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शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

पुस्तक सलिला: चंद्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिंदी गज़लें: : संजीव 'सलिल'

पुस्तक सलिला:
चंद्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिंदी गज़लें : गागर में सागर   
चर्चाकार: संजीव 'सलिल'
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(पुस्तक परिचय : नाम- चंद्रसेन विराट की प्रतिनिधि हिंदी गज़लें, गजलकार चंद्रसेन विराट, संपादक डॉ. मधु खराटे, आकार डिमाई, बहुरंगी कड़ा आवरण, पृष्ठ संख्या १९२, मूल्य २०० रु., प्रकाशक विद्या प्रकाशन कानपुर.)
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हिंदी ग़ज़ल के इतिहास में अग्रजवत चंद्रसेन विराट का नाम शीर्षस्थ ग़ज़लकारों में है. हिंदी ग़ज़ल को उर्दू भाषियों द्वारा नकारने की चुनौती का सामना उर्दू ग़ज़ल के रचना विधान पर खरी हिंदी गज़लें रचकर विराट जी ने इस तरह दिया कि हिंदी ग़ज़ल को स्वीकारे जाने के सिवाय अन्य राह ही शेष न रही. तेरह गीत संग्रहों(मेंहदी रची हथेली, ओ मेरे अनाम, स्वर के सोपान, किरण के कशीदे, मिट्टी मेरे देश की, पीले चाँवल द्वार पर, दर्द कैसे चुप रहे, भीतर की नागफनी, पलकों में आकाश, बूँद-बूँद पारा, सन्नाटे की चीख, गाओ कि जिए जीवन, सरगम के सिलसिले), ११ ग़ज़ल संग्रहों (निर्वसना चाँदनी, आस्था के अमलतास, कचनार की टहनी, धार के विपरीत, परिवर्तन की आह्ट, लडाई लंबी है, न्याय कर मेरे समय, फागुन माँगे भुजपाश, इस सदी का आदमी, हमने कठिन समय देख अहै, खुले तीसरी आँख), , २ दोहा संग्रहों ( चुटकी-चुटकी चाँदनी, अँजुरी-अँजुरी धूप), ५ मुक्तक संग्रहों (कुछ पलाश कुछ पाटल, कुछ छाया कुछ धूप, कुछ सपने कुछ सच, कुछ अंगारे कुछ फुहारें, कुछ मिशी कुछ नीम) तथा ७ काव्य कृतियों (गीत-गंध, हिंदी के मनमोहक गीत, हिंदी के सर्वश्रेष्ठ मुक्तक, टेसू के फूल, कजरारे बादल, धूप के संगमरमर, चाँदनी चाँदनी) के संपादन से अपने सृजन आकाश को सजा चुके विराट की ग़ज़ल संकलनों का गहन अध्ययन कर डॉ. मधु खराटे ने चुनिन्दा १६१ गज़लों का यह गुलदस्ता प्रस्तुत किया है.
                                                                                                                       
विराट जी पेशे से अभियंता हैं. फलतः वे मजदूर संवर्ग की समस्याओं, गरीबी, समाज में श्रम की अवमानना, संपन्न वर्ग द्वारा शोषण, निर्माण की समस्याओं, देश में व्याप्त मूल्यहीनता, राजनैतिक दिशाहीनता, सामाजिक विडम्बनाओं, पाखंडों तथा अंतर्द्वंदों से भली-भाँति परिचित हैं. विराट की कविता इन सभी रोगों की मानस चिकित्सा शब्द औषधि से करती है. विराट के लिये लेखन यश या धन प्राप्ति का माध्यम नहीं समाज परिवर्तन और समय परिवर्तन का जरिया है. डॉ. सुरेश गौतम के शदों में- 'विरत की गजलों ने गजल को हुस्न, इश्क, मुहब्बत, जाम, सकी, मयखाना की रोमैयत से निकालकर बिजली के नंगे तारों से जोड़ा और अनादर्शी जिंदगी को पारा-पारा बिखरने से बचाया, हिन्दी की बुनावट में ग़ज़ल को बुनकर मनुष्य-समाज को जागरूक किया, खुद का पहरेदार बनाया, संघर्ष का पथ दिया, उड़ने को आकाश.'

मूलतः हिंदी गीतकार विराट ने गीत में दुहराव से बचने, गीत की सीमा से परे व्यक्त होने के लिये आलोड़ित मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिये ग़ज़ल को चुना. डॉ. श्रीराम परिहार के अनुसार- 'गीत का संकल्पधर्मा कवि 
गज़ल के देश चला आया..उसे अपनी भाषा दी, नयी स्थापना दी, मुगलकालीन गलियारों से निकालकर हिंदी की हरी दूब पर बैठा दिया, हिंदी में बोलने का तजुर्बा दिया, तर्ज दी.'

गत ४ दशकों से अधिक समय से हिंदी ग़ज़ल को कथ्य, शिल्प, भाव, भाषा, बिम्ब, प्रतीक, रस, माधुर्य तथा सामाजिक सरोकारों की नवधा संपदा से संपन्न करते रहे विराट की ग़ज़लों के वैशिष्ट्य को भाँपकर आलोच्य संग्रह में संपादक ने रचनाओं को स्थान दिया है. दृष्टव्य है कि विराट का साहित्य देश में हुए सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक परिवर्तनों को भी शब्दायित करता रहा है. किसी कवि की प्रतिनिधि रचनाओं को छांटना तलवार की धार पर चलने की तरह है. संपादक को अपनी पसंद और श्रेष्ठता के साथ-साथ अन्य मापदंडों और प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व की ओर भी सचेत होना होता है. डॉ. मधु खराटे संपादक की भूमिका में रचना चयन के प्रति सतर्क हैं. संग्रह में ली आगयी रचनाएँ प्रायः दोषमुक्त तथा विराट-काव्य में अन्तर्निहित प्रवृत्तियों यथा गीत की पक्षधरता, हिंदी हितों के पक्ष में आवाज, स्व-आकलन, राष्ट्रीयता, सात्विक श्रृंगार, सामाजिक विसंगति पर प्रहार, सामयिक विडम्बनाओं के लिये चेतावनी, सामजिक सद्भाव एवं समन्वय, मंचीय वातावरण पर प्रहार, पौराणिक प्रतीकों का सार्थक उपयोग, गणितीय पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग आदि को समाहित किये हैं. 
विसंगति पर प्रहार:

विराट की गज़लें समाज में नासूर की तरह व्याप्त कुप्रवृत्तियों को प्रकारांतर से इंगित कर उनके शमन की चेतना जगाती हैं. वे ध्वंस नहीं निर्माण और सुधार के हामी हैं.

गीत विद्रोह का गानेवाले
सो गये खुद ही जगाने वाले.
आ गये आग बुझाने के लिये
लौटकर आग लगानेवाले. --पृष्ठ ४१
*
वास्तव में देखिये तो राजनीति
नीतियों का निष्क्रमण है इन दिनों.--पृष्ठ ५९
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आज जन में और उसके तंत्र में
फासला ही फासला है बोल मत. --पृष्ठ ६०
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बीज धरती खा गयी है खेत में
भूख का ही अंकुरण है बन्धुवर. --पृष्ठ ६३
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खूब है शहर कि मंदिर में बसी वैश्याएँ.
और वैश्याओं की बस्ती में शिवाले देखे. --पृष्ठ ७०
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राष्ट्रीयता साध्य:

विराट के लिये राष्ट्रीयता साध्य है साधन नहीं. वे अनेकता में एकता के पक्षधर हैं.

भिन्न प्रान्तों धर्म भाषा जातियों में एक था
है कहाँ मेरा वतन मुझको वतन की खोज है --पृष्ठ ८६  
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देश पहले है देश के पीछे
देश का संविधान रहने दें --पृष्ठ ९३

समन्वय और सामंजस्य:

देश की मंगल कामना करते हुए ही वे विसंगतियों और विद्रूपताओं को इंगित करते हैं. आलोचना करते हुए भी विराट कहीं कटु या नकारात्मक नहीं होते अपितु गुण-दोष को एक साथ इंगित कर समन्वय और सामंजस्य का पथ सुझाते हैं.

ओ समय तन्त्र विकृत नमस्कार है
हम हो चुके चमत्कृत नमस्कार है. --पृष्ठ ३४
*
वैसे बड़े जहीन हैं मेरे शहर के लोग.
कुछ-कुछ मगर कमीन हैं मेरे शहर के लोग.
इतने गिरे हुए हैं मगर इसके बावजूद
औरों से बेहतरीन हैं मेरे शहर के लोग. --पृष्ठ ७१
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जिंदगी ने हमको भोगा भोगते हैं हम उसे.
एक भ्रम था सच समझकर आज तक पाले रहे.--पृष्ठ ७४
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शैव श्रृद्धा हृदय को मिले
वैश्वी पूर्ण सन्यास दो.
मोह गार्हस्थ से दो मगर
साथ में सौम्य सन्यास दो. --पृष्ठ ३३

भविष्य के लिये निष्कर्ष:

हर समर्थ रचनाकार अतीत की थाती को वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में विवेचित कर भविष्य के लिये निष्कर्ष रूप में जीवन सूत्र छोड़ता है. विराट भी पीछे नहीं हैं, वे पौराणिक मिथकों, लोक कथाओं और घटनाओं का प्रयोग अपनी बात कहने के लिये कच्ची मिट्टी की तरह करते हैं.
ओट देता शिखंडी कहाँ तक हमें?
हो चुका पार्थ आहत नमस्कार है. --पृष्ठ ३४
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आज के बाज़ार का निश्चित न कुछ
मूल्य मानव का चरण है आजकल. --पृष्ठ ६३
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सिर्फ सीता का, यहाँ राघव का
अग्नि से स्नान नहीं होता है. --पृष्ठ ९२
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गणितीय शब्दावली:
विराट जी पेशे से अभियंता रहे हैं. उन्होंने भावन, मार्ग तथा सेतु सभी तरह की संरचनाएँ निष्पादित कराई हैं. स्वाभाविक है कि उन्हें विचार सम्प्रेषण में गणितीय शब्दावली अधिक प्रभावी प्रतीत हो.
वृत्त में जो भी समाये, केंद्र पर निर्भर रहे.
एक-दो थे सिरफिरे जो परिधि से बाहर रहे.--पृष्ठ ६९
देश के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में हो रहे घटना क्रम पर वृत्त-केंद्र के माध्यम से सटीक टिप्पणी कर पाना विराट के ही वश में है.
ले दे के शून्य शेष है तू जोड़ तो लगा.--पृष्ठ ५६
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उक्त पंक्ति में कवि अनकहे भी बहुत कुछ कह सका है. निम्न पंक्ति में आम आदमी के स्वभाव में पनप रही टकराव वृत्ति को तिकोने के माध्यम से विराट जी ने अभिव्यक्त किया-
बाहर से पूर्ण वृत्त दिखे लाख़ आदमी.
भीतर से किन्तु तीक्ष्ण तिकोना है आजकल. --पृष्ठ ६७
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गीत की पक्षधरता:

मूलतः मधुर गीतकार विराट जी किसी भी विधा में लिखें गीत की हित चिंता उन्हें कभी विस्मृत नहीं होती.

