*
दमन] दैत्य दुरित दनुज, दुर्नामी दुर्दांत
दयित दितिज दुर्दम दहक, दम तोड़ें दिग्भ्रांत
*
दंग दंगई दबदबा,देख देवि-दक्षारि
दंभी-दर्पी दग्धकर, हँसे शिव-दनुजारि
*
दर्शन दे दो दक्षजा, दयासिन्धु दातार
दीप्तिचक्र दीननाथ दे, दिप-दिप दीपाधार
*
दीर्घनाद-दुन्दुभ दिवा, दिग्दिगंत दिग्व्याप्त
दिग्विजयी दिव्यांगना, दीक्षा दे दो आप्त
*
दिलावरी दिल हारना, दिलाराम से प्रीत
दिवारात्रि -दीप्तान्गिनी, दिल हारे दिल जीत
*
दया&दृष्टि कर दो दुआ, दिल से सहित दुलार
देइ! देशना दिव्या दो, देश-धर्म उपहार
=========================
दध्यानी = सुदर्शन, दमनक = दमनकर्ता, त्य = दनुज= राक्षस, दुरित = पापी, दुर्दम =अदम्य, दातार = ईश्वर, दीर्घनाद = शंख, दुन्दुभ = नगाड़ा, दियना = दीपक, दिलावरी = वीरता, दिलाराम व प्रेमपात्र, दिवारात्रि = दिन-रात, देइ = देवी, देशना = उपदेश
***
नव गीत
*
हम सब
माटी के पुतले है...
*
कुछ पाया
सोचा पौ बारा.
फूल हर्ष से
हुए गुबारा.
चार कदम चल
देख चतुर्दिक-
कुप्पा थे ज्यों
मैदां मारा.
फिसल पड़े तो
सच जाना यह-
बुद्धिमान बनते,
पगले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
भू पर खड़े,
गगन को छूते.
कुछ न कर सके
अपने बूते.
बने मिया मिट्ठू
अपने मुँह-
खुद को नाहक
ऊँचा कूते.
खाई ठोकर
आँख खुली तो
देखा जिधर
उधर घपले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
*
नीचे से
नीचे को जाते.
फिर भी
खुद को उठता पाते.
आँख खोलकर
स्वप्न देखते-
फिरते मस्ती
में मदमाते.
मिले सफलता
मिट्टी लगती.
अँधियारे
लगते उजले हैं.
हम सब
माटी के पुतले है...
१-१०-२००९

*** 

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २, चौबोला, गोपी, जयकारी, भुजंगिनी, उज्ज्वला, राधिका, शास्त्री, गाँधी, शब्दालंकार,

सलिल सृजन अक्टूबर २
*
छंदशाला २५
चौबोला छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस व मनोरम छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत IS ।
लक्षण छंद-
पंद्रह मात्रा के पद रखे।
लघु-गुरु पदों का अंत सखे।।
चौबोला बोला गह हाथ।
शारद सम्मुख हो नत माथ।।
उदाहरण-
बुंदेली खें मीठे बोल।
रस कानन मां देउत घोल।।
बम्बुलिया गा भौतइ नीक।
तुरतइ रचौ अनूठी लीक।।
आल्हा सुन खें मूँछ मरोर।
बैरी सँग अजमाउत जोर।।
मचलें कजरी राई कबीर।
फाग गा रए मलें अबीर।।
सारद माँ खें पूजन जांय।
पैले रेवा खूब नहांय।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २६
गोपी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम व चौबोला छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदादि त्रिकल, पदांत S ।
लक्षण छंद-
पंद्रह कल, त्रिकलादि न भुला।
रास रचा कान्हा मन खिला।।
गोपी-गोप अंत गुरु रखें।
फोड़ें मटकी, माखन चखें।।
उदाहरण-
छंद साथ गोपी मिल रचें।
आदि त्रिकल, अंत गुरु परखें।।
कला दिखा पंद्रह सुख दिया।
नंद-यशोदा हुलसा हिया।।
बंसी बजी गोप सुन गए।
रास रचा प्रभु पुलकित हुए।।
जमुना तट पर खेलें खेल।
होता द्वैताद्वैती मेल।।
कान्हा हर गोपी सह नचे।
नाना रूप मनोहर रचे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २७
जयकारी छंद
(इससे पूर्व- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि, धरणी, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला व गोपी छंद)
