कुल पेज दृश्य

बुधवार, 6 मई 2009

स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे -स्व. शान्ति देवी

स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे

इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित नुस्खे दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं।

आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।

इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।

रोग: अतिसार / दस्त
सूखा आंवला १० ग्राम तथा छोटी हरड ५ ग्राम दोनों को बारीक पीस लें। सुबह-शाम दोनों को १-१ ग्राम लेकर मिला लें तथा पानी के साथ सेवन करें।
चूर्ण आँवला औ' हरड छोटी का लें फाँक।
ठंडे जल के साथ तो, दस्त न सकता झाँक॥
****************

सूक्ति-सलिला:प्रो. बी. पी. मिश्र 'नियाज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नगर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है। प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।


सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Discontent असंतोष :


'Happy thou are not,

For what thou hast not, still thou strivest to get,

And what thou hast, forgetest.'


जीवन में सुख क्योंकर आए?

जो अप्राप्य है, उसके पीछे तू मन को भटकाए।

और पास है जो निधि, निष्ठुर! तू उसको ठुकराए॥

जो कुछ भी तुझको मिला, उसे गया तू भूल।

जो न मिला वह चाहकर, ख़ुद चुनता है शूल॥

**************************************

मंगलवार, 5 मई 2009

भजन: चलीं सिया गिरिजा पूजन को -स्व. शान्ति देवी


चलीं सिया गिरिजा पूजन को

चलीं सिया गिरिजा पूजन को, देवी-देव मनात।

तोरी शरण में आयी मैया, रखियो हमरी बात...

फुलबगिया के कुंवर सांवरे, मोरो चित्त चुरात।

मैया, रखियो हमरी बात...

कुंवर सुकोमल, प्रण कठोर अति, मन मोरो घबरात।

मैया, रखियो हमरी बात...

बीच स्वयम्वर अवध कुंवर जू, धनुष भंग कर पात।

मैया, रखियो हमरी बात...


मिले वही जो मैया मोरे मन को भात सुहात।

मैया, रखियो हमरी बात...

सिय उर-श्रद्धा परख उमा माँ, कर में पुष्प गिरात।

मैया, रखियो हमरी बात...


पा माँ का आशीष, सुशीला सिय मन में मुस्कात

मैया, रखियो हमरी बात...

सखी-सहेली समझ न पायीं, काय सिया हर्षात.
मैया, रखियो हमरी बात...

'शान्ति' जुगल-जोड़ी अति सुंदर, जो देखे तर जात।

मैया, रखियो हमरी बात...

***********

स्वास्थ्य सम्पदा बचायें: स्व. शान्ति देवी

स्वास्थ्य सम्पदा बचायें : दादी माँ के घरेलू नुस्खे

इस स्तम्भ के अंतर्गत पारंपरिक चिकित्सा-विधि के प्रचलित नुस्खे दिए जा रहे हैं। हमारे बुजुर्ग इन का प्रयोग कर रोगों से निजात पाते रहे हैं.

आपको ऐसे नुस्खे ज्ञात हों तो भेजें।

इनका प्रयोग आप अपने विवेक से करें, परिणाम के प्रति भी आप ही जिम्मेदार होंगे, लेखक या संपादक नहीं।

रोग अनेक-दवा एक बदहज्मी, भूख न लगना, वायु गोला, तिल्ली आदि की बीमारियों में निम्न योग का प्रयोग लाभप्रद होता है। हींग १० ग्राम, नौसादर १० ग्राम, सेंधा नमक १० ग्राम लेकर ६०० ग्राम पानी में खरल कर लें। इस मिश्रण को एक शीशी में भर लें। नित्य प्रातः-संध्या २५-२५ ग्राम पीने से कष्ट घटेगा।

नौसादर सेंधा नमक, हींग ले दस-दस ग्राम।

कूट-पीस जल में मिला, पियें सुबह-ओ'-शाम॥

पाचन की बीमारियों, से मिलता आराम।

वायु अपच जैसे मिटें, इससे रोग तमाम॥

****************

लघुकथा: एक राजा था -डॉ. किशोर काबरा, अहमदाबाद


''एक राजा था!''

