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गुरुवार, 10 अगस्त 2017

navgeet

नवगीत:
संजीव
*
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
बम भोले है अपनी जनता
देती छप्पर फाड़ के.
जो पाता वो खींच चीथड़े
मोल लगाता हाड़ के.
नेता, अफसर, सेठ त्रयी मिल
तीन तिलंगे कूटते.
पत्रकार चंडाल चौकड़ी
बना प्रजा को लूटते.
किससे गिला शिकायत शिकवा
करें न्याय भी बंदी है.
पुलिस नहीं रक्षक, भक्षक है
थाना दंदी-फंदी है.
काले कोट लगाये पहरा
मनमर्जी करते भाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
पण्डे डंडे हो मुस्टंडे
घात करें विश्वास में.
व्यापम झेल रहे बरसों से
बच्चे कठिन प्रयास में.
मार रहे मरते मरीज को
डॉक्टर भूले लाज-शरम.
संसद में गुंडागर्दी है
टूट रहे हैं सभी भरम.
सीमा से आतंक घुस रहा
कहिए किसको फ़िक्र है?
जो शहीद होते क्या उनका
इतिहासों में ज़िक्र है?
पैसे वाले पद्म पा रहे
ताली पीट रहे दाऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
सेवा से मेवा पाने की
रीति-नीति बिसरायी है.
मेवा पाने ढोंग बनी सेवा
खुद से शरमायी है.
दूरदर्शनी दुनिया नकली
निकट आ घुसी है घर में.
अंग्रेजी ने सेंध लगा ली
हिंदी भाषा के स्वर में.
मस्त रहो मस्ती में, चाहे
आग लगी हो बस्ती में.
नंगे नाच पढ़ाते ऐसे
पाठ जां गयी सस्ते में.
आम आदमी समझ न पाये
छुरा भौंकते हैं ताऊ
मेरा नाम बताऊँ? हाऊ
ना दैहौं तन्नक काऊ
*
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दोहा

रिश्ते रिसते घाव से, देते पल-पल दर्द.
मगर न हों तो ज़िन्दगी, लगती तनहा-ज़र्द.

दोहा

पूर्ण इंदु लख गगन में, शिशु रवि सोचे मौन.
अब तक था मैं अकेला, सूजा आया कौन?

बुधवार, 9 अगस्त 2017

bundeli navgeet

बुन्देली नवगीत :
जुमले रोज उछालें
*
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
खेलें छिपा-छिबौउअल,
ठोंके ताल,
लड़ाएं पंजा।
खिसिया बाल नोंच रए,
कर दओ
एक-दूजे खों गंजा।
खुदा डर रओ रे!
नंगन सें
मिल खें बेंच नें डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
लड़ें नई,मैनेज करत,
छल-बल सें
मुए चुनाव।
नूर कुस्ती करें,
बढ़ा लें भत्ते,
खेले दाँव।
दाई भरोसे
मोंड़ा-मोंडी
कूकुर आप सम्हालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
बेंच सिया-सत,
करें सिया-सत।
भैंस बरा पे चढ़ गई।
बिसर पहाड़े,
अद्धा-पौना
पीढ़ी टेबल पढ़ रई।  
लाज तिजोरी
फेंक नंगई
खाली टेंट खंगालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
भारत माँ की
जय कैबे मां
मारी जा रई नानी।
आँख कें आँधर
तकें पड़ोसन
तज घरबारी स्यानी।
अधरतिया मदहोस
निगाहें मैली
इत-उत-डालें।
संसद-पनघट
जा नेताजू
जुमले रोज उछालें।
*
पाँव परत ते
अंगरेजन खें,
बाढ़ रईं अब मूँछें।
पाँच अंगुरिया
घी में तर
सर हाथ
फेर रए छूँछे।
बचा राखियो
नेम-धरम खों
बेंच नें
स्वार्थ भुना लें।
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ghanakshari

सावनी घनाक्षरियाँ :
सावन में झूम-झूम
संजीव वर्मा "सलिल"
*
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
*
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
घनाक्षरी रचना विधान :
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर,
मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में,
'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम,
गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण-
'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
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muktak

