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सोमवार, 30 जनवरी 2017

ashta matrik chhand

वासव जातीय अष्ट मात्रिक छंद
कुल प्रकार ३४
*
१. पदांत यगण

सजन! सजाना

सजनी! सजा? ना

काम न आना

बात बनाना

रूठ न जाना

मत फुसलाना

तुम्हें मनाना

लगे सुहाना

*
२. पदांत मगण

कब आओगे?
कब जाओगे?
कब सोओगे?
कब जागोगे?
कब रुठोगे?
कब मानोगे?
*
बोला कान्हा:
'मैया मोरी
तू है भोरी
फुसलाती है
गोपी गोरी
चपला राधा
बनती बाधा
आँखें मूँदे
देखे आधा
बंसी छीने
दौड़े-आगे
कहती ले लो
जाऊँ, भागे
*
३. पदांत तगण
सृजन की राह
चले जो चाह
न रुकना मीत
तभी हो वाह
न भय से भीत
नहीं हो डाह
मिले जो कष्ट
न भरना आह
*
४. पदांत रगण
रहीं बच्चियाँ
नहीं छोरियाँ
न मानो इन्हें
महज गोरियाँ
लगाओ नहीं
कभी बोलियाँ
न ठेलो कहीं
उठा डोलियाँ
*
५. पदांत रगण
जब हो दिनांत
रवि हो प्रशांत
पंछी किलोल
होते न भ्रांत
संझा ललाम
सूराज सुशांत
जाते सदैव
पश्चिम दिशांत
(छवि / मधुभार छंद)
*
६. पदांत भगण
बजता मादल
खनके पायल
बेकल है दिल
पड़े नहीं कल
कल तक क्यों हम
विलग रहें कह?
विरह व्यथा सह
और नहीं जल
*
७. पदांत नगण
बलम की कसम
न पालें भरम
चलें साथ हम
कदम दर कदम
न संकोच कुछ
नहीं है शरम
सुने सच समय
न रूठो सनम
*
८. पदांत सगण
जब तक न कहा
तब तक न सुना
सच ही कहना
झूठ न सहना
नेह नरमदा
बनकर बहना
करम चदरिया
निरमल तहना
सेवा जन की
करते रहना
शुचि संयम का
गहना गहना
*

शनिवार, 28 जनवरी 2017

laukik jatiya saptmatrik chhand

लौकिक जातीय सप्त मात्रिक छंद
९. पदारंभ यगण
विदेशी तज
स्वदेशी भज 
लगा ले सर 
उठा ले रज  
१०. पदारंभ मगण
लेंगे होड़
देंगे फोड़
जो हों दोष
भागें छोड़
जो हो प्रीत 
लेंगे जीत
आओ साथ 
गायें गीत    
*
११. पदारंभ तगण
हैं दो न हम 
हैं एक हम  
विश्वास है 
हैं नेक हम
*
१२. पदारंभ रगण
चाह में तू  
बाँह में तू
धूप में तू  
छाँह में तू 
आह में तू  
वाह में तू 
मंजिलों में 
राह में तू
१३. पदारंभ जगण
किया न काम  
लिया न दाम
तना वितान  
लगा विराम 
मिला न नाम   
रहे अनाम 
*
१४. पदारंभ भगण
प्रेमिल ह्रदय
स्नेहिल सदय 
विस्मित निरख
मोहित मलय
*
१५. पदारंभ नगण
सजन आए 
सु मन गाए
सुमन खिलते
भ्रमर भाए
*
१६. पदारंभ सगण
महके आम
मिलते दाम
जबसे न्यून
विधना वाम
*

hindi bhasha samasya aur samadhan

 हिंदी- समस्या और समाधान-
१. भारत में बोली जा रही सब भाषाओँ - बोलियों को संविधान की ८ वीं अनुसूची में सम्मिलित किया जाए ताकि इस मुद्दे पर राजनीति समाप्त हो. 
२. सब भाषाओँ को नागरी लिपि में भी लिखा जाए जैसा गाँधी जी चाहते थे। 
३. हिंदी को अनुसूची से निकाल दिया जाए। 
४. सब हिंदी अकादमी बन्द की जाएँ ताकि नेता - अफसर हिंदी के नाम पर मौज न कर सकें। 
५. भारत की जन भाषा और प्रमुख विश्ववाणी हिंदी को सरकार किसी प्रकार का संरक्षण न दे, कोई सम्मेलन न करे, कोई विश्व विद्यालय न बनाये, किसी प्रकार की मदद न करे ताकि जनगण इसके विकास में अपनी भूमिका निभा सके।
हिंदी के सब समस्याएँ राजनेताओं और अफसरों के कारण हैं। ये दोनों वर्ग हिंदी का पीछा छोड़ दें तो हिंदी जी ही जायेगी अमर हो जाएगी।
***