गीत से इनकार पाकर भावना
कच प्रताड़ित देवयानी हो गयी. --पृष्ठ ४६
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गीत की ओ कोकिले! आश्चर्य तुझको आज भी
यंत्र-युग के बीहड़ों में आम्र-वन की खोज है. --पृष्ठ ८६
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गीत के मरण की घोषणा करनेवालों को गीत के प्रबल पक्षधर विराट जी सता चुनौती देते रहे हैं -
खेद तुम भी भीड़ में शामिल हुए, गालियाँ देते खड़े थे गीत को.
तुम स्वरों का मोल लेते रह गये, मैं सृजन को ताज देता रह गया. --पृष्ठ २९
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हिल नहीं सकता अगीतों से कभी / गीत अंगद का चरण है देवता. --पृष्ठ १४५
गीत का उत्स और रचना प्रक्रिया:
'our sweetest songs are those that tell of saddest thought' अथवा 'हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं' से सहमत विराट जी भी गीत का उद्भव पीड़ा से मानते हैं. बकौल विराट गीत ही क्यों छन्द और ग़ज़ल का उत्स भी पीड़ा या दर्द ही है.

गीत के घर आ गये तो पीर से परिचय करो / आह को जानो नयन के नीर से परिचय करो. --पृष्ठ १५४
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मैंने गीत लिखे क्या अपने / आँसू का अनुवाद किया है. --पृष्ठ २८
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दर्द भीतर दफन कर लिया / अश्रु का आचमन कर लिया. --पृष्ठ २७
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गीत होने लगा तब मधुर / जबकि हर साँस पीड़ित हुई. --पृष्ठ २४
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घाव को जब भी पकाकर दर्द गहराया गया / आँख गीली कर सके वह गीत तब गाया गया. --पृष्ठ ५२
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दर्द का पौधा निरंतर अश्रु से सींचा गाया / तब कहीं यह गीत का शतदल खिला श्रीमानजी!. --पृष्ठ १११
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गालियाँ और तिक्त तानों को / गीत की गंध कर लिया मैंने. --पृष्ठ ३७
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आग-पानी रहे / जिंदगानी रहे ... होंठ पर गीत की / बागवानी रहे. --पृष्ठ १२५
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जिंदगी भर की कमाई गीत है / गीत ही ओढ़ा-बिछाया जाएगा. --पृष्ठ १५३
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आदिकवि के कंठ से फूटे अनुष्टुप छंद सा / भाव करुणा का मनुज संवेदनों का गीत है. --पृष्ठ १४४
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पीर भरती जिसे प्रगीतों से / रिक्त वह अँजुरी नहीं होती. --पृष्ठ १५८
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गीत का वातावरण है आज भी / हा र्हृदय में रस-स्फुरण है आज भी. --पृष्ठ १६९
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दर्द को छंद कर लिया मैंने / अश्रु आनंद कर लिया मैंने.
गीत दूँगा मैं आँसू लेकर / एक अनुबंध कर लिया मैंने.
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पीर की कोख में पला होगा / भाव तब छंद में ढला होगा. --पृष्ठ ८५
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हम निचोते हैं जब लहू दिल का / तब कहीं जाके गजल होती है. --पृष्ठ ३६

सात्विक श्रृंगार की उपासना:

गीत के जन्म का अन्य कारण रूप की आराधना भी है. करुण रस के साथ-साथ श्रृंगार भी विराट जी को सृजन की प्रेरणा देता है. उनके लिये श्रृंगार पाश्चात्य मान्यता के अनुसार भोग की वस्तु नहीं अपितु पौर्वात्य मान्यतानुसार प्रकृति पूजन का माध्यम है.

प्रिय की स्मृति में डूब रहा हूँ / मुझको यह पूजन का क्षण है. --पृष्ठ २५
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एक छवि है जिसे देखकर / वासना ही विसर्जित हुई. --पृष्ठ २४
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रूप का अवतरण हो गया / प्रेरणा का स्फुरण हो गाया. --पृष्ठ २७
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प्राण थे आदिवासी मगर / प्यार पाकर सुसंस्कृत हुए. --पृष्ठ ३०
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कुछ परस क्या दरस भी नहीं रूप का / आज एकादशी निर्जला हो गयी. --पृष्ठ ४०
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वासना से प्यार का अंतर समझने के लिये / आत्मा से देह का संवाद होना घहिये. --पृष्ठ ४७
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छवि के रूपांकन का क्षण है / जैसे गीत-सृजन का क्षण है. --पृष्ठ २५
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सामने तुम रहे तो मधुर / गीत का हर चरण हो गया. --पृष्ठ २७
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होंठ से होंठ छुआकर अपने / रूप की एक रुबाई दे दे. --पृष्ठ १२४
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काव्य रचना के तत्व:

विराट जी ने हिंदी ग़ज़ल को संस्कारित किया है. नव गीत/गजलकार विराट जी के सृजन से काव्य-रचना के पथ सीख सकते हैं. हिंदी ग़ज़ल संबंधी उनकी मान्यताएँ उन्हीं की काव्य पंक्तियों में दृष्टव्य हैं:

शुद्धतम हिंदी ग़ज़ल के वास्ते / शिल्प-शैली तत्समी पर्याप्त है. --पृष्ठ १३७
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लिख तो रहे हो हिंदी ग़ज़ल किन्तु सावधान / हो छंद लय विशुद्ध सही वर्तनी भी हो. --पृष्ठ ८७
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फूल में जैसे बसी है गंध की अवधारणा / गीत में वैसे रही लय छंद की अवधारणा. --पृष्ठ १३१
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हिंदी की कहन तत्समी शब्दों के साथ में / हमने कही ग़ज़ल तो बड़ी सनसनी रही. --पृष्ठ १२३
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चाह बस इतनी कि मेरी मुक्तिका में अंत तक / यह फबन बाकी रहे यह बाँकपन बाकी रहे. --पृष्ठ १८०
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मुक्तिकायें लिखें / दर्द गायें लिखें ... हास की अश्रु की / सब छटाएँ लिखें .--पृष्ठ १७५
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स्व-आकलन:

समय पहचाने या न पहचाने सृजन पथ का राही बिना रुके-घुके सतत चलता रहता है. विराट जी का अभियंता निर्माणों की तरह रचनाओं का भी मूल्यांकन करना जानता है, वह समय का मोहताज नहीं है. छद्म विनम्रता या मूल्यांकन न किये जाने की शिकायत विराट जी नहीं करते, स्वयं निरपेक्ष भाव से अपने सर्जन को कसौटी पर कसकर निष्कर्ष पाठकों की पंचायत में प्रस्तुत करते हैं. विराट की काव्य पंक्तियाँ उनके अवदान की स्वयं साक्षी हैं:

शुरू से सत्य के हित में रही है मुक्तिका मेरी / इसे साहित्य वर लेगा मुझे विश्वास है मित्रों. --पृष्ठ ३८
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अपनी जगह हमीं हैं बिलकुल विशिष्टतम --पृष्ठ ४५
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इस क्षण न मैं स्वयं का रहा मेरा कुछ नहीं / संज्ञा न सर्वनाम गजल कह रहा हूँ मैं. --पृष्ठ ४९
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मुहावरों का प्रयोग:

विराट जी हिंदी के मुहावरों को अपने काव्य में इस तरह प्रयोग करते हैं कि वे नीर-क्षीर की तरह घुल-मिल जाते हैं. 'हिम्मत जो अपने आप जुटाओ तो बात है' (हिम्मत जुटाना), बीज बोते हैं मगर सब अंकुरित होते नहीं (बीज बोना), बर्फ इनसे पिचल नहीं सकती (बर्फ पिघलना) आदि अनेक मुहावरों का प्रयोग विराट जी ने यथा स्थानकिया है. पृष्ठ १९१ पर 'तो बात है' शीर्षक मुक्तिका की अधिकांश पंक्तियों में मुहावरों का प्रयोग दृष्टव्य है.

चन्द्रमा में दाग

चन्द्रमा में दाग की तरह इस कृति में कुछ मुद्रण त्रुटियाँ हैं जो सामान्य पाठक की पकड़ में नहीं आती हैं किन्तु काव्य रसिकों को चुभती हैं:

प्रिय मुग्ध मिलन का क्षण है (पृष्ठ २५) में प्रिय तथा मुग्ध के बीच 'से' छूट गया है. मेरे वक्ष तुम्हारी मस्तक (पृष्ठ २७) वक्ष एक ही होता है अनेक नहीं अतः 'मेरे' के स्थान पर 'मेरा' होना चाहिए . मस्तक पुल्लिंग है अतः 'तुम्हारी' के स्थान पर 'तुम्हारा' होगा. इअसी तचना में 'संमिश्रण' के स्थान पर 'सम्मिश्रण' हो तो आम पाठक के अनुकूल होगा. 'जनतंत्र रह सचेत कि सत्ता का यह मुकुट / कोई अयोग्य मस्तक का आभरण न हो.' (पृष्ठ ४२) यहाँ 'कोई' शब्द का प्रयोग खटकता है. इसी तरह 'पक्ष में निर्णय लगाने के लिये' (पृष्ठ ४४) में 'लगाने' के स्थान पर 'सुनाने' होना चाहिए. 'उनसे से व्यंग्य वचन कौन कहे' (पृष्ठ ७६) में 'उनसे' के स्थान पर 'उनके' होगा.

विराट अपने मानक आप गढ़ते हैं. वे काव्य दोषों के प्रति इतने सचेत हैं कि सजग हुए बिना काव्य दोष देखे ही नहीं जा सकते. 'कवि बचाकर के हृदय को बुद्धि से / शुद्धता कुछ काव्य के रस में रखो' (पृष्ठ ६५) के प्रथमार्ध में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है, इसे हटाकर 'निज' रखने से दोष-निवारण हो जाता है. द्वितीयार्ध में 'शुद्धता कुछ' क्यों शुद्धता तो पूरी तरह साध्य होती है. यहाँ 'कुछ' के स्थान पर 'नित' किया जा सकता है.

पथ दर्शन:

कवि युग चेता होता है. विराट जी जैसे श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि से समाज को मार्गदर्शन मिलना ही चाहिए. वे अपने इस धर्म के प्रति पूरी तरह सजग हैं. कहीं चेतावनी, कहीं परामर्श और कहीं विसंगतियों को इगित कर विराट जी अपने इस दायित्व का बखूबी निर्वहन करते हैं. 'वल्गा कठोरता से रहे खींचते विवेक' (४२), 'रौशनी के स्रोत की चिंता करो तुम (४४), 'मंच के मोह में इतना न गिरो / गीत मुजरा न बना दो मित्रों (७८), 'हेश करीना हो हृदय में शेष हो संवेदना' (१८०), 'पानी न बचा पाये तो हम भी न बचेंगे' (१८२) जैसी अनेक पंक्तियों से विराट जी नव चेतना जागृत करते हैं.

'साध्य खुद आकर मिलेगा आपसे पर शर्त है / साध्य के प्रति साध का उन्माद होना चाहिए.' --४७

जिसे अपने आप पर विश्वास हो वही दुनिया को रास्ता दिखा सकता है. विराट जी जैसा आत्म विश्वास बिरलों में होता है. बानगी देखें:'छटा से सूर्य निकलेगा मुझे विश्वास है मित्रों' (38). सारतः यह संग्रह वास्तव में विराटी हिंदी ग़ज़लों की ऐसी मंजूषा है जिसे पढ़कर हिंदी ग़ज़ल लिखना सीखा जा सकता है. इस सार्थक प्रयास के लिये गज़लकार के साथ-साथ संपादक को भी साधुवाद.
चंद्रसेन विराट की चुनिन्दा गज़लें:
 १. अक्षरों की अर्चना

आयु भर हम अक्षरों की अर्चना करते रहें.
छंद में ही काव्य की नव सर्जना करते रहें..

