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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

प्यार के दोहे: तन-मन हैं रथ-सारथी --संजीव 'सलिल'

प्यार के दोहे: तन-मन हैं रथ-सारथी

संजीव 'सलिल'

दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार.
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार..

प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार.
तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार..

बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार.
बिन मन के तन को नहीं, कोई करे स्वीकार..

दोनों क्षणभंगुर मगर, करते प्रीत पुनीत.
होती देह विदेह तब, जब मिल गाते गीत..

सुर होता यदि बेसुरा, याकि भंग हो ताल.
एक-दूजे को दोष दें, दोनों पाल मलाल..

केवल तन से ही नहीं, हों आत्मिक सम्बन्ध.
केवल मन से ही नहीं, हों प्राणिक अनुबंध..

तन-मन हैं रथ-सारथी, दोनों का सहयोग.
नर-नारी ले सकें- हो, 'सलिल' सफल उद्योग..

पुण्य-पाप से परे है, प्रकृति का व्यापार.
हमने खुद ही रच लिया, मनचाहा आचार..

भावनाएँ होतीं प्रबल, कामनाएँ बलवान.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रहते बस इंसान..

कर्म न किंचित नीच यदि, हो सहमति से मित्र.
लालच-भय करते इसे, दूषित औ' अपवित्र..

सिर्फ एक या कई से?, यह है लोकाचार.
उचित कभी अनुचित कभी, करिए 'सलिल' विचार..

अपनी-अपनी दृष्टि है, अपनी-अपनी सोच.
जड़ता संभव है नहीं, आवश्यक है लोच..

************************************
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

नवगीत: करो बुवाई... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
करो बुवाई...
संजीव 'सलिल'
*

खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीं कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

नवगीत: करना होगा.... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:
करना होगा...

हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
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नवगीत: चलो! कुछ गायें.... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

चलो! कुछ गायें...

संजीव 'सलिल'

क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

नवगीत: आओ! तम से लड़ें... --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

आओ! तम से लड़ें...

संजीव 'सलिल'

आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***

दिल के दोहे: संजीव वर्मा 'सलिल'


दिल ने दिल में झाँककर, दिल का कर दीदार.
दिलवर से हँसकर कहा- 'मैं कुरबां सरकार'.

दिल ने दिल को दिल दिया, दिल में दिल को देख.
दिल ही दिल में दिल करे, दिल दिलवर का लेख.

दिल से दिल मिल गया तो, शीघ्र बढ़ गयी प्रीत.
बिल देखा दिल फट गया, लगती प्रीत कुरीत..

बेदिल से दिल कहा रहा, खुशनसीब हैं आप.
दिल का दर्द न पालते, लगे न दिल को शाप..

दिल तोड़ा दिल फेंककर, लगा लिया दिल व्यर्थ.
सार्थक दिल मिलना तभी, जेब भरे जब अर्थ..

दिल में बस, दिल में बसा, देख जरा संसार.
तब असार में सार लख, जीवन बने बहार..

दिल की दिल में रह गयी, क्यों बतलाये कौन?
दिल ने दिल में झाँककर, 'सलिल' रख लिया मौन..

दिल से दिल ने बात की, अक्सर पर बेबात.
दिल में दिल ने घर किया, ले-देकर सौगात..

दिल डोला दिल ने लिया, आगे बढ़कर थाम.
दिल डूबा दिल ने दिया, 'सलिल' प्रीत-पैगाम..

लगे न दिल में बात जो, उसका कहना व्यर्थ.
दिल में चुभती बात जो, उसे न समझो व्यर्थ..

दिल लेकर दिल दे दिया, 'सलिल' किया व्यापार.
प्रीत परायी के लिये, दिल अपना बेज़ार.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

भोजपुरी दोहे: संजीव 'सलिल'

भोजपुरी दोहे:

संजीव 'सलिल'

रूप धधा के मोर जस, नचली सहरी नार.
गोड़ देख ली छा गइल, घिरना- भागा यार..

