कुल पेज दृश्य

सोमवार, 7 अगस्त 2017

laghukatha

लघुकथा:
नीरव व्यथा
*
बहुत उत्साह से मायके गयी थी वह की वर्षों बाद भाई की कलाई पर राखी बाँधेगी, बचपन की यादें ताजा होंगी जब वे बच्चे थे और एक-दूसरे से बिना बात ही बात-बात पर उलझ पड़ते थे और माँ परेशान हो जाती थी। 
उसे क्या पता था कि समय ऐसी करवट लेगा कि उसे जी से प्यारे भाई को न केवल राखी बिना बाँधे उलटे पैरों लौटना पडेगा अपितु उस माँ से भी जमकर बहस हो जायेगी जिसे बचपन से उसने दादी-बुआ आदि की बातें सुनते ही देखा है और अब यह सोचकर गयी थी कि सब कुछ माँ की मर्जी से ही करेगी।  
बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक, अकेले और असमय उसे घर के दरवाजे पर देखकर पति, सास-ससुर चौंके तो जरूर पर किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया। ससुर जी ने लपककर उसके हाथ से बच्चे को लिया, पति ने रिक्शे से सामान उतारकर कमरे में रख दिया सासू जी उसे गले लगाकर अंदर ले आईं बोली 'तुम एकदम थक गयी हो, मुँह-हाथ धो लो, मैं चाय लाती हूँ, कुछ खा-पीकर आराम कर लो।' 
'बेटी! दुनिया की बिल्कुल चिंता मत करना। हम सब एक थे, हैं और रहेंगे। तुम जब जैसा चाहो बताना, हम वैसा ही करेंगे।' ससुर जी का स्नेहिल स्वर सुनकर और पति की दृष्टि में अपने प्रति सदाशयता का भाव अनुभव कर उसे सांत्वना मिली। 
सारे रास्ते वह आशंकित थी कि किन-किन सवालों का सामना करना पड़ेगा?, कैसे उत्तर दे सकेगी और कितना अपमानित अनुभव करेगी? अपनेपन के व्यवहार ने उसे मनोबल दिया, स्नान-ध्यान, जलपान के बाद अपने कमरे में खुद को स्थिर करती हुई वह सामना कर पा रही थी अपनी नीरव व्यथा का। 
***
salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा 
#विश्ववाणी हिंदी संस्थान 

laghukatha

लघुकथा:
समय की प्रवृत्ति  
*
'माँ! मैं आज और अभी वापिस जा रही हूँ।'  
"अरे! ऐसे... कैसे?... तुम इतने साल बाद राखी मनाने आईं और भाई को राखी बाँधे बिना वापिस जा रही हो? ऐसा भी होता है कहीं? राखी बाँध लो, फिर भैया तुम्हें पहुँचा आयेगा।"
'भाई इस लायक कहाँ रहा कहाँ कि कोई लड़की उसे राखी बाँधे? तुम्हें मालूम तो है कि कल रात वह कार से एक लड़की का पीछा कर रहा था। लड़की ने किसी तरह पुलिस को खबर की तो भाई पकड़ा गया।'
"तुझे इस सबसे क्या लेना-देना? तेरे पिताजी नेता हैं, उनके किसी विरोधी ने यह षड्यंत्र रचा होगा। थाने में तेरे पिता का नाम जानते ही पुलिस ने माफी माँग कर छोड़ भी तो दिया। आता ही होगा..."
'लेना-देना क्यों नहीं है? पिताजी के किसी विरोधी का षययन्त्र था तो भाई नशे में धुत्त कैसे मिला? वह और उसका दोस्त दोनों मदहोश थे।कल मैं भी राखी लेने बाज़ार गयी थी, किसी ने फब्ती कस दी तो भाई मरने-मरने पर उतारू हो गया।'
"देख तुझे कितना चाहता है और तू?"
'अपनी बहिन को चाहता है तो उसे यह नहीं पता कि  वह लड़की भी किसी भाई की बहन है। वह अपनी बहन की बेइज्जती नहीं सह सकता तो उसे यह अधिकार किसने दिया कि किसी और की बहन की बेइज्जती करे। कल तक मुझे उस पर गर्व था पर आज मुझे उस पर शर्म आ रही है। मैं ससुराल में क्या मुँह दिखाऊँगी? भाई ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। इसीलिए उसके आने के पहले ही चले जाना चाहती हूँ।'
"क्या अनाप-शनाप बके जा रही है? दिमाग खराब हो गया है तेरा? मुसीबत में भाई का साथ देने की जगह तमाशा कर रही है।"
'तुम्हें मेरा तमाशा दिख रहा है और उसकी करतूत नहीं दिखती? ऐसी ही सोच इस बुराई की जड़ है। मैं एक बहन का अपमान करनेवाले अत्याचारी भाई को राखी नहीं बाँधूँगी।' 'भाई से कह देना कि अपनी गलती मानकर सच बोले, जेल जाए, सजा भोगे और उस लड़की और उसके परिवार वालों से क्षमायाचना करे। सजा भोगने और क्षमा पाने के बाद ही मैं उसे मां सकूँगी अपना भाई और बाँध सकूँगी राखी। सामान उठाकर घर से निकलते हुए उसने कहा- 'मैं अस्वीकार करती हूँ 'समय की प्रवृत्ति' को।
***  
salil.sanjiv@gmail.com, # दिव्यनर्मदा