स्वर मिले वह साँस को, हर कथ्य जो गाकर कहे.
ज़िंदगी के सुख-दुखों की व्यंजना करते रहें..

वक्ष का रस-स्रोत सूखे दिग्दहन में भी नहीं.
नित्य नीरा वेदना की वन्दना करते रहें..

जो भविष्यत् में कभी भी ठोस रूपाकार ले.
सत्य के उस स्वप्न की हम कल्पना करते रहें..

रम्य प्रियदर्शी रहे, हो रूप में रति भी सहज.
प्रेम हो शुचि काम्य जिसकी कामना करते रहें..

दे नयी उद्भावनाएँ, प्राण ऊर्जस्वित रखे.
हम प्रणत हो प्रेरणा की प्रार्थना करते रहें..

सत्य-शिव-सुंदर हमारी लेखनी का लक्ष्य हो.
श्रेष्ठ मूल्यों की सतत संस्थापना करते रहें..

युद्ध से निरपेक्ष मत को विश्व-अनुमोदन मिले,
मानवी कल्याण की प्रस्तावना करते रहें..

*
२. छंद की अवधारणा

फूल में जैसे बसी है गंध की अवधारणा.
गीत में वैसे रही लय छंद की अवधारणा..

एक तितली चुम्बनों ही चुम्बनों में ले गयी.
फूल से फल तक मधुर मकरंद की अवधारणा..

जीव ईश्वर का अनाविल नित्य चेतन अंश है.
द्वन्द से होती प्रगट निर्द्वन्द की अवधारणा..

एक रचनाकार तो स्थितप्रज्ञ होता है उसे
आँसुओं में भी मिली आनंद की अवधारणा..

प्यार से ही स्पष्ट होती है, अघोषित अनलिखे
और अनहस्ताक्षरित अनुबंध की अवधारणा..

प्रेम में  सात्विक समर्पण के सहज सुख से पृथक.
अन्य कुछ होती न ब्रम्हानंद की अवधारणा..

मुक्तिका मेरी पढ़ी हो तो निवेदन है लिखें
क्या बनी सामान्य पाठक वृन्द की अवधारणा..

**
३. मुक्तिकाएँ लिखें

मुक्तिकाएँ लिखें
दर्द गायें लिखें..

हम लिखें धूप भी
हम घटाएँ लिखें..

हास की अश्रु की
सब छटाएँ लिखें..

बुद्धि की छाँव में
भावनाएँ लिखें..

सत्य के स्वप्न सी
कल्पनाएँ लिखें..

आदमी की बड़ी
लघुकथाएँ लिखें..

सूचनाएँ नहीं
सर्जनाएँ लिखें..

भव्य भवितव्य की
भूमिकाएँ लिखें..

 पीढ़ियों के लिए
 प्रार्थनाएँ लिखें..

केंद्र में रख मनुज
मुक्तिकाएँ लिखें..

***
४. गज़ल हो गई

याद आयी, तबीयत विकल हो गई.
आँख बैठे बिठाये सजल हो गई.

भावना ठुक न मानी, मनाया बहुत
बुद्धि थी तो चतुर पर विफल हो गई.

अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर.
एक चट्टान थी वह तरल हो गई.

रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली.
वह सदा को समुज्ज्वल विमल हो गई.

आपकी गौरवर्णा वदन-दीप्ति से
चाँदनी साँवली थी, धवल हो गई.

मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी
थी समस्या कठिन पर सरल हो गई.

खूब मिलता कभी था सही आदमी
मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई.

सत्य-शिव और सौंदर्य के स्पर्श से
हर कला मूल्य का योगफल हो गई.

रात अंगार की सेज सोना पड़ा
यह न समझें कि यों ही गज़ल हो गई.

****
५. उतारी जाए

अब हथेली न पसारी जाए.
धार पर्वत से उतारी जाए.

अपनी जेबो में भरे जो पानी
उसकी गर्दन पे कटारी जाए.

अब वो माहौल बनाओ, चलके
प्यास तक जल की सवारी जाए

झूठ इतिहास लिखा था जिनने
भूल उनसे ही सुधारी जाए..

कोई हस्ती हो गुनाहोंवाली
कटघरे बीच पुकारी जाए.

उनसे कह दो कि खिसक मंचों से
साथ बन्दर का मदारी जाए

तोड़ दो हाथ दुशासनवाले
द्रौपदी अब न उघारी जाए..

