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शनिवार, 22 जनवरी 2011

हिन्दी सेवी परिचय : १ हिन्दी हित संरक्षक सेठ गोविन्ददास -संजीव 'सलिल'

हिन्दी सेवी परिचय : १

इस स्तम्भ के अंतर्गत अनन्य हिन्दी सेवकों से नयी पीढ़ी को परिचित करने का प्रयास है ताकि वे सद्प्रेरणा ग्रहण कर हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के महाभियान में अपनी सारस्वत समिधा समर्पित कर सकें.


हिन्दी हित संरक्षक सेठ गोविन्ददास
                                                                                                
संजीव 'सलिल'
*
           हिन्दी को भारत की राष्ट्र भाषा बनाने के स्वप्न दृष्टाओं में सेठ गोविन्ददास अनन्य इसलिए हैं कि उन्होंने संसद में हिन्दी के पक्ष में मतदान करने के लिये अपने राजनैतिक दल कोंग्रेस के व्हिप का उल्लंघन करने के लिये केन्द्रीय नेतृत्व से अनुमति ली और हिन्दी के पक्ष में निर्भीकता के साथ मतदान किया. सामान्यतः अपने दल की नीति से बंधे रहने की परंपरा को तोड़ने का साहस ही सांसद नहीं करते, करें तो दल से द्रोह का आरोप लगता है किन्तु सेठ जी ने दल से निष्ठा बनाये रखते हुए दल की घोषित नीति के विरोध में मतदान कर संसदीय लोकतंत्र और हिन्दी दोनों की हित रक्षा कर अपनी निर्भीकता तथा कौशल का परिचय दिया.   
               
         सनातन सलिला नर्मदा के तट पट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में मारवाड़ से आकर बसे महेश्वरी वैश्य समाज के राजा गोकुलदास के पुत्र दीवान बहादुर सेठ जीवनदास को १६ अक्टूबर १८९६ को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम गोविन्द दास रखा गया. वैभवशाली राज परिवार में शिक्षित-दीक्षित होने पर भी अपनी माता श्री के सात्विक स्वभाव को उन्होंने ग्रहण किया. तरुण गोविन्द ने १९१६ में श्री शारदा भवन पुस्तकालय की स्थापना कर देश की गणमान्य विभूतियों को आमंत्रित कर उनके व्याख्यानों के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास का पथ प्रशस्त करने के साथ-साथ सामान्य जनों को भी हिन्दी से जोड़ा. द्वारकाप्रसाद मिश्र, ब्योहार राजेन्द्र सिंह, ज्वालाप्रसाद वर्मा, माणिकलाल चौरसिया आदि के सहयोग से उन्होंने जबलपुर को खड़ी हिन्दी का गढ़ बना दिया. सन १९२० में युवा गोविन्ददास गंदी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता सत्याग्रह में समर्पित हो गये. राष्ट्र और राष्ट्रभाषा उनके जीवन का लक्ष्य हो गये.

साहित्य सृजन के आरंभिक दिनों में में उनकी रूचि काव्य लेखन में थी. १९१६ से १९२० के बीच कवि गोविन्ददास ने 'बाणासुर पराभव' और 'उषा-अनिरुद्ध परिणय' खण्ड काव्य रचे. उषा-अनिरुद्ध परिणय' १९३० में 'प्रेम विजय' शीर्षक से तत्पश्चात 'पत्र-पुष्प' और 'संवाद-सप्तक' काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. उनकी इन कृतियों में पारंपरिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता, नीतिप्रियता, राष्ट्रीय नव जागरण आदि तत्वों की प्रधानता है. छांदस काव्य लेखन की परिपाटी को अपनाते हुए उन्होंने तत्सम शब्दावली का प्रयोग प्रचुरता से किया. 

कालान्तर में उनकी प्रवृत्ति गद्य विशेषकर नाट्य और संस्मरण लेखन की ओर अधिक हो गयी. उनके शताधिक नाटकों में कर्ण, हर्ष, कुलीनता, शाशिगुप्त, अशोक, आदि प्रसिद्ध हुए. पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक घटनाओं और प्रसंगों को वर्त्तमान के लिये प्रेरणा-स्त्रोत बनाने के दृष्टिकोण से एकांकी, प्रहसन और एकल पात्री नाटकों में ढालकर प्रस्तुत करने में वे सिद्धहस्त थे. पारंपरिक भारतीय नाट्य पद्धति के साथ आधुनिक रचना-शिल्प का समन्वय उनका वैशिष्ट्य है. नाट्य विधा में उनके गहन अध्येता गोविंददास जी के गंभीर अध्येता रूप का उद्घाटन 'नाट्य कला मीमांसा' शीर्षक पुस्तक में प्रकाशित उनके ४ उद्बोधनों से मिलता है. गद्य लेखन की नया विधाओं को भी उन्होंने समृद्ध किया.

