मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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बुधवार, 4 अगस्त 2010
मुक्तिका: हाथ में हाथ रहे... संजीव वर्मा 'सलिल'
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
अभिनव प्रयोग: हाइकु / कुण्डली गीत: मन में दृढ विश्वास संजीव 'सलिल'
अभिनव प्रयोग:
हाइकु / कुण्डली गीत:
मन में दृढ विश्वास
संजीव 'सलिल'
*
*
मन में दृढ
विश्वास रख हम
करें प्रयास...
*
अपनी क्या सामर्थ्य है?, लें हम पहले तोल.
और बाद में निकालें, अपने मुँह से बोल..
अपने मुँह से बोल, निकालें सरस हुलसकर.
जो सुन ले, प्रोत्साहित होकर मिले पुलककर..
कहे 'सलिल' कविराय, लक्ष्य साजन श्रम सजनी.
यही विनय है दैव!, चुके ना हिम्मत अपनी..
*
जब भी पायें
त्रास, तब मंजिल
रहती पास...
*
अपनी रचना से करें, मानव का अभिषेक.
नव विकास के दीप शत, जला सकें सविवेक..
जला सकें सविवेक, प्रकाशित हो सब दुनिया.
कान्हा-राधा से, घर-घर हों मुन्ना-मुनिया..
कहे 'सलिल' कविराय, पूर्णिमा हो हर रजनी.
प्रभु जैसी कथनी, वैसी हो करनी अपनी ..
*
दिखे सभी में
निज सदृश, प्रभु
का है आवास...
*
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
हाइकु / कुण्डली गीत:
मन में दृढ विश्वास
संजीव 'सलिल'
*
*
मन में दृढ
विश्वास रख हम
करें प्रयास...
*
अपनी क्या सामर्थ्य है?, लें हम पहले तोल.
और बाद में निकालें, अपने मुँह से बोल..
अपने मुँह से बोल, निकालें सरस हुलसकर.
जो सुन ले, प्रोत्साहित होकर मिले पुलककर..
कहे 'सलिल' कविराय, लक्ष्य साजन श्रम सजनी.
यही विनय है दैव!, चुके ना हिम्मत अपनी..
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जब भी पायें
त्रास, तब मंजिल
रहती पास...
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अपनी रचना से करें, मानव का अभिषेक.
नव विकास के दीप शत, जला सकें सविवेक..
जला सकें सविवेक, प्रकाशित हो सब दुनिया.
कान्हा-राधा से, घर-घर हों मुन्ना-मुनिया..
कहे 'सलिल' कविराय, पूर्णिमा हो हर रजनी.
प्रभु जैसी कथनी, वैसी हो करनी अपनी ..
*
दिखे सभी में
निज सदृश, प्रभु
का है आवास...
*
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
चिंतन : शब्दों की सामर्थ्य -- संजीव 'सलिल'
चिंतन :
शब्दों की सामर्थ्य
संजीव 'सलिल'
*
संजीव 'सलिल'
*
पिछले कुछ दशकों से यथार्थवाद के नाम पर साहित्य में अपशब्दों के खुल्लम खुल्ला प्रयोग का चलन बढ़ा है. इसके पीछे दिये जाने वाले तर्क २ हैं: प्रथम तो यथार्थवाद अर्थात रचना के पात्र जो भाषा प्रयोग करते हैं उसका प्रयोग और दूसरा यह कि समाज में इतनी गंदगी आचरण में है कि उसके आगे इन शब्दों की बिसात कुछ नहीं. सरसरी तौर से सही दुखते इन दोनों तर्कों का खोखलापन चिन्तन करते ही सामने आ जाता है.
हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
हम जानते हैं कि विवाह के पश्चात् नव दम्पति वे बेटी-दामाद हों या बेटा-बहू शयन कक्ष में क्या करनेवाले हैं? यह यथार्थ है पर क्या इस यथार्थ का मंचन हम मंडप में देखना चाहेंगे? कदापि नहीं, इसलिए नहीं कि हम अनजान या असत्यप्रेमी पाखंडी हैं, अथवा नव दम्पति कोई अनैतिक कार्य करेने जा रहे होते हैं अपितु इसलिए कि यह मानवजनित शिष्ट, सभ्यता और संस्कारों का तकाजा है. नव दम्पति की एक मधुर चितवन ही उनके अनुराग को व्यक्त कर देती है. इसी तरह रचना के पत्रों की अशिक्षा, देहातीपन अथवा अपशब्दों के प्रयोग की आदत का संकेत बिना अपशब्दों का प्रयोग किए भी किया जा सकता है. रचनाकार की शब्द सामर्थ्य तभी ज्ञात होती है जब वह अनकहनी को बिना कहे ही सब कुछ कह जाता है, जिनमें यह सामर्थ्य नहीं होती वे रचनाकार अपशब्दों का प्रयोग करने के बाद भी वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जो अपेक्षित है.
दूसरा तर्क कि समाज में शब्दों से अधिक गन्दगी है, भी इनके प्रयोग का सही आधार नहीं है. साहित्य का सृजन करें के पीछे साहित्यकार का लक्ष्य क्या है? सबका हित समाहित करनेवाला सृजन ही साहित्य है. समाज में व्याप्त गन्दगी और अराजकता से क्या सबका हित, सार्वजानिक हित सम्पादित होता है? यदि होता तो उसे गन्दा नहीं माना जाता. यदि नहीं होता तो उसकी आंशिक आवृत्ति भी कैसे सही कही जा सकती है? गन्दगी का वर्णन करने पर उसे प्रोत्साहन मिलता है.
समाचार पात्र रोज भ्रष्टाचार के समाचार छापते हैं... पर वह घटता नहीं, बढ़ता जाता है. गन्दगी, वीभत्सता, अश्लीलता की जितनी अधिक चर्चा करेंगे उतने अधिक लोग उसकी ओर आकृष्ट होंगे. इन प्रवृत्तियों की नादेखी और अनसुनी करने से ये अपनी मौत मर जाती हैं. सतर्क करने के लिये संकेत मात्र पर्याप्त है.
तुलसी ने असुरों और सुरों के भोग-विलास का वर्णन किया है किन्तु उसमें अश्लीलता नहीं है. रहीम, कबीर, नानक, खुसरो अर्थात हर सामर्थ्यवान और समयजयी रचनाकार बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाता हैं और पाठक, चिन्तक, समलोचालक उसके लिखे के अर्थ बूझते रह जाते हैं. समस्त टीका शास्त्र और समीक्षा शास्त्र रचनाकार की शब्द सामर्थ्य पर ही टिका है.
अपशब्दों के प्रयोग के पीछे सस्ती और तत्कालिल लोकप्रियता पाने या चर्चित होने की मानसिकता भी होती है. रचनाकार को समझना चाहिए कि साथी चर्चा किसी को साहित्य में अजर-अमर नहीं बनाती. आदि काल से कबीर, गारी और उर्दू में हज़ल कहने का प्रचलन रहा है किन्तु इन्हें लिखनेवाले कभी समादृत नहीं हुए. ऐसा साहित्य कभी सार्वजानिक प्रतिष्ठा नहीं पा सका. ऐसा साहित्य चोरी-चोरी भले ही लिखा और पढ़ा गया हो, चंद लोगों ने भले ही अपनी कुण्ठा अथवा कुत्सित मनोवृत्ति को संतुष्ट अनुभव किया हो किन्तु वे भी सार्वजनिक तौर पर इससे बचते ही रहे.
प्रश्न यह है कि साहित्य रच ही क्यों जाता है? साहित्य केवल मनुष्य ही क्यों रचता है?
केवल मनुष्य ही साहित्य रचता है चूंकि ध्वनियों को अंकित करने की विधा (लिपि) उसे ही ज्ञात है. यदि यही एकमात्र कारण होता तो शायद साहित्य की वह महत्ता न होती जो आज है. ध्वन्यांकन के अतिरिक्त साहित्य की महत्ता श्रेष्ठतम मानव मूल्यों को अभिव्यक्त करने, सुरक्षित रखने और संप्रेषित करने की शक्ति के कारण है. अशालीन साहित्य श्रेष्ठतम मूल्यों को नहीं निकृष्टतम मूल्यों को व्यक्त कर्ता है, इसलिए वह सदा त्याज्य माना गया और माना जाता रहेगा.
साहित्य सृजन का कार्य अक्षर और शब्द की आराधना करने की तरह है. माँ, मातृभूमि, गौ माता और धरती माता की तरह भाषा भी मनुष्य की माँ है. चित्रकार हुसैन ने सरस्वती और भारत माता की निर्वस्त्र चित्र बनाकर यथार्थ ही अंकित किया पर उसे समाज का तिरस्कार ही झेलना पड़ा. कोई भी अपनी माँ को निर्वस्त्र देखना नहीं चाहता, फिर भाषा जननी को अश्लीलता से आप्लावित करना समझ से परे है.
