कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

janak chhand:


जनक छंद

पवन नाचता मुक्त हो
जल-कण से संयुक्त हो
लोग कहें तूफ़ान क्यों?
*
मनुज प्रकृति से दूर हो
पछताता है नूर खो
आँखें मूंदे सूर हो
*
मन उपवन आशा सुमन
रहे सुवासित जग मगन
मंद न हो मन की लगन
*

haiku:

हाइकु

मन विभोर
ओस कण अँजोर
सार्थक भोर
*
गुनगुनाहट
रवि ले आया, पंछी
चहचहाहट
*
जल तरगें
तरंगित किरणों
संग नर्तित
*

muktak:

मुक्तक:

कुसुम कली जब भी खिली विहँस बिखेरी गंध
रश्मिरथी तम हर हँसा दूर हट गयी धुंध
मधुकर नतमस्तक करे पा परिमल गुणगान
आँख मूँद संजीव मत सोना होकर अंध
*
निर्मला नर्मदा नित निनादित हुई
स्नेह सलिला स्वतः ही प्रवाहित हुई
प्राण-मन जब तरंगित प्रसन्नित हुआ
चेतना देव की शुचि प्रमाणित हुई
*
भारतीय संस्कृति अचल भी, सचल भी
सभ्यता जड़ नहीं मानिये सजल भी
शून्य में सृष्टि लाख, सृष्टि को शून्य लख
साधना थिर करे मौन रह मचल भी
*

navgeet:

नवगीत:

रोगों से
मत डरो 
दम रहने तक लड़ो

आपद-विपद
न रहे
हमेशा आते-जाते हैं

संयम-धैर्य
परखते हैं
तुमको आजमाते हैं

औषध-पथ्य
बनेंगे सबल
अवरोधों से भिड़ो

जाँच परीक्षण
शल्य क्रियाएँ 
योगासन व्यायाम न भायें

मन करता है
कुछ मत खायें
दवा गोलियाँ आग लगायें 

खूब खिजाएँ
लगे चिढ़ाएँ
शांत चित्त रख अड़ो

*


बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

haiku baal geet:

हाइकु सलिला :

बाल गीत 

सूरज बब्बा
टेर रहे हैं
अँखियाँ खोलो

उषा लाई है 
सुबह सुनहरी
बिस्तर छोड़ो

गौरैया बैठी
मुंडेर पर चहक
फुदककर

आलस छोडो
गरम दूध पी लो
मंजन कर

खूब नहाना 

बदन पोंछकर
पूजा करना

करो नाश्ता
पढ़कर पुस्तक
सीखो लिखना

कपड़े साफ़
पहन कर शाला
जाते बच्चे

शाबाशी पाते
तब ही कहलाते
सबसे अच्छे

*****



vimarsh: shabd-arth

विमर्श: शब्द और अर्थ  

मनुष्य अपने मनोभाव अन्य तक पहुँचाने के लिए भाषा का प्रयोग करता है. भाषा सार्थक शब्दों का समुच्चय होती है. 

शब्दों के समुचित प्रयोग हेतु बनाये गए नियमों का संकलन व्याकरण कहा जाता है. भाषा जड़ नहीं चेतन होती है. यह देश-काल-परिस्थिति जनित उपादेयता के निकष पर खरी होने पर ही संजीवित होती है. इसलिए देश-काल-परिस्थिति के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते भी हैं. 

एक शब्द है 'जात' या उससे व्युत्पन्न 'जाति'। बुंदेलखंड में कोई भला दिखने वाला निम्न हरकत करे तो कहा जाता है 'जात दिखा गया' जात = असलियत, सच्चाई।  'जात  न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान' अर्थात साधु से उसकी असलियत क्या पूछना? उसका ज्ञान ही उसकी सच्चाई है. जात से ही जा कर्म = जन्म देना = गर्भ में गुप्त सचाई को सामने लाना, जातक-कथा = विविध जीवों के रूप में जन्में बोधिसत्व का सच उद्घाटित करती कथाएं आदि शब्द-प्रयोग अस्तित्व में आये। जाति शब्द को जातिवाद तक सीमित करने से वह सामाजिक बुराई का प्रतीक हो गया. हम चर्चाकारों की भी एक जाति है.  