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

doha, soratha, rola, kavya chhand, dwpadi

दोहा
जैसे ही अनुभूति हो, कर अभिव्यक्ति तुरंत
दोहा-दर्पण में लखें, आत्म-चित्र कवि-संत
*
कुछ प्रवास, कुछ व्यस्तता, कुछ आलस की मार
चाह न हो पाता 'सलिल', सहभागी हर बार
*

सोरठा
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
रोला
सब स्वार्थों के मीत, किसका कौन सगा यहाँ?
धोखा देते नित्य, मिलता है अवसर जहाँ
राजनीति विष बेल, बोकर-काटे ज़हर ही
कब देखे निज टेंट, कुर्सी ढाती कहर ही
*
काव्य छंद
सबसे प्यारा पूत, भाई जाए भाड़ में
छुरा दिया है भोंक, मजबूरी की आड़ में
नाम मुलायम किंतु सेंध लगाकर बाड़ में
खेत चराते आप, अपना बेसुध लाड़ में
*  
द्विपदी
पत्थर से हर शहर में, मिलते मकां हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
*

sapt matrik / laukik jatiya chhand

लौकिक जातीय सप्त मात्रिक छंद
१. पदांत यगण 
तज बहाना
मन लगाना
सफल होना
लक्ष्य पाना  
जो मिला है 
हँस लुटाना
मुस्कुराना
खिलखिलाना
२. पदांत मगण 
न भागेंगे 
न दौड़ेंगे 
करेंगे जो 
न छोड़ेंगे 
*
३. पदांत तगण
आओ मीत 
गाओ गीत 
नाता जोड़ 
पाओ प्रीत 
*
४. पदांत रगण
पाया यहाँ 
खोया यहाँ 
बोया सदा 
काटा यहाँ 
*
कर आरती
खुश भारती
सन्तान को
हँस तारती
*
५. पदांत जगण
भारत देश
हँसे हमेश
लेकर जन्म
तरे सुरेश
*
६. पदांत भगण
चपल चंचल
हिरन-बादल
दौड़ते सुन
ढोल-मादल
*
७. पदांत नगण

मीठे वचन
बोलो सजन
मूँदो न तुम
खोलो नयन
*
८. पदांत सगण
सुगती छंद
सच-सच कहो
मत चुप रहो
जो सच दिखे
निर्भय कहो
*

बुधवार, 25 जनवरी 2017

doha

सामयिक दोहा सलिला 
*
गाँधी जी के नाम पर, नकली गाँधी-भक्त 
चित्र छाप पल-पल रहे, सत्ता में अनुरक्त 
लालू के लल्ला रहें, भले मैट्रिक फेल 
मंत्री बन डालें 'सलिल', शासन-नाक नकेल 
*
ममता की समता करे, किसमें है सामर्थ?
कौन कर सकेगा 'सलिल', पल-पल अर्थ-अनर्थ??
*
बाप बाप पर पुत्र है, चतुर बाप का बाप 
धूल चटाकर चचा को, मुस्काता है आप 
*
साइकिल-पंजा मिल हुआ, केर-बेर का संग 
संग कमल-हाथी मिलें, तभी जमेगा रंग 
*

doha muktika

एक दोहा
हर दल ने दलदल मचा, साधा केवल स्वार्थ
हत्या कर जनतंत्र की, कहते- है परमार्थ
*
एक दोहा मुक्तिका
निर्मल मन देखे सदा, निर्मलता चहुँ ओर
घोर तिमिर से ज्यों उषा, लाये उजली भोर
*
नीरस-सरस न रस रहित, रखते रसिक अँजोर
दोहा-रस संबंध है, नद-जल, गागर-डोर
*
मृगनयनी पर सोहती, गाढ़ी कज्जल-कोर
कृष्णा एकाक्षी लगा, लगे अमावस घोर
*
चित्त चुराकर कह रहे, जो अकहे चितचोर
उनके चित का मिल सका, कहिये किसको छोर
*
आँख मिला मन मोहते, झुकती आँख हिलोर
आँख फिरा लें जान ही, आँख दिखा झकझोर
****