सारतः शब्द सामर्थ्य की कसौटी बिना कहे भी कह जाने की वह सामर्थ्य है जो अश्लील को भी श्लील बनाकर सार्वजनिक अभिव्यक्ति का साधन तो बनती है, अश्लीलता का वर्णन किए बिना ही उसके त्याज्य होने की प्रतीति भी करा देती है. इसी प्रकार यह सामर्थ्य श्रेष्ट की भी अनुभूति कराकर उसको आचरण में उतारने की प्रेरणा देती है. साहित्यकार को अभिव्यक्ति के लिये शब्द-सामर्थ्य की साधना कर स्वयं को सामर्थ्यवान बनाना चाहिए न कि स्थूल शब्दों का भोंडा प्रयोग कर साधना से बचने का प्रयास करना चाहिए.
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दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 1 अगस्त 2010
मुक्तिका: मन में दृढ़ विश्वास लिये. संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
मन में दृढ़ विश्वास लिये.
संजीव 'सलिल'
*

*
मन में दृढ़ विश्वास लिये.
फिरते हैं हम प्यास लिये..
ढाई आखर पढ़ लें तो
जीवन जियें हुलास लिये..
पिये अँधेरे और जले
दीपक सदृश उजास लिये..
कोई राह दिखाये क्यों?
बढ़ते कदम कयास लिये..
अधरों पर मुस्कान 'सलिल'
आयी मगर भड़ास लिये..
मंजिल की तू फ़िक्र न कर
कल रे 'सलिल' प्रयास लिये.
***********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
मन में दृढ़ विश्वास लिये.
संजीव 'सलिल'
*

*
मन में दृढ़ विश्वास लिये.
फिरते हैं हम प्यास लिये..
ढाई आखर पढ़ लें तो
जीवन जियें हुलास लिये..
पिये अँधेरे और जले
दीपक सदृश उजास लिये..
कोई राह दिखाये क्यों?
बढ़ते कदम कयास लिये..
अधरों पर मुस्कान 'सलिल'
आयी मगर भड़ास लिये..
मंजिल की तू फ़िक्र न कर
कल रे 'सलिल' प्रयास लिये.
***********************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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शनिवार, 31 जुलाई 2010
श्रेष्ठ गीतकार अलंकरण: डा. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
सितारों की महफ़िल में आज डा. रूप चन्द्र शास्त्री मयंक और आचार्य संजीव वर्मा सलिल
लखनऊ, गुरुवार, २९ जुलाई २०१०
![]() ब्लोगोत्सव-२०१० को आयामित करने हेतु किये गए कार्यों में जिनका अवदान सर्वोपरि है वे हैं डा. रूप चन्द्र शास्त्री मयंक और आचार्य संजीव वर्मा सलिल जिन्होनें उत्सव गीत रचकर ब्लोगोत्सव में प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया. ब्लोगोत्सव की टीम ने उनके इस अवदान के लिए संयुक्त रूप से उन दोनों सुमधुर गीतकार को वर्ष के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार का अलंकरण देते हुए सम्मानित करने का निर्णय लिया है ...."जानिये अपने सितारों को" के अंतर्गत प्रस्तुत है उनसे पूछे गए कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों के उत्तर |
|---|
(१) पूरा नाम :
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
(२) पिता/माता का नाम/जन्म स्थान
पिता का नाम: श्री घासीराम आर्य
माता का नाम: श्रीमती श्यामवती देवी
(३) वर्तमान पता :
टनकपुर-रोड, खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) पिन- 262308
ई मेल का पता :
roopchandrashastri@gmail.com
टेलीफोन/मोबाईल न
Phone/Fax.: 05943-250207
Mobile No. 09368499921, 09997996437, 09456383898
(४) आपके प्रमुख व्यक्तिगत ब्लॉग :
"उच्चारण" http://uchcharan.blogspot.com/
"शब्दों का दंगल" http://uchcharandangal.blogspot.com/
"मयंक" http://powerofhydro.blogspot.com/
"नन्हे सुमन" http://nicenice-nice.blogspot.com/
"चर्चा मंच" http://charchamanch.blogspot.com/
"बाल चर्चा मंच" http://mayankkhatima.blogspot.com/
"अमर भारती" http://bhartimayank.blogspot.com/
(५) अपने ब्लॉग के अतिरिक्त अन्य ब्लॉग पर गतिविधियों का विवरण :
नुक्कड़, तेताला, हिन्दी साहित्य मंच, पिताजी, पल्लवी और नन्हा मन !
(६) अपने ब्लॉग के अतिरिक्त आपको कौन कौन सा ब्लॉग पसंद है ?
कविताओं के तो सभी ब्लॉग पसंद हैं!
(७) ब्लॉग पर कौन सा विषय आपको ज्यादा आकर्षित करता है?
काव्य!
(८) आपने ब्लॉग कब लिखना शुरू किया ?
21 जनवरी, 2009 से!
(९) यह खिताब पाकर आपको कैसा महसूस हो रहा है ?
अच्छा लग रहा है!
आपका आभार कि आपने इस नाचीज को इस योग्य समझा!
(१०) क्या ब्लोगिंग से आपके अन्य आवश्यक कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं होता ?
होता है
तो उसे कैसे प्रबंध करते है ?
अपनी रुचियों के लिए जैसे अन्य लोग समय निकालते हैं वैसे मैं भी समय निकाल ही लेता हूँ!
(११) ब्लोगोत्सव जैसे सार्वजनिक उत्सव में शामिल होकर आपको कैसा लगा ?
ब्लोगोत्सव जैसे सार्वजनिक उत्सव में शामिल होकर मैं अपने को धन्य मानता हूँ!
(१२) आपकी नज़रों में ब्लोगोत्सव की क्या विशेषताएं रही ?
छिपी हुई प्रतिभाओं को आगे लाने में ब्लोगोत्सव ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है!
(१३) ब्लोगोत्सव में वह कौन सी कमी थी जो आपको हमेशा खटकती रही ?
मेरी नजर में तो कोई भी नही!
(१४) ब्लोगोत्सव में शामिल किन रचनाकारों ने आपको ज्यादा आकर्षित किया ?
सभी ने!
(१५) किन रचनाकारों की रचनाएँ आपको पसंद नहीं आई ?
आपने तो रचनाकारों की चुनीदा रचनाओं को प्रस्तुत किया था इसलिए नापसन्द का तो प्रश्न ही नही उठता है!
(१६) क्या इस प्रकार का आयोजन प्रतिवर्ष आयोजित किया जाना चाहिए ?
अवश्य!
(१७) आपको क्या ऐसा महसूस होता है कि हिंदी ब्लोगिंग में खेमेवाजी बढ़ रही है ?
यह तो सामान्य सी बात है! गुटबाजी से तो बचना ही चाहिए!
(१८) यदि हाँ तो क्या यह हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अमंगलकारी नहीं है ?
मंथन के बाद ही तो विष और अमृत निकलता है!
विष त्याग दीजिए और अमृत पान कीजिए!
(१९) आप कुछ अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बताएं :
फिर कभी
(२०) चिट्ठाकारी से संवंधित क्या कोई ऐसा संस्मरण है जिसे आप इस अवसर पर सार्वजनिक करना चाहते हैं ?
फिर कभी
(२१) इस अवसर पर अपनी कोई रचना सुनाएँ
एक ऑडियो प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे स्वर दिया अर्चना चाव ने
बहुत बहुत धन्यवाद रूप चन्द्र शास्त्री जी .....इस अवसर पर ऋग्वेद की दो पंक्तियां आपको समर्पित है कि - ‘‘आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणी:। हृदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमें ।।’’अर्थात आपके मार्ग प्रशस्त हों, उस पर पुष्प हों, नये कोमल दूब हों, आपके उद्यम, आपके प्रयास सफल हों, सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिले। |
|---|
जी धन्यवाद !
====================================================================
१) पूरा नाम :
संजीव वर्मा 'सलिल'
(२) माता/पिता का नाम/जन्म स्थान :
स्व. श्रीमती शांति देवी - स्व. श्री राजबहादुर वर्मा.
(३) वर्तमान पता :
समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश.
ई मेल का पता :
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम, दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
टेलीफोन/मोबाईल न.
०७६१ २४१११३१, ०९४२५१ ८३२४४
(४) आपके प्रमुख व्यक्तिगत ब्लॉग :
दिव्यनर्मदा, गीतसलिला, सलिल की लघुकथाएं, हाइकु सलिला, तेवर तेवरी के खूब, लघुकथा सलिला, किताबघर,
(५) अपने ब्लॉग के अतिरिक्त अन्य ब्लॉग पर गतिविधियों का विवरण :
हिन्दयुग्म पर दोहागाथा सनातन (६५ कड़ी), साहित्याशिल्पी पर काव्य का रचनाशास्त्र (६५ कड़ी), विश्व की किसी भी भाषा के साहित्य की सर्वाधिक लम्बी श्रृंखलाएं, लखनऊ ब्लोगेर्स असोसिअशन, कबीरा खडा़ बाज़ार में, भारत-ब्रिगेड, हिंदुस्तान का दर्द, रचनाकार, स्मृति दीर्घा, पिताजी, जनिक्ति, नन्हा मन, शब्दकार, हिंदीहिंदी.निंग.कॉम, जय भोजपुरी, कायस्थ परिवार पत्रिका, सृजनगाथा, मंथन, अहिव्यक्ति, अनुभूति, आखरकलश, ओपन बुक्स ऑन लाइन, सप्तरंगी, महावीर, आदि पर निरंतर लेखन.