laghukatha

लघुकथा 
दूषित वातावरण 
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***

लघुकथा
निज स्वामित्व
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं।
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व? 
***

लघुकथा
शर संधान
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ।
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***

लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।

प्रवचन से ऊब चूका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
******
salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी_ब्लॉगर

samiksha

कृति चर्चा:
अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है.
सुरेंद्र पंवार 
‘शेष कुशल है’-- -- -श्री सुरेश तन्मय का चौथा काव्य-संग्रह है. वे नागझिरी,पश्चिमी निमाड़ के मूल निवासी हैं, नौकरी के सिलसिले में भोपाल रहे; सम्प्रति जबलपुर में सृजन-रत हैं. समीक्षित कृति में १९ छंद-मुक्त गीत संकलित हैं, जिनमें से एक ‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ पर यहाँ सविस्तार चर्चा की जा रही है.
‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ एक अतुकांत गीत है.इसमें सुरेश तन्मय की सरल-तरल भावनाओं की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति है-- सादगी से, सीधे-सादे शब्दों में. वैसे तो गीतकार लिखता है कि गाँव छोड़े ४६ वर्ष से अधिक हो गए हैं और उसे अपने गाँव की, घर की, घर के लोगों की याद आती है, स्वाभाविकतः गाँव और घर को अपने ‘नगीना’(छोटू) की याद आती होगी—कितनी? कैसे? कब?----- इन्हीं मूर्त एवम् अमूर्त भावनाओं का उव्देलन और प्रकटीकरण इस लम्बे गीत को जन्म देता है.

चिट्ठी, पत्र या पाती अभिव्यक्ति का एक ऐसा सशक्त माध्यम है जो मनकी गांठें खोलती है, अपनों से अपनी-बात कहती है—वे जो उसे कहना चाहिए और वे जो उसे नहीं कहना चाहिए.बकौल गीतकार—“चिट्ठी लिखनेवाले और पढनेवाले दोनों की समझ जब एक हो जाती है, तब अंतर्मन की पीडायें खुलकर मुखरित होती है.” यह अलग बात है, कि अब चिट्ठी-पत्री लिखना आउट ऑफ़ डेट हो गया. मोबाईल और उससे भी एक कदम आगे, भावहीन-व्हाटएप और आभाहीन फेसबुक ने पत्र-लेखन की सनातनी-परंपरा को समाप्त कर दिया है.

तन्मय जी एक सुशिक्षित-सुसंस्कारी परिवार से हैं,.उन्हें रिश्तों का मूल्य मालूम है. उनके अनुसार ‘अपनत्व और आत्मीयता से भरे गाँव के रिश्ते, रिश्ते होते है. सगे रिश्तों से मजबूत.’ और फिर यदि उनमें अंतरंगता हो तो सोने पर सुहागा-- -- ‘भाई तू बेटा भी तू ही’. ऐसे में रामादाजी, नानू-नाई, फूलमती, चम्पाबाई, शिवदानी, अंसारी चाचा, रघुनंदन के बड़े पिताजी, केशव पंडित, बड़े डिसूजा, कोने की बूढी अम्माजी, दूर के रिश्ते की लगती सुमन बुआ, मंजी दाजी और छोटे के बचपन का मित्र राजाराम-- -- ये सभी अपने और सिर्फ अपने ही रहे होंगे और उनके हर्ष-विषाद, उनके मिलन-विछोह अपने निजी नफा-नुकसान. एक सामान्य ग्राम्य-जन की तरह रचनाकार की भी झाड-फूंक,टोने- टोटके,गंडा-तावीज,पूजा- पाठ,पंडा-पुजारी में अटूट-आस्था है. वह भी किसी
दुर्घटना,अनिष्ट या अनहोनी की आशंका में इन्हीं का आसरा लेता है-- -