'इंदुमती' नामक वृहद् औपन्यासिक कृति की रचना कर सेठजी ने ख्याति अर्जित की. 'मेरे जीवन के विचार स्तंभ' नामक निबंध संग्रह में सेठ जी के ललित गद्य-लेखन क्षमता का अच्छा परिचय मिलता है. 'उथल-पुथल के युग' शीर्षक संस्मरण संग्रह में सेठ गोविन्ददास के तटस्थ जीवन बोध की झलकियाँ हैं. 'आत्म-निरीक्षण' ३ भागों में लिखित उनकी आत्मकथा है. अपनी विदेश और स्वदेश यात्राओं के पर्यटन वृत्त लिखकर उन्होंने हिन्दी के पर्यटन साहित्य को समृद्ध किया. उत्तराखंड की यात्रा' तथा 'दक्षिण भारत की यात्रा' उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं. पारंपरिक वैषनव संप्रदाय में उनकी अगाध आस्था उनके लेखन में सर्वत्र दृष्टव्य है.जीवनी साहित्य में मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद आदि कालजयी चरित्रों पर उनका लेखन उल्लेखनीय है. 'स्मृतिकण' शीर्षक से सेठ जी ने अनेक प्रमुख व्यक्तित्वों के शब्द-चित्र अंकित किये है.

सेठ जी का राष्ट्रीयतापरक समाज सुधारक पत्रकारिता से भी लगाव था. दैनिक लोकमत, मासिक श्री शारदा, दैनिक जयहिंद, साप्ताहिक जनसत्ता आदि के प्रकाशन-सञ्चालन में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा. अस्न्स्कर्धनी जबलपुर की संस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र 'शहीद स्मारक' के निर्माण के लिये महाकोशल कोंग्रेस के माध्यम से आर्थिक जनसहयोग एकत्र करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही किन्तु कालांतर में उनके वंशजों ने पारिवारिक न्यास बनाकर इस पर आधिपत्य कर लिया. सेठ जीकी राजनैतिक विरासत उनके पुत्रों जगमोहनदास तथा मनमोहनदास व पुत्री रत्ना कुमारी देवी ने ग्रहण की किन्तु उनके पौत्रों-प्रपौत्रों में समाज सेवा के स्थान पर व्यावसायिकता का अधिक विकास हुआ. फलतः कल के प्रवाह में सेठ जी का साहित्यिक अवदान तथा हिन्दी सेवा ही नयी पीढ़ी के लिये प्रेरणा का स्त्रोत है. सेठ जी की स्मृति में जिला चिकित्सालय का नाम विक्टोरिया अस्पताल से बदलकर सेठ गोविन्ददास चिकित्सालय कर दिया गया है. सेठ जी की आदमकद प्रतिमा शहीद स्मारक प्रांगण में स्थापित है.

चित्र परिचय: १. सेठ गोविन्ददास जी, २. धर्मपत्नी गोदावरी देवी के साथ सेठ जी, ३. संसद के रूप में राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रपसाद जी से शपथ ग्रहण करते हुए, ४. राजसी गणवेश में सेठजी, ५. सेठ जी, ६. सेठ गोविन्ददास चिकित्सालय .

******************

स्वरांजलि कमल, काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल

सृजन-शक्ति को नमन है:

स्वरांजलि
कमल  
(श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार माननीय कमल जी द्वारा रचित इस सरस्वती वंदना का सिद्धहस्त कवि माननीय राकेश खंडेलवाल जी ने उत्तम काव्यानुवाद किया है. दोनों मूर्धन्यों की सृजन-शक्ति को नमन करते हुए इसे ई-कविता से सादर उद्धृत किया जा रहा  है. - सं.)
 
 आदिशक्ति  जगदम्बिके !
इस अकिंचन पर निरंतर
वरद-हस्त बना रहे !

भव-बंधनों में आसक्ति
सम्मान, सम्पति, समृद्धि,
पद, प्रतिष्ठा-वृद्धि
दे न पाईं तृप्ति

छाये तमस घन
घिरीं शंकाएँ भ्रम
 दुराभिसंधियाँ
आहत मन
उद्वेलित अन्तःकरण
देवि !
तुम स्वयं
अन्तःवासिनि,
प्रेरक छवियों में
अन्तर्चक्षु समक्ष
अनवरत  प्रत्यक्ष 

शान्ति की संन्यास की वय
मिल रहे अवसाद, भय
हो रही ममता पराजित
दोष मेरे ही किन्ही अपकर्म का
विहित, अविहित
शेष विकल्प प्रायश्चित्त
दत्तचित्त !


चिर-विदग्ध उर में

करुणामयि  तुमने
भर दिया स्नेह-पारावार
मेरा स्वर्ग !
पा गया मैं सहज ही
अमरत्व का स्पर्श

साधना में चिर-निरत
मन-प्राण-प्रांगण में स्वगत
अब ज्ञान की सुरसरि बहे
वांग्मय छवि को तुम्हारी
उतारूं मैं सतत तन्मय
तूलिका कर में गहे  !
देवि ! अंतिम साँस तक
बन रहूँ मैं सृजन-रत
वरद-हस्त बना रहे 
        वरद-हस्त बना रहे !