(६) अपने ब्लॉग के अतिरिक्त आपको कौन कौन सा ब्लॉग पसंद है :
उक्त सभी को लगभग नित्य पढता हूँ.
(७) ब्लॉग पर कौन सा विषय आपको ज्यादा आकर्षित करता है?
पद्य रचनाएँ.
(८) आपने ब्लॉग कब लिखना शुरू किया ?
लगभग ३ वर्ष पूर्व.
(९) यह खिताब पाकर आपको कैसा महसूस हो रहा है ?
आनंदित हूँ.
(१०) क्या ब्लोगिंग से आपके अन्य आवश्यक कार्यों में अवरोध उत्पन्न नहीं होता ?
होता है. पत्रिका/पुस्तकों का मुद्रण, दिव्यनर्मदा अलंकरण अभियान, नित्य पत्र लेखन, रचना प्रेषण, मित्रों से मिलन, कार्यक्रमों में जाना अवरुद्ध है. समय सदा कम होता है कार्य अधिक. प्राथमिकता का चयन करना होता है मेरी प्राथमिकता में चिट्ठा लेखन सर्वोपरि है.
यदि होता है तो उसे कैसे प्रबंध करते है ?
कुछ पाने के लिये कुछ खोना ही पड़ता है. घरेलू कार्य श्रीमती जी सम्हाल लेती हैं. शेष अनिवार्य होने पर कम से कम करता हूँ शेष समय हिंदी और चिट्ठाकारी को. हिंदी माँ की सेवा के लिये शेष सब सहर्ष छोड़ा जा सकता है.
(११)ब्लोगोत्सव जैसे सार्वजनिक उत्सव में शामिल होकर आपको कैसा लगा ?
दुर्भाग्य से अवकाश न मिलने से सम्मिलित नहीं हो सका, अधम चाकरी की माया. स्थानीय व् अन्यत्र चिट्ठाकारों के कार्यक्रमों में गया हूँ और आनंद भी मिला है.
(१२) आपकी नज़रों में ब्लोगोत्सव की क्या विशेषताएं रही ?
अनेकता में एकता... रचनात्मकता और स्नेहपरकता.
(१३) ब्लोगोत्सव में वह कौन सी कमी थी जो आपको हमेशा खटकती रही ?
मेरी अनुपस्थिति जिसके कारण बहुतों से नहीं मिल सका, अपूरणीय क्षति हुई है मेरी.
(१४) ब्लोगोत्सव में शामिल किन रचनाकारों ने आपको ज्यादा आकर्षित किया ?
सभी की रचनाओं का प्रशंसक हूँ. संगीता पुरी, रश्मिप्रभा,
(१५) किन रचनाकारों की रचनाएँ आपको पसंद नहीं आई ?
ऐसा तो कोई भी नहीं है. हर रचना में कुछ न कुछ ग्रहणीय होता है.
(१६) क्या इस प्रकार का आयोजन प्रतिवर्ष आयोजित किया जाना चाहिए ?
नहीं. फक बार से क्या होगा? प्रति वर्ष अलग-अलग स्थानों पर कई बार.
(१७) आपको क्या ऐसा महसूस होता है कि हिंदी ब्लोगिंग में खेमेवाजी बढ़ रही है ?
जी हाँ और राजनीति भी. बरसाती नदी में सलिल के साथ कचरा भी आता ही है.
(१८)तो क्या यह हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अमंगलकारी नहीं है ?
नहीं. बरसाती नदी में कचरा एक साथ हो ही जाता है पर नदी के प्रवाह को रोक नहीं पाता. अंततः निर्मल जल ही शेष रहता है.
(१९) आप कुछ अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में बताएं :
क्या कहूँ कुछ कहा नहीं जाये, बिन कहे भी रहा नहीं जाये की सी स्थिति है. ... पूज्य बुआ श्री (महीयसी महादेवी जी) के सानिन्ध्य में गुजरे पल मेरे जीवन की थाती हैं. स्व. कृष्ण बिहारी 'नूर' के कर कमलों से प्रथम काव्य संकलन 'लोकतंत्र का मकबरा' का लखनऊ में विमोचन, श्री नाथद्वारा में श्री नरेंद्र कोहली व् मुख्य पुजारी जी, जयपुर में राजस्थान के मुख्यमंत्री स्व. शिवचरण लाल माथुर व् राज्यपाल सर्व श्री सिंह, लखनऊ में स्व. विष्णुकांत शास्त्री, व्यंग्य सम्राट के.पी.सक्सेना, कविवर नरेश सक्सेना व् डॉ. राय महापौर, अयोध्या में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद शास्त्री, बेलगाम कर्णाटक में गोवा के राज्यपाल स्व. केदारनाथ साहनी, अहमदाबाद में डॉ. अम्बाशंकर नागर, प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र, इंदौर में चन्द्रसेन 'विराट', जबलपुर में गाँधी जी के सचिव प्रो महेश दत्त मिश्र, प्रो, ज्ञान रंजन, श्री अमृत लाल वेगड़, डॉ. छाया राय, कुलपति डॉ. जगदीश प्रसाद शुक्ल, , विधान सभा अध्यक्ष श्री ईश्वर दास रोहाणी आदि से स्नेह-सम्मान पाना जीवन की निधि है. आप जैसे मित्रों की उदारता से देश के विविध प्रान्तों में असीम स्नेह और दुलार की वर्ष हुई है.
नानाजी राय बहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस' ऑनरेरी मजिस्ट्रेट मैनपुरी गाँधीजी के आव्हान पर वैभव को ठोकर मारकर स्वतंत्रता सत्याग्रही बन गए थे. फूफाजी स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा नागपुर में डॉ. हेडगेवार व् कैप्टेन मुंजे के साथ राम सेना वा शिव सेना के संस्थापक थे. ताऊ जी स्व. ज्वाला प्रसाद वर्मा घर के व्यवसाय को छोड़कर सत्याग्रही बन गए थे. इस विरासत के रहते मैं वह नहीं कर या रच पाता जो आज बहुत लोकप्रिय है. साहित्य सृजन, हिंदी प्रचार,पर्यावरण सुधार, अंध श्रृद्धा उन्मूलन, नागरिक-उपभोक्ता अधिकार संरक्षण, सामूहिक विवाह, दहेज़ निषेध, जातीय सद्भाव, पौधारोपण, कचरा निस्तारण, पर्यटन, छायांकन, जल संरक्षण आदि मुझे प्रिय हैं.
फैजाबाद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अज्ञातवास-स्थली देखने, ग्वालियर में जे.पी.के समक्ष आत्म समर्पण किए दस्युओं से मिलने, भोपाल में गैस कांड के ही दिन साढ़े दस हज़ार अभियंताओं की रैली का नेतृत्व करने, १९९४ में सड़क दुर्घटना में घायल होकर विकलांग होने और २००८-२००९ में माता-पिता से बिछुड़ने के पल भुलाये नहीं भूलता.
(२०) चिट्ठाकारी से संवंधित क्या कोई ऐसा संस्मरण है जिसे आप इस अवसर पर सार्वजनिक करना चाहते हैं ?
अनेक में से एक: उन दिनों चिट्ठा जगत से नया-नया ही जुड़ा था. जिन चिट्ठों को प्रकाशनार्थ रचना भेजता उनसे उपेक्षा मिलती. कुछ दिन बाद इन्हीं चिट्ठों के संचालक बार-बार रचना हेतु अनुरोध करने लगे. बिना किसी राग-द्वेष के मैं अन्यों के साथ उन्हें भी रचना भेज देता हूँ. पता नहीं उन्हें प्रारंभ में मेरे साथ किया व्यवहार याद है या नहीं पर मैंने सब कुछ याद रहते हुए भी प्रतिकार न करने का निर्णय किया है.... एक अन्य दिग्गज रचनाकार जो विदेशवासी हैं को मेरे नाम के साथ 'आचार्य' जुड़ा देखकर आपत्ति थी कि यह कब, किसने, क्यों दिया? पर वे कहते नहीं थे. प्रभु कृपा से गत मातृ-दिवस पर उनका सन्देश मिला कि माँ की स्मृति में मेरे द्वारा एक साथ रचित एक नव गीत तथा एक बाल गीत पढ़कर उन्हें अनुभूति हुई कि मैं इसका पात्र हूँ. मैं अब भी मौन हूँ और उनसे स्नेह संबंध बना ही नहीं है प्रगाढ़ भी हुआ है. अब तो विदेश में बसे कई श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकारों (जिनसे कभी भेँट नहीं हुई) केवल चिट्ठाकरी के परिचय से अपनी सद्य प्रकाशित कृतियाँ प्रतिक्रिया या समीक्षा हेतु भेज रहे हैं. मुझ बाल बुद्धि विद्यार्थी को इतना स्नेह-सम्मान चिट्ठाकारी से मिला कि अभिभूत हूँ.
