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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

गीत अपने ही सुनें- वीरेन्द्र आस्तिक

डॉ. अवनीश सिंह चौहान 
हिन्दी साहित्य की सामूहिक अवधारणा पर यदि विचार किया जाए तो आज भी प्रेम-सौंदर्य-मूलक साहित्य का पलड़ा भारी दिखाई देगा; यद्यपि यह अलग तथ्य है कि समकालीन साहित्य में इसका स्थान नगण्य है। नगण्य इसलिए भी कि आज इस तरह का सृजन चलन में नहीं है, क्योंकि कुछ विद्वान नारी-सौंदर्य, प्रकृति-सौंदर्य, प्रेम की व्यंजना, अलौकिक प्रेम आदि को छायावाद की ही प्रवृत्तियाँ मानते हैं। हिन्दी साहित्य की इस धारणा को बहुत स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। कारण यह कि जीवन और साहित्य दोनों अन्योन्याश्रित हैं, यही दोनों की इयत्ता भी है और इसीलिये ये दोनों जिस तत्व से सम्पूर्णता पाते हैं वह तत्व है- प्रेम-राग। 

इस दृष्टि से ख्यात गीतकवि और आलोचक वीरेन्द्र आस्तिक जी का सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह ‘गीत अपने ही सुनें' एक महत्वपूर्ण कृति मानी जा सकती है। बेहतरीन शीर्षक गीत- "याद का सागर/ उमड़ आया कभी तो/ गीत अपने ही सुने" सहित इस कृति में कुल 58 रचनाएं हैं जो तीन खण्डों में हैं, यथा- 'गीत अपने ही सुनें', 'शब्द तप रहा है' तथा 'जीवन का करुणेश'। तीन खण्डों में जो सामान्य वस्तु है, वह है- प्रेम सौंदर्य। यह प्रेम सौंदर्य वाह्य तथा आन्तरिक दोनों स्तरों पर दृष्टिमान है। शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सौंदर्य का संतुलित समावेश कर सारभौमिक तत्व को उजागर करते हुए कवि संघर्ष और शान्ति (वार एन्ड पीस) जैसे महत्वपूर्ण उपकरणों से जीवन में आए संत्रास को खत्म करना चाहता है; क्योंकि तभी कलरव (प्रकृति) रूपी मूल्यवान प्रेम तक पहुँचा जा सकता है- "सामने तुम हो, तुम्हारा/ मौन पढ़ना आ गया/ आँधियों में एक खुशबू को/ ठहरना आ गया। देखिये तो, इस प्रकृति को/ सोलहो सिंगार है/ और सुनिये तो सही/ कैसा ललित उद्गार है/ शब्द जो व्यक्त था/ अभिव्यक्त करना आ गया। धान-खेतों की महक है/ दूर तक धरती हरी/ और इस पर्यावरण में/तिर रही है मधुकरी/ साथ को, संकोच तज/ संवाद करना आ गया। शांतिमय जीवन;/ कठिन संघर्ष है/ पर खास है/ मूल्य कलरव का बड़ा/ जब हर तरफ संत्रास है/ जिन्दगी की रिक्तता में/ अर्थ भरना आ गया।" 

आस्तिक जी का मानना है कि कवि की भावुकता ही वह वस्तु है जो उसकी कविता को आकार देती है; क्योंकि सौंदर्य न केवल वस्तु में होता है, बल्कि भावक की दृष्टि में भी होता है। कविवर बिहारी भी यही कहते हैं "समै-समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न होय/मन की रूचि जैसी जितै, तित तेती रूचि होय।" शायद इसीलिये आस्तिक जी की यह मान्यता भाषा-भाव-बिम्ब आदि प्रकृति उपादानों के विशेष प्रयोगों द्वारा सृजित उनके गीतों को सर्वांग सुन्दर बना देती है। समाज, घर-परिवेश और दैन्य जीवन के शब्द-चित्रों से लबरेज उनके ये गीत प्रेम की मार्मिक अनुभूति कराने में सक्षम हैं- "दिनभर गूँथे/ शब्द,/ रिझाया/ एक अनूठे छंद को/ श्रम से थका/ सूर्य घर लौटा/ पथ अगोरती मिली जुन्हाई/ खूँद रहा खूँटे पर बछड़ा/ गइया ने हुंकार लगायी/ स्वस्थ सुबह के लिये/ चाँदनी/ कसती है अनुबंध को।" 

जीवन के अंतर्द्वंद्वों की कविताई करना इतना सरल भी नहीं है। उसके लिए कठिन तपश्यर्चा की आवश्यकता होती है। कवि यह सब जानता है- "गीत लिखे जीवन भर हमने/ जग को बेहतर करने के/ किन्तु प्रपंची जग ने हमको/ अनुभव दिये भटकने के/ भूलें, पल भर दुनियादारी/ देखें, प्रकृति छटायें/ पेड़ों से बतियायें।" इतना ही नहीं, कहीं-कहीं कवि की तीव्र उत्कंठा प्रेम को तत्व-रूप में देखने की होती है, तब वह इतिहास और शोध-संधानों आदि को भी खंगाल डालता है; तिस पर भी उसके सौंदर्य उपादान गत्यात्मक एवं लयात्मक बने रहते हैं और मन पर सीधा प्रभाव डालते हैं। कभी-कभी तो वह स्वयं के बनाए मील के पत्थरों को भी तोड़ डालता है, कुछ इस तरह- "मुझसे बने मील के पत्थर/ मुझसे ही टूट गए/ पिछली सारी यात्राओं के/ सहयात्री छूट गए/ अब तो अपने होने का/ जो राज पता चलता है/ उससे/ रोज सामना होता है"  और - "हूँ पका फल/ अब गिरा मैं तब गिरा/ मैं नहीं इतिहास वो जो/ जिन्दगी भर द्रोण झेले/ यश नहीं चाहा कभी जो/ दान में अंगुष्ठ ले ले/ शिष्य का शर प्रिय/जो सिर मेरे टिका।" 

निष्कर्ष रूप में कहना चाहता हूँ कि जीवन के शेषांश में समग्र जीवन को जीने वाले वीरेन्द्र आस्तिक जी की पुस्तक ‘गीत अपने ही सुने’ के गीत इस अर्थ में संप्रेषणीय ही नहीं, रमणीय भी हैं कि प्रेम-सौंदर्य के बिना जीवन के सभी उद्देश्य निरर्थक-सेे हो जाते हैं। विश्वास है कि सहृदयों के बीच यह पुस्तक अपना स्थान सुनिश्चित कर सकेगी।
१५.९.२०१७ 
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गीत नवगीत संग्रह- गीत अपने ही सुने, रचनाकार- वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशक-के के पब्लिकेशन्स, ४८०६/२४, भरतराम रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-२, ,  प्रथम संस्करण- २०१७, मूल्य :  रु. ३९५पृष्ठ : १२८, समीक्षा- अवनीश सिंह चौहान

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पुस्तक चर्चा:

दिन क्या बुरे थे- वीरेन्द्र आस्तिक

डॉ. संतोष कुमार तिवारी
ख्यातिलब्ध कवि श्री वीरेन्द्र आस्तिक के नवीन गीत संग्रह से गुजरते हुए मेरी स्मृति में मेरे गुरू आ गए। मेरे गुरू डॉ. प्रेम शंकर कहा करते थे कि ऐसा कभी संभव नहीं होता कि रात को आप डाका डालें और सुबह बैठकर ‘कामायनी’ लिखने लगें। पहले हमें अपने भीतर की यात्रा करनी पड़ती है यानी अपने भीतर का रचाव। यह रचाव ऊर्जा-ऊष्मा सम्पन्न होकर प्रज्ञा शिखर की सीढ़ियाँ दिखलाता है और मनुष्य अपनी सामाजिक आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित हो उठता है। 

वीरेन्द्र आस्तिक का कवि आत्मस्थ और ऊर्जावान होकर चैतन्य होने की बात कहता है। जाहिर है कि उसकी साहित्यिक मान्यताएँ और धारणाएँ उच्चकोटि की सर्जना के सही मानदंड हैं। एक सार्थक रचना अपने समय से साक्षात्कार करती हुई उससे टकराने और मुठभेड़ करने का माद्दा भी रखती है। वह जमीनी हक़ीकत का सामना करते हुए परिवेशगत सच्चाइयों का समूचा परिदृश्य पेश करती है और बेहतर जीवन जीने की तलाश का उपक्रम बन जाती है। साहित्य की कोई भी विधा सामाजिक दायित्व से किनाराकशी नहीं कर सकती और न बदलते युग के तेवरों को अनदेखा कर सकती है। वह बदलते समय की नई प्रचलित शब्दावली को भी अनसुना नहीं कर सकती। हमें इस सत्य को स्वीकारना होगा कि कला जीवन के लिए है। जीवन की विकासशील धारा में मनुष्य के आत्यांतिक कल्याण को ओझल नहीं किया जा सकता। 

हमें इस बात की सहज प्रसन्नता है कि वीरेन्द्र आस्तिक अपनी बहुआयामी गीत-यात्रा में मानव हित, नैतिक मूल्य, अन्वेषण तथा ज्ञात से अज्ञात को जानने की कोशिश को सर्वोपरि मानते हैं। रचनाकार का निर्विकार मन स्वतः ही संवेदनाओं की गहराई के साथ मानवता से जुड़ जाता है। वीरेन्द्र की खोज का विषय यह है कि -

वो क्या है जो जीवन-तम में
सूरज को भरता है
पतझर की शुष्क, थकी-हारी
डाली में खिलता है।

गीतों में हमेशा एक ही विचार, भाव या घटनाक्रम की अन्विति का शुरू से अंत तक निर्वाह किया जाता है। रचनाकार अपनी अनुभूतिजन्य वैचारिकता या विचारजन्य अनुभूति से यहाँ-वहाँ भटक नहीं सकता अन्यथा गीत अपनी समग्रता में प्रभावहीन हो जाता है। गीत की जो उठान शुरू में होती है वही उठान समापन तक बनी रहनी चाहिए। गेयता तथा संक्षिप्तता की दृष्टि से भी आस्तिक के गीत निर्दोष हैं। मशीनीकरण के युग में भी वे अपनी प्रकृति-जन्य संवेदना और विचार जन्य संवेदना को छोड़कर व्यवसायी-संवेदना के शिकार नहीं हुए।
वीरेन्द्र के पास, पैनी अभिव्यक्ति है। शब्द और अर्थ सहचर हैं। अबूझ को सहज बनाते हैं। पैनी अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है कि सार्थक शब्दों का मितव्ययता से प्रयोग हो- 

‘आओ! बोलो वहाँ, जहाँ शब्दों को प्राण मिले
पोथी को नव अर्थो में पढ़ने की आँख मिले
बोलो आमजनों की भाषा
खास न कोई बाकी।' 

हम इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक में जा रहे हैं फिर हमारी भाषा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध की क्यों हो? बासी-तिबासी अभियक्ति से बचने के लिए जरूरी है कि हम आज की प्रचलित नयी शब्दावली को काव्यात्मकता प्रदान करें या पुराने शब्दों में नयी अर्थवत्ता को भरने की कोशिश करें। वीरेन्द्र आस्तिक ने नये समय की कम्प्यूटराइज्ड शब्दावली को अपनाकर गीतों को नयी कल्पना और ताजगी प्रदान की है जो काबिलेतारीफ है। विण्डो, मेमोरी, चैटिंग, कूल, मार्केटिंग, ग्लोबल, वायरस, एण्ट्री, संसेक्स और केमिस्ट्री आदि शब्दों को काव्य-माला के धागे में पिरोकर कवि ने युगानुरूप नयापन लाने का प्रयास किया है।
कई गीतों में रचनाकार ने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ऐसा ‘कान्ट्रास्ट’ पैदा किया है कि हम अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक-सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का तुलनात्मक विश्लेषण करने पर बाध्य हो जाते हैं। 

‘जंगे-आजादी के ‘दिन क्या बुरे थे’ या ‘अब न पहले सी रहीं ये लड़कियाँ’ जैसी पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं।

वीरेन्द्र की प्रकृति जन्य संवेदना उन्हें टेसू, मंजरी, कोयल, निबुआ, अंबुआ, जमुनिया, बनस्थली की ओर ले जाती है और वे प्रकृति-सुदंरी के रोमानी रूप में खो जाते हैं। गीतकार को इस बात की बड़ी शिकायत है कि हमारी संवेदनाएँ पथरा गई हैं।