काव्यानुवाद : राकेश खंडेलवाल 

आदिशक्ति हे माँ जगदम्बे, नमन करो स्वीकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
दे न सकी है शांति तनिक भी भौतिक सुख आसक्ति
नित्य मिले सम्मान प्रतिष्ठा असफ़ल देवें  तृप्ति
घिरें गहन  अंधियारे मन पर आ छायें शंकायें
अन्तर्मन  में  सिर्फ़  तुम्हारी बसी रहीं आभायें
इस वय पथ पर करो स्नेह का प्राणों में संचार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
चाहना है तोड़ बन्धन आज मैं सन्यास ले लूँ
दोष अपने जो खड़े आ सामने खुद में समो लूँ
आज प्रायश्चित करूँ उनका जनित जो दंश मेरे
पाऊँ अवलम्बन तुम्हारा,दूर कर मन के अँधेरे
चिर हो रहे भरा जो तुमने उर स्नेह अपार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
साधना में हो निरत अब ज्ञान की दीपक जलाऊँ
हाथ में ले तूलिका बस छवि तुम्हारी ही बनाऊँ
श्वास के आरोह के अवरोह के अंतिम स्वरों तक
मैं सृजन करता रहूँ,हूँ माँगता यह एक वर बस
बस जाये धड़कन में आकर वीणा की झंकार
रहे शीश पर सदा तुम्हारी करुणा की बौछार
आभार : ई कविता. 
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रविवार, 16 जनवरी 2011

बाल गीत: "कितने अच्छे लगते हो तुम " -- संजीव वर्मा 'सलिल'

बाल गीत:

"कितने अच्छे लगते हो तुम "

संजीव वर्मा 'सलिल'
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ  चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते  हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |

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अवधी हाइकु सलिला: संजीव वर्मा 'सलिल'

अवधी हाइकु सलिला:  

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
*
सुखा औ दुखा
रहत है भइया
घर मइहाँ.
*
घाम-छांहिक
फूला फुलवारिम
जानी-अंजानी.
*
कवि मनवा
कविता किरनिया
झरझरात.
*
प्रेम फुलवा
ई दुनियां मइहां
महकत है.
*
रंग-बिरंगे
सपनक भित्तर
फुलवा हन.
*
नेह नर्मदा
हे हमार बहिनी
छलछलात.
*
अवधी बोली
गजब के मिठास
मिसरी नाई.
*
अवधी केर
अलग पहचान
हृदयस्पर्शी.
*
बेरोजगारी
बिखरा घर-बार
बिदेस प्रवास.
*
बोली चिरैया
झरत झरनवा
संगीत धारा.
*

नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
                                                                                सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
सतत ज़िंदगी चल रही है.....
*
उषा की किरण का
सड़क पर बसेरा.
दुपहरी में श्रम के
परिंदे का फेरा.
संझा-संदेसा
प्रिया-घर ने टेरा.
रजनी को नयनों में
सपनों का डेरा.
श्वासा में आशा
विहँस पल रही है.
सड़क पर हताशा
सुलग-जल रही है. ....
*
कशिश कोशिशों की
सड़क पर मिलेगी.
कली मेहनतों की
सड़क पर खिलेगी.
चीथड़ों में लिपटी
नवाशा मिलेगी.
कचरा उठा
जिंदगी हँस पलेगी.
महल में दुपहरी
खिली, ढल रही है.
सड़क पर सड़क से
सड़क मिल रही है....
*
अथक दौड़ते पग
सड़क के हैं संगी.
सड़क को न भाती
हैं चालें दुरंगी.
सड़क पर न करिए
सियासत फिरंगी.
'सलिल'-साधना से
सड़क स्वास्थ्य-चंगी.
मंहगाई जन-गण को
नित छल रही है.
सड़क पर जवानी
मचल-फल रही है.....

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नवगीत: सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
आँज रही है उतर सड़क पर
नयन में कजरा साँझ...
*
नीलगगन के राजमार्ग पर
बगुले दौड़े तेज.
तारे फैलाते प्रकाश तब
चाँद सजाता सेज.
भोज चाँदनी के संग करता
बना मेघ को मेज.
सौतन ऊषा रूठ गुलाबी
पी रजनी संग पेज.
निठुर न रीझा-
चौथ-तीज के सारे व्रत भये बाँझ...
*
निष्ठा हुई न हरजाई, है
खबर सनसनीखेज.
संग दीनता के सहबाला
दर्द दिया है भेज.
विधना बाबुल चुप, क्या बोलें?
किस्मत रही सहेज.
पिया पिया ने प्रीत चषक
तन-मन रंग दे रंगरेज.
आस सारिका गीत गये
शुक झूम बजाये झाँझ...
*
साँस पतंगों को थामे
आसें हंगामाखेज.
प्यास-त्रास की रास
हुलासों को परिहास- दहेज़.
सत को शिव-सुंदर से जाने
क्यों है आज गुरेज?
मस्ती, मौज, मजा सब चाहें
श्रम से है परहेज.
बिना काँच लुगदी के मंझा
कौन रहा है माँझ?...
*