विधान-
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SI ।
लक्षण छंद-
अंतिम तिथि कल संख्या मीत।
गुरु-लघु पद का अंत सुनीत।।
जयकारी-चौपई सुनाम।
गति-यति-लय-रस छंद ललाम।।
(संकेत- अंतिम तिथि १५)
उदाहरण-
जयकारी की कला महान।
चमचे सीखें, भरें उड़ान।।
करे वार तारीफ अचूक।
बढ़ती जाती सुनकर भूख।।
कंकर को शंकर कह रहे।
बहती गंगा में बह रहे।।
चरते खेत ईनामों का।
समय है बेईमानों का।।
लेन-देन सौदे कर रहे।
कवि चारण जीकर मर रहे।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २८
भुजंगिनी/गुपाल छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी व जयकारी/चौपई छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत ISI ।
लक्षण छंद-
नचा भुजंगिनी नच गुपाल।
वसु-ऋषि नाचे ले करताल।।
लघु-गुरु-लघु पद अंत रसाल।
छंद रचे कवि, करे कमाल।।
(संकेत- वसु८+ऋषि७=१५)
उदाहरण-
अपना भारत देश महान।
जग करता इसका गुणगान।।
सजा हिमालय सिर पर ताज।
पग धोता सागर दे मान।।
नदियाँ कलकल बह दिन-रात।
पढ़तीं गीता, ग्रंथ, कुरान।।
पंछी कलरव करें हमेश।
नाप नील नभ भरें उड़ान।।
बहा पसीना करें समृद्ध।
देश हमारे श्रमिक-किसान।।
चूसें नेता-अफसर-सेठ।
खून बचाओ कृपानिधान।।
एक-नेक हम करें निसार।
भारत माँ पर अपनी जान।।
१-१०-२०२२
•••
छंदशाला २९
उज्ज्वला छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई व भुजंगिनी/गुपाल छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SIS ।
लक्षण छंद-
उज्ज्वला रच बात बोलिए।
पंद्रह कला लिए डोलिए।।
गुरु-लघु-गुरु पदांत हो सखे!
बात में रस सलिल घोलिए।।
उदाहरण-
कृष्ण भजें पल पल राधिका।
कान्ह सुमिरे अचल साधिका।।
भव भुला चुप डूब भाव में।
भक्ति हो पतवार नाव में।।
शांत बैठ मन कर साधना।
अमला विमला रख भावना।।
नयन सूर हो बृज देख ले।
कान्ह पद रज शीश लेख ले।।
काम न आई मन कामना।
जब तक मिलता हँस श्याम ना।
२-१०-२०२२
•••
मुक्तिका
*
वो ही खुद को तलाश पाया है
जिसने खुद को खुदी भुलाया है
जो खुदी को खुदा में खोज रहा
वो खुदा में खुदी समाया है
आईना उसको क्या दिखाएगा
जिसने कुछ भी नहीं छिपाया है
जो बहा वह सलिल रहा निर्मल
जो रुका साफ रह न पाया है
देखता है जो बंदकर आँखें
दीप हो उसने तम मिटाया है
है कमालों ने क्या कमाल किया
आ कबीरों को बेच-खाया है
मार गाँधी को कह रहे बापू
झूठ ने सत्य को हराया है
***
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद १३-९
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद.
विधान: यति १३-९, पदांत मगण २२२
उदाहरण:
१.
जिसने हिंदी को छोड़, लिखी अंग्रेजी
उसने अपनी ही आन, गर्त में भेजी
निज भाषा-भूषा की न, चाह क्यों पाली?
क्यों दुग्ध छोड़कर मय, प्याले में ढाली
*
नवप्रयोग
२. मुक्तक
गाँधी की आँधी चली, लोग थे जागे
सत्याग्रहियों में होड़, कौन हो आगे?
लाठी-डंडों को थाम, सिपाही दौड़े-
जो कायर थे वे पीठ, दिखा झट भागे
*
३. मुक्तिका
था लालबहादुर सा न, दूसरा नेता
रह सत्ता-सुख से दूर, नाव निज खेता
.
अवसर आए अनगिनत, न किंतु भुनाए
वे जिए जनक सम अडिग, न उन सा जेता
.
पाकी छोटा तन देख, समर में कूदे
हिमगिरि सा ऊँचा अजित, मनोबल चेता
.
व्रत सोमवार को करे, देश मिल सारा
अमरीका का अभिमान, कर दिया रेता
.