आचार और विचार दोनों सत्य हैं. विचार मन का सत्य है आचार तन का सत्य है. एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है. मेरी माता जी मैनपुरी उत्तर प्रदेश से विवाह पश्चात जबलपुर आईं. पिताजी उस समय नागपुर में जेलर पदस्थ थे. माँ ने एक सिपाही की शिकायत पिताजी से की कि उसने गलत बात कही. पूछने पर बहुत संकोच से बताया की उसने 'बाई जी' कहा. पिताजी ने विस्मित होकर पूछा कि गलत क्या कहा? अब माँ चकराईं कि नव विवाहित पत्नी के अपमान में पति को गलत क्यों नहीं लग रहा? बार-बार पूछने पर बता सकीं कि 'बाई जी' तो 'कोठेवालियाँ' होती हैं 'ग्रहस्थिनें' नहीं। सुनकर पिता जी हँस पड़े और समझाया कि महाराष्ट्र  में 'बाई जी'' का अर्थ सम्मानित महिला है. यह नवाबी संस्कृति और लोकसंस्कृति में 'बाई' शब्द के भिन्नार्थों के कारण हुआ. मैंने बाई का  प्रयोग माँ, बड़ी बहन के लिये भी होते देखा है.

आचार्य रजनीश की किताब 'सम्भोग से समाधि' के शीर्षक को पढ़कर ही लोगों ने नाक-भौं सिकोड़कर उन पर अश्लीलता का आरोप लगा दिया जबकि उस पुस्तक में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था. 'सम्भोग'  सृष्टि का मूलतत्व  है. 

सम = समान, बराबरी से (टके सेर भाजी, टके सेर खाजा वाली समानता नहीं), भोग = आनंद प्राप्त करना। जब किन्हीं लोगों द्वारा सामूहिक रूप से मिल-जुलकर आनंद प्राप्त किया जाए तो वह सम्भोग होगा। दावत, पर्व, कविसम्मेलन, बारात, मेले, कक्षा, कथा, वार्ता, फेसबुक चर्चा आदि  में  सम भोग  ही  होता है किन्तु इस शब्द को देह तक सीमित कर दिये जाने ने समस्या  खड़ी कर दी. हम-आप इस विमर्श में सैम भोगी हैं तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? गृहस्थ जीवन में हर सुख-दुःख को सामान भाव से झेलते पति-पत्नी सम्भोग कर रहे होते हैं. इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है. संतानोत्पत्ति अथवा आनंदानुभूति हेतु की गयी यौन क्रीड़ा में भी दोनों समभागी होने के कारन सम्भोग करते कहे जाते हैं किन्तु इससे शब्द केवल अर्थ तक सीमिता मान लिया जाना गलत है.  

तात्पर्य यह कि शब्दों का प्रयोग किये जाते समय सिर्फ किताबी- वैचारिक पक्ष नहीं सामाजिक-व्यवहारिक पक्ष भी देखना होता है. रचनाकार को तो अपने पाठक वर्ग का भी ध्यान रखना होता है ताकि उसके शब्दों से वही अर्थ पाठक तक पहुँचे जो वह पहुँचाना चाहता है. 

इस सन्दर्भ में आप भी अपनी बात कहें 

kshanikayen:

क्षणिकाएँ
*
अर्चना हो
प्रार्थना हो
वंदना हो
साधना हो
व्यर्थ मानो
निहित इनमें
यदि नहीं
शुभ कामना हो
*
भजन-पूजन
कर रहा तन
नाम सुमिरन
कुछ करे मन
लीन अपने
आप में हो
भूल करना
जगत-चिंतन
*
बिन बताये
हेरता है
कौन निश-दिन
टेरता है?
कौन केवल
नयन मूंदे?
सिर्फ माला
फेरता है
*
उषा-संध्या
नहीं वन्ध्या
दुपहरी में
यदि किया श्रम
निशा सपने
अगिन देती  


navgeet: sanjiv

नवगीत:

जो बीता
सो बीता, भूलो
उस पर डालो धूल 

सरहद पर
नूरा कुश्ती है
बगीचों में
झूठा मेल
हमें छलो तुम
तुम्हें छलें हम
खबरों की हो
ठेलमठेल
हम भी-
तुम भी
कसें न
कह दें
कसी गयी है
ढीली चूल 

आम आदमी
क्या कर लेगा?
ताली दे या
गाली देगा
खबर-चित्र
बहसें बेमानी
सौदे ही
रखते हैं मानी                                                                                                                                              हम तुमको
तुम हमको
देकर फूल
चुभाते शूल

******                                                                                                                                                                                                            

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

kavita: ghar

कविता:

घर :

मनुष्य
रौंदता मिट्टी
काटता शाखाएँ
उठता दीवारें
डालता छप्पर
लगता दरवाजे
कहता घर

बिना यह देखे कि
मिट्टी रौंदने से
कितने जीव
हुए निर्जीव
शाखा कटने से
कितने परिंदे
 हुए बेघर

पुरातत्व की खुदाई
बताती है
घर बनाकर
उसमें कैद
और फिर
दुनिया से आज़ाद
हो जाता है मनुष्य
छोड़कर घर

खुदाई में निकले
घर के अवशेष
देखकर बिना लिए
कोई सीख  
मनुष्य फिर-फिर
बनता है घर
यह जानकर भी कि
उसे होना ही होगा बेघर
*

shatpadi:

षट्पदी :

हुदहुद बरपाकर कहर चला गया निज राह
मानव यत्नों की नहीं ले पाया वह थाह
ले पाया वह थाह नहीं निर्माण शक्ति की
रचें नया मिल साथ सदा हो विजय युक्ति की
हो संजीव मुसीबत को कर देब हम बुदबुद
हारेगा सौ बार मनुज से टकरा हुदहुद 

navgeet: haar gaya...

