स्मृति आलेख:
मेघनाद साहा ने किशोरीलाल जुबली स्कूल में प्रवेश लेकर १९०९ में
कलकत्ता विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा भाषा समूह (अंग्रेजी, बंगाली,
संस्कृत) तथा गणित में सर्वाधिक अंकों सहित उत्तीर्ण की तथा समूचे पूर्व
बंगाल में प्रथम स्थान पाया. १९११ में इंटर साइंस परीक्षा में वे तृतीय
स्थान पर रहे जबकि प्रथम स्थान पर रहे सत्येन्द्र नाथ बोस बाद में विश्व
विख्यात वैज्ञानिक हुए. १९१३ में उन्होंने प्रेसिडेंसी कोलेज कलकत्ता से
गणित मुख्य विषय लेकर स्नातक परीक्षा में द्वितीय स्थान पाया। १९१५ में एम.
एससी. परीक्षा में मेघनाद साहा एप्लाइड मैथेमैटिक्स में तथा सत्येन्द्र
नाथ बोस प्योर मैथेमैटिक्स में प्रथम स्थान पर रहे.
उनके छात्र जीवन में जगदीश चन्द्र बोस तथा प्रफुल्ल चन्द्र सेन अपनी ख्याति
के शिखर पर थे. सहपाठियों के रूप में सत्येन्द्र नाथ बोस, ज्ञान घोष तथा
जे. एन. मुखर्जी जैसी प्रतिभाओं का तथा तथा कालांतर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में
विख्यात गणितज्ञ अमियचरण बनर्जी का साथ उन्हें मिला. साहा ने इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग की स्थापना की. वे अनीश्वरवादी (एथीस्ट)
थे.
वे भारत की विश्व विख्यात विज्ञान-संस्थाओं के जनक थे. उन्हीं की प्रेरणा से १९३० में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (National Academy of Science), , १९३४ में इंडियन फिजीकल सोसाइटी, १९३५ में भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science), तथा १९४४ में Indian Association for the Cultivation of science की स्थापना हुई. १९४३ में कलकत्ता में स्थापित Saha Institute of Nuclear physics उनके महत्वपूर्ण कार्य के प्रति राष्ट्र की ओर से व्यक्त कृतज्ञता का स्मारक है. वे नदी-नियोजन के प्रमुख वास्तुविद थे. दामोदर घाटी परियोजना का मूल प्रस्ताव उन्हीं ने तैयार किया था. मेघनाद साहा का नाम १९३५-३६ में नोबल पुरस्कार हेतु एस्ट्रोफिजिस्ट के रूप में नामांकित किया गय. यह गौरव पानेवाले वे एकमात्र भारतीय हैं. १९५२ में उन्हें उत्तर-पश्चिम कलकत्ता क्षेत्र से सांसद चुन गया. वे परमाण्विक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर तथा भारतीय नीति के निर्माता थे. वे भारतीय राष्ट्रीय कैलेण्डर निर्धारण समिति के अध्यक्ष थे. उन्हीं के प्रयास से राष्ट्रीय कैलेण्डर का निर्धारण बिना किसी विवाद के हो सका. १६ फरवरी १९५६ को हृदयाघात से उनके निधन से भारत ही नहीं विश्व ने एक प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक खो दिया.
आत्म मूल्यांकन :
प्रायः वैज्ञानिकों पर हाथी दांत की मीनार में रहने और सचाइयों को न स्वीकारने का आरोप लगाया जाता है. अपने कीमती वर्षों में राजनैतिक आंदोलनों से जुडाव के बावजूद १९३० तक मैं ऐसी मीनार में रहा किन्तु वर्तमान में प्रशासन के लिए विज्ञान भी शांति-व्यवस्था की तरह आवश्यक है. मैं क्रमशः राजनीति की ओर झुका क्योंकि मैं अपने तरीके से देश के किसी काम आना चाहता था.
