कुल पेज दृश्य

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

kundalini:

कुंडली :

उन्मन मन हैं शांत ज्यों, गुजर गया तूफ़ान
तिनका सिकता का रहा, आँधी से अनजान
आँधी से अनजान, दूब मुस्काकर बोली
पीपल-बरगद उखड़े, कर-कर हँसी-ठिठोली
नम जाते जो उनका बच जाता है जीवन
जिन्हें न नमना भाता वे रहते हैं उन्मन
*

धुआं धूम्र कचरा किया, खूब मना त्यौहार
रसायनों से हो रहे, खुद ही हम बीमार
खुद ही हम बीमार, दोष कुदरत को देते
छप्पर हर मुश्किल का शासन पर धर देते
कहे यही संजीव खोद रहे हम खुद कुआं
अमन-शांति, सुख-चैन करते हमीं धुआं-धुआं
*


muktak:

मुक्तक:

हो रहा है आज खुद से खिन्न मन
दिख रहा है नित्य से क्यों भिन्न मन?
अजब ऊहापोह में है घिर गया -
ख़ुशी से खुश हो हुआ विच्छिन्न मन
*


chiitragupt aur kayasth

'चित्रगुप्त ' और 'कायस्थ' क्या हैं ?


विजय माथुर पुत्र स्वर्गीय ताज राजबली माथुर,मूल रूप से दरियाबाद
 (बाराबंकी) के रहनेवाले हैं.१९६१ तक लखनऊ में थे . पिता जी के ट्रांसफर
 के कारण बरेली,शाहजहांपुर,सिलीगुड़ी,शाहजहांपुर,मेरठ,आगरा ( १९७८ 
में अपना मकान बना कर बस गए) अब  अक्टूबर २००९ से पुनः लखनऊ में  बस गए
 हैं. १९७३ से मेरठ में स्थानीय साप्ताहिक पत्र में मेरे लेख छपने प्रारंभ हुए.आगरा में
 भी साप्ताहिक पत्रों,त्रैमासिक मैगजीन और फिर यहाँ लखनऊ के भी एक साप्ताहिक
 पत्र में आपके लेख छप चुके है.अब 'क्रन्तिस्वर' एवं 'विद्रोही स्व-स्वर में' दो ब्लाग 
लिख रहे हैं तथा 'कलम और कुदाल' ब्लाग में पुराने छपे लेखों की स्कैन कापियां  दे 
रहे हैं .ज्योतिष आपका व्यवसाय है और लेखन तथा राजनीति शौक है. 
*

प्रतिवर्ष विभिन्न कायस्थ समाजों की ओर से देश भर मे भाई-दोज के अवसर पर

कायस्थों के उत्पत्तिकारक के रूप मे 'चित्रगुप्त जयंती'मनाई जाती है ।  'कायस्थ 
बंधु' बड़े गर्व से पुरोहितवादी/ब्राह्मणवादी कहानी को कह व सुना तथा लिख -दोहरा 
कर प्रसन्न होते हैं परंतु सच्चाई को न कोई समझना चाह रहा है न कोई बताना चाह 
रहा है। आर्यसमाज,कमला नगर-बलकेशवर,आगरा मे दीपावली पर्व के प्रवचनों में  
स्वामी स्वरूपानन्द जी ने बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, उनसे पूर्व प्राचार्य उमेश 
चंद्र कुलश्रेष्ठ ने सहमति व्यक्त की थी। आज उनके शब्द आपको भेंट करता हूँ। 



प्रत्येक प्राणी के शरीर में 'आत्मा' के साथ 'कारण शरीर' व 'सूक्ष्म शरीर' भी रहते हैं। 

यह भौतिक शरीर तो मृत्यु होने पर नष्ट हो जाता है किन्तु 'कारण शरीर' और 'सूक्ष्म 
शरीर' आत्मा के साथ-साथ तब तक चलते हैं जब तक कि,'आत्मा' को मोक्ष न मिल 
जाये। इस सूक्ष्म शरीर में 'चित्त'(मन) पर 'गुप्त'रूप से समस्त कर्मों-सदकर्म,दुष्कर्म 
एवं अकर्म अंकित होते रहते हैं। इसी प्रणाली को 'चित्रगुप्त' कहा जाता है। इन कर्मों के 
अनुसार मृत्यु के बाद पुनः दूसरा शरीर और लिंग इस 'चित्रगुप्त' में  अंकन के आधार 
पर ही मिलता है। अतः, यह  पर्व 'मन'अर्थात 'चित्त' को शुद्ध व सतर्क रखने के उद्देश्य 
से मनाया जाता था। इस हेतु विशेष आहुतियाँ हवन में दी जाती थीं। 



आज कोई ऐसा नहीं करता है। बाजारवाद के जमाने में भव्यता-प्रदर्शन दूसरों को हेय 

समझना ही ध्येय रह गया है। यह विकृति और अप-संस्कृति है। काश लोग अपने अतीत 
को जान सकें और समस्त मानवता के कल्याण -मार्ग को पुनः अपना सकें। हमने तो 
लोक-दुनिया के प्रचलन से हट कर मात्र हवन की पद्धति को ही अपना लिया  है। इस पर्व 
को एक जाति-वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया गया है।
  