*
बाग़-बगीचा जाई के, खाइल पाकल आम.
साझे के सेनुरिहवा, मीठ लगल बिन दाम..
*
अजबे चम्मक आँखि में, जे पानी हिलकोर.
कनवा राजकुमार के, कथा कहsसु जे लोर..
*
कहतानी नीमन कsथा, जाई बइठि मचान.
ऊभ-चूभ कउआ हंकन, हीरामन कहतान..
*
कंकहि फेरी कज्जर लगा, शीशा देखल बेर.
आपन आँचर सँवारत, पल-पल लगल अबेर..
*

दोहा का रचना विधान:

दोहा में दो पद (पंक्तियाँ) तथा हर पंक्ति में २ चरण होते हैं. विषम (प्रथम व तृतीय) चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा सम (२रे व ४ थे) चरण में ११-११
मात्राएँ, इस तरह हर पद में २४-२४ कुल ४८ मात्राएँ होती हैं. दोनों पदों या
सम चरणों के अंत में गुरु-लघु मात्र होना अनिवार्य है. विषम चरण के आरम्भ
में एक ही शब्द जगण (लघु गुरु लघु) वर्जित है. विषम चरण के अंत में सगण,
रगण या नगण तथा सम चरणों के अंत में जगण या तगण हो तो दोहे में लय दोष
स्वतः मिट जाता है. अ, इ, , ऋ लघु (१) तथा शेष सभी गुरु (२) मात्राएँ
गिनी जाती हैं.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

स्तुति: : हर-हर गंगे... संजीव 'सलिल'

स्तुति: : हर-हर गंगे...

संजीव 'सलिल'

हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
सदियों से तुम सतत प्रवाहित
परिवर्तन की बनीं गवाही.
तुममें जीवन-शक्ति अनूठी
उसने पाई, जिसने चाही.
शतगुण जेठी रेवा का सुत-
मैया! तुमको नमन कर रहा -
'सलिल'-साधना सफल करो माँ
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
लहर-लहर में लहराती है
भागीरथ की कथा सुहानी.
पलीं पीढ़ियाँ कह, सुन, लिख-पढ़-
गंगा-सुत की व्यथा पुरानी.
हिमगिरि से सागर तक प्रवहित-
तार रहीं माँ भव-सागर से.
तर पायें तव कृपा-कोर पा.
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
*
पाप-ताप धो-धोकर माता!
हमने मैला नीर किया है.
उफ़ न कर रहीं धार सूखती.
हम शर्मिन्दा दर्द दिया है.
'सलिल' अमल-निर्मल हो फिर से
शुद्ध-बुद्ध हो नमन कर सकें-
विमल भक्ति दो, अचल शक्ति दो
हर-हर गंगे...,हर-हर गंगे...
**************
नेपाल यात्रा पर जाते समय २१.६.२००९ को वाराणसी में गंगा स्नान पश्चात् रची गयी.
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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

बाल कविता: मेरी माता! संजीव 'सलिल'

मेरी मैया!, मेरी माता!!
*
किसने मुझको जन्म दिया है?
प्राणों से बढ़ प्यार किया है.
किसकी आँखों का मैं तारा?
किसने पल-पल मुझे जिया है?


मेरी मैया!, मेरी माता!!
*
किसने बरसों दूध पिलाया?
निर्बल से बलवान बनाया.
खुद का वत्स रखा भूखा पर-
मुझको भूखा नहीं सुलाया.


वह गौ माता!, मेरी माता!!
*
किसकी गोदी में मैं खेला?
किसने मेरा सब दुःख झेला?
गिरा-उठाया, लाड़ लड़ाया.
हाथ पकड़ चलना सिखलाया.


भारत माता!, मेरी माता!!
*
किसने मुझको बोल दिये हैं?
जीवन के पट खोल दिये हैं.
किसके बिन मैं रहता गूंगा?
शब्द मुझे अनमोल दिये हैं.