समर्पित भौतिकीविद डॉ. मेघनाद साहा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आधुनिक विज्ञान के उन्नयन में भौतिकी का तथा भौतिकी के उन्नयन में डॉ. मेघनाद साहा का योगदान अनन्य
है. एस्ट्रोफिजिक्स के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर डॉ. मेघनाद साहा ने
स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या हेतु विश्व विख्यात 'ओयोनाइजेशन फार्मूला'
दिया। बांगला देश स्थित ढाका जिले के शाओराटोली गाँव में एक निर्धन परिवार में ६ अक्तूबर
१८९३ को बंगाली कायस्थ श्री जगन्नाथ साहा तथा श्रीमती भुवनेश्वरी देवी के आँगन में ऐसा
पुष्प खिला जिसने अपनी मेधा की सुगंध से सकल जगत में अपना नाम किया। उनके
पिता एक छोटे से किराना व्यापारी थे जो बहुत कठिनाई से अपने परिवार को पाल
पाते थे. बालक मेघनाद की शिक्षा गाँव की पाठशाला से आरम्भ हुई. डॉ. अनंत कुमार
दास ने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उनके आवास-भोजन का प्रबंध किया और वे १०
किलोमीटर दूर शिक्षा अर्जन कर ढाका कोलेजिएट स्कूल तथा ढाका कोलेज में आगे शिक्षा ग्रहण कर सके. वे आजीवन डॉ. दास द्वारा समय पर की गयी इस सहायता के
प्रति आभार तथा कृतज्ञता व्यक्त करते थे.
मेघनाद साहा ने किशोरीलाल जुबली स्कूल में प्रवेश लेकर १९०९ में
कलकत्ता विश्वविद्यालय की एंट्रेंस परीक्षा भाषा समूह (अंग्रेजी, बंगाली,
संस्कृत) तथा गणित में सर्वाधिक अंकों सहित उत्तीर्ण की तथा समूचे पूर्व
बंगाल में प्रथम स्थान पाया. १९११ में इंटर साइंस परीक्षा में वे तृतीय
स्थान पर रहे जबकि प्रथम स्थान पर रहे सत्येन्द्र नाथ बोस बाद में विश्व
विख्यात वैज्ञानिक हुए. १९१३ में उन्होंने प्रेसिडेंसी कोलेज कलकत्ता से
गणित मुख्य विषय लेकर स्नातक परीक्षा में द्वितीय स्थान पाया। १९१५ में एम.
एससी. परीक्षा में मेघनाद साहा एप्लाइड मैथेमैटिक्स में तथा सत्येन्द्र
नाथ बोस प्योर मैथेमैटिक्स में प्रथम स्थान पर रहे.
वर्ष
१९१७ में कलकत्ता में नए प्रारंभ यूनिवर्सिटी कोलेज ऑफ़ साइंस में
व्याख्याता के रूप में श्री साहा ने कार्य आरम्भ कर क्वांटम फिजिक्स का
शिक्षण किया. उन्होंने सत्येन्द्र नाथ बोस के साथ मिलकर रिलेटिविटी पर
आइन्सटाइन तथा हरमन मिंकोवस्की के अंग्रेजी में प्रकाशित शोधपत्र का
अंग्रेजी में अनुवाद किया. वर्ष १९१९ में अमेरिकन एस्ट्रोफिजिक्स जर्नल में
उनका शोधपत्र “On Selective Radiation Pressure and its Application”
प्रकाशित हुआ. इसमें उन्होंने स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या
करते हुए 'तत्वों के ऊष्मीय आयनीकरण' (थर्मल आयोनाइजेशन ऑफ़ एलिमेंट्स) का
सिद्धांत प्रतिपादित कर 'साहा समीकरण' प्रस्तुत किया जो एस्ट्रोफिजिक्स के
क्षेत्र में मील का पत्थर सिद्ध हुआ. यह समीकरण तारों के स्पेक्ट्रा के आगामी अध्ययन हेतु आधार बना जिससे शोधकर्ता तारों का तापमान तथा
उनका निर्माण करनेवाले तत्वों का पता कर सके. उन्होंने २ वर्षों तक
इम्पीरियल कोलेज लन्दन तथा रिसर्च लेबोरेटरी जर्मनी में शोध कार्य किया. वे
१९२३ से १९३८ तक इलाहाबाद विश्व विद्यालय में प्राध्यापक तथा तत्पश्चात
१९५६ में निधन तक कलकत्ता विश्व विद्यालय में साइंस फैकल्टी के डीन रहे.