(२१) अपनी कोई पसंदीदा रचना की कुछ पंक्तियाँ सुनाएँ : (यदि आप चाहें तो यहाँ ऑडियो/विडिओ का प्रयोग भी कर सकते हैं )
अपना बिम्ब सँवारो दर्पण मत तोड़ो
कहता है प्रतिबिम्ब कि दर्पण मत तोड़ो
स्वयं सराह न पाओ मन को बुरा लगे
तो निज रूप सुधारो दर्पण अंत तोड़ो...
शीश उठाकर चलो झुकाओ शीश नहीं.
खुद से बढ़कर और दूसरा ईश नहीं.
तुम्हीं परीक्षार्थी हो तुम्हीं परीक्षक हो-
खुद को खुदा बनाओ, दर्पण मत तोड़ो...
पथ पर पग रख दो तो मंजिल पग चूमे.
चलो झूमकर दिग-दिगंत वसुधा झूमे.
आदम हो इंसान बनोगे, प्राण कर लो-
पंकिल चरण पखारो, दर्पण मत तोड़ो...
बाँटो औरों में जो भी अमृतमय हो.
गरल कंठ में धारण कर लो निर्भय हो.
वरण मौत का कर जो जीवन पाते हैं-
जीवन में 'सलिल' उतारो, दर्पण मत तोड़ो...
बहुत बहुत धन्यवाद संजीव जी .....इस अवसर पर ऋग्वेद की दो पंक्तियां आपको समर्पित है कि - ‘‘आयने ते परायणे दुर्वा रोहन्तु पुष्पिणी:। हृदाश्च पुण्डरीकाणि समुद्रस्य गृहा इमें ।।’’अर्थात आपके मार्ग प्रशस्त हों, उस पर पुष्प हों, नये कोमल दूब हों, आपके उद्यम, आपके प्रयास सफल हों, सुखदायी हों और आपके जीवन सरोवर में मन को प्रफुल्लित करने वाले कमल खिले। |
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आभार: लखनऊ ब्लोगेर्स असोसिअशन.
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मुक्तिका: प्यार-मुहब्बत नित कीजै.. संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
*
*
अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
***********************************************
प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
संजीव 'सलिल'
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अंज़ाम भले मरना ही हो हँस प्यार-मुहब्बत नित कीजै..
रस-निधि पाकर रस-लीन हुए, रस-खान बने जी भर भीजै.
जो गिरता वह ही उठता है, जो गिरे न उठना क्या जाने?
उठकर औरों को उठा, न उठने को कोई कन्धा लीजै..
हो वफ़ा दफा दो दिन में तो भी इसमें कोई हर्ज़ नहीं
यादों का खोल दरीचा, जीवन भर न याद का घट छीजै..
दिल दिलवर या कि ज़माना ही, खुश या नाराज़ हो फ़िक्र न कर.
खुश रह तू अपनी दुनिया में, इस तरह कि जग तुझ पर रीझै..
कब आया कोई संग, गया कब साथ- न यह मीजान लगा.
जितने पल जिसका संग मिला, जी भर खुशियाँ दे-ले जीजै..
अमृत या ज़हर कहो कुछ भी पीनेवाले पी जायेंगे.
आनंद मिले पी बार-बार, ऐसे-इतना पी- मत खीजै..
नित रास रचा- दे धूम मचा, ब्रज से यूं.एस. ए.-यूं. के. तक.
हो खलिश न दिल में तनिक 'सलिल' मधुशाला में छककर पीजै..
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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
गीत... प्रतिभा खुद में वन्दनीय है... संजीव 'सलिल'
गीत...
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
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प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
संजीव 'सलिल'
*
*
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है...
*
प्रतिभा मेघा दीप्ति उजाला
शुभ या अशुभ नहीं होता है.
वैसा फल पाता है साधक-
जैसा बीज रहा बोता है.
शिव को भजते राम और
रावण दोनों पर भाव भिन्न है.
एक शिविर में नव जीवन है
दूजे का अस्तित्व छिन्न है.
शिवता हो या भाव-भक्ति हो
सबको अब तक प्रार्थनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.....
*
अन्न एक ही खाकर पलते
सुर नर असुर संत पशु-पक्षी.
कोई अशुभ का वाहक होता
नहीं किसी सा है शुभ-पक्षी.
हो अखंड या खंड किन्तु
राकेश तिमिर को हरता ही है.
पूनम और अमावस दोनों
संगिनीयों को वरता भी है
भू की उर्वरता-वत्सलता
'सलिल' सभी को अर्चनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
कौन पुरातन और नया क्या?
क्या लाये थे?, साथ गया क्या?
राग-विराग सभी के अन्दर-
क्या बेशर्मी और हया क्या?
अतिभोगी ना अतिवैरागी.
सदा जले अंतर में आगी.
नाश और निर्माण संग हो-
बने विरागी ही अनुरागी.
प्रभु-अर्पित निष्काम भाव से
'सलिल'-साधना साधनीय है.
प्रतिभा खुद में वन्दनीय है.
*
.
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गुरुवार, 29 जुलाई 2010
गीत: हिन्दी ममतामय मैया है... संजीव 'सलिल'
गीत:
हिन्दी ममतामय मैया है...
संजीव 'सलिल'
*
*
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
सूर कबीर रहीम देव
तुलसी से बेटों की मैया.
खुसरो बरदाई मीरां
जगनिक खेले इसकी कैंया.
घाघ भड्डरी ईसुरी गिरिधर
जगन्नाथ भूषण मतिमान.
विश्वनाथ श्री क्षेमचंद्र
जयदेव वृन्द लय-रस की खान.
जायसी रायप्रवीण बिहारी
सेनापति बन लाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
बिम्ब प्रतीक व्याकरण पिंगल
क्षर-अक्षर रसलीन रहो.
कर्ताकारक कर्म क्रिया उपयुक्त
न रख क्यों दीन रहो?
रसनिधि शब्द-शब्द चुनकर
बुनकर अभिनव ताना-बाना.
बन जाओ रसखान काव्य की
गगरी निश-दिन छलकाना.
तत्सम-तद्भव लगे डिठौना
किन्तु न तिल को ताड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
जिस ध्वनि का जैसा उच्चारण
वैसा लिखना हिन्दी है.
जैसा लिखना वैसा पढ़ना
वही समझना हिंदी है.
मौन न रहता कोई अक्षर,
गिरता कोई हर्फ़ नहीं.
एक वर्ण के दो उच्चारण
दो उच्चारो- वर्ण नहीं.
करो 'सलिल' पौधों का रोपण,
अब मत रोपा झाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
हिन्दी ममतामय मैया है...
संजीव 'सलिल'
*
*
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
सूर कबीर रहीम देव
तुलसी से बेटों की मैया.
खुसरो बरदाई मीरां
जगनिक खेले इसकी कैंया.
घाघ भड्डरी ईसुरी गिरिधर
जगन्नाथ भूषण मतिमान.
विश्वनाथ श्री क्षेमचंद्र
जयदेव वृन्द लय-रस की खान.
जायसी रायप्रवीण बिहारी
सेनापति बन लाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
बिम्ब प्रतीक व्याकरण पिंगल
क्षर-अक्षर रसलीन रहो.
कर्ताकारक कर्म क्रिया उपयुक्त
न रख क्यों दीन रहो?
रसनिधि शब्द-शब्द चुनकर
बुनकर अभिनव ताना-बाना.
बन जाओ रसखान काव्य की
गगरी निश-दिन छलकाना.
तत्सम-तद्भव लगे डिठौना
किन्तु न तिल को ताड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
*
जिस ध्वनि का जैसा उच्चारण
वैसा लिखना हिन्दी है.
जैसा लिखना वैसा पढ़ना
वही समझना हिंदी है.
मौन न रहता कोई अक्षर,
गिरता कोई हर्फ़ नहीं.
एक वर्ण के दो उच्चारण
दो उच्चारो- वर्ण नहीं.
करो 'सलिल' पौधों का रोपण,
अब मत रोपा झाड़ करो.
हिंदी ममतामय मैया है
मत इससे खिलवाड़ करो...
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
अभिनव प्रयोग दोहा-हाइकु गीत समस्या पूर्ति: प्रतिभाओं की कमी नहीं... संजीव 'सलिल'
अभिनव प्रयोग / समस्या पूर्ति:
दोहा-हाइकु गीत
प्रतिभाओं की कमी नहीं...
संजीव 'सलिल'
*
*
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
धूप-छाँव का खेल है
खेल सके तो खेल.
हँसना-रोना-विवशता
मन बेमन से झेल.
दीपक जले उजास हित,
नीचे हो अंधेर.
ऊपरवाले को 'सलिल'
हाथ जोड़कर टेर.
उसके बिन तेरा नहीं
कोई कहीं अस्तित्व.
तेरे बिन उसका कहाँ
किंचित बोल प्रभुत्व?
क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
पेट दिया दाना नहीं.
कैसा तू नादान?
'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
भिक्षा तू भगवान'.
मुट्ठी भर तंदुल दिए,
भूखा सोया रात.