मुक्तक
वही अचल हो सचल समूची सृष्टि रच रहा
कण-कणवासी किन्तु दृष्टि से सदा बच रहा
आँख खोजती बाहर वह भीतर पैठा है
आप नाचता और आप ही आप नच रहा
*
श्री प्रकाश पा पाँव पलोट रहा राधा के
बन महेश-सिर-चंद्र, पाश काटे बाधा के
नभ तारे राकेश धरा भू वज्र कुसुम वह-
तर्क-वितर्क-कुतर्क काट-सुनता व्याधा के
*
राम सुसाइड करें, कृष्ण का मर्डर होता
ईसा बन अपना सलीब वह खुद ही ढोता
बने मुहम्मद आतंकी जब-जब जय बोलें
तब-तब बेबस छिपकर अपने नयन भिगोता
*
पाप-पुण्य क्या? सब कर्मों का फल मिलना है
मुरझाने के पहले जी भरकर खिलना है
'सलिल' शब्द-लहरों में डूबा-उतराता है
जड़ चेतन होना चाहे तो खुद हिलना है
*
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दिव्यनर्मदा
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मंगलवार, 8 अगस्त 2017

doha rakhi par

दोहा सलिला: 
अलंकारों के रंग-राखी के संग
संजीव 'सलिल'
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
बंध न = मुक्त रह, बंधन = मुक्त न रह
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना.
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
*

muktak

मुक्तक 
मधु रहे गोपाल बरसा वेणु वादन कर युगों से 
हम बधिर सुन ही न पाते, घिरे हैं छलिया ठगों से 
कहाँ नटनागर मिलेगा,पूछते रणछोड़ से क्यों?
बढ़ चलें सब भूल तो ही पा सकें नन्हें पगों से 
***

रंज ना कर मुक्ति की चर्चा न होती बंधनों में
कभी खुशियों ने जगह पाई तनिक क्या क्रन्दनों में?
जो जिए हैं सृजन में सच्चाई के निज स्वर मिलाने
'सलिल' मिलती है जगह उनको न किंचित वंदनों में 
***