पौराणिक पोंगापंथी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं 
के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित। 

'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म में अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।  



आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव अपने वर्तमान स्वरूप में आया तो ज्ञान-विज्ञान 

का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप 
शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे 
उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे  
अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी  अस्पताल में आज भी जनरल मेडिसिन
विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही मिलेगा। उस समय 
आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण ज्ञान-
जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु 
अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी 
जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-



1. जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके

 द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था
 वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने
 के योग्य माना जाता था। 

2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको
 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी
 को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा
 से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था। 

3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 
 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित
 किये जाते थे जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य मान्य थे । 

4-जो लोग विभिन्न  सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता
था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता
था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने व  इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य मान्य थे। 



ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी

योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी
 योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ  ब्राह्मण,
क्षत्रिय वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों
 वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था।
 ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया
 गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ
 समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे। 

 कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके  शासन-सत्ता
 और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता  आधारित उपाधि
-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक
 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको
 शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण
 ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को
 ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया।
 खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही
 मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य'
 वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर
 रहा है। यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के
 प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क
 जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते
 हुए  भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता
 आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

muktak:

मुकतक:

मेरी आभा ले हरते हैं, दीपक जग से सघन अँधेरा
सूर्य उगा करता है मेरी ड्योढ़ी का कर-कर पगफेरा
आतप-बरखा, धूप-छाँव, सुख-दुःख, खेलें संग आँख मिचौली
पीर-गरल लूँ कंठ धार, धर अधरों पर मुस्कान सवेरा
*
अपना सपना नपना जग में कोई न अब बेमेल रहे
कचरा-तिमिर जला दूँ सारा, जब तक बाती-तेल रहे
गुब्बारों जैसे संसाधन, आसमान सी आशाएं
मेरे लिये ज़िंदगी पूजा, और समझते खेल रहे
*
पूजें लक्ष्मी जी गणेश संग, यहाँ विष्णु बम फोड़ रहे
साथी बदले ऋद्धि-सिद्धि क्या?, क्या ऐसी भी होड़ रहे??
चक्र सुदर्शन चकरी बनकर चकराया है धरती पर
परम्पराएँ, रीति-नीतियाँ बना-बनाकर तोड़ रहे.
*
उड़े पखेरू, दुबके कूकुर, इन्सां क्यों पगलाया है
इन सा नादां कोई दूसरा कहाँ कभी मिल पाया है
भौंक, दहाड़ें, गुर्राते हम तो हमको जंगली कहें
नहीं जंगली इनके जैसा जंगल में भी पाया है
*
 
भैया दूज मनाती हूँ मैं, तुम भी बहिना दूज मनाओ
मैं तुमको पकवान खिलाऊँ, तुम मुझको मिष्ठान खिलाओ
मुझे बचाना तुम विपदा से, मैं संकट से तुम्हें बचाऊँ
आजीवन सम्बन्ध न टूटे, समरसता से इसे निभाओ
*

जागरण साहित्य समिति:जयंती कार्यक्रम- 21-9-2014 rani durgawati sangrahalay jabalpur
















जागरण साहित्य समिति:जयंती कार्यक्रम- दाहिने से आचार्य संजीव
वर्मा सलिल, ओम प्रकाश श्रीवास्तव, आचार्य हरिशंकर दुबे, अंशलाल पंद्रे.










































lekh: mahendra ke geeton men navachar: dr. ram sanehi lal sharma 'yayavar'

महेंद्र भटनागर के गीतों में नवाचार


-डा. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'