हिंदी माता!, मेरी माता!!
*

लघु कथा: शब्द और अर्थ --संजीव वर्मा "सलिल "

लघु कथा: शब्द और अर्थ
संजीव वर्मा "सलिल "

शब्द कोशकार ने अपना कार्य समाप्त किया...कमर सीधी कर लूँ , सोचते हुए लेटा कि काम की मेज पर कुछ खटपट सुनायी दी... मन मसोसते हुए उठा और देखा कि यथास्थान रखे शब्दों के समूह में से निकल कर कुछ शब्द बाहर आ गए थे। चश्मा लगाकर पढ़ा , वे शब्द 'लोकतंत्र', प्रजातंत्र', 'गणतंत्र' और 'जनतंत्र' थे।

शब्द कोशकार चौका - ' अरे! अभी कुछ देर पहले ही तो मैंने इन्हें यथास्थान रखा रखा था, फ़िर ये बाहर कैसे...?'

'चौंको मत...तुमने हमारे जो अर्थ लिखे हैं वे अब हमें अनर्थ लगते हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र लोभ तंत्र में बदल गया है। प्रजा तंत्र में तंत्र के लिए प्रजा की कोई अहमियत ही नहीं है। गण विहीन गण तंत्र का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। जन गण मन गाकर जनतंत्र की दुहाई देने वाला देश सारे संसाधनों को तंत्र के सुख के लिए जुटा रहा है। -शब्दों ने एक के बाद एक मुखर होते हुए कहा


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ख़बरदार कविता: सानिया-शोएब प्रकरण: संजीव 'सलिल'


छोड़ एक को दूसरे का थामा है हाथ.
शीश झुकायें या कहों तनिक झुकायें माथ..
कोई किसी से कम नहीं, ये क्या जानें प्रीत.
धन-प्रचार ही बन गया, इनकी जीवन-रीत..
निज सुविधा-सुख साध्य है, सोच न सकते शेष.
जिसे तजा उसकी व्यथा, अनुभव करें अशेष..
शक शंका संदेह से जहाँ हुई शुरुआत.
वहाँ व्यर्थ है खोजना, किसके क्या ज़ज्बात..
मिला प्रेस को मसाला, रोज उछाला खूब.
रेटिंग चेनल की बढ़ी, महबूबा-महबूब.
बात चटपटी हो रही, नित्य खुल रहे राज़.
जैसे पट्टी चीरकर बाहर झाँके खाज.
'सलिल' आज फिर से हुआ, केर-बेर का संग.
दो दिन का ही मेल है, फिर देखेंगे जंग..

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सोमवार, 5 अप्रैल 2010

प्रतिभा: नीना वर्मा- एक उदीयमान कवयित्री

प्रतिभा:
नीना वर्मा- एक उदीयमान कवयित्री
महाराष्ट्र सरकार के महालेखाकार कार्यालय में अंकेक्षण निदेशक के पद पर कार्यरत नीना वर्मा समृद्ध साहित्यिक विरासत की धनी हैं. आपके बाबा स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा कैप्टेन मुंजे और डॉ. हेडगेवार के सहयोगी और राम सेना-शिव सेना के संस्थापक थे. विदुषी माता प्रभा देवी तथा न्यायाधीश पिता कृष्ण कुमार वर्मा से प्राप्त नीर-क्षीर विवेक बुद्धि संपन्न नीना के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह 'मृग- तृष्णा' से प्रस्तुत हैं कुछ रचनाये. विख्यात कवि कृष्ण कुमार चौबे के अनुसार- 'कल्पना के मधुर लोक में विचरण... यथार्थ के कठोर धरातल पर उतर सच्चाई से साक्षात्कार... आशावादी चिंतन, मानवीय संवेदनाओं और यथार्थ व कल्पना का सम्मिश्रण' नीना की रचनाओं की विशेषता है.                           --सलिल

फूल 
फूल खिला है
कोमल सा प्यारा.
छोटा सा है उसका 
जीवन सारा. 
ओस की बूँदों में 
मुस्कुराता बचपन.                                 
चिलचिलाती धूप में 
उसका यौवन.
अंत है उसका 
सूरज की आख़िरी किरण..