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laghukatha

लघु कथा 
निर्दोष जुड़ाव का अर्थ        
*
जिस सड़क से रोज ही आती-जाती थी, आज वही सड़क उसके लिए कुरुक्षेत्र का मैदान बन गयी थी। काम निबटा कट घर लौटते हुए उसे न चाहते हुए भी देर हो ही गयी थी। कार में अकेला देखकर दो गुंडों ने पीछा कर रोका लिया और अब उसे कार से उतार कर अपनी कार में बैठाना चाहते थे। कार का बंद दरवाज़ा न खोल पाने के कारण वे अपने इरादे में सफल नहीं हो सके थे।  
अचानक ८-१० स्त्री-पुरुष आये और दोनों गुंडों को पकड़ कर जमकर ठुकाई करते हुए पकड़ लिया। भयभीत प्रतिष्ठा ने राहत की साँस लेते हुए विस्मय से उनका धन्यवाद करते हुए पूछा कि घरों में उन्हें पता कैसे चला और जहां लोग परिचित की भी सहायता नहीं करते वहाँ वे एक अपरिचित की सहायता के लिए कैसे आ गए?
एक महिला ने सड़क किनारे की इमारत की बालकनी में खड़े एक बच्चे की ओर इशारा किया तो प्रतिष्ठा को याद आया एक दिन विद्यालय से लौटा वह बच्चा सड़क पर लगातार यातायात के कारण सहमा सा किनारे खड़ा था, देखते ही प्रतिष्ठा ने कार रोककर उसे सड़क पार कराकर घर तक पहुँचाया था। इधर-उधर देखते बच्चे की नज़र जैसे ही प्रतिष्ठा की कार और उन गुंडों पर पड़ी वह लपक कर अपने घर में घुसा और अपने माता-पिता से तुरंत मदद करने की जिद की और वे अपने पड़ोसियों के साथ तुरंत आ गए। आज प्रतिष्ठा ही नहीं, वे सब अनुभव कर रहे निर्दोष जुड़ाव का अर्थ। 
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लघु कथा 
अस्मिता का मंत्रोच्चार       
*
उसे एकाकी कार चलाते देख रात के सन्नाटे में मनमानी का सुनहरा अवसर जान हमलावर हुए कुत्सित मनोवृत्ति के दो नेता पुत्रों को गिरफ्तार कराकर अस्मिता ने चैन की साँस ली। सुबह समाचार सुने तो पता चला कि पुलिस ने गैर जमानती धाराएँ बदल कर दोनों को न केवल थाने से ही रिहा कर दिया अपितु उनकी खातिरदारी कर माफी भी माँगी क्योंकि वे नेता पुत्र थे। 
उसने हार न मानते हुए थाणे में ही इसका विरोध किया। सुराग मिलते ही पत्रकारगण एकत्र हो गए। 
पूरा प्रकरण खबरिया चैनलों के आकर्षण का केंद्र बन गया। विपक्षी नेताओं को सता पक्ष की बखिया उधेड़ने का सुनहरा मौक़ा मिला। सत्ता दल की महिला प्रवक्ता ने अपने दल को नारी-हितों का रक्षक बताया तो चारों ओर से घेर ली गयीं। जन भावनाओं का सम्मान करते हुए सपूतों की करतूत के कारण नेताजी को त्यागपत्र देना पड़ा।    
लोकतंत्र के मंदिर में गूँजने लगा अस्मिता का मंत्रोच्चार।   
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लघु कथा 
पथ की अशेषता      
*
'आधी रात हो गयी है, तुझे बुलाते हुए संकोच हो रहा है लेकिन...' 
"तू चिंता मत कर, मैं आती हूँ;" कहकर निकल पड़ी वह।  
लाल बाती देख वाहन रोका तो पीछे एक वाहन में दो युवक दिखे, एक हाथ में बोतल थामे था और दूसरा छीनने की कोशिश कर रहा था। 
पीली बत्ती के हरे होते ही उसने अपनी धुन में कार आगे बढ़ा दी। धीरे-धीरे अन्य अन्य वाहन दायें-बायें मुड़े तो उसके वाहन के ठीक पीछे उन लड़कों का वाहन था। लडकों ने उसे अकेला देखा तो अपनी गति बढ़ाई और उसे रुकने का इशारा किया। 
सड़क का सूनापन देख उसने वाहन की गति बढ़ाने के साथ-साथ पुलिस का आपात संपर्क नंबर लगा स्थान और परिस्थिति की जानकारी दे दी। इस बीच उसके वाहन की गति कम हुई तो मौक़ा पाते ही दूसरा वाहन आगे निकला और उसके वाहन के ठीक आगे खड़ा हो गया। विवश होकर उसे रुकना पड़ा। लड़के उतर कर उसके वाहन का दरवाज़ा खोलने की कोशिश करने लगे। असफल रहने पर वे काँच पर मुक्के बरसाने लगे कि काँच टूटने पर दरवाज़ा खिलकर उसे बाहर घसीट सकें। 
परिस्थिति की गंभीरता को भाँपने के बाद भी उसने धीरज नहीं खोया और पुलिस के आपात नंबर पर लगातार संकेत करती रही। पुलिस न आई तो वह खुद को कैसे बचाये? सोचते हुए उसे बालों में फँसे क्लिप, कार में लगी सुगंध की शीशी का ध्यान आया। उसने शीशी तोड़ डाली कि काँच टूटने पर हाथ अंदर आते ही वह बिना देर दिए वार करेगी और दूसरी तरफ का दरवाज़ा खोल बाहर दौड़ लगा देगी। इस बीच उसने अपने पिता को भी स्थान सूचित कर दिया था। 
लड़कों का क्रोध, मुक्कों की बढ़ती रफ़्तार और मुकाबले के लिए तैयार वह... पल-पल युगों जैसा कट रहा था।  तभी पुलिस ने गुंडों को धर दबोचा।  
सैकड़ों बार सैंकड़ों पथों से गुजरने के बाद आज चैन की साँस लेते हुए जान सकी थी आत्मबल के पथ की अशेषता।   
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लघु कथा 
आँख मिचौली      
*
कल तक अपने मुखर और परोपकारी स्वभाव के लिए चर्चित रहनेवाली 'वह' आज कुछ और अधिक मुखर थी। उसने कब सोचा था कि समाचारों में सुनी या चलचित्रों में देखी घटनाओं की तरह यह घटना उसके जीवन में  घट जायेगी और उसे चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने लोगों के अप्रिय प्रश्नों के व्यूह में अभिमन्यु की तरह अकेले जूझना पड़ेगा। 
कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता मानो पुलिस अधिकारी, पत्रकार और वकील ही नहीं तथाकथित शुभ चिन्तक भी उसके कहे पर विश्वास न कर कुछ और सुनना चाहते हैं। कुछ ऐसा जो उनकी दबी हुई मनोवृत्ति को संतुष्ट कर सके, कुछ मजेदार जिस पर प्रगट में थू-थू करते हुए भी वे मन ही मन चटखारे लेता हुआ अनुभव कर सकें, कुछ ऐसा जो वे चाहकर भी देख या कर नहीं सके। उसका मन होता ऐसी गलीज मानसिकता के मुँह पर थप्पड़ जड़ दे किन्तु उसे खुद को संयत रखते हुए उनके अभद्रता की सीमा को स्पर्श करते प्रश्नों के उत्तर शालीनतापूर्वक देना था।  
जिन लुच्चों ने उसे परेशान करने का प्रयास किया वे तो अपने पिता के राजनैतिक-आर्थिक असर के कारण कहीं छिपे हुए मौज कर रहे थे और वह निरपराध तथा प्रताड़ित किये जाने के बाद भी नाना प्रकार के अभियोग झेल रही थी।  
वह समझ चुकी थी कि उसे परिस्थितियों से पार पाना है तो न केवल दुस्साहसी हो कर व्यवस्था से जूझते हुए छद्म हितैषी पुरुषों को मुँह तोड़ जवाब देना होगा बल्कि उसे कठिनाई में देखकर मन ही मन आनंदित होती महिलाओं के साथ भी लगातार खेलने होगी आँख मिचौली।   
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लघु कथा 
अंतर्विरोध     
*
कल तक पुलिस की वह वही हो रही थी कि उसने दो लड़कों द्वारा सताई जा रही लड़की को सुचना मिलते ही तत्काल जाकर न केवल बचाया अपितु दोनों अपराधियों को गिरफ्तार कर अगली सुबह अदालत में पेश करने की तैयारी भी कर ली। खबरची पत्रकार पुलिस अधिकारियों की प्रशंसा कर रहे थे। 
खबर लेने गए किसी पत्रकार ने अपराधी लड़कों को पहचान लिया कि एक सता पक्ष के असरदार नेता का सपूत और दूसरा एक धनकुबेर का कुलदीपक है।   
यह सुनते ही पुलिस अधिकारीयों के हाथ-पैर फूल गए। फ़ौरन से पेश्तर चलभाष खटखटाए जाने लगे। कचहरी भेजे जाने वाले कगाज़ फिर देखे जाने लगे, धाराओं में किया जाने लगा बदलाव, दोनों लुच्चों को बैरक से निकालकर ससम्मान कुर्सी पर बैठा कर चाय-पानी पेश किया जाने लगा, लापता बता दी गयी सी.सी.टी.वी. की फुटेज। 
दिल्ली से प्रधान मंत्री गरीब से गरीब आदमी को बिना देर किया सस्ता और निष्पक्ष न्याय दिलाने की घोषणा आकार रहे ठे और उन्हीं के दल के लोग लोकतंत्र के कमल को दलदल में दफना की जुगत में लगे उद्घाटित कर रहे थे कथनी और करनी का अन्तर्विरोध।     
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लघु कथा 
मीरा    
*
'ऐसा क्यों करें माँ? रिश्ता न जोड़ने का फैसला करने कोई कारण भी तो हो। दुर्घटना तो किसी के भी साथ हो सकती है। याद करो बड़की का रिश्ता तय हो जाने की बाद उसके पैर की हड्डी टूट गयी थी लेकिन उसके ससुरालवालों ने हमारे बिना कुछ कहे कितनी समझदारी से शादी की तारीख आगे बढ़ा दी थी, तभी तो वह ससुरालवालों पर जान छिड़कती है।.... वह बात और कैसे हो गई? वहाँ भी दुर्घटना हुई थी, यहाँ भी दुर्घटना हुई है। दुर्घटना पर किसका बस? आधी रात को क्यों गयी? यह नहीं मालुम, तुमने पूछा-जाना भी नहीं और उसे गलत मान लिया? 
तुम्हीं ने हम दोनों का रिश्ता तय किया, जिद करके मुझे मनाया और अब तुम्हीं?....  बदनामी उसकी नहीं, गुनहगारों की हो रही है। इस समय हमें उसके साथ मजबूती से खड़ा होकर न्याय-प्राप्ति की राह में उसकी हिम्मत बढ़ानी है। हम सबंध तोड़ेंगे नहीं, जल्दी से जल्दी जोड़ेंगे ताकि उसे तंग करनेवाला कितने भी असरदार बापका बेटा हो, कितनी भी धमकियाँ दे, हम देखें कि सियासत न उड़ा सके उस सिया के सत का मजाक, प्रेस न ले सके चटखारे। कानून अपराधी को सजा दे और अब हमारी व्यवस्था की अपंगता का विष पीने को मजबूर न हो वह मीरा।  
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लघु कथा 
काल्पनिक सुख 
*
'दीदी! चलो बाँधो राखी' भाई की आवाज़ सुनते ही उछल पडी वह। बचपन से ही दोनों राखी के दिन खूब मस्ती करते, लड़ते का कोई न कोई कारण खोज लेते और फिर रूठने-मनाने का दौर। 
'तू इतनी देर से आ रहा है? शर्म नहीं आती, जानता है मैं राखी बाँधे बिना कुछ खाती-पीती नहीं। फिर भी जल्दी नहीं आ सकता।'
"क्यों आऊँ जल्दी? किसने कहा है तुझे न खाने को? मोटी हो रही है तो डाइटिंग कर रही है, मुझ पर अहसान क्यों थोपती है?"
'मैं और मोटी? मुझे मिस स्लिम का खिताब मिला और तू मोटी कहता है.... रुक जरा बताती हूँ.'... वह मारने दौड़ती और भाई यह जा, वह जा, दोनों की धाम-चौकड़ी से परेशान होने का अभिनय करती माँ डांटती भी और मुस्कुराती भी। 
उसे थकता-रुकता-हारता देख भाई खुद ही पकड़ में आ जाता और कान पकड़ते हुई माफ़ी माँगने लगता। वह भी शाहाना अंदाज़ में कहती- 'जाओ माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे?' 
'अरे! हम भूले ही कहाँ हैं जो याद रखें और माफी किस बात की दे दी?' पति ने उसे जगाकर बाँहों में भरते हुए शरारत से कहा 'बताओ तो ताकि फिर से करूँ वह गलती'... 
"हटो भी तुम्हें कुछ और सूझता ही नहीं'' कहती, पति को ठेलती उठ पडी वह। कैसे कहती कि अनजाने ही छीन गया है उसका काल्पनिक सुख। 
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सोमवार, 7 अगस्त 2017