नवगीत सड़क पर संजीव 'सलिल'

नवगीत
                                                                                सड़क पर

संजीव 'सलिल'
*
कहीं है जमूरा,
कहीं है मदारी.
नचते-नचाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पिंजरे में कैदी
वो किस्मत बताता.
नसीबों के मारे को
सपना दिखाता.
जो बनता है दाता
वही है भिखारी.
लुटते-लुटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
साँसों की भट्टी में
आसों का ईंधन.
प्यासों की रसों को
खींचे तन-इंजन.
न मंजिल, न रहें,
न चाहें, न वाहें.
खटते-खटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
चूल्हा न दाना,
मुखारी न खाना.
दर्दों की पूंजी,
दुखों का बयाना.
सड़क आबो-दाना,
सड़क मालखाना.
सपने-सजाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
कुटी की चिरौरी
महल कर रहे हैं.
उगाते हैं वे
ये फसल चर रहे हैं.
वे बे-घर, ये बा-घर,
ये मालिक वो चाकर.
ठगते-ठगाते
मनुज ही  सड़क पर...
*
जो पंडा, वो झंडा.
जो बाकी वो डंडा.
हुई प्याज मंहगी
औ' सस्ता है अंडा.
नहीं खौलता खून
पानी है ठंडा.
पिटते-पिटाते
मनुज ही  सड़क पर...
*

समय-समय का फेर विजय कौशल

समय-समय का फेर 

विजय कौशल 
*
 ४०  वर्ष की उमे में कुछ मित्र मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ की युवा बार बालाएँ छोटे कपडे पहनती थीं. 

४०  वर्ष की उम्र में कुछ मित्र मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ की युवा बार बालाएँ छोटे कपडे पहनती थीं.  


१० साल बाद ५०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ का भोजन स्वादिष्ट था तथा सुरा-पान की बढ़िया व्यवस्था थी. 

१० साल बाद ६०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ शांति तथा समुद्र के सुंदर दृश्य थे.

१० साल बाद ७०  वर्ष की उम्र में वे मित्र एक बार फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वहाँ ऊपर चढ़ाने के लिये स्वचालित एलीवेटर तथा व्हील चिर उपलब्ध थी. 

१० साल बाद ८०  वर्ष की उम्र में वे मित्र फिर मिले, रात्रि भोज के लिये ओशन व्यू रेस्टारेंट मे में जाने का निर्णय हुआ चूँकि वे वहाँ इसके पहले कभी नहीं गये थे.  
 
Batch mates get together

Friends aged 40 years discussed where they should meet for dinner. 


Finally it was agreed upon that they should meet at the Ocean View restaurant because the waitresses there had low cut blouses and were very young.

10 years later, at 50 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally, it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because the food there was better than most places and the wine selection was extensive.

10 years later, at 60 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because they could eat there in peace and quiet and the restaurant had a beautiful view of the ocean.

10 years later, at 70 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because the restaurant was wheelchair-accessible and they even had an elevator.

10 years later, at 80 years of age, the group once again discussed where they should meet for dinner. Finally it was agreed that they should meet at the Ocean View restaurant because they had never been there before!

कायस्थ कौन हैं?

कायस्थ कौन हैं?
 
जिसकी काया में ''वह'' (परात्पr परम्ब्रम्ह जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, जो हर चित्त में गुप्त है) स्थित है, जिसके निकल जाने पर कहें कि 'मिट्टी' जा रही है- वह कायस्थ है. इस सृष्टि में उपस्थित सभी चर-अचर, दृष्ट-अदृष्ट कायस्थ है. व्यावहारिक या सांसारिक अर्थ में जो इस सत्य को जानते और मानते हैं वे 'कायस्थ' है.

इसी लिए कहा गया "कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात'' जिस प्रकार गंगा में स्नान से सही नदियों में स्नान का सुख मिल जाता है, वैसे ही कायस्थ के घर में भोजन करने से हर जाति के घर में भोजन करने अर्थात सबसे रोटी-बेटी सम्बन्ध की पात्रता हो जाती है.

नवगीत: सड़क पर.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:

सड़क पर....