बुधवार, 18 जनवरी 2017

laghukatha

लघुकथा-
निर्दोष
*
उसने मनोरंजन के लिए अपने साथियों सहित जंगल में विचरण कर रहे पशुओं का वध कर दिया.
उसने मदहोशी में सडक के किनारे सोते हुए मनुष्यों को कार से कुचल डाला.
पुलिस-प्रशासन के कान पर जून नहीं रेंगी. जन सामान्य के आंदोलित होने और अखबारबाजी होने पर ऐसी धाराओं में वाद स्थापित किया गया कि जमानत मिल सके.
अति कर्तव्यनिष्ठ न्यायालय ने अतिरिक्त समय तक सुनवाई कर तत्क्षण फैसला दिया और जमानत के निर्णय की प्रति उपलब्ध कराकर खुद को धन्य किया.
बरसों बाद सुनवाई आरम्भ हुई तो एक-एक कर गवाह मरने या पलटने लगे.
दिवंगतों के परिवार चीख-चीख कर कहते रहे कि गवाहों को बचाया जाए पर कुछ न हुआ.
अंतत:, पुलिस द्वारा लगाये गए आरोप सिद्ध न हो पाने का कारण बताते हुए न्यायालय ने उसे घोषित कर दिया निर्दोष.
***

navgeet

नवगीत
अभी नहीं
*
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
कृष्ण मृगों को
मारा तुमने
जान बचाकर भागे.
सोतों को कुचला
चालक को
किया आप छिप आगे.
कर्म आसुरी करते हैं जो
सहज न दंडित होते.
बहुत समय तक कंस-दशानन
महिमामंडित होते.
लेकिन
अंत बुरा होता है
समय करे निबटारा.
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
तुमने निर्दोषों को लूटा
फैलाया आतंक.
लाज लूट नारी की
निज चेहरे पर मलते पंक.
काले कोट
बचाते तुमको
अंधा करता न्याय.
मिटा साक्ष्य-साक्षी
जीते तुम-
बन राक्षस-पर्याय.
बोलो क्या आत्मा ने तुमको
कभी नहीं फटकारा?
अभी नहीं सच हारा
प्यारे!
कभी नहीं सच हारा
*
जन प्रतिनिधि बन
जनगण-मन से
कपट किया है खूब.
जन-जन को
होती है तुमसे
बेहद नफरत-ऊब.
दाँव-पेंच, छल,
उठा-पटक हर
दिखा सुनहरे ख्वाब
करे अंत में निपट अकेला
माँगे समय जवाब.
क्या जाएगा साथ
कहो,
फैलाया खूब पसारा.
***

vimarsh

विमर्श 
न्याय और दंड 
न्यायालय ने रिहा कर दिया तो क्या हुआ? हम आम लोग  सलमान खान को उनकी फिल्मों का बहिष्कार कर दंड दे सकते हैं। मैं अब सलमान खान की कोई फिल्म नहीं देखूँगा। आप?

मंगलवार, 17 जनवरी 2017

lekh

सामयिक लेख 
हिंदी के समक्ष समस्याएं और समाधान 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सकल सृष्टि में भाषा का विकास दैनंदिन जीवन में और दैनन्दिन जीवन से होता है। भाषा के विकास में आम जन की भूमिका सर्वाधिक होती है। शासन और प्रशासन की भूमिका अत्यल्प और अपने हित तक सीमित होती है। भारत में तथाकथित लोकतंत्र की आड़ में अति हस्तक्षेपकारी प्रशासन तंत्र दिन-ब-दिन मजबूत हो रहा है जिसका कारण संकुचित-संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ तथा बढ़ती असहिष्णुता है। राजनीति जब समाज पर हावी हो जाती है तो सहयोग, सद्भाव, सहकार और सर्व स्वीकार्यता ​के लिए स्थान नहीं रह जाता। दुर्भाग्य से भाषिक परिवेश में यही वातावरण है। हर भाषा-भाषी अपनी सुविधा के अनुसार देश की भाषा नीति चाहता है। यहाँ तक कि परंपरा, प्रासंगिकता, भावी आवश्यकता या भाषा विकास की संभावना के निष्पक्ष आकलन को भी स्वीकार्यता नहीं है। 