*************
माँ

माँ है एक अनोखी पहेली.
बच्चों का दुःख है
जसकी परेशानी.
बच्चों का सुख ही
उसकी जिंदगानी.
कभी वह गुरु तो
कभी है साथी.
कभी है प्रेरणा,
कभी ज़िम्मेदारी.
है निःस्वार्थ,
निर्मल प्रेम की 
अविरल धारा.
या सच्ची मित्रता का 
सबल सहारा.

कभी पकवानों की रेल-पेल
कभी सख्ती की ठेलम-ठेल.

है विशवास यही हमारा
ईश्वर के बाद
माँ ही है सहारा..
**********

भोर

कुछ अलसाई सी हुई है आज की भोर
कोहरे की चादर तले ढका हर मंज़र
सोया-सोया सा है मानो सारा नगर
सभी को मानो सूरज के सुनहरे स्पर्श का इंतज़ार.


गुल भी ओस तले कुछ उनींदे से
पेड़-पौधे भी लगते कुछ अलसाये से.
पंछियों की चहचहाहट भी कुछ मद्धम सी 
सारी फिजा है भीगी-भीगी सी.

हर किसी को शायद यही इन्तिज़ार
जाने कब बाँहें फैलाये आये धूप
सहलाकर सभी को गुनगुनी किरणों से
कण-कण में कर दे जीवन संचार..

********************  

खबरदार कविता: हमारी सरहद पर इंच-इंच कर कब्ज़ा किया जा रहा है --सलिल

खबरदार कविता:
खबर: हमारी सरहद पर इंच-इंच कर कब्ज़ा किया जा रहा है.
दोहा गजल:
संजीव 'सलिल'
कदम-कदम घुस रहा है, कर सरहद को पार.
हर हद को छिप-तोड़कर, करे पीठ पर वार..
*
करे प्यार से घात वह, हमें घात से प्यार.
बजा रहे हैं गाल हम, वह साधे हथियार..
*
बेहयाई से हम कहें, अब रुक भी जा यार.
घुस-घुस घर में मरता, वह हमको हर बार..
*
संसद में मतभेद क्यों?, हों यदि एक विचार.
कड़े कदम ले सके तब, भारत की सरकार.
*
असरकार सरकार क्यों?, हुई न अब तक यार.
करता है कमजोर जो, 'सलिल' वही गद्दार..
*
अफसरशाही राह का, रोड़ा- क्यों दरकार?
क्यों सेना में सियासत, रोके है हथियार..
*
दें जवाब हम ईंट का, पत्थर से हर बार.
तभी देश बच पायेगा, चेते अब सरकार..
*
मानवता के नाम पर, रंग जाते अखबार.
आतंकी मजबूत हों, थाम जाते हथियार..
*

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सामयिक दोहे: -संजीव 'सलिल'

झूठा है सारा जगत , माया कहते संत.
सार नहीं इसमें तनिक, और नहीं कुछ तंत..

झूठ कहा मैंने जिसे, जग कहता है सत्य.
और जिसे सच मानता, जग को लगे असत्य..

जीवन का अभिषेक कर, मन में भर उत्साह.
पायेगा वह सभी तू, जिसकी होगी चाह..

झूठ कहेगा क्यों 'सलिल', सत्य न उसको ज्ञात?
जग का रचनाकार ही, अब तक है अज्ञात..

अलग-अलग अनुभव मिलें, तभी ज्ञात हो सत्य.
एक कोण से जो दिखे, रहे अधूरा सत्य..

जो मन चाहे वह कहें, भाई सखा या मित्र.
क्या संबोधन से कभी, बदला करता चित्र??

नेह सदा मन में पले, नाता ऐसा पाल.
नेह रहित नाता रखे, जो वह गुरु-घंटाल..

कभी कहें कुछ पंक्तियाँ, मिलना है संयोग.
नकल कहें सोचे बिना, कोई- है दुर्योग..

असल कहे या नक़ल जग, 'सलिल' न पड़ता फर्क.
कविता रचना धर्म है, मर्म न इसका तर्क..

