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शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

kshanika:

आज की रचनाएँ:

क्षणिका :

तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
*









शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

kshanika

क्षणिका

कायदा मेरा यही है
या करो मत वायदा
कभी करना ही पड़े
तो -
निभाओ है कायदा
अगर संभव न हुआ तो
उसे बतला दो तुरत
किया था जिससे
भले ही हानि हो
या फायदा.

janak chhand

जनक छंद

तन मन रखिये स्वच्छ अब
स्वच्छ रखें परिवेश जब 
स्वच्छ बनेगा देश तब

नदियाँ जीवनदाता हैं
सच मानें वे माता हैं
जल संकट से त्राता हैं

निकट नदी के मत जाएँ
मत कपड़े धो नहाएँ
मछली-कछुए जी पाएँ

स्नानागार बनें तट पर
करिए स्नान वहीं जाकर
करें प्रणाम नदी को फिर

नदी किनारे हों जंगल
पशु-पक्षी का हो मंगल
मनुज न जा करिए दंगल 
*

haiku

हाइकु

हाथ धो लिया
अब पीछे न पड़ो
दूर ही रहो

एक दिवस
हाथ धोने के लिये 
शेष दिवस?

मैले हों न हों
हाथ दिवस पर
हाथ धो ही लो
*

mukatak:

मुक्तक:

मत लब से तुम याद करो, अंतर्मन से फ़रियाद करो
मतलब पूरा हो जायेगा, खुशियों को आबाद करो
गाँठ बाँध श्रम-कोशिश फेरे सात साथ यदि सकें लगा
देव सदय हों मंज़िल के संग आँख मिला संवाद करो
*

geet:

गीत:

फ़िज़ाओं को, दिशाओं को
बना अपना शामियाना
सफल होना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना

ठोकरें खाकर न रुकना, गीत पुनि-पुनि गुनगुनाना
नफरतों का फोड़ पर्वत, स्नेह-सलिला नित बहाना
हवाओं को दे चुनौती, तान भू पर आशियाना
बहाना सीखा बनाना तो न पायेगा ठिकाना
वही पथ पर पग रखे जो जानता सपने सजाना

लक्ष्य पाना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना
सदाओं को, हवाओं को
बना अपना शामियाना 

सघनतम हो तिमिर तो सन्निकट जिसने भोर माना
किरण कलमें क्षितिज पत्रों पर जिसे भाता चलाना
कालिमा को लालिमा में बदल जो रचता तराना
ऋचाएँ वंदन उसी का करें, तू मस्तक नवाना
जान वह देता उजाला ले न किंचित मेहनताना

लुटा, पाना चाहता तो
सीख पगले! मुस्कुराना
अदाओं को, प्रथाओं को
बना अपना शामियाना
*


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

shri devendra shama 'indra' ke navgeet: pankaj parimal

श्री देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' के नवगीत : गीति की नवता के निमित्त नए छंदों की परिकल्पना 

पंकज परिमल 



श्री 'इन्द्र' नवगीतकार के रूप में चरम प्रतिष्ठा को प्राप्त कवि ही नहीं हैं,नवगीत की प्रतिष्ठा के लिए उनका योगदान अलग से विशेष रूप से ध्यानाकर्षण करता है . उन्होंने आरंभिक दौर के अपने नवगीतों में अनेक शैल्पिक प्रयोग भी किए, जिनमें से कुछ उनके प्रथम प्रकाशित नवगीत-संग्रह में दृष्टव्य हैं .१९७२ में प्रकाशित 'पथरीले शोर में'से कुछ नवगीत-अंश इसी दृष्टि-विशेष से प्रस्तुत हैं .षट्पद छंदों का उल्लेख यजुर्वेद में तो मिलता है ,लेकिन द्विपद या चतुष्पद छंद ही काव्य-परिदृश्य पर छाये रहे.निराला के 'तुलसीदास'के लिए आविष्कृत अभिनव छंद के पुनः प्रयोग से पश्चाद्वर्ती व समकालीन कवियों ने इस षट्पद छंद की परंपरा को समृद्ध किया ही,श्री 'इन्द्र' ने इसकी अपने खण्डकाव्य 'कालजयी' में इसकी शतावृत्ति करके न केवल इसको सिद्ध किया,अपितु कई दूसरे षट्पद छंदों को आविष्कृत करके उनको नवगीतोपयोगी भी बनाया. इस दृष्टि से ये नवगीत-अंश देखें-
1.
एक-एक कर उदास गर्मी के 
सारे दिन गुज़र गए