 'तोते को पिंजड़े का डर है', प्यासी चोचों और जलते हुए नीड़ों ने जीवन से मोह भंग कर दिया है। सेक्स, क्राइम तथा मीडिया बाजार में हमें किसानों तक की चिंता नहीं रही- 

‘लग न जाए रोग
बच्चों को
कुछ बचा रखिए
जमीनी चेतना
अब कहाँ वो आचरण
रामायणी
पाठ से बाहर हुई
कामायनी।'  

रचनाकार को इस बात की पीड़ा है कि -

मुखड़ा मोहक आजादी का
पाँव धँसे लेकिन कीचर में।

मेरी स्पष्ट धारणा है कि जब तक माँ-पिता के वात्सल्य पूर्ण त्याग और संरक्षण को हार्दिक श्रद्धा के साथ नहीं देखा जाता तब तक स्वस्थ समाजिकता संभव नहीं। परिवार जन्य संस्कार ही योग्य नागरिकता का और जीवन का शुद्ध पाठ पढ़ा सकते हैं। ‘माँ’ पर कविता की कुछ मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ देखिये- 

‘माँ’। 
'तुम्हारी जिंदगी का गीत गा पाया नहीं
आज भी इस फ्लैट में
तू ढूँढती छप्पर
झूठे बासन माँजने को
जिद्द करती है
आज भी बासी बची रोटी न मिलने पर
बहू से दिन भर नहीं तू बात करती है
मैं न सेवा कर सका 
अर्थात् असली धन कमा पाया नहीं।' 

इसी तरह पिता का स्वतंत्रता संग्राम याद करते हुए गीतकार की चिंता का विषय, बालू पर लोट रहे, कंचे खेल रहे घरौंदे बनाते हुए बच्चों पर केन्द्रित होता है क्योंकि देश का भावी नक्शा इन्हीं के जिम्मे है। चाहे हरित वन का मनुष्यों की स्वार्थपूर्ण आरी से काटने की बात हो, या नदियों के जल-बँटवारे की, चाहे कश्मीर-गोधरा हादसे का दर्द हो या औरत पर पुरुष दासता की नीयत- सब पर वीरेन्द्र की कलम चली है। अखिल सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध इसी का नाम है या फिर साँसों की डिबिया में ब्रह्मांड का समा जाना’ भी कहा जा सकता है। ‘स्व’ से ‘पर’ के विस्तारण की कोई हद नहीं होती। फिर भी निराशा-अवसाद-अनास्था का स्वर नकारात्मकता की ओर नहीं जाता- 

‘इस महानाश में
नव-संवेदन
मुझको रचना होगा। 
हारा-सा सूना खंडहर हूँ 
बिरवा-सा उगना होगा।' 

यह आशापूर्ण संघर्ष का स्वर है।
जाहिर है वीरेन्द्र आस्तिक ने नए शब्द-विन्यास और अभिनव शैली-शिल्प से गीतों को सँवारा है, नई धुनें दी हैं और इस मिथक को तोड़ने में सबसे ज्यादा हाथ बँटाया है कि गीतों के लिए तो बस दो दर्जन शब्दावली पर्याप्त है- हथेली, मेंहदी, महावर, चाँदनी, सागर, लहर ...मुखड़ा, चमेली आदि। वे आधुनातन शब्द विन्यास के पक्षधर हैं और इस मामले में अपने ही तटबंधों का अतिक्रमण करते हैं। विषय-वैविध्य इतना है कि इस प्रतिस्पर्धा में गीत-नवगीत नयी कविता का ग्राफ लगभग एक सा है। मेरी विनम्र राय में वीरेन्द्र आस्तिक नयी कविता को गीत-नवगीत के जवाब हैं।
२५.५.२०१५ 
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नवगीत संग्रह- दिन क्या बुरे थे, रचनाकार- वीरेन्द्र आस्तिक, प्रकाशक- कल्पना प्रकाशन, बी-१७७०,  जहाँगीरपुरी, दिल्ली - ३३, प्रथम संस्करण-२०१२, मूल्य- रूपये , पृष्ठ- ,  परिचय- डॉ. संतोष कुमार तिवारी,  ISBN- 9788188790678

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पुस्तक चर्चा:

अक्षर की आँखों से - वेद प्रकाश शर्मा वेद

जगदीश पंकज 
वर्तमान समय में जब गीत-नवगीत पर साहित्य की तथाकथित मुख्य-धारा के ध्वजवाहकों द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रहार हो रहे हैं वहीँ नवगीतकारों की एक पूरी श्रृंखला अपने लेखन में न केवल छान्दसिक काव्य की सर्जना कर रही है बल्कि आज के बहुआयामी युगबोध को गीतों के माध्यम से शब्दांकित भी कर रही है। नवगीत आज एक ऐसी सर्व-स्वीकृत विधा का रूप ले चुका है जो मानवीय संवेदना के भावुक यथार्थ को पूरी कलात्मकता से व्यक्त करता हुआ छंद के नए-नए प्रयोग करते हुए छंदमुक्त कविता के पुरोधाओं को चुनौती दे रहा है। 

सृजन की गुणवत्ता के कारण न केवल नई कविता के बल्कि पारम्परिक गीत के कवि-सम्मेलनी रचनाकारों को भी नवगीत की शैलीगत नव्यता और समसामयिक जटिल कथ्य की नवीनता असह्य हो रही है क्योंकि पारंपरिक गीत अपने वायवीय तथा अमूर्त चरित्र से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा और युग-यथार्थ को आत्मसात करके स्वर नहीं दे पा रहा है। नवगीतकारों की गरिमामय विरासत के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी के नवगीतकार आज भी जहाँ निरंतर सृजनरत हैं वहीँ स्थापित नवगीतकारों के साथ ही अनेक नवांकुर रचनाकार भी छंदमुक्त कविता के स्थान पर नवगीत की ओर उन्मुख होकर सृजन के नए आयाम खोल रहे हैं। ऐसे में आज का नवगीत, गीत मर गया है या नवगीत को सिर्फ गीत ही कहना चाहिए के जुमले फेंकने वाले स्वयंभू आलोचकों को अपने प्रतिमान बदलने को बाध्य कर रहा है। इसी क्रम में ,'आओ नीड़ बुनें' और 'नाप रहा हूँ तापमान को' जैसे नवगीत संकलनों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके सशक्त नवगीतकार श्री वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' अपने नव्यतम संग्रह 'अक्षर की आँखों से' के द्वारा पुनः प्रस्तुत हुए हैं।

'अक्षर की आँखों से' नवगीत संग्रह में वेद जी अपने छियत्तर गीतों को लेकर उपस्थित हैं। यद्यपि प्रत्येक गीत अपने आप में शिल्प और कथ्य की दृष्टि से स्वतन्त्र होता है फिर भी एक वैचारिकता अपनी समग्रता में हर रचना में परिलक्षित होती है। वेद जी भी एक समृद्ध और पुष्ट वैचारिकी के साथ प्रत्येक नवगीत में उपस्थित हैं। संग्रह के गीतों में मानवीय संवेदनाओं, वैश्विक बाज़ारवाद, फैलता हुआ उपभोक्तावाद, सम्बन्धों की शिथिलता, आर्थिक उदारवाद के जीवन पर दुष्प्रभाव, वर्तमान समाजार्थिक व्यवस्था से मोहभंग, वैफल्यग्रस्तता और अवसाद, गलाकाट प्रतिस्पर्धा और दैनंदिन की भागमभाग के जीवन का समसामयिक यथार्थ ऐसे बिंदु हैं जो रचनाओं में अनायास आकर वर्तमान सामान्य नागरिक की चेतना को मथ रहे हैं। राजनीति जीवन के हर पक्ष को प्रभावित कर रही है जिसे वेद जी ने पारम्परिक सोच के मिथकीय प्रतीकों को वर्तमान संदर्भों के साथ इस प्रकार संगुम्फित किया है कि वह अपनी स्वाभाविक सम्प्रेषणीयता बनाये हुए है। भारतीय प्राचीन वाङ्ग्मय से पात्रों और चरित्रों को इस प्रकार गीतों में प्रयुक्त किया गया है कि वे केवल नाम नहीं बल्कि लाक्षणिक प्रतीक बनकर किसी प्रवृत्ति के जीवंत रूप हों। वेद जी के गीतों की विशेषता उनका शैलीगत शिल्प-विन्यास है जिनमें नए-नए छान्दसिक प्रयोग किये गए हैं। मुक्तक छन्द ही नहीं बल्कि मुक्त-छन्द का गीतों में प्रयोग वह विशेष गुण है जो वेद जी को अपने समकालीन रचनाकारों से अलग दिखाता हुआ विशिष्ट पहचान बनाता है।

वेद जी का आग्रह अपनी मिट्टी की शाश्वतता से जुड़े रहना है जिसे संग्रह के प्रथम गीत में ही सफलता से व्यक्त किया गया है-

'एक मिट्टी की महक
जो जन्म से हमको मिली है
हवा कहती है कि उसको छोड़ दें हम!

एक पगडण्डी हमें जो
जोड़ती शाश्वत जड़ों से
सड़क कहती, सिर्फ उससे जोड़ दें हम!' ...... (हवा कहती है)

'मन्त्र अनगाये हैं' गीत एक श्रेष्ठ रचना है जिसमें करनी और कथनी की भिन्नता के सनातन सत्य को उजागर किया गया है-

'नज़रों में तो पड़ जाते हम
लेकिन देते नहीं दिखाई
यही सनातन सत्य भोगते आये हैं!

कहलाये तो पैर मगर स्वीकार हुए कब
हाड़-माँस कब हो पाये
हम रहे काठ-भर
नीचे-नीचे बिछते आये
रहकर सिर्फ टाट-भर
हम सुविधा के भोग, धुँधलके, साये हैं!' ...... (मन्त्र अनगाये हैं)

'सच करो स्वीकार' गीत में स्वयं के ही चयन से प्राप्त हुई असहज स्थिति को स्वीकार करके आगे बढ़ने में कोई शर्म नहीं होती। मोह- भंग की स्थिति को शब्दांकित करते हुए कहा है-

'हम तुम्हारे इंगितों पर आँख मूँदे चल रहे थे
पर कहीं गन्तव्य तुमको आँख खोले छल रहे थे
वह अयन भी आपका था
यह अयन भी आपका है
तब रहा साकार
अब है छाँव का विस्तार!'

समाजार्थिक सम्बन्धों का प्रभाव वर्षों से संचित पुराने मानवीय सम्बन्धों को भी बदल रहा है जो शहर में ही नहीं बल्कि चिर-परिचित गाँव को भी बदल रहा है। 'यह तो मेरा गाँव नहीं' तथा 'डर लगता है' गीत इसी सत्य को व्यक्त करते हैं। किसी भी सृजन या निर्माण के लिए उसका स्वरूप निर्धारण करना जरूरी है। यह तथ्य लेखन सहित सभी पर लागू होता है कि कुर्ता सीना है तो उसका कोई डिजाइन भी है यदि इसमें कोई छूट लेते हैं तो वह कुर्ता तो नहीं बनेगा और चाहे कुछ बन जाये। 'चमत्कार-से क्यों ढहते हो' गीत इसी तथ्य को व्यक्त करता है। सिकुड़ते हुए विश्व में जब दुनिया विश्वग्राम में बदल रही है तब चाहे अनचाहे उसे स्वीकार तो करना ही पडेगा। 'विश्वग्राम के आँगन में' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'नित्य सिकुड़ती जाती, सटती
जाती दुनिया में
चित्र तैरता रहता
सबकी आँखों में
सबके माघ-पौष का
सबके चैतों का!

विश्वग्राम के आँगन में
हम खड़े हुए
भूल रहे हैं
यह अपनी चौपाल नहीं
यहाँ हवा
आज़ाद घूमती रहती है
खुलकर बहती है
खुलकर सब कहती है
इस पर कहीं नहीं कुछ जोर
लठैतों का! (विश्वग्राम के आँगन में)

वेद जी ने अपनी जीवन-संगिनी को माध्यम बनाकर लिखे कई गीत संग्रह में दिए हैं जिनमे प्रणय और पीड़ा दोनों को सफलता से व्यक्त किया है। संग्रह के गीत 'एक तुम्हारे बिन' तथा 'तुम आईं तो' इसी मनस्थिति व्यक्त करते हैं। 'एक तुम्हारे बिन' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'सब कुछ वैसा-वैसा-सा है
लेकिन कैसा-कैसा-सा है
एक तुम्हारे बिन
गूँगा-बहरा दिन!'

