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शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

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कार्य शाला : आइये कविता करें: ४

संजीव, पद्य, नवगीत, गीत, आभा सक्सेना,  

इस श्रंखला में फिर श्रीमती आभा सक्सेना जी की एक रचना विचाराधीन है. अन्य सहभागी भी अपनी रचनाएँ चर्चा हेतु लाएं तो सभी को कुछ न कुछ लाभ होगा। यह एक नवगीत है. 


नवगीत के शिल्प और भाषा के सम्बन्ध में कुछ संकेत:
*
१. नवगीत के २ हिस्से होते हैं १. मुखड़ा २. अंतरा।


२. मुखड़ा की पंक्तिसंख्या या पंक्ति में वर्ण या मात्रा संख्याका कोई बंधन नहीं होता पर मुखड़े की प्रथम या अंतिम एक पंक्ति के समान पदभार की पंक्ति अंतरे के अंत में आवश्यक है ताकि उसके बाद मुखड़े को दोहराया जा सके तो निरंतरता की प्रतीति हो।


३. सामान्यतः २ या ३ अंतरे होते हैं। अन्तरा सामान्यतः स्वतंत्र होता है पर पूर्व या पश्चात्वर्ती अंतरे से सम्बद्ध नहीं होता। अँतरे में पंक्ति या पंक्तियों में वर्ण या मात्रा का कोई बंधन नहीं होता किन्तु अंतरे की पंक्तियों में एक लय का होना तथा वही लय हर अन्तरे में दोहराई जाना आवश्यक है।


४. नवगीत में विषय, रस, भाव आदि का कोई बंधन नहीं होता।


५. संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, मार्मिकता, बेधकता, स्पष्टता, सामयिकता, सहजता-सरलता नवगीत के गुण या विशेषतायें हैं।


६. नवगीत की भाषा में देशज शब्दों के प्रयोग से उपज टटकापन या अन्य भाषिक शब्द विशिष्टता मान्य है, जबकि लेख, निबंध में इसे दोष कहा जाता है।


७. नवगीत की भाषा सांकेतिक होती है, गीत में विस्तार होता है।


८. नवगीत में आम आदमी की या सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्ति दी जाती है जबकि गीत में गीतकार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों को शब्दित करता है।


९. नवगीत में अप्रचलित छंद या नए छंद को विशेषता कहा जाता है। छंद मुक्तता भी स्वीकार्य है पर छंदहीनता नहीं।


१०. नवगीत में अलंकारों की वहीं तक स्वीकार्यता है जहाँ तक वे कथ्य की स्पष्ट-सहज अभिव्यक्ति में बाधक न हों।


११. नवगीत में प्रतीक, बिम्ब तथा रूपक भी कथ्य के सहायक के रूप में ही होते हैं।


सारत: हर नवगीत अपने आप में पूर्ण तथा गीत होता है पर हर गीत नवगीत नहीं होता। नवगीत का अपरिहार्य गुण उसका गेय होना है।


नव गीत (एक नया प्रयास)........


आभा सक्सेना


काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं।
छत के ऊपर बादल आये
हाथ पांव मेरे फुलवाये
इत दौड़ूं या उत दौड़ूं main
बात समझ ना मेरे आये
पानी की बूंदें भी टिपटिप
करके दुगना शोर मचाये
मन में बादल से मैं कहती
काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं।

अब खयाल आया है मुझको
बच्चों को स्कूल से लाना
bachchon ko shala se lana
देखूं अब क्या समय हुआ है
बच्चों को है देना khana
अंगना का सामान भीगता
कैसे उसको अन्दर डालूं
इतने सारे काम बचे है
तुरत फुरत कैसे निबटाऊँ
काम पड़े हैं कितने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं
काम बचे है इतने सारे
गिलहरी ने शोर मचाया 15
shor machati hai gilhariya = 16