सिमट गयी हरित नम्र छाया 
आकाशी देवदारु 
आरण्यक खिरनी की 
खोज रही विरल-जलद-माया 
प्यासी आँखें,सखे !
मरुथल में हिरनी की

पात-पात फूल-फूल आँधी में 
अमलतास बिखर गए 
(प्रथम दो व अंतिम दो पंक्तियाँ गीत की ध्रुव-पंक्ति या 'टेक' की हैं व इनके मध्य एक षट्पद छंद संपुटित है,जिसमें पहली व चौथी पंक्ति में 'छाया' व 'माया' के और तीसरी व छठी पंक्ति में 'खिरनी' और 'हिरनी' के तुकांत हैं ,शेष गीत में इसी नियम का निर्वाह है )
2.
('स्वप्नपंखी झील' शीर्षांकित इस नवगीत में ध्रुवपंक्ति या टेक २१ मात्राओं की है.मध्यवर्ती छंद है तो चतुष्पद ही किन्तु इसका तीसरा चरण कुछ दीर्घ है .यहाँ १५ ,१५ ,१८,१५ ,का मात्रा-प्रयोग है ,छंद की प्रथम,द्वितीय व चतुर्थ पंक्ति का तुकांत है,शेष नवगीत में इसी का निर्वाह है )
उड़ते हैं स्वप्नपंख झील के कछार

नारिकेल औ'खजूर-ताड़ 
घास-फूस काँटों के झाड़ 
गंधवती सांझ के धुंधलके में 
ऊंघ रहे नींद के पहाड़

दिशि-दिशि में बिखरा है नील अन्धकार 
3.
('टूट गए सेतु'शीर्षांकित इस नवगीत में कोई ध्रुव-पंक्ति नहीं है,केवल षट्पद छंद ही हैं,इसका मात्रा-विन्यास १२ ,१२,९ /१२,१२,९ // का है ,दूसरी व चौथी कातुकांत व तीसरी व छठी पंक्ति का तुकांत-निर्वाह पूरे गीत में है )
लो,अब तो सिमट गया 
गहरे आवर्तों में 
जल का फैलाव 
शेष रहा यादों की 
अनभीगी पर्तों में 
क्षण का सैलाब

सूख गयी गीतों की 
अश्रु झरे नयनों-सी 
रसवंती झील 
उड़ती अब आकाशे 
अनचाहे सपनों-सी 
चील-अबाबील
4.
('चन्दनी समीरों की गंध' में भी कोई ध्रुवपंक्ति नहीं है,अष्टपद छंद में ''१८,९''के मात्रा-क्रम की 4 आवृत्तियों से एक छंद पूरा होता है,दूसरी व छठी पंक्ति के व चौथी व आठवीं पंक्ति के तुकांत हैं ,ऐसे ४ छंद इस गीत में हैं )
बाँहों में भर लिया दिशाओं ने 
सारा आकाश 
चुभते रोमांचों-से दूबों की 
साँसों में तीर 
बिखर गया पल-भर में संयम का 
संचित विश्वास 
नयनों की डोरी पर काँप गयी 
कोई तस्वीर 
5.
('दिवसांत' में केवल दो ही छंद हैं,पर एकसी लयवत्ता के बावजूद दोनों के मात्रा-विन्यास अलग-अलग हैं ,शायद इसीलिए कवि ने इसे प्रयोग-भर रहने दिया,आगे नहीं बढ़ाया ,पर ऐसे भी प्रयोग नवगीत में नवता की प्रतिष्ठापना के प्रयोजन से किए जा सकते हैं,इसकी संभावना का संकेत दिया ,संस्कृत के भक्ति-स्तोत्रों में भी मिश्रित छंदों का प्रयोग मिलता ही है,शायद कुछ-कुछ वैसा यहाँ भी संभव है,लेकिन इतना अवश्य है कि छंद के पूर्वार्द्ध की गणना की पुनरावृत्ति उत्तरार्द्ध में भी करना कवि ने आवश्यक माना,और नवता का अर्थ नई परंपरा की स्थापना है,परम्परा-भंजन नहीं,छान्दसिक अनुशासनहीनता नवता के नाम पर स्वीकार्य नहीं,इस सिद्धांत की स्थापना भी की )
खामोश वन की झील (१२)
मेघों ने समेटी छाँह (१४)
तट पर की हुई वर्तुल लहर हर मौन (२१)
बिखरा कुहासा नील (१२)
फैली ज्यों किसी की बांह (१४)
पथ पर की उदासी-सा बुलाता कौन (२१)