बेताल ने कहानी शुरू की और वहीं समाप्त करते हुए विक्रम से पूछा-

''अब बताओ, एक ही राजा क्यों था? अगर तुम जान-बूझकर इसका उत्तर नहीं दोगे तो तुम्हारे सर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।

''विक्रम ने कहा-''जनता मूर्ख थी, इसलिए एक ही राजा था,''

इतना सुनते ही बेताल विक्रम के कंधे से उड़कर झाड़ पर लटक गया।

*********************

सूक्ति सलिला: Determination दृढ़ता, प्रो. बी. पी. मिश्र 'नियाज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।

सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

Determination दृढ़ता :

'The native hue of resolution

Is sichled over with the pale cast of thought.


दृढ़ता की स्वाभाविक क्रांति विचार की धूमिल छाया से मंद पड़ जाती है.


अतिशय सोच-विचार की, धूमिल छाया मात्र.

क्रांति-मशालों का करे, शिथिल ज्योतिमय गात्र..

************************************************

वीर नारी: आचार्य संजीव 'सलिल'


दोहांजलि:

वीरांगनाओं के प्रति

दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम">दिव्यनर्मदा@जीमेल.कॉम

वीरांगना शतश: नमन, नत मस्तक हम आज।

त्याग तुम्हारा अपरिमित, रखी देश की लाज।

स्वामी, सुत, पितु, भ्रात को, तुमने कर बलिदान।

बचा-बढ़ाई देश की, युगों-युगों से शान।

रक्षित कर निज देश को, उन्नत रखतीं माथ।

गाथा जनगण गा रहा, रहे शीश पर हाथ।

दुर्गा, लक्ष्मी, चेन्नम्मा, रचें नया इतिहास।

प्राण लुटाये देश पर, प्रसरित कीर्ति-उजास।

जीजा बाई ने जना, शिवा सरीखा शूर।

भारत माँ के मुकुट का, रत्न अपरिमित नूर।

लक्ष्मीबाई ब्रिगेड ने, खूब मचाई धूम।

दिल दहले अँगरेज़ के, देश गया था झूम।

तुमने गवाँ सुहाग निज, बचा लिया है देश।

उऋण न हो सकते कभी, हम सब ऋण से लेश।

प्रिय शहीद के शौर्य की, याद बनी पाथेय।

उस के सुत को उसी सा, बना सको है ध्येय।

त्याग-तपस्या अपरिमित, तुम करुणा की मूर्ति।

नहीं अभावों की तनिक, कोई कर सके पूर्ति।

तव चरणों में स्वर्ग है, माने-पूजे नित्य।

तभी देश यह हो सके, रक्षित और अनित्य।

भारत माँ साकार तुम, दो सबको वरदान।

तव चरणों में हो सके, 'सलिल' विहँस बलिदान।
***************************************

सोमवार, 4 मई 2009

नज़्म: संजीव 'सलिल'

हथेली
सामने रखकर
खुदा से फकत
यह कहना
सलामत
हाथ हों तो
सारी दुनिया
जीत लूँगा मैं
पसीना जब
बहे तेरा
हथेली पर
गिरा बूँदें
लगा पलकों से
तू लेना
दिखेगा अक्स
मेरा ही
नया वह
हौसला देगा
****************

गीत: पारस मिश्र, शहडोल

गीत

पारस मिश्र, शहडोल

रात बीती जा रही है,

चाँद ढलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

कब छुड़ा पाये भ्रमर की

फूल पर कटु शूल गुंजन?

कब किसी की बात सुनता,

रूप पर रीझा हुआ मन?

कब शलभ ने दीप पर जल,

अनल की परवाह की है?

प्यार में किसने कहाँ कब

जिंदगी की चाह की है?

किंतु फिर भी जिंदगी में,

प्यार पलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

प्यार के सब काम गुप‍चुप

ही किये जाते रहे हैं।

शाप खुलकर, दान छिपकर

ही दिये जाते रहे हैं॥

हलाहल कुहराम कर दे,

शोर मदिरा पर भले हो।

पर सुधा के जाम तो,

छिपकर पिये जाते रहे हैं॥

होंठ खुलते जा रहे हैं,

जाम ढलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

सोचता हूँ मौत से पहले ,

तुम्हीं से प्यार कर लूँ।

पार जाने से प्रथम,

मझधार पर एतबार कर लूँ॥

जानता है दीप, यदि है

ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो

माँग में सिंदूर के बदले

न क्यों अंगार भर लूँ?