पिता पर केंद्रित 'पिता हमारे' शीर्षक से गीत में भावुक संवेदना को स्वर दिया गया है।
'पिता हमारे सघन छाँव थे
कोई दशरथ राम नहीं थे
ऋजु रेखा ही जीवन परिचय!
***
जब-तब पट्टी पेट बाँध कर
लिखते बच्चों के कल की जय!'

अपने समकाल के यथार्थ को व्यक्त करने की वेद जी की अपनी ही शैली है जो चीजों को आर-पार देखने में विश्वास रखती है जिसे कोई आकर्षण नहीं बाँध पाता और नयी राहों की खोज करता है। वास्तविकता से अभिनय और अभिनय से व्यापार की यात्रा करता कलाकार जब बाज़ारी शक्तियों का दास बनकर व्यावसायिकता में डूब गया तब गीतकार बिना किसी का नाम लिए सत्य को शब्द देकर अपनी प्रतिक्रिया देता है। 'सपनों को झुठलाता है' गीत इन्हीं सन्दर्भों को व्यक्त करती श्रेष्ठ रचना है। एक गीतांश देखिये ;
'वह अभिनय का कलाकार है
हर किरदार निभाता है'!

'अभिनय तक तो सभी ठीक था
पर, जब यह व्यापार हुआ
तेल बेचने चली कला तो
सब कुछ बंटाधार हुआ
अब काँटा है, भोली-भाली
मछली खूब फँसाता है!'

हर रचनाकार अपनी तरह से अपने समय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है जो उसके लेखन का प्राण और केन्द्रीयता होती है। कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी समाज के माध्यम से अनुभवजन्य सच को शब्द देता है। संग्रह के गीतों में यही आत्म-तत्व तरह-तरह से मुखरित हुआ है। 'मैं हुआ आश्वस्त' इसी प्रकार की रचना है। गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'घूँट कर प्याला किसी
सुकरात ने फिर से पिया है
मैं हुआ आश्वस्त
ज़िंदा हूँ, कहीं ज़िंदा!
***
आदमी में जानवर
रहना हकीकत है
फर्क है नाखून-पंजों का
जुबानों का
शब्द जो हो, अर्थ पर
अधिकार रहता है
शाह का, उसके मुसाहिब
हुकमरानों का
अर्थ पर अधिकार से खिलवाड़
यदि अंतिम नहीं तो
कौन कह सकता, न हो
सुकरात आइंदा!'

इसी क्रम में जब राम का नाम लेकर अनेक भ्रांत धारणाओं के द्वारा समाज में उग्रता फैलाई जा रही है तब गीतकार राम से भी मिथक से बाहर आकर आज के समय के अनुसार युद्ध के प्रतीक धनुष-बाण लिये बिना आने के लिए कहता है।

'आओ राम
मिथक से बाहर होकर आओ!

सब कुछ बदला
दुनिया अब
त्रेता से आगे
प्रश्न कि दागे
अगला-पिछला
आ भी जाओ
प्रश्नों का उत्तर हो जाओ!
अबकी आना
धनुष-बाण
मत लेकर आना
सरगम लाना
गीत सिखाना
सबको खुद में
खुद में सबको राम रमाओ!'

मिथकीय पात्रों और प्रसंगों का प्रयोग अनेक गीतों में किया गया है जिनमें मुख्य रूप से 'दुविधा में हम', 'द्रोपदी हूँ', 'क्षीण हो रही टेर', 'अच्छा हुआ', 'यों ही नहीं' आदि मुख्य हैं। पुरुरवा, मनु, विदुर, शकुनि, कामदेव, विष्णुगुप्त चाणक्य, तथागत, कुरुक्षेत्र आदि अनेक नाम हैं जो केवल नाम ही नहीं बल्कि किसी प्रवृत्ति के प्रतीक बनकर गीतों में आये हैं तथा जिनसे युगानुरूप प्रासंगिकता के साथ रचनाओं को पुष्ट किया गया है।

समकालीन यथार्थ को व्यक्त करते हुए कोई भी रचनाकार अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या धार्मिक घटनाओं और प्रसंगों से विमुख नहीं रह सकता। वेद जी ने भी अपनी शैली में युगबोध को व्यक्त किया है जिनमें आज का व्यक्ति अंधी भागमभाग में इतना व्यस्त है कि स्वयं के लिए स्वयं से ही प्रतियोगिता कर रहा है। इन गीतों में 'सच करो स्वीकार', 'अर्घ्य के दौने में', 'इस बयार ने', 'सपनों को झुठलाता है', 'क्या हुआ है परिंदों को', 'अपाहिज काफिये ', 'हमको सबको बदला है', 'ढाक के तीन पात' ,'फसल पकी है ','प्रश्न बड़े हैं','यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी' ,'जीने की अब यही शर्त है' आदि मुख्य हैं जो युग सत्य को सफलता से व्यक्त कर रहे हैं। उनके एक गीत से पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'ओ रे किसना!
सुना चुनाव बहुत नेड़े
क्या सोचा है!

क्या सोचें, सब कुछ तो
उलट-पुलट भाई
वही धाक के तीन पात
फिर आये हैं
आँखों को कुछ
नये खिलौने लाये हैं
कंधे बदले
लेकिन वही अंगोछा है! ...(ढाक के तीन पात)

और एक दूसरे गीत में परिस्थिति में जकड़े आम आदमी की कसमसाहट को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

'कुछ है जो बाहर जब आये
अंतर बार-बार समझाये
यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी!

कब जाने कुछ फिसल न जाए
अब संवादों से डरता हूँ
भ्रूणों की ह्त्या करता हूँ
हर ह्त्या में खुद मरता हूँ
रक्तबीज संसृतियाँ हँसतीं
चिढ़ा-चिढ़ा मैं भी तो हूँ जी'! ...(यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी)

कभी-कभी प्रकृति भी मानव-सभ्यता को अपनी तरह से चेताती है जो समय-समय पर त्रासदी के रूप में प्रकट होता है। ऐसे में कवि का भावुक ह्रदय संवेदना को शब्द देने के लिए व्याकुल हो जाता है। वेद जी ने भी उत्तराखंड, नेपाल और श्रीनगर की त्रासदी को अपने गीतों में व्यक्त किया है। 'मौन के अंगार का अणुमात्र', 'जलजले की इबारत' और 'झील क्या बिफरी' शीर्षक के गीतों में इसी संवेदना को शब्दांकित किया है। 'झील क्या बिफरी' गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'झील क्या बिफरी
जिधर देखो
कि चस्पा कर दिया है
मरण का सन्देश
तांडव कर प्रलय ने
सिर्फ प्रलयंकर लिखा है
लहर की हर भंगिमा पर
किया कुछ अक्षम्य
क्या फिर बंधु हमने'... (सन्दर्भ:श्रीनगर त्रासदी)

संग्रह के गीतों से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो वेद जी की वैचारिक परिपक्वता, भाषा की मजबूत पकड़, शैली का सम्पुष्ट अभ्यास और कथ्य का वैविध्य स्वरुप को सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा ने अपनी भूमिका में सही ही कहा है, '' 'अक्षर की आँखों से' देखने परखने का अर्थ है -आँख और अक्षर के बीच सामंजस्य बैठाना यानी कबीर की 'आँखिन देखी' वाली परंपरा से जुड़ना। एक तरह से यह 'आँखिन देखी' और 'कागद की लेखी' के बीच संगति स्थापित करना है।'' ये गीत, नवगीत में प्रायोगिक नव्यता के प्रखर समुच्चय हैं जिनमे वेद जी के निरंतर विकसित होते शिल्प और युगबोध के पुष्ट कथ्य अपने पिछले संग्रहों की भाँति विशाल पाठक जगत में सराहना प्राप्त करेंगे।
१.११.२०१७
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गीत नवगीत संग्रह- अक्षर की आँखों से, रचनाकार- वेद प्रकाश शर्मा वेद, प्रकाशक-अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, ,  प्रथम संस्करण- २०१७ मूल्य :  रु. १५०पृष्ठ : १२८, समीक्षा- जगदीश पंकज

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नाप रहा हूँ तापमान को- वेद प्रकाश शर्मा 'वेद'

संजय शुक्ल 
श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने पहले नवगीत संग्रह ‘आओ नीड़ बुने’ से साहित्य जगत् में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। कथ्य का चयन और उसकी अनूठी प्रस्तुति वेद जी को अपने समकालीन कवियों से थोड़ा अलग किंतु विशेष पहचान प्रदान करती है। इन्ही विशेषताओं के साथ वेद जी अपने दूसरे नवगीत संग्रह ‘नाप रहा हूँ तापमान’ को लेकर प्रस्तुत हैं।

दरअसल, कवि के मन में जब किसी गीत की विषयवस्तु अँकुरित होती है तो उसकी रचना से पहले कवि बिंबों और प्रतीकों की चयन प्रक्रिया को पूरी करता है। बिंबों और प्रतीकों के अनुरूप भाषा स्वयं बनती चली जाती है। अतः कवि की कुशलता उसके द्वारा प्रयुक्त किए गए बिंबों और प्रतीकों से परखी जा सकती है। कभी-कभी इन दोनों के प्रयोग में हुई असावधानी कविता की सम्प्रेषणीयता को प्रभावित करती है तो कभी उसे अखबारी बना देती है। ऐतिहासिक पौराणिक, मिथकीय पात्रों और घटनाओं का कविता में प्रयोग कोई नई बात नहीं है। 

समकालीन और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने इन सभी का सफल प्रयोग अपनी कविताओं में किया है और आने वाली पीढ़ी के कवि इस परंपरा को अपनाएँगे - इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए परन्तु संकट के वर्तमान युग के पाठकों के सीमित ऐतिहासिक, पौराणिक तथा सांस्कृतिक बोध के जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए व्यक्ति अपने गौरवमयी अतीत से अनभिज्ञ ही रह जाता है। अतः जब उसके सामने ऐसी कोई कविता जिसमें उपर्युक्त क्षेत्रों से बिंब, प्रतीक, कोई पात्र अथवा कोई घटना आज के समय की विरूपताओं को व्याख्यायित करती हुई आती है तो वह कथ्य से जुड़ने में कठिनाई का अनुभव करता है भले ही उस कविता में पाठक को अपने त्रासद अथवा सुखद जीवन की ही छवि क्यों न नजर आती हो। दीर्घ और निरन्तर अभ्यास के पश्चात् ही कवि को इस प्रकार के प्रयोगों में सफलता मिल पाती है। वेद जी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। सरयू खोज रहा हूँ’ कविता की निम्न पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं-
तू तो अग्नि परीक्षा देकर
चिर-अर्चित उपमान हो गई
उससे जन्मे प्रश्नों से बिंध
अब तक सरयू खोज रहा हूँ

धुर अंधे विश्वास निभाये 
पर सच्चे एहसास जलाये
कुछ स्फुर्लिग जो बच्चे बचाये
उनका आधा, पौना, पूरा
खट्टा, मीठा भोज रहा हूँ

इस प्रकार की पंक्तियाँ 'कहाँ हो', हर्षवर्द्धन गीत में भी देखी जा सकती हैं- 
हर दिशा से आ रही बस
एक ही धुन
कहाँ हो तुम
हर्षवर्द्धन! 
कहाँ हो तुम? 

माघ-मेला, सांध्य बेला
में पहुँचकर थक गया है
छक गया है 
राह तककर

आँख में था
पाँख में था
साफ-सुथरा रेत पर वो
रेत-सा हो बिम्ब बिखरा

चिन्दियों में खड़ा टटका
झुर्रिया बुन 
हर्षवर्द्धन 
कहाँ हो तुम?

वेद अपने परिवेश पर बहुत ही सूक्ष्म और पैनी दृष्टि रखते हैं। उसका बहुत ही बारीकी से परीक्षण, निरीक्षण करते हैं और फिर उसमें फैली विरूपता पर पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ शाब्दिक चोट करते हैं। ऐसा करते हुए कवि मन आक्रोश से भरा होने के बाद भी अपने प्रहारों से मानवता को खंड-खंड नहीं अपितु उसे सुंदर और सुघड़ बनाने का प्रयास करता है और अपने कविधर्म को निभाता है-
गंगापुत्रों, अपनी अपनी
परिभाषाएँ नई लिखो अब
समय चीखता-बंधु विदुर के 
साँचों में कुछ ढले दिखो अब

शर-शैया का मर्मान्तक विष 
घूँट-घूँट क्यों पियें-पचाएँ
जाने क्या-क्या चला गया है
लिया-दिया जो शेष रह गया 
आ सुगना अब उसे बचाएँ।

वेद जी अपनी भाषा से जैसी गीत संरचनाएँ करते हैं वे उनकी विलक्षण प्रतिभा का ही बोध करातीं हैं। वह अपने देश-काल की नहीं अपितु परंपरा, संस्कृति और दार्शनिक दृष्टियों को भी अपने नवगीतों में सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करते हैं। ‘संस्कृति का सतिया’ कवि की इस दृष्टि से परिचय कराता है-
एक लांछना लेकर सिर पर
कितना काम किया
तुलसी, शायद ठीक जिया

युग ने कैसे देखा होगा
तुझको एक आँख से
चील के पंजे लेकर
गिद्दई हठी पाँख से

तेरे सुगना ने मिट्ठू को 
कब-कब नहीं पिया
तुलसी, तू अद्भुत नदिया!