हो रहा दिवसांत (१०)
सूरज ढल गया (९)
पश्चिम दिशा में ऊंघते हैं खेत सरसों के (२५)
तम भरा सीमान्त (१०) 
दीपक जल गया (९)
छाये नयन में दूर बिछड़े मीत बरसों के (२५)
6.
('रागारुण संध्या' का षट्पद छंद अपनी संरचनागत प्रवृत्ति में निराला के 'तुलसीदास'से कुछ मिलता-जुलता है पर अलग है,इसमें मूलछंद १२ मात्रिक है,जिसमें तीसरी व छठी पंक्ति में १० मात्राओं का एक टुकड़ा जुड़ने से ये २२ मात्राओं की हो गयी हैं,पहली-दूसरी का,तीसरी-छठी का व चौथी-पाँचवी का तुकांत है .इस नवगीत में कोई ध्रुवपंक्ति या टेक नहीं है,मात्र ४ छंद हैं.)
होली के रंग भरे 
भूली सुधि-से उभरे 
फागुनी अकाश तले रतनारे बादल 
दूर-दूर खेतों में 
गंधाकुल रेतों में 
लहराता पवनकंप-सरसों का आँचल
7.
('रागारुण संध्या' से मिलते-जुलते छंद-विन्यास का ही नवगीत 'पलकों की पाँखुरियाँ' है.मूल छंद-पंक्ति १२ मात्रिक ही है,तीसरी व छठी पंक्ति २२ के स्थान पर २४ मात्रिक है .ध्रुवपद २४ मात्रिक पंक्ति की दो आवृत्ति से बना है,क्योंकि बाद में कोई 'टेक' नहीं है और तीसरी व छठी पंक्तियों के तुकांत ध्रुवपद जैसे ही हैं,अतः २ तुकांत पंक्तियों के बंद व उसके बाद 'टेक' की व्यवस्था मानी जा सकती है. गीति में सौन्दर्य-तत्त्व के प्रतिष्ठापक कवि का यह नवगीत अविकल उद्धृत है .)
खोलो री गीतों की स्वप्नमयी पाँखुरियाँ 
छलक उठीं पनघट पर गीतों की गागरियाँ 
मेघों का घूँघट-पट 
सरकाती तम की लट 
नभ-पथ से उतर रहीं किरनों की किन्नरियाँ 
आँगन में खिली धूप
बिखरा ज्यों जातरूप 
सिहर उठीं ऊष्मा से लजवंती वल्लरियाँ 
जाग उठे ज्योतिस्नात 
गंधवाह पारिजात 
अमराई में गातीं पाटलपंखी परियाँ 
पीपल की छाँह भली 
अलसाई राह चली 
छहर रही खेतों में धानों की चूनरियाँ 
जागो-जागो राधे 
सोया-सा स्वर जागे
गूँज उठीं मधुवन में कान्हा की पांसुरियाँ 
रोमांचित दूर्वादल 
वसुधा का हरितांचल 
तैर रहीं लहरों पर सौरभ की अप्सरियाँ 
8.
('भुतहा सन्नाटे में' में १५ मात्रिक ध्रुवपंक्ति,१८,१५,१८,१५ क्रम का विषममात्रिक चतुष्पद बंद के रूप में,पश्चात् ध्रुवपंक्ति के तुकांत के अनुवर्तन में १८,२१ मात्राक्रम की २ पंक्तियों की 'टेक'है,इसी नियम का निर्वाह नवगीत के चारों छंदों में हुआ है.बंद की दूसरी-चौथी पंक्तियों के तुकांत हैं.)
दूर तलक उड़ती है रेत