नवगीत:

हार गया
लहरों का शोर
जीत रहा
बाँहों का जोर

तांडव कर
सागर है शांत
तूफां ज्यों
यौवन उद्भ्रांत
कोशिश यह
बदलावों की

दिशाहीन
बहसें मुँहजोर

छोड़ गया
नाशों का दंश
असुरों का
बाकी है वंश
मनुजों में
सुर का है अंश

जाग उठो
फिर लाओ भोर

पीड़ा से
कर लो पहचान
फिर पालो
मन में अरमान
फूँक दो
निराशा में जान

साथ चलो 
फिर उगाओ भोर

*** 

  

रविवार, 12 अक्टूबर 2014

chaupal charcha:

चौपाल चर्चा:

व्रत और कथाएँ :

व्रत लेना = किसी मनोकामना की पूर्ती हेतु संकल्पित होना, व्रत करना = आत्म प्रेरणा से लिये निर्णय का पालन करना। देश सेवा, समाज सेवा आदि का वृत्त भी लया जा सकता है 

उपवास करना या न करना व्रत का अंग हो सकता है, नहीं भी हो सकता।

समाज में दो तरह के रोगी आहार के कारण होते हैं १. अति आहार का कारण, २. अल्प आहार के कारण 

स्वाभाविक है उपवास करना अथवा  खाना-पीना काम करना या न करना अति आहारियों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। सन्तुलित आहारियों या अल्प आहारियों के लिए उपयुक्त आहार यथामय ग्रहण करना ही उपयुक्त व्रत है. अत: व्रत का अर्थ आहार-त्याग नहीं सम्यक आहार ग्रहण होना चाहिए। अत्यल्प या अत्यधिक का त्याग ही व्रत हो

वाद विशेष या दल विशेष से जुड़े मित्र विषय पर चर्चा कम करते हैं और आक्षेप-आरोप अधिक लगाते हैं जिससे मूल विषय ही छूट जाता है।  

पौराणिक मिथकों के समर्थक और विरोधी दोनों यह भूल जाते हैं कि वेद-पुराणकार भी मनुष्य ही थे। उन्होंने अपने समय की भाषा, शब्द भंडार, कहावतों, मुहावरों, बिम्बों, प्रतीकों का प्रयोगकर अपनी शिक्षा और रचना सामर्थ्य के अनुसार अभिव्यक्ति दी है। उसका विश्लेषण करते समय सामाजिक, व्यक्तिगत, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक मान्यताओं और बाध्यताओं का विचार कर निर्णय लिया जाना चाहिए। 

हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने गूढ़ वैज्ञानिक-सामाजिक-आर्थिक विश्लेषणों और निष्कर्षों को जान सामान्य विशेषकर अल्पशिक्षित अथवा बाल बुद्धि वाले लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हें कथा रूप में ढालकर धार्मिक अनुष्ठानों या पर्वों से जोड़ दिया था, इसका लाभ यह हुआ कि हर घर में गूढ़ विवरण जाने या बिना जाने यथोचित पालन किया जा सका विदेशी आक्रान्ताओं ने ऋषियों-विद्वानों की हत्या कर तथा पुस्तकालयों-शोधागारों को नष्ट कर दिया. कालांतर में शोधदृष्टि संपन्न ऋषि के न रहने पर उसके शिष्यों ने जाने-अनजाने काल्पनिक व्याख्याओं और चमत्कारिक वर्णन या व्याख्या कर कथाओं को जीविकोपार्जन का माध्यम बना लिया। चमत्कार को नमस्कार की मनोवृत्ति के कारण विश्व का सर्वाधिक वैज्ञानिक धर्म विज्ञानविहीन हो गया 

विडम्बना यह कि मैक्समूलर तथा अन्य पश्चिमी विद्वानों ने बचे ग्रंथों का अपनी भाषा में अनुवाद किया जिन्हें वहाँ के वैज्ञानिकों ने सही परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित कर वैज्ञानिक प्रगति की पराधीनता के अंधावरण में फंसे भारतीय विद्वान या तो अन्धविश्वास के कारण सत्य नहीं तलाश सके या अंधविरोध के कारण सत्य से दूर रहे। संस्कृत ग्रंथों में सदियों पूर्व वर्णित वैज्ञानिक सिद्धांतों, गणितीय गणनाओं, सृष्टि उतपत्ति व् विकास के सिद्धांतों को समझ-बताकर पश्चिमी विद्वान उनके आविष्कारक  बन बैठे। अब यह तस्वीर सामने आ रही है। पारम्परिक धार्मिक अनुष्ठानों तथा आचार संहिता को वैज्ञानिक सत्यों को अंगीकार कर परिवर्तित होते रहना चाहिए तभी वह सत्यसापेक्ष तथा समय सापेक्ष होकर कालजयी हो सकेगा