श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने गीतों में शब्द-चयन, लय-प्रवाह, संगीतात्मकता और भाषासामरस्य के प्रति अत्यंत सचेत रहते हैं। कवि ने विभिन्न छंदों में गीत रचे हैं और उनको अपने काव्य-कौशल से बखूबी साधा है-
आशंकाएँ मूल
कभी निर्मूल
बनी क्यों भूल
समय से पूछ रहे हम

विपदाओं के ठाठ
हमारे घाट
बिछाकर खाट
मजे से हुक्का पीते
सूनी-सूनी बाट
कि उजड़ी हाट
द्वार का टाट
चिलम भर-भरकर जीते

दूर कहीं मस्तूल
हवा प्रतिकूल
गई क्या भूल
समय से पूछ रहे हम। उपर्युक्त छंद-प्रवाह वेद जी के अतिरिक्त कहीं और वर्षों से देखने को नहीं मिला। हाँ! एक पुराने फिल्मी गीत की पंक्तियाँ अवश्य स्मरण हो जाती हैं- मान मेरा अहसान/अरे नादान/ कि मैंने तुझसे किया है प्यार। - इत्यादि।

पूरे संग्रह का आद्योपान्त पारायण करने के पश्चात् यह धारणा बनने में देर नहीं लगती कि वेद जी कुछ अलग सोचने वाले कवि हैं। उनकी अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति चिन्ताएँ हैं। वे आत्ममुग्धता से परे एक सचेत और चौकन्ने रचनाकार हैं। तभी तो वो अपने समय के तापमान को मापने का साहसिक कर्म करते हैं। साहसिक इसलिए के गीत में भीड़ लुभावन मांसल प्रेम, प्रकृति सौंदर्य अथवा लिजलिजी और मसृण भावुकताएँ गाकर तात्कालिक प्रसिद्धि बटोरने के मोह को त्यागकर एक कवि अपने परिवेश की तपिश को मापने निकला है और उसे लयात्मकता और संगीतात्मकता के साथ छंदों में अभिव्यक्ति करता है-
जन-गण-मन वाले पारे से
आस-पास के तापमान को 
नाप रहा हूँ!

उगते संशय बीच अनिश्चय
गहराता है धूम-धूम सा
वलय बनाकर
और निगलता नई लीक की
नई बगावत बहला-फुसला

डरा-डराकर
ढीली तो है कीली, लेकिन
दिल्ली अब भी दूर बहुत है
भाँप रहा हूँ!

वेद जी न तो संपूर्णत या कलावादी हैं, न ही यथार्थवादी अथवा तात्कालिकतावादी और न ही महल मनोरंजनवादी। वे एक समर्पित और समर्थ गीतकार हैं जिनकी कथ्य और शिल्प की नव्यता स्वागत योग्य है। वेगमयी भाषा पाठक को गीतों से जोड़े रखने में सफल है। कहीं-कहीं विचारों के क्रम और भाव-विस्तार के सूत्रों को पकड़ने में कठिनाई अवश्य होती है परन्तु एक बार यह धुँधलका छटते ही कुनकुनी धूप की-सी चमक पाठक को चमत्कृत कर देती है।
९.११.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - नाप रहा हूँ तापमान को, वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', प्रकाशक ज्योति पर्व प्रकाशन, ९९-ज्ञान खंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये २४९/-, पृष्ठ- १२८, समीक्षा - संजय शुक्ल।

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

लौट आया मधुमास- शशि पाधा

योगिता यादव 
प्रत्येक पुस्तक किसी व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का सार होती है। जीवन भर के उसके अनुभवों, उनसे उपजी अनुभूतियों और प्रति उत्तर में उसके अपने समाधानों का निचोड़ होती कही जा सकती है उसकी किताब। आज जो किताब मेरे हाथ में है उसका शीर्षक है 'लौट आया मधुमास। यह जम्मू की बेटी ओर प्रवासी लेखिका शशि पाधा जी का चौथा काव्य संग्रह है।

मधुमास यानी नायक-नायिका का केलि काल। जब वे दोनों ही प्रकृति के संपूर्ण सौंदर्य और रस का असीम पान करते हैं। परंतु यह केवल मधुमास नहीं, लौट आया मधुमास है। शीर्षक में ही एक लंबे सफर के तय हो जाने का संकेत मिलता है -कि यह किसी लोकाचार से अबोध व्यक्ति का केलि काल नहीं है, बल्कि यह जीवन पथ पर सुघढ़ता से आगे बढ़ रहे एक परिपक्व व्यक्ति के सुंदर समय का उसके पास फिर से लौट आना है।

कवयित्री जम्मू की बेटी हैं, सैन्य अधिकारी रहे जनरल केशव पाधा की पत्नी हैं और आत्मनिर्भर अपने परिवार को गरिमा से संभाल रहे बच्चों की माँ भी हैं। कवयित्री जिम्मेदारियों और अनुभवों का एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं। रिश्तों के धरातल पर भरी हुई झोली, सौंदर्य की माप में असीम आंचल और सम्मान की दृष्टि से भी कोई कम नहीं है उनका वितान। फिर यह बेचैनी क्यों? मैं यह मानती हूँ कि कविता या गीत सिर्फ आनंद का ही स्रोत नहीं है, बल्कि यह कवि की बेचैनियों की भी उपज है। निश्चित रूप से कविता स्वांत: सुखाय है, लेकिन यह सिर्फ स्वांत: सुखाय ही नहीं है, इसके और भी कई प्रयोजन है। जब हम इन प्रयोजनों की खोज करते हैं तब सिद्ध होता है कि इस किताब को क्यों पढ़ा जाना चाहिए? हिंदी के असीम संसार में 'लौट आया मधुमास की यह दस्तक क्यों खास है?, इसका संधान करने की मैंने यह छोटी सी कोशिश की है।

प्रस्तुत पुस्तक कवयित्री का चौथा काव्य संग्रह है। इससे पहले वे पहली किरण, मानस मंथन और अनंत की ओर शीर्षक से तीन काव्य संग्रह पाठकों के सुपुर्द कर चुकी हैं। प्रस्तुत संग्रह में सत्तर गीतों ने स्थान बनाया है। इनमें नए सरोकारों से जुड़े, नई भाषा और बिंब प्रयोग से बुने गए नवगीत भी शामिल हैं।
इसे मैं कवयित्री का अपने जीवन का चौथा फेरा कहूँगी। पिछले तीन फेरों में वे अनुगामिनी बनी सौंपे गए अनुभवों को अपने अनुभवों में समाहित करते हुए आगे बढ़ रहीं थीं। जबकि अब चौथे फेरे में आगे बढऩे की जिम्मेदारी उनकी है। अब वे अपनी निज अनुभूतियों से जीवन को देख रही हैं और इन दृश्यों को अपने साठोत्तरी नायक को नवल मधुमास की सौगात के रूप में सौंपती जा रहीं हैं। उनके पास केवल शब्द ही नहीं स्वर और ताल भी हैं। ये सब निधियाँ कवयित्री ने प्रकृति से ही पाईं हैं। यहाँ स्त्री ही प्रकृति है और प्रकृति ही नायिका है। वही धूप की ओढऩी ओढ़ती है, वही तारों की वेणी सजाती है, पीली चोली में सजती है, तो वही माँग पर चंदा टाँकती है।
पहले ही गीत में अपने कौशल, अपनी दृष्टि और अपने सामथ्र्य को पुख्ता करती नायिका नायक से कहती हैं-
'' मैं तुझे पहचान लूँगी

लाख ओढ़ो तुम हवाएँ
ढाँप दो सारी दिशाएँ
बादलों की नाव से
मैं तुम्हारा नाम लूँगी

रश्मियों की ओट में भी
मैं तुझे पहचान लूँगी

एक और अनुच्छेद है -

''हो अमा की रात कोई
नयनदीप दान दूँगी
पारदर्शी मेघ में
मैं तुझे पहचान लूँगी

प्रस्तुत संग्रह में प्रकृति तो अपने भरपूर सौंदर्य के साथ है ही, अपने देस अर्थात जम्मू (भारत) से दूर होने की पीड़ा भी है। वहीं बेटी, पत्नी और माँ के तीन फेरों की तीन जिम्मेदारियों के समय को उन्होंने कैसे निभाया इसके सूत्र भी हैं। रिश्तों के टकराने, और कभी बँध जाने के अलग-अलग अनुभव भी हैं। इन अनुभवों से गुजरते हुए उनमें जो बड़प्पन आया है, उसी का विस्तार है इस गीत में - जिसका शीर्षक है बड़े हो गए हम -

'सूरज ना पूछे
उगने से पहले
ना रुकती हवाएँ
उड़ने से पहले

कड़ी धूप झेली
कड़े हो गए हम
बड़े हो गए हम।

प्रकृति के नाना रूपों के सौंदर्य से सजे इन गीतों में धूप, छाँव, भोर, रात, सूर्य, रश्मियाँ, चाँद, चाँदनी बार-बार स्थान बनाते हैं। खास तौर से धूप के विविध रूप सर्वाधिक आकर्षक बन पड़े हैं। संभवत: धूप-छाँव और दिन-रात की इस आँखमिचौली की वजह कवयित्री का एक ऐसे देश में होना है जहाँ प्रकृति की चाल, दिन रात की चहलकदमी उसकी अपनी मातृभूति की प्राकृतिक चाल से अलहदा है। यहाँ दिन, तो वहाँ रात और वहाँ रात, तो यहाँ दिन। जैसे सूरज-चंदा इस परदेसन से आँख मिचौली खेल रहे हैं, हँसी ठिठौली कर रहे हैं। उस देश में जहाँ वर्ष का अधिक समय ठंडा, बर्फ में छुपा बीतता है, वहाँ वे आँखें मूँदती हैं तो उन्हें अपने देश की षट ऋतुएँ महसूस होती हैं।

खिड़कियों में घुटी रहने वाली भावनाएँ धूप के सतरंगी दहलीजें लाँघ जाना चाहती हैं। चाँदनी को अंजुरि के दोनो में पी लेना चाहती हैं। वे प्रकृति को अपनी बाहों में समेट लेना चाहती हैं पर बीच में बाधा है दूर देश की। वे हर घड़ी, पल, क्षण अपने देश की ऋतुओं को, प्रकृति के मनोहारी चित्रों को याद करती हैं और अपने मन के लिए सौंदर्य की मेखला बुनते हुए मनोहारी गीत रचती हैं। जिनका पाठ तो रसपूर्ण है ही, उनका गान भी चित्त को मोह लेने वाला है। मूलत: वे प्रकृति की कवयित्री हैं पर इसी संग्रह में उनके संकल्प गीत भी दिखते हैं, तो अध्यात्म की ओर बढ़ते हुए संपूर्ण रागात्मकता से विरक्त होने के संकेत भी मिलते हैं।

एकाकी चलती जाऊँगी

'संकल्पों के सेतु होंगे
निष्ठा दिशा दिखाएगी
साहस होगा पथ प्रदर्शक
आशा ज्योत जलाएगी

विश्वासों के पंख लगा मैं
नभ में उड़ती जाऊँगी
राहें नई बनाऊँगी।
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एक अन्य स्वर पहचानिए खोल दे वितान मन शीर्षक गीत में -

''कल की बात कल रही, आज भोर हँस रही
हवाओं के हिंडोल पे, पुष्प गंध बस रही
उड़ रही हैं दूर तक, धूप की तितलियाँ
तू भी भर उड़ान मन ,
खोल दे वितान मन।

कभी-कभी चलते-चलते क्षण भर को हौसला थकता भी है। इन थके हुए क्षणों में भी वे अपने प्रयास नहीं छोड़ती हैं। फिर भी समाधान हो यह जरूरी तो नहीं -

''बँधी रह गईं मन की गाँठें
उलझन कोई सुलझ न पाई
बन्द किवाड़ों की झिरियों से
समाधान की धूप न आई

सन्नाटों के कोलाहल में
शब्द बड़ा लाचार देखा।

ना थीं कोई ईंट दीवारें - शीर्षक से रचित इस गीत का शीर्षक संभवत: कुछ अलग रहा हो। इस गीत में सर्वाधिक लिखी गई पंक्ति है - 'मौन का विस्तार देखा। वही इस रचना का मूल स्वर भी है। पर यह थकान उनका स्थायी भाव नहीं है, बल्कि उनकी मूल प्रवृत्ति तो आगे बढ़ते जाने की है। यही तो उन्होंने अपनी माँ और अपनी प्रकृति माँ से भी सीखा है। यही मूल वह अपने साथी और आने वाली पीढिय़ों को भी सौंपती हैं -


जल रहा अलाव -

'दिवस भर की विषमता
ओढ़ कोई सोता नहीं
अश्रुओं का भार कोई
रात भर ढोता नहीं

पलक धीर हो बँधा
स्वप्न भी होंगे वहीं।

अपना देस, उसका सौंदर्य और प्रकृति के बिंब कवयित्री की स्मृतियों में ही नहीं बल्कि महसूस करने वाली इंद्रियों में भी साँस लेता है। तभी तो परदेस में जब हिमपात होता है, तो उसकी नीरवता को तो वे महसूस करती ही हैं, लेकिन श्वेत वर्णी दिशा-दशाओं के माध्यम से अपने कुल देवताओं को मनाने का दृश्य रचती हैं।
हिमपात गीत से -
'जोगिन हो गईं दिशा-दशाएँ
आँख मूँद कुल देव मनाएँ
मौन हुआ संलाप चुपचाप-चुपचाप!