नेह चढ़ता जा रहा है,

दीप जलता जा रहा है।

देखता हूँ जिंदगी का

राज खुलता जा रहा है॥

****************************

व्यंग लेख: आँसुओं का व्यापार - शोभना चौरे.

घर के सारे कामों से निवृत्त होकर अख़बार पढ़ने बैठी तो बाहर से आवाज़ सुनाई दी, आँसू ले लो आँसू .........

मैं ध्यान से सुनने लगी। मुझे शब्द साफ-साफ सुनायी नहीं दे रहे थे।

कुछ देर बाद आवाज पास आई और उसने फ़िर से वही दोहराया तब मुझे स्पष्ट समझ में आया वो आँसू बेचने वाला ही था।

मै उत्सुकतावश बाहर आई अभी तक सब्जी, अख़बार, दूध, झाडू, अचार, पापड़, बड़ी, चूड़ी आदि यहाँ तक कि हर तीसरे दिन बडे-बडे कालीन बेचनेवाले आते देखे थे। मुझे समझ नहीं आता कि इतने छोटे-छोटे घरों में इतने बडे-बडे कालीन कौन खरीदता है? और वो भी इतने मँहगे? मैं तो फेरीवालों से कभी १०० रु. से ज्यादा का सामान नहीं खरीदती पर यह मेरी सोच है। शायद दूसरे लोग खरीदते होगे? तभी तो बेचने आते हैं या फ़िर उनके रोज-रोज आने से लोग खरीदने पर मजबूर हो जाते हों... राम जाने? किंतु आँसू? क्या आँसू भी कोई खरीदने की चीज़ है?

मैंने उसे आवाज दी वह १६- १७ साल का पढ़ा-लिखा दिखनेवाला लड़का था।

मैंने उससे पूछा: 'आँसू बेचते हो? यह तो मैंने पहले कभी नहीं सुना? आँसू तो इन्सान की भावनाओं से जुड़े होते हैं। वे तो अपने आप ही आँखों से बरस पड़ते हैं। रही बात नकली आँसुओं की तो फिल्मों और दूरदर्शन में रात-दिन बहते हुए देखते ही हैं उसके लिए तो बरसों से ग्लिसरीन का इस्तेमाल होता है। तुम कौन से आँसू बेचते हो?'

'' बाई साब ! आप देखिये तो सही मेरे पास कई तरह के आँसू हैं। आप ग्लिसरीन को जाने दीजिये। वह तो परदे की बात है। ये तो जीवन से जुड़े हैं।'' यह कहकर उसने एक छोटासा पेटीनुमा थैला निकाला। उसमें छोटी-छोटी रंग-बिरगी शीशियाँ थीं जिनमें आँसू भरे थे।

मैंने फ़िर उसकी चुटकी ली: 'बिसलेरी का पानी भर लाये हो और आँसू कहकर बेचते हो?'

उसने अपने चुस्त-दुरुस्त अंदाज में कहा- 'देखिये, इस सुनहरी शीशी में वे आँसू है जिन्हें दुल्हनें आजकल अपनी बिदाई पर भी इसलिए नहीं बहातीं कि उनका मेकप खराब न हो जाए। इस शीशी को पर्ची लगाकर दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो। उसे जब कभी मायके की याद आयेगी तो यह शीशी देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जायेंगे'। उसने बहुत ही आत्म विश्वास से कहा।

मैंने कहा- 'मेरी तो कोई लड़की नहीं है'।

उसने तपाक से कहा- ''बहू तो होगी? नहीं है तो आ जायेगी'' और झट से बैंगनी रंग की शीशी निकालकर कहा: ''उसके लिए लेलो उसे भी तो अपने मायके की याद आयेगी।''

'अच्छा छोड़ो बताओ और कौन-कौन से आँसू हैं?'

