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सोमवार, 10 सितंबर 2012

श्रृंगार सलिला: महामिलन: प्रताप सिंह


श्रृंगार सलिला:

महामिलन:






प्रताप सिंह
 
{मनुष्य न तो केवल प्राण है और न ही केवल शरीर, अपितु दोनों का संगम है. प्राण और शरीर दोनों ही मिलकर अस्तित्व और चेतना का निर्माण करते हैं. इसीलिए दोनों का आकर्षण और भोग सदा से ही विद्यमान रहा है. प्रेम में भी दोनों की ही भागीदारी होती है और दोनों जुड़कर ही मिलन को पूर्णता देते हैं. महाकवि जयदेव ने "गीत गोविन्द" में राधा और कृष्ण के मिलन के अन्तरंग पलों को बहुत ही सुन्दरता से उकेरा है.  कवि ने इस कविता में प्रेमी-युगल के प्राण-गात के पूर्ण विलय के क्षणों में उभरे भावों और प्रक्रियाओं को शब्द बद्ध करने का प्रयास किया है.}


पल था कोई चेतनता का
या वह सुन्दर एक सपन

अर्द्ध रात्रि की नीरवता में

दो प्राणों का महामिलन


पुष्पवाटिका के प्रांगण में
पत्रों-पुष्पों का आसन
तुम रति की प्रतिमा बन बैठी
मैं प्रेमी, रत-आराधन



भू पर फैली शुभ्र ज्योत्सना
तारक गण से भरा गगन
मंद पवन के मलयज झोंके
सहलाते सुरभित कुंतल


चक्षु तुम्हारे, नेह सरोवर
लहराते मद्धम-मद्धम
अंजलि भर-भर नयन लगाता
चिर-निमग्नता चाहे मन



स्पर्श मिला जब अंगुलियों का
हुआ विकंपित सारा तन
नेह-वृष्टि नयनों की पाकर
उठी एक मादक सिहरन



पूर्व क्षितिज की प्रात अरुणिमा
फैल गई कोमल मुख पर
फड़क उठीं रक्तिम पंखुड़ियाँ
नेह निमंत्रण था अनुपम



मचल उठा अंतह का चातक
देख अधर पर स्वाती-जल
जीवन भर की प्यास बुझा लूँ
पी लूँ पल में अमिय सकल



तत्क्षण झुका सुमन पटलों पर
सम्मोहित हो भ्रमर-अधर
करने लगा सिक्त प्राणों को
मधुरस का मादक निर्झर



लिपटी देह बेल सी पल में
कंठ-करों का अवगुंथन
मुँदने लगे चक्षु द्वय मद से
मधुर-मदिर वह आलिंगन


बाहर मधु, अन्दर बड़वानल
पल-पल होते तप्त अधर
बढ़ने लगा वेग धमनी में
उत्तेजित अति हुआ रुधिर



घुलने लगी स्वाँस स्वाँसों में
सघन ताप भर निज अंतर
गीष्म काल का ऊष्ण समीरण
ज्यों बहता है तृतीय प्रहर



स्पंदन दो हृदयों का बढ़ता
हर क्षण बढ़ता सम्मोहन
आतुरता के तुंग शिखर पर
विलग गात से हुए वसन



उठा ज्वार सा अंतह में ज्यों
झुका चन्द्र हो वारिधि पर
कंचन गात दृष्टिगत केवल
चहुँ-दिश ढँका अवनि अम्बर



ज्योति पुंज सी फूट रही थी
अंग अंग माणिक झिलमिल
या सत निर्झर बहते मधु के
सम्मोहक मादक उर्मिल



या फिर उतरा देवलोक था
कण-कण में आनंद नवल
हर पग खिले सुमन बहु, सुरभित
तन-मन करते उच्छ्रन्खल  



निर्बाध बढ़ा, अति लालायित
मैं पूर्ण प्राप्ति के पथ पर
ज्यों भादों का मेघ चला हो
बाहों में चपला भर कर



श्रृंग गर्त में विचरण करता
कुच-कलशों से मधु पीकर
उन्मत्त हुआ मन चाह उठा
वहीं विचरना जीवन भर



लगे डूबने सुधा-सरित में
हृदय-गात दो बंधन-रत
लिखने लगे प्रणय-गाथा फिर
तन-मन दोनों के अविरत


