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शुक्रवार, 18 मई 2018

देवरहा बाबा

देवरहा बाबा : विरागी संत
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत भूमि चिरकाल संतों की लीला और साधना भूमि है। वर्तमान में जिन संतों की सिद्धियों लोकप्रियता और सरलता बहुचर्चित है उनमें देवरहा बाबा अनन्य हैं। अपनी सिद्धियों, उपलब्धियों, उम्र आदि के संबंध में देवरहा बाबा ने कभी कोई चमत्कारिक दावा नहीं किया, उनके इर्द-गिर्द हर तरह के लोगों की भीड़ हमेशा उनमें चमत्कार खोजती रही किन्तु वे स्वयं प्रकृति में परमतत्व को देखते रहे। उनकी सहज, सरल उपस्थिति में वृक्ष, वनस्पति भी अपने को आश्वस्त अनुभव करते रहे।
सतयुग से कलियुग तक:
देवरहा बाबा के जन्म के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है।बाबा कब पैदा हुए थे, इसका कोई प्रामाणिक रिकार्ड नहीं है तथापि लोगों का विश्वास है कि वे ३०० से ५०० वर्षों से अधिक जिए। न्यूयार्क के सुपर सेंचुरियन क्लब द्वारा जुटाये गये आकड़ों के अनुसार पिछले दो हजार सालों में चार सौ से ज्यादा लोग एक सौ बीस से तीन सौ चालीस वर्ष तक जिए हैं। इस सूची में भारत से देवरहा बाबा के अलावा तैलंग स्वामी का नाम भी है। उनके आश्रम में देश-विदेश के ख्यातिनाम सिद्ध, संत, जननेता और सामान्यजन समभाव से आते और स्नेहाशीष पाते थे। बाबा को कभी किसी खाते-पीते देखा न वस्त्र धारण करते या शौचादि क्रिया करते। बाबा सांसारिकता से सर्वथा दूर थे। बाबा के अनन्य भक्त भोपाल निवासी स्व. इंजी. सतीशचंद्र वर्मा के अनुसार बाबा का अवतरण सतयुग में हुआ था बाबा का जीवनलीला काल सतयुग से कलियुग है।
बाबा की ख्याति सदियों पूर्व से सकल विश्व में रहीं है। सन १९११ में भारत की यात्रा पर आने से पहले ब्रिटिश नरेश जार्ज पंचम ने अपने भाई प्रिंस फिलिप से पूछा कि क्या भारत में वास्तव में महान पुरुषों का वास है? भाई ने बताया कि भारत में वाकई महान सिद्ध योगी पुरुष रहते हैं, किसी और से मिलो ना मिलो, देवरिया जिले में दियरा इलाके में देवरहा बाबा से जरूर मिलना। जार्ज पंचम जब भारत आया तो अपने पूरे लाव-लश्‍कर के साथ उनके दर्शन करने देवरिया जिले के दियरा इलाके में मइल गाँव तक उनके आश्रम तक गया। जार्ज पंचम की यह यात्रा तब विश्‍वयुद्ध के मंडरा रहे माहौल के चलते भारत के लोगों को ब्रिटिश सरकार के पक्ष में करने के लिए हुई थी। जार्ज पंचम से हुई बातचीत के बारे में बाबा ने अपने कुछ शिष्‍यों को बताया भी था।
भविष्यदर्शन:
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने माता-पिता के साथ बाबा के दर्शन अपने बचपन में लगभग ३ वर्ष की आयु में किये थे। उन्हें देखते ही बाबा देखते ही बोल पडे- 'यह बच्‍चा तो राजा बनेगा।' बाद में राष्‍ट्रपति बनने के बाद डॉ. राजेन्द्रप्रसाद ने बाबा को एक पत्र लिखकर कृतज्ञता प्रकट की और सन १९५४ के प्रयाग कुंभ में बाकायदा बाबा का सार्वजनिक पूजन भी किया। बाबा के भक्तों में जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, अटलबिहारी बाजपेई, राजीव गाँधी जैसे चर्चित नेताओं के नाम हैं। पुरूषोत्‍तम दास टंडन को तो बाबा ने ही 'राजर्षि' की उपाधि दी थी।
दियरा इलाके में रहने के कारण बाबाका नाम देवरहा बाबा हुआ । नर्मदा के उद्गमस्थल अमरकंटक में आँवले के पेड़ पर बने मचान पर तप करने पर उनका नाम अमलहवा बाबा भी हुआ। उनका पूरा जीवन मचान पर ही बीता। लकड़ीके चार खंभों पर टिकी मचान ही उनका आश्रम था, नीचे से लोग उनके दर्शन करते थे। मइल में वे साल में आठ महीना बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के माठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। खुद कभी कुछ नहीं खाया, लेकिन भक्‍तगण जो कुछ भी लेकर पहुँचे, उसे भक्‍तों पर ही बरसा दिया। उनका बताशा-मखाना हासिल करने के लिए सैंकड़ों लोगों की भीड़ हर जगह, हर दिन जुटती थी।
वृक्ष की रक्षा:
जून १९८७ में वृंदावन में यमुना पार देवरहा बाबा का डेरा लगा था। तभी प्रधानमंत्री राजीव गाँधी से बाबा के दर्शन हेतु आने की सूचना प्राप्त हुई। अधिकारियों में अफरातफरी मच गयी। प्रधानमंत्री के आगमन-भ्रमण क्षेत्र का चिन्हांकन किया गया। उच्चाधिकारियों ने हैलीपैड बनाने के लिए एक बबूल पेड़ की डाल काटने के निर्देश दिये। यह सुनते ही बाबा ने एक उच्च पुलिस अफसर को बुलाकर पूछा कि पेड़ क्यों कटना है? 'प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए वृक्ष काटना आवश्यक है' सुनकर बाबा ने कहा; ' तुम पी.एम. को लाओगे, उनकी प्रशंसा पाओगे, पी.एम. का नाम होगा कि वह साधु-संतों के पास जाता है, लेकिन इसका दंड बेचारे पेड़ को भुगतना पड़ेगा! पेड़ पूछेगा तो मैं उसे क्या जवाब दूँगा? यह पेड़ नहीं काटा जाएगा। अधिकारी ने विवशता बतायी कि आदेश दिल्ली से आये उच्च्चाधिकारी का है, इसलिए वृक्ष काटा ही जाएगा। पूरा पेड़ नहीं एक टहनी ही काटी जानी है, मगर बाबा राजी नहीं हुए। उन्होंने कहा: 'यह पेड़ होगा तुम्हारी निगाह में, मेरा तो यह सबसे पुराना साथी है, दिन-रात मुझसे बतियाता है. यह पेड़ नहीं कट सकता।' इस घटनाक्रम से अधिकारियों की दुविधा बढ़ी तो बाबा ने ही उन्हें तसल्ली दी और कहा: 'घबड़ा मत, मैं तुम्हारे पी.एम. का कार्यक्रम कैंसिल करा देता हूँ। आश्चर्य कि दो घंटे बाद कार्यालय से रेडियोग्राम आ गया कि प्रोग्राम स्थगित हो गया है, कुछ हफ्तों बाद राजीव गाँधी बाबा के दर्शन हेतु पहुँचे किंतु वह पेड़ नहीं कटा।
आज हम सब निरंतर वृक्षों और वनस्पतियों का विनाश कर रहे हैं, यह प्रसंग पेड़ों के प्रति बाबा की संवेदनशीलता बताता है तथा प्रेरणा देता है कि हम सब प्रकृति-पर्यावरण के साथ आत्मभाव विकसित कर उनकी रक्षा करें।
पक्षियों से बातचीत:
देवरहा बाबा तड़के उठते, चहचहाते पक्षियों से बातें करते, फिर स्नान के लिए यमुना की ओर निकल जाते, लौटते तो लंबे समय के लिए ईश्वर में लीन हो जाते। उन्होंने पूरी ज़िंदगी नदी किनारे एक मचान पर ही काट दी। उन्हें या तो बारह फुट ऊँचे मचान पर देखा जाता था या फिर नदी के बहते जल में खड़े होकर ध्यान करते। वे आठ महीना मइल में, कुछ दिन बनारस में, माघ के अवसर पर प्रयाग में, फागुन में मथुरा में और कुछ समय हिमालय में रहते थे बाबा। उनका स्वभाव बच्चों की तरह भोला था। वे कुछ खाते-पीते नहीं थे, उनके पास जो कुछ आता उसे दोनों हाथ लोगों में ही बाँटकर सबको आशीर्वाद देते। बाबा के पास दिव्यदृष्टि थी, उनकी नजर गहरी और आवाज़ भारी थी।
मितभाषी बाबा:
बाबा बहुत कम बोलते थे किंतु मार्गदर्शन माँगे जाने पर अपनी बात बेधड़क कहते थे। बाबा ने निजी मसलों के अलावा सामाजिक और धार्मिक मामलों को भी प्रभावित किया। बाबा के अनुसार भारतीय जब तक गो हत्या के कलंक को पूरी तरह नहीं मिटा देते, समृद्ध नहीं हो सकते, यह भूमि गो पूजा के लिये है, गो पूजा हमारी परंपरा में है। बाबा की सिद्धियों के बारे में खूब चर्चा होती थी। प्रत्‍यक्षदर्शी बताते हैं कि आधा-आधा घंटा तक वे पानी में रहते थे। पूछने पर उन्‍होंने शिष्‍यों से कहा- 'मैं जल से ही उत्‍पन्‍न हूँ।' उनके भक्‍त उन्‍हें दया का महासमुंद बताते हैं। अपनी यह सम्‍पत्ति बाबा ने मुक्‍त हस्‍त से लुटाई, जब जो आया, बाबा से भरपूर आशीर्वाद लेकर गया। वर्षाजल की भाँति बाबा का आशीर्वाद सब पर बरसा और खूब बरसा। मान्‍यता थी कि बाबा का आशीर्वाद हर मर्ज की दवाई है। बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामनेवाले का सवाल क्‍या है? दिव्‍यदृष्ठि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोलकर हँसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याददाश्‍त इतनी कि दशकों बाद भी मिले व्‍यक्ति को पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते, किसी तेज कम्‍प्‍यूटर की तरह। हाँ, बलिष्‍ठ कदकाठी भी थी।
सुपात्र को विद्या दान:
बाबा के पास लोग हठयोग सीखने भी जाते थे। सुपात्र देखकर वह हठयोग की दसों मुद्राएँ सिखाते थे। योग विद्या पर उन्हें पूर्ण अधिकार था। ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक समाधि आदि पर वह गूढ़ विवेचन करते थे। सिद्ध सम्मेलनों में संबंधित विषयों पर अपनी प्रतिभा से वे सबको चकित कर देते। लोग यही सोचते कि इस बाबा ने इतना ज्ञान किससे, कहाँ, कब - कैसे पाया? ध्यान, प्राणायाम, समाधि की पद्धतियों में बाबा सिद्ध थे । धर्माचार्य, पंडित, तत्वज्ञानी, वेदांती उनसे संवाद कर मार्गदर्शन पाते थे। बाबा ने जीवन में लंबी-लंबी साधनाएँ कीं। जन कल्याण के लिए वृक्षों-वनस्पतियों के संरक्षण, पर्यावरण एवं वन्य जीवन के प्रति उनका अनुराग जग-जाहिर था।
लीला संवरण:
आजीवन स्वस्थ्य तथा मजबूत रहे बाबा देह त्‍यागने के कुछ पूर्व कमर से आधा झुक कर चलने लगे थे। बाबा नित्य ही बिना नागा भक्तों को मचान दर्शन देते थे किन्तु ११ जून १९८० से अचानक बाबाने दर्शन देना बंद कर दिया। भक्तों को अनहोनी की आशंका हुई। मौसम अशांत होने लगा। बाबा मचान पर त्रिबंध सिद्धासन में बैठे थे। चिकित्सकों ने शरीर का तापमान अत्यधिक पाया, तापमापी (थर्मामीटर) की अंतिम सीमा पर पारा सभी को आशंकित कर रहा था। मंगलवार १९ जून १९९० योगिनी एकादशी की शाम आँधी-तूफ़ान, भारी जलवृष्टि के बीच बाबा ने इहलीला संवरण किया और ब्रह्मलीन हो गये। यमुना की लहरें तट पर हाहाकार कर बाबा के मचान तक पहुँचाने को मचल रही थीं। शाम ४ बजे स्पंदन रहित बाबा की देह बर्फ की सिल्लियों पर रखी गई अगणित भक्त शोकाकुल थे। समाचार देश-विदेश विद्युतगति से फ़ैल रहा था। अकस्मात् बाबा के शिष्य देवदास ने बाबाके शीश पर स्पंदन अनुभव किया। ब्रम्हरंध्र खुल गया जिसे पुष्पों से भरा गया किन्तु वह फिर रिक्त हो गया दो दिन तक बाबा के शरीर को सिद्धासन त्रिबंध स्थिति में किसी चमत्कार की आशा में रखा गया। यमुना किनारे भक्त दर्शन हेतु उमड़ते रहे, अश्रु के अर्ध्य समर्पित करते रहे। बाबा के ब्रह्मलीन होने की खबर संचार-संपर्क के अधुनातन साधन न होने पर भी देश-देशांतर तक फैली, विश्व के कोने-कोने से हजारों भक्त उन्हें विदा देने उमड़ पड़े। कुछ विज्ञानियों ने उनके दीर्घ जीवन के रहस्य जाँचने की कोशिश की पर विछोह और व्यथा के उस माहौल में यह संभव नहीं हो सका। आखिरकार, दो दिन बाद बाबा की देह उसी सिद्धासन-त्रिबंध की स्थिति में यमुना में प्रवाहित कर दी गई।
लोक संत लीला संवरण कर अनंत में विलीन हो गया किंतु उसकी महागाथा काल की थाती बनकर युगों-युगों के लिए अमर हो गई।
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गुरुवार, 17 मई 2018