संजीव 'सलिल'
*
सड़क पर
मछलियों ने नारा लगाया:
'अबला नहीं, हम हैं
सबला दुधारी'.
मगर काँप-भागा,
तो घड़ियाल रोया.
कहा केंकड़े ने-
मेरा भाग्य सोया.
बगुले ने आँखों से
झरना बहाया...
*
सड़क पर
तितलियों ने डेरा जमाया.
ज़माने समझना
न हमको बिचारी.
भ्रमर रास भूला
क्षमा मांगता है.
कलियों से कांटा
डरा-कांपता है.
तूफां ने डरकर
है मस्तक नवाया...
*
सड़क पर
बिजलियों ने गुस्सा दिखाया.
'उतारो, बढ़ी कीमतें
आज भारी.
ममता न माया,
समता न साया.
हुआ अपना सपना
अधूरा-पराया.
अरे! चाँदनी में है
सूरज नहाया...
*
सड़क पर
बदलियों ने घेरा बनाया.
न आँसू बहा चीर
अपना भीगा री!
न रहते हमेशा,
सुखों को न वरना.
बिना मोल मिलती
सलाहें न धरना.
'सलिल' मिट गया दुःख
जिसे सह भुलाया...
****************

सोमवार, 10 जनवरी 2011

नवगीत सड़क-मार्ग सा... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत
                                                                   
सड़क-मार्ग सा...                                                                                        
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सड़क-मार्ग सा
फैला जीवन...
*
कभी मुखर है,
कभी मौन है।
कभी बताता,
कभी पूछता,
पंथ कौन है?
पथिक कौन है?
स्वच्छ कभी-
है मैला जीवन...
*
कभी माँगता,
कभी बाँटता।
पकड़-छुडाता
गिरा-उठाता।
सुख में, दुःख में

साथ निभाता-
बिन सिलाई का
थैला जीवन...
*
वेणु श्वास,
राधिका आस है।
कहीं तृप्ति है,
कहीं प्यास है।
लिये त्रास भी

'सलिल' हास है-
तन मजनू,
मन लैला जीवन...
*
बहा पसीना,
भूखा सोये।
जग को हँसा ,
स्वयं छुप रोये।
नित सपनों की
फसलें बोए।
पनघट, बाखर,
बैला जीवन...
*
यही खुदा है,
यह बन्दा है।
अनसुलझा
गोरखधंधा है।

आज तेज है,

कल मंदा है-
राजमार्ग है,
गैला जीवन-
*
काँटे देख
नींद से जागे।
हूटर सुने,
छोड़ जां भागे।
जितना पायी
ज्यादा माँगे-
रोजी का है
छैला जीवन...
*****

नवगीत: गीत का बनकर / विषय जाड़ा --संजीव 'सलिल'

नवगीत: 


गीत का बनकर / विषय जाड़ा

 

--संजीव 'सलिल' 

*

गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...
*
कोहरे से

गले मिलते भाव.

निर्मला हैं

बिम्ब के

नव ताव..

शिल्प पर शैदा

हुई रजनी-

रवि विमल

सम्मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
फूल-पत्तों पर

जमी है ओस.

घास पाले को

रही है कोस.

हौसला सज्जन

झुकाए सिर-

मानसी का

मान करता है...
*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

नियति पर

अभिमान करता है...

*
नमन पूनम को

करे गिरि-व्योम.

शारदा निर्मल,

निनादित ॐ.

नर्मदा का ओज

देख मनोज-

'सलिल' संग

गुणगान करता है...

*
गीत का बनकर

विषय जाड़ा

'सलिल' क्यों

अभिमान करता है?...

******

नवगीत : ओढ़ कुहासे की चादर संजीव वर्मा 'सलिल

नवगीत : 

ओढ़ कुहासे की चादर

 संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओढ़ कुहासे की चादर,

धरती लगाती दादी।

ऊँघ रहा सतपुडा,

लपेटे मटमैली खादी...

*
सूर्य अंगारों की सिगडी है,

ठण्ड भगा ले भैया।

श्वास-आस संग उछल-कूदकर

नाचो ता-ता थैया।

तुहिन कणों को हरित दूब,

लगती कोमल गादी...
*

कुहरा छाया संबंधों पर,

रिश्तों की गरमी पर।

हुए कठोर आचरण अपने,

कुहरा है नरमी पर।

बेशरमी नेताओं ने,

पहनी-ओढी-लादी...
*
नैतिकता की गाय काँपती,

संयम छत टपके।

हार गया श्रम कोशिश कर,

कर बार-बार अबके।

मूल्यों की ठठरी मरघट तक,

ख़ुद ही पहुँचा दी...
*
भावनाओं को कामनाओं ने,

हरदम ही कुचला।

संयम-पंकज लालसाओं के

पंक-फँसा-फिसला।

अपने घर की अपने हाथों

कर दी बर्बादी...
*
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,

फ़िर-फ़िर बसना है।

बस न रहा ख़ुद पर तो,

परबस 'सलिल' तरसना है।

रसना रस ना ले,

लालच ने लज्जा बिकवा दी...


*
हर 'मावस पश्चात्

पूर्णिमा लाती उजियारा।

मृतिका दीप काटता तम् की,

युग-युग से कारा।

तिमिर पिया, दीवाली ने

जीवन जय गुंजा दी...




