दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 7 जुलाई 2016
संजीव नाम का अर्थ
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संजीव
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संजीव

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संजीव दिल

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संजीव - प्रकृति
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स्वभाव

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जीवनोद्देश्य
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संजीव

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संजीव - साधना : जीवन पथ ज्योतित रहे

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रेखाचित्र
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बुधवार, 6 जुलाई 2016
laghukatha
लघुकथा
नहीं, तब तक तो मैं जीवित ही नहीं रहूँगा।
फिर इन्हें क्यों लगा रहे हैं?घर पर विश्राम करें, व्यर्थ श्रम करने से लाभ?
हम आपने राष्ट्र गीत में 'सुजलाम सुफलाम्' कहकर इसके हरा-भरा करने की कामना करते हैं। इसलिए हम किसी भी धर्म, पंथ, सम्प्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग, जाति या क्षेत्र के हों हमें वर्ष आते ही अपने आस-पास जहाँ भी संभव हो अधिक से अधिक पौधे रोप कर, उनकी रक्षा कर हरियाली बढ़ाने में योगदान देना चाहिए। कितना भी श्रम करना पड़े, करना ही चाहिए अपने लक्ष्य के लिए। वृद्ध किसान बोला।
लक्ष्य के लिए
*
वृद्ध किसान को सड़क किनारे पौधे रोपते देख पोते ने पूछा- 'इनके बड़े होने तक आप इतने स्वस्थ्य रहेंगे की यहाँ तक आकर देखभाल कर सकें, या इनकी छाँह में सुस्ता सकें? नहीं, तब तक तो मैं जीवित ही नहीं रहूँगा।
फिर इन्हें क्यों लगा रहे हैं?घर पर विश्राम करें, व्यर्थ श्रम करने से लाभ?
हम आपने राष्ट्र गीत में 'सुजलाम सुफलाम्' कहकर इसके हरा-भरा करने की कामना करते हैं। इसलिए हम किसी भी धर्म, पंथ, सम्प्रदाय, भाषा, भूषा, लिंग, जाति या क्षेत्र के हों हमें वर्ष आते ही अपने आस-पास जहाँ भी संभव हो अधिक से अधिक पौधे रोप कर, उनकी रक्षा कर हरियाली बढ़ाने में योगदान देना चाहिए। कितना भी श्रम करना पड़े, करना ही चाहिए अपने लक्ष्य के लिए। वृद्ध किसान बोला।
***
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geet
एक रचना
शहर
*
मेरा शहर
न अब मेरा है,
गली न मेरी
रही गली है।
*
अपनेपन की माटी गायब,
चमकदार टाइल्स सजी है।
श्वान-काक-गौ तकें, न रोटी
मृत गौरैया प्यास लजी है।
सेव-जलेबी-दोने कहीं न,
कुल्हड़-चुस्की-चाय नदारद।
खुद को अफसर कहता नायब,
छुटभैया तन करे अदावत।
अपनेपन को
दे तिलांजलि,
राजनीति विष-
बेल पली है।
*
अब रौताइन रही न काकी,
घूँघट-लज्जा रही न बाकी।
उघड़ी ज्यादा, ढकी देह कम
गली-गली मधुशाला-साकी।
डिग्री ऊँची न्यून ज्ञान, तम
खर्च रूपया आय चवन्नी।
जन की चिंता नहीं राज को
रूपया रो हो गया अधन्नी।
'लिव इन' में
घायल हो नाते
तोड़ रहे दम
चला-चली है।
*
चाट चाट, खाना ख़राब है
देर रात सो, उठें दुपहरी।
भाई भाई की पीठ में छुरा
भोंक जा रहा रोज कचहरी।
गूँगे भजन, अजानें बहरी
तीन तलाक पड़ रहे भारी।
नाते नित्य हलाल हो रहे
नियति नीति-नियतों से हारी।
लोभतंत्र ने
लोकतंत्र की
छाती पर चढ़
दाल दली है।
*
मंगलवार, 5 जुलाई 2016
achal chhand
रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : अचल छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल छंद से
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल छंद से
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
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haiku
हाइकू सलिला
*
हाइकू लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।
*
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।
*
दादुर कूदा
पोखर में झट से
छप - छपाक।
*
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने
*
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर
*
*