छायावाद-काल में ही कविता में नवता के प्रति आकर्षण --
'' नव गति नव लय ताल छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर नव स्वर दे!''
-- निराला
और काव्य के पारम्परिक प्रतिमानों को तोड़ने की ललक -- (''खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत-पाश!'' -- पंत) के स्वर सुनायी पड़ने लगे थे; जिसके परिणाम प्रगतिवाद में सहज और भदेस के प्रति आकर्षण, सर्वहारा व शोषित के प्रति प्रेम व शोषक के प्रति आक्रोश के रूप में सामने आये और प्रयोगवाद में लघु मानव की प्रतिष्ठा, छंद-मुक्त गद्य-कविता की प्रतिष्ठा और वैचारिकता की प्रधानता के रूप में। नयी कविता ने काव्य के सभी प्राचीन बन्धनों और प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया। इसी काल में पाँचवें दशक में छायावादी गीतों की कोमलता, तत्समबहुलता, भाषिक आभिजात्य, शैलीगत मार्दव के प्रति अनाकर्षण जैसे तत्व पनपे। इस कालखंड में दो प्रकार के गीतकार दिखाई पड़े। एक वे जो गीत के पारम्परिक प्रतिमानों -- गहन आत्मानुभूति, छंद की स्वीकृति, लय की सहजता और रागात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में थोड़ी छूट लेकर गीत को नवाचार दे रहे थे। इनमें वीरेंद्र मिश्र, शम्भूनाथ सिंह, देवद्रें शर्मा 'इन्द्र', रवीन्द्र 'भ्रमर', उमाकान्त मालवीय आदि जैसे गीतकार थे तो दूसरे वे कवि थे जो मूलतः नयी कविता के साथ जुड़े परन्तु गीत के क्षेत्र में भी उन्होंने नयेपन को अपनाकर नये गीतों का सृजन किया। इस वर्ग में भारतभूषण अग्रवाल, महद्रेंभटनागर, और केदारनाथ सिंह जैसे कवि दिखायी पड़े। नवगीत को आन्दोलन का रूप तो 1955 के आसपास दिया जाने लगा परन्तु उससे पहले के इन दोनों वर्गों के गीतकारों में नवगीत के पूर्वरूप के दर्शन होने लगे थे। नवगीत में प्रकृति, लोकचेतना, मूल्य-क्षरण और जीवनगत विसंगतियों की अभिव्यक्ति के स्वर उसकी काठी को रच रहे थे। उपर्युक्त गीतकारों में इन स्वरों का पूर्वरूप और नयेपन की ललक दिखने लगी थी। महद्रेंभटनागर के गीत नवगीत की भूमिका रचते दिखायी पड़ते हैं।
सन् 1949 से सृजित उनके 50 नवगीत 'जनवादी लेखक संघ', वाराणसी से प्रकाशित 'जनपक्ष' -- 8 (सन् 2010) में प्रकाशित हुए हैं। इन गीतों में जीवन के तप्त स्वर और 'नवता' के प्रति आकर्षण ध्वनित हो रहा है। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार -- ''महेंद्रभटनागर-विरचित नवगीत विशिष्ट हैं । वे गेय हैं। छंद का बंधन ज़रूर नहीं है। किन्तु वे छंद-मुक्त नहीं हैं। चरणबद्ध हैं। उनमें एक निश्चित मात्रिक-क्रम है। तुकों का व्यवस्थित प्रयोग है। उनके नवगीतों का शिल्प उनका अपना है।''नवगीत के प्रारम्भ से ही प्रकृति के प्रति अपने सहज आकर्षण परन्तु उसके नवरूप की स्वीकृति को स्वीकारा। महेंद्र जी के इन गीतों में 'री हवा', 'हेमन्ती धूप', 'एक रात', 'वर्षा-पूर्व', 'शीतार्द्र', तथा 'हेमन्त' प्रकृति को अपने ढंग से प्रस्तुत करने वाली रचनाएँ हैं । इनमें कहीं हवा यौवन भरी, उन्मादिनी है जिसका आवाहन कवि 'मेघ के टुकड़े लुटाती आ' कहकर कर रहा है। 'खिलखिलाती, रसमयी, जीवनमयी' यह हवा जीवन में उल्लास और जिजीविषा का अथक स्रोत जगाती लगती है। यह तरुण कवि का उल्लासमय नूतन स्वर है। कहीं हेमन्ती धूप मोहिनी है, सुखद है, और कहीं वर्षा-पूर्व --
 ' किसी ने डाल दी तन पर
सलेटी बादलों की रेशमी चादर!
मोह लेती है छटा
मोद देती है घटा
 काली घटा!'
परन्तु इन रचनाओं में कवि अपनी रागात्मक संवेदनाओं से आगे नहीं जा पाता। नवगीत ने आगे चलकर प्रकृति को जिस मानवीकृत और तटस्थ रूप में अपनाया वह 'शीतार्द्र' और 'हेमन्त' में दिखायी पड़ता है। 'शीतार्द्र' में 'कोहरा' कारीगर है, रजनी अध्यक्ष है, और नव-प्रभात डर कर बैठा हुआ है; परन्तु हवा 'उन्मादिनी यौवन भरी' है, 'मोहक गंध से भरी पुरवैया' है। कवि को 'प्रिया-सम' हेमन्ती धूप की गोद में सो जाने की ललक है; क्योंकि वह 'मोहिनी' है। 'वर्षा-पूर्व' में ' हवाओं से लिपट / लहरा उठा / ऊमस भरा वातावरण-आँचर' है। 'हेमन्त' में प्रिया से वह कहता है, 'ऐसे मौसम में चुप क्यों हो / कहो न कोई मन की बात!' ये सारे तत्व छायावाद की प्रणयी प्रवृत्ति के अवशेष हैं। कवि छयावाद के मादक, मोहक प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं कर पाया है।
वस्तुतः नवगीत ने जिस जीवन-गति और संघर्ष-चेतना को अपना मूल स्वर बनाया वह उनकी गीति-रचनाओं में 'जीवन : एक अनुभूति', 'अनुदर्शन', 'नियति', 'परिणति', 'नवोन्मेष', 'विराम', 'आग्रह','घटना-चक्र','अकारथ', 'चाह', 'आह्वान', 'दृष्टि', 'परिवर्तन' आदि जैसी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। इन रचनाओं में कवि समाज में समता का बीजमंत्र बोने का इच्छुक है। जीवन की विषमताओं, संघर्ष और मूल्य-क्षरण से व्यथित दिखाई पड़ता है। अनास्था के विरुद्ध आस्था का आलोक-स्वर गुँजाना चाहता है। उसे लगता है कि नया युग आ गया है --
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
सपना --
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा,
छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
('परिवर्तन')