मन्नत किसी देव की/कोई अधूरी हो तो/ 
विधि विधान से उसे/शीघ्र पूरी करवाना.

गीतकार जहाँ पारिवारिक-परिवेश के प्रति सजग नजर आता है,वहीं अपने सामाजिक दायित्व-बोध के प्रति भी पूर्णतया जागरूक है. एक मुखिया के नाते(मुखिया मुख सों चाहिए-- ) परिवार को एकजुट रखना, तदानुकूल कुछ कठोर निर्णय लेना और अपने हिस्से का दर्द पीना -उसका जेठापन या बडप्पन कहा
जा सकता है—

समय लगेगा/हो जाऊंगा ठीक/नहीं तुम चिंता करना/
सहते सहते दर्द/हो गयी है आदत अब जीने की.

बड़े भाई की पत्री में गीतकार यह तो चाहता है कि संयुक्त परिवार न टूटे. परन्तु यह भी मान चाहता है कि छोटे,लाड़ी और छुटकू के साथ गाँव आये,जो कि वह कर सकता है; साधन सम्पन्न है,उसके पास एक अदद कार है और इसलिए, अपनी और अन्य-परिजनों के न आ पाने की मज़बूरी जताता है-- -

धरा आकाश के जैसे/यह दूरी है.

इस सन्दर्भ से साम्य रखता चंद्रसेन विराट के मधुर-गीत का मुखड़ा उल्लेखनीय है-- --“गज भर की दूरी भी सौ जोजन की हो जाती है”. हम भी यही चाहते हैं कि समाज की सबसे छोटी इकाई ‘कुटुंब’ या ‘परिवार’ का अस्तित्व बना रहे, “गज भर की दूरी” मिटे, पहल कोई भी करे -- -‘छोटे’ या ‘बड़े’. गीतकार ने बड़े भाई की चिट्ठी में गाँव के घरों की छप्पर-छानी ,वहां व्याप्त बंदरों का आतंक, मूलभूत स्वास्थ्य-सुविधाओं का अभाव, खुद एवम्प त्नी की बीमार स्थिति, गाय का मरा बछड़ा पैदा होना,गाय के लात मारने से लगी चोट, बंद पड़ा हैण्डपंप, गाँव के पास भरा नवगृह का मेला, बैलों का बाजार और सामूहिक शादी-सम्मेलन सभी की मौलिक चर्चा की है. एक बात गौर करने लायक अवश्य है कि अपने गाँव की दिशा और गाँव वालों की दशा बखानते कवि का स्वर अमिधात्मक नहीं रहता बल्कि वह कभी लक्षणा में बात करता है तो कभी व्यंजनायें कसता दिखाई देता है-- -- -
बड़े वुजुर्गों ने/पहले से ठीक कहा है/आगे आने वाला समय/विकट आएगा/
अचरज होगा देख के./भेदभाव की वारिश/ऐसी होगी/सींग बैल का केवल/
एक गीला होगा/और एक सींग उसका/ सूखा रह जायेगा.

मंजी दाजी की मोटर जब्ती और सिंचाई के अभाव में उनकी सूखती फसल को देखकर रचनाकार एकदम भड़क उठता है और कहता है –
किस्मत में किसान की/बिन पानी के बादल/रहते छाए.