कभी तनी तुम चित्र-पटल सी

चित्रकार मैं अति तन्मय
पोर-पोर पर छवि उकेरता
प्रेम-राग मधु-सुधा प्रणय



कभी हुई वीणा सी झंकृत
पाकर मधुरिम नेह-छुवन
फूटा जीवन राग मधुरतम
गुंजित हुआ सकल उपवन



कभी हुई मुखरित बंशी सी

रखा तुम्हें जब अधरों पर
कभी कूक कोयल की फूटी
धड़के प्राण गात जुड़कर



खिंचा हुआ था चाप सदृश तन
ज्यों प्रत्यंचा चढ़ा प्रबल
गूँजे गुरु टंकार चतुर्दिक
शर संधान करूँ जिस पल



अग्नि प्रज्ज्वलित थी यौवन की
ज्यों जलता हो खाण्डव वन
लपट पुंज उठते प्रदग्ध अति
बूँद बूँद पिघलाते तन



या प्रतप्त था हवन कुण्ड ज्यों
आम्र शाख सा जलता तन
लपटें पकड़ रही लपटों को
आतुर हो होकर हर क्षण



नीचे वसुधा ऊपर अम्बर

झूला बना पुष्प उपवन
पेंग बढ़ा संपृक्त प्राण-द्वय
पल-पल छूते सप्त गगन



वाजि बना वह काल खण्ड,
हम करते द्रुत अश्वारोहण
बढ़ रहे लाँघते मद-सरिता,
मधु-गिरि औ' मादक-कानन



नाद युक्त उच्छ्वास तप्त हो

द्रुत गति से बहता अविरल
तन आच्छादित स्वेद कणों से
ज्यों बिखरा हो वर्षा-जल



पहुँचे हम उत्तंग शिखर पर
जहाँ डोलता सुधा जलद
गूँज उठा घननाद प्रबलतम
लगा बरसने लरज लरज



सिक्त हुआ प्राणों का कण-कण

अंत: अति सुरभित, मधुमय
तरल हुए हिमखण्ड पिघलकर
हुआ परस्पर पूर्ण विलय

थमा ज्वार, थी शांति चतुर्दिक
लहराता तन मन उपवन
आधिपत्य औ पूर्ण समर्पण-
एक साथ, था महामिलन

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रविवार, 9 सितंबर 2012

दोहा सलिला: गले मिले दोहा यमक संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
जीना मुश्किल हो रहा, जी ना कहते आप.
जीना चढ़िए आस का, प्यास सके ना व्याप..

पान मान का लीजिए, मानदान श्रीमान.
कन्या को वर-दान दें, जीवन हो वरदान..

रखा सिया ने लब सिला, रजक मूढ़-वाचाल.
जन-प्रतिनिधि के पाप से, अवध-ग्रास गया काल..

अवध अ-वध-पथ-च्युत हुआ, सच का वध अक्षम्य.
रम्य राम निन्दित हुए, सीता जननि प्रणम्य..

खो-खो कर ईमान- सच, खुद से खुद ही हार.
खो-खो खेलें झूठ संग, मानव-मति बलिहार..

मत ललचा आकाश यूं, बाँहों में आ काश.
गले दामिनी के लागून, तोड़ देह का पाश..

कंठ कर रहे तर लिये, अपने मन में आस.
तर जाएँ भव-समुद से,  ले अधरों पर आस..

अधिक न ढीला छोड़ या, मत कस तार-सितार.
राग और वैराग का, सके समन्वय तार..

तारा दिप दिप दमकता, अगर न तारानाथ.
तारा तारानाथ को, रवि ने किया सनाथ.. 



हास्य सलिला: करो समय पर काम संजीव 'सलिल'


हास्य सलिला:




करो समय पर काम



संजीव 'सलिल'
*
गये लिवाने पत्नि जी को, लालू जी ससुराल
साली जी ने आवभगत की, खुश थे लालू लाल..

सासू ने स्वादिष्ट बनाये, जी भरकर पकवान.
खूब खिलाऊँगी लाल को, जी में था अरमान..

लेट लतीफी लालू की, आदत से सब हैरान.
राह देखते भूख लगी, ज्यों निकल जायेगी जान..

जमकर खाया, गप्पे मरीन, टी.व्ही. भी था चालू.
झपकी लगी, घुसे तब घर में बिन आहट के लालू..