laghukatha

लघु कथा 
साधक की आत्मनिष्ठा  
*
'बेटी! जल्दी आ, देख ये क्या खबर आ रही है?' सास की आवाज़ सुनते ही उसने दुधमुँहे बच्चे को उठाया और कमरे से बाहर निकलते हुए पूछा- 'क्या हुआ माँ जी?'
बैठक में पहुँची तो सभी को टकटकी लगाये समाचार सुनते-देखते पाया। दूरदर्शन पर दृष्टि पड़ी तो ठिठक कर रह गयी वह.... परदे पर भाई कह रहा था- "उस दिन दोस्तों की दबाव में कुछ ज्यादा ही पी गया था। घर लौट रहा था, रास्ते में एक लड़की दिखी अकेली। नशा सिर चढ़ा तो भले-बुरे का भेद ही मिट गया। मैं अपना दोष स्वीकारता हूँ। कानून जो भी सजा दगा, मुझे स्वीकार है। मुझे मालूम है कि मेरे माफी माँगने या सजा भोगने से उस निर्दोष लडकी तथा उसके परिवार के मन के घाव नहीं भरेंगे पर मेरी आत्म स्वीकृति से उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा मिल सकेगी। मैं शर्मिन्दा और कृतज्ञ हूँ अपनी उस बहन के प्रति जो मुझे राखी बाँधने आयी थी लेकिन तभी यह दुर्घटना घटने के कारण बिना राखी बाँधे अपने घर लौट गयी। उसने मुझे अपने मन में झाँकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं उससे वादा करता हूँ कि अब ज़िंदगी में कभी कुछ ऐसा नहीं करूँगा कि उसे शर्मिन्दा होना पड़े। मुझे आत्मबोध कराने के लिए नमन करता हूँ उसे।" भाई ने हाथ जोड़े मानो वह सामने खड़ी हो।  
दीवार पर लगे भगवान् के चित्र को निहारते हुए अनायास ही उसके हाथ जुड़ गए और वह बोल पडी 'प्रभु! कृपा करना, उसे सद्बुद्धि देना ताकि अडिग और जयी रहे उस साधक की आत्मनिष्ठा।  
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