वहीँ वर्तमान-व्यवस्था पर किया गया व्यंग कुछ-अलग ही रंग बिखेरता है---
पञ्च और सरपंच/स्वयं को जिला कलेक्टर/लगे समझने./
पंचायत का सचिव अंगूठे लेकर इनके/इन्हें दिखाता रहता/ हरदम सुन्दर सपने.
यहाँ ‘अंगूठे लेकर’ का प्रशस्य-प्रयोग किया गया है जो यह दर्शाता है कि
कवि की प्रतीकों,रूपकों और बिम्बों पर अच्छी पकड़ है. हाँ ! बाकी रही ग्राम्य-

अराजकता की बात, यह तो गीतकार ने स्वयं स्पष्ट किया है कि लोग सिर्फ उपलब्धियों का आकलन करते हैं, जिम्मेदारियों का नहीं. बन्दर-बाँट और अपनी- अपनी जुगत भिडाते छुटभैया नेताओं के कारण योजनाओं का लाभ आम ग्रामीण-जनों तक नहीं पहुंच पाता. ऐसा भी नहीं है कि सभी शासकीय योजनायें अलाभकारी हैं-
वैसे शासन के पैसों से/अच्छे भी कुछ काम हुए हैं/कच्ची गलियां और
रास्ते/कियेपत्थरों से पक्के हैं/और नालियाँ/गंदे पानी की/जो बहती इधर उधर
थीं/वे भी सब हो गयीं व्यवस्थित/अब गलियों में पहले जैसा/नहीं अँधेरा फैला

रहता/बिजली के रहने से अब तो/चारों ओर उजाला रहता.

फिर भी, कृषि और कुटीर-उद्योगों के प्रति उदासीनता,कर्ज में डूबता-मरता किसान तथा कस्बाई चकाचौंध से भ्रमित-पलायित ग्राम्य-युवा -- -ये, कुछ भयावह तस्वीरें हैं; उस निमाड़ की, जिसकी “डग डग रोटी,-- --” जग-जाहिर है. मौजूदा हालत में ये स्थानीय चिंता के विषय हैं और राष्ट्रीय-चिंतन के भी. शहरी-परिवेश में रहते हुए भी गीतकार की जड़ें गाँव और ग्रामीण-संस्कृति से जुड़ीं हैं. भांजी की शादी में पिन्हावनी के कपडे ले जाना, बधावे में शकर-बतासे बांटना यह प्रदर्शित करता है कि उसे अपने संस्कारों का बखूबी ज्ञान है. वह अपने अभावों,अपेक्षाओं और संवेदनाओं को भी बहुत सहजता से व्यक्त कर देता है.उसे, ‘छोटे’ के शहर में कोठी बनवाने और कार खरीदने पर आत्मीय ख़ुशी है, वह, उसकी तरक्की और यशनाम के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है, वहीं दूसरी ओर पत्नी के इलाज के लिए थोडी मदद करने और एक बार कार लेकर गाँव आने और लोगों को दिखाने का भी इच्छा रखता है. गीत की उत्तर-यात्रा में गीतकार दर्शन की ओर मुड़ा दिखाई देता है. ‘जीवन का यह अटल सत्य, सभी को जाना है’ मानते हुए गाता है—

सत्तर पार कर लिया/इस अषाढ़ में/और हो गई पैंसठ की/तेरी भाभी/इस कुंवार में/
लगा हुआ नंबर आगे/विधना ने जो बना रखीं हैं/मुक्तिधाम की कतारें.

तन्मय जी का शब्द-सामर्थ्य सराहनीय है. उन्होंने सरल तत्सम शब्दों से भाषा का श्रंगार किया है. जहां, मधु-गुन्जन, कुशल क्षेम, यश नाम, सेवानिवृत का साभिप्राय प्रयोग पत्र-गीत में विपुलता एवम् प्राणवत्ता का संचार करता है वहीं पूर्ण-पुनरुक्त-पदावली (सहते-सहते, बेच-बेच, थोडा-थोडा, पैसा-पैसा ), अपूर्ण- पुनरुक्त-पदावली (रहन-सहन, टूटी-फूटी, ठीक-ठाक, मोड़-माड़) तथा सहयोगी-शब्द (खेती-बाडी,खून- पसीना,नीम-हकीम) के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है. वैसे, इस चिट्ठी में निमाड़ी-मिट्टी का सोंधापन कुछ कम है.(खासकर तब, जबकि कवि की प्रथम काव्य-कृति ‘प्यासो पनघट’ निमाड़ी में ही है) वहीँ, परिवेशानुगत ‘मुक्ति-धाम की कतारें’ का इतर-प्रयोग अटपटा-सा लगता है. अंत में, यह अवश्य कहा जा सकता है कि ग्राम्य-जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जो इससे अछूता रहा हो. इसे पढ़कर यूँ लगता है कि-‘अरे! यह चिट्ठी तो मेरे नाम है’. और, यही अहसास इस गीत-कृति की सफलता है.
( समीक्षित कृति: शेष कुशल है/ श्री सुरेश तन्मय /प्रकाशक भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल/मूल्य ६० रूपये )
----------------------------------
सुरेन्द्र सिंह पंवार, २०१, शास्त्रीनगर, गढ़ा, जबलपुर (म.प्र.)-४८२००३ /मोबाईल-९३००१०४२९६
/email-- -- pawarss2506@gmail.com / Blog-suryayash.blogspot.in