इनमें वह युग-परिवर्तनकारी स्वरों का गायक बना है। इन गीतों में ज़िन्दगी उसे ''धूमकेतन-सी अवांछित, जानकी-सी त्रस्त लांछित, बदरंग कैनवस की तरह, धूल की परतें लपेटे किचकिचाहट से भरी, स्वप्नवत्'' प्रतीत होती है। उसे लगता है कि ''शोर में / चीखती ही रही ज़िन्दगी / हर क़दम पर विवश / कोशिशों में अधिक विवश'' है। उसकी सामूहिक विवशता का स्वर यह है कि ''बंजर धरती की / कँकरीली मिट्टी पर / नूतन जीवन / कैसे बोया जाय!'' जिसकी परिणति यह है कि '' आजन्म / वंचित रह / अभावों ही अभावों में / घिसटती ज़िन्दगी / औचट दहकती यदि / सहज आश्चर्य क्या है?'' परन्तु इस आश्चर्य और विवशता के बीच भी उसे लगता है कि ''ज़िन्दगी / इस तरह / बिखरेगी नहीं /'' भले ही वह ''चीखती / हाफ़ती / ज़िन्दगी / कर चुकी / अनगिनत / ऊर्ध्व ऊँचाइयाँ / गार गहराइयाँ / तय! / थम गया / भोर का / शाम का / गूँजता शोर / गत उम्र की / राह पर / थम गया / एक आह बन / शून्य में / हो गया / लय! /'' वह चाहता है कि ''जीवन अबाधित बहे /'' और ''जय की कहानी कहे!'' और वह शोषित, पीड़ित, दलित, दमित को जगाने वालों, जड़ता को झकझोरने वालों का आह्वान करता है, ''मन से हारो! जागो! तन के मारो! जागो! / जीवन के लहराते सागर में कूदो / ओ गोताखोरो! जड़ता झकझोरो!''
वस्तुतः यही वह मूल स्वर है जिसे आगे चलकर नवगीत ने अपने कथ्य का आधार बनाया। समय के प्रश्नों से टकराने, जड़ता को झकझोरने, नये युग-मूल्यों को गढ़ने, विसंगतियों से टकराने, धुँधलकों को हटाने, विषमता के चक्रव्यूह को तोड़ने और नवयुग के आह्नान का यही स्वर नवगीत का मूल स्वर है; जिसका मंगलाचरण डा. महेंद्रभटनागर की इन रचनाओं में दिखाई पड़ता है।
इसलिए लगता है कि कवि महेंद्र जी जहाँ एक ओर छायावादी कोमलता, मार्दव, वायवी प्रणय चेतना और भाषिक तत्समीयता से बाहर नहीं निकल पा रहे; वहीं इन गीतों से यह भी लगता है कि उसमें इन सबको छोड़ने और जीवन की जटिलताओं से सीधे टकराने का हौसला भी है। वह नवयुग की कीर्ति-कथा भी लिखना चाह रहा है। कहा जा सकता है कि ये गीत संक्रमण काल की मनःस्थितियों के गीत हैं।
गीत के पारम्परिक फार्मेट में छन्द का विशेष महत्त्व है। छन्द ही गीत की लय को नियन्त्रित करने का साधन है। नवगीत के पुरोधा कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने एक गीत में कहा है --
हाँ, हमने गीत के स्वयंवर में
तोड़ी है प्रत्यंचा इंद्र के धनुष की!
अँधियारी लय के कान्तरों में हम
कालजयी आखेटक
आश्रयदाताओं के अभिनन्दन में
झुका नहीं अपना मस्तक
हमने कब मानी है भाषा अंकुश की ...
हमसे ही जीवित है इतिहासों में
एकलव्य की परम्परा,
बँधी नहीं श्लेष, यमक, रूपक में
ऋषि की वाणी ऋतम्भरा,
हमने कब ढोयी है पालकी नहुष की!
यह गीत छन्द के संबंध में लय के संबंध में व नवगीत के कथ्य के संबंध में रचा गया शाश्वत सूत्र है। नवगीतकार छंद, लय और तुक के बन्धन तोड़कर नयी शिल्प-चेतना का वाहक बनता है और आश्रयदाताओं और नहुषों का कीर्ति गान न करके शोषित पीड़ित विजड़ित मानवता के दर्द को अपने गीतों में उकेरता है। इस दिशा में नवगीतकारों में छन्द के बंधन से अपने को पूर्णत: मुक्त तो नहीं किया है; परन्तु वह छन्द के एक चरण को तोड़कर कई पंक्तियों में लिखकर यौगिक छन्द बना कर चरण-संख्या घटा-बढ़ाकर, चरणों में विसंगतियाँ अपना कर, छन्दहीनता अपना कर तथा बृहत् खण्ड-योजना से छन्दात्मकता लाकर छन्द के इस इंद्रधनुष को नयापन देता है। डा. महेंद्रभटनागर के गीतों में लय की स्वीकृति तो है; परन्तु छन्द को उन्होंने लगभग अस्वीकार कर दिया है। उनके गीतों में न तो चरण-योजना है, न ध्रुवपद के साथ तुक-विधान का अनिवार्य सामंजस्य है। उन्होंने छन्दहीनता व छन्द के चरणों में विसंगतियों को अपनाया है। उदाहरणार्थ उनके बहुचर्चित गीत 'री हवा!' को ही देखें --
री हवा !
गीत गाती आ,
सनसनाती आ ;
डालियाँ झकझोरती
रज को उड़ाती आ !
मोहक गंध से भर
प्राण पुरवैया
दूर उस पर्वत-शिखा से
कूदती आ जा !
ओ हवा !
उन्मादिनी यौवन भरी
नूतन हरी इन पत्तियों को
चूमती आ जा !
गुनगुनाती आ,
मेघ के टुकड़े लुटाती आ !
मत्त बेसुध मन
मत्त बेसुध तन !
खिलखिलाती, रसमयी,
जीवनमयी
उर-तार झंकृत
नृत्य करती आ !
री हवा !
(रचना-सन् 1949)
इस गीत का ध्रुवपद 23-23 मात्राओं से बुना गया है; परन्तु प्रथम चरण तीन पंक्तियों में व द्वितीय चरण दो पंक्तियों में लिखा गया है। पारम्परिक ढंग से इसे अगर इस तरह लिख दिया जाय --
री हवा / गीत गाती आ / सनसनाती आ!
डालियाँ झकझोरती / रज को उड़ाती आ!
तो यह 23 मात्रा का मात्रिक छन्द बन जाएगा। पन्तु आगे के अक्षरों में 'मोहक ... पुरवैया' दो पंक्तियों में 20 मात्राएँ हैं और 'दूर उस पर्वत-शिखा से कूदती आ जा!' में 23 मात्राएँ। आगे की पंक्तियों में क्रमशः 5, 19,, 16, 9 मात्राएँ हैं; जो दो पंक्तियों का चरण बनकर प्रस्तुत है। इस तरह छन्द में 24 एवं 25 मात्राएँ हो जाती हैं और समापन चरण में प्रथम पंक्ति में 9 व द्वितीय पंक्ति ('मेघ के टुकड़े लुटाती आ') में 16 मात्राएँ हैं। इस तरह इस गीत की संरचना में मात्रिक स्तर पर पूर्ण विसंगति है; परन्तु विशेषता यह है कि इसके बावजू़द गीत की लय प्रभावित नहीं हुई है। महेंद्र जी के अन्य गीतों में भी यही विशेषता है। वे पारम्परिक छन्द-बन्धन को नहीं मानते। छन्दों को तोड़ते हैं, एक छन्द के एक चरण को कई पंक्तियों में लिखते हैं और चरणों में विसंगति अपनाते हैं। इससे छन्द का इन्द्रधनुष टूटता है। छन्द-भंग होता है; परन्तु लय का उन्होंने ध्यान रखा है। उनके गीतों में गेयता की अपेक्षा वाचिकता अधिक है जो आगे चलकर अनेक नवगीतकारों में भी मिलती है।
वस्तुतः निर्विवाद रूप से डा. महेंद्रभटनागर के गीत नवगीत का पूर्वरूप हैं। ये संक्रमण काल की रचनाएँ हैं जिनमें छायावादी प्रवत्तियों के अवशेष भी हैं और नये युग की गीतधर्मी जनचेतना के स्वर भी इन्हें ऐतिहासिक महत्त्व का बनाते हैं। इनमें अपने युग की भविष्यधर्मी नवगीत चेतना की आहट सुनी जा सकती है।