कर 'जय जवान' उद्घोष, गगन गुंजाया
फिर 'जय किसान' था जोश, नया भर देता
*
असमय ही आया समय, विदा होने का
क्या समझे कोई लाल, विदा है लेता
छंद कार्य शाला :
राधिका छंद
लक्षण: २२ मात्रिक, द्विपदिक, समतुकांती छंद।
विधान: यति १३-९, पदांत यगण १२२ , मगण २२२।
***
अभिनव प्रयोग
गीत
*
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
क्यों अपने ही रह गए,
न सगे; पराए।।
*
तुलसी न उगाई कहाँ,
नवाएँ माथा?
'लिव इन' में कैसे लगे
बहू का हाथा?
क्या होता अर्पण और
समर्पण क्यों हो?
जब बराबरी ही मात्र,
लक्ष्य रह जाए?
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
रिश्ते न टिकाऊ रहे,
यही है रोना।
संबंध बिकाऊ बना
चैन मत खोना।।
मिल प्रेम-त्याग का पाठ
न भूल पढ़ाएँ।
बिन दिशा तय किए कदम,
न मंजिल पाए।।
क्यों मूल्य हुए निर्मूल्य,
कौन बतलाए?
*
२-१०-२०१८
***
नवगीत:
*
सत्याग्रह के नाम पर.
तोडा था कानून
लगा शेर की दाढ़ में
मनमानी का खून
*
बीज बोकर हो गये हैं दूर
टीसता है रोज ही नासूर
तोड़ते नेता सतत कानून
सियासत है स्वार्थ से भरपूर
.
भगतसिंह से किया था अन्याय
कौन जाने क्या रहा अभिप्राय?
गौर तन में श्याम मन का वास
देश भक्तों को मिला संत्रास
.
कब कहाँ थे खो गये सुभाष?
बुने किसने धूर्तता के पाश??
समय कैसे कर सकेगा माफ़?
वंश का ही हो न जाए नाश.
.
तीन-पाँच पढ़ते रहे
अब तक जो दो दून
समय न छोड़े सत्य की
भट्टी में दे भून
*
नहीं सुधरे पटकनी खाई
दाँत पीसो व्यर्थ मत भाई
शास्त्री जी की हुई क्यों मौत?
अभी तक अज्ञात सच्चाई
.
क्यों दिये कश्मीरियत को घाव?
दहशतों का बढ़ गया प्रभाव
हिन्दुओं से गैरियत पाली
डूबा ही दी एकता की नाव
.
जान की बाजी लगाते वीर
जीतते हैं युद्ध सहकर पीर
वार्ता की मेज जाते हार
जमीं लौटा भोंकते हो तीर
.
क्यों बिसराते सत्य यह
बिन पानी सब सून?
अब तो बख्शो देश को
'सलिल' अदा कर नून
***
: अलंकार चर्चा १५ :
शब्दालंकार : तुलना और अंतर
*
शब्द कथ्य को अलंकृत, करता विविध प्रकार
अलंकार बहु शब्द के, कविता का श्रृंगार
यमक श्लेष अनुप्रास सँग, वक्र-उक्ति का रंग
छटा लात-अनुप्रास की, कर देती है दंग
साम्य और अंतर 'सलिल', रसानंद का स्रोत
समझ रचें कविता अगर, कवि न रहे खद्योत
शब्दालंकारों से काव्य के सौंदर्य में निस्संदेह वृद्धि होती है, कथ्य अधिक ग्रहणीय तथा स्मरणीय हो जाता है. शब्दालंकारों में समानता तथा विषमता की जानकारी न हो तो भ्रम उत्पन्न हो जाता है. यह प्रसंग विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों, जान सामान्य तथा रचनाकारों के लिये समान रूप से उपयोगी है.
अ. अनुप्रास और लाटानुप्रास:
समानता: दोनों में आवृत्ति जनित काव्य सौंदर्य होता है.
अंतर: अनुप्रास में वर्ण (अक्षर या मात्रा) का दुहराव होता है.
लाटानुप्रास में शब्द (सार्थक अक्षर-समूह) का दुहराव होता है.
उदाहरण: अगम अनादि अनंत अनश्वर, अद्भुत अविनाशी
'सलिल' सतासतधारी जहँ-तहँ है काबा-काशी - अनुप्रास (छेकानुप्रास, अ, स, क)
*
अपना कुछ भी रहा न अपना
सपना निकला झूठा सपना - लाटानुप्रास (अपना. सपना समान अर्थ में भिन्न अन्वयों के साथ शब्द का दुहराव)
आ. लाटानुप्रास और यमक:
समानता : दोनों में शब्द की आवृत्ति होती है.
अंतर: लाटानुप्रास में दुहराये जा रहे शब्द का अर्थ एक ही होता है जबकि यमक में दुहराया गया शब्द हर बार भिन्न (अलग) अर्थ में प्रयोग किया जाता है.