लड्डूवालों को मिली-
सत्ता की सौगात.
मत कहना मतदान कर,
ओ रे माखनचोर.
शीश हमारे कुछ नहीं.
तेरे सिर पर मोर.
उपमाओं की
कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
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दोहा-हाइकु गीत
प्रतिभाओं की कमी नहीं...
संजीव 'सलिल'
*
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
धूप-छाँव का खेल है
खेल सके तो खेल.
हँसना-रोना-विवशता
मन बेमन से झेल.
दीपक जले उजास हित,
नीचे हो अंधेर.
ऊपरवाले को 'सलिल'
हाथ जोड़कर टेर.
उसके बिन तेरा नहीं
कोई कहीं अस्तित्व.
तेरे बिन उसका कहाँ
किंचित बोल प्रभुत्व?
क्षमताओं की
कमी नहीं किंचित
समताओं की.
प्रतिभाओं की
कमी नहीं किंचित,
विपदाओं की....
*
पेट दिया दाना नहीं.
कैसा तू नादान?
'आ, मुझ सँग अब माँग ले-
भिक्षा तू भगवान'.
मुट्ठी भर तंदुल दिए,
भूखा सोया रात.
लड्डूवालों को मिली-
सत्ता की सौगात.
मत कहना मतदान कर,
ओ रे माखनचोर.
शीश हमारे कुछ नहीं.
तेरे सिर पर मोर.
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कमी नहीं किंचित
रचनाओं की.
प्रतिभाओं की
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विपदाओं की....
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बुधवार, 28 जुलाई 2010
" हाइकु " ---कुसुम ठाकुर
" हाइकु "
कुसुम ठाकुर
*
*
सुख औ दुःख
जीवन के दो पाट
तो गम कैसा
चलते रहो
हौसला ना हो कम
दुरियाँ क्या है
लक्ष्य जो करो
ज्यों ध्यान तुम धरो
मिलता फल
हार ना मानो
ज्यों सतत प्रयास
मंजिल पाओ
कर्म ही पूजा
उस सम ना दूजा
कहो उल्लास
ध्यान धरो
बस मौन ही रहो
पाओ उल्लास
- कुसुम ठाकुर -
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मंगलवार, 27 जुलाई 2010
दोहां सलिला: संजीव 'सलिल'
दोहां सलिला:
संजीव 'सलिल'
*

*
गृह मंदिर में, कर सकें, प्रभु को प्रति पल याद.
सुख-समृद्धि-यश पा अमित, सदा रहें आबाद.
कल का कल पर छूटता, आज न होता काज.
अभी करे जो हो वही, यही काज का राज..
बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..
कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..
मल में रह निर्मल रहे, शतदल कमल न भूल.
नित मल-मलकर नहाती, स्वच्छ न होती धूल..
हँसी कुमुदिनी या धरा पर उतरा रजनीश.
सरवर में पंकज खिला, या विहँसे पृथ्वीश..
Acharya Sanjiv Salil
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संजीव 'सलिल'
*

*
गृह मंदिर में, कर सकें, प्रभु को प्रति पल याद.
सुख-समृद्धि-यश पा अमित, सदा रहें आबाद.
कल का कल पर छूटता, आज न होता काज.
अभी करे जो हो वही, यही काज का राज..
बिन सोचे लिख डालिए, जो मन हो तत्काल.
देव कलम के स्वयं ही, लेते कथ्य सम्हाल..
कौन लिखाना चाहता, जान सका है कौन?
कौन लिख रहा जानकर, 'सलिल' हो रहा मौन..
मल में रह निर्मल रहे, शतदल कमल न भूल.
नित मल-मलकर नहाती, स्वच्छ न होती धूल..
हँसी कुमुदिनी या धरा पर उतरा रजनीश.
सरवर में पंकज खिला, या विहँसे पृथ्वीश..
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मुक्तिका: जब दिल में अँधेरा हो... संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
जब दिल में अँधेरा हो...
संजीव 'सलिल'
*
*
जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?
चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..
कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..
सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..
नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..
क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..
**********************************************
जब दिल में अँधेरा हो...
संजीव 'सलिल'
*
*
जब दिल में अँधेरा हो, क्या होगा मशालों से
मिलते हों गले काँटे, जब पाँव के छालों से?
चाबी की करे चिंता, कोई क्यों बताओ तो?
हों हाथ मिलाये जब, चोरों ने ही तालों से..
कुर्सी पे मैं बैठूँगा, बीबी को बिठाऊँगा.
फिर राज चलाऊँगा, साली से औ' सालों से..
इतिहास भी लिक्खेगा, 'मुझसा नहीं दूजा है,
है काबलियत मेरी, घपलों में-घुटालों में..
सडकों पे तुम्हें गड्ढे, दिखते तो दोष किसका?
चिकनी मुझे लगती हैं, हेमा जी के गालों से..
नंगों की तुम्हें चिंता, मुझको है फ़िक्र खुद की.
लज्जा को ढाँक दूँगा, बातों के दुशालों से..
क्यों तुमको खलिश होती, है कल की कहो चिंता.
सौदा है 'सलिल' का जब सूरज से उजालों से..
**********************************************
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गीत : राह देखती माँ की गोदी... संजीव 'सलिल' *
गीत :
राह देखती माँ की गोदी...
संजीव 'सलिल'
*

*
राह देखती माँ की गोदी
लाड़ो बिटिया आ जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
*
नटखट-चंचल भोलापन
तेरा जीवन की थाती है.
दीप यहाँ मैं दूर कहीं तू-
लेकिन मेरी बाती है.
दीपक-बाती साथ रहें कुछ पल
तो तम् मिट जायेगा.
अगरु-धूप सा स्मृतियों का
धूम्र सुरभि फैलाएगा.
बहुत हुआ अब मत तरसाओ
घर-अँगना में छा जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
*
परस पुलक से भर देगा
जब तू कैयां में आयेगी.
बीत गयीं जो घड़ियाँ उनकी
फिर-फिर याद दिलायेगी.
सखी-सहेली, कौन कहाँ है?
किसने क्या खोया-पाया?
कौन कष्ट में भी हँसता है?
कौन सुखों में भरमाया?
पुरवाई-पछुआ से मिलकर
खिले जुन्हाई आ जाओ.
प्यासी ममता हेर रही है-
कुछ तो प्यास बुझा जाओ....
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सोमवार, 26 जुलाई 2010
चिंतन और आकलन: हम और हमारी हिन्दी संजीव सलिल'
चिंतन और आकलन:
हम और हमारी हिन्दी
संजीव सलिल'
*
हम और हमारी हिन्दी
संजीव सलिल'
*
*
हिंदी अब भारत मात्र की भाषा नहीं है... नेताओं की बेईमानी के बाद भी प्रभु की कृपा से हिंदी विश्व भाषा है. हिंदी के महत्त्व को न स्वीकारना ऐसा ही है जैसे कोई आँख बंद कर सूर्य के महत्त्व को न माने. अनेक तमिलभाषी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं. तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र एम्.ए. और अनेक पीएच. डी. कर रहे हैं. मेरे पुस्तक संग्रह में अनेक पुस्तकें हैं जो तमिलभाषियों ने हिन्दी साहित्यकारों पर लिखी हैं. हिन्दी भाषी प्रदेश में आकर लाखों तमिलभाषी हिन्दी बोलते, पढ़ते-लिखते हैं.
अन्य दक्षिणी प्रान्तों में भी ऐसी ही स्थिति है.
मुझे यह बताएँ लाखों हिन्दी भाषी दक्षिणी प्रांतों में नौकरी और व्यवसाय कर रहे हैं, बरसों से रह रहे हैं. उनमें से कितने किसी दक्षिणी भाषा का उपयोग करते हैं. दुःख है कि १% भी नहीं. त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हर भारतीय को रह्स्त्र भाषा हिंदी, संपर्क भाषा अंगरेजी तथा एक अन्य भाषा सीखनी थी. अगर हम हिंदीभाषियों ने दक्षिण की एक भाषा सीखी होती तो न केवल हमारा ज्ञान, आजीविका अवसर, लेखन क्षेत्र बढ़ता अपितु राष्ट्र्री एकता बढ़ती. भाषिक ज्ञान के नाम पर हम शून्यवत हैं. दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाता, जबकि हिन्दी मेरी माँ है तो वे मौसियाँ तो हैं.
यदि अपनी समस्त शिक्षा हिन्दी मध्यम से होने के बाद भी मैं शुद्ध हिन्दी नहीं लिख-बोल पाता, अगर मैं हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को पूरी तरह नहीं जानता तो दोष तो मेरा ही है. मेरी अंगरेजी में महारत नहीं है जबकि मैंने इंजीनियरिंग में ८ साल अंगरेजी मध्यम से पढ़ा है. मैंने शालेय शिक्षा में संस्कृत पढी पर एक वाक्य भी संकृत में बोल-लिख-समझ नहीं सकता, मुझे बुन्देली भी नहीं आती, पड़ोसी राज्यों की छतीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, मागधी, बृज, भोजपुरी से भी मैं अनजान हूँ... मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुई तीन पीढ़ियों से जुड़ा हूँ देखता हूँ कि वे भी मेरी तरह भाषिक विपन्नता के शिकार हैं. कोई भी किसी भाषा पर अधिकार नहीं रखता... क्यों?