लन्दन की रॉयल सोसायटी ने १९२७ में उन्हें फेलो चुनने का असाधारण गौरव
प्राप्त किया. १९३४ में भारतीय विज्ञान कांग्रेस अपने २१ वें सत्र में
उन्हें अध्यक्ष की आसंदी पर पाकर गौरवान्वित हुई. उन्होंने पत्रिका 'साइंस एंड कल्चर' की स्थापना कर आजीवन सम्पादन किया.
वर्ष
१९३२ में मेघनाद साहा ने इलाहाबाद में उत्तर प्रदेश एकेडमी ऑफ़ साइंस की
स्थापना की. १९३८ में वे साइंस कोलेज कलकत्ता में आणविक भौतिकी (Nuclear
physics) के क्षेत्र में कार्य किया. कालांतर में विज्ञान के उच्च अध्ययन
एवं शोध हेतु यह संस्था उन्हीं के नाम पर 'साहा इंस्टीटयूट ऑफ़ न्यूक्लिअर
फिजिक्स' के नाम से विख्यात हुई. उन्हीं की पहल पर विदेशों में परमाण्विक
भौतिकी संबंधी शोधों हेतु प्रयुक्त सायक्लोट्रोंन (cyclotrons) पहले-पहल
१९५० भारत में लाया गया तथा इस संस्था में इस पर शोध कार्य किये गये.
उन्होंने सौर किरणों का वज़न तथा दबाव मापने हेतु एक यंत्र का अविष्कार किया
जिसे बहुत सराहना मिली. उन्होंने विश्व प्रसिद्ध ‘equation of the
reaction-isobar for ionization’ की खोज की जिसे कालांतर में Saha’s
“Thermo-Ionization Equation” के नाम से प्रसिद्धि मिली.उल्लेखनीय कार्य कर डॉ. मेघनाद साहा ने
स्पेक्ट्रल लाइन्स की उपस्थिति की व्याख्या हेतु विश्व विख्यात 'ओनाइजेशन फार्मूला'
दिया।
वे भारत की विश्व विख्यात विज्ञान-संस्थाओं के जनक थे. उन्हीं की प्रेरणा से १९३० में राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (National Academy of Science), , १९३४ में इंडियन फिजीकल सोसाइटी, १९३५ में भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science), तथा १९४४ में Indian Association for the Cultivation of science की स्थापना हुई. १९४३ में कलकत्ता में स्थापित Saha Institute of Nuclear physics उनके महत्वपूर्ण कार्य के प्रति राष्ट्र की ओर से व्यक्त कृतज्ञता का स्मारक है. वे नदी-नियोजन के प्रमुख वास्तुविद थे. दामोदर घाटी परियोजना का मूल प्रस्ताव उन्हीं ने तैयार किया था. मेघनाद साहा का नाम १९३५-३६ में नोबल पुरस्कार हेतु एस्ट्रोफिजिस्ट के रूप में नामांकित किया गय. यह गौरव पानेवाले वे एकमात्र भारतीय हैं. १९५२ में उन्हें उत्तर-पश्चिम कलकत्ता क्षेत्र से सांसद चुन गया. वे परमाण्विक ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के पक्षधर तथा भारतीय नीति के निर्माता थे. वे भारतीय राष्ट्रीय कैलेण्डर निर्धारण समिति के अध्यक्ष थे. उन्हीं के प्रयास से राष्ट्रीय कैलेण्डर का निर्धारण बिना किसी विवाद के हो सका. १६ फरवरी १९५६ को हृदयाघात से उनके निधन से भारत ही नहीं विश्व ने एक प्रतिभा संपन्न वैज्ञानिक खो दिया.
आत्म मूल्यांकन : प्रायः वैज्ञानिकों पर हाथी दांत की मीनार में रहने और सचाइयों को न स्वीकारने का आरोप लगाया जाता है. अपने कीमती वर्षों में राजनैतिक आंदोलनों से जुडाव के बावजूद १९३० तक मैं ऐसी मीनार में रहा किन्तु वर्तमान में प्रशासन के लिए विज्ञान भी शांति-व्यवस्था की तरह आवश्यक है. मैं क्रमशः राजनीति की ओर झुका क्योंकि मैं अपने तरीके से देश के किसी काम आना चाहता था.
- श्रृद्धांजलि:
- डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर: मेघनाद साहा का आयनीकरण समीकरण जिसने स्टेलर एस्ट्रोफिजिक्स का द्वार खोला २० वीं सदी की दस महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है किन्तु नोबल पुरस्कार श्रेणी में नहीं चुना जा सका.