उसने गहरे नीले रंग की शीशी निकाली और कहने लगा: ''ये देखिये, इसमें बम धमाकों में मरनेवालों के रिश्तेदारों के आँसू हैं जो सिर्फ़ राजनेता ही खरीदते हैं। ये फिरोजी रंग की शीशी में दंगे में मरनेवालों के अपनों के आँसू हैं जो सिर्फ़ डॉन खरीदते हैं। ...ये हरे रंग के असली आँसू उन औरतों के हैं जो बेवजह रोती हैं । इन्हें समाजसेवक खरीदते हैं।

''मैं स्तब्ध थी। मुझे चुप देखकर उसने दुगुने उत्साह से बताना शुरू किया: ''देखिये, ये पीले और नारगी रंग की शीशी के आँसू ज्ञान देते हैं। इन्हें सिर्फ़ प्रवचन देनेवाले साधू महात्मा ही खरीदते हैं। ये जो लाल रंग की शीशी में आँसू हैं, ये तो चुनावों के समय हमारे देश में सबसे अधिक बिकते हैं। इसे हर राजनैतिक दल का बन्दा खरीदता है। ''

मैंने एक सफेद खाली शीशी की तरफ इशारा किया और पूछा: 'इसमें तो कुछ भी नहीं है?'

उसने कहा: ''इसमे वे आँसू हैं जो लोग पी जाते हैं। इन्हें कोई नहीं खरीदता''फ़िर वह और भी कई तरह के आँसू बताता रहा।

मै सुस्त हो रही थी, अचानक पूछ बैठी: 'अच्छा इनके दाम तो बताओ?'उसने कहा: ''दाम की क्या बात है पहले इस्तेमाल तो करके देखिये अगर फायदा हो तो दो आँसू दे देना मेरे भंडार में इजाफा हो जायेगा।

***********************

शुक्रवार, 1 मई 2009

नमन नर्मदा: नर्मदा की धार: चंद्रसेन 'विराट'

नर्मदा की धार निर्मल बह रही।
बिन रुके बहना निरंतर जिन्दगी।
यह तटों से कह रही।
धार निर्मल बह रही।

तीर पर ये वृक्ष छाया के सघन।
मुकुट दे देती उन्हें सूरज-किरण।
तीर पर स्थित मांझियों के वास्ते।
पुलिन शासन सह रही।
धार निर्मल बह रही।

शीश पर पनिहारिनें जल-घाट भरे।
भक्त करते स्नान श्रृद्धा से भरे।
युग-युगों से यह कलुष मन-प्राण का।
सब स्वयं में गह रही।
धार निर्मल बह रही।

यह स्फटिक चट्टान की बांहें बढा।
बुदबुदों के फूल की माला चढा।
यह किसी सन्यासिनी सी प्रनत हो।
गुरु-चरण में ढह रही।
धार निर्मल बह रही।

*******************************

भजन: सिया फुलबगिया... स्व. शान्ति देवी

सिया फुलबगिया आई हैं

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

कमर करधनी, पांव पैजनिया, चाल सुहाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

कुसुम चुनरी की शोभा लख, रति लजाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

चंदन रोली हल्दी अक्षत माल चढाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

दत्तचित्त हो जग जननी की आरती गाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

फल मेवा मिष्ठान्न भोग को नारियल लाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

लताकुंज से प्रगट भए लछमन रघुराई हैं।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

मोहनी मूरत देख 'शान्ति' सुध-बुध बिसराई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

विधना की न्यारी लीला लख मति चकराई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...


***********

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

कड़कती धूप को सुबहे-चमन लिखा होगा

फ़रेब खा के सुहाना सुखन लिखा होगा

कटे यूँ होंगे शबे-हिज़्र में पहाड़ से पल

ख़ुद को शीरी औ मुझे कोहकन लिखा होगा

लगे उतरने सितारे फलक से उसने ज़रूर

बाम को अपनी कुआरा गगन लिखा होगा

शौके-परवाज़ को किस रंग में ढाला होगा

कफ़स को तो चलो सब्ज़ा-चमन लिखा होगा

हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़

मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा

ये ख़त आख़िर का मुझे उसने अपनी गुरबत को

सुनहरी कब्र में करके दफ़न लिखा होगा
---------------------------------------------------------------------------------------------

सूक्ति सलिला : डेथ / मृत्यु - प्रो. बी. पी. मिश्रा 'नियाज़', संजीव 'सलिल'


सूक्ति सलिला : 

डेथ / मृत्यु 

- प्रो. बी. पी. मिश्रा 'नियाज़', संजीव 'सलिल'
*
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्
सूक्ति सलिला : 

प्रो. बी. पी. मिश्रा 'नियाज़', संजीव 'सलिल'

डेथ / मृत्यु -
 *
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।

इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'

'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।

प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-

Death मृत्यु :

'By medicine life may be prolonged, yet death will sieze the doctor too.'