मेंरे कुछ मित्र चिकित्सा के उच्च अध्ययन हेतु रूस गए... वहाँ पहले तीन माह रूसी भाषा का अध्ययन कर प्रमाणपत्र परीक्षा उत्तीर्ण की तब रूसी भाषा की किताबों के माध्यम से विषय पढ़ा. कोई समस्या नहीं हुई.. विश्व के विविध क्षेत्रों से लाखों छात्र इसी तरह, रूस, जापान आदि देशों में जाकर पढ़ते हैं. भारत में हिन्दी भाषी ही हिन्दी में दक्ष नहीं हैं तो तकनीकी किताबें कब हिन्दी में आयेंगी?, विदेशों से भारत में आकर पढनेवाले छात्र को हिन्दी कौन और कब सिखाएगा? हम तो शिशुओं को कन्वेंतों में अंगरेजी के रैम रटवाएं, मेहमानों के सामने बच्चे से गवाकर गर्व अनुभव करें, फिर हर विषय में ट्यूशन लगवाकर प्रवीणता दिलाएं हिंदी को छोड़कर... यह हिंदी-द्रोह नहीं है क्या? आप अपनी, मेरी या किसी भी छात्र की अंक सूची देखें... कितने हैं जिन्हें हिन्दी में प्रवीणता के अंक ८०% या अधिक मिले? हम विषयवार कितने घंटे किस विषय को पढ़ते हैं? सबसे कम समय हिंदी को देते हैं. इसलिए हमें हिन्दी ठीक से नहीं आती. हम खिचडी भाषा बोलते-लिखते हैं जिसे अब 'हिंगलिश' कह रहे हैं.
दोष हिन्दी भाषी नेताओं की दूषित मानसिकता का है जो न तो खुद भाषा के विद्वान थे, न उन्होंने भाषा के विद्वान् बनने दिये. त्रिभाषा सूत्र की असफलता का कारण केवल हिन्दीभाषी नेता हैं. भारत की भाषिक एकता और अपने व्यक्तिगत लाभ (लेखन क्षेत्र, अध्ययन क्षेत्र, आजीविका क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र के विस्तार) के लिये भी हमें दक्षिणी भाषाएँ सीखना ही चाहिए. संगीत, आयुर्वेद, ज्योतिष, तेल चिकित्सा आदि के अनेक ग्रन्थ केवल दक्षिणी भाषाओँ में हैं. हम उन भाषाओँ को सीखकर उन ग्रंथों को हिन्दी में अनुवादित करें.
आशा की किरण:
अन्तरिक्षीय प्रगति के कारण आकाश गंगा के अन्य सौर मंडलों में सभ्यताओं की सम्भावना और उनसे संपर्क के लिये विश्व की समस्त भाषाओँ का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया है. ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार कहे को लिखने, लिखे को पढने, पढ़े को समझने और विद्युत तरंगों में परिवर्तित-प्रति परिवर्तित होने की क्षमता की दृष्टि से संस्कृत प्रथम, हिन्दी द्वितीय तथा शेष भाषाएँ इनसे कम सक्षम पाई गयीं. अतः इन दो भाषाओँ के साथ अंतरिक्ष वा अन्य विज्ञानों में शोध कार्य समपन्न भाषों यथा अंगरेजी, रूसी आदि में पृथ्वीवासियों का संदेश उन सभ्यताओं के लिये भेजा गया है. हिन्दी की संस्कृत आधारित उच्चारणपद्धति,शब्द-संयोजन और शब्द-निर्माण की सार्थक प्रणाली जिसके कारण हिन्दी विश्व के लिये अपरिहार्य बन गयी है, कितने हिंदी भाषी जानते हैं?
समय की चुनौती सामने है. हमने खुद को नहीं बदला तो भविष्य में हमारी भावी पीढियां हिंदी सीखने विदेश जायेंगी. आज विश्व का हर देश अपनी उच्च शिक्षा में हिन्दी की कक्षाएं, पाठ्यक्रम और शोध कार्य का बढ़ता जा रहा है और हम बच्चों को हिन्दी से दूरकर अंगरेजी में पढ़ा रहे हैं. दोषी कौन? दोष किसका और कितना?,
अमरीका के राष्ट्रपति एकाधिक बार सार्वजनिक रूप से अमरीकियों को चेता चुके हैं कि हिन्दी के बिना भविष्य उज्जवल नहीं है. अमरीकी हिन्दी सीखें. हमर अधिकारी और नेता अभी भी मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम हैं. उनके लिये हिंदी गुलाम भारतीयों की और अंगरेजी उनके स्वामियों की भाषा है... इसलिए भारतीयों के शशक या नायक बनने के लिये वे हिन्दी से दूर और अंगरेजी के निकट होने प्रयास करते हैं. अंग्रेजों के पहले मुगल शासक थे जिनकी भाषा उर्दू थी इसलिए उर्दू का व्याकरण, छंद शास्त्र और काव्य शास्त्र न जानने के बाद भी हम उर्दू काव्य विधाओं में लिखते हैं जिन्हें उर्दू के विद्वान कचरे के अलावा कुछ नहीं मानते.
कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.
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हिंदी अब भारत मात्र की भाषा नहीं है... नेताओं की बेईमानी के बाद भी प्रभु की कृपा से हिंदी विश्व भाषा है. हिंदी के महत्त्व को न स्वीकारना ऐसा ही है जैसे कोई आँख बंद कर सूर्य के महत्त्व को न माने. अनेक तमिलभाषी हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं. तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में प्रति वर्ष सैंकड़ों छात्र एम्.ए. और अनेक पीएच. डी. कर रहे हैं. मेरे पुस्तक संग्रह में अनेक पुस्तकें हैं जो तमिलभाषियों ने हिन्दी साहित्यकारों पर लिखी हैं. हिन्दी भाषी प्रदेश में आकर लाखों तमिलभाषी हिन्दी बोलते, पढ़ते-लिखते हैं.
अन्य दक्षिणी प्रान्तों में भी ऐसी ही स्थिति है.
मुझे यह बताएँ लाखों हिन्दी भाषी दक्षिणी प्रांतों में नौकरी और व्यवसाय कर रहे हैं, बरसों से रह रहे हैं. उनमें से कितने किसी दक्षिणी भाषा का उपयोग करते हैं. दुःख है कि १% भी नहीं. त्रिभाषा सूत्र के अनुसार हर भारतीय को रह्स्त्र भाषा हिंदी, संपर्क भाषा अंगरेजी तथा एक अन्य भाषा सीखनी थी. अगर हम हिंदीभाषियों ने दक्षिण की एक भाषा सीखी होती तो न केवल हमारा ज्ञान, आजीविका अवसर, लेखन क्षेत्र बढ़ता अपितु राष्ट्र्री एकता बढ़ती. भाषिक ज्ञान के नाम पर हम शून्यवत हैं. दक्षिणभाषी अपनी मातृभाषा, राष्ट्र भाषा, अंगरेजी, संस्कृत तथा पड़ोसी राज्यों की भाषा इस तरह ४-५ भाषाओँ में बात और काम कर पाते हैं. कमी हममें हैं और हम ही उन पर आरोप लगाते हैं. मुझे शर्म आती है कि मैं दक्षिण की किसी भाषा में कुछ नहीं लिख पाता, जबकि हिन्दी मेरी माँ है तो वे मौसियाँ तो हैं.
यदि अपनी समस्त शिक्षा हिन्दी मध्यम से होने के बाद भी मैं शुद्ध हिन्दी नहीं लिख-बोल पाता, अगर मैं हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को पूरी तरह नहीं जानता तो दोष तो मेरा ही है. मेरी अंगरेजी में महारत नहीं है जबकि मैंने इंजीनियरिंग में ८ साल अंगरेजी मध्यम से पढ़ा है. मैंने शालेय शिक्षा में संस्कृत पढी पर एक वाक्य भी संकृत में बोल-लिख-समझ नहीं सकता, मुझे बुन्देली भी नहीं आती, पड़ोसी राज्यों की छतीसगढ़ी, भोजपुरी, अवधी, मागधी, बृज, भोजपुरी से भी मैं अनजान हूँ... मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुई तीन पीढ़ियों से जुड़ा हूँ देखता हूँ कि वे भी मेरी तरह भाषिक विपन्नता के शिकार हैं. कोई भी किसी भाषा पर अधिकार नहीं रखता... क्यों?