पथराए सपनों के नीलकमल 
सूख गयी लहराती झील 
उग आए ऊजड़ पाटल वन में 
गोखुरू,जवास औ' करील

तपता कापालिक-सा आसमान 
धरती पर विचर रहे लपटों के प्रेत 
गीति की नवता के निमित्त श्री 'इन्द्र' के इस प्रकार के अनेक छान्दसिक प्रयोगों की एक दीर्घ श्रृंखला है,जो 'पथरीले शोर में' से आरम्भ होकर बाद के संग्रहों तक 
चली आई है व कवि के अप्रकाशित गीतों में भी कवि की यही नवताविधायिनी दृष्टि अद्यतन कार्यशील है.

{आभार: श्री रघुविंदर यादव द्वारा प्रकाशित  बाबू जी का भारत मित्र}

doha:

दोहा सलिला:

शंकर पग-वंदन करे. सलिल विहँस हो धन्य
प्रवाहित हो जलधार जो, होती सदा अनन्य।

मधुकर कुछ मधु कण चुने, अगिन कली से नित्य
बूँद-बूँद से समुद हो, सुख मिल सके अनित्य

होते हैं कुछ दिलजले, जिन्हें सुहाता त्रास
पाएं या दें जलन तो, पाते राहत ख़ास

दादुर टर्राते मिले, चमचे कहते गान
नेताजी का कर रहे, दस दिश में विद्वान
*

janak chhand:


जनक छंद

पवन नाचता मुक्त हो
जल-कण से संयुक्त हो
लोग कहें तूफ़ान क्यों?
*
मनुज प्रकृति से दूर हो
पछताता है नूर खो
आँखें मूंदे सूर हो
*
मन उपवन आशा सुमन
रहे सुवासित जग मगन
मंद न हो मन की लगन
*

haiku:

हाइकु

मन विभोर
ओस कण अँजोर
सार्थक भोर
*
गुनगुनाहट
रवि ले आया, पंछी
चहचहाहट
*
जल तरगें
तरंगित किरणों
संग नर्तित
*

muktak:

मुक्तक:

कुसुम कली जब भी खिली विहँस बिखेरी गंध
रश्मिरथी तम हर हँसा दूर हट गयी धुंध
मधुकर नतमस्तक करे पा परिमल गुणगान
आँख मूँद संजीव मत सोना होकर अंध
*
निर्मला नर्मदा नित निनादित हुई
स्नेह सलिला स्वतः ही प्रवाहित हुई
प्राण-मन जब तरंगित प्रसन्नित हुआ
चेतना देव की शुचि प्रमाणित हुई
*
भारतीय संस्कृति अचल भी, सचल भी
सभ्यता जड़ नहीं मानिये सजल भी
शून्य में सृष्टि लाख, सृष्टि को शून्य लख
साधना थिर करे मौन रह मचल भी
*

navgeet:

नवगीत:

रोगों से
मत डरो 
दम रहने तक लड़ो

आपद-विपद
न रहे
हमेशा आते-जाते हैं

संयम-धैर्य
परखते हैं
तुमको आजमाते हैं

औषध-पथ्य
बनेंगे सबल
अवरोधों से भिड़ो

जाँच परीक्षण
शल्य क्रियाएँ 
योगासन व्यायाम न भायें

मन करता है
कुछ मत खायें
दवा गोलियाँ आग लगायें 

खूब खिजाएँ
लगे चिढ़ाएँ
शांत चित्त रख अड़ो

*


बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

haiku baal geet:

हाइकु सलिला :