निरर्थक प्रतिद्वंद्विता  
संविधान की ८वीं अनुसूची में सम्मिलित होने की दिशाहीन होड़ जब-तब जहाँ-तहाँ आंदोलन का रूप लेकर लाखों लोगों के बहुमूल्य समय, ऊर्जा तथा राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश का कारण बनता है। ८वीं अनुसूची में जो भाषाएँ सम्मिलित हैं उनका कितना विकास हुआ या जो भाषाएँ सूची में नहीं हैं उनका कितना विकास अवरुद्ध हुआ इस का आकलन किये बिना यह होड़ स्थानीय नेताओं तथा साहित्यकारों द्वारा निरंतर विस्तारित की जाती है। विडंबना यह है कि 'राजस्थानी' नाम की किसी भाषा का अस्तित्व न होते हुए भी उसे राज्य की अधिकृत भाषा घोषित कर दिया जाता है और उसी राज्य में प्रचलित ५० से अधिक भाषाओँ के समर्थक पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के कारण यह होता देखते रहते हैं। 

राष्ट्र भाषा और राज भाषा 
राज-काज चलाने के लिए जिस भाषा को अधिसंख्यक लोग समझते हैं उसे राज भाषा होना चाहिए किंतु विदेशी शासकों ने खुद कि भाषा को गुलाम देश की जनता पर थोप दिया। उर्दू और अंग्रेजी इसी तरह थोपी और बाद में प्रचलित रह गयीं भाषाएँ हैं. शासकों की भाषा से जुड़ने की मानसिकता और इनका उपयोग कर खुद को शासक समझने की भ्रामक धारणा ने इनके प्रति आकर्षण को बनाये रखा है। देश का दुर्भाग्य कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजीप्रेमी  प्रशासक और  भारतीय अंग्रेज प्रधान मंत्री के कारण अंग्रेजी का महत्व बना रहा तथा राजनैतिक टकराव में भाषा को घसीट कर हिंदी को विवादस्पद बना दिया गया। 

किसी देश में जितनी भी भाषाएँ जन सामान्य द्वारा उपयोग की जाती हैं, उनमें से कोई भी अराष्ट्र भाषा नहीं है अर्थात वे सभी राष्ट्र भाषा हैं और अपने-अपने अंचल में बोली जा रही हैं, बोली जाती रहेंगी। निरर्थक विवाद की जड़ मिटाने के लिए सभी भाषाओँ / बोलियों को राष्ट्र भाषा घोषित कर अवांछित होड़ को समाप्त किया जा सकता है। इससे अनचाहे हो रहा हिंदी-विरोध अपने आप समाप्त हो जाएगा। ७०० से अधिक भाषाएँ राष्ट्र भाषा हो जाने से सब एक साथ एक स्तर पर आ जाएँगी। हिंदी को इस अनुसूची में रखा जाए या निकाल दिया जाए कोई अंतर नहीं पड़ना है। हिंदी विश्व वाणी हो चुकी है। जिस तरह किसी भी देश का धर्म न होने के बावजूद सनातन धर्म और किसी भी देश की भाषा न होने के बावजूद संस्कृत का अस्तित्व था, है और रहेगा वैसे ही हिंदी भी बिना किसी के समर्थन और विरोध के फलती-फूलती रहेगी। 

शासन-प्रशासन के हस्तक्षेप से मुक्ति 
७०० से अधिक भाषाएँ/बोलियां राष्ट्र भाषा हो जाने पाए पारस्परिक विवाद मिटेगा, कोई सरकार इन सबको नोट आदि पर नहीं छाप सकेगी। इनके विकास पर न कोई खर्च होगा, न किसी अकादमी की जरूरत होगी। जिसे जान सामान्य उपयोग करेगा वही विकसित होगी किंतु राजनीति और प्रशासन की भूमिका नगण्य होगी। 

हिंदी को प्रचार नहीं चाहिए 
विडम्बना है कि हिंदी को सर्वाधिक क्षति तथाकथित हिंदी समर्थकों से ही हुई और हो रही है। हिंदी की आड़ में खुद के हिंदी-प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटनेवाले व्यक्तियों और संस्थाओं ने हिंदी का कोई भला नहीं किया, खुद का प्रचार कर नाम और नामा बटोर तथा हिंदी-विरोध के आंदोलन को पनपने का अवसर दिया। हिंदी को ऐसी नारेबाजी और भाषणबाजी ने बहुत हानि पहुँचाई है। गत जनवरी में ऐसे ही हिंदी प्रेमी भोपाल में मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री और सरकार की प्रशंसा में कसीदे पढ़कर साहित्य और भाषा में फूट डालने का काम कर रहे थे। उसी सरकार की हिंदी विरोधी नीतियों के विरोध में ये बगुला भगत चुप्पी साधे बैठे हैं।  