- एस. रोज़लैंड: साहां के कार्य द्वारा एस्ट्रोफिजिक्स को मिले महत्त्व का अधिमूल्यन संभव है क्योंकि पश्चातवर्ती काल में हुई समस्त प्रगति साहा की अवधारणाओं से प्रभावित है.



![दुर्भाग्य! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी
[प्राचीन बस्तर/रामायण काल से उद्धरित वर्तमान का समाज शास्त्र]
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बस्तर पर जानकारी एकत्रीकरण के लिये आर्य-द्रविड अंतर्सम्बन्धों को बारीकी से समझना आवश्यक है। वस्तुत: हमारे पूर्वाग्रह गहरे हैं तथा हम अपनी-अपनी पहचान की मानसिकताओं के साथ इतने अधकचरे तरीके से जुडे हुए हैं कि यह मानते ही नहीं कि वह सब कुछ जो भारत भूमि से जुडा हुआ है, हमारा ही है; आर्य भी हम हैं और द्रविड भी हम। अपनी ही चार पीढी से उपर के पूर्वजों का नाम जानने में दिमाग पर बल लग जाते हैं फिर किस काम का वह छ्द्म गौरव जो हमारी मानसिकताओं को वर्ण और रक्त की श्रेष्ठताओं जैसी अनावश्यक बहसों में उलझाता है। रामधारी सिंह दिनकर की कृति “संस्कृति के चार अध्याय” एक उत्कृष्ट रचना है जो एसी सभी बहसों को अपने तार्कित उत्तर से संतुष्ट करती है। “मूल निवासी कौन?” इस झगडे का निबटारा तो शायद वह पहली कोषिका भी नहीं कर सकती जिसके विभाजन नें ही यह सम्पूर्ण जीवजगत पैदा किया है। जब यह धरती सबकी एक समान रही होगी तब हर रंग, हर रूप तथा हर नस्ल का मानव यहाँ यायावरी करता हुआ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र भटकता रहा होगा। इस भूमि पर कई घूमंतू मानव प्रजातियों ने कदम रखे; जब द्रविड इस देश में आये यहाँ आग्नेय जाति (अनुमानित मूल स्थान - यूरोप के अग्निकोण) वालों की प्रधानता थी और कुछ नीग्रो जाति (अनुमानित मूल स्थान - अफ्रीका) के लोग भी विद्यमान थे। अत: अनुमान किया जा सकता है कि नीग्रो और आग्नेय लोगों की बहुत सी बातें पहले द्रविड सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान पश्चिम एशिया) में आयीं और पीछे द्रविड-आर्य मिलन होने पर आर्य सभ्यता (अनुमानित मूल स्थान मध्य एशिया) में भी। वर्तमान भारत क्षेत्र में रहने वाले प्राचीन निवासियों के मूल स्थानों के लिये मैने इतिहास की कई पुस्तकों में भी झांका लेकिन अधिकांश में पूर्वाग्रह ही अधिक नजर आता है। अत: दिनकर की ही पुस्तक के उद्धरण मुझे उचित जान पडते हैं जो “अंडा पहले आया कि मुर्गी” वाली बहस को अधिक तूल न दे कर समरस्ता के मर्म की बात करते हैं।
प्राचीन बस्तर रामायणकाल में दक्षिणा पथ की बहुतायत गतिविधियों का केन्द्र रहा होगा तथा इस सब का प्रारंभ महर्षि अगस्त्य के विन्ध्य पर्वत पार करने की रोचक कथा के साथ होता है। कथा नें कविता तत्व की मोटी गिलाफ ओढी हुई है। कथा कहती है कि विन्ध्य अपना आकार निरंतर बढा रहा था जिस कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर पहुँचनी बन्द हो गई। इससे निजात पाने के लिये महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है अतः मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया। अगस्त्य ने कहा कि विन्ध्य उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा वे पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा रहने लगे। यह दक्षिण की महत्ता तथा विन्ध्य की दो संस्कृतियों के बीच दीवाल की तरह खडे होने की पुष्टि करती हुई कथा है। प्राचीन आश्रम संस्कृति तथा शिक्षा प्रणालियों का अध्ययन करने पर यह समझ विकसित होती है कि अगस्त्य एक पूरी संस्था की तरह कार्य कर रहे थे तथा वे उत्तर दक्षिण को एक सूत्र में बाँधने की प्रथम ज्ञात कडी हैं। हमनें उनका एक अध्यापक, एक उपदेशक, एक ज्ञानी, एक यायावर, एक दिव्यास्त्र निर्माता तथा योजनाकार का रूप तो जाना है लेकिन उनकी वास्तविक उपलब्धि कम ही लोग जानते हैं कि महर्षि अगस्त्य नें ही तमिल भाषा के आदि व्याकरण “अगस्त्यम” की रचना की है। यह रचना सिद्ध करती है कि अगस्त्य केवल दण्डकारण्य तक ही सीमित नहीं रहे अपितु सुदूर दक्षिण तक उन्होंने यात्रा की व वहाँ का जन जीवन यहाँ तक कि भाषा को भी एक व्यवस्था प्रदान करने का यत्न किया।
दण्डकारण्य के प्राचीन समाजशास्त्र का आज भी महत्व विद्यमान है। दक्षिणापथ का उत्तरी भाग था दण्डकारण्य; यहाँ राक्षस जाति के निवास की जगह उनके आक्रमणों का ही विवरण अधिक मिलता है। प्राचीन विवरणों के आधार पर उन जनजातियों को जिन्हें राक्षस कहा गया है, उनका निवास दक्षिण के बस्तरेतर क्षेत्र अर्थात आन्ध्र व उस से लग कर सुदूर दक्षिण तक प्रतीत होते हैं। यह भी ज्ञात होता है कि लम्बे समय तक क्षेत्र में किसी समाजसेवी की तरह कार्य करते हुए अगस्त्य नें दण्डकारण्य क्षेत्र में निवासरत अनेक जनजातियों के मध्य समन्वय का वातावरण उत्पन्न कर लिया था। महर्षि अगस्त्य का आश्रम क्षेत्र वर्तमान बस्तर के भीतर ही था जो इस दिशा में किये गये श्री सूर्य कुमार वर्मा के 1906 में सरस्वति पत्रिका में प्रकाशित शोध आलेख द्वारा भली प्रकार सिद्ध किया गया है। राम के वनवास से पहले तक अगस्त्य मुनि का आश्रम ही दो संस्कृतियों का समंवय स्थल बन गया था जिसका स्थानीय जनजातियों के सहयोग और योगदान के बिना संचालित होना संभव प्रतीत नहीं होता। राम के वनागमन से पूर्व इस क्षेत्र में निवासरत जनजातियों पर राक्षसों के कुछ हमलों का जिक्र होता है; उदाहरण के लिये लंका को हस्तगत करने के बाद रावण दक्षिण विजय के लिये निकला जिसका कि उल्लेख वाल्मीकी रामायण में मिलता है – युद्धं मे दीयतामिति निर्जिता: स्मेति वा ब्रूत [वह दक्षिण में एक नगर से दूसरे नगर पहुँचता और चुनौती देता कि या तो मुझसे युद्ध करो या पराजय स्वीकार करो]। वानर जनजाति का नेतृत्व कर रहे बालि नें रावण को न केवल युद्ध में पराजित कर दिया अपितु बंदी भी बना लिया। इस प्रसंग का अंत होता है जब रावण-बालि संधि हो जाती है। रावण नें बालि के अलावा मांधाता (बस्तर का वर्तमान मंधोता ग्राम) के जनजातियों के सरदारों से भी समझौते कर लिये और लंका लौटने से पहले दण्डकारण्य क्षेत्र में अपने प्रतिनिधि खर-दूषण के रूप में किसी निगरानी चौकी या सत्ता प्रतीक की तरह छोड दिये थे। उल्लेख मिलता है कि उनके साथ चौदह हजार राक्षसों की एक टुकडी भी थी जिसका कार्य आतंक प्रसारित कर रावण की सत्ता का भय बनाये रखना था। यह कथा आगे बढती है जब राम