दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
शुक्रवार, 18 मई 2018
देवरहा बाबा
गुरुवार, 17 मई 2018
मधुमालती छंद
मंगलवार, 15 मई 2018
दोहा सलिला
दोहा सलिला
निवेदन
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दोहा इंगित में कहे, सरल बना; सच क्लिष्ट।
मति अनुरूप समझ सकें, पाठक सुमिरें इष्ट।।
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भाव-अर्थ त्यों शब्द में, ज्यों बारिश-जलबिंदु।
नहीं पुरातन; सनातन, गगन चंद्रिका इंदु।।
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संकेतों को ग्रहणकर, चिंतन-मनन न भूल।
टहनी पर दोनों मिलें, फूल चुने या शूल।।
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जब भी निकले बात तो, जाती है वह दूर।
समझदार सुन-समझता, सुने न जो मद-चूर।।
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अपनी-अपनी समझ है, अपना-अपना बोध।
मन न व्यर्थ प्रतिरोध कर, तू क्यों बने अबोध।।
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मिले प्रेरणा तो ग्रहण, कर छाया रह मौन।
पुष्पाए मन-वाटिका, कब-क्यों जाने कौन?
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सुमन सु-मन की लता पर, खिलते बाँट सुगंध।
अमरनाथ-सिर शशि सदृश,
चढ़ते तज भव-बंध।।
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श्यामल पर गोरी रिझे, गोरी चाहें श्याम।
धार पुनीता जमुन की, साक्षी स्नेह अनाम।।
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रे मन! उनको नमन कर, जो कहते आचार्य।
उनके मन में बसा है, सकल सृष्टि-प्राचार्य।।
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जिया प्रजा में ही सदा, किंग-क्वीन सच मान।
भक्त बिना कब हो सका, परमब्रम्ह भगवान।।
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करता है राजेंद्र कब, आगे बढ़ श्रमदान।
वादे को जुमला बता, बने नरेंद्र महान।।
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15.5.2018
सोमवार, 14 मई 2018
बालकवि बैरागी

चाहे ये उपवन बिक जाएँ
चाहे सौ फागुन बिक जाएँ
पर मैं गंध नहीं बेचूँगा, अपनी गंध नहीं बेचूँगा
जिस डाली ने गोद खिलाया जिस कोंपल ने दी अरुणाई
लक्षमन जैसी चौकी देकर जिन काँटों ने जान बचाई
इनको पहिला हक आता है चाहे मुझको नोचें-तोड़ें
चाहे जिस मालिन से मेरी पाँखुरियों के रिश्ते जोड़ें
ओ मुझ पर मंडरानेवालो!
मेरा मोल लगानेवालो!!
जो मेरा संस्कार बन गई वो सौगंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा- चाहे सभी सुमन बिक जाएँ।
मौसम से क्या लेना मुझको? ये तो आएगा-जाएगा
दाता होगा तो दे देगा, खाता होगा तो खाएगा
कोमल भँवरों के सुर-सरगम, पतझारों का रोना-धोना
मुझ पर क्या अंतर लाएगा पिचकारी का जादू-टोना?
ओ नीलम लगानेवालों!
पल-पल दाम बढ़ानेवालों!!
मैंने जो कर लिया स्वयं से वो अनुबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ।
मुझको मेरा अंत पता है, पँखुरी-पँखुरी झर जाऊँगा
लेकिन पहिले पवन-परी संग एक-एक के घर जाऊँगा
भूल-चूक की माफी लेगी, सबसे मेरी गंध कुमारी
उस दिन ये मंडी समझेगी, किसको कहते हैं खुद्दारी
बिकने से बेहतर मर जाऊं अपनी माटी में झर जाऊं
मन ने तन पर लगा दिया जो वो प्रतिबंध नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ।
मुझसे ज्यादा अहं भरी है, ये मेरी सौरभ अलबेली
नहीं छूटती इस पगली से, नीलगगन की खुली हवेली
सूरज जिसका सर सहलाए, उसके सर को नीचा कर दूँ?
ओ प्रबंध के विक्रेताओं!
महाकाव्य के ओ क्रेताओं!!
ये व्यापार तुम्हीं को शुभ हो मुक्तक छंद नहीं बेचूँगा
अपनी गंध नहीं बेचूँगा, चाहे सभी सुमन बिक जाएँ।
दोहा सलिला
दोहा सलिला:
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श्वास-श्वास है परीक्षा, उत्तर मात्र प्रयास।
आस न खोना हौसला, अधर सजाना हास।।
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जो खुद ले निज परीक्षा, पल-पल रहकर मौन।
उससे अच्छा परीक्षक, परीक्षाsर्थी कौन?