औषध द्वारा आयु भले ही बढ़ जाय किन्तु मृत्यु-पाश से वैद्य भी नहीं बचा सकता। 

देखिये: पूछा लुकमा से जिया तू कितने दिन?
दस्ते-हसरत मल के बोला चंद रोज़।-अकबर इलाहाबादी. 

औषधि जीवन बढ़ा दे, मृत्यु न सकती टाल
डॉक्टर बैद हकीम भी,गए मृत्यु के गाल॥ 

*******************************************

शब्द-यात्रा: कैंडिडेट(प्रत्याशी) - अजित वडनेरकर

अ कसर नेताओं के कपड़े काफी उजले होते हैं। चुनावी माहौल में नेता कैंडिडेट कहलाते हैं। अंग्रेजी का कैंडीडेट शब्द भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल धातु kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है जिसमें चमक, प्रकाश का भाव है। खास बात यह कि प्रखरता, चमक में अगर ताप का गुण है तो शीतलता का भी। सूर्य और चंद्र इसकी चमकीली मिसाल हैं। मानवीय गुणों के संदर्भ में उज्जवलता, चमक, कांति आदि गुण नैसर्गिक होते हैं इनके निहितार्थ उच्च चारित्रिक विशेषताओं, अच्छी आदतों के जरिये समाज में प्रभावपूर्ण उपस्थिति है। मगर उज्जवलता, चमक जैसे गुणों की एक अन्य विशेषता भी है। वह यह कि प्रखर आभामंडल की वजह से कई बार चकाचौंध इतनी हो जाती है कि कई खामियां दृष्टिपटल और मानस में दर्ज होने से रह जाती हैं जबकि उज्जवलता का उद्धेश्य दाग को उजागर करना है। सफेदी और उजलापन पवित्रता का आदिप्रतीक रहा है। सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति का साफ सुथरा चरित्र और अनुशासन ही महत्वपूर्ण होता है। सफेद रंग में ये दोनों तत्व मौजूद हैं। इसीलिए दुनियाभर में भद्र पोशाक या गणवेश के तौर पर श्वेत वस्त्रों को ही चुना जाता है। किसी भी चुनाव में प्रत्याशी को कैंडीडेट कहा जाता है इस शब्द की रिश्तेदारी उजलेपन से ही है। अंग्रेजी का कैंडीडेट शब्द भारोपीय भाषा परिवार का शब्द है और मूल धातु kand से इसकी व्युत्पत्ति हुई है। ध्यान दें कि इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार की भाषाओं में रोमन ध्वनियां c और k के उच्चारण में बहुत समानता है और अक्सर ये एक दूसरे में बदलती भी हैं। अंग्रेजी का कैमरा हिन्दी का कमरा और चैम्बर एक ही मूल के हैं मगर मूल c सी वर्ण की ध्वनि यहां अलग अलग है। यही हाल कैंडीडेट में भी हुआ है। भारोपीय धातु कंद kand का एक रूप cand चंद् भी होता है। इससे बने चंद्रः का मतलब भी श्वेत, उज्जवल, कांति, प्रकाशमान आदि है। चंद्रमा, चांद, चांदनी जैसे शब्द इससे ही बने हैं। चन्द्रः के अन्य अर्थ भी हैं मसलन पानी, सोना, कपूर और मोरपंख में स्थित आंख जैसा विशिष्ट चिह्न। दरअसल इन सारे पदार्थों में चमक और शीतलता का गुण प्रमुख है। दिन में सूर्य की रोशनी के साथ उसके ताप का एहसास भी रहता हैं। चन्द्रमा रात में उदित होता है। इसलिए इसकी रोशनी के साथ शीतलता का भाव भी जुड़ गया। चंदन के साथ यही शीतलता जुड़ी है। आजकल राजनेताओं यानी चुनावी कैंडिडेटों पर जो जूते सैंडल चल रहे हैं वे यूं ही नहीं हैं, बल्कि