लिखता निज सुख के लिए, नहीं दाम की चाह.
राम लिखाते जा रहे, नाम उन्हीं की वाह..

भाव बिम्ब रस शिल्प लय, पाँच तत्त्व ले साध.
तुक-बेतुक को भुलाकर, कविता बने अगाध..

छाँव-धूप तम-उजाला, रहते सदा अभिन्न.
सतुक-अतुक कविता 'सलिल', क्यों माने तू भिन्न?

सीधा-सादा कथन भी, हो सकता है काव्य.
गूढ़ तथ्य में भी 'सलिल', कविता है संभाव्य..

सम्प्रेषण साहित्य की, अपरिहार्य पहचान.
अन्य न जिसको समझता, वह कवि हो अनजान..

रस-निधि हो, रस-लीन हो, या हो तू रस-खान.
रसिक काव्य-श्रोता कहें, कवि रसज्ञ गुणवान..

गद्य-पद्य को भाव-रस, बिम्ब बनाते रम्य.
शिल्प और लय में रहे, अंतर नहीं अगम्य..
Acharya Sanjiv Salil

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श्रद्धांजलि :: स्वतंत्रता सत्याग्रही सुशीला देवी दीक्षित दिवंगत :: दिव्य नर्मदा परिवार श्रद्धांजलि





 दिव्य नर्मदा परिवार की श्रद्धांजलि;

स्वातंत्र्य सत्याग्रही श्रीमती सुशीला देवी दीक्षित के प्रति काव्यांजलि:

भारत माँ रक्षा के हित, तुमने दी थी कुर्बानी.
नेह नर्मदा सदृश तुम्हारी, अमृतमय निर्मल वाणी..
स्निग्ध दृष्टि, ममतामय आनन्, तुम जग जननी लगती थीं.
मैया की संज्ञा तुम पर ही सत्य कहूँ मैं सजती थी..
दुर्बल काया सुदृढ़ मनोबल, 'आई' तुम थीं स्नेहागार.
बिना तुम्हारे स्मृतियों का सूना ही लगता संसार..
छाया प्रभा विनोद तुम्हारे सांस-सांस में बसते थे.
पाया था रेवा प्रसाद, तुम उनमें थीं वे तुममें थे..
पाँच पीढ़ियों से जुड़कर तुम सचमुच युग निर्माता थीं.
माया-मोह न व्यापा तुमको, तुम निज भाग्य विधाता थीं..
स्नेह 'सलिल' को मिला तुम्हारा, पूर्व जन्म के पुण्य फले.
चली गयीं तुम विकल खड़े हम, अपने खाली हाथ मले..
तुममें था इतिहास समाया, घटनाओं का हिस्सा तुम.
जो न समय देखा था हमने, सुना सकीं थीं किस्सा तुम..
तुम अभियान राष्ट्र सेवा का, तुम पाथेय-प्रेरणा थीं.
मूर्तिमंत तुम लोकभावना,  तुम ही लोक चेतना थीं..
नत मस्तक शत वन्दन कर हम, अपना भाग्य सराह रहे.
पाया था आशीष तुम्हारा, यादों में अवगाह रहे..
काया नहीं तुम्हारी लेकिन छाया-माया शेष यहीं.
'सलिल' प्रेरणा तुम जीवन की, भूलेंगे हम तुम्हें नहीं.
**************************

गीतिका: मीत तुम्हारी राह हेरता. ---आचार्य संजीव 'सलिल'

गीत

मीत तुम्हारी राह हेरता...

संजीव 'सलिल'

*

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

सुधियों के उपवन में तुमने

वासंती शत सुमन खिलाये.

विकल अकेले प्राण देखकर-

भ्रमर बने तुम, गीत सुनाये.

चाह जगा कर आह हुए गुम

मूँदे नयन दरश करते हम-

आँख खुली तो तुम्हें न पाकर

मन बौराये, तन भरमाये..

मुखर रहूँ या मौन रहूँ पर

मन ही मन में तुम्हें टेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में

तुम्हें खोजकर हार गया हूँ.

बाहर खोजा, भीतर पाया-

खुद को तुम पर वार गया हूँ..