प्रकृति के रंगों से सजी एक और सुंदर रचना है 'हरा धरा का ताप' जेठ महीने की झुलसी पाती जब अंबर ने पाई तो उसने अपनी गठरी में बँधी नेह की बूँदे धरा पर उड़ेल, उसका ताप हर लिया है। धरती को अकसर आकाश या सूर्य को मीत बनाने के कई बिंब कवियों ने रचे हैं पर यहाँ कवयित्री सागर को धरती का और बादल को अम्बर का मीत बताती हैं। इस मित्रता में सहचर्य है। साथ-साथ हर रिश्ते की रीत निभाने का मूक वचन भी है। देखें -
''धरती-सागर, अम्बर-बादल
बरसों के हैं मीत
हर पल अपना सुख-दुख बांटें
रिश्तों की हर रीत

जीवन एक परतीय नहीं होता, इसकी कई परतें और कई आयाम होते हैं। यही वजह है कि एक लेखक कभी एकालाप के अनुभवों का गान करता है, तो कभी सामूहिक सौहार्द के आह्वान के गीत लिखता है। यह तभी संभव है जब आपमें जीवन को कई आयाम से देख सकने की दृष्टि का विकास हो चुका हो। दृष्टि का यही विकास लेखक को लगातार अलग-अलग विषयों पर लिखने को प्रेरित करता है। वह कभी निज अनुभूतियों को स्वर देता है, तो कभी बाह्य अनुभूतियों अर्थात अपने आसपास घटित हो रही घटनाओं पर कलम चलाता है। वे प्रकृति की संतानों के द्वेष को देख कर दुखी है। बेटियों के साथ हो रहे अत्याचार पर शस्त्र उठा लेने का आह्वान भी करती हैं। द्रौपदी की सी पीड़ा झेल रही बेटियों के लिए वे सृष्टि के पालनहार कान्हा से सीधा संवाद करती हैं। साथ ही प्रकृति के साथ असभ्य खिलवाड़ कर रहे मनुष्य को चेताती भी हैं कि अब भी नहीं रुके तो ये पशु, ये देवदार केवल किताबों के चित्र रह जाएँगे।
अपनी पीड़ा को समेटते हुए व्यथित मन में वे कहती हैं
कि मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ -

'जहाँ देखो भवनों के पर्वत खड़े हैं
ये मौसम ना आने की जिद पे अड़े हैं
घुलती रही हर नदी आँख मींचे
बहती रहीं रात भर वेदनाएँ
मन की व्यथा आज किसको सुनाएँ।

पर कवि कोई साधारण मानव भर नहीं है। वह केवल वही नहीं बता रहा कि क्या है, वह समाधान रूप में यह भी बता रहा है कि क्या होना चाहिए। वह सृजनकर्ता है। वह अपनी इच्छित दुनिया रचने का सामथ्र्य रखता है। इसी सुंदर दुनिया को रचते हुए कवयित्री प्रस्तुत स्वर के विपरीत स्वर का गीत रचती हैं - दीवानों की बस्ती -

''उलझन की ना खड़ी दीवारें
ना कोई खाई रिश्तों में
मोल भाव ना मुस्कानों का
ले लो जितना किश्तों में

खुले हाथ बिकती हैं खुशियाँ
भर लो झोली सस्ती में।
---

एक भारतीय नागरिक और सैन्य अधिकारी की पत्नी होते हुए वे चिंतित हैं और चेतावनी के स्वर में कहती हैं-
''सरहदों पे आज फिर
आ खड़ा शैतान है
रात दिन आँख भींचे
सोया हिंदुस्तान है।

वहीं वर्ष २०१६ में भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद गर्वोन्नत सैन्य अधिकारी की पत्नी त्वरित भावों से उपजा गीत 'अचूक प्रहार रचती हैं।

'गर्वित जन-जन मुदित तिरंगा
सही समय, आघात सही।
रह गए कायर छिपते-छिपाते
रस्ता कोई सूझा ना
वीर सेनानी की मंशा का
भेद किसी ने बूझा ना।

यह त्वरित भाव था, जिस भाव में उस समय लगभग पूरा देश गर्वोन्नत हो रहा था। लेकिन यह न अंत था, न समाधान। शुभ की स्थापना की राह में हिंसा समाधान हो भी कैसे सकती है। यह तो गांधी का देश है। यहाँ की मिट्टी में युद्ध के नहीं बुद्ध के संस्कार हैं। गर्वोन्नत होकर सैन्य कामयाबी पर गीत रचने वाली यह कवयित्री जम्मू की बेटी भी तो है। जो जानती है कि गोली कहीं से भी चले, सूनी तो किसी माँ की गोद ही होती है। तोपों के मुँह इस ओर हों या उस ओर लहूलुहान तो सीमा ही होती है। सीमांत गाँवों के रुदन और पीड़ा को महसूस करते हुए वे कुछ अंतराल पर एक और गीत रचती हैं, 'सीमाओं का रुदन
ये एक माँ का रुदन है, जिसने राजनीतिक बिसात पर प्यादे की तरह इस्तेमाल हो रहे अपने लाल खोए हैं और लगातार खो रही है। वह कहती है,
''जहाँ कभी थी फूल क्यारी
रक्त नदी की धार चली
बिखरी कण-कण राख बारूदी
माँग सिंदूरी गई छली

शून्य भेदती बूढ़ी आँखें
आँचल छोर भिगोती हैं
सीमाएँ तब रोती हैं।
----

यह मधुमास एक-दूसरे को जानने की दैहिक अनुभूतियों का समय नहीं है, बल्कि संपूर्ण सृष्टि, मौजूदा परिवर्तनों, अपने समय और उसकी चुनौतियों को अपनी परिपक्व दृष्टि में तौलने का समय है। जहाँ निजी जिम्मेदारियों से ऊपर उठकर कवयित्री समष्टि के अपने दायित्वों की पहचान करती और करवाती हैं। अनुभवों के बीज मंत्र सौंपते हुए वे संकल्प राह पर प्रतिबद्ध रहने का पाठ पढ़ाती हैं। कहन की शैली तो ध्यान खींचती ही है, कुछ शब्दों के अभिनव बिंब भी याद रह जाते हैं जैसे हाथ से हाथ की, मेखलाएँ गढें अथवा हठी नटी सी मृगतृष्णा, कितना नचा रही।

पुरवाई, अखुँयाई, धूप, साँझ, सूर्य, रश्मियाँ, गठरी, गाँठें ये ऐसे शब्द हैं जो गीतों में अलग-अलग बिंब विधान के लिए प्रयोग किए गए हैं और जिन्होंने गीतों को अलंकृत भी किया है। कवयित्री प्रयोग से भी नहीं चूकतीं, उनका अपना व्याकरण है। वे गीत के सौंदर्य में अभिवृदिध करने हेतु शब्दों को मनचाहे अंदाज में बरतती हैं। यथा - पतझड़ का पतझार , रेखा का रेख, आभा के लिए आभ, इंद्रधनुष के लिए इंद्रधनु। फूलों से लदी लताओं, घुँघरुओं से सजी झाँझरों और हवाओं संग उड़ते रंगों के इन गीतों में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग भी मिलते हैं, जो तमाम रागात्मकता से विकृत होकर कहीं किसी की प्रतीक्षा, किसी वैराग और अध्यात्म की ओर संकेत करते हैं। जैसे मन मोरा आज कबीरा, बंजारन, योगिनी, जोगिन आदि। संभवत: यह उनके अगले काव्य संग्रह के बीज हैं। जिनके लिए उनकी कलम अपने अनुभवों से ही स्याही सोखेगी। इसी शुभाकांक्षा के साथ इस पत्र को विराम देती हूँ। वैश्विक सुख की कामना में सब और सौंदर्य का आह्वान करती कवयित्री के ही शब्दों में -
''कहीं किसी भोले मानुष ने
जोड़े होंगे हाथ
विनती सुन अम्बर ने कर दी
रंगों की बरसात।
१.३.२०१८ 
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गीत नवगीत संग्रह- लौट आया मधुमास, रचनाकार-शशि पाधा, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. २५०, पृष्ठ- १२८, समीक्षा- योगिता यादव

समीक्षा

कृति चर्चा:

बोलना सख्त मना है- पंकज मिश्र 'अटल'

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
साहित्य को सशक्त हथियार और पारंपरिकता को तोड़ने व वैचारिक क्रांति करने का उद्देश्य मात्र माननेवाले रचनाकार पंकज मिश्र की इस नवगीत संग्रह से पूर्व दो पुस्तकें ‘चेहरों के पार’ तथा ‘नए समर के लिये’ प्रकाशित हो चुकी र्हैं।  विवेच्य संकलन की भूमिका में नवगीतकार अपनी वैचारिक प्रतिबद्वता  से अवगत कराकर पाठक को रचनाओं में अंतर्प्रवाहित भावों का पूर्वाभास करा देता है।  

उसके अनुसार ‘‘माध्यम महत्वपूर्ण तो है, पर उतना नहीं जितना कि वह विचार, लक्ष्य या मंतव्य जो समाज को चैतन्यता से पूर्ण कर दे, उसे जागृत कर दे और सकारात्मकता के साथ आगे पढ़ने को बाध्य कर दे। मैंने अपने नवगीतों में अपने आस-पास जो घटित हो रहा है, जो मैं महसूस कर रहा हूँ और जो भोग रहा हूँ, उस भोगे हुए यथार्थ को कथ्य रूप में अभिव्यक्ति प्रदान की है।’’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचनाकार केवल भोगे हुए को अभिव्यक्ति दे सकता है, अनुभूत को नहीं। तब किसी अनपढ, किसी शोषित़ के दर्द की अभिव्यक्ति कोई पढ़ा-लिखा या अशोषित कैसे कर सकता है? तब कोई स्त्री पुरुष की, कोई प्रेमचंद किसी धीसू या जालपा की बात नहीं कह सकेगा क्योंकि उसने वह भोगा नहीं, देखा मात्र है। यह सोच एकांगी ही नहीं गलत भी है। वस्तुतः अभिव्यक्त करने के लिये भोगना जरूरी नहीं, अनुभूति को भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। अतः भोगे हुए यथार्थ कथ्य रूप में अभिव्यक्त करने का दावा अतिशयोक्ति ही हो सकता है।     

कवि के अनुसार उसके आस-पास वर्जनाएँ, मूल्य नहीं मूल्यों की चर्चाएँ, खोखलेपन और दंभ को पूर्णता मान भटकती-बिखरती पीढ़ी, तिक्त-चुभते संवाद और कथन, खीझ और बासीपन, अति तार्किकता, दम तोड़ती भावनाएँ, खुद को खोती-चुकती अवसाद धिरी भीड़ है और इसी से जन्मे हैं उसके नवगीत। यह वक्तव्य कुछ सवाल खड़े करता है. क्या समाज में केवल नकारात्मकता ही है, कुछ भी-कहीं भी सकारात्मक नहीं है? इस विचार से सहमति संभव नहीं क्योंकि समाज में बहुत कुछ अच्छा भी होता है। यह अच्छा नवगीत का विषय क्यों नहीं हो सकता? किसी एक का आकलन सब के लिये बाध्यता कैसे हो सकता है? कभी एक का शुभ अन्य के लिये अशुभ हो सकता है तब रचनाकार किसी फिल्मकार की तरह एक या दोनों पक्षों की अनुभूतियों को विविध पात्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है।      