*****
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

रचना-प्रति रचना: राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल

रचना-प्रति रचना
राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल
*

यह अब हमको नहीं गवारा 

राकेश खंडेलवाल

*

जो पगडंडी ह्रदय कुंज से ,बन्द हुये द्वारे तक जाती
उस पर चिह्न पड़ें कदमों के यह अब हमको नहीं गवारा
अजनबियत की गहन धुंध ने ओढ़ लिया है जिन चेहरों ने
उनके अक्स नहीं अब मन के आईने में बनें दुबारा
सम्बन्धों के वटवृक्षों की जड़ें खोखली ही निकलीं वे
रहे सींचते निशा दिवस हम जिनको प्रीत-नीर दे देकर
सूख चुकीं शाखाओं को पुष्पित करने को कलमें रोपीं
व्यर्थ भटकना हुआ रहे ज्यों मरुथल में नौकायें खे कर
पता नहीं था हमें बाग यह उन सब को पी चुप रहता है
भावों के जिन ओस कणों से हमने इसका रूप संवारा
छिली हथेली दस्तक देते देते बन्द पड़े द्वारे पर
देहरी पर जाकर के बैठी रहीं भावनायें बंजारी
झोली का सूनापन बढ़ता निगल गया फ़ैली आंजुरिया
और अपेक्षा, ओढ़ उपेक्षा रही मारती मन बेचारी
चाहे थी अनुभूति चाँदनी बन आगे बढ़ कंठ लगाये
किन्तु असंगति हठी ही रही उसने बार बार दुत्कारा
उचित नहीं है हुये समाधिस्थों को छेड़े जा कोई स्वर
जिसने अंगीकार किया है एकाकीपन, हो एकाकी
अपनी सुधियों के प्याले से हम वह मदिरा रिक्त कर चुके
भर कर गई जिसे अहसासों की गगरी ले कर के साकी
वह अनामिका की दोशाला, जिस पर कोई पता नहीं है
पहुँच कहो कैसे सकता अब उस तक कोई भी हरकारा.
*********
मुक्तिका:
तार रहा जो...
संजीव 'सलिल'
*
तार रहा जो सारी दुनिया, क्या उसको भी तिर-तरना है?
लुटा रहा जो मुक्त हस्त, क्या शेष अशेष उसे धरना है??
*
जो पगडंडी हृदय कुञ्ज के रुद्ध द्वार तक पहुँच न पाती.
उस मग पर पग बार-बार रख, कदमों को मंजिल वरना है..
*
ओढ़ अपरिचय का कोहरा जो अन्तर्यामी दूर दृष्टि से,
दूर दृष्टि रख काव्य कलश में, बिम्ब आस्था का भरना है..
*
संबंधों के वट प्रतिबंधों की दीमक खोखला कर रही.
स्नेहिल अनुबंधों की औषधि, दे जग हरियाला करना है..
*
जीवन जीने की चिंता में पल-पल मरना त्याग सकें हम.
मरणधर्मियों को हँस-हँसकर अजर-अमर हो जी-मरना है.
*
अँजुरी में चाँदनी लिये हम, उषा-गाल पर मल आये हैं.
प्यास-हास का आस-दीप अब संध्या के द्वारे बरना है..
*
मिलन-निशा को नशा मिलन का, शरद पूर्णिमा कर देता है.
सुधियों को अमरत्व न दे, पल-पल नवजीवन वापरना है..
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मुक्तिका: ---संजीव 'सलिल'


मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'                                                                             
*
लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..

चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..

आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..

ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..

कामयाबी जब मिली सेहरा सजा निज शीश पर-
दोष नाकामी का औरों पर 'सलिल' धरते रहे..

****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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बुधवार, 18 अप्रैल 2012

दोहा सलिला: धूप-छाँव दोहा-यमक --संजीव 'सलिल

दोहा सलिला:
धूप-छाँव दोहा-यमक
संजीव 'सलिल
*
शब नम आँखें मूँदकर, सहे तिमिर धर धीर.
शबनम की बूँदें कहें, असह हुई थी पीर..
*
मत नट वर, नटवर वरे, महकी प्रीत कदम्ब.
सँकुच लाजवंती हुई, सहसा आयीं अम्ब.. 
*
छीन रही कल छुरी से, मौन कलछुरी छीन.
चमचे के गुण गा आरही, चमची होकर दीन..
*
छान-बीनकर बात कर, कोई न हो नाराज.
छान-बीनकर जतन से, रखिए 'सलिल' अनाज..
*
अगर मिले ना राज तो,  राजा हो नाराज.
राज मिले तो हो मुदित, सिर पर धारे ताज.
*
भय का भूत न भूत से, आकर डँस ले आज.
रख खुद पर विश्वास मन,करता चल निज काज..
*
लगे दस्त तो दस्त ही, करता चुप रह साफ़.
क्यों न करो तुम भी 'सलिल', त्रुटि औरों की माफ़?.
*
हरदम हर दम का रखें, नाहक आप हिसाब.
चलती खुद ही धौंकनी, बँटे-मिटते ख्वाब..
*
बुनकर बुन कर से रहा, कोरी चादर रोज.
कोरी चादर क्यों नहीं?, कर कुछ इसकी खोज..
*
पत्र-कार मत खोजिये, होंगे आप निराश.
पत्रकार को सनसनी की ही, रही तलाश..
*
अमा नत हुए क्यों नयन?, गुमी अमानत आज.
नयन उठा कैसे करें, बात? आ रही लाज..
*
..Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

भजन: क्यों सो रहा?..... संजीव 'सलिल'


भजन:
क्यों सो रहा?.....
संजीव 'सलिल'
*
क्यों सो रहा मुसाफिर, उठ भोर हो रही है.
चिड़िया चहक-चहक कर, नव आस बो रही है...
*
मंजिल है दूर तेरी, कोई नहीं ठिकाना.
गैरों को माने अपना, तू हो गया दीवाना..
आये घड़ी न वापिस जो व्यर्थ खो रही है...
*
आया है हाथ खाली, जायेगा हाथ खाली.
रिश्तों की माया नगरी, तूने यहाँ बसा ली..
जो बोझ जिस्म पर है, चुप रूह धो रही है...
*
दिन-सोया रात-जागा, सपने सुनहरे देखे.
नित खोट सबमें खोजे, नपने न अपने लेखे..
आँचल के दाग सारे, की नेकी धो रही है...
***
 
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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सोमवार, 16 अप्रैल 2012