ऋतू परिवर्तन के समय वातावरण के अनुरूप खान-पान, रहन-सहन को पर्वों के माध्यम से जन सामान्य में प्रचलित करने की परंपरा गलत नहीं है किन्तु उसे जड़ बनाने की मनोवृत्ति गलत है। 

आइये हम खुले मन से सोचें-विचारें 

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत

बचपन का
अधिकार
उसे दो

याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने

अब अपना
स्वीकार
उसे दो

पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें

देखो हँस
मनुहार
उसे दो

इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें

आओ!
नवल निखार
इसे दो

*** 

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

aaj ki rachna

दोहा :

तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास. 

शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक

मुकतक :

मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला

हाइकु :

ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता

जनक छंद :

नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब

सोरठा :

घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े

क्षणिका :

पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी

***

tripadik janak chhand

त्रिपदिक जनक छंद: 

चेतनता ही काव्य है 
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है 
परिवर्तन सम्भाव्य है 

आदि-अंत 'सत' का नहीं 
'शिव' न मिले बाहर 'सलिल'
'सुंदर' सब कुछ है यहीं 

शब्दाक्षर में गुप्त जो 
भाव-बिम्ब-रस चित्र है 
चित्रगुप्त है सत्य वो 

कंकर में शंकर दिखे 
देख सके तो देख तू 
बिन देखे नाटक लिखे 

देव कलम के! पूजते 
शब्द सिपाही सब तुम्हें 
तभी सृजन-पथ सूझते 

श्वास समझिए भाव को 
रचना यदि बोझिल लगे 
सहन न भावाभाव को 

सृजन कर्म ही धर्म है 
दिल को दिल से जोड़ता 
यही धर्म का मर्म है 

शब्द-सेतु की सर्जना
मानवता की वेदना 
परम पिता की अर्चना 

शब्द दूत है समय का 
गुम हो गर संवेदना 
समझ समय है प्रलय का 

पंछी जब कलरव करें 
अलस सुबह ऐसा लगे 
मंत्र-ऋचा ऋषिवर पढ़ें 

_________________

DIWALI 2014

laghukatha:

लघुकथा:

बुद्धिजीवी और बहस

संजीव
*

'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'

'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकि सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'

'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'

'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'

'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो...  आप गप्प तो नहीं मार रहे?'

दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.

*

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

navgeet:

नवगीत:  

पधारो,
रमा! पधारो 

ऊषा से 
ले ताजगी 
सरसिज से 
ले गंध 
महाकाल से  
अभय हो  
सत-शुभ से 
अनुबंध  

निहारो,
सदय निहारो 
*
मातु! गुँजा दो 
सृष्टि में शाश्वत 
अनहद नाद 
विधि-हरि-हर 
रिधि-सिद्धि संग 
सुन मेरी फरियाद

विराजो!
विहँस विराजो 
*
शक्ति-शारदा 
अमावस 
पूनम जैसे साथ 
सत-चित-आनंद 
वर सके
सत-शिव-सुंदर पाथ 

सँवारो 
जन्म सँवारो 
*

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

navgeet:


नवगीत:

कहें दिवाली
करें दिवाला

पथरा गए रे नैन
मेघ की बाट जोहते
बरसो नई या
मूसलधार बरस गौ बैरी
नैहर डूबो
हियाँ सासरे में सूखो रे

आँखमिचौली
खेले बिजुरी 
नेताओं खों
मिला मसाला

छुई सें पोत लई
गोबर सें लीपी बाखर
मुन्नू भरी बस्ता
ले गओ सीखें आखर
लाई-बतेसा लाई 
दिया, गनेस-लच्छमी

तनक उजेरा
भोत अँधेरा
बहा पसीना
मिले निवाला

***

navgeet:

नवगीत:

दीवाली के
दिए जले
नीचे फैला अँधियारा

जग ने
ऊपर-ऊपर देखा
रखा
रौशनी का ही लेखा
तेल डालकर
दीप-दीप में
भूला
खिंची धुएं की रेखा

अति विलंब कर आया
पल में
चला गया उजियारा

ऋद्धि-सिद्धि, हरि
मुँह लटकाये
गणपति-लछमी
पाँव पुजाये
नीति-अनीति
न देखे दुनिया
नयन मूँदकर 
शीश झुकाये

बेटी-बहू
गैर संग सुन
बिन देखे फटकारा

*