बाल गीत 

सूरज बब्बा
टेर रहे हैं
अँखियाँ खोलो

उषा लाई है 
सुबह सुनहरी
बिस्तर छोड़ो

गौरैया बैठी
मुंडेर पर चहक
फुदककर

आलस छोडो
गरम दूध पी लो
मंजन कर

खूब नहाना 

बदन पोंछकर
पूजा करना

करो नाश्ता
पढ़कर पुस्तक
सीखो लिखना

कपड़े साफ़
पहन कर शाला
जाते बच्चे

शाबाशी पाते
तब ही कहलाते
सबसे अच्छे

*****



vimarsh: shabd-arth

विमर्श: शब्द और अर्थ  

मनुष्य अपने मनोभाव अन्य तक पहुँचाने के लिए भाषा का प्रयोग करता है. भाषा सार्थक शब्दों का समुच्चय होती है. 

शब्दों के समुचित प्रयोग हेतु बनाये गए नियमों का संकलन व्याकरण कहा जाता है. भाषा जड़ नहीं चेतन होती है. यह देश-काल-परिस्थिति जनित उपादेयता के निकष पर खरी होने पर ही संजीवित होती है. इसलिए देश-काल-परिस्थिति के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते भी हैं. 

एक शब्द है 'जात' या उससे व्युत्पन्न 'जाति'। बुंदेलखंड में कोई भला दिखने वाला निम्न हरकत करे तो कहा जाता है 'जात दिखा गया' जात = असलियत, सच्चाई।  'जात  न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान' अर्थात साधु से उसकी असलियत क्या पूछना? उसका ज्ञान ही उसकी सच्चाई है. जात से ही जा कर्म = जन्म देना = गर्भ में गुप्त सचाई को सामने लाना, जातक-कथा = विविध जीवों के रूप में जन्में बोधिसत्व का सच उद्घाटित करती कथाएं आदि शब्द-प्रयोग अस्तित्व में आये। जाति शब्द को जातिवाद तक सीमित करने से वह सामाजिक बुराई का प्रतीक हो गया. हम चर्चाकारों की भी एक जाति है.  

आचार और विचार दोनों सत्य हैं. विचार मन का सत्य है आचार तन का सत्य है. एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है. मेरी माता जी मैनपुरी उत्तर प्रदेश से विवाह पश्चात जबलपुर आईं. पिताजी उस समय नागपुर में जेलर पदस्थ थे. माँ ने एक सिपाही की शिकायत पिताजी से की कि उसने गलत बात कही. पूछने पर बहुत संकोच से बताया की उसने 'बाई जी' कहा. पिताजी ने विस्मित होकर पूछा कि गलत क्या कहा? अब माँ चकराईं कि नव विवाहित पत्नी के अपमान में पति को गलत क्यों नहीं लग रहा? बार-बार पूछने पर बता सकीं कि 'बाई जी' तो 'कोठेवालियाँ' होती हैं 'ग्रहस्थिनें' नहीं। सुनकर पिता जी हँस पड़े और समझाया कि महाराष्ट्र  में 'बाई जी'' का अर्थ सम्मानित महिला है. यह नवाबी संस्कृति और लोकसंस्कृति में 'बाई' शब्द के भिन्नार्थों के कारण हुआ. मैंने बाई का  प्रयोग माँ, बड़ी बहन के लिये भी होते देखा है.

आचार्य रजनीश की किताब 'सम्भोग से समाधि' के शीर्षक को पढ़कर ही लोगों ने नाक-भौं सिकोड़कर उन पर अश्लीलता का आरोप लगा दिया जबकि उस पुस्तक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था. 'सम्भोग'  सृष्टि का मूलतत्व  है. 