कवि और कविता : कवियत्री पूर्णिमा वर्मन

कवि और कविता : कवियत्री पूर्णिमा वर्मन

पूर्णिमा वर्मन 

पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) के मनोरम प्राकतिक वातावरण में जनमी (जन्म तिथि २७ जून १९५५) और पली-बढीं पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती। बाद में आप यूं ए ई में प्रवास करने लगी । आपने संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि सहित पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। आपके जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा- जीव मात्र से प्रेम और उसके कल्याण के लिए निरंतर कार्य करते रहना, पत्रिकारिता के माध्यम से। साथ ही भारतीय संस्कृति और हिन्दी की पहचान और सम्मान को बनाये रखने के लिए भी आपका अवदान सराहनीय है।

पिछले पचीस सालों में लेखन, संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त। साथ ही आप न केवल एक अच्छी नवगीतकार है, बल्कि आपने हिन्दी गीत और नवगीत के क्षेत्र में भी नवगीत की पाठशाला और अनुभूति के माध्यम से उल्लेखनीय कार्य किया है। आपकी प्रकाशित कृतियां : वक्त के साथ (कविता संग्रह) और वतन से दूर (संपादित कहानी संग्रह)। चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला,शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति। आपकी कई रचनाओं का अनुवाद हो चुका है- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में) आदि। 

वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए आपको २००६ में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान[3], २००८ में रायपुर छत्तीसगढ़ की संस्था सृजन सम्मान द्वारा हिंदी गौरव सम्मान[4], दिल्ली की संस्था जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार [5]से विभूषित किया जा चुका है।[6] संप्रति: शारजाह, संयुक्त अरब इमारात में निवास करने वाली पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी होने के साथ साथ हिंदी विकिपीडिया के प्रबंधकों में से भी एक हैं।[8] संपर्क : abhi_vyakti@hotmail.com

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
१. दर्द हरा है

टुकड़े टुकड़े 

टूट जाएँगे
मन के मनके
दर्द हरा है

ताड़ों पर 

सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ
जली दूब-सी 

तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है?

गुलमोहर-सी जलती है
बागी़ ज्वालाएँ
देख-देख कर 

हँसती हैं
ऊँची आशाएँ
विरह-विरह-सी 

भटक रहीं सब
प्रेम कथाएँ
आज सँभाले नहीं सँभलता
जख़्म हृदय का
कुछ गहरा है
। 

२. 
सच में बौनापन 

जीवन की आपाधापी में
खोया खोया मन लगता है
बड़ा अकेलापन
लगता है

दौड़ बड़ी है 

समय बहुत कम
हार जीत के सारे मौसम
कहाँ ढूंढ पाएँगे उसको
जिसमें -
अपनापन लगता है

चैन कहाँ 

अब नींद कहाँ है
बेचैनी की यह दुनिया है
मर खप कर के-
जितना जोड़ा
कितना भी हो 

कम लगता है

सफलताओं का 

नया नियम है
न्यायमूर्ति की जेब गरम है
झूठ बढ़ रहा-
ऐसा हर पल
सच में 

बौनापन लगता है

खून-ख़राबा 

मारा-मारी
कहाँ जाए 
जनता बेचारी
आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन 

लगता है। 

३. राजतंत्र की हुई ठिठोली


सडकों पर हो रही सभाएँ
राजा को-
धुन रही व्यथाएँ

प्रजा
कष्ट में चुप बैठी थी
शासक की किस्मत ऐंठी थी
पीड़ा जब सिर चढ़कर बोली
राजतंत्र की हुई ठिठोली
अखबारों-
में छपी कथाएँ

दुनिया भर में
आग लग गई
हर हिटलर की वाट लग गई
सहनशीलता थक कर टूटी
प्रजातंत्र की चिटकी बूटी
दुनिया को-
मथ रही हवाएँ

जाने कहाँ
समय ले जाए
बिगड़े कौन, कौन बन जाए
तिकड़म राजनीति की चलती
सड़कों पर बंदूक टहलती
शासक की-
नौकर सेनाएँ
। 

४. माया में मन

दिन भर गठरी 
कौन रखाए
माया में मन कौन रमाए

दुनिया ये आनी जानी है
ज्ञानी कहते हैं फ़ानी है
चलाचली का-
खेला है तो
जग में डेरा कौन बनाए
माया में मन कौन रमाए

कुछ ना जोड़े संत फ़कीरा
बेघर फिरती रानी मीरा
जिस समरिधि में-
इतनी पीड़ा
उसका बोझा कौन उठाए
माया में मन कौन रमाए

***
आभार : पूर्वाभास 

दोहा सलिला: दोहा कहे मुहावरे --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
दोहा कहे मुहावरे
संजीव 'सलिल'
*
'अपने मुँह मिट्ठू बने', मियाँ हकीकत भूल.
खुद को कोमल कहे ज्यों, पैना शूल बबूल.१.
*
'रट्टू तोता' बन करें, देश-भक्ति का जाप.
लूट रहे हैं देश को, नेताजी कर पाप.२.
*
कभी न देखी महकती, 'सलिल' फूल की धूल.
किन्तु महक-खिलता मिला, हमें 'धूल का फूल'.३.
*
दिनकर ने दिन कर कहा, 'जो जागे सो पाय'.
'जो सोये सो खोय' हर, अवसर व्यर्थ गंवाय.४.
*
'जाको राखे साइयाँ', वाको मारे कौन?
नजर उतारें व्यर्थ मत, लेकर राई-नौन.५.
*
'अगर-मगर कर' कर रहे, पाया अवसर व्यर्थ.
'बना बतंगड़ बात का', 'करते अर्थ अनर्थ'.६.
*
'चमड़ी जाए पर नहीं दमड़ी जाए' सोच.
जिसकी- उसकी सोच में, सचमुच है कुछ लोच.७.
*
'कुछ से 'राम-रहीम कर', कुछ से 'कर जय राम'.
'राम-राम' दिल दे मिला, दूरी मिटे तमाम.८.
*
सर कर सरल न कठिन तज, कर अनवरत प्रयास.
'तिल-तिल जल' दीपक हरे, तम दे सतत उजास.९.
*
जब खाल से हो सामना, शिष्ट रहें नि:शब्द.
'बाल न बाँका कर सके', कह कोई अपशब्द.१०.
*
खल दे सब जग को खलिश, तपिश कष्ट संताप.
औरों का 'दिल दुखाकर',  करता है नित पाप.११.
*