bal geet: chidiya

बाल गीत : 

चिड़िया

Bird illustration print - Magnolia branch
 
*
चहक रही 
चंपा पर चिड़िया 
शुभ प्रभात कहती है 

आनंदित हो 
झूम रही है 
हवा मंद बहती है 

कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ

बन जाएँ जब वृक्ष 
छाँह में 
उनकी खेल रचाओ 

तुम्हें सुनाऊँगी 
मैं गाकर  
लोरी, आल्हा, कजरी

कहना राधा से 
बन कान्हा 
'सखी रूठ मत सज री' 

टीप रेस, 
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली 

हिल-मिल खेलें 
तब किस्मत भी 
आकर बने सहेली 

नमन करो 
भू को, माता को 
जो यादें तहती है 

चहक रही 
चंपा पर चिड़िया 
शुभ प्रभात कहती है 

***

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

हिंंदी नवगीत का उद्भव विकास

                                                           हिंंदी नवगीत का उद्भव विकास  
हिंदी गीत-नवगीत : उद्भव और विकास 

वैदिक साहित्य में ऋग्वेद एवं सामवेद की ऋचाएँ जो गीत का आदि रूप हैं गीत की दो अनिवार्य शर्तें विशिष्ट सांगीतिक लय तथा आरोह-अवरोह अथवा गायन शैली हैं। कालांतर में 'लय' के निर्वहन हेतु छंद विधान और अंत्यानुप्रास (तुकांत-पदांत) का अनुपालन संस्कृत  काव्य की वार्णिक छंद परंपरा तक किया जाता रहा। 

संस्कृत काव्य के समान्तर प्राकृत, अपभ्रंश आदि में भी 'लय' का महत्व यथावत रहा. सधुक्कड़ी में शब्दों के सामान्य रूप का विरूपण सहज स्वीकार्य हुआ किन्तु 'लय' का नहीं। शब्दों के रूप विरूपण और प्रचलित से हटकट भिन्नार्थ में प्रयोग करने पर कबीर को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'भाषा का डिक्टेटर' कहा। 