मधुमालती छंद

रसानंद दे छंद नर्मदा ८१:

दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता/शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल, गीता, गंग, चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल, प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मधुमालती छंद से
मधुमालती छंद
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छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.

लक्षण छंद
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे।
गुरु लघु गुरुज चरणांत हो
हर छंद नवउत्कर्ष दे।

उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-घर 'सलिल' मधु गान हो।

२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं

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सियांग के उस पार

मंगलवार, 15 मई 2018

दोहा सलिला

दोहा सलिला
निवेदन
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दोहा इंगित में कहे, सरल बना; सच क्लिष्ट।
मति अनुरूप समझ सकें, पाठक सुमिरें इष्ट।।
*
भाव-अर्थ त्यों शब्द में, ज्यों बारिश-जलबिंदु।
नहीं पुरातन; सनातन,  गगन चंद्रिका इंदु।।
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संकेतों को ग्रहणकर, चिंतन-मनन न भूल।
टहनी पर दोनों मिलें, फूल चुने या शूल।।
*
जब भी निकले बात तो, जाती है वह दूर।
समझदार सुन-समझता, सुने न जो मद-चूर।।
*
अपनी-अपनी समझ है, अपना-अपना बोध।
मन न व्यर्थ प्रतिरोध कर, तू क्यों बने अबोध।।
*
मिले प्रेरणा तो ग्रहण, कर छाया रह मौन।
पुष्पाए मन-वाटिका, कब-क्यों जाने कौन?
*
सुमन सु-मन की लता पर,  खिलते बाँट सुगंध।
अमरनाथ-सिर शशि सदृश,
चढ़ते तज भव-बंध।।
*
श्यामल पर गोरी रिझे, गोरी चाहें श्याम।
धार पुनीता जमुन की, साक्षी स्नेह अनाम।।
*
रे मन! उनको नमन कर, जो कहते आचार्य।
उनके मन में बसा है, सकल सृष्टि-प्राचार्य।।
*
जिया प्रजा में ही सदा, किंग-क्वीन सच मान।
भक्त बिना कब हो सका, परमब्रम्ह भगवान।।
*
करता है राजेंद्र कब, आगे बढ़ श्रमदान।
वादे को जुमला बता, बने नरेंद्र महान।।
*
15.5.2018

सोमवार, 14 मई 2018

बालकवि बैरागी

श्रद्धांजलि: बालकवि बैरागी  
नमन! बालकवि बैरागी
हिंदी-सेनानी, श्रेष्ठ साहित्यकार-राजनेता   











चाहे सभी सुमन बिक जाएँ

चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ
पर मैं गंध नहीं बेचूँगा, अपनी गंध नहीं बेचूँगा

जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लक्षमन जैसी चौकी देकर जिन काँटों ने जान बचाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें-तोड़ें
चाहे जिस मालिन से मेरी पाँखुरियों के रिश्ते जोड़ें

ओ मुझ पर मंडरानेवालो!
मेरा मोल लगानेवालो!!
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ

मौसम से क्या लेना मुझको? ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा, खाता होगा तो खाएगा
कोमल भँवरों के सुर-सरगम, पतझारों का रोना-धोना
मुझ पर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना?
ओ नीलम लगानेवालों!
पल-पल दाम बढ़ानेवालों!!
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ

मुझको मेरा अंत पता है, पँखुरी-पँखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफी लेगी, सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी, किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊं
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ

मुझसे ज्यादा अहं भरी है, ये मेरी सौरभ अलबेली
नहीं छूटती इस पगली से, नीलगगन की खुली हवेली
सूरज जिसका सर सहलाए, उसके सर को नीचा कर दूँ?
ओ प्रबंध के विक्रेताओं!
महाकाव्य के ओ क्रेताओं!!
ये व्यापार तुम्हीं को शुभ हो मुक्तक छंद नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ

लोकप्रिय कवि, हिंदी के प्रबलतम समर्थक, शालीन राजनेता  बालकवि बैरागी का ८७ साल की उम्र में निधन हो गया। वे हिंदी काव्य मंचों पर बहुत लोकप्रिय थे। उन्होंने मध्य प्रदेश में अपने निवास स्थान पर अंतिम सांस ली। एक सांसद के रूप में संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य रहकर संसदीय समिति के निरीक्षणों में वे नौकरशाहों को राजभाषा नीति का उल्लंघन करने और ठीक से पालन न करने के लिए हड़काते और राजभाषा नीति का पालन करने के लिए दबाव बनाते रहे।बालकवि बैरागी राजभाषा निरीक्षणों में पूरी गंभीरता और बारीकी से निरीक्षण करते हुए अधिकारियों को हिंदी में कार्य करने के लिए विवश करते थे। इससे केंद्रीय कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने में काफी मदद मिली। एक सांसद के तौर पर भी वे सदैव एक मजबूत स्तंभ की तरह हिंदी के साथ खड़े रहे।यह उनका हिंदी के प्रति एक महत्वपूर्ण योगदान है। विनम्र श्रद्धांजलि, शत-शत नमन, वंदन।

प्रसिद्ध गीतकार बलकवि बैरागी जी का जन्म अत्यंत निर्धन परिवार में १० फरवरी १९३१ को रामपुर गाँव, मनासा तहसील, जिला मंदसौर मध्य प्रदेश में हुआ। उहोंने १३ मई २०१८ को अंतिम श्वास ली। वे न केवल संवेदनशील इंसान अपितु सह्रदय, उदार और लोकहितग्राही भी थे। उन जैसा विराट व्यक्तित्व, बेलौस हँसी, फक्कड़पन, आवारगी, यायावरी, याराना, निडरपन अब दुर्लभ है। उन्होंने जो जिया वह अत्यंत सार्थक जिया एवं सबको निबाहा। उनका गीत “अपनी गंध नहीं बेचूंगा” और 'मालवी गीत 'पनिहारिन उनकी पहचान बन गए। विद्यालयीन जीवन कष्टों में गुज़ारते हुए उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया। 

बचपन की दुखद अवस्था ने बैरागी जी के मन को कभी थकने न देने की प्रेरणा प्रदान की और उनका दारिद्र्य ही उनके गीतों की शक्ति बनाकर उभरा। वे अपने युवाकाल से ही एक गीतकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। उनके व्यक्तित्व में जो गरिमा और सादगी थी वह अब के मंत्री और लोकसभा सदस्यों में दुर्लभ है। वे फिल्मों में गीत लिख चुके हैं। उनकी बातों में मधुरता के साथ साथ विनम्रता का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता रहा। बालकवि वैरागी अपनी रचनाओं में जीवन दर्शन के साथ-साथ समाज की विडंबनात्मक, असंतुलित वस्तुस्थिति का भी चित्रण करते हैं। उनके गीतों में समाज की रूढ़िगत मान्यताओं के प्रति विद्रोह होने के साथ-साथ भविष्य की सुंदर योजना भी दिखाई देती है। वह लगातार अपने गीतों में मानवीय संवेदनाओ को प्रकट करते हुए मानव जीवन को उच्चतर सोपानों पर ले जाने का प्रयास करते रहे। उनके गीत संघर्ष के गीत हैं, अमित जीजीविषा के गीत हैं। 

वह अपने गीतों में आम आदमी की बात करते हैं, जो खेतीहर है, जो मजदूर है, जो दिन रात मेहनत मशक्कत कर रहा है। इसके अतिरिक्त उनके गीतों में सात्विक सौंदर्य के जीवंत शब्द-चित्र हैं, यौवन का उल्लास है । उनके गीत विभिन्न भाव संवेदनाओं से संपन्न हैं, जिसको सुनने और पढ़ने पर हम भिन्न भाव लोक की सैर करने लगते हैं। उनकी ओजगुण सम्पन्न कविता अंतर्मन के सबल भावों को पुष्ट करती है।उनका कार्यक्षेत्र राजनीति, साहित्य एवं कृषिकर्म रहा। मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री, लोकसभा के सदस्य तथा हिन्दी काव्य-मंचों के सरताज होते हुए भी सर्वोपरि और सर्व प्रथम एक सहृदय मानव थे। 'गौरव-गीत, 'दरद दीवानी, 'दो टूक, 'भावी रक्षक देश के', 'प्रतिनिधि रचनाएँ', 'बाल कविताएँ', फिल्मों के लिए लिखे प्रसिद्ध गीत लिखे आदि उनकी कीर्तिध्वज वाहक कृतियाँ हैं।

बालकवि बेरागी जी का गीत “अपनी गंध नहीं बेचूंगा” प्रतिबद्धता के दायरे में लिखा हुआ एक सरल, सहज किंतु गहरी जन संवेदनाओं से युक्त गीत है। बाल कवि बैरागी इस गीत के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को आम आदमी तक पहुंचाते हुए स्पष्ट करना चाहते हैं कि इस संसार की सब चीजें बिक सकती हैं परंतु मैं अपने अंतःकरण में उपजी चीजों को नहीं बेज सकता हूँ। सारा संसार समझौते करने पर आमादा है, परंतु मैं समझौतावादी व्यक्ति नहीं हूँ। समझौतावादी और अवसरवादी व्यक्तित्व के व्यवहार से ऊपर उठते हुए वे जनवादी रूप में खड़े हुए दिखाई देते हैं। उनके सामने कई प्रकार की कठिनाइयों की दीवारें खड़ी हुई है, परंतु वे अपने गीत में बार-बार उन दीवारों से टकराते हैं, उन्हें तोड़ने की कोशिश करते हैं; इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि जीवन में सब कुछ खो दिया जाए परंतु भीतर का आत्म-सम्मान कभी नहीं खोना चाहिए। वे अपने गीत में बराबर उस स्थिति को याद करते हैं, जिनके कारण उनका जीवन निर्मित होता है और वह इस निर्माण में यह संकल्प लेते हैं कि मुझे चाहे कितनी कठिनाइयों से गुजरना पड़े, लेकिन मैं दूसरों के दबाव में स्वयं बदल नहीं सकता। मैं उन लोगों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दूंगा जो मुझसे आशा लगाए हुए हैं। इसलिए वह सौगंध उठाते हैं और दर्शाते हैं कि- “चाहे जिस मालिन से मेरी पांखुरियों से रिश्ते जोड़ें, ओ मुझ पर मंडराने वालों, मेरा मोल लगाने वालों, जो मेरा संस्कार बन गई वह सौगंध नहीं बेचूंगा।” वे गीत में दर्शाते हैं कि जीवन परिवर्तित है और बहुत कुछ नया आता है और पुराना छूट जाता है, इस आने-जाने के संघर्ष में व्यक्ति को जिजीविषा से काम लेते हुए आशावादी भावना भरते हुए आगे ही आगे बढ़ते चले जाना चाहिए। लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं, इसकी परवाह किए बिना व्यक्ति को निरंतर प्रगति के पथ पर बढ़ते चले जाना चाहिए, जिस प्रकार से मौसम आते-जाते हैं वह कभी तो अपना अच्छा रूप लाते हैं कभी भयानक रूप लाते हैं, परंतु मनुष्य को इन मौसमों की परवाह न करते हुए जीवन यात्रा को जारी रखना चाहिए। व्यक्ति का जीवन ऊंच-नीच, अच्छाई-बुराई, सुख-दुख से बना हुआ है, इस जीवन में बहुत सारे प्रकार के कष्ट आते हैं, परंतु उन कष्टों को पार करना है। मनुष्य जीवन ही सफलता का प्रमाण है और बाल कवि बैरागी इस गीत में इसी बात का संदेश प्रदान करते हैं। उनका यह गीत संकल्पवादी गीत है, वह अपने संकल्पों के माध्यम से दर्शाना चाहते हैं कि मैं किसी भी प्रकार की स्थितियों का सामना करने को तैयार हूँ, मुझे कभी किसी से कोई शंका या डर नहीं है। परिस्थितियाँ कितनी ही विकट, प्रतिगामी और भीषण हों, हर हाल में व्यक्ति को अपने आप पर भरोसा रखना चाहिए, क्योंकि उसका भरोसा ही उसे बहुत दूर तक ले जाता है। गीत के माध्यम से स्पष्ट करना चाहते हैं कि जीवन में खुद्दारी का होना बहुत आवश्यक है, व्यक्ति मर जाए लेकिन अपनी खुद्दारी नहीं छोड़ना चाहिए।
                                                                                           ***