का वनागमन होता है। पं केदारनाथ ठाकुर अपनी कृति बस्तर भूषण (1908) में उल्लेख करते हैं कि “राम पहले भारद्वाज आश्रम से होते हुए रत्नगिरि में आये। रत्नगिरि से चल कर बस्तर राज्य तथा कांकेर राज्य की पश्चिमी सीमा से होते हुए वे गोदावरी तक आये, वहाँ से गोदावरी के बहाव की ओर कुछ दिन घूमते रहे तत्पश्चात पर्णशाला में आ कर निवास किया। यहीं पर सीता हरण हुआ। रामचन्द्र जी सीता को गोदावरी नदी के पूर्व तथा इशान में ढूंढने लगे। यही पर उनकी शिवरी भीलनी (शबरी) से भेंट हुई। शिवरी नदी (शबरी नदी) के पूर्व तथा जैपुर राज्य में एक पर्वत है जिसे आज रामगिरि के नाम से जाना जाता है उसके चारो ओर असंख्य छोटी बडी पहाडियाँ हैं, इसी समूह में उत्तर की ओर रंफा पहाड है जिसे जैपुर स्टेट के लोग किष्किंधा पहाड़ कहते हैं। इन पहाडों पर वर्तमान समय में रेड्डी लोग वास करते हैं जो स्वयं को वानर का वंशज मानते हैं”।
बहुत अधिक कार्य अब तक इस दिशा में नहीं हुए हैं जो इतिहास प्रदत्त प्रमाणों का बारीकी से विश्लेषण करें। ब्रिटिश शासक ग्रिग्सन नें 1937 ई. में इस काल के प्रमाणों को एकत्र करने व दस्तावेजबद्ध करने के लिये कैप्टन गिब्सन को नियुक्त किया था। कहा जाता है कि गिब्सन नें बहुत सी जानकारियाँ एकत्रित भी कर ली थी। उसी समय द्वितीय विश्व युद्ध छिड गया। गिब्सन सारी एकत्र सामग्री व जानकारी को ले कर इंग्लैंण्ड चले गये व वहीं युद्ध में मारे गये। इसके बाद स्वतंत्र भारत के किसी शासक, नेता या जिलाधीश नें इस तरह का कार्य करने की जहमत नहीं उठायी। अगला प्रामाणिक कार्य उपलब्ध होता है डॉ. हीरालाल शुक्ल का जिनकी किताब “लंका की खोज” एवं “रामायण का पुरातत्व” अद्वितीय दस्तावेज हैं। डॉ. शुक्ल नें बस्तर क्षेत्र में उपस्थित रामायणकालीन जनजातियों की वर्तमान जनजातियों से तुलना व साम्यता को विस्तार से प्रस्तुत करने का यत्न किया है। उनके अनुसार रामायण युगीन वनेचर प्रजातियों में आग्नेय परिवार से सम्बद्ध जनजातियाँ हैं - निषाद, गृद्ध तथा शबर; अगर मध्यवर्ती द्रविड परिवार की बात की जाये तो उससे सम्बद्ध प्रजातियाँ हैं – वानर तथा राक्षस।
रामायण में चिन्हित आग्नेय परिवार की जनजातियों नें आर्यों से शीघ्र निकटता तथा मैत्री कर ली थी। निषाद प्रजाति का उल्लेख मूल रूप से उत्तरप्रदेश के संदर्भों में प्राप्त होता है। राम को गंगा पार कराना एवं राम-निषाद मैत्री का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन रामायण में प्राप्त होता है। बस्तर के ‘कुण्डुक’ स्वयं को निषाद वंश का मानते हैं तथा इस जनजाति का विश्वास है कि वे त्रेता युग में राम के साथ ही गंगातट से दण्डक तक आये। यह प्रजाति आज भी नाविक ही है एवं इनकी उपस्थिति चित्रकूट के निकटवर्ती क्षेत्रों में सीमित रह गयी है। रामायण में वर्णित दूसरी प्रजाती है गृद्ध। गोदावरी की पार्श्ववर्ती पर्वतमालाओं पर इनका निवास माना गया है। गिद्ध इन जनजातियों का प्रतीक रहा होगा। इनके प्रमुख नायक सम्पाति तथा जटायु का आर्य जनजातियों से तालमेल प्रतीत होता है। रामायण में पंख कटने के बाद जिस प्रस्त्रवण पर्वत (बैलाडिला) के निकट जटायु के दम