उदाहरण: वह जीवन जीवन नहीं, जिसमें शेष न आस
वह मानव मानव नहीं जिसमें शेष न श्वास - लाटानुप्रास (जीवन तथा मानव शब्दों का समान अर्थ में दुहराव)
*
ढाल रहे हैं ढाल को, सके आक्रमण रोक
ढाल न पाये ढाल वह, सके ढाल पर टोंक - यमक (ढाल = ढालना, हथियार, उतार)
इ. यमक और श्लेष:
समानता: दोनों में शब्द के अनेक (एक से अधिक) अर्थ होते हैं.
अंतर: यमक में शब्द की कई आवृत्तियाँ अलग-अलग अर्थ में होती हैं.
श्लेष में एक बार प्रयोग किया गया शब्द एक से अधिक अर्थों की प्रतीति कराता है.
उदाहरण: छप्पर छाया तो हुई, सर पर छाया मीत
छाया छाया बिन शयन, करती भूल अतीत - यमक (छाया = बनाया, छाँह, नाम, परछाईं)
*
चाहे-अनचाहे मिले, जीवन में तय हार
बिन हिचके कर लो 'सलिल', बढ़कर झट स्वीकार -श्लेष (हार = माला, पराजय)
*
ई. श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति:
समानता: श्लेष और श्लेष वक्रोक्ति दोनों में किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं.
अंतर: श्लेष में किसी शब्द के बहु अर्थ होना ही पर्याप्त है. वक्रोक्ति में एक अर्थ में कही गयी बात का श्रोता द्वारा भिन्न अर्थ निकाला (कल्पित किया जाना) आवश्यक है.
उदहारण: सुर साधे सुख-शांति हो, मुँद जाते हैं नैन
मानस जीवन-मूल्यमय, देता है नित चैन - श्लेष (सुर = स्वर, देवता / मानस = मनस्पटल, रामचरित मानस)
'पहन लो चूड़ी', कहा तो, हो गयी नाराज
ब्याहता से कहा ऐसा क्यों न आई लाज? - श्लेष वक्रोक्ति (पहन लो चूड़ी - चूड़ी खरीद लो, कल्पित अर्थ ब्याह कर लो)
***
नवगीत:
गाँधी
*
गाँधी को मारा
आरोप
गाँधी को भूले
आक्रोश
भूल सुधारी
गर वंदन कर
गाँधी को छीना
प्रतिरोध
गाँधी नहीं बपौती
मानो
गाँधी सद्विचार
सच जानो
बाँधो मत सीमा में
गाँधी
गाँधी परिवर्तन की
आँधी
स्वार्थ साधते रहे
अबोध
गाँधी की मत
नकल उतारो
गाँधी को मत
पूज बिसारो
गाँधी बैठे मन
मंदिर में
तन से गाँधी को
मनुहारो
कर्म करो सत
है अनुरोध
२-१०-२०२०
***
मुक्तक :
सज्जित कर दे रत्न मणि, हिंदी मंदिर आज
'सलिल' निरंतर सृजन कर, हो हिंदी-सर ताज
सरकारों ने कब किया भाषा का उत्थान?
जनवाणी जनतंत्र में, कब कर पाई राज??
२.१०.२०१५
***
लघुकथा:
गाँधी और गाँधीवाद
*
'बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपडा न मिले, तब तक कपडे न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं' -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ऐ उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारन पूछा.
नेताजी बोले- 'बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.'
' चाहे जन प्रतिनिधियों की सविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.' - एक युवा पत्रकार बोल पड़ा. अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.
२-१०-२०१४
***
नवगीत: उत्सव का मौसम
*
उत्सव का
मौसम आया
मन बन्दनवार बनो...
*
सूना पनघट और न सिसके.
चौपालों की ईंट न खिसके..
खलिहानों-अमराई की सुध
ले, बखरी की नींव न भिसके..
हवा विषैली
राजनीति की
बनकर पाल तनो...
*
पछुआ को रोके पुरवाई.
ब्रेड-बटर तज दूध-मलाई
खिला किसन को हँसे जसोदा-
आल्हा-कजरी पड़े सुनाई..
कंस बिराजे
फिर सत्ता पर
बन बलराम धुनो...
*
नेह नर्मदा सा अविकल बह.
गगनविहारी बन न, धरा गह..
खुद में ही खुद मत सिमटा रह-
पीर धीर धर, औरों की कह..
दीप ढालने
खातिर माटी के
सँग 'सलिल' सनो.
२-१०-११

***