मेंरे कुछ मित्र चिकित्सा के उच्च अध्ययन हेतु रूस गए... वहाँ पहले तीन माह रूसी भाषा का अध्ययन कर प्रमाणपत्र परीक्षा उत्तीर्ण की तब रूसी भाषा की किताबों के माध्यम से विषय पढ़ा. कोई समस्या नहीं हुई.. विश्व के विविध क्षेत्रों से लाखों छात्र इसी तरह, रूस, जापान आदि देशों में जाकर पढ़ते हैं. भारत में हिन्दी भाषी ही हिन्दी में दक्ष नहीं हैं तो तकनीकी किताबें कब हिन्दी में आयेंगी?, विदेशों से भारत में आकर पढनेवाले छात्र को हिन्दी कौन और कब सिखाएगा? हम तो शिशुओं को कन्वेंतों में अंगरेजी के रैम रटवाएं, मेहमानों के सामने बच्चे से गवाकर गर्व अनुभव करें, फिर हर विषय में ट्यूशन लगवाकर प्रवीणता दिलाएं हिंदी को छोड़कर... यह हिंदी-द्रोह नहीं है क्या? आप अपनी, मेरी या किसी भी छात्र की अंक सूची देखें... कितने हैं जिन्हें हिन्दी में प्रवीणता के अंक ८०% या अधिक मिले? हम विषयवार कितने घंटे किस विषय को पढ़ते हैं? सबसे कम समय हिंदी को देते हैं. इसलिए हमें हिन्दी ठीक से नहीं आती. हम खिचडी भाषा बोलते-लिखते हैं जिसे अब 'हिंगलिश' कह रहे हैं.
दोष हिन्दी भाषी नेताओं की दूषित मानसिकता का है जो न तो खुद भाषा के विद्वान थे, न उन्होंने भाषा के विद्वान् बनने दिये. त्रिभाषा सूत्र की असफलता का कारण केवल हिन्दीभाषी नेता हैं. भारत की भाषिक एकता और अपने व्यक्तिगत लाभ (लेखन क्षेत्र, अध्ययन क्षेत्र, आजीविका क्षेत्र, व्यापार क्षेत्र के विस्तार) के लिये भी हमें दक्षिणी भाषाएँ सीखना ही चाहिए. संगीत, आयुर्वेद, ज्योतिष, तेल चिकित्सा आदि के अनेक ग्रन्थ केवल दक्षिणी भाषाओँ में हैं. हम उन भाषाओँ को सीखकर उन ग्रंथों को हिन्दी में अनुवादित करें.
आशा की किरण:
अन्तरिक्षीय प्रगति के कारण आकाश गंगा के अन्य सौर मंडलों में सभ्यताओं की सम्भावना और उनसे संपर्क के लिये विश्व की समस्त भाषाओँ का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया है. ध्वनि विज्ञानं के नियमों के अनुसार कहे को लिखने, लिखे को पढने, पढ़े को समझने और विद्युत तरंगों में परिवर्तित-प्रति परिवर्तित होने की क्षमता की दृष्टि से संस्कृत प्रथम, हिन्दी द्वितीय तथा शेष भाषाएँ इनसे कम सक्षम पाई गयीं. अतः इन दो भाषाओँ के साथ अंतरिक्ष वा अन्य विज्ञानों में शोध कार्य समपन्न भाषों यथा अंगरेजी, रूसी आदि में पृथ्वीवासियों का संदेश उन सभ्यताओं के लिये भेजा गया है. हिन्दी की संस्कृत आधारित उच्चारणपद्धति,शब्द-संयोजन और शब्द-निर्माण की सार्थक प्रणाली जिसके कारण हिन्दी विश्व के लिये अपरिहार्य बन गयी है, कितने हिंदी भाषी जानते हैं?
समय की चुनौती सामने है. हमने खुद को नहीं बदला तो भविष्य में हमारी भावी पीढियां हिंदी सीखने विदेश जायेंगी. आज विश्व का हर देश अपनी उच्च शिक्षा में हिन्दी की कक्षाएं, पाठ्यक्रम और शोध कार्य का बढ़ता जा रहा है और हम बच्चों को हिन्दी से दूरकर अंगरेजी में पढ़ा रहे हैं. दोषी कौन? दोष किसका और कितना?,
अमरीका के राष्ट्रपति एकाधिक बार सार्वजनिक रूप से अमरीकियों को चेता चुके हैं कि हिन्दी के बिना भविष्य उज्जवल नहीं है. अमरीकी हिन्दी सीखें. हमर अधिकारी और नेता अभी भी मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम हैं. उनके लिये हिंदी गुलाम भारतीयों की और अंगरेजी उनके स्वामियों की भाषा है... इसलिए भारतीयों के शशक या नायक बनने के लिये वे हिन्दी से दूर और अंगरेजी के निकट होने प्रयास करते हैं. अंग्रेजों के पहले मुगल शासक थे जिनकी भाषा उर्दू थी इसलिए उर्दू का व्याकरण, छंद शास्त्र और काव्य शास्त्र न जानने के बाद भी हम उर्दू काव्य विधाओं में लिखते हैं जिन्हें उर्दू के विद्वान कचरे के अलावा कुछ नहीं मानते.
कभी नहीं से देर भली... जब जागें तभी सवेरा... हिन्दी और उसकी सहभाषाओं पर गर्व करें... उन्हें सीखें... उनमें लिखें और अन्य भाषाओँ को सीखकर उनका श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी में अनुवादित करें. हिन्दी किसी की प्रतिस्पर्धी नहीं है... हिन्दी का अस्तित्व संकट में नहीं है... जो अन्य भाषाएँ-बोलियाँ हिन्दी से समन्वित होंगी उनका साहित्य हिन्दी साहित्य के साथ सुरक्षित होगा अन्यथा समय के प्रवाह में विलुप्त हो जायगा.
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करें वंदना-प्रार्थना, भजन-कीर्तन नित्य.
सफल साधना हो 'सलिल', रीझे ईश अनित्य..
शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
रविवार, 25 जुलाई 2010
उपयोगी दूरभाष : विजय कौशल.
एयरलाइंस
भारतीय - एयरलाइंस 1800 180 1407
जेट - एयरवेज 1800 22 5522
- स्पाइसजेट 1800 180 3333
हवा - भारत 1800 22 7722
- किंगफिशर 1800 180 0101
बैंकों
एबीएन - एमरो 1800 11 2224
केनरा बैंक - 1800 44 6000
- सिटीबैंक 1800 44 2265
Corporatin बैंक - 1800 443 555
डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक - 1800 22 5769
एचडीएफसी बैंक - 1800 227 227
आईसीआईसीआई बैंक - 1800 333 499
आईसीआईसीआई बैंक - एनआरआई 1800 22 4848
आईडीबीआई बैंक - 1800 11 6999
भारतीय बैंक - 1800 425 1400
आईएनजी - वैश्य 1800 44 9900
कोटक महिंद्रा बैंक - 1800 22 6022
भगवान कृष्ण बैंक - 1800 11 2300
पंजाब नेशनल बैंक - 1800 122 222
भारत के राज्य बैंक - 1800 44 1955
सिंडिकेट बैंक - 1800 44 6655
ऑटोमोबाइल
महिंद्रा - वृश्चिक 1800 22 6006
- मारुति 1800 111 515
टाटा - मोटर्स 1800 22 5552
विंडशील्ड - विशेषज्ञों 1800 11 3636
कंप्यूटर आईटी /
- Adrenalin 1800 444 445
- AMD 1800 425 6664
एप्पल कंप्यूटर - 1800 444 683
- कैनन 1800 333 366
सिस्को सिस्टम - 1800 221 777
- कॉम्पैक हिमाचल प्रदेश - 1800 444 999
डेटा एक - ब्रोड्बैंड 1800 424 1800
- Dell 1800 444 026
- Epson 1800 44 0011
- ESys 3970 0011
उत्पत्ति टैली अकादमी - 1800 444 888
- एचसीएल 1800 180 8080
- आईबीएम 1800 443 333
- Lexmark 1800 22 4477
मार्शल है - प्वाइंट 1800 33 4488
- Microsoft 1800 111 100
माइक्रोसॉफ्ट वायरस अपडेट - 1901 333 334
- Seagate 1800 180 1104
- Symantec 1800 44 5533
टीवीएस - इलैक्ट्रॉनिक्स 1800 444 566
WEP - Peripherals 1800 44 6446
- विप्रो 1800 333 312
- ज़ीरक्सा 1800 180 1225
- शीर्षबिंदु 1800 222 004
भारतीय रेलवे के जनरल पूछताछ 131
भारतीय रेल केंद्रीय 131 पूछताछ
भारतीय रेलवे आरक्षण 131
भारतीय रेल रेलवे आरक्षण पूछताछ 1345,1335,1330
भारतीय रेल केंद्रीकृत रेलवे 5/6/7/8/9 1330/1/2/3/4 / पूछताछ
भारतीय - एयरलाइंस 1800 180 1407
जेट - एयरवेज 1800 22 5522
- स्पाइसजेट 1800 180 3333
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Corporatin बैंक - 1800 443 555
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एचडीएफसी बैंक - 1800 227 227
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महिंद्रा - वृश्चिक 1800 22 6006
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विंडशील्ड - विशेषज्ञों 1800 11 3636
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भारतीय रेल केंद्रीय 131 पूछताछ
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भारतीय रेल रेलवे आरक्षण पूछताछ 1345,1335,1330
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विंग कमांडर प्रवीण अरोड़ा बीकॉम. (एच), एमबीए, AICWA, ACS, पी जी, DBF
भारतीय वायु सेना
भारतीय वायु सेना
ईमेल: pk_arora@yahoo.com
: भीड़ + 91 9035455787
: भीड़ + 91 9035455787
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दो लघुकथाएं: १. गाँधी और गाँधीवाद २. निपूती भली थी आचार्य संजीव ‘सलिल’
आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं

१. गाँधी और गाँधीवाद
* बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले, तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा.
