उषा दुपहरी सांझ से, पाल रहा जो प्रीत.
छलिया सूरज को कहे, जग क्यों 'सलिल' पुनीत?.
८.२.२०१०
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
पुरुष बिचारा
स्त्री को हमेशा एक पुरुष का साथ चाहिए जिसे हर गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार ठहराना जा सके।
पिता तानाशाह
भाई लापरवाह
पति नाकाबिल
बेटा नालायक
पोता नादान
देवियाँ भी पीछे नहीं हैं।
- लक्ष्मी विष्णु से- 'दिन भर पसरे रहते हो, कभी तो बाहर जाओ।'
- पार्वती शिव से 'कभी तो भले मानुषों की तरह घर में रहा करो।'
- राधा कृष्ण से बुढ़ापा आ रहा है अब तो सुधर जाओ।
- सरस्वती ब्रम्हा से- बूढ़े हो गए, पीछा छोड़ो।
- रिद्धि-सिद्धि की किचकिच से घबराकर गणेश जी ने हाथी से कान उधार लेकर रुई ठूँस ली।
- शंकर जी ने पंगा लिया तो पार्वती जी महाकाली बन उनकी छाती पर सवार हो गईं।
- नंदिनी-इरावती से घबराकर कायस्थों के कुलदेवता ऐसे भागे कि लौटे ही नहीं, इसलिए उनका नाम ही हो गया चित्रगुप्त।
खैर चाहते हो बने रहो जोरू के गुलाम, वह भी बेदाम।
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एक रचना
*
तुम नहीं माने
घने जंगल काट डाले।
खोद दिए हैं पहाड़,
गुफाएँ दी हैं उजाड़,
धरती को कर दिया है नंगा
जंगलों में मजा दिया है दंगा।
प्रकृति से खिलवाड़
विकास की ले आड़।
अपनी समझ में
तुमने उसे मार डाला है।
अब वह
कहीं नहीं दिखता,
उसके भय से
आदमी नहीं छिपता।
लेकिन
तुम्हें नहीं पता,
कर चुके हो खता।
उसने नहीं किया माफ
पाते ही मैदान साफ
बदलकर अपना
डेरा और चोला
तुम्हीं में आ बसा है।
अनजाने-अनचाहे
अनदेखे-अनलेखे
तुम्हें अपनी गिरफ्त में कसा है।
वह धूर्त है,
निर्मम है।
हर्ष नहीं, मातम है।
खोजो,
कितना भी खोजो
यही कहोगे
वह कहीं दिखाई नहीं दिया
दिखाई देगा भी नहीं।
यह न सोचो कि नहीं है
वह रहता यहीं है
पर दिखता नहीं है
क्योंकि तुम्हीं में आ बसा है
जंगल का
खूँखार भेड़िया।
***