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खुद से खुद ही पूछता, है जो कठिन सवाल।
उसको मिले जवाब भी, कभी न झुकता भाल।।
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वसुधा की ले परीक्षा, रवि बरसाकर आग।
छाया दे तरुवर तुरत, टेसू गाए फाग।।
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खोटे सिक्के पास हैं, खरे हो रहे फेल।
जनगण बेबस परीक्षक, रहा नकलची झेल।।
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14.5.2018, TIET Jabalpur
salil.sanjiv@gmail.com
रविवार, 13 मई 2018
लघुकथा प्रश्नोत्तरी, laghukatha prashnottaree
Shiva Tandava Stotram with subtitles
श्री श्री रविशंकर जयंती:दोहांजलि
गुरु जलवत निर्मल-तरल, क्षीर लुटाते घोल।
पंकज रख तलहटी में, बाँटें पंकज बोल।।
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प्रवहमान हैं पवनवत, दूर करें दुर्गंध ।
वैचारिक ताजी हवा, प्रग्या परक सुगंध।।
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अग्नि बनें गुरु भस्मकर, भ्रम विद्वेष अशांति।
कच्चे को देते पका, कर वैचारिक क्रांति।।
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गुरु वसुधा हैं मातृवत, करते सबसे स्नेह।
ममता-करुणा-सिंधुसम, दूर करें संदेह।।
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गुरु विस्तीर्ण-विरा़ट नभ, दस दिश आभ अनंत।
शून्य-शब्द में व्याप्त हैं, ध्वनि बनकर गुरु संत।।
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पंचतत्व गुरु-शिष्य हैं, एक-एक मिल एक।
पारस पा लोहा बने, सोना सहित विवेक।।
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गिरिवर अनहद नाद हैं, सकल सृष्टि में व्याप्त।
आप आप में लीन हों, बना आप को आप्त।।
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salil.sanjiv@gmail.com, 9425183244.
शनिवार, 12 मई 2018
साहित्य त्रिवेणी ३. सुरेन्द्र सिंह पवार बुंदेली लोक गीतों में छंद-वैविध्य
कार्तिक का महिना पवित्र माना गया है। महिलाएँ एक माह तक भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए व्रत और उपवास रखतीं हैं, सुबह होने के साथ लोक संगीत फूट पड़ता है:
नौ दिनों तक भगतें, (जस, जवारे, अलाव गीत, भजन -सं.) और देवी गीत गाए जाते हैं। लोक कलाकार अपने लोक वाद्य ढोलक, नगड़िया, झेला, झाँझ, मजीरा, लेकर झूम-झूम कर गाते हैं-
यह मात्रिक छंद है, ध्रुव पंक्ति में १८ मात्राएँ, अंत में ‘हो माँ’ की स्थायी टेक तथा अन्तरा में १२-९ पर यति और प्रथम अर्धाली के अंत में ‘रे’ का प्रभावशाली प्रयोग होता है :
होली या होरी में वर्ण्य विषय रंग-गुलाल खेलना है जिसमें राधा-कृष्ण की होली, देवर-भौजाई की होली, गोप-गोपियों की होली तथा राम-सीता की होली प्रमुख हैं. होली का गायन होलिकात्सव तक सीमित है.
फाग एक मात्रिक छंद है, जिसे वार्णिकता की कसौटी पर भी कसा जाता है। गायकी में सुविधानुसार मात्राएँ गिराने या बढ़ाने ही नहीं अलग शब्द जोड़ने की भी स्वतंत्रता फाग-गायक ले लेता है जिससे उसकी गायकी औरों से भिन्न और विशिष्ट हो सके। सामान्यत: ‘अरे हाँ-- -- -,’ के दीर्घ आलाप के साथ फाग प्रारंभ होती है.फिर एक गायक मुखड़े (ध्रुव पंक्ति) को राग के साथ उठाता है, जिसे शेष गायक दो दलों में बँटकर गाते हैं। एक तरह के प्रतियोगी भाव से, दूसरे दल पर चढ़कर, उसे चारों खूँट चित्त करने की मुद्रा में गायकों का हाव-भाव, हाथ- पैरों की थिरकन और साजिंदों के साथ ताल-मेल, फाग-गायन की विशेषताएँ होती हैं। टिमकी, मृदंग और मजीरे के बिना फाग की कल्पना अधूरी है। फाग की प्रथम अर्धाली १९ मात्राओं की होती है, अर्धाली के अंत में दो गुरु (SS) या दो लघु एवं एक गुरु (IIS) या एक गुरु और दो
राई की एक ही धुन है। यह अलग बात है कि जिसके कंठ में ईश्वरीय प्रदत्त लोच, हरकतें व परिपक्वता होती है, उसके राई गायन में निखार आ जाता है। राई गायिका कभी ताल सहित गायन करती है, कभी ताल रहित। एक ही पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है। इसमें ‘ए दैया’, ‘ऐ भईया’, ‘ऐ राजा’, ‘हाय’, ‘अरे’, ‘अरी’, ‘अर रा रा’ की टेक भावाभिव्यक्ति में सहायक होती है और कर्णप्रिय भी होती है। ढोलक और मृदंग मुख्य वाद्य हैं। रमतूला, टिमकी, मँजीरा, घुँघरू और सारंगी का भी प्रयोग होता है।
- टिमकी में गणेश, टिमकी मेंs गणेsश, ढोलक में बैठी मैया शारदा.