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
*
श्वास-श्वास है परीक्षा, उत्तर मात्र प्रयास।
आस न खोना हौसला,  अधर सजाना हास।।
*
जो खुद ले निज परीक्षा, पल-पल रहकर मौन।
उससे अच्छा परीक्षक, परीक्षाsर्थी कौन?
*
खुद से खुद ही पूछता, है जो कठिन सवाल।
उसको मिले जवाब भी, कभी न झुकता भाल।।
*
वसुधा की ले परीक्षा, रवि बरसाकर आग।
छाया दे तरुवर तुरत, टेसू गाए फाग।।
*
खोटे सिक्के पास हैं, खरे हो रहे फेल।
जनगण बेबस परीक्षक, रहा नकलची झेल।।
*
14.5.2018,    TIET Jabalpur
salil.sanjiv@gmail.com

रविवार, 13 मई 2018

लघुकथा प्रश्नोत्तरी, laghukatha prashnottaree

लघुकथा प्रश्नोत्तरी, laghukatha prashnottaree - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 

प्र.१. लघुकथा को एक गम्भीर विधा कहा गया है। इन दिनों जिस तरह से ये लिखी जा रही हैं उससे इस विधा को नुकसान नहीं होगा?
साहित्य सृजन की हर विधा अपने आपमें गंभीर होती है। यहाँ तक की हास्य कवि हास्य रचना भी पूरी गंभीरता से लिखता है। किसी विधा को हानि लिखने से नहीं न लिखने से पहुँचती है। यह शोर कुछ मठाधीश मचाते हैं जब वे देखते हैं की उनके बताये मार्ग को छोड़कर नए लघुकथाकार अपना अलग मार्ग बना रहे हैं। 
प्र २. जिस तरह से पाठक एक लघुकथा को देखता है पढ़ता है उसको समझने की उसकी अपनी सोच होती है वह अपने नज़रिये से उसकी समीक्षा करता है। फिर कैसे समझा जाये कि लघुकथा कैसी हुई है?
पाठक ही अंतिम परीक्षक होता है जिसके लिए रचना की जाती है। लेखक की सोच की कैद में पाठक को बंदी न तो बनाया जा सकता है, न बनाया जाना चाहिए। लघुकथा कैसी हुई है यह पाठकीय प्रतिक्रिया से ही जाना जा सकता है। पाठकीय प्रतिक्रिया तात्कालिक होती है, समीक्षकीय प्रतिक्रिया सुविचारित होती हैं।  ये दोनों एक दूसरे की पूरक होती हैं। 
प्र३. हर विधा गम्भीर होती है फिर लघुकथा के लिए ही ये शब्द क्यों इस्तेमाल किया जाता है? 
जो लघुकथाकार हीनता के भाव से ग्रस्त हैं वे खुद की दृष्टी में खुद को महत्वपूर्ण दिखा ने के लिए ऐसे बेमानी शब्दों का प्रयोग करते हैं।
प्र४. जिस गम्भीरता से लघुकथा को लिया जाता है क्या उस गम्भीरता को नवोदित समझ पाये है?
लघुकथा को हर पाठक अपनी दृष्टि से समझे यही स्वाभाविक और आवश्यक है। हर बाप बेटे को बुद्धिहीन मंटा है और हर बीटा बाप से आगे जाता है। ये दोनों सनातन सच हैं। 
प्र५. लघुकथा पर जो कार्य हो रहा है क्या नवोदित सही दिशा में जा रहा है?
कोइ पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को समझ, रोक या प्रोत्साहित नहीं करती। नयी पीढ़ी की भिन्न दिशा को गलत दिशा कहना 'फतवेबाजी की तरह बेमानी है। नयी पीढ़ी की नई दिशा को पुरानी पीढ़ी जब नहीं समझती तो काल-बाह्य होने  लगती है। 
प्र ६. हर विधा भाषा और शैली से उभर कर आ रही है। इन दिनों जिस तरह से बोल्ड विषयों पर उसी तरह की भाषा का उपयोग हो रहा है वह किस हद्द तक लघुकथा के लिये हितकारी होगा।
बोल्ड विषयों पर उसी तरह की भाषा का उपयोग हितकारी न होगा यह शंका किस आधार पर? 'विश्वासं फल दायकं'। 
प्र ७.  लोगों की धारणा लघुकथा को लेकर अलग अलग है और तरह तरह की लघुकथाएँ नज़र आती है क्या वे सभी सच में भी लघुकथा हैं भी?
लघुकथा है या नहीं यह तय करने का अधिकार रचनाकार, पाठक और या समीक्षक का है। इन तीनों को छोड़कर खेमेबाज अपने आप को स्थापित करने के लिए व्यर्थ के प्रश्न उठाते रहते हैं। 
प्र८.  लघुकथा का मारक क्या होना चाहिए?
मारक? यह क्या होता है? मानक की बात करें तो हर रचनात्मक विधा के मानक सतत परिवर्तनशील होते हैं तभी तो विधा का विकास होता है। मानक पत्थर की तरह जड़ हो तो विधा पिजरे के पक्षी की तरह कल्पना के आकाश में उड़ ही नहीं सकेगी। 
प्र ९.  लघुकथा को पढ़ते वक़्त एक पाठक को किन बातो पर ध्यान देना चाहिए?
पाठक को यह बताने की आवश्यकता ही क्या और क्यों है? पाठक के विवेक पर भरोषा कीजिए। रचनाकार या खेमेबाज पाठक को बताकर कहें कि तुम्हें अमुक लघुकथा पर ऐसी प्रतिक्रिया देनी है तो उसका कोई मूल्य होगा क्या?
प्र १०. हर विधा को लिखने का एक तरीका होता है। लघुकथा में ऐसा क्यों नही नज़र आ रहा? 
किसी विधा को लिखने का एक तरीका कभी हो ही नहीं सकता। रचना कर्म किसी कारखाने में उत्पादित एक तरह का उत्पाद नहीं है। एक ही परिस्थिति या घटनाक्रम में हर रचनाकार की प्रतिक्रिया, सोचने का तरीका और लिखने की शैली भिन्न होगी, तभी तो रचना मौलिक होगी अन्यथा हर र अचना एक-दूसरे की नकल होगी। 
प्र ११. कहा जाता है कि साहित्य लोगों को जागृत करता है। लघुकथा किस हद तक कामयाब हो पायी है?
जब साहित्य लेखन नहीं होता था तब क्या लोग जाग्रत नहीं थे? यदि यह सत्य होता तो आज तक वैसी ही दशा में पड़े होते। साहित्य का पठान-पाठन करना ही लोगों के जाग्रत होने का चिन्ह है। साहित्य जाग्रत लोगों को सोचने की दृष्टि प्रदान करता है। 
प्र १२. आत्मकथ्य और लघुकथा में इस शैली को कहने में क्या कोई फर्क होना चाहिए? गर हाँ तो क्या?
लघु कथा अनेक शैलियों में कही जा सकती है। विवरणात्मक, विवेचनात्मक, उपदेशात्मक, बोधात्मक, आलोचनात्मक, संस्मरणात्मक, संवादात्मक, आत्मकथ्यात्मक आदि। कुछ कठमुल्ले इनमें से कुछ को लघुकथा न मानें तो भी अंतर नहीं पड़ता। लिखनेवाले इन सहेलियों में लिखते, पाठक पढ़ते, समीक्षक स्वीकारते या नकारते रहेंगे। 
प्र १३. जिन शैली में लघुकथा कम कही गयी है उसकी क्या कोई खास वजह रही है?
नहीं। सृजन अनेक स्थानों पर अनेक लेखकों द्वारा अनेक विषयों पर की जानेवाली प्रतिक्रिया है। शैली हर रचनाकार की अपनी होती है, बहुधा  हर रचनाकार विषय के अनुरूप शैली चुनता है। हर एक की वजह अलग होती है। 
प्र१४. लघुकथा की प्रगति को आप किस तरह से लेते है?
मैं कौन होता हूँ प्रगति या अवनति को लेने या न लेने वाला? प्रश् यह है कि  लघुकथा का विकास हुआ है या नहीं हुआ है? हुआ है तो कितना और किस दिशा में तथा भावी संभावनाएँ क्या हैं?इस प्रश्नों का उत्तर लघुकथाकार, पाठक और समीक्षक तीनों की भूमिका में भिन्न-भिन्न होगा। रचनाकार के नाते लघुकथा में हो रहे पपरिवर्तनमेरे सामने खुद को बदलने की चुनौती उपस्थित करते हैं, समीक्षक के नाते मुझे उनका आकलन करने और पाठक के नाते उनसे प्रभावित होना या न होना होता है।  
प्र १५. लघुकथा अब तक किन किन भाषाओँ में लिखी गई है? 
लघुकथा तो लिपि का आविष्कार होने के पहले भी वाचिक रूप में कही जाती थी। विश्व की हर भाषा में लघुकथा है। नाम भिन्न हो सकता है। यह भी कि जिस भाषा में लघुकथा नहीं कही गयी वह भाषा ही मर गई। 
प्र१ ६. जिस तरह से सोशल मीडिया पर लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं क्या नवोदित को उन्हें पढ़ना चाहिए?
क्यों नहीं पढ़ना चाहिए? अवश्य पढ़ना चाहिए। जहाँ भी मिले, जो भी मिले उसे पढ़ना और समझना तथा उपयो गी को स्मरण और निरुपयोगी का विस्मरण करना चाहिए। 
प्र १७. जिस तरह से लघुकथाकारों का सैलाब आया है आप उनसे कुछ कहना चाहेंगे?
कुछ कहने का औचित्य क्या है? वर्षा न हो तो सूखा पद जाता है। वर्षा हो तो पानी मैला हो जाता है, तटबंध टूटते हैं, वर्षा में कचरा बाह जाता है और निर्मल जल बचता है। लघुकथाकार खूब आएं, खूब लिखें उससे बहुत ज्यादा पढ़ें और थोड़ा लिखें।  
प्र १८.  लघुकथा में भी शोध कार्य हो रहे है। अब तक किन किन विषयों पर शोध हो चुके है। क्या उनकी कोई किताबें हैं?
प्र 19 लघुकथा की किताबें आसानी से उपलब्ध नही हो पाती, किताबे कहाँ से तलाशी जा सकती हैं?
लघुकथा को तलाशने के दिन लड़ गए। अब तो हर अखबार, हर पत्रिका में बरसाती मेंढक की तरह लघुकथा उपलब्ध है। जितना चाहें पढ़िए, गुनिए और लिखिए। 
प्र २०. लघुकथा के विद्यार्थी को किस तरह का होना चाहिए?
वैसा ही जैसा वह है। जिसे किसी ढांचे, किसी खाके, किसी लीक में कैद न किया जा सके। 
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Shiva Tandava Stotram with subtitles