सम = समान, बराबरी से (टके सेर भाजी, टके सेर खाजा वाली समानता नहीं), भोग = आनंद प्राप्त करना। जब किन्हीं लोगों द्वारा सामूहिक रूप से मिल-जुलकर आनंद प्राप्त किया जाए तो वह सम्भोग होगा। दावत, पर्व, कविसम्मेलन, बारात, मेले, कक्षा, कथा, वार्ता, फेसबुक चर्चा आदि  में  सम भोग  ही  होता है किन्तु इस शब्द को देह तक सीमित कर दिये जाने ने समस्या  खड़ी कर दी. हम-आप इस विमर्श में सैम भोगी हैं तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? गृहस्थ जीवन में हर सुख-दुःख को सामान भाव से झेलते पति-पत्नी सम्भोग कर रहे होते हैं. इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है. संतानोत्पत्ति अथवा आनंदानुभूति हेतु की गयी यौन क्रीड़ा में भी दोनों समभागी होने के कारन सम्भोग करते कहे जाते हैं किन्तु इससे शब्द केवल अर्थ तक सीमिता मान लिया जाना गलत है.  

तात्पर्य यह कि शब्दों का प्रयोग किये जाते समय सिर्फ किताबी- वैचारिक पक्ष नहीं सामाजिक-व्यवहारिक पक्ष भी देखना होता है. रचनाकार को तो अपने पाठक वर्ग का भी ध्यान रखना होता है ताकि उसके शब्दों से वही अर्थ पाठक तक पहुँचे जो वह पहुँचाना चाहता है. 

इस सन्दर्भ में आप भी अपनी बात कहें 

kshanikayen:

क्षणिकाएँ
*
अर्चना हो
प्रार्थना हो
वंदना हो
साधना हो
व्यर्थ मानो
निहित इनमें
यदि नहीं
शुभ कामना हो
*
भजन-पूजन
कर रहा तन
नाम सुमिरन
कुछ करे मन
लीन अपने
आप में हो
भूल करना
जगत-चिंतन
*
बिन बताये
हेरता है
कौन निश-दिन
टेरता है?
कौन केवल
नयन मूंदे?
सिर्फ माला
फेरता है
*
उषा-संध्या
नहीं वन्ध्या
दुपहरी में
यदि किया श्रम
निशा सपने
अगिन देती  


navgeet: sanjiv

नवगीत:

जो बीता
सो बीता, भूलो
उस पर डालो धूल 

सरहद पर
नूरा कुश्ती है
बगीचों में
झूठा मेल
हमें छलो तुम
तुम्हें छलें हम
खबरों की हो
ठेलमठेल
हम भी-
तुम भी
कसें न
कह दें
कसी गयी है
ढीली चूल 

आम आदमी
क्या कर लेगा?
ताली दे या
गाली देगा
खबर-चित्र
बहसें बेमानी
सौदे ही
रखते हैं मानी                                                                                                                                              हम तुमको
तुम हमको
देकर फूल
चुभाते शूल

******                                                                                                                                                                                                            

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

kavita: ghar

कविता:

घर :

मनुष्य
रौंदता मिट्टी
काटता शाखाएँ
उठता दीवारें
डालता छप्पर
लगता दरवाजे
कहता घर

बिना यह देखे कि
मिट्टी रौंदने से
कितने जीव
हुए निर्जीव
शाखा कटने से
कितने परिंदे
 हुए बेघर

पुरातत्व की खुदाई
बताती है
घर बनाकर
उसमें कैद
और फिर
दुनिया से आज़ाद
हो जाता है मनुष्य
छोड़कर घर

खुदाई में निकले
घर के अवशेष
देखकर बिना लिए
कोई सीख  
मनुष्य फिर-फिर
बनता है घर
यह जानकर भी कि
उसे होना ही होगा बेघर
*

shatpadi:

षट्पदी :

हुदहुद बरपाकर कहर चला गया निज राह
मानव यत्नों की नहीं ले पाया वह थाह
ले पाया वह थाह नहीं निर्माण शक्ति की
रचें नया मिल साथ सदा हो विजय युक्ति की
हो संजीव मुसीबत को कर देब हम बुदबुद
हारेगा सौ बार मनुज से टकरा हुदहुद 

navgeet: haar gaya...