विदेशी आक्रमणों के समय में स्थानीय गीत और दोहा तथा विदेशी ग़ज़ल और शेर तथा अन्य काव्य रूपों के गले मिलने से  आरोह-अवरोह और तुकांत-पदांत में नव प्रयोग तथा परिवर्तन स्वाभाविक रूप से हुए किन्तु 'लय' को तब भी यथाशक्ति साधने के प्रयास हुए। भाषिक सम्मिलन ने साहित्य सृजन की गंगो-जमुनी धारा से समन्वय सलिला को पुष्ट किया

अंग्रेजों और अंगरेजी के आगमन और प्रभुत्व-स्थापन की प्रतिक्रिया स्वरूप सामान्य जन अंग्रेजी साहित्य से जुड़ नहीं सका और स्थानीय देशज साहित्य की सृजन धारा क्रमशः खड़ी हिंदी का बाना धारण करती गयी जिसकी शैलियाँ उससे अधिक पुरानी होते हुए भी उससे जुड़ती गयीं। छंद, तुकांत और लय आधृत काव्य रचनाएँ और महाकाव्य लोक में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुए। आल्हा, रासो, राई, कजरी, होरी, कबीर, आदि गीत रूपों में तुकांत-पदांत के समान्तर लय भी सध्या रही. यह अवश्य हुआ की सीमित शिक्षा तथा शब्द-भण्डार के कारण शब्दों के संकुचन या दीर्घता से लय बनाये रखा गया या शब्दों के देशज भदेसी रूप का व्यवहार किया गया। विविध छंद प्रकारों यथा छप्पय, घनाक्षरी, सवैया आदि में यह समन्वय सहज दृष्टव्य है

खड़ी हिंदी जैसे-जैसे वर्तमान रूप में आती गयी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ कवियों में छंद की शुद्धता या विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी जो पारम्परिक और प्रगतिवादी दो खेमों में बँट गयी। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने संस्कृत - बांगला साहित्य लोक संगीत तथा रवीन्द्र संगीत पर अपने असाधारण अधिकार और अद्वितीय प्रतिभा के बल पर गीत को पारम्परिक छंद विधान के पाश से मुक्त कर मुक्त छंद की दिशा दिखाई। निराला के बाद प्रगतिवादी धारा के कवि  छंद को कथ्य की सटीक अभिव्यक्ति में बाधक मानते हुए छंदहीनता के पक्षधर हो गए। इनमें से कुछ समर्थ कवि छंद के पारम्परिक ढाँचे को परिवर्तित कर या छोड़कर 'लय' तथा 'रस' आधारित रचनाओं से सार्थक रचना कर्मकार सके किन्तु अधिकांश कविगण नीरस-क्लिष्ट प्रयोगवादी कवितायेँ रचकर जनमानस में काव्य के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का कारण बने। 

दूसरी ओर पारम्परिक काव्यधारा के पक्षधर रचनाकार छंदविधान की पूर्ण जानकारी और उस पर अधिकार न होने के कारण उर्दू काव्यरूपों के प्रति आकृष्ट हुए अथवा मात्रिक-वार्णिक छंद के रूढ़ रूपों को साधने के प्रयास में लालित्य, चारुत्व आदि काव्य गुणों को नहीं साध सके। इस खींच-तान और ऊहापोह के वातावरण में हिंदी काव्य विशेषकर गीत 'रस' तथा 'लय' से दूर होकर जिन्दा तो रहा किन्तु जीवनशक्ति गँवा बैठा। किताबी विद्वानों की अमरता की चाह ने अगीत, प्रगीत, गद्यगीत, अनुगीत, प्रलब गीत जैसे न जाने कितने प्रयोग किये पर बात नहीं बनी। प्रारंभिक आकर्षण के बाद नई कविता अपनी नीरसता और जटिलता के कारण जन-मन से दूर होती  गयी, गीत के मरने की घोषणा करनेवाले स्वयं काल के गाल में समां गए पर गीत लोक मानस में जीवित रहा