तोडने का वर्णन है उस स्थल को आज गीदम के नाम से जाना जा रहा है। जगदलपुर के जाटम ग्राम में अब भी गदबा जनजाति के घर हैं जिनका सम्बन्ध गृद्ध प्रजाति से जोड कर देखा जाता है। बस्तर की गदबा प्रजाति प्रतीक पूजक है तथा गृद्ध आज भी इनके यहाँ “टोटेम” है। जिस प्रकार बस्तर में हल प्रतीक के वाहकों को हलबा कहा गया उसी प्रकार गृद्ध प्रतीक के वाहक गदबा कहलाने लगे। यह प्रजाति आज विलुप्ति पर पहुँच गयी है। लोग कृषक अथवा मजदूर हैं तथा अब इन्हें पहचानना कठिन होता जा रहा है। राम-शबरी मिलन और शबरी के प्रेम से खिलाये गये जूठे बेर एक महान प्रेरक प्रसंग है। इसी कथा नें शबर जनजाति की पहचान को उसकी प्राचीनता से जोडा है। ऐतरेय ब्राम्हण में शबरों को आर्य देश की सीमा पर स्थित बताया गया है अत: यह क्षेत्र निश्चित ही दण्डकारण्य है। साक्ष्यों के आधार पर एवं पुरा-भूगोल पर किये गये विश्लेषण के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि शबरी का आश्रम शबरी तथा गोदावरी नदी के संगम पर स्थित था। डब्ल्यु जी ग्रिफिथ नें मध्य भारत की कोल प्रजाति को शबर माना है (क़ोल ट्राईब्स ऑफ सेंट्रल इंडिया, 1946)। डॉ. हीरालाल शुक्ल भी इन्हें ओडिशा और बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों में चिन्हित करते हैं। शबर जनजाति के लोग गोंड अथवा खोंड की तुलना में भिन्न होते हैं। इनकी स्त्रियाँ नासिका तथा हनु में गुदना करती हैं एवं कपोलों में भी गहरी रेखायें गुदवाती हैं। कर्ण-आभूषण दर्शनीय होते हैं व कान में चौदह तक छेद कराने का चलन पाया गया है। प्राचीन ग्रंथों के आधार पर शबरों के दो विभेद पाये गये हैं – पर्ण शबर तथ नग्न शबर। नग्न शबर प्रजाति आर्यों के निकट नहीं आ पायी थी व अपनी मूलावस्था में रहने के कारण यह नामांकरण हुआ है। बंडा परजा जनजाति ही नग्न शबर मानी जाती है।
मध्यवर्ती द्रविड परिवार की वानर तथा राक्षस जातियाँ एक समय में ताकतवर तथा सक्रियतम रही हैं। यह तो पहचान ही लिया गया है कि काकिनाडु (पूर्वी गोदावरी) सहित कोरापुट व कालाहाँडी के आंशिक क्षेत्र किष्किन्धा जनपद के अंतर्गत आते थे। रामायण में किष्किन्धा के निवासियों के लिये वानर पहचान का प्रयोग है। वानरो की जो प्रजातिगत विशेषतायें कही जाती हैं उसके अनुसार वे भावुक, चपल, ताम्रवदना अथवा कनकप्रभ उल्लेखित होने के कारण सोने जैसे वर्ण के होते थे। आज भी खम्माम, बस्तर, कोरापुट तथा कालाहाण्डी की आदिम प्रजातियाँ (इन क्षेत्रों में निवास करने वाली कंध जनजातियों को विद्वानों नें वानर माना है) बालि का स्मरण करती हैं। बस्तर में बालिजात्रा धूमधाम से मनाया जाने वाला पर्व है। कंध प्रजाति का गोत्र चिन्ह वानर है तथा वंशों के नाम सुग्री, जाम्ब तथा हनु आदि मिलते हैं। नृत्य आदि अवसरों पर कंध लोग आज भी पूँछ धारण करते हैं। कन्ध के अन्य पर्यायवाची खोंड, कोडा, कुई तथा कुवि हैं जो इन्हें कोयतुर (गोंड) जनजातियों के निकट सिद्ध करते हैं। प्रकृति की दृष्टि से ये लोग दण्डामि माडिया के भी निकट नजर आते हैं। रामायण में जिसे राक्षस कहा गया है वैदिक साहित्य नें उन्हें दस्यु सम्बोधित किया है। यह जनजाति प्रखर