*****

रविवार, 9 जनवरी 2011

तसलीस (उर्दू त्रिपदी) सूरज आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

तसलीस (उर्दू त्रिपदी)                                                                                     

सूरज 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
बिना नागा निकलता है सूरज,
कभी आलस नहीं करते देखा.
तभी पाता सफलता है सूरज..
*
सुबह खिड़की से झाँकता सूरज,
कह रहा जग को जीत लूँगा मैं.
कम नहीं खुद को आंकता सूरज..
*
उजाला सबको दे रहा सूरज,
कोई अपना न पराया कोई.
दुआएं सबकी ले रहा सूरज..
*
आँख रजनी से चुराता सूरज,
बाँह में एक, चाह में दूजी.
आँख ऊषा से लड़ाता सूरज..
*
जाल किरणों का बिछाता सूरज,
कोई चाचा न भतीजा कोई.
सभी सोयों को जगाता सूरज..
*
भोर पूरब में सुहाता सूरज,
दोपहर-देखना भी मुश्किल हो.
शाम पश्चिम को सजाता सूरज..
*
काम निष्काम ही करता सूरज,
मंजिलें नित नयी वरता सूरज.
खुद पे खुद ही नहीं मरता सूरज..
 *
अपने पैरों पे ही बढ़ता सूरज,
डूबने हेतु क्यों चढ़ता सूरज?
भाग्य अपना खुदी गढ़ता सूरज..
*
लाख़ रोको नहीं रुकता सूरज,
मुश्किलों में नहीं झुकता सूरज.
मेहनती है नहीं चुकता सूरज..
*****

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कविता: लोकतंत्र का मकबरा संजीव 'सलिल'

कविता:
लोकतंत्र का मकबरा
संजीव 'सलिल'
*
(मध्य प्रदेश के नये विधान सभा भवन के उद्घाटन के अवसर पर २००१ में लिखी गयी )

विश्व के
महानतम लोकतन्त्र के
विशालतम राज्य के
रोजी-रोटी के लिये चिंतित
पेयजल और
शौच-सुविधा से वंचित
विपन्न जनगण के,
तथाकथित गाँधीवादी, राष्ट्रवादी,
साम्यवादी, बहुजनवादी,
समाजवादी, आदर्शवादी,
जनप्रतिनिधियों के
बैठने-सोचने,
ऐठने-टोंकने,
 लड़ने-झगड़ने और
मनमानी करने के लिये
बनाया गाय है एक भवन,
जिसकी भव्यता देख
दंग रह जायें
किन्नर-अप्सराएँ,
यक्ष और देवगण.

पैर ही नहीं
दृष्टि और चरित्र भी
स्खलित हो साये
इतने चिकने फर्श.
इतना ऊँचा गुम्बद
कि नीचा नजर आये अर्श.
श्वासरोधी चमक
अचंभित करती दमक.
वास्तुकला का
नायाब नमूना.
या गरीब प्रदेश की
खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को
जान-बूझकर
लगाया गया चूना?
लोकतन्त्र का भगेविधाता
झोपडीवासी मतदाता
 देश का आम आदमी,
बापू का दरिद्र नारायण
नित नये करों की
भट्टी में जा रहा है भूना.  

नई करोड़ की प्रस्तावित लागत,
बावन करोड खा गयी इमारत.
साज-सज्जा फिर भी अधूरी
हाय! हाय!! ये मजबूरी.
काश!
इतना धन मिल जाता
 गरीब बच्चों के
गरीब माँ-बापों को
तो हजारों बेटियों के
हाथ हो जाते पीले,
अनेकों मरीजों का
हो जाता इलाज.
बच जाते जाने
कितनों के प्राण.

अनगिन गावों तक
पहुँचतीं सड़कें.
खुलते कल-कारखाने
बहुत तडके..
मिलती भूखों को दाल-रोटी.
खुशियाँ कुछ बड़ी, कुछ छोटीं.
लेकिन-
ज्यादा जरूरी समझा गया
आतप, वर्षा, शीत,
नंगे बदन झेलनेवाले
मतदाताओं के
जनप्रतिनिधियों को
एयर कंडीशन में बैठाना.
जनगण के दुःख-दर्द,
देश की माटी-पानी,
हवा और गर्द से
दूर रखना-बचाना
ताकि
इतिहास की पुनरावृत्ति न हो सके.
लोकतन्त्री शुद्धोधन (संविधान) के
सिद्धार्थी राजकुमार (जनप्रतिनिधि)
जीवन का सत्य न तलाशने लगें.
परिश्रम के पानी और 'अनुभव की माटी से
शासन-प्रशासन की जनसेवी सूरत
न निखारने लगें.
आम आदमी के
दुःख, दर्द, पीड़ा के
फलसफे न बघारने लगें.