रविवार, 6 अगस्त 2017

ॐ 
विश्व वाणी हिंदी संस्थान - शांति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान
समन्वय प्रकाशन अभियान
समन्वय ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
***
              ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll 
ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
***
शांतिराज पुस्तकालय योजना
उद्देश्य:
१. नयी पीढ़ी में हिंदी साहित्य पठन-पाठन को प्रोत्साहित करना।
२. हिंदी तथा अन्य भाषाओं के बीच रचना सेतु बनाना।
३. गद्य-पद्य की विविध विधाओं में रचनाकर्म हेतु मार्गदर्शन उपलब्ध करना।
४. सत्साहित्य प्रकाशन में सहायक होना।
५. पुस्तकालय योजना की ईकाईयों की गतिविधियों को दिशा देना।
गतिविधि:
१. १०० अथवा ११,००० रुपये मूल्य की पुस्तकें निशुल्क प्रदान की जायेंगी।
२. संस्था द्वारा चाहे जाने पर की गतिविधियों के उन्नयन हेतु मार्गदर्शन प्रदान करना।
३. संस्था के सदस्यों की रचना-कर्म सम्बन्धी कठिनाइयों का निराकरण करना।
४. संस्था के सदस्यों को शोध, पुस्तक लेखन, भूमिका लेखन तथा प्रकाशन तथा समीक्षा लेखन में मदद करना।
५. संस्था के चाहे अनुसार उनके आयोजनों में सहभागी होना।  
पात्रता:
इस योजना के अंतर्गत उन्हीं संस्थाओं की सहायता की जा सकेगी जो-
१. अपनी संस्था के गठन, उद्देश्य, गतिविधियों, पदाधिकारियों आदि की समुचित जानकारी देते हुए आवेदन करेंगी।
२. लिखित रूप से पुस्तकालय के नियमित सञ्चालन, पाठकों को पुस्तकें देने-लेने तथा सुरक्षित रखने का वचन देंगी।
३. हर तीन माह में पाठकों को दी गयी पुस्तकों तथा पाठकों की संख्या तथा अपनी अन्य गतिविधियाँ संस्थान को सूचित करेंगी। उनकी सक्रियता की नियमित जानकारी से दुबारा सहायता हेतु पात्रता प्रमाणित होगी।
४. 'विश्ववाणी हिंदी संस्थान-शान्ति-राज पुस्तक संस्कृति अभियान' से सम्बद्ध का बोर्ड या बैनर समुचित स्थान पर लगायेंगी।
५. पाठकों के चाहने पर लेखन संबंधी गोष्ठी, कार्यशाला, परिचर्चा आदि का आयोजन अपने संसाधनों तथा आवश्यकता अनुसार करेंगी।
आवेदन हेतु संपर्क सूत्र- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४ / ७९९९५ ५९६१८।
*****

doha

मित्र दिवस
*
मित्र न पुस्तक से अधिक,
बेहतर कोई मीत!.
सुख-दुःख में दे-ले 'सलिल',
मन जुड़ते नव रीत.
*
नहीं लौटता कल कभी,
पले मित्रता आज.
थाती बन कल तक पले,
करे ह्रदय पर राज.
*
मौन-शोर की मित्रता,
अजब न ऐसी अन्य.
यह आ, वह जा मिल गले
पालें प्रीत अनन्य.
*
तन-मन की तलवार है,
मन है तन की ढाल.
एक साथ हर्षित हुए,
होते संग निढाल.
*
गति-लय अगर न मित्र हों,
जिए किस तरह गीत.
छंद बंध अनिबंध कर,
कहे पले अब प्रीत.
*
सरल शत्रुता साधना,
कठिन निभाना साथ.
उठा, जमा या तोड़ मत
मित्र! मिला ले हाथ.
*
मैं-तुम हम तो मित्रता,
हम मैं-तुम तो बैर.
आँख फेर मुश्किल बढ़े,
गले मिले तो खैर.
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर
https://www.divyanarmada.com