योद्धा रही है तथा इन्होंने आर्यों की आधीनता को अस्वीकार कर सर्वदा युद्ध का मार्गानुसरण किया है। राक्षसों के लिये ऋग्वेद में क्रव्याद: अर्थात कच्चा मांसाहार करने वाले; मृघ्रवाच: अर्थात जिनकी भाषा न समझ आये; अदेवयु: अर्थात देवताओं को न मानने वाले; अनास अर्थात जिनकी नाक छोटी व उठी हुई हो; शिश्नदेवा: अर्थात लिंगोपासक कहा गया है। इनमें गर्धर्व विवाह का प्रचलन था तथा बलात् विवाह करने की वृत्ति को भी बाद में राक्षस विवाह नामांकरण से जाना गया। राक्षसों के भी तीन विभेद बताये गये हैं - विराध (असुर), दनु (दानव) तथा रक्ष (राक्षस)। ये तीनों सैद्धांतिक रूप से एक साथ रावण की सत्ता में प्रतीत होती हैं किंतु रावण के घायल होने पर विराध (असुर) शाखा का प्रसन्नता व्यक्त करना (वाल्मीकी रामायण 6.59.115-6) यह बताता है कि ये आपसी मतभेद के भी शिकार थे। विराध शाखा की उपस्थिति दण्डकारण्य के दक्षिणी अंचल में मानी जाती है। यह भी उल्लेख मिलता है कि रावण नें इन्द्रावती व गोदावरी के मध्य के अनेक दानवों (दनु शाखा) का वध किया था – हंतारं दानवेन्द्राणाम। राक्षसों (रक्ष शाखा) की मूल उपस्थिति को आन्ध्रप्रदेश से माना जा सकता है।
रामायण कालीन बस्तर के जटिल समाजशास्त्र को समझने के लिये उपरोक्त सभी विवरणों को एक साथ देखना होगा। दण्डकारण्य की अपनी ही तरह की संस्कृति थी जिसमें गंगाजमुनी सम्मिश्रण होने लगा तब भी उसनें इन्द्रावती का वेग और गोदावरी की विराटता को मजबूती से थामे रखा। यह दो संस्कृतियों के मध्य का क्षेत्र होने के कारण कई अनेकताओं का समागम स्थल है। यह ज्ञात होता है कि कई जनजातियाँ जैसी अवस्था में रामायण काल में रहती होंगी अब भी उनमें बहुत कुछ नहीं बदला है। यहाँ के समाजशास्त्र नें दक्षिण से उसकी पहचान अलग रखी व उत्तर से भी स्वयं को मिलने नहीं दिया। यहाँ से जुडे केवल आर्य-द्रविड युद्ध के ही प्रसंग नहीं हैं अपितु कई द्रविड प्रजातियों के आपसी संघर्ष का भी यह क्षेत्र रहा है जहाँ समय समय पर शक्तिशाली आर्य व रक्ष प्रजातियों ने कभी मैत्री तो कभी युद्ध द्वारा अपनी शक्ति व सत्ता के केन्द्र स्थापित किये। यह अनोखा स्थल है जहाँ आश्रम संस्कृति भी पूरे चरम पर थी तो उसका विरोध भी पूरी निर्ममता से होता रहा। मेरा मानना है कि प्राचीन ग्रंथों से मिल रहे सूत्रों को जब तक इतिहासकार बारीकी से नहीं पकडेंगे वे बस्तर के अतीत की न्यायपूर्ण व्याख्या नहीं कर सकेंगे। वर्तमान में दण्डकारण्य क्षेत्र पुन: युद्धभूमि बना हुआ है तथा आन्ध्र ओडिशा महाराष्ट्र से भीतर घुस कर खास विचारधारा के बुद्धिजीवियों नें इसे अपना उपनिवेश बना लिया है। युद्धरत दिखने वाले लोग बस्तर की वही जनजातियाँ हैं जिनमें से प्रत्येक अपनी पुरातन परम्पराओं की थाती सम्भाले अतीत का जीवत प्रमाण है। दुर्भाग्य!! बस्तर से यह विरासत मिट जायेगी।
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[आलेख के साथ प्रस्तुत चित्र राकेश सिंह @[100002401140969:2048:Rakesh R. Singh] के कैमरे से]](https://fbcdn-sphotos-h-a.akamaihd.net/hphotos-ak-prn2/s403x403/1209062_10201725446396097_773762240_n.jpg)