श्री श्री रविशंकर जयंती:दोहांजलि

गुरु जलवत निर्मल-तरल,  क्षीर लुटाते घोल।
पंकज रख तलहटी में,  बाँटें पंकज बोल।।
*
प्रवहमान हैं पवनवत,  दूर करें दुर्गंध ।
वैचारिक ताजी हवा,  प्रग्या परक सुगंध।।
*
अग्नि बनें गुरु भस्मकर,  भ्रम विद्वेष अशांति।
कच्चे को देते पका,  कर वैचारिक क्रांति।।
*
गुरु वसुधा हैं मातृवत, करते सबसे स्नेह।
ममता-करुणा-सिंधुसम, दूर करें संदेह।।
*
गुरु विस्तीर्ण-विरा़ट नभ,  दस दिश आभ अनंत।
शून्य-शब्द में व्याप्त हैं,  ध्वनि बनकर गुरु संत।।
*
पंचतत्व गुरु-शिष्य हैं, एक-एक मिल एक।
पारस पा लोहा बने,  सोना सहित विवेक।।
*
गिरिवर अनहद नाद हैं, सकल सृष्टि में व्याप्त।
आप आप में लीन हों, बना आप को आप्त।।
***
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शनिवार, 12 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी ३. सुरेन्द्र सिंह पवार बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य