साहित्य में गीत लेखन परंपरा को पुष्ट करने के सत्प्रयास सतत होते रहे। इस मध्य गीत को 'नवगीत' का नाम मिला और उसके कथ्य शिल्प को पूर्वापेक्षा अधिक ग्राह्य, स्पष्ट और सहज बनाने का सत्प्रयास हुआ निराला, महादेवी, बच्चन, नेपाली, नवीन, दद्दा, दिनकर, सुमन, भारती, नीरज, गिरिजा कुमार माथुर, भारत भूषण, सोम ठाकुर, देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', कुमार रविन्द्र, नचिकेता, सत्य नारायण, अश्वघोष, पूर्णिमा बर्मन, गुलाब सिंह, मयंक श्रीवास्तव, ओम धीरज, विद्यानन्दन राजीव, बुद्धिनाथ मिश्र, नईम, कुंवर 'बेचैन', उमाकांत मालवीय, विनोद निगम, महेंद्र भटनागर, जगदीश व्योम, रविन्द्र 'भ्रमर', कुमार रविन्द्र, शम्भुनाथ सिंह, राजेंद्र गौतम, अवधबिहारी श्रीवास्तव, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, राजकुमार सिंह, शांति सुमन, विनोद निगम, शांति सुमन, यश मालवीय, विष्णु सक्सेना, देवेन्द्र कुमार, माहेश्वर तिवारी, भारतेंदु मिश्र, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, राधेश्याम बंधु, ओम प्रभाकर,  अवनीश सिंह चौहान, दिनेश सिंह,  ओमप्रकाश सिंह, रमाकांत, शीलेन्द्र चौहान, नीलम सिंह, चन्द्रदेव सिंह, देवेन्द्र कुमार, महेश अनघ, राम सेंगर, संजीव वर्मा 'सलिल', जगदीश प्रसाद जेंद, रामनारायण रमण, ब्रजेश श्रीवास्तव, शैलेन्द्र शर्मा, जगदीश पंकज, विनोद श्रीवास्तव, अवधेश नारायण श्रीवास्तव,  वीरेंद्र आस्तिक, सौरभ पाण्डेय, सुवर्ण दीक्षित, पवन प्रताप सिंह, विजेंद्र विज, अमित कल्ला, प्रदीप शुक्ल, सीमा हरी शर्मा, हरिवल्लभ शर्मा, शिव जी श्रीवास्तव, रोहिर रुसिआ, ओमप्रकाश तिवारी, पंकज परिमल, ओम धीरज,चन्द्र प्रकाश पाण्डेय, बृजभूषण सिंह गौतम, मनोज जैन, बृजेश द्विवेदी,  रंजना गुप्ता, गोपालकृष्ण भट्ट, सुभाष चन्द्र मेहता आदि अनेक सृजनधर्मी  हिंदी की नवगीत सलिला में अवगाहन कर धन्य हुए हैं। नवगीत की औपचारिक सृजन यात्रा का श्री गणेश नयी कविता के समकालिक और समान्तर है। 

गीत और नवगीत : 

गीत और नवगीत दोनों ही हिंदी गीतिकाव्य के अंग हैं। अन्य अनेक उपविधाओं की तरह यह दोनों भी कुछ समानता और कुछ असमानता रखते हैं। नवगीत नामकरण के पहले भी नवगीत रचे गए किन्तु तब गीतों में समाहित माँने गये आज भी गीत रचे जा रहे हैं। अनेक रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमें गीत और नवगीत दोनों के तत्व देखे जा सकते हैं। 

गीत काव्य रचना की एक विधा है जिसमें स्थाई (मुखड़ा) और कुछ अंतरे होते हैं। हर  अंतरे के बाद स्थाई दुहराया जाता है। सामान्यतः स्थाई और अँतरे का छंद विधान, पदभार और गति-यति समान होती है गीत के कथ्य के अनुसार रास, प्रतीक और बिम्ब चुने जाते हैं

नवगीत ऐसी पद्य रचना है जिसमें पारिस्थितिक शब्द चित्रण (विशेषकर वैषम्य और विडम्बना) मय कथ्य को  प्रस्तुत किया जाता है। नवगीत में भी स्थाई तथा अन्तरा होता है किन्तु प्रायः उनका छंद विधान या गति-यति भिन्नता लिये होते हैं। नवगीत का कथ्य काल्पनिक रूमानियत और लिजलिजेपन से प्रायः परहेज करता है। वह यथार्थ की धरती पर 'है' और 'होना चाहिए' के ताने-बाने इस तरह बुनता है की विषमता के बेल-बूटे स्पष्ट रूप से सामने आ सकें। गीत के प्रासाद में छंद विधान और अंतरे का आकार व संख्या उसका विस्तार करते हैं। नवगीत के भवन में स्थाई और अंतरों की सीमित संख्या और अपेक्षाकृत लघ्वाकार व्यवस्थित कक्षों का सा आभास कराते हैं गीत में शिल्प को वरीयता प्राप्त होती है जबकि नवगीत में कथ्य प्रधान होता है

गीत में कथ्य वर्णन के लिए प्रचुर मात्र में बिम्बों, प्रतीकों और उपमाओं के उपयोग का अवकाश होता है जबकि नवगीत में गागर में सागर, बिंदु में सिंधु की तरह इंगितों में बात कही जाती है। 'कम बोले से अधिक समझना' की उक्ति नवगीत पर पूरी तरह लागू होती है। नवगीत की विषय वस्तु सामायिक और प्रासंगिक होती है। तात्कालिकता नवगीत का प्रमुख लक्षण है जबकि सनातनता, निरंतरता गीत का। गीत रचना का उद्देश्य सत्य-शिव-सुंदर की प्रतीति तथा सत-चित-आनंद की प्राप्ति कही जा सकती है जबकि नवगीत रचना का उद्देश्य इसमें बाधक कारकों और स्थितियों का इंगित कर उन्हें परिवर्तित करना कहा जा सकता है। गीत महाकाल का विस्तार है तो नवगीत काल की सापेक्षता। गीत का कथ्य व्यक्ति को समष्टि से जोड़कर उदात्तता के पथ पर बढ़ाता है तो नवगीत कथ्य समष्टि की विरूपता पर व्यक्ति को केंद्रित कर परिष्कार की राह सुझाता है

भाषा के स्तर पर गीत में संकेतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है जबकि नवगीत में स्पष्टता आवश्यक है। गीत पारम्परिकता का पोषक होता है तो नवगीत नव्यता को महत्व देता है गीत में छंद योजना को वरीयता है तो नवगीत में गेयता को महत्व मिलता है 