नेह नर्मदा के निनाद सा

अनहद नाद सुनाते हो तुम-

ओ रस-रसिया!, ओ मन बसिया!

पार न पाकर पार गया हूँ.

ताना-बाना बुने बुने कबीरा

किन्तु न घिरता, नहीं घेरता.

मीत तुम्हारी राह हेरता...

*****************

दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट,कॉम

बुधवार, 31 मार्च 2010

अंतरजाल किताब -१

Raam Naam Sukhdayee

नव गीत: रंगों का नव पर्व बसंती --संजीव 'सलिल'

नव गीत

संजीव 'सलिल'


*

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर.
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर.
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया...
*
divynarmada.blogspot.com

मंगलवार, 30 मार्च 2010

सम्मान: दिव्या माथुर को हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान




लंदन। नेहरू केंद्र की वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी दिव्या माथुर को वर्ष 2009 के हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान से सम्मानित किया गया है। ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त नलिन सूरी ने माथुर को यह सम्मान प्रदान किया, जिन्होंने कई कविता संग्रहों के साथ ही कहानियाँ भी लिखी हैं। 1985 में लंदन में भारतीय उच्चायोग से जुड़ी दिव्या माथुर रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स की फ़ेलो हैं। नेत्रहीनता से संबंधित कई संस्थाओं में आपका सक्रिय योगदान रहा है तथा इनकी अनेक रचनाएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकी हैं। आशा फ़ाउंडेशन और पेन संस्थाओं की संस्थापक-सदस्य, चार्नवुड आर्ट्स की सलाहकार, यू के हिंदी समिति की उपाध्यक्षा, भारत सरकार के आधीन, लंदन के उच्चायोग की हिंदी कार्यकारिणी समिति की सदस्या, कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, दिव्या कई पत्र, पत्रिकाओं के संपादक मंडल में भी शामिल हैं।

दिव्या माथुर के नाटक व कहानियों के मंचन तथा रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था द्वारा भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का श्रेय भी इन्हें दिया जाता है । रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ट संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपनी आवाज़ से भी नवाज़ा है।

युवावस्था से ही लेखन कार्य में जुटी माथुर के छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें रेत का लिखा, अंतःसलीला, ख्याल तेरा, 11 सितंबर: ड्रीम्स डेबरीज, चंदन पानी और झूठ, झूठ और झूठ शामिल हैं। उनके कहानी संग्रहों में आक्रोश का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है जिसके लिए उन्हें पद्मानंद साहित्य सम्मान प्रदान किया गया था।
 
                                                                                                                                          आभार: सृजनगाथा
**************** 

सोमवार, 29 मार्च 2010

नवगीत: रंग हुए बदरंग --संजीव 'सलिल'

नवगीत:

संजीव 'सलिल'

रंग हुए बदरंग,
मनाएँ कैसे होली?...
*
घर-घर में राजनीति
घोलती ज़हर.
मतभेदों की प्रबल
हर तरफ लहर.
अँधियारी सांझ है,
उदास है सहर.
अपने ही अपनों पर
ढा रहे कहर.
गाँव जड़-विहीन
पर्ण-हीन है शहर.
हर कोई नेता हो
तो कैसे हो टोली?...
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कद से  भी ज्यादा है
लंबी परछाईं.
निष्ठां को छलती है
शंका हरजाई.
समय करे कब-कैसे
क्षति की भरपाई?
चंदा तज, सूरज संग
भागी जुनहाई.
मौन हुईं आवाजें,
बोलें तनहाई.
कवि ने ही छंदों को
मारी है गोली...
*
अपने ही सपने सब
रोज़ रहे तोड़.
वैश्विकता क्रय-विक्रय
मची हुई होड़.
आधुनिक वही है जो
कपडे दे छोड़.
गति है अनियंत्रित
हैं दिशाहीन मोड़.
घटाना शुभ-सरल
लेकिन मुश्किल है जोड़.
कुटिलता वरेण्य हुई
त्याज्य सहज बोली...
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