नवगीत:

हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर

तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की

दिशाहीन
बहसें मुँहजोर

छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश

जाग उठो
फिर लाओ भोर

पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान

साथ चलो 
फिर उगाओ भोर

*** 

  

रविवार, 12 अक्टूबर 2014

chaupal charcha:

चौपाल चर्चा:

व्रत और कथाएँ :

व्रत लेना = किसी मनोकामना की पूर्ती हेतु संकल्पित होना, व्रत करना = आत्म प्रेरणा से लिये निर्णय का पालन करना। देश सेवा, समाज सेवा आदि का वृत्त भी लया जा सकता है 

उपवास करना या न करना व्रत का अंग हो सकता है, नहीं भी हो सकता।

समाज में दो तरह के रोगी आहार के कारण होते हैं १. अति आहार का कारण, २. अल्प आहार के कारण 

स्वाभाविक है उपवास करना अथवा  खाना-पीना काम करना या न करना अति आहारियों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। सन्तुलित आहारियों या अल्प आहारियों के लिए उपयुक्त आहार यथामय ग्रहण करना ही उपयुक्त व्रत है. अत: व्रत का अर्थ आहार-त्याग नहीं सम्यक आहार ग्रहण होना चाहिए। अत्यल्प या अत्यधिक का त्याग ही व्रत हो

वाद विशेष या दल विशेष से जुड़े मित्र विषय पर चर्चा कम करते हैं और आक्षेप-आरोप अधिक लगाते हैं जिससे मूल विषय ही छूट जाता है।  

पौराणिक मिथकों के समर्थक और विरोधी दोनों यह भूल जाते हैं कि वेद-पुराणकार भी मनुष्य ही थे। उन्होंने अपने समय की भाषा, शब्द भंडार, कहावतों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोगकर अपनी शिक्षा और रचना सामर्थ्य के अनुसार अभिव्यक्ति दी है। उसका विश्लेषण करते समय सामाजिक, व्यक्तिगत, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं और बाध्यताओं का विचार कर निर्णय लिया जाना चाहिए। 

हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने गूढ़ वैज्ञानिक-सामाजिक-आर्थिक विश्लेषणों और निष्कर्षों को जान सामान्य विशेषकर अल्पशिक्षित अथवा बाल बुद्धि वाले लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हें कथा रूप में ढालकर धार्मिक अनुष्ठानों या पर्वों से जोड़ दिया था, इसका लाभ यह हुआ कि हर घर में गूढ़ विवरण जाने या बिना जाने यथोचित पालन किया जा सका विदेशी आक्रान्ताओं ने ऋषियों-विद्वानों की हत्या कर तथा पुस्तकालयों-शोधागारों को नष्ट कर दिया. कालांतर में शोधदृष्टि संपन्न ऋषि के न रहने पर उसके शिष्यों ने जाने-अनजाने काल्पनिक व्याख्याओं और चमत्कारिक वर्णन या व्याख्या कर कथाओं को जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया। चमत्कार को नमस्कार की मनोवृत्ति के कारण विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म विज्ञानविहीन हो गया 

विडम्बना यह कि मैक्समूलर तथा अन्य पश्चिमी विद्वानों ने बचे ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद किया जिन्हें वहाँ के वैज्ञानिकों ने सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर वैज्ञानिक प्रगति की पराधीनता के अंधावरण में फंसे भारतीय विद्वान या तो अन्धविश्वास के कारण सत्य नहीं तलाश सके या अंधविरोध के कारण सत्य से दूर रहे। संस्कृत ग्रंथों में सदियों पूर्व वर्णित वैज्ञानिक सिद्धांतों, गणितीय गणनाओं, सृष्टि उतपत्ति व् विकास के सिद्धांतों को समझ-बताकर पश्चिमी विद्वान उनके आविष्कारक  बन बैठे। अब यह तस्वीर सामने आ रही है। पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठानों तथा आचार संहिता को वैज्ञानिक सत्यों को अंगीकार कर परिवर्तित होते रहना चाहिए तभी वह सत्यसापेक्ष तथा समय सापेक्ष होकर कालजयी हो सकेगा

ऋतू परिवर्तन के समय वातावरण के अनुरूप खान-पान, रहन-सहन को पर्वों के माध्यम से जन सामान्य में प्रचलित करने की परंपरा गलत नहीं है किन्तु उसे जड़ बनाने की मनोवृत्ति गलत है। 

आइये हम खुले मन से सोचें-विचारें