कवि की अपेक्षा है कि  उसके नवगीत वैचारिक क्रांति के संवाहक बनें।  क्रांति का जन्म बदलाव की कामना से होता है, क्रांति को ताकत त्याग-बलिदान-अनुशासन से मिलती है। क्रांति की मशाल आपसी भरोसे से रौशन होती है किंतु इन सबकी कोई जगह इन नवगीतों में नहीं है। गीत से जन्में नवगीत में शिल्प की दृष्टि से मुखड़ा-अंतरा, अंतरों में सामान्यतः समान पंक्ति संख्या और पदभार, हर अंतरे के बाद मुखड़े के समान पदभार व समान तुक की पंक्तियाँ होती हैं। अटल जी ने इस शिल्पानुशासन से रचनाओं को गति-यति युक्त कर गेय बनाया है। 

हिंदी में स्नातकोत्तर कवि  अभिव्यक्ति सामर्थ्य का धनी है। उसका शब्द-भंडार समृद्ध है। कवि का अवचेतन अपने परिवेश में प्रचलित शब्दों को बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करता है इसलिए भाषा जीवंत है। भाषा को प्राणवान बनाने के लिये कवि गुंफित, तिक्त, जलजात, कबंध, यंत्रवत, वाष्प, वीथिकाएँ जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, दुआरों, सॅंझवाती, आखर आदि देशज शब्द, हाकिम, जि़ंदगी, बदहवास, माफिक, कुबूल, उसूल जैसे उर्दू शब्द तथा फुटपाथ, कल्चर, पेपरवेट, पेटेंट, पिच, क्लासिक, शोपीस आदि अंग्रेजी शब्द यथास्थान स्वाभाविकता के साथ प्रयोग करता है। अहिंदी शब्दों का प्रयोग करतें समय कवि सजगतापूर्वक उन्हें हिंदी शब्दों की तरह प्रयोग करता है। पेपरों  तथा दस्तावेजों जैसे शब्दरूप सहजता से प्रयोग किये गये हैं।    

हिंदी मातृभाषा होने के कांरण कवि की सजगता हटी और त्रुटि हुई। शीष, क्षितज जैसी मुद्रण त्रुटियाँ तथा अनुनासिक तथा अनुस्वार के प्रयोग में त्रुटि खटकती है। संदर्भ का उच्चारण सन्दर्भ है तो हॅंसकर को अहिंदीभाषी हन्सकर पढ़कर हॅंसी का पात्र बन जाएगा। हॅंस और हंस का अंतर मिट जाना दुखद है। इसी तरह बहुवचन शब्दों में कहीं ‘एँ’ का प्रयोग है, कहीं ‘यें’ का देखें ‘सभ्यताएँ’और ‘प्रतिमायें’। कवि ने गणित से संबंधित शब्दों का प्रयोग किया है। ये प्रयोग अभिव्यक्ति को विशिष्ट बनाते हैं किंतु सटीकता भी चाहते हैं। ‘अपनापन /घिर चुका आज / फिर से त्रिज्याओं में’ के संबंध में तथ्य  यह है कि त्रिज्या वृत के केंद्र से परिधि तक सीधी लकीर होती है, त्रिज्याएँ चाप के बिना किसी को घेर नहीं सकतीं। ‘बन चुकी है /परिधि सारी /विवशतायें’, गूँगी /चुप्पी में लिपटी /सारी त्रिज्याएँ हैं’, घुट-घुटकर जीता है नगरीय भूगोल, बढ़ने और घटनें में ही घुटती सीमाएँ है, रेखाएँ /घुलकर क्यों /तिरता प्रतिबिंब बनीं?’, ‘धुँधलाए /फलकों पर/आधा ही बिंब बनीं’, ‘आकांश बनने /में ही उनके/कट गए डैने’, ‘ड्योढि़याँ/हॅंसती हैं/आँगन को’, इतिहास के /सीने पे सिल/बोते रहे’, ‘लड़ रहीं/लहरें शिलाओं से’, लिपटकर/हॅंसती हवाओं से’, ‘एक बौना/सा नया/सूरज उगाते हम’जैसे प्रयोग ध्यान आकर्षित करते हैं किंतु अधिक सजगता भी चाहते हैं। 

अटल जी के ये नवगीत पारंपरिक कथ्य को तोड़ते और बहुत कुछ जोड़ते हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता  पर सहज अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति को वरीयता होने पर रस औ भाव पक्ष गीत को अधिक प्रभावी होंगे। यह संकलन अटल जी से और अधिक की आशा जगाता है। नवगीतप्रेमी इसे पढ़कर आनंदित होगे। सुरुचिपूर्ण आवरण, मुद्रण तथा उपयुक्त मूल्य के प्रति प्रकाशक का सजग होना स्वागतेय है।
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गीत- नवगीत संग्रह - बोलना सख्त मना है, रचनाकार- पंकज मिश्र 'अटल', प्रकाशक- बोधि प्रकाशन एफ ७७ ए सेक्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६। प्रथम संस्करण- २०१६, मूल्य- रूपये १००/-, पृष्ठ- , समीक्षा- संजीव सलिल। ISBN 978-93-85942-09-9

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

मृगजल के गुंतारे - शशिकांत गीते

श्रीकांत जोशी 
“मृगजल के गुंतारे” सुंदर, गठीले, विरल और व्यक्तित्व– दीप्त गीतों का संग्रह है. पहला ही गीत कवि की क्षमता को प्रमाणित करता है, इसके अरूढ़ शब्द- प्रयोग गीत को, ‘गीत शिल्प को’ एवं गीतकार को, अपनी परच देते हैं। “खंतर”, “धरती की गहराई”, “ठाँय लुकुम हर अंतर की”, “बीज तमेसर बोये” जैसे प्रयोग लोक-लय का वरण कर गीत- ग्रहण को ललकीला बना सके हैं। संग्रह का “गूलर के फूल” टूटे सपनों का गीत है, पर कसे छंद और अनुभूति- सिद्ध भाषा से “थूकी भूल” को भूलने नहीं देता। ऐसे कई गीत हैं।

श्री शशिकांत गीते की भाषा जिन्दगी से जन्म लेती है। इसी से किसी दूसरे गीत- कवि से मेल नहीं खाती, पर हमारे दिल को भेद देती है। वर्तमान भारतीय लोकतंत्र जो अविश्वास उत्पन्न करता चल रहा है, वह भी इन गीतों में है, पर ये राजनीति के गीत नहीं हैं। ये समय के सुख- दुःख के गीत हैं। ये “सच” के गीत हैं, ठोस भाषा में। गीतों में समय का संशय और अनिश्चय भी है पर वे वर्तमान होने की प्रतिज्ञा से बंधे नहीं हैं। आज के ये गीत कल मरेंगे नहीं। ये मात्र समय- बोध के नहीं, आत्मबोध के गीत भी हैं और प्रकृति से सम्बल लेते चलते हैं:-

एक टुकड़ा धूप ने ही
अर्थ मुझको दे दिया
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शेष है कितना समय
ओह! मैने क्या किया? [गीत ४ ]

इन गीतों में शब्द और मुहावरे लाये से नहीं लगते , आये से लगते हैं और ठीक अपनी जगह पर विराज रहे हैं :-

आँगन धूं-धूं जलता है पर
चूल्हे की आगी है ठंडी
सुविधा के व्यापारी, आँखों
आगे मारे जाते डंडी

इन गीतों में ॠतु-सत्य और जीवन-सत्य की जुगलबंदी का अपना आकर्षण है। यह शीत चित्र देंखे :-

थाम धूप की मरियल लाठी
कुबड़ा कुबड़ा चलता दिन

पर इस गीत- कवि की वास्तविक जीवन- दृष्टि इन पंक्तियों में है:-

मौसम कब रोक सका
कोयल का कूकना
ॠतुओं की सीख नहीं
अपने से चूकना [गीत ८]

इन गीतों में समय की दग्धता लोक- लय की स्निग्धता में गुँथकर विलक्षण हो उठी है। कम गीतकारों में मिल पाती है यह खूबसूरत जुझारू असंगति :-

आँगन में बोल दो
बोल चिरैया ।
जीवन क्या केवल है
धूप, धूल, किरचें
जलती दोपहरी चल
चाँदनी हम सिरजें
आँधियों को तौल
पर खौल चिरैया
आँगन में बोल दो
बोल चिरैया । [गीत १०]

गीतों में जीवनोपलब्ध उपमाएँ हैं अतः सटीक हैं और अपरंपरागत हैं। ये गीतों को तरोताजा रखती हैं :-

कटे अपने आप से हम
छिपकली की पूँछ- से [गीत ११]

गीतकार समय की निष्ठुरता, जटिलता और विवशता की धधक में दहकने- झुलसने के बावजूद अपने उल्लास को, अपने छवि- ग्रहण को कायम रख सका है। यह साधारण बात नहीं :-

मेरे आँगन धूप खिली है
दुःख- दर्दों की जड़ें हिली हैं। [गीत १२]

एक विशेष बात यह है कि ये गीत लिजलिजी भावुकता से मुक्त हैं। निश्चय ही बहुत सशक्त गीत- संग्रह है “मृगजल के गुंतारे”। इन्हें मेरे शब्दों की जरूरत नहीं थी पर शशिकान्त का आग्रह था, अतः यह कुछ मैनें लिखा है। इन गीतों को बार- बार
पढ़ते रहने वाले मन से। ये गीत जो जीवन की झुलस में झुलसाते चलते हैं, जीवन की उमंग और हमारे हौसलों को तेज चुस्त- दुरुस्त भी रखते हैं।
५.११.२०१२ 
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गीत- नवगीत संग्रह - मृगजल के गुंतारे, रचनाकार- शशिकांत गीते, प्रकाशक- ज्ञान साहित्य घर, जबलपुर, प्रथम संस्करण- १९९४, मूल्य- रूपये ३०/-, पृष्ठ- ५७, समीक्षा लेखक- श्रीकांत जोशी (भूमिका से)।

पुस्तक चर्चा:

शब्द अपाहिज मौनी बाबा - शिवानंद सिंह सहयोगी

मधुकर अष्ठाना 
सहयोगीजी की रचनाओं में सम्वेदनात्मक अनुभूतियों की चरम परिणति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कवि सामान्य व्यक्तियों से अधिक सम्वेदनशील होते हैं तथा सम्वेदना उन्हें काव्यकला के सहयोग से कृतित्व के लिये प्रेरित करती है। संगीत यदि काव्य का शरीर है तो निजी भावातिरेक और आत्मनिवेदन उसकी आत्मा है। निजी भावातिरेक और आत्मनिवेदन सम्वेदना का प्रतिबिम्ब होता है तथा इसमें अतिरेक का सूचक ही सम्वेदना है। 

इस क्रम में यह कहना आवश्यक कि सम्वेदना का प्रभावी अवतरण करुणा में होता है इसीलिये भवभूति ने करुण रस को एक मात्र रस माना है। यही करुणा गीत में जब प्रगतिशील विचारों के साथ समाजोन्मुखी होती है तो उसमें हमारे परिवेश में व्याप्त सम्वेदना और आसपास की वास्तविकताएँ मदिखाई पड़ने लगती हैं। क्ल्पनातिरेक के स्थान पर यथार्थ का दर्शन होने लगता है। 