आलेख:
३. बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य
इंजी. सुरेंद्र सिंह पवार
[लेखक परिचय: सुरेंद्र जी पेशे से सिविल इंजीनियर, मन से साहित्य प्रेमी तथा अध्यवसाय से समीक्षक हैं। बहुधा नए विषयों पर कलम चलाने के साथ-साथ वे विश्ववाणी हिंदी में तकनीकी लेखन के प्रति समर्पित हैं। राम सेतु पर उनके लेख को इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता ने 'राष्ट्र में तृतीय श्रेष्ठ लेख" का सम्मान दिया है। संप्रति सेवानिवृत्त कार्यपालन यंत्री जलसंसाधन विभाग म.प्र.] 
*
“बुंदेली,पश्चिमी हिंदी की पाँच बोलियों में से एक है; इसका शुद्ध रूप उत्तरप्रदेश के झाँसी, जालौन, हमीरपुर व मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, सागर आदि जिलों में देखने को मिलता है।  दतिया और पन्ना की बुंदेली विशुद्ध न होकर मिश्रित रूप में है। ”—डॉ. ग्रियर्सन
सामान्यत: लोकगीतों को किसी छंद के दायरे में कसना कठिन होता है।  लोकगीतोंमें ध्वनियों की प्रधानता होती है।  लोक ध्वनियों से ही लोक गीतों की पहचान की जाती है। ये लोकगीत पेटेंट नहीं हैं। इन्हें रचनेवाले को सामान्यत: कोई नहीं जानता। पीढ़ी-दर- पीढ़ी वाचिक परंपरा से चले आ रहे ये लोकगीत ऐसे आजाद परिंदे हैं, जिन्हें उड़ने के लिए आसमान भी छोटा पड़ जाता है। ढोलक के अलावा अन्य गैर-परंपरागत वाद्य यथा-- लोटा, थाली, चमीटा, घुँघरू, करतालें आदि इनकी संगत दे देते हैं।  हाँ! उठती मधुर स्वर-लहरियों में मौज-मस्ती होती है, हँसी-ठिठोली होती है, उत्साह होता है, उमंग होती है, जीवन होता है, जीवन जीने की प्रेरणा होती है।  जहाँ तक बुंदेली का प्रश्न है, वह मध्यदेशीय शौरसेनी अपभ्रंश से उत्पन्न हिंदी का रूप है, जो बुंदेलखंड में प्रयुक्त होने से ‘बुंदेली’ कहलाया। यहाँ प्रचलित लोककथाओं, लोकगीतों, मुहावरों, कहावतों आदि की मूल भाषा बुंदेली है और वे ही बुंदेली लोक-साहित्य के आधार स्तंभ हैं,   विशेषकर ‘लोकगीत’। यहाँ गाए जानेवाले लोकगीतों को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है,-
१. संस्कार गीत: बुंदेलखंडी जन-जीवन में षोडश-संस्कारों का पारंपरिक विधान प्रचलित है, परन्तु जन्म और विवाह ऐसे संस्कार हैं जिनमें उत्सव का विशेष माहौल रहता है। 
१.१ जन्म संस्कार: इनमें मुख्यत: चरुआ चढ़ाना, दष्टौन, बधावा, पालना और कुआँ-पूजन ऐसे अवसर हैं, जहाँ कोकिल-कंठियों के स्वर मन मोह लेते हैं। सोहर गीत, दादरा और बधाई जन्म-गीतों के प्रचलित रूप हैं। 
सोहर (चरुआ धराई): तुम तो अटरिया चढ़ जइयो, नेंग पिया हम दे दैंहें। 
                                 सासूजी आहें, चरुआ धराहें, चरुआ धराई नेंग माँगें, पिया हम दे दैंहें
                                 हम भी तुमरे, ललनवा तुमरे, लरका तुमाए घर नैयां, पिया हम दे दैंहें
                                 तिजोरी में तारो लगो.
इसी तरह ननद, जिठानी, देवरानी आदि को लेकर अपनी धुन में सोहरा आगे बढ़ता जाता है।  स्थायी टेक होती है, जिसे हर पंक्ति के बाद समवेत स्वर में दोहराया जाता है। सोहर गीत में अन्त्यानुप्रास आवश्यकहोता है। एक अन्य सोहर गीत का आनंद लें:  
                                 सोंठ गिरी के लड्डू, मेरी अम्मा ने भिजवाए री!
                                 उसमें से एक लड्डू, मेरी सासू ने चुराए री!!
                                 सासूजी का हाथ पकड़कर,कोठी अंदर कर दो जी!
                                 कोठी अंदर ना मानें तो, लोहिड़ी साँकल जड़ दो जी!!
                                 लोहिड़ी साँकल ना मानें तो, अलीगढ़ ताला जड़ दो जी!
                                 अलीगढ़ ताला ना माने तो, पुलिस हवाले कर दो जी!!
                                 पुलिस हवाले ना माने तो काला पानी भिजवा दो जी !... 
बधाई गीत:
किसी नये सदस्य का आगमन पूरे परिवार में उत्साह-उमंग भर देता है।  इस गीत में ननद अपनी भाभी से भतीजे के जन्म पर कंगन की माँग कर रही है, आपसी नोंक-झोंक में संबंधों की मधुरता, रिश्तों की मिठास ही ख़ास है।  
                                 कँगना माँगे ननदी!, लालन की बधाई। 
                                 जे कँगना मोरे मैके से ल्याई, रुपइया लै लो ननदी! लालन की बधाई.
                                 जे रुपइया मोरे ससुरा की कमाई, अठन्नी ले लो ननदी! लालन की बधाई.
१.२ विवाह गीत:
विवाह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और आनंददायी संस्कार है।  विवाह संस्कार का उद्देश्य नए सृजन से सृष्टि के क्रम की निरंतरता है।  बुंदेलखंड की अपनी परंपरागत विवाह पद्धति है, जिसमें सगाई, फलदान, लगुन, मागर-माटी, सीधा छुआना, मंडपाच्छादन, मैहर का पानी, तेल चढ़ाना, हल्दी चढ़ाना, मातृका-पूजन, चीकट, कंकन पुराई, राछ फिराई, बारात निकासी, बाबा का स्वांग, द्वारचार, चढाव, कन्यादान, बेंई, भाँवरें, पाँव-पखराई, कुँवर कलेऊ, रहस बधाव, ज्योंनार, बिदाई, (बूड़े बब्बा की पूजा, बाती मिलाई, कंकन छुड़ाई- सं) मोंचायनों, दसमाननी इत्यादि रस्में हैं।  सामान्यत: विवाह-गीतों में बन्ना-बन्नी, गारी, बिदाई गीत प्रमुख हैं:
(अ) बनरा/ बन्ना गीत:  
                                 मोरे राम लखन से बनरा आली, कौने बिलमा लए री.
                                 उनके बाबुल ने बिलमा लये, माता कंठ लगा लए री.
संबंधों की लंबी फेहरिस्त में चाचा, मामा, मौसा, फूफा, बहनोई आदि दुल्हे को रोककर टीका करते हैं और चाची, मामी, फुआ, मौसी, बहिन गले से लगाती हैं। विवाह में भाँवर के पहले तक बनरा या बन्ना गाये जाते हैं।  बन्नी कन्या पक्ष में गाई जाती है और बनरा जैसी ही होती है—
                                 दूद पिलाये, बेटी पलना झुलाये, अब हमसे राखे ने जाय भले जू.
                                 जो कछु देने होय, सो देइये मोरे बाबुल, फिर तुमसे दव ने जाय भले जू.
दुल्हन का अपने माँ-बाप और अन्य रिश्तेदारों के साथ भावनात्मक वार्तालाप इन गीतों में होता है:—
-- बना की बनरी हेरें बाट,बना मोरे कब घर आबै जू 
--  बने दूला छबि देखौ भगवान की,दुल्हिन बनी सिया जानकी 
-- वारी सिया को चढत चढाव, हरे मंडप के नैचे जू 
(ब) गारी: 
यह शादी समारोह की बोझिलता को मृदुल हास्य में बदलने का गीत है। (इनमें नए जुड़े संबंधों को सहज-सरस बनाने तथा प्रारंभिक संकोच मिटाकर पारिवारिक आत्मीयता स्थापित करने के लिए छेड़-छाड़ और चुटकी काटने जैसी अभिव्यक्तियाँ की जाती हैं। महिलाओं का आशु कवित्व भी इनमें झलकता है जब वे दूल्हे के रिश्तेदारों के नाम ले-लेकर उनके स्थान, पेशे या व्यक्तित्व पर चुभती हुई फब्तियाँ कसती हैं। अशिक्षित जनों में अपमानजनक बातें कहीं जाने से ये गीत विवाद के कारण भी बनजाते हैं। आजकल संपन्न-शिक्षित समाज में इनका चलन घटता जा रहा है-सं):   
-- जा हरी रँगीली बाँसुरी, जा बाजत काए नईयां.
-- समदी के भाग में नईयां लुगाई, मैं कैसों करों भाई.
 -- मोरे नए जिजमान, कुत्ता पोसले, कुत्ता पोसले. जैसे कुत्ता की कुत्ता, वैसी समदी की मूंछ हत्ता फेर ले. कुत्ता पोस ले  
-- आसपास चोरैया बो दइ, बीच में दोना राई को, मरे जात बड़वारी खों.
-- सबके हो गये दो-दो ब्याव, समदी खों बांद दई बुकरिया, के बोल दारी बुकरी बोल- 
(स) बिदाई गीत:
विवाह के बाद बेटी को बिदा करते माँ–बाप और अन्य रिश्तेदार इन गीतों के माध्यम से वर-वधु को भविष्य के लिए सीख देते हैं। १६-१२ पर यति तथा अंत में ‘मोरे लाल’, ‘अहो बेटी’, ‘जू’ की आवृति गायन में मार्मिकता और करुणा का समावेश करती है:
जाओ लली! तुम फरियो-फूलियो, सदा सुहागन रहियो मोरे लाल.
सास-सुसर की सेवा करियो, पतिव्रत धर्म निभइयो मोरे लाल.
आगे उठियो, पीछे सोइयो, सबके पीछे जइयो मोरे लाल.
(द) दादरा:
-- छज्जे पे बेठी नार, उड़ा रई कनकैया.
    पेलों पेंच मोरे, सुसरा ने डारो,
    कर घूँघट की ओट, काट लई कनकैया.
-- लंबे ढकोरा करी ककरी, कबे आहो छैला हमारी बखरी.
-- राते कहरवा खूब सुनेरी मैंने.
-- धीरे चढ़ाओ मनिहार चूड़ियाँ
२. व्रत-त्यौहार गीत:
वैसे लोक अनंत भी है और आँगन भी।  वह अनंत को आँगन में उतार लेता है और घर के आँगन में अनंत की यात्रा करता है। लोक में ही वह शक्ति है कि वह आवाहन न जानते हुए भी सारे देवताओं को एक छोटा सा चौक पूरकर उसमें प्रतिष्ठित कर सकता है। लोक में ही वह साहस है कि वह देवता को स्थापित कर जब चाहे नदी में विसर्जित करते हुए आमंत्रण देता है कि अगले वर्ष फिर बुलाएँगे। बुंदेलखंड में हर दिन एक त्यौहार होता है और हर त्यौहार के अपने गीत हैं:
२.१ कार्तिक स्नान:
कार्तिक का महिना पवित्र माना गया है। महिलाएँ  एक माह तक भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए व्रत और उपवास रखतीं हैं, सुबह होने के साथ लोक संगीत फूट पड़ता है:
सखी री! मैं तो भई न बिरज की मोर.
बन में रहती, बन फल खाती, बन ई में करती किलोर.
उड़-उड़ पंख गिरैं धरती पे बीनै नंदकिशोर .
उन पंखन को मुकट बना के बाँधें जुगलकिशोर
चंद्र सखी भज बालकृष्ण छबि चरण कमल चितचोर. –(कतकारियों का गीत)
२.२ क्वांर/चैत्र नवरात्रि:
नौ दिनों तक भगतें, (जस, जवारे, अलाव गीत, भजन -सं.) और देवी गीत गाए जाते हैं। लोक कलाकार अपने लोक वाद्य ढोलक, नगड़िया, झेला, झाँझ, मजीरा,  लेकर झूम-झूम कर गाते हैं-
भगत:  कैसे के दरसन पाऊँ री!, माई तोरी सँकरी दुअरिया,
सँकरी दुअरिया, तोरी ऊँची अटरिया, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
माई के दुआरे एक बाँझ पुकारे, देव लालन घर जाऊँ री!, कैसे के दरसन पाऊँ री!.
व्दारका गुप्त ’गुप्तेश्वर’ का एक देवी गीत “करत भगत हो आरती माई दोई बिरियाँ” गली-गली में सुना जाता है। 
२.३ जगदेव पंवारौ:
यह मात्रिक छंद है, ध्रुव पंक्ति में १८ मात्राएँ, अंत में ‘हो माँ’ की स्थायी टेक तथा अन्तरा में १२-९  पर यति और प्रथम अर्धाली के अंत में ‘रे’ का प्रभावशाली प्रयोग होता है :
राजा जगत के मामले हो मां!.
कौने रची पिरथवी (रे), दुनिया संसार. कौने रचे पंडवा, कौने कैलाश. राजा जगत--
२.४ होली/होरी:
होली या होरी में वर्ण्य विषय रंग-गुलाल खेलना है जिसमें राधा-कृष्ण की होली, देवर-भौजाई की होली, गोप-गोपियों की होली तथा राम-सीता की होली प्रमुख हैं. होली का गायन होलिकात्सव तक सीमित है.
अंगना में उड़त अबीर, बलम होली खों रिसाने.
कोरी चुनरिया कोरी है चोली, मैं कैसे खेलों उन संग होली.
तनकऊ धरे न धीर. बलम होली..... 
२.५ फाग:
फाग एक मात्रिक छंद है, जिसे वार्णिकता की कसौटी पर भी कसा जाता है।  गायकी में सुविधानुसार मात्राएँ गिराने या बढ़ाने ही नहीं अलग शब्द जोड़ने की भी स्वतंत्रता फाग-गायक ले लेता है जिससे उसकी गायकी औरों से भिन्न और विशिष्ट हो सके। सामान्यत: ‘अरे हाँ-- -- -,’ के दीर्घ आलाप के साथ फाग प्रारंभ होती है.फिर एक गायक मुखड़े (ध्रुव पंक्ति) को राग के साथ उठाता है, जिसे शेष गायक दो दलों में बँटकर गाते हैं। एक तरह के प्रतियोगी भाव से, दूसरे दल पर चढ़कर, उसे चारों खूँट चित्त करने की मुद्रा में गायकों का हाव-भाव, हाथ- पैरों की थिरकन और साजिंदों के साथ ताल-मेल, फाग-गायन की विशेषताएँ होती हैं। टिमकी, मृदंग और मजीरे के बिना फाग की कल्पना अधूरी है। फाग की प्रथम अर्धाली १९ मात्राओं की होती है, अर्धाली के अंत में दो गुरु (SS) या दो लघु एवं एक गुरु (IIS) या एक गुरु और दो
लघु (SII) होते हैं, मुखड़े की दूसरी अर्धाली १३ मात्रा की होती है तथा अंत में गुरु लघु(SI) होते हैं।  फाग के अंतरे २४-२४ मात्राओं के होते है, जिनके चार चरण होते है। पहले दो रोला छंद में ११-१३ मात्राओं और अंत में दो गुरु (SS) तथा अंतिम दो दोहे की २४ मात्राएँ होती है और अंत में गुरु लघु(SI)।  मुखड़े अथवा अंतरे की अंतिम अर्धाली से बाद वाला अंतरा प्रारंभ होता है। कहीं-कहीं  बालमा अथवा लाल शब्द जोड़कर विशेष लय-लोच के साथ फाग गाई जाती है। विषयानुसार रामावतारी, कृष्णावतारी, सुराजी, त्यौहारी, मतवारी, व्यवहारी, श्रृंगारी, हास्य-व्यंग अथवा किसानी फागें होती हैं।  ईसुरी की (१६-२२ मात्राओं की) चौकड़िया फागें प्रचलित हैं।  बलीराम तथा नीलकंठ फाग लेखन में ख्यात रहे। 
हम खों बिसरत नहीं बिसारी, हेरन हँसी तुम्हारी.
जुबान विशाल चाल मतवाली, पतरी कमर इकारी.
भौंह कमान बान सी ताने, नजर तिरीछी भारी.
'ईसुर' कात हमारे कोदें, तनक हेर लो प्यारी...   ( नायिका वर्णन, ईसुरी)
सेना सजी करन अलबेला की, दल पनिया पंथ दिखाय. (महाभारत, नीलकंठ)
दुल्हन बनी सियाजू बैठीं हैं, दूल्हा हैं राजाराम.  (मानस-फाग,  देवराज)
समर में जूझ गयीं दुर्गा रानी, जग जाहर कर लओ नाम. (वीर गाथा, आचार्य भगवत दुबे)
२.६ राई / राही :
राई की एक ही धुन है।  यह अलग बात है कि जिसके कंठ में ईश्वरीय प्रदत्त लोच, हरकतें व परिपक्वता होती है, उसके राई गायन में निखार आ जाता है। राई गायिका कभी ताल सहित गायन करती है, कभी ताल रहित। एक ही पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है। इसमें ‘ए दैया’, ‘ऐ भईया’, ‘ऐ राजा’, ‘हाय’, ‘अरे’, ‘अरी’, ‘अर रा रा’ की टेक भावाभिव्यक्ति में सहायक होती है और कर्णप्रिय भी होती है।  ढोलक और मृदंग मुख्य वाद्य हैं। रमतूला, टिमकी, मँजीरा, घुँघरू और सारंगी का भी प्रयोग होता है।
 - टिमकी में गणेश, टिमकी मेंs गणेsश, ढोलक में बैठी मैया शारदा.
- ऊंसई लै ल्यो प्रान, ऊंsसई लै ल्यो प्राsन, हाय! तिरछी नजरिया नें घालियो.
- भोंरा बन गए नंदलाल, बेला कली बन गईं राधिका 
यह २९ मात्राओं का लोक-छंद है जिसमें सामान्यत: १०-१९ पर यति होती है. कई बार गायन की दृष्टि से मात्राएँ घट-बढ़ भी जाती हैं. प्रथम अर्धाली के अंत में गुरु-लघु(SI) तथा दूसरी के अंत में लघु –गुरु(IS) का उच्चारण रस उत्पन्न करता है।राई के साथ ख्याल, फाग, टोरा, फुंदरिया और स्वांग गाये जाते हैं-- -
२.७ टोरा:
जइयो ने गोरी कोउ मेला में, मेला में री, झमेला में. जइयो ने 
ओ मेला में सारी फटत है, जम्फर फटत पतेला में. जइयो ने 
ओ मेला में बड़ी बदनामी, पूछत ने कोई धेला में. जइयो ने-- -
२.८ स्वांग:
राई नृत्य की लम्बी और चरम उत्तेजना के शमन के लिए बीच-बीच में स्वांग किए जाते हैं। ये २ या ४ पंक्तियों के हल्के-फुल्के हास्य के साथ मार्मिक-व्यंग गीत होते हैं:
हातों में डरी हतकड़ी, पावन डरी जंजीर. जाय कहो उस छैल से, कोरट में करें अपील.
हमाये हिलमिल के छुड़ा लेहें बालमवा-- --
३. यात्रा गीत:
३.१ बंबुलिया:
संक्रांति, शिवरात्रि, बसंत पञ्चमी आदि पर्वों अथवा किसी भी दिन नर-नारी एक साथ बंबुलिया गाते हुए यात्रा करते जाते हैं। सामूहिक यात्राओं का उद्देश्य तीर्थ-स्नान, देव-दर्शन, पूजा-अर्चन, काँवर से जल लाकर इष्ट को अर्पण करना होता है। (व्यक्तिगत यात्राओं में मायके से ससुराल जाती लड़कियाँ नर्मदा को माँ मानते हुए इन्हें गाकर मनोभाव व्यक्त करती है। -सं.)  बंबुलिया का ताना-बाना मात्रिक है, परंतु वार्णिक अर्हताएँ भी हैं। इनमें चार पद होते हैं। प्रथम पद में १४ मात्राएँ  होती हैं जो पंक्ति के पहले 'अरे' जोड़ने से १७ हो जाती हैं। दूसरे पद में प्रथम पद की अंतिम ९ मात्राएँ लेकर ८ मात्राएँ नई जोड़ी जातीं हैं। तीसरे पद में १०  या १२ मात्राएँ होती हैं, चौथे पद में प्रथम पद की पुनरावृत्ति होती है। प्रथम पद नगण से प्रारंभ तथा दूसरी अर्धाली के अंत में गुरु (स) की उपस्थिति लालित्य प्रदान करती है। इसे बिना वाद्य के भी गाया जाता है। यात्रा में, खेत-खलिहान में तथा तीजा आदि उत्सवों पर गायक दो दलों में बँटकर बंबुलिया गाते हैं। बंबुलिया गीत यू ट्यूब पर भी उपलब्ध हैं। अधिक आनंद तब आता है जब महिलाओं व पुरुषों के प्रतिस्पर्धी दल हों:
- दरस की अरे, बेरा तो भई, बेरा तो भई, रेsss  पट खोलो, छबीले महराज हो, दरस की –
-  नरबदा मइया! ऐसी तो मिली रे, ऐसी तो मिली, जैसे मिले मतारी अरु बाप रेsss . नरबदा मैया हो
३.२ दिवारी:  बुंदेलखंड की गाथाओं को इसी श्रेणी में लिया जाता है. बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में चरवाही लोकगाथाएँ वाचिक परंपरा में आईं। वे प्राकृत की ‘गाहा’ यानि ‘गाथा’ पर आधारित हैं। संक्षिप्त आख्यान ‘गहनई’ कहा जाता है, जिसमें कन्हैया और गोपी की गाथा है। गहनई चौदहवीं सदी के आस-पास की मानी गयी हैं, कारसदेव और धर्मा साँवरी की गाथाएँ ‘गाहा’ के रूप में हैं जबकि उसके बाद की गहनई में दिवारी गीतों का लोक छंद अपनाया गया है। दिवारी-गीत नृत्य के साथ गाए जाते हैं जिनमें मोनिया नृत्य, जबाबी दिवारी और कछियानी दिवारी (गहनई का रूप) प्रमुख है।आमतौर पर इसमें दोहे होते है, कहीं-कहीं बीच में रसिया भी गाए जाते हैं:
- सदा भवानी दाहिने, सनमुख खड़े गणेश।
तीन देवता रक्षा करें, ब्रिम्हा बिस्नु महेस। (सुमरनी दिवारी)
-  ब्रिंदाबन की गैल में, इक पीपर इक आम।
जे तरे बैठे दो जने, इक राधा इक श्याम। ( मोनिया नृत्य, कन्हैया कैसेट टीकमगढ़ से)
- राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।
अंत काल पछिताओगे, प्रान जाएँगे छूट। (अहीर नृत्य, सागर)
- राधा तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन?
तीन लोक चौदह भुवन, सब तेरे आधीन। (कछियानी दिवारी, रसिया के बीच दोहा)
४. अन्य गीत:
इन गीतों में बुंदेलखंड की बहुविध झाँकिया दिखाई देती हैं। धर्म-आध्यात्म (भजन), घर-परिवार, आपसी नोंक-झोंक, बाल-गीत, लोरियाँ, खेल-गीत, नौरता, चक्की से नाज पीसती गातीं महिलाएँ (प्रभाती, हरबोले), खेतों में काम करते मेहनतकश लोग (बिलवारी), बदलते मौसम के गीत, कजली (कजरी), सैरा, ढिमरहाई (ढीमरों के लोकगीत), धुबियाई, (धोबियों के लोकगीत), मछरहाई (मछुआरों के लोकगीत) ,लुहरयाई (लुहारों के गीत), गाँव की चौपाल, गम्मत, आल्हा, अटका आदि अनेक प्रकार के लोकगीत वीर-प्रसू बुंदेली माटी और जन-मन को रस-सिक्त करते रहते हैं।
४.१ आल्हा:
वीरों का छंद आल्हा बुंदेलखंड की ही देन है। इसे वीर और लावणी (महाराष्ट्र में) भी कहा जाता है। आल्हा ‘सत’ और ‘पत’ पर मर मिटनेवाले बुंदेली वीरों का आख्यान है। आल्हा में १६-१५ मात्राओं पर यति होती है। पदांत में ताल (SI) आवश्यक है। जगनिक का ‘आल्ह-खंड’ एक प्रबंध काव्य है, जिसमें महोबा के कालजयी महावीर द्वय आल्हा-ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन है। (आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया बिन सें हार गयी तलवार -सं.) आल्हा बहुत ओज-पूर्ण छंद है, मेघ-गर्जन के साथ अल्हैतों (आल्हा-गायकों) का अंग-अंग फड़कने लगता है और श्रोताओं की हृदय गति बढ़ती जाती है और सुनाई देती है वीर-हुंकार:
बारह बरिस लों कूकर जिए, औ' तेरह लों जिए सियार।
बरिस अठारह छत्री जिए, आगे जीवन को धिक्कार।।
अपनी दीर्घ कालयात्रा में इन लोकगीतों का बहुत कुछ कलेवर बदल गया है, भाषा भी, कथ्य भी, सुनने वाले भी, सुनाने वाले भी। साहित्यिक रूप में सुरक्षित-संरक्षित न रहने पर भी जन-जन के कंठ का हार बने इन लोकगीतों की ध्वनियाँ-प्रतिध्वनियाँ अनेक बल खातीं हुईं अब तक चलीं आ रहीं हैं। अंत में; लोकगीतों-विशेषत; संस्कार गीतों के संबंध  में दो बातें प्रस्तुत कर इस आलेख को समाप्त करना चाहता हूँ।
१. संस्कार गीतों का अपना पैमाना होता है, उन्हें मापने के लिए दिल चाहिए, दिमाग नहीं। अग्रज आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' छंदशास्त्र पर महत्वपूर्ण, बृहद, मौलिक कार्य कर और करा रहे हैं। इन संस्कार गीतों को छंद-शास्त्र की कसौटी पर कसने कर इनके रचना-मानक निर्धारण की दिशा में सचेष्ट हैं। ऐसा करने का उद्देश्य लोकगीतों में अन्तर्निहित छंदों को पिंगलीय छंदों  के साथ जोड़ना है। वे ऐसा कर सके तो इन्हें स्थायित्व तथा पिंगल को विपुल नव छंद मिल सकेंगे।
२. संस्कार-गीत घर-परिवार की महिलाओं की थाती हैं। अवसर विशेष पर स्व-स्फूर्त वे प्रमुदित होकर गाने लगती हैं और वातावरण को अनुकूल बनातीं हैं। शनै:-शनै: यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि, राजपूताने की
रुदालियों जैसी बुंदेलखंड में बधावा और ब्याब पर बाहर से गानेवाली लाना पड़ें।
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संपर्क: २०१ शास्त्री नगर,गढ़ा, जबलपुर. चलभाष: ९३००१०४२९६, ७०००३८८३३२, ईमेल: pawarss2506@gmail.com
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गीत: जन-गण ने बस इतना चाहा