गीत में अंतरों की संख्या विषय और कथ्य के अनुरूप हो सकती है। अँतरे में पंक्ति संख्या तथा पंक्ति में शब्द संख्या भी आवश्यकतानुसार घटाई - बढ़ाई जा सकती है। नवगीत में सामान्यतः २-३ अँतरे तथा अंतरों में ४-६ पंक्ति होती हैं गीत तथा नवगीत दोनों में एक समानता मुखड़े की पंक्ति और अँतरे की अंतिम पंक्ति में पदांत और / या तुकांत का समभारीय होना है ताकि अँतरे के पश्चात मुखड़े को दुहराया जा सके  गीत में पारम्परिक छंद चयन के कारण छंद विधान पूर्वनिर्धारित गति-यति को नियंत्रित करता है  नवगीत में छान्दस स्वतंत्रता होती है अर्थात मात्रा सन्तुलनजनित गेयता और लयबद्धता पर्याप्त है 

नवगीत लिखते समय इन बातों का ध्यान रखें-१. संस्कृति व लोकतत्त्व का समावेश हो। २. तुकान्त की जगह लयात्मकता को प्रमुखता दें। ३. नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग करें। ४. दृष्टिकोण वैज्ञानिकता लिए हो। ५. सकारात्मक सोच हो। ६. बात कहने का ढंग कुछ नया हो और जो कुछ कहें उसे प्रभावशाली ढंग से कहें। ७. शब्द-भंडार जितना अधिक होगा नवगीत उतना अच्छा लिख सकेंगे। ८. नवगीत को छन्द के बंधन से मुक्त रखा गया है परंतु लयात्मकता की पायल उसका शृंगार है, इसलिए लय को अवश्य ध्यान में रखकर लिखे और उस लय का पूरे नवगीत में निर्वाह करें। ९. नवगीत लिखने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रकृति का सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण करें और जब स्वयं को प्रकृति का एक अंग मान लेगें तो लिखना सहज हो जाएगा।

bal kavita: mere pita

बाल कविता: 

मेरे पिता   

संजीव 'सलिल'

जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया 
कंधे पर ले जगत दिखाया 
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'  
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया 
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया 
'बड़े बनो' सपना दिखलाया 
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा 
मंत्र जीतने का सिखलाया 
*
लालच करते देख डराया 
आलस से पीछा छुड़वाया 
'भूल न जाना मंज़िल-राहें 
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया 
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया 
शशि बन सर से ताप हटाया 
मैंने जब भी दर्पण देखा 
खुद में बिम्ब पिता का पाया 
*

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

geet:

गीत:

एक जुट प्रहार हो 
घना जो अन्धकार हो 
*
गूंजती पुकार हो 
बह रही बयार हो 
घेर ले तिमिर घना 
कदम-कदम पे खार हो 
हौसला चुके नहीं 
शीश भी झुके नहीं 
बाँध मुट्ठियाँ बढ़ो 
घना जो अन्धकार हो 
*
नित नया निखार हो 
भूल का सुधार हो
काल के भी भाल पर 
कोशिशी प्रहार हो 
दुश्मनों से जूझना 
प्रश्न पूछ-बूझना 
दाँव-पेंच-युक्तियाँ 
एक पर हजार हो
घना जो अन्धकार हो 
*
हार की भी हार हो 
प्यार को भी प्यार हो 
प्राणदीप लो जला 
सिंगार का सिंगार हो 
गरल कंठ धारकर
मौत को भी मारकर 
ज़िंदगी की बंदगी 
विहँस बार-बार हो 
घना जो अन्धकार हो 
*

janak muktak

जनक मुक्तक 

मिल त्यौहार मनाइ 
गीत ख़ुशी के गाइ 
साफ़-सफाई सब जगह 
पहले आप कराइए 
*
प्रिया रात के माथ पर,
बेंदा जैसा चाँद धर.  
कालदेवता झूमता-
थाम बाँह में चूमता। 
*
गये मुकदमा लगाने
ऋद्धि-सिद्धि हरि कोर्ट में  
माँगी फीस वकील ने  
अकल आ गयी ठिकाने 
*
नयन न नम कर नतमुखे!
देख न मुझको गिलाकर 
जो मन चाहे, दिलाऊं-
समझा कटनी जेब है.
*
हुआ सम्मिलन दियों का 
पर न हो सका दिलों का 
तेल न निकला तिलों का
धुंआ धुंआ दिलजलों का 

haiku muktak

हाइकु मुक्तक:

जलाया दिया, अँधेरा हँस पिया, हर्षाया हिया
मुझे क्या दिया?, पूछती रही प्रिया, न बोला पिया    
रमा में मन, बरबस न रमा, मुझे दें जिया 
जिया न जाए, तेरे बिन मुझसे, यह क्या किया?
*

sortha muktak

सोरठा मुक्तक:

तन-मन रखिए साफ़, तब होगी दीपावली 
दुश्मन को कर माफ़, नीति नहीं है यह भली 
परख मीत की आप, करिए संकट में सदा-
दीन पाये इन्साफ, तब समझें विपदा टली 
*