इतिकृतात्मकता को त्याग कर गीत का रूप लघु हो जाता है और रचनाकार न्यूनतम शब्दों में अधिकतम कथ्य प्रस्तुत करने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है जिसके लिये प्रतीक-बिम्ब, मिथक, मुहावरों एवं कहावतों के माध्यम से कथ्य प्रस्तुत करने लगता है। नवगीत संकेतों में अपनी बात पाठक के सम्मुख रखने में जिस भाषा, शिल्प और मानवीयकरण का उपयोग करता है वह गीत से उसे पृथक कर देता है। नवगीत का रचनाकार इसी संकेतात्मक शिल्प में समाज में व्याप्त विषमता, विसंगति, विघटन, विवशता, विडम्बना, विद्रूपता आदि की करुणा को प्रस्तुत करता है जिससे सामान्य-जन के कठोर जीवन-संघर्ष और उसकी जिजीविषा का बोध होने लगता है और इस कारण गीत का स्थान नवगीत ले लेता है। गीत सामन्तवादी मनोरंजनी प्रवृत्ति और कवि-सम्मेलनी गलेबाजी से ऊपर उठकर साधारण-मानव की भूख-प्यास, गरीबी और उसके समस्त सुख-दुःख से जुड़ जाता है। सहयोगीजी की रचनाओं में अधिकतर यही तथ्य और तत्व रचे-बसे हैं जो समय-सम्वेदना की अभिव्यक्ति में सक्षम हैं। ’मुटुरी मौसी’ के प्रतीक के साथ आंचलिकता का परिचय देते हुए वे ग्रामीण महिला के श्रम, निर्धनता, उसका जीवन-संघर्ष, जिजीविषा और पूरे जग का मंगल मनाती बिम्बात्मक शैली और शिल्प सराहना योग्य है जो निम्नांकित है :- 
 "चढ़ी बाँस पर पतई तोड़े
 बछिया खातिर मुटुरी मौसी

झुककर पकड़ी ऊँची फुनगी
जीती केवल अपनी जिनिगी
डाल मरोड़ी अपने दम से
पतई तोड़ी आते क्रम से
स्नेह लुटाती
मुटुरी मौसी

चना-चबेना फाँका-फाँका
चावल घर में कभी न झाँका
गिरता आँसू चाट रही है
घर की खाई पाट रही है
अंजर-पंजर
मुटुरी मौसी"
मुटुरी मौसी के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सरलता, कठिन परिश्रम और समस्त दुखों के अतिरिक्त सबके लिये मंगलकामना, यही तो है ग्रामीण जीवन। अब भी हमारे देश की अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड आदि में खेत विहीन मजदूर वर्ग रोजी-रोटी के लिये दूर-दराज के क्षेत्रों में चला जाता है और गाँव में शेष रह जाते हैं उनके परिवार के वृद्ध-जन और ऐसी स्थिति में उनका जीवन यापन दुष्कर हो जाता है। ’सहयोगीजी’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में गाँव से सम्बन्धित हैं और ग्राम्य जीवन से सुपरिचित हैं अत: उनकी ऎसी अनुभूतियाँ प्रामाणिक हैं। वास्तव में नवगीत संकेतों की शिल्पता को प्रधानता देता है। ’सहयोगीजी’ ने प्रतीक के द्वारा परोक्ष रूप से ग्रामीण जीवन की विसंगतियों को ही प्रस्तुत किया है जिसमें मुटुरी मौसी लाखों निर्धन ग्रामीण वृद्धजनों की प्रतीक बन गई है। एक विशेष तथ्य यह भी है कि ‘सहयोगीजी’ के कथ्य की व्यंजना को पूरब के लोग ही समझ सकेंगे।

‘सहयोगीजी’ की रचनाएँ अर्थबोधक, शब्द-रस और अभिव्यंजना से अभिसिंचित हैं जिसके पीछे उनकी दीर्घ साधना का परिचय मिलता है। मौलिक रचनाएँ उनके मौलिक चिन्तन और पर्यवेक्षण का परिणाम है जिसके प्रतिफल में नवगीत की दहलीज पर वे दस्तक दे रहे हैं। नवगीत की विशेषता है कि उसमें मानवीयकरण पर बल दिया जाता है और ‘सहयोगीजी’ की अधिकांश रचनाओं में यह विशेषता नवगीत पर उनकी पकड़ का द्योतक है। इस प्रकरण में उनकी एक रचना प्रस्तुत है-
"सुनो बुलावा !
क्या खाओगे !
घर में एक नहीं है दाना

सहनशीलता घर से बाहर
गई हुई है किसी काम से
राजनीति को डर लगता है
किसी ‘अयोध्या’ ‘राम-नाम’ से
चढ़ा चढ़ावा !
धरे पुजारी !
असफल हुआ वहाँ का जाना

आजादी के उड़े परखचे
तड़प रही है सड़क किनारे
लोकतंत्र का फटा पजामा
पैबंदों के पड़ा सहारे
लगा भुलावा !
वोटतंत्र यह !
मनमुटाव का एक घराना"


इस रचना में सहनशीलता, राजनीति, आजादी तथा लोकतंत्र आदि का मानवीकरण दर्शनीय है। चाहे सामाजिक विसंगति हो अथवा राजनीतिक, सभी पर ‘सहयोगीजी’ सटीक व्यंग्य करते हैं। वास्तव में वर्तमान साहित्य का मूल स्वर ही व्यंग्य है। व्यंग्य ही नवगीत को धार और तेवर देता है जिससे उसकी मारक क्षमता श्रोता को सोचने की प्रेरणा देती है। इस सम्बन्ध में ‘सहयोगीजी’ पर्याप्त सजग हैं और व्यंग्य के माध्यम से प्रतिरोध की भूमिका तैयार करते हैं। ’सहयोगीजी’ ने नवगीत की समस्त भाषिक एवं शिल्पात्मक विशेषताओं को आत्मसात कर लिया है। कहा जाता है कि प्रथम सोपान शब्दों की साधना है, द्वितीय सोपान में गीत का स्थान है और अच्छे गीत सिद्ध होने के उपरान्त ही नवगीत का द्वार खुलता है। एक विशेष तथ्य यह भी है कि जो जिस परिमाण में सम्वेदनशील होगा उसी के अनुसार उसके नवगीतों की श्रेणी होगी। निश्चित रूप से ‘सहयोगीजी’ का अंतर्मन सम्वेदना का सागर है जिसमें व्यक्तिगत सम्वेदनाएँ भी समाजोन्मुखी हैं। इस प्रकार उनकी यथार्थ अनुभूतियाँ समष्टिगत आकार ग्रहण कर अपने सामाजिक सरोकार का उत्तरदायित्व निर्वहन करने में पूरी तरह सक्षम हैं। नवगीत बहुआयामी सृजनधर्मा है जिसमें जीवन के प्रत्येक पक्ष को समेटकर प्रस्तुत करने की विलक्षणता वर्तमान है। इसी के क्रम में ‘सहयोगीजी’ का सृजन भी बहुआयामी है। इस सन्दर्भ में पर व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं :-
"नेता हैं कुछ भी कह देंगे
भाषा से क्या लेना-देना
इनको तो बस
वोट चाहिये

ये तो हैं केले के पत्ते
भिड़ के हैं ये लटके छत्ते
चापलूस बस बनकर रहिये
भूख-प्यास की बात न कहिये
जनता से क्या लेना-देना
इनको तो बस
नोट चाहिये"

नेताओं के चरित्र और आचरण से देश की जनता सुपरिचित है। वोट प्राप्त करने के लिये वे कितने वादे करते हैं और कितने सपने दिखाते हैं, किन्तु एक बार जीत जाने के उपरान्त पाँच वर्ष तक दिखाई भी नहीं पड़ते। सत्तर वर्षों में स्वतन्त्रता के उपरान्त गरीब और गरीब हुआ है और पूँजीपति की पूंजी में दिन दूना रात चौगुना वृद्धि हुई है। जीत कर नेता एक ही वर्ष में कोठी, कार और बड़ा बैंक बैलेंस बना लेता है किन्तु निर्धन की झोंपड़ी तो और खस्ता हाल हो जाती है जो भारतीय राजनीति में मूल्यों का क्षरण, अपसंस्कृति और सम्वेदन हीनता का कटु परिचायक है। नवगीत की भाषा संकेतात्मक होती है जो प्रतीक और बिम्ब के माध्यम से न्यूनतम शब्दों में कथ्य प्रस्तुत कर देती है और व्याख्या द्वारा उसका विस्तार होता है। ’सहयोगी जी’ की भाषा भी इसी प्रकार की शिल्पता से समृद्ध है। इस सन्दर्भ में उनकी एक रचना प्रस्तुत है-

"अनुशासन के
तोड़फोड़ का हुआ धमाका है

आँखें सूजी हैं फागुन की किस्से बदल गए
बातचीत की दीवारों के  हिस्से बदल गए
तिड़कझाम से भरा हुआ यह
सघन इलाका है

त्योहारों की साँस-साँस पर भृकुटी के पहरे
मेलजोल की शहनाई के  कान हुए बहरे
पटाक्षेप के गगनांचल में
फटा पटाका है

असमंजस की जोड़-तोड़ की  झाँझ लगी बजने
उठा-पटक की शंकाओं के  साम लगे सजने
बोलचाल के सूट-बूट का
सजा ठहाका है"
देश में अनुशासन का नाम नहीं है, चारों ओर तोड़-फोड़ और धमाके हो रहे हैं, देश द्रोह और आतंक का बोलबाला है, समाज में समरसता, प्रेम, सद्भाव का वातावरण समाप्त हो गया है। त्योहारों की धूमधाम का मौसम जब आता है तो दंगे होने लगते हैं और साम्प्रदायिक मेलजोल का नामोनिशान नहीं है। हर तरफ आराजकता की तूती बोल रही है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता और ऐसे समय में कट्टरपंथी अलगाववादी ठहाके लगा रहे हैं। अविश्वास, अशिक्षा का लाभ सत्ताधारी ‘बाँटों और राज करो’ की नीति से लाभान्वित हो रहे हैं। जहाँ गाँवों में अभी अनपढ़ लोग अँगूठा लगाते हैं वहाँ अनीति और अन्याय जन्म लेती है। विधायिका को गरम जलेबी समझकर माफिया और तिहाड़िये संसद तक पहुँचने में कामयाब हो रहे हैं। राजनीतिक दल उसी को उम्मीदवार बनाते हैं जो अपने धन-बल और छल-बल द्वारा जीतने की सामर्थ्य रखते हों। ईमानदार और सच्चा व्यक्ति चुनाव में खड़ा भी नहीं हो पाता। लोकतंत्र तो एक खेल है जिसमें एक लगाओ तो एक हजार पाओ का तौर चलता है। राजभवन का स्वप्न तो छोटे-गरीब लोग देखते ही रह जाते हैं, जिसका कोई अंत नहीं।

इस बार काव्य का सर्वोच्च सम्मान ‘नोबेल प्राइज’ एक गीतकार को दिया गया है, जो नई कविता के पतन-पराभव की ओर इंगित करता है और ऐसी स्थिति में नवगीत ही उसका स्थान ले सकता है तथा इस ओर अग्रसर भी है। ऐसी स्थिति में नवगीतकार का दायित्व एक वृहत्तर रूप में समाज के सम्मुख उभर रहा है। नवगीत के प्रति समाज का दृष्टिकोण सकारात्मक हो रहा है। अत: नवगीत को भी सामाजिक सरोकारों की विशेष चिंता होनी चाहिये। नयी कविता के न तो अब पाठक हैं और न श्रोता। नवगीत की सम्वेदनापूर्ण यथार्थ के चित्रण में और भी सजग होना पड़ेगा तथा सामाजिक परिवर्तन की दिशा में अपनी ठोस भूमिका भी निर्धारित करनी होगी। नवगीत को सहज, संप्रेषणीय, प्रसाद गुण सम्पन्न होने के लिये अभी भी कई मंजिलें पार करनी हैं, उसकी उपयोगिता और प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए सार्थक सृजन की ओर गतिशील होना उसे दीर्घजीवी बनने का एक मात्र आधार है। ’सहयोगीजी’ ऐसे ही उटपटांग कुछ पंक्तियों को उलटा–सीधा जोड़ने वाले रचनाकारों पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं-
“शब्दों की इस पीच सड़क पर
चलने वाले बहुत हो गए

लय-यति-गति का शब्द-योनि का
बदल गया है तौर-तरीका अनुभव प्यासा अनुबोधों को
निकली चेचक लगता टीका रचनाओं की गरिमाओं को
छलने वाले बहुत हो गए

शाब्दिक गौरव पड़े अपाहिज भाव-प्रबलता तिनके चुनती
कालिदास अब रहा न कोई बिंब-संपदा गीत न बुनती
पुरस्कार की मृगतृष्णा में
पलने वाले बहुत हो गए"
वास्तव में पुरस्कार, विशेष रूप से राजकीय पुरस्कार तो कविसम्मेलनी भाँड़ों और गलेबाजों अथवा जुगाड़ करने वालों को ही मिलता है। श्रेष्ठ और सच्चे साधक न तो चाटुकार होते हैं न जुगाड़ करने वाले होते हैं। पुरस्कार तो ऐसे लोग प्राप्त कर लेते हैं जिन्हें साहित्य की समझ ही नहीं है किन्तु वह सब उनके जीवन काल तक सीमित रहता है जबकि श्रेष्ठ साहित्यकार का सुयश इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहता है जो चिर काल तक प्रेरणास्रोत के रूप में मार्गदर्शन करता है। ’सहयोगीजी’ की रचनाधर्मिता इसी कोटि में आती है।