हाइकू लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।
*
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।
*
दादुर कूदा
पोखर में झट से
छप - छपाक।
*
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने
*
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर
*
रविवार, 3 जुलाई 2016
gazal
एक रचना-
*
सवाल तुमने किये सौ बिना रुके यारां
हमने चाहा मगर फिर भी जवाब हो न सके
*
हमें काँटों के बीच बागबां ने ठौर दिया
खिले हम भी मगर गुल-ए-गुलाब हो न सके
*
नसीब बख्श दे फुटपाथ की शहंशाही
किसी के दिल के कभी हम नवाब हो न सके
*
उठाये जाम जमाना मिला, है साकी भी
बहा पसीना 'सलिल' ही शराब हो न सके
*
जमीन पे पैर तो जमाये, कोशिशें भी करीं
मगर अफ़सोस 'सलिल' आफताब हो न सके
*
*
सवाल तुमने किये सौ बिना रुके यारां
हमने चाहा मगर फिर भी जवाब हो न सके
*
हमें काँटों के बीच बागबां ने ठौर दिया
खिले हम भी मगर गुल-ए-गुलाब हो न सके
*
नसीब बख्श दे फुटपाथ की शहंशाही
किसी के दिल के कभी हम नवाब हो न सके
*
उठाये जाम जमाना मिला, है साकी भी
बहा पसीना 'सलिल' ही शराब हो न सके
*
जमीन पे पैर तो जमाये, कोशिशें भी करीं
मगर अफ़सोस 'सलिल' आफताब हो न सके
*
गीत
एक रचना
हर कविता में कुछ अक्षर
रस बरसा जाते आकर
*
कुछ किलकारी भरते हैं
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धुप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****
हर कविता में कुछ अक्षर
रस बरसा जाते आकर
*
कुछ किलकारी भरते हैं
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धुप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****
geet
एक रचना
हर कविता में कुछ अक्षर
रस बरसा जाते आकर
*
कुछ किलकारी भरते हैं
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धूप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****
हर कविता में कुछ अक्षर
रस बरसा जाते आकर
*
कुछ किलकारी भरते हैं
खूब शरारत करते हैं
नन्हे-मुन्ने होकर भी
नहीं किसी से डरते हैं
पल-पल गिर-उठ, रो-हँसकर
बढ़ कर फुर से उड़ते हैं
गीत-ग़ज़ल जैसे सस्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ पहुना से संकोची
सिमटे-सिमटे रहते हैं
करते मन की बातें कम
औरों की सुन-सहते हैं
किससे नयन लड़े, किस्से
कहें न मन में दहते हैं
खोजें मिलने के अवसर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अवगुंठन में छिपकर
थाप लगा दरवाजे पर
हौले-हौले कदम उठा
कब्जा लेते सारा घर
गज़ब कि उन पर शैदा ही
होता घरवाला अक्सर
धूप-चाँदनी सम भास्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ हारे-थककर सोये
अपने में रहते खोये
खाली हाथों में देखें
कहाँ गये सपने बोये?
होंठ हँसें तो भी लगता
मन ही मन में हैं रोये
चाहें उठें न अब सोकर
हर कविता में कुछ अक्षर
*
कुछ अक्षर खो जाते हैं
बनकर याद रुलाते हैं
ज्ञात न वापिस आएँगे
निकट उन्हें हम पाते हैं
सुधियों से संबल देते
सिर नत, कर जुड़ जाते हैं
हो जाते ज्यों परमेश्वर
हर कविता में कुछ अक्षर
*****
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गीत,
नवगीत,
मुक्तक गीत,
संजीव,
geet,
muktak geet,
navgeet,
sanjiv
muktak
मुक्तक
*
ज्योति तम हर, जगत ज्योतित कर रही
आत्म-आहुति पंथ हँस कर वर रही
ज्योति बिन है नयन-अनयन एक से
ज्योति मन-मंदिर में निशि-दिन बर रही
*
ज्योति ईश्वर से मिलाती भक्त को
बचाती ठोकर से कदम अशक्त को
प्राण प्रभु से मिल सके तब ही 'सलिल'
ज्योति में मन जब हुआ अनुरक्त हो
*
ज्योति मन में जले अंधा सूर हो
और मीरा के ह्रदय में नूर हो
ज्योति बिन सूरज, न सूरज सा लगे
चन्द्रमा का गर्व पल में चूर हो
*
ज्योति में आकर पतंगा जल मरे
दोष क्या है ज्योति का?, वह क्यों डरे?
ज्योति को तूफां बुझा दे तो भी क्या?
आखिरी दम तक तिमिर को वह हरे
इसलिए जग ज्योति का वंदन करे
हुए ज्योतित आप जल, मानव खरे
*
ज्योति का आभार सब जग मानता
ज्योति बिन खुद को न कोेेई जानता
ज्योति नयनों में बसे तो जग दिखे
ज्योति-दीपक से अँधेरा हारता
*
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