कूद-कूद कर शोर मचाये
पेड़ की शाखों पर जो पकता
फल आम का कूद गिराये
उसको कोई होश नहीं है
चाहे बारिश कितनी आये
छोटे छोटे रूई के गोले
टहनी पर चाहे लेजाना
हिम्मत की तो कमी नहीं
पेड़ पर जाना और सुस्ताना
काम बचे है इतने सारे
छत पर कपड़े पड़े हुये हैं
आभा जी का यह नवगीत सराहनीय है.कथ्य स्पष्ट, यथा संभव संक्षिप्त तथा सहज ग्रहणीय है. भाषा में टटकापन, मार्मिकता, लक्षिणकता अभ्यास से क्रमशः आती है. अंतरों में पंक्ति साम्य तथा पंक्तियों में मात्रिक संतुलन पर कुछ और सजगता चाहिए। आरम्भ की दृष्टि से यह प्रयास उत्तम है. आभा जी को बधाई.
सुझाव:
अंतरों की पंक्ति संख्या समान हो तो बेहतर. यह अनिवार्य नहीं है पर समानता से लालित्य वृद्धि होती है. अंतिम अंतरे को एक बार और देख लें. हड़बड़ी में कुछ त्रुटि रह गयी हैं, आप गुनगुनाकर दोहराएंगी तो अपने आप दूर कर लेंगी। अच्छे प्रयास हेतु फिर से बधाई।

navgeet: -sanjiv

नवगीत:
संजीव
.
वह खासों में खास है
रूपया जिसके पास है
.
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खाट खड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
.
था तो वह  सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
.
अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है

muktika: -sanjiv

मुक्तिका:
संजीव
.

(चित्र आभार : राज भाटिया)

अपने क़द से बड़ा हमारा साया है 
छिपा बीज में वृक्ष समझ अब आया है 

खड़ा जमीं पर नन्हे पैर जमाये मैं 
मत रुक, चलता रह रवि ने समझाया है 

साया-साथी साथ उजाले में रहते 
आँख मुँदे पर किसने साथ निभाया है?

'मैं' को 'मैं' से जुदा कर सका कब कोई
सब में रब को देखा गले लगाया है?

है अजीब संजीव मनुज जड़ पत्थर सा 
अश्रु बहाता लेकिन पोंछ न पाया है 

===


गुरुवार, 15 जनवरी 2015

navgeet: -sanjiv

अभिनव प्रयोग:
नवगीत
संजीव  
.
जब लौं आग न बरिहै तब लौं,
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें
बन सूरज पगफेरा
.
कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी
कौनौ ल्याओ पानी
रांध-बेल रोटी हम सेंकें
खा रौ नेता ग्यानी
झारू लगा आज लौं काए
मिल खें नई खदेरा
.
दोरें दिखो परोसी दौरे
भुज भेंटें बम भोला
बाटी भरता चटनी गटखें
फिर बाजे रमतूला
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा
.
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२, नरेंद्र छंद)

Sanjiv verma 'Salil', 94251 83244
salil.sanjiv@gmail.com

lekh: bharat ki lok sampada: faagen -sanjiv

लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें 
संजीव, फाग, ईसुरी, बुंदेली, गद्य, छंद, 
.

भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है।  सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है। 

पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है। 

बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं।  ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:  

ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं: 

कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके 
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके 

ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं: 

मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ 
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ  

पटियाँ कौन सुगर ने पारीलगी देहतन प्यारी 
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँसाँसे कैसी ढारी 
तन रईं आन सीस के ऊपरश्याम घटा सी कारी 
'ईसुरप्राण खान जे पटियाँजब सें तकी उघारी   

कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैंचोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।

ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:

दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें 
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें 
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे 

तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है: 

छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन 
नोंकदार बरछी से पैंने,  चलत करेजे फोरन 

नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है: 

अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के 
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के 

इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:

जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ  
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ 
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ 
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ 

लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा  और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।   

जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो 
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो  
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो  

ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है

हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी 
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी 
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी 
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी  

ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं: 

जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें 
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने 
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने 
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने 

ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने  के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है। 

रचना विधान: 

ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, , ,  ) में १६ तथा सम चरण (२, , , ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी  मिलती हैं। ये फागें छंद  प्रभाकर  नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए: 

किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी 
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस  सम न्यारी 
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी 
लिये ले रही  जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी 
    
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:

बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनताकहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे 
. 
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन 
जबलपुर ४८२००१ / ९४२५१ ८३२४४ 
salil.sanjiv@gmail.com / divyanarmada.blogspot.in

lohadi par: manjul bhatnagar, sanjiv

अभिनव प्रयोग:
मंजुल भटनागर, संजीव, गीत, लोक, साहित्य, पद्य, लोहड़ी,
नमस्कार मित्रों
राय अब्दुल्ला खान भट्टी राजपूत की यह पंक्तियाँ जो हम सब बरसों से मकर संक्रांति के अवसर पर सुनते आयें हैं। ----
सुन्दर मुंदरिये - होय !