नेताजी बोले– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.’
‘ चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.’ – एक युवा पत्रकार बोल पड़ा.
अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.
*****************************************
२. निपूती भली थी
*
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.
अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी.
उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे.
दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.
अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- ‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.
***************************************
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शांति-राज सुख-चैन हो, हों कृपालु जगदीश.
सत्य सहाय सदा रहे, अंतर्मन पृथ्वीश..
गुप्त चित्र निर्मल रहे, ऐसे ही हों कर्म.
ज्यों की त्यों चादर रखे,निभा'सलिल'निज धर्म.
चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'
चित्रगुप्त महिमा - आचार्य संजीव 'सलिल'
चित्र-चित्र में गुप्त जो, उसको विनत प्रणाम।
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।
निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।
निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।
'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।
अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।
जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।
भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।
चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।
मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।
सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।
अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
************************************
वह कण-कण में रम रहा, तृण-तृण उसका धाम ।
विधि-हरि-हर उसने रचे, देकर शक्ति अनंत।
वह अनादि-ओंकार है, ध्याते उसको संत।
कल-कल,छन-छन में वही, बसता अनहद नाद।
कोई न उसके पूर्व है, कोई न उसके बाद।
वही रमा गुंजार में, वही थाप, वह नाद।
निराकार साकार वह, नेह नर्मदा नाद।
'सलिल' साधना का वही, सिर्फ़ सहारा एक।
उस पर ही करता कृपा, काम करे जो नेक।
जो काया को मानते, परमब्रम्ह का अंश।
'सलिल' वही कायस्थ हैं, ब्रम्ह-अंश-अवतंश।
निराकार परब्रम्ह का, कोई नहीं है चित्र।
चित्र गुप्त पर मूर्ति हम, गढ़ते रीति विचित्र।
निराकार ने ही सृजे, हैं सारे आकार।
सभी मूर्तियाँ उसी की, भेद करे संसार।
'कायथ' सच को जानता, सब को पूजे नित्य।
भली-भाँति उसको विदित, है असत्य भी सत्य।
अक्षर को नित पूजता, रखे कलम भी साथ।
लड़ता है अज्ञान से, झुका ज्ञान को माथ।
जाति वर्ण भाषा जगह, धंधा लिंग विचार।
भेद-भाव तज सभी हैं, कायथ को स्वीकार।
भोजन में जल के सदृश, 'कायथ' रहता लुप्त।
सुप्त न होता किन्तु वह, चित्र रखे निज गुप्त।
चित्र गुप्त रखना 'सलिल', मन्त्र न जाना भूल।
नित अक्षर-आराधना, है कायथ का मूल।
मोह-द्वेष से दूर रह, काम करे निष्काम।
चित्र गुप्त को समर्पित, काम स्वयं बेनाम।
सकल सृष्टि कायस्थ है, सत्य न जाना भूल।
परमब्रम्ह ही हैं 'सलिल', सकल सृष्टि के मूल।
अंतर में अंतर न हो, सबसे हो एकात्म।
जो जीवन को जी सके, वह 'कायथ' विश्वात्म।
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गुरु पूर्णिमा पर : दोहे गुरु वंदना के... संजीव 'सलिल'
गुरु पूर्णिमा पर :
दोहे गुरु वंदना के...
संजीव 'सलिल'
*

गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, कोई नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भाव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम्, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वह गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटा कर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
*
ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
*
गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
*
गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
*
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा,रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
********
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
दोहे गुरु वंदना के...
संजीव 'सलिल'
*
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, कोई नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भाव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम्, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वह गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटा कर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
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ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
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गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
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गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
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गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा,रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
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गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
********
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
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शनिवार, 24 जुलाई 2010
नवगीत: हिन्दी का दुर्भाग्य है... ---संजीव 'सलिल'
नवगीत / दोहा गीत :
हिन्दी का दुर्भाग्य है...
संजीव 'सलिल'
*

*
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कान्हा मैया खोजता,
मम्मी लगती दूर.
हनुमत कह हम पूजते-
वे मानें लंगूर.
सही-गलत का फर्क जो
झुठलाये है सूर.
सुविधा हित तोड़ें नियम-
खुद को समझ हुज़ूर.
चाह रहे जो शुद्धता,
आज मनाते सोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कोई हिंगलिश बोलता,
अपना सीना तान.
अरबी के कुछ शब्द कह-
कोई दिखाता ज्ञान.
ठूँस फारसी लफ्ज़ कुछ
बना कोई विद्वान.
अवधी बृज या मैथिली-
भूल रहे नादान.
माँ को ठुकरा, सास को
हुआ पूजना रोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
गलत सही को कह रहे,
सही गलत को मान.
निज सुविधा ही साध्य है-
भाषा-खेल समान.
करते हैं खिलवाड़ जो,
भाषा का अपमान.
आत्मा पर आघात कर-
कहते बुरा न मान.
केर-बेर के सँग सा
घातक है दुर्योग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*******************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
हिन्दी का दुर्भाग्य है...
संजीव 'सलिल'
*

*
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कान्हा मैया खोजता,
मम्मी लगती दूर.
हनुमत कह हम पूजते-
वे मानें लंगूर.
सही-गलत का फर्क जो
झुठलाये है सूर.
सुविधा हित तोड़ें नियम-
खुद को समझ हुज़ूर.
चाह रहे जो शुद्धता,
आज मनाते सोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कोई हिंगलिश बोलता,
अपना सीना तान.
अरबी के कुछ शब्द कह-
कोई दिखाता ज्ञान.
ठूँस फारसी लफ्ज़ कुछ
बना कोई विद्वान.
अवधी बृज या मैथिली-
भूल रहे नादान.
माँ को ठुकरा, सास को
हुआ पूजना रोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
गलत सही को कह रहे,
सही गलत को मान.
निज सुविधा ही साध्य है-
भाषा-खेल समान.
करते हैं खिलवाड़ जो,
भाषा का अपमान.
आत्मा पर आघात कर-
कहते बुरा न मान.
केर-बेर के सँग सा
घातक है दुर्योग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*******************
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नव गीत: हम खुद को.... संजीव 'सलिल'
नव गीत:
हम खुद को....
संजीव 'सलिल'
*

*
हम खुद को खुद ही डंसते हैं...
*
जब औरों के दोष गिनाये.
हमने अपने ऐब छिपाए.
विहँस दिया औरों को धोखा-
ठगे गए तो अश्रु बहाये.
चलते चाल चतुर कह खुद को-
बनते मूर्ख स्वयं फंसते हैं...
*
लिये सुमिरनी माला फेरें.
मन से प्रभु को कभी न टेरें.
जब-जब आपद-विपदा घेरें-
होकर विकल ईश-पथ हेरें.
मोह-वासना के दलदल में
संयम रथ पहिये फंसते हैं....
*
लगा अल्पना चौक रंगोली,
फैलाई आशा की झोली.
त्योहारों पर हँसी-ठिठोली-
करे मनौती निष्ठां भोली.
पाखंडों के शूल फूल की
क्यारी में पाये ठंसते हैं.....
*
पुरवैया को पछुआ घेरे.
दीप सूर्य पर आँख तरेरे.
तड़ित करे जब-तब चकफेरे
नभ पर छाये मेघ घनेरे.
आशा-निष्ठां का सम्बल ले
हम निर्भय पग रख हँसते हैं.....
****************
Acharya Sanjiv Salil
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हम खुद को....
संजीव 'सलिल'
*

*
हम खुद को खुद ही डंसते हैं...
*
जब औरों के दोष गिनाये.
हमने अपने ऐब छिपाए.
विहँस दिया औरों को धोखा-
ठगे गए तो अश्रु बहाये.
चलते चाल चतुर कह खुद को-
बनते मूर्ख स्वयं फंसते हैं...
*
लिये सुमिरनी माला फेरें.
मन से प्रभु को कभी न टेरें.
जब-जब आपद-विपदा घेरें-
होकर विकल ईश-पथ हेरें.
मोह-वासना के दलदल में
संयम रथ पहिये फंसते हैं....
*
लगा अल्पना चौक रंगोली,
फैलाई आशा की झोली.
त्योहारों पर हँसी-ठिठोली-
करे मनौती निष्ठां भोली.
पाखंडों के शूल फूल की
क्यारी में पाये ठंसते हैं.....
*
पुरवैया को पछुआ घेरे.
दीप सूर्य पर आँख तरेरे.
तड़ित करे जब-तब चकफेरे
नभ पर छाये मेघ घनेरे.
आशा-निष्ठां का सम्बल ले
हम निर्भय पग रख हँसते हैं.....
****************
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