हिंदी समर्थक मठाधीशों से हिंदी की रक्षा करें 
हिंदी के नाम पर आत्म प्रचार करनेवाले आयोजन न हों तो हिंदी विरोध भी न होगा। जब किसी भाषा / बोली के क्षेत्र में उसको छोड़कर हिंदी की बात की जाएगी तो स्वाभाविक है कि उस भाषा को बोलनेवाले हिंदी का विरोध करेंगे। बेहतर है कि हिंदी के पक्षधर उस भाषा को हिंदी का ही स्थानीय रूप मानकर उसकी वकालत करें ताकि हिंदी के प्रति विरोध-भाव समाप्त हो। 

हिंदी सम्पर्क भाषा 
किसी भाषा/बोली को उस अंचल के बाहर स्वीकृति न होने से दो विविध भाषाओँ/बोलियों के लोग पारस्परिक वार्ता में हिंदी का प्रयोग करेंगे ही। तब हिंदी की संपर्क भाषा की भूमिका अपने आप बन जाएगी। आज सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को प्रतिस्पर्धी मानकर उसका विरोध कर रही हैं, तब सभी स्थानीय भाषाएँ हिंदी को अपना पूरक मानकर समर्थन करेंगी। उन भाषाओँ/बोलियों में जो शब्द नहीं हैं, वे हिंदी से लिए जाएंगे, हिंदी में भी उनके कुछ शब्द जुड़ेंगे। इससे सभी भाषाएँ समृद्ध होंगी। 

हिंदी की सामर्थ्य और रोजगार क्षमता 
हिंदी के हितैषियों को यदि हिंदी का भला करना है तो नारेबाजी और सम्मेलन बन्द कर हिंदी के शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति सामर्थ्य बढ़ाएं। इसके लिए हर विषय हिंदी में लिखा जाए। ज्ञान - विज्ञान के हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जाए। हिंदी के माध्यम से वार्तालाप, पत्राचार, शिक्षण आदि के लिए शासन नहीं नागरिकों को आगे आना होगा। अपने बच्चों को अंग्रेजी से पढ़ाने और दूसरों को हिंदी उपदेश  देने का पाखण्ड बन्द करना होगा। 

हिंदी की रोजगार क्षमता बढ़ेगी तो युवा अपने आप उस ओर जायेंगे। भारत दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और इस बाजार में आम ग्राहक सबसे ज्यादा हिंदी ही समझता है। ७०० राष्ट्र भाषाएँ तो दुनिया का कोई देश या व्यापारी नहीं सीख-सिखा सकता इसलिए विदेशियों के लिए हिंदी ही भारत की संपर्क भाषा होगी.  स्थिति का लाभ लेने के लिए देश में द्विभाषी रोजगार पार्क पाठ्यक्रम हों। हिंदी के साथ कोई एक विदेशी भाषा सीखकर युवजन उस देश में जाकर हिंदी सिखाने का काम कर सकेंगे। ऐसे पाठ्यक्रम हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने के साथ बेरोजगारी कम करेंगे। कोई  दूसरी भारतीय भाषा इस स्थिति में नहीं है कि यह लाभ ले और दे सके।  

हिंदी में हर विषय की किताबें लिखी जाने की सर्वाधिक जरूरत है। यह कार्य सरकार नहीं हिंदी के जानकारों को करना है। किताबें अंतरजाल पर हों तो इन्हें पढ़ा-समझ जाना सरल होगा। हिंदी में मूल शोध कार्य हों, केवल नकल करना निरर्थक है। तकनीकी, यांत्रिकी, विज्ञान और अनुसंधान क्षेत्र में हिंदी में पर्याप्त साहित्य की कमी तत्काल दूर की जाना जरूरी है। हिंदी की सरलता या कठिनता के निरर्थक व्यायाम को बन्द कर हिंदी की उपयुक्तता पर ध्यान देना होगा। हिंदी अन्य भारतीय भाषाओँ को गले लगाकर ही आगे बढ़ सकती है, उनका गला दबाकर या गला काटकर हिंदी भी आपने आप समाप्त हो जाएगी। 
***
-विश्व वाणी हिंदी संस्थान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४।

रविवार, 15 जनवरी 2017

vimarsh

विमर्श-
गाँधी जी अपने विचारों और आचरण के लिए अनुकरणीय हैं अपने द्वारा उपयोग किये गए उपकरणों (चरखा, तकली, लाठी, चश्मा आदि) के लिए ???