एक ओर नयी पीढ़ी रोजी-रोटी के लिये नगरों में जीवन-संघर्ष की जटिल परिस्थितियों से जूझ रही है तो दूसरी ओर पुरानी पीढ़ी अपने को नगरीय जीवन-शैली में अपने को समायोजित नहीं कर पा रही है। नयी पीढ़ी ने जिस अराजक समय में जन्म लिया है, उसमें बचपन से ही अपने को स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील है क्योंकि उसके अभाव में जीना ही असंभव है। किन्तु दूसरी ओर पुरानी पीढ़ी अपनी मानसिकता को समयानुकूल नहीं ढाल पा रही है। वैचारिक मतभेद के अतिरिक्त पारिस्थितिक भेद भी हैं जिसमें पुरानी पीढ़ी शान्ति अनुभव नहीं करती और उसका मन नहीं लगता। ’सहयोगीजी’ लिखते हैं कि -
"आज पिताजी शहर छोड़कर
गाँव लगे जाने

बोल रहे हैं शहरों में अब साँस अटकती है
घर में बैठी पड़ी आत्मा राह भटकती है
बरगद की वह छाँह छबीली
मार रही ताने

ऊँचे महलों के छज्जों तक किरणों का आना
खिड़की पर चढ़ पड़ी खाट तक पास न आ पाना
सता रहे हैं सोरठी-बिरहा
कोयल के गाने

पगडंडी पर ईख चाभना खेतों से मिलना
मखमल की उस गद्दी पर सो कलियों का हिलना
जहाँ जिन्दगी जीना होता
जीने का माने"
प्रदूषण रहित गाँवों का खुला

कहावत है कि "जाके पाँव न फटी बिवाई  सो क्या जाने पीर पराई" और इस क्रम में जब मैं ‘सहयोगीजी’ की कृति की अंतर्यात्रा करता हूँ तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रचनाओं में आनुभूतिक सम्वेदना के यथार्थ का दर्शन होता है। मैं तो इनकी रचनाओं के माध्यम से ही उनके अंतर्मन की व्यथा-कथा को पढ़ रहा हूँ जो अगाध है जिसका आकलन जितना सरल है उतना ही कठिन भी। वे फैशन में नवगीत नहीं लिख रहे हैं बल्कि यही उनकी नियति है क्योंकि नवगीत-सृजन से ही उन्हें शांति मिलती है। उनकी मुठभेड़ अंध विश्वासों, रूढ़ियों, पाखण्डों से है जो समाज में व्याप्त हैं, सामाजिक विसंगति, धार्मिक कट्टरता, भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था और अमानुषी सम्वेदनहीनता से है जिसमें सामान्य जन पिस रहा है। रचनाकार तटस्थ द्रष्टा होता है और किसी विशेष का पक्षधर नहीं होता, इसीलिये यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि नवगीत वैचारिकता दासता से मुक्त होकर आनुभूतिक यथार्थ का गीत है जो पारम्परिक गीत से बिलकुल अलग है। राजनीतिक हथकण्डों पर ‘सहयोगीजी’ लिखते हैं-
"उड़न खटोले पर बैठी है
राजनीति की चाय

शुभचिंतक की कुशल-क्षेम की फूट गई है आँख अफवाहों की
पूँजी की बस फुदक रही है पाँख घपलेबाजी जुटा रही है
 राजनीति की राय

फिर चुनाव की बैसाखी पर हर वादा आरूढ़ कुछ थाली के
बैंगन भी हैं कुछ चमचे हैं गूढ़ भटकी मुद्दों की मथुरा में
राजनीति की गाय

गांधी टोपी पहन लँगोटी टहल रही है गाँव
आसमान पर जमे हुए हैं उसके सक्षम पाँव
मत का बटुआ ढूँढ़ रही है
राजनीति की आय"


‘सहयोगीजी’ के अंतर्मन में उनके बचपन का गाँव बसता है। वही सीधा, सरल गाँव जहाँ वास्तव में इनसान बसते थे। साम्प्रदायिकता का कहीं भी स्थान नहीं था लेकिन जब वे वर्तमान गाँव की दशा पत्र के द्वारा ज्ञात करते हैं तो उनके भीतर के गाँव की छवि को आघात लगता है जिसमें
“बरगद का वह पेड़ कट गया
टूटा पीपल कटी नीम की छाँह
बाँसों के उस झुरमुट पर अब
नई प्रगति की नई ईंट की बाँह "

लेकिन दबंग हवलदार का लखराँव अब भी सुरक्षित है। गाँव एक अविकसित नगर सा हो गया है जहाँ समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। इस रचना में कुछ ऐसे आंचलिक बोली के शब्द भी आए हैं जिन्हें समझना हो तो बोली का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि इस शब्द का प्रचलन किसी भी रूप में दूर-दराज के पश्चिमी क्षेत्र में नहीं है जैसे ‘बो’, ’तर’ आदि। कौन समझेगा कि ‘बो’ का अर्थ ‘पत्नी’ और ‘तर’ का अर्थ ‘नीचे’ है। इससे भाषा में जटिलता का आना सम्भव है। बिम्ब भी कुछ और स्पष्ट हों तो अधिक प्रभावोत्पादक बन सकते हैं। लेकिन मुझे विश्वास कि आगामी कृतियों में वे और प्रभावशाली ढंग से कथ्य को प्रस्तुत कर सकेंगे यद्यपि मेरे जैसे कुछ लोगों को इन्हें समझने में कोई कठिनाई नहीं होती है। अब भी हमारे देश में पचास प्रतिशत जनता अशिक्षित है जो आवश्यकता पड़ने पर केवल अँगूठा लगाती है। इसके अतिरिक्त दहेज की कुरीति भी समाज में व्याप्त है। इन परिस्थितियों में जहाँ अनपढ़ को लोग मूर्ख बनाकर उसका सब कुछ छीन लेते हैं वहीं दहेज न दे पाने के कारण लड़कियों का विवाह नहीं हो पाता है। ’सहयोगीजी’ की दृष्टि समाज की समस्त विसंगतियों पर पड़ती है और उनकी लेखनी उसे रेखांकित करने में पीछे नहीं रहती। वे लिखते हैं-
 "अक्षर तक भी चीन्ह न पाती बीस साल की गीता
 ईंगुर खातिर भटक रही है तीस साल की सीता
 गुणा-भाग के बीजगणित में
 उलझी है कंगाली"

‘सहयोगीजी’ अंतर्मन की गहराई से सृजन करते हैं जिसमें जीवन का प्रत्येक पक्ष प्रतिबिम्बित होता है। उनकी रचनाएँ स्वतः जीवन का यथार्थ महाकाव्य बन जाती हैं जिसके सन्दर्भ में निम्नांकित रचना प्रस्तुत है :-
"अविरत पथ का असहज अनुभव
इस जीवन का रथ पैदल है

मृग-मरीचिका भूल-भुलैया  झेल चुका है कुछ गतांक तक
पता नहीं है खेल चले यह ओलम्पिक का किस क्रमांक तक
एक नदी का दग्ध किनारा
एक प्रतीक्षित टुक मखमल है

 काल खंड की जिस रेती पर  दौड़ रही वय   चक्करघिरनी
 उसी रेत पर लिये कमंडल  लेट रही है   नींद-सुमिरनी
 समय सिन्धु के धवल धरातल
 पर लहरों की   कुछ हलचल है

कब सलीब पर यह लटकेगा साँस श्लेष का   मदन मसीहा
रामेश्वर हो या हो काशी या मथुरा हो   प्राण पपीहा
जहाँ खड़ा है जहाँ पड़ा है
वह जमीन भी   कुछ दलदल है "
अंतर्मन में छिपे खारे सागर में डुबकी लगाकर निकली रचना असीमित व्यथाओं की ऐसी भूलभुलैया है जहाँ एक मरुस्थल बसता है जिसमें मृगमरीचिका में भागते रहना जीवन-संग्राम की नियति है। न कहीं विश्राम, न कहीं मंजिल। आजीवन सलीब पर लटके रहने की बेबसी, घोर निराशा और हताशा की दलदली धरती पर मानव कब तक टिका रहे। जीवन के लिये एक उम्मीद, एक आशा का होना अपरिहार्य है, अन्यथा जिजीविषा की जीवन्तता का क्या होगा ?

‘सहयोगीजी’ की रचनाएँ विशेष रूप से ग्राम्य-बिम्बों से सजी हुई हैं जिनकी छान्दसिक प्रौढ़ता विद्वानों और पाठकों को सम्मोहित करती हैं। निर्दोष छंद और अनछुए बिम्ब नवता के साथ गेयता से सम्बद्ध हैं। इस सन्दर्भ में उनकी ये पंक्तियाँ कितनी सार्थक प्रतीत होती हैं -
"बिंब बिंबित आ रहा है अनुनयी उद्गार लेकर 
व्याकरण की पालकी में सृजन का श्रृंगार लेकर
रागिनी की माँग भरता अर्थ का सिन्दूर कोई"
वास्तव में तथ्यगत सत्य है। ’सहयोगीजी’ की प्रत्येक रचना में प्रशंसा और सराहना लिये बहुत कुछ है और प्रत्येक रचना उद्धृत करने योग्य है। जब वे लिखते हैं :-
"घर में बैठी हुई गरीबी
तोड़े रोज चटाई

हँड़िया-पतुकी के सब कंधे हुए शहर के राही
भूख गई है पेट कमाने बाहर खड़ी उगाही
पैर तुड़ाई पगडंडी पर
सोई पड़ी कटाई "
या
"तड़पी भूभल जला पसीना आँख बनीं डल झील
फटही गमछी झाँझर कुरता अचरज में तबदील
पड़े उघारे होंठ सूखकर हुए छुहारे
धूप रही ललकार "
आदि ऐसे नव्य बिम्ब हैं जो अन्यत्र अभी सामने नहीं आए ’सहयोगी जी’ प्रत्येक दृष्टि से मौलिकता से परिपूर्ण हैं। इन रचनाओं में गाँवों की गरीबी, पलायन और रुग्ण व्यवस्था के अनेक स्वानुभूत चित्र हैं जो सम्वेदना के सागर प्रतीत होते हैं।

दैवी आपदा अर्थात सूखा, बाढ़, अग्निकाण्ड आदि दुर्घटनाएँ होती हैं तो शासन अनुदान की घोषणा करता है किन्तु यह अनुदान दुर्घटना ग्रस्त लोगों तक पहुँच ही नहीं पाता अथवा उसके लिये रिश्वत देनी पड़ती है। ’सहयोगी जी’ ने इसे भी अपनी लेखनी की धार पर तेवर के साथ अभिव्यक्त किया है -
"राजभवन में अब तक बैठा
राजकीय अनुदान

लिखते तो थे खुशबू को खत सरसों के हर फूल
बहती नदियों के आँचल में हँसते भी थे कूल
कहाँ चैन से सोने देती
सठिया गई कटान

बोरिया-बिस्तर बाँध चुका है उजड़ा हुआ असाढ़
है पलंग पर आकर लेटी जोगिन बनकर बाढ़
छप्पर लेकर भाग रहा है
आया हुआ नहान

कई दिनों से बादल के घर रात बिताई धूप
पता लगा है बूड़ गया है सरकारी नलकूप
अनिजक छत पर जला रही है
चूल्हा रोज धसान"

गाँव के जीवन के, प्रकृति के, उसकी विषम परिस्थितियों और समस्याओं के बिम्बात्मक अभिनव चित्र ‘सहयोगी जी’ की रचनाओं को अन्यतम बनाते हैं और वे श्रेष्ठ नवगीतकार की संज्ञा के सुपात्र हैं। मुझे विश्वास है कि उनकी प्रस्तुत कृति का हिन्दी जगत में समुचित स्वागत होगा और यह कृति नवगीत के इतिहास में एक मील का पत्थर सिद्ध होगी। 
१.१२.२०१७
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गीत नवगीत संग्रह- शब्द अपाहिज मौनी बाबा, रचनाकार- शिवानंद सहयोगी, प्रकाशक- अयन प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, मूल्य- रु. ३४०, पृष्ठ- १७१, समीक्षा- मधुकर अस्थाना