एक कविता: शब्द-अर्थ के भाव सागर में... --संजीव 'सलिल'

एक कविता:
शब्द-अर्थ के भाव सागर में...
संजीव 'सलिल'
*
शब्द-अर्थ के भवसागर में कलम-तरणि ले छंद तैरते.
शिल्प-घाट पर भाव-तरंगों के वर्तुल शत सिकुड़-फैलते.

कथ्यों की पतवार पकड़कर, पात्र न जाने क्या कुछ कहते.
नवरस कभी हँसा देते हैं, कभी नयन से आँसू बहते.

घटना चक्र नचाता सबको, समय न रहता कभी एक सा.
पर्वत नहीं सहारा देता, तिनका करता पार नेंक सा.

कवि शब्दों के अर्थ बदलकर, यमक-श्लेष से काव्य सजाते.
रसिकजनों को अलंकार बिन, काव्य-कथन ही नहीं सुहाते..

गया दवाखाना डॉक्टर पर, भूल दवाखाना जाता है.
बाला बाला के कानों में, सजता सबके मन भाता हैं..

'अश्वत्थामा मरा' द्रोण ने, सुना द्रोण भर अश्रु बहाये.
सर काटा सर किया युद्ध, हरि दाँव चलें तो कौन बचाये?

बीन बजाता काल सपेरा, काम कामिनी पर सवार है.
नहीं रही निष्काम कामना, बीन कर्मफल हुई हार है.

जड़कर जड़ पत्थर सोने में, सोने की औषधि खाते है.
जाग न पाते किन्तु जागकर, पानी-पानी हो जाते हैं.

नहीं आँख में पानी बाकी, नित पानी बर्बाद कर रहे.
वृक्षारोपण कहते हैं पर, पौधारोपण सतत कर रहे.

है 'दिवाल' हिन्दी भाषा की, अंग्रेजी में भी 'दि वाल' ही.
ढाल ढाल बचना चाहा पर, फिसल ढाल पर हैं निढाल ही.

शब्द-अर्थ का सागर गहरा, खाना खा ना हो छलता है.
अर्थ अर्थ बिन कर अनर्थ, संझा का सूरज बन ढलता है.

ताना ताना अगर अधिक तो, बाना सहज न रह पाता है.
बाना बाँटे मौन कबीरा, सुने कबीरा सह जाता है.

हो नि:शब्द हर शब्द बोलता, दिनकर दिन कर मुस्काता है.
शेष डोलता पल भर भी यदि, शेष न कुछ भी रह पाता है..

हर विधि से हर दिन ठगता जग, विधि-हरि-हर हो मौन देखते.
भोग चढ़ा कर स्वयं खा रहे, क्या निज करनी कभी लिखते?

अर्थ बदलते शब्दों के तब, जब प्रसंग परिवर्तित होते.
'सलिल'-धार से प्यास बुझाते, कभी फिसलकर खाते गोते.
***  
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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रविवार, 15 अप्रैल 2012

मुक्तिका: सपने --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
सपने
संजीव 'सलिल'
*
अनजाने ही देखे सपने.
सपने जो हैं बिलकुल अपने.

सपने में कडवा सच देखा.
बिलकुल बेढब जग के नपने..

पाठ पढ़ाते संत त्याग का.
लगे स्वार्थ की माला जपने..

राजहंस की बिरादारी में
बगुले भाई लगे हैं खपने..

राजनीति दलदल की नगरी.
रथ के चक्र लगे हैं गपने..

अंगारों से ठंडक मिलती.
हिम की शिला लगी है तपने..

चीन्ह-चीन्ह कर बंटी रेवड़ी.
हल्दी-हाथ लगे हैं थपने..
********

एक कविता: सपने में अमन - संजीव 'सलिल'

एक कविता
सपने में अमन

संजीव 'सलिल'
*
'मैंने सपने में अमन देखा है'
एक बच्चे ने हँस कहा मुझसे.
*
दूसरा दूर खड़ा बोल पड़ा:
'मुझको सपने में गोल रोटी दिखी.'
*
तीसरे ने बताया ख्वाब तभी:
'मैंने शिक्षक को पढ़ाते देखा.'
*
चौथा बोला कि उसने सपने में
काम करते हुए बाबू देखा.
*
मौन तज एक बेटी धीरे से
बोली:'मैया ने आज सपने में
मुझे भैया के जैसे प्यार किया.'
*
एक रोगी कराहकर बोला:
'ख्वाब में मेरे डॉक्टर आया,
फीस माँगी नहीं इलाज किया
मेरा सिर घूम रहा चकराया.'
*
'तौल पूरी, बकाया चिल्लर भी
स्वप्न में सेठ ने लौटाए हैं.'
*
'बिना मांगे दहेज़ दूल्हे ने
शादी अपनी विहँस रचाई है.'
*
'खाकी वर्दी ने सही जाँच करी
ये न पाया कि तमाशाई है.'
*
'मेरे सपने में आये नेता ने
अपना बुत चौक से हटाया है.'
*
'पाक ने बंद कैदी छोड़ दिये
और आतंक भी मिटाया है'
*
जितने सपने हैं मेरे अपने हैं
काश साकार 'सलिल' हो पायें.
देवता फिर तभी जनम लेंगे-
आदमी आदमी जो हो जायें.
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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