शनिवार, 14 जनवरी 2017

"साइकिल" जो किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती है !

व्यंग

"साइकिल" जो किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती है !

विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२

            हमारी संस्कृति में पुत्र की कामना से बड़े बड़े यज्ञ करवाये गये हैं . आहुतियो के धुंए के बीच प्रसन्न होकर अग्नि से यज्ञ देवता प्रगट हुये हैं और उन्होने यजमान को पुत्र प्राप्ति के वरदान दिये . यज्ञ देवता की दी हुई खीर खाकर राजा दशरथ की तीनो रानियां गर्भवती हुईं और भगवान राम जैसे मर्यादा पुरोषत्तम पुत्र हुये जिन्होने पिता के दिये वचन को निभाने के लिये राज पाट त्याग कर वनवास का रास्ता चुना . आज जब बेटियां भी बेटो से बढ़चढ़ कर निकल रहीं है , पिता बनते ही हर कोई फेसबुक स्टेटस अपडेट करता दीखता है " फीलिंग हैप्पी " साथ में किसी अस्पताल में एक नन्हें बच्चे की माँ के संग तस्वीर लगी होती है .  सैफ अली खान जैसे तो तुरत फुरत मिनटो में अपने बेटे का नामकरण भी कर डालते हैं , और हफ्ते भर में ही बीबी को लेकर नया साल मनाने भी निकल पड़ते हैं .  अपनी अपनी केपेसिटी के मुताबिक खुशियां मनाई जाती हैं ,  मिठाईयां बांटी जाती हैं . कोई जरूर खोज निकालेगा कि अखिलेश के होने पर सैफई में मुलायम ने कितने किलो मिठाईयाँ बाँटी थी . ये और बात है कि जहाँ राम के से बेटे के उदाहरण हैं , वहीं अनजाने में ही सही पर अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को बांधकर लव कुश द्वारा पिता की सत्ता को चुनौती देने का प्रसंग भी रामायण में ही मिल जाता है .तो दूसरी ओर गणेश जी द्वारा पिता शिव को द्वार पर ही रोक देने की चुनौती का प्रसंग भी प्रासंगिक है .तो दूसरी ओर हिरणाकश्यप जैसे राक्षस के यहाँ प्रहलाद से धार्मिक पुत्र होने और दूसरी ओर धृतराष्ट्र की दुर्योधन के प्रति अंध आसक्ति के उदाहरण हैं .लगभग हर धर्म में परमात्मा को पिता की संज्ञा दी जाती है .  पिता के प्रति श्रद्धा भाव को व्यक्त करने के लिये पश्चिमी सभ्यता में फादर्स डे मनाने की परंपरा लोकप्रिय है . व्यवसायिकता और पाश्चात्य अंधानुकरण को आधुनिकता  का नाम देने के चलते हम भी अब बड़े गर्व से फादर्स डे मनाते हुये पिता को डिनर पर ले जाते हैं या उनके लिये आन लाइन कोई गिफ्ट भेजकर गर्व महसूस करने लगे हैं .  
            पिता पुत्र के संबंधो को लेकर अनुभव के आधार पर तरह तरह की लोकोक्तियां और कहावतें प्रचलित हैं .मुलायम अखिलेश प्रसंग ने सारी लोकोक्तियो और कहावतों को प्रासंगिक बना दिया है .  कहा ये जाता है कि जब पुत्र के पांव  पिता के जूते के नाप के हो जायें तो पिता को पुत्र से मित्र वत् व्यवहार करने लगना चाहिये . जब पुत्र पिता से  बढ़ चढ़ कर निकल जाता है तो कहा जाता है कि "बाप न मारे मेढ़की, बेटा तीरंदाज़" . यद्यपि बाप से बढ़कर यदि बेटा निकले तो शायद सर्वाधिक खुशी पिता को ही होती है , क्योकि पिता ही होता है जो सारे कष्ट स्वयं सहकर चुपचाप पुत्र के लिये सारी सुविधा जुटाने में जुटा रहता है . पर यह आम लोगो की बातें हैं . पता नही कि अखिलेश और मुलायम  दोनो मे से तीरंदाज कौन है ? एक कहावत है "बाढ़े पूत पिता के धरमे , खेती उपजे अपने करमे" अर्थात पिता के लोकव्यवहार के अनुरूप पुत्र को विरासत में सहज ही प्रगति मिल जाती है पर खेती में फसल तभी होती है जब स्वयं मेहनत की जाये . "बाप से बैर, पूत से सगाई"  कहावत भी बड़ी प्रासंगिक है एक चाचा इधर और एक उधर दिखते हैं . "बापै पूत पिता पर थोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा -थोड़ा"  कहावत के अनुरूप अखिलेश मुलायम को उन्ही की राजनैतिक  चालो से पटकनी देते दिख रहे हैं . सारे प्रकरण को देखते हुये लगता है कि "बाप बड़ा  न भइया, सब से बड़ा रूपइया" सारे  नाते रिश्ते बेकार, पैसा और पावर ही आज सब कुछ है . आधुनिक प्रगति की दौड़ में वो सब बैक डेटेड दकियानूसी प्रसंग हो चुके हैं जिनमें पिता को आश्वस्ति देने के लिये भीष्म पितामह की सदा अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा , या पुरू द्वारा अपना यौवन पिता ययाति को दे देने की कथा हो .  
            आधुनिकता में हर ओर नित  नये प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं , अखिलेश मुलायम भी नये उदाहरण नये समीकरण रच रहे हैं .समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह "साइकिल" ,किसी फेरारी, लैंबॉर्गिनी , बुगाटी या रोल्स रायल से कीमती बन चुकी है . बड़े बड़े वकील पिता पुत्र की ओर से चुनाव आयोग के सामने अपने अपने दावे प्रति दावे , शपथ पत्रो और साक्ष्यो के अंबार लगा रहा है . अपने अपने स्वार्थो में लिपटे सत्ता लोलुप दोनो धड़ो के साथ दम साधे चुनाव आयोग के फैसले के इंतजार में हैं .
  