जइयो ने गोरी कोउ मेला में, मेला में री, झमेला में. जइयो ने
राई नृत्य की लम्बी और चरम उत्तेजना के शमन के लिए बीच-बीच में स्वांग किए जाते हैं। ये २ या ४ पंक्तियों के हल्के-फुल्के हास्य के साथ मार्मिक-व्यंग गीत होते हैं:
संक्रांति, शिवरात्रि, बसंत पञ्चमी आदि पर्वों अथवा किसी भी दिन नर-नारी एक साथ बंबुलिया गाते हुए यात्रा करते जाते हैं। सामूहिक यात्राओं का उद्देश्य तीर्थ-स्नान, देव-दर्शन, पूजा-अर्चन, काँवर से जल लाकर इष्ट को अर्पण करना होता है। (व्यक्तिगत यात्राओं में मायके से ससुराल जाती लड़कियाँ नर्मदा को माँ मानते हुए इन्हें गाकर मनोभाव व्यक्त करती है। -सं.) बंबुलिया का ताना-बाना मात्रिक है, परंतु वार्णिक अर्हताएँ भी हैं। इनमें चार पद होते हैं। प्रथम पद में १४ मात्राएँ होती हैं जो पंक्ति के पहले 'अरे' जोड़ने से १७ हो जाती हैं। दूसरे पद में प्रथम पद की अंतिम ९ मात्राएँ लेकर ८ मात्राएँ नई जोड़ी जातीं हैं। तीसरे पद में १० या १२ मात्राएँ होती हैं, चौथे पद में प्रथम पद की पुनरावृत्ति होती है। प्रथम पद नगण से प्रारंभ तथा दूसरी अर्धाली के अंत में गुरु (स) की उपस्थिति लालित्य प्रदान करती है। इसे बिना वाद्य के भी गाया जाता है। यात्रा में, खेत-खलिहान में तथा तीजा आदि उत्सवों पर गायक दो दलों में बँटकर बंबुलिया गाते हैं। बंबुलिया गीत यू ट्यूब पर भी उपलब्ध हैं। अधिक आनंद तब आता है जब महिलाओं व पुरुषों के प्रतिस्पर्धी दल हों:
इन गीतों में बुंदेलखंड की बहुविध झाँकिया दिखाई देती हैं। धर्म-आध्यात्म (भजन), घर-परिवार, आपसी नोंक-झोंक, बाल-गीत, लोरियाँ, खेल-गीत, नौरता, चक्की से नाज पीसती गातीं महिलाएँ (प्रभाती, हरबोले), खेतों में काम करते मेहनतकश लोग (बिलवारी), बदलते मौसम के गीत, कजली (कजरी), सैरा, ढिमरहाई (ढीमरों के लोकगीत), धुबियाई, (धोबियों के लोकगीत), मछरहाई (मछुआरों के लोकगीत) ,लुहरयाई (लुहारों के गीत), गाँव की चौपाल, गम्मत, आल्हा, अटका आदि अनेक प्रकार के लोकगीत वीर-प्रसू बुंदेली माटी और जन-मन को रस-सिक्त करते रहते हैं।
वीरों का छंद आल्हा बुंदेलखंड की ही देन है। इसे वीर और लावणी (महाराष्ट्र में) भी कहा जाता है। आल्हा ‘सत’ और ‘पत’ पर मर मिटनेवाले बुंदेली वीरों का आख्यान है। आल्हा में १६-१५ मात्राओं पर यति होती है। पदांत में ताल (SI) आवश्यक है। जगनिक का ‘आल्ह-खंड’ एक प्रबंध काव्य है, जिसमें महोबा के कालजयी महावीर द्वय आल्हा-ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन है। (आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया बिन सें हार गयी तलवार -सं.) आल्हा बहुत ओज-पूर्ण छंद है, मेघ-गर्जन के साथ अल्हैतों (आल्हा-गायकों) का अंग-अंग फड़कने लगता है और श्रोताओं की हृदय गति बढ़ती जाती है और सुनाई देती है वीर-हुंकार:
२. संस्कार-गीत घर-परिवार की महिलाओं की थाती हैं। अवसर विशेष पर स्व-स्फूर्त वे प्रमुदित होकर गाने लगती हैं और वातावरण को अनुकूल बनातीं हैं। शनै:-शनै: यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि, राजपूताने की
गीत: जन-गण ने बस इतना चाहा
दोहा सलिला
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अनिल अनल भू नभ 'सलिल', पंचतत्वमय सृष्टि।
मनुज शत्रु बन स्वयं का, मिटा रहा खो दृष्टि।।
पंचतत्व संतुलित रख, हो शतदल राजीव।।
चक्र रोककर सोचिए, जी पाएँगे आप?