इसलिए-
ऐश्वर्या उअर वैभव,
सुख और सुविधा,
ऐश और आराम का
चकाचौंधभरा माया-महल बनवाया गया है.
कुरुक्षेत्र के
महाभारत के समान
चुनावी महासमर में
ध्रित्रश्त्री रीति-नीति से
चुने गये दुर्योधनी विधायकों से
गाँधीवादी आदर्शों की
असहाय द्रौपद्र्र का खुलेआम
चीरहरण कराया गया है,
ताकि -
जनतंत्री कृष्ण, लोकतंत्री पांडव
और गणतंत्री कुरुकुल के
सनातन शत्रु
धृतराष्ट्री न्यायपालिका,
दुर्योधनी विधायिका,
शकुनी पत्रकारिता, दुशासनी प्रशासन के सहारे ,
संभावनाओं के अभिमन्यु को
घपलों-घोटालों के चक्रव्यूह में
घेरकर उसका काम तमाम कर कि
तमाम काम हो गया.
और जनगण को
तारने की आड़ में खुद तर सकें.
 एक नहीं,
अनेक पीढ़ियों के लिये
काली लक्ष्मी से
सारस्वत सफेदी को शर्मानेवाले
इरावती वाहन ला सकें.
अपने घरों को
सहस्त्रक्षी इन्द्र का विलास भवन बना सकें.
अपने ऐश-आराम और
भोग-विलास की खातिर
देश के आम लोगों के
सुख-चैन को बेचकर गा सकें
उद्दंडता के ध्वनि-विस्तारक यंत्र पर
देश प्रेम के छद्म गीत गा सकें.
सत्य को तलाशते विदुर पत्रकारों
संजय जैसे निष्पक्ष अधिकारियों की
आवाज़ को सुविधा से घोंट,
दबा या दफना सकें.
नीति, नियम, विचार, सिद्धांत भूलकर
बना सकें ऐसी नीतियां कि
आम आदमी मँहगाई की मार से
रोजी-रोटी के जुगाड़ की चिंता में
न जिंदा रह पाये न मारा.
अस्मिता बचाने,
लज्जा छिपाने और
सिर न झुकाने की विरासत
चेतना और विवेक का मारा
रह जाये अधमरा.
इसलिए... मात्र इसलिए
मुकम्मल कराया गया है
शानदार
मगर बेजानदार
लोकतंत्र का मकबरा.

**********************

कविता: लोकतन्त्र मकबरा न हो... संजीव 'सलिल'

कविता:

लोकतन्त्र मकबरा न हो...

संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र है
जनगण-मन की ,
आशाओं का पावन मंदिर.

हाय!
हो रहा आज अपावन.
हमने शीश कटाये
इसकी खातिर हँसकर.
त्याग और बलिदानोंकी थी
झड़ी लगा दी.

आयी आज़ादी तो
भुला देश हित हमने
निजी हितों को
दी वरीयता.

राजनीति-
सत्ता, दल, बल,
छल-नीति होगई.
लोकनीति-जननीति बने
यह आस खो गयी. 
घपलों-घोटालों की हममें
होड़ लगी है.
मेहनत-ईमानदारी की
क्यों राह तजी है?

मँहगे आम चुनाव,
भ्रष्टतम हैं सरकारें.
असर न कुछ होता
दुतकारें या फटकारें.

दोहरे चेहरे भारत की
पहचान बन गये.
भारतवासी खुद से ही
अनजान हो गये.

भुला विरासत
चकाचौंध में भरमाये क्यों?
सरल सादगी पर न गर्व
हम शरमाये क्यों?

लोकतन्त्र का नित्य कर रहे
क्रय-विक्रय हम.
अपने मुख पर खुद ही
कालिख लगा रहे हम.

नाग, साँप, बिच्छू ही
लड़ते हैं चुनाव अब.
आसमाँ छू रहे
जमीं पर आयें भाव कब?

सामाजिक समरसता को
हम तोड़ रहे हैं.
सात्विक, सहज, सरलता से
मुँह मोड़ रहे हैं.

लोकतंत्र पर लोभतन्त्र
आघात कर रहा.
साये से अपने ही
इंसां आज डर रहा.

क्षत-विक्षत हो
सिसक रहा जनतंत्र छुपाओ.
लोक तंत्र मकबरा न हो
मिल इसे बचाओ.

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शनिवार, 1 जनवरी 2011

बाल गीत : ज़िंदगी के मानी - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

बाल गीत :

ज़िंदगी के मानी

- आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"


खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....

*

बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..

टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..

आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*

आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..

मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.

मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*

मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..

अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..

सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....