उठा न कोई, भुखियाए थे, गये रसोई अन्दर.
थाली में जो मिला खा रहे, ज्यों हो कोई बन्दर..

खटपट सुन जागी सासू जी, देखा तो खिसियाईं.
'बैला का हिस्सा खा गये तुम, लाला!' वे रुस्वाईं..

झुंझलाई बीबी, सालों ने, जमकर किया मजाक.
'बुला रहे हल-बक्खर' सुनकर, नाक हो गयी लाल..

लालू जी को मिला सबक, सब करो समय पर काम.
'सलिल' अन्यथा हो सकता है, जीना कठिन हराम..


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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शनिवार, 8 सितंबर 2012

मेरी सेवा निवृत्ति my retirement : 31.08.2012


मेरी सेवा निवृत्ति my retirement : 31.08.2012


बाल कविता: आओ हम सब पढ़ना सीखें -- कुसुम वीर

बाल कविता 


आओ हम सब पढ़ना सीखें

कुसुम वीर

 

अक्षर की ताकत को जानो
पढ़ो - लिखो, ख़ुद को पहचानो
अक्षर से तुम शब्द बनाओ
उन्नति पथ पर बढ़ते जाओ


शब्दों में संसार सजा है
इसमें भाव भण्डार भरा है
साकार करें सपनों की दुनिया
खिल जाती हैं मन की कलियाँ


ये हैं हमको सीख सिखाते
भले - बुरे का भेद बताते
भीतर का तम हर लेते ये
ज्ञान - प्रकाश जगा देते ये


हमसे बातें करते अक्षर
जीवन से पूरित हैं अक्षर
कहानी कहते, किस्से गढ़ते
ज्ञान - विज्ञान की बात बताते


जल, जंगल, ज़मीन की रक्षा
साफ़ - सफाई, स्वास्थ्य सुरक्षा
इसको जानो, उसको जानो
सारी दुनिया को पहचानो


आओ हम सब पढ़ना सीखें
लिखना सीखें, गढ़ना सीखें
ज़िंदगी में बढ़ना सीखें
जीवन सुखी बनाना सीखें


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हास्य सलिला: खरीदी संजीव 'सलिल'

हास्य सलिला:
खरीदी 


संजीव 'सलिल'
*
लल्लू जी बाज़ार में, थे बीबी के सँग.
सतत हाथ पकड़े रहे, देख लोग थे दंग..

देख लोग थे दंग, बात कुछ समझ न आई.
प्यार बहुत या, बात सुरक्षा की है भाई?

कैसे जानें राज, गले मिल कारण पूछा.
बोले: 'खाली जेब, हाथ अपना है छूछा.

छोडूंगा यदि हाथ मुसीबत होगी भारी.
आईं खरीदी करने को करके तैयारी.

***


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

Short Story: " Lunch with God"

Short Story: 

" Lunch with God" 


One Lazy afternoon a little boy wanted to meet God. He knew it was a long trip to where God lived, so he packed his suitcase with cookies and a six-pack of root beer and he started his journey…. When he had gone about three blocks, he met an elderly man. The man was sitting in the park just feeding some pigeons.

The boy sat down next to him and opened his suitcase. He was about to take a drink from his root beer when he noticed that the man looked hungry, so he offered him a cookie. The man gratefully accepted it and smiled at boy. His smile was so pleasant that the boy wanted to see it again, so he offered him a root beer. Again, the man smiled at him. The boy was delighted! They sat there all afternoon eating and smiling, but they never said a word. 

As it grew dark, the boy realized how tired he was and he got up to leave, but before he had gone more than a few steps, he turned around, ran back to the man, and gave him a hug. The man gave him his biggest smile ever. When the boy opened the door to his own house a short time later, his mother was surprised by the look of joy on his face. 

She asked him, "What did you do today that made you so happy? 

He replied "I had lunch with God." But before his mother could respond, he added "You know what? God's got the most beautiful smile I've ever seen!" 

Meanwhile, the elderly man, also radiant with joy, returned to his home. His son was stunned by the look of peace on his face and he asked," Dad, what did you do today that made you so happy?" 

He replied, "I ate cookies in the park with God." However, before his son could respond he added, "You know, he's much younger than I expected." 

 Lesson: People come into our lives for a reason, a season, or a lifetime. Embrace all equally!