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
९४२५८०६२५२




शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

navgeet

नवगीत
दूर कर दे भ्रांति
*
दूर कर दे भ्रांति
आ संक्राति!
हम आव्हान करते।
तले दीपक के
अँधेरा हो भले
हम किरण वरते।
*
रात में तम
हो नहीं तो
किस तरह आये सवेरा?
आस पंछी ने
उषा का
थाम कर कर नित्य टेरा।
प्रयासों की
हुलासों से
कर रहां कुड़माई मौसम-
नाचता दिनकर
दुपहरी संग
थककर छिपा कोहरा।
संक्रमण से जूझ
लायें शांति
जन अनुमान करते।
*
घाट-तट पर
नाव हो या नहीं
लेकिन धार तो हो।
शीश पर हो छाँव
कंधों पर
टिका कुछ भार तो हो।
इशारों से
पुकारों से
टेर सँकुचे ऋतु विकल हो-
उमंगों की
पतंगें उड़
कर सकें आनंद दोहरा।
लोहड़ी, पोंगल, बिहू
जन-क्रांति का
जय-गान करते।
*
ओट से ही वोट
मारें चोट    
बाहर खोट कर दें।
देश का खाता
न रीते
तिजोरी में नोट भर दें।
पसीने के
नगीने से
हिंद-हिंदी जगजयी हो-
विधाता भी
जन्म ले
खुशियाँ लगाती रहें फेरा।
आम जन के
काम आकर
सेठ-नेता काश तरते।
१२-१-२०१७
***
बाल नवगीत:
संजीव
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सूरज बबुआ!
चल स्कूल
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धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी
बहिन उषा को गिरा दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ी
धूप बुआ ने लपक चुपाया
पछुआ लाई
बस्ता-फूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
जय गणेश कह पाटी पूजन
पकड़ कलम लिख ओम
पैर पटक रो मत, मुस्काकर
देख रहे भू-व्योम
कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम
मैडम पूर्णिमा के सँग-सँग
हँसकर
झूला झूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
*
चिड़िया साथ फुदकती जाती
कोयल से शिशु गीत सुनो
'इकनी एक' सिखाता तोता
'अ' अनार का याद रखो
संध्या पतंग उड़ा, तिल-लड़ुआ
खा पर सबक
न भूल
सूरज बबुआ!
चल स्कूल
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मंगलवार, 6 जनवरी 2015
नवगीत:
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काल है संक्रांति का
तुम मत थको सूरज!
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दक्षिणायन की हवाएँ
कँपाती हैं हाड़
जड़ गँवा, जड़ युवा पीढ़ी
काटती है झाड़
प्रथा की चूनर न भाती
फेंकती है फाड़
स्वभाषा को भूल, इंग्लिश
से लड़ाती लाड़
टाल दो दिग्भ्रान्ति को
तुम मत रुको सूरज!
*
उत्तरायण की फिज़ाएँ
बनें शुभ की बाड़
दिन-ब-दिन बढ़ता रहे सुख
सत्य की हो आड़
जनविरोधी सियासत को
कब्र में दो गाड़
झाँक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
ढाल हो चिर शांति का
तुम मत झुको सूरज!
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नवगीत:
आओ भी सूरज
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आओ भी सूरज!
छट गये हैं फूट के बादल
पतंगें एकता की मिल उड़ाओ
गाओ भी सूरज!
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करधन दिप-दिप दमक रही है
पायल छन-छन छनक रही है
नच रहे हैं झूमकर मादल
बुराई हर अलावों में जलाओ
आओ भी सूरज!
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खिचड़ी तिल-गुड़वाले लडुआ
पिज्जा तजकर खाओ बबुआ
छोड़ बोतल उठा लो छागल
पड़ोसी को खुशी में साथ पाओ 
आओ भी सूरज!
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रविवार, 4 जनवरी 2015
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नवगीत:
उगना नित
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उगना नित
हँस सूरज