*********************

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नये साल की दोहा सलिला: -- संजीव'सलिल'

नये साल की दोहा सलिला: संजीव'सलिल'

नये साल की दोहा सलिला:

संजीव'सलिल' 
*
उगते सूरज को सभी, करते सदा प्रणाम.
जाते को सब भूलते, जैसे सच बेदाम..
*
हम न काल के दास हैं, महाकाल के भक्त.
कभी समय पर क्यों चलें?, पानी अपना रक्त..
 *
बिन नागा सूरज उगे, सुबह- ढले हर शाम.
यत्न सतत करते रहें, बिना रुके निष्काम..
  *
अंतिम पल तक दिये से, तिमिर न पाता जीत. 
सफर साँस का इस तरह, पूर्ण करें हम मीत..
  *
संयम तज हम बजायें, व्यर्थ न अपने गाल.
बन संतोषी हों सुखी, रखकर उन्नत भाल..
  *
ढाई आखर पढ़ सुमिर, तज अद्वैत वर द्वैत.  
मैं-तुम मिट, हम ही बचे, जब-जब खेले बैत.. 
  *
जीते बाजी हारकर, कैसा हुआ कमाल.
'सलिल'-साधना सफल हो, सबकी अबकी साल..
*
भुला उसे जो है नहीं, जो है उसकी याद.
जीते की जय बोलकर, हो जा रे नाबाद..
*
नये साल खुशहाल रह, बिना प्याज-पेट्रोल..
मुट्ठी में समान ला, रुपये पसेरी तौल..
*
जो था भ्रष्टाचार वह, अब है शिष्टाचार.
नये साल के मूल्य नव, कर दें भव से पार..
*
भाई-भतीजावाद या, चचा-भतीजावाद. 
राजनीति ने ही करी, दोनों की ईजाद..
*
प्याज कटे औ' आँख में, आँसू आयें सहर्ष. 
प्रभु ऐसा भी दिन दिखा, 'सलिल' सुखद हो वर्ष..
*
जनसँख्या मंहगाई औ', भाव लगाये होड़. 
कब कैसे आगे बढ़े, कौन शेष को छोड़.. 
*
ओलम्पिक में हो अगर, लेन-देन का खेल. 
जीतें सारे पदक हम, सबको लगा नकेल..
*
पंडित-मुल्ला छोड़ते, मंदिर-मस्जिद-माँग.
कलमाडी बनवाएगा, मुर्गा देता बांग..
*
आम आदमी का कभी, हो किंचित उत्कर्ष.
तभी सार्थक हो सके, पिछला-अगला वर्ष..
*
गये साल पर साल पर, हाल रहे बेहाल.
कैसे जश्न मनायेगी. कुटिया कौन मजाल??
*
धनी अधिक धन पा रहा, निर्धन दिन-दिन दीन. 
यह अपने में लीन है, वह अपने में लीन..
****************

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

गीत ; कुछ ऐसा हो साल नया --संजीव 'सलिल

नये साल का गीत

संजीव 'सलिल'
*
कुछ ऐसा हो साल नया,
जैसा अब तक नहीं हुआ.
अमराई में मैना संग
झूमे-गाये फाग सुआ...
*
बम्बुलिया की छेड़े तान.
रात-रातभर जाग किसान.
कोई खेत न उजड़ा हो-
सूना मिले न कोई मचान.

प्यासा खुसरो रहे नहीं
गैल-गैल में मिले कुआ...
*
पनघट पर पैंजनी बजे,
बीर दिखे, भौजाई लजे.
चौपालों पर झाँझ बजा-
दास कबीरा राम भजे.

तजें सियासत राम-रहीम
देख न देखें कोई खुआ...

स्वर्ग करे भू का गुणगान.
मनुज देव से अधिक महान.
रसनिधि पा रसलीन 'सलिल'
हो अपना यह हिंदुस्तान.
हर दिल हो रसखान रहे
हरेक हाथ में मालपुआ...
*****

नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'

नव वर्ष पर नवगीत: महाकाल के महाग्रंथ का --संजीव 'सलिल'

नव वर्ष पर नवगीत

                                                                                                       
संजीव 'सलिल'

*
महाकाल के महाग्रंथ का

नया पृष्ठ फिर आज खुल रहा....

*
वह काटोगे,

जो बोया है.

वह पाओगे,

जो खोया है.

सत्य-असत, शुभ-अशुभ तुला पर

कर्म-मर्म सब आज तुल रहा....
*
खुद अपना

मूल्यांकन कर लो.

निज मन का

छायांकन कर लो.

तम-उजास को जोड़ सके जो

कहीं बनाया कोई पुल रहा?...

*
तुमने कितने

बाग़ लगाये?

श्रम-सीकर

कब-कहाँ बहाए?

स्नेह-सलिल कब सींचा?

बगिया में आभारी कौन गुल रहा?...

*

स्नेह-साधना करी

'सलिल' कब.

दीन-हीन में

दिखे कभी रब?

चित्रगुप्त की कर्म-तुला पर

खरा कौन सा कर्म तुल रहा?...

*
खाली हाथ?

न रो-पछताओ.

कंकर से

शंकर बन जाओ.

ज़हर पियो, हँस अमृत बाँटो.

देखोगे मन मलिन धुल रहा...

**********************