तेरा कौन विचारा - होय !
दुल्ला भट्टी वाला - होय !

दुल्ले धी व्याई - होय !
सेर शक्कर पाई - होय !

कुड़ी दा लाल पटाका - होय !
कुड़ी दा सल्लू पाटा - होय !

सल्लू कौन समेटे - होय !

चाचे चूरी कुट्टी - होय !
ओ जिमीदारां लुट्टी - होय !

जिमीदार सुधाए - होय !
गिन गिन पौले आए - होय !

इक पौला रै गया - होय !
सिपाई फड़ के लै गया - होय !

सिपाई ने मारी इट्ट - होय !
भांवे रो ते भांवे पिट्ट - होय !
(पौला=झूठा)
*
मंजुल जी! द्वारा पंक्तियों को पढ़कर उतरी पंक्तियाँ इस लोहड़ी पर उन्हें और आप सबको उपहारस्वरूप भेंट:
सुन्दरिये मुंदरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय

कौन किसी का प्यारा, होय
स्वार्थ सभी का न्यारा, होय

जनता का रखवाला, होय
नेता तभी दुलारा, होय

झूठी लड़ें लड़ाई, होय
भीतर करें मिताई, होय

पाकी हैं नापाकी, होय
सेना अपनी बाँकी, होय

मत कर ताका-ताकी, होय
कर ले रोका-राकी, होय

झाड़ू माँगे माफ़ी, होय
पंजा है नाकाफी, होय

कमल करे चालाकी, होय
जनता सबकी काकी, होय

हिंदी मैया निरभै, होय
भारत माता की जै, होय
=================

navgeet: - sanjiv

अभिनव प्रयोग:
नवगीत 
संजीव 


जब लौं आग न बरिहै तब लौं, 
ना मिटहै अंधेरा
सबऊ करो कोसिस मिर-जुर खें 
बन सूरज पगफेरा 

कौनौ बारो चूल्हा-सिगरी  
कौनौ ल्याओ पानी 
रांध-बेल रोटी हम सेंकें 
खा रौ नेता ग्यानी 
झारू लगा आज लौं काए 
मिल खें नई खदेरा 
दोरें दिखो परोसी दौरे 
भुज भेंटें बम भोला 
बाटी भरता चटनी गटखें 
फिर बाजे रमतूला 
गाओ राई, फाग सुनाओ
जागो, भओ सवेरा 
(बुंदेलों लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फाग की तर्ज़ पर प्रति पर मात्रा १६-१२)
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil' 

बुधवार, 14 जनवरी 2015

चन्द माहिया : क़िस्त 13

चंद माहिये
-आनन्द पाठक
जयपुर
:१:

इक अक्स उतर आया
दिल के शीशे में
फिर कौन नज़र आया

:२:

ता उम्र रहा चलता
तेरी ही जानिब
ऎ काश कि तू मिलता

:३:

तुम से न कभी सुलझें
अच्छा लगता है
बिखरी बिखरी जुलफ़ें

:४:

गो दुनिया फ़ानी है
लेकिन जैसी हो
लगती तो सुहानी है

:५:

वो ख़ालिक में उलझे
मजहब के आलिम
इन्सां को नहीं समझे

-आनन्द.पाठक
09413395592

मकर संक्रान्ति की शुभ कामनायें

मंच के सभी मित्रों/सदस्यों को

मकर संक्रान्ति की शुभ कामनाएं

मौसम आया है पतंग का
बच्चे-बूढ़ों  के उमंग का
उड़ी पतंगे आसमान में
चित्र बनाती रंग-बिरंग का


सादर
आनन्द पाठक
09413395592