धरती पर रखना पग
जलना नित, बुझना मत
तजना मत, अपना मग
छिपना मत, छलना मत
चलना नित
उठ सूरज

लिखना मत खत सूरज
दिखना मत बुत सूरज
हरना सब तम सूरज
करना कम गम सूरज
मलना मत
कर सूरज

कलियों पर तुहिना सम
कुसुमों पर गहना बन
सजना तुम सजना सम
फिरना तुम भँवरा बन
खिलना फिर
ढल सूरज

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(छंदविधान: मात्रिक करुणाकर छंद, वर्णिक सुप्रतिष्ठा जातीय नायक छंद)
२.१.२०१५
नवगीत:
संक्रांति काल है
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संक्रांति काल है
जगो, उठो
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प्रतिनिधि होकर जन से दूर
आँखें रहते भी हो सूर
संसद हो चौपालों पर
राजनीति तज दे तंदूर
संभ्रांति टाल दो
जगो, उठो
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खरपतवार न शेष रहे
कचरा कहीं न लेश रहे
तज सिद्धांत, बना सरकार
कुर्सी पा लो, ऐश रहे
झुका भाल हो
जगो, उठो
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दोनों हाथ लिये लड्डू
रेवड़ी छिपा रहे नेता
मुँह में लैया-गज़क भरे
जन-गण को ठेंगा देता
डूबा ताल दो
जगो, उठो
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सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे बंसी-मादल
छिपा माल दो
जगो, उठो
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नवता भरकर गीतों में
जन-आक्रोश पलीतों में
हाथ सेंक ले कवि तू भी
जाए आज अतीतों में
खींच खाल दो
जगो, उठो
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बुधवार, 11 जनवरी 2017

muktika

मुक्तिका
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ज़िंदगी है बंदगी, मनुहार है.
बंदगी ही ज़िंदगी है, प्यार है.

सुबह-संझा देख अरुणिम आसमां
गीत गाए, प्रीत की झंकार है.

अचानक आँखें, उठीं, मिल, झुक गईं
अनकहे ही कह गयीं 'स्वीकार है'.
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सांस सांसों में घुलीं, हमदम हुईं
महकता मन हुआ हरसिंगार है.
मौन तजकर मौन बरबस बोलता
नासमझ! इनकार ही इकरार है.
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मंगलवार, 10 जनवरी 2017

laghukatha

लघुकथा-
गूंगे का गुड़
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अपने लेखन की प्रशंसा सुन मित्र ने कहा आप सब से प्रशंसा पाकर मन प्रसन्न होता है किंतु मेरे पति प्राय: कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। मेरा ख़याल था कि उन्हें मेरा लिखना पसंद नहीं है परन्तु आप कहते हैं कि ऐसा नहीं है।  यदि उन्हें मेरा लिखना औए मेरा लिखा अच्छा लगता है तो यह जानकर मुझे ख़ुशी और गौरव ही अनुभव होगा। मुझे उनकी जो बात अच्छी लगती है मैं कह देती हूँ, वे क्यों नहीं कहते? 

मैंने कहा- आपके प्रश्न का उत्तर एक कहावत में निहित है 'गूंगे का गुड़'
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