navgeet

नवगीत:
आओ! तम से लड़ें...
संजीव 'सलिल'
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in
#दिव्यनर्मदा 
#हिंदी_ब्लॉगर 
https://www.divyanarmada

navgeet

एक रचना:
संजीव 
*
संसद की दीवार पर 
दलबन्दी की धूल 
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*
राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
***
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]

salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा  
#हिंदी_ब्लॉगर 
https://www.blogger.com/divyanarmada 

शनिवार, 5 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
***





haiku navgeet

हाइकु नवगीत :
संजीव
.
टूटा विश्वास
शेष रह गया है 
विष का वास
.
कलरव है
कलकल से दूर
टूटा सन्तूर
जीवन हुआ
किलकिल-पर्याय
मात्र संत्रास
.
जनता मौन
संसद दिशाहीन
नियंता कौन?
प्रशासन ने
कस लिया शिकंजा
थाम ली रास
.
अनुशासन
एकमात्र है राह
लोक सत्ता की.
जनांदोलन
शांत रह कीजिए
बढ़े उजास
.
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा 
#divyanarmada.blogspot.com 
#हिंदी_ब्लॉगर 

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
जन चाहता 
बदले मिज़ाज 
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आम आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
*

salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा
#divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर 

navgeet

नवगीत: 
संजीव
*
द्रोण में 
पायस लिये
पूनम बनी,
ममता सनी
आयी सुजाता,
बुद्ध बन जाओ.
.
सिसकियाँ
कब मौन होतीं?
अश्रु
कब रुकते?
पर्वतों सी पीर
पीने
मेघ रुक झुकते.
धैर्य का सागर
पियें कुम्भज
नहीं थकते.
प्यास में,
संत्रास में
नवगीत का
अनुप्रास भी
मन को न भाता.
युद्ध बन जाओ.
.
लहरियां
कब रुकीं-हारीं.
भँवर
कब थकते?
सागरों सा धीर
धरकर
मलिनता तजते.
स्वच्छ सागर सम
करो मंथन
नहीं चुकना.
रास में
खग्रास में
परिहास सा
आनंद पाओ
शुद्ध बन जाओ.
.

salil.sanjiv@gmail.com 
#दिव्यनर्मदा 
#divyanarmada.blogspot.com 
#हिंदी_ब्लॉगर 

navgeet

नवगीत:
संजीव
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
*
salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा
#divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

hasya kavita

हास्य सलिला:
लाल गुलाब 
संजीव
*
लालू जब घर में घुसे, लेकर लाल गुलाब
लाली जी का हो गया, पल में मूड ख़राब
'झाड़ू बर्तन किये बिन, नाहक लाये फूल
सोचा, पाकर फूल मैं जाऊँगी सच भूल
लेकिन मुझको याद है ए लाली के बाप!
फूल शूल के हाथ में देख हुआ संताप
फूल न चौका सम्हालो, मैं जाऊँ बाज़ार
सैंडल लाकर पोंछ दो जल्दी मैली कार.'
****

rason ke sanchari bhav

रसों के संचारी भाव
०१. निर्वेद
०२. ग्लानि
०३. शंका
०४. असूया
०५. मद
०६. श्रम
०७. आलस्य
०८. दैन्य
०९. चिन्ता
१०. मोह
११. स्मृति
१२. धृति
१३. व्रीडा
१४. चपलता
१५. हर्ष
१६. आवेग
१७. जडता
१८. गर्व
१९. विषाद
२०. औत्सुक्य
२१. निन्द्र
२२. अपस्मार
२३. सोना
२४. जागना
२५. क्रोध
२६. अवहित्था [लज्जा के कारण आकार गोपन]
२७. उग्रता
२८. मति
२९. व्याधि
३०. उन्माद
३१. मरण
३२. त्रास
३३. वितर्क