एक रचना:
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जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
सूख न जाए कहीं तुम्हारी, आँखों का पानी ही सारा. 
करो सफाई गंगा की तुम, गंगाजल हो जाए खारा.
कभी राम का, कभी कृष्ण का, कभी नाम शंकर का जपते- 
मस्जिद-गिरिजा क्या तुमको तो लगे मदरसा भी अब प्यारा. 
सीता, राधा, पार्वती को छोड़ 
अकारण कहो: 'न फिसला.'
जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
हरिजन के घर भोजन करते, होटल से आता है खाना. 
सचमुच ही हो निपुण-कुशल अब, सीख गए हो बात बनाना.
'गोरख' का अनुयायी भी अब, सत्ता की माया का मारा-
'भाग मछन्दर' कहे न; उससे वोट माँगता सुगढ़-सयाना.
लोकतंत्र की खिली कमलिनी 
देख हरकतें जाए न कुम्हला.
जन-गण नेबस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
'बात' बनाने में माहिर है, 'सपनों का सौदागर' माना.
सारी दुनिया में जाहिर है, चाहे सकल विरोध मिटाना.
लोकतंत्र की परिपाटी है, बनें विरोधी धुर हमजोली-
राष्ट्रवाद-हिंदुत्व डुगडुगी, बजा चाहते गाल बजाना.
पत्थर ह्रदय तुम्हारा, मरते 
देख कृषक को तनिक न पिघला.
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
मिलें अल्प सीटें तो भी तुम, येन-केन सरकार बनाते.
हे जुगाड़-तिकड़म के स्वामी!, गले लगा ठेंगा दिखलाते.
गिरगिट हारा रंग बदलते देख, करतबों से मरकट भी-
भारत की हर कुर्सी शंकित, जब से देखा आँख गड़ाते.
शिव-गण सस्ते पेट्रोल को, 
महँगाकर इठलाया-मचला.
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
*
शकुनी, कंस व माहुल मामा, का अवतार नया प्रगटा है ,  
जलें-मरें भांजियाँ बिचारी, यह निज सत्ता में सिमटा है.
कलप रहे पेंशनर बिचारे, रोजगार बिन युवा रो रहे- 
मेक-मेड इंडिया माल में, हर कुटीर उद्योग पिटा है.
नफरत काजल लगा, रतौंधी 
वाली आँख गयी क्या पगला?
जन-गण ने बस इतना चाहा, 
तुम वादों को कहो न जुमला.
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१२.५.२०१८ 
(इस रचना का किसी व्यक्ति या देश से कोई संबंध नहीं है.) 

दोहा सलिला

दोहा सलिला:
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अनिल अनल भू नभ 'सलिल', पंचतत्वमय सृष्टि। 
मनुज शत्रु बन स्वयं का, मिटा रहा खो दृष्टि
। 
*
'सलिल' न हो तो किस तरह, हो निर्जीव सजीव?
पंचतत्व संतुलित रख, हो शतदल राजीव
*
जीवन चक्र चला सलिल, बरसे बह हो भाप। 
चक्र रोककर सोचिए, जी पाएँगे आप?
*
सलिल न तो मरुथल जगत, मिटे किस तरह प्यास? 
हास न होगी अधर पर, शेष न होगी आस
अगर चाहते आप हो, सकल सृष्टि संजीव। 
स्वच्छ सलिल-धारा रखें, खुश हों करुणासींव।  
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