उनमें रिश्तेदारी है और दोनों शब्द एक ही मूल के हैं। संस्कृत चंद् से ही एक विशिष्ट आयुर्वैदिक ओषधि को चंदन नाम मिला जो अपनी शीतलता के लिए मशहूर है। संस्कृत चंदन का फारसी रूप है संदल। गौरतलब है कि यही संदल अंग्रेजी के सैंडल में महक रहा है। प्राचीनकाल की लगभग सभी सभ्यताओं में चरणपादुकाएं चमड़े के साथ साथ वृक्षों का छाल से भी बनती थीं। अपने विशिष्ट गुणों की वजह से चंदन की लकड़ी से बनी चरणपादुकाएं यूरोप में भी प्रसिद्ध थी जहां इन्हें सैंडल कहा गया अर्थात संदल की लकड़ी से निर्मित। अंग्रेजी में चंदन को सैंडल कहते हैं। बाद में सैंडल सिर्फ चरणपादुका रह गई। अब अगर चुनावी गर्मी से तपे-तपाए, चौंधियाए कैंडिडेट्स (नेताओं) पर सैंडल बरस रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि उनका तन-मन पवित्र हो जाए। कैंडिडेट बना है लैटिन के कैंडिड से जिसमें सच्चाई, सरलता और निष्ठा जैसे भाव निहित हैं। इसका प्राचीन रूप था कैंडेयर candere जिसका अर्थ है श्वेत, चमकदार, निष्ठावान। गौर करें कि सद्गुणों का एक आभामंडल होता है जबकि दुर्गुणों का प्रभाव मलिन होता है। आज जिस अर्थ में कैंडिडेट शब्द का प्रयोग होता है उसके मूल में प्राचीन रोमन परम्परा है। लैटिन मूल से उपजे इस शब्द का रोमन में गांधार शैली में बुद्ध की एक प्रतिमा। गौरतलब है कि गांधार शैली पर ग्रीकोरोमन कला का बहुत प्रभाव पड़ा था इसीलिए रोमन टोगा और बुद्ध के उत्तरीय में काफी समानता है। अर्थ होता है श्वेत वस्त्रधारी अर्थात सफेदपोश। रोमन परम्परा मे केंडिडेट candidate उन तमाम सरकारी प्रतिनिधियों को कहा जाता था जो राजनीतिक व्यवस्था के तहत शासन के विभिन्न दफ्तरों को संचालित करते थे और वहां बैठकर लोगों से रूबरू होते थे। एक तरह से वे जनप्रतिनिधि ही होते थे जिनके लिए गणवेश के रूप में सफेद वस्त्र धारण करना ज़रूरी था। उद्धेश्य शायद यही रहा होगा कि सफेद वस्त्रों में जनप्रतिनिधि का सौम्य व्यक्तित्व उभरे। यह श्वेत परिधान टोगा toga हलाता था जो प्राचीन भारतीय परम्परा के उत्तरीय जैसा ही होता था। अर्थात एक सफेद सूती चादर जिसे शरीर के इर्दगिर्द लपेटा जाता था जिसे टोगा कहते थे। आज भी पश्चिमी सभ्यता में प्रचलित टोगा पार्टियों में इस व्यवस्था के अवशेष नजर आते हैं। टोगा पार्टियां एक तरह का फैंसी ड्रेस आयोजन होता है।कैंडेयर से ही बना है मशाल, ज्योति के अर्थ मे अंग्रेजी का कैंडल शब्द जिसके हिन्दी अनुवाद के तौर पर मोमबत्ती शब्द सामने आता है। त्योहारों पर छत से रोशनी के दीपक लटकाए जाते हैं जिन्हें कंदील कहते हैं। यह शब्द अरबी से फारसी उर्दू होते हुए हिन्दी में दाखिल हुआ। अरबी में यह लैटिन के कैंडिला और Candela ग्रीक के कंदारोस kandaros से क़दील में तब्दील हुआ। जिन लोगों पर समाज को रोशनी दिखाने की जिम्मेदारी है, वे अब कैंडिडेट बनकर रोशनी में आते है और सिर्फ अपने घर के उजाले की फिक्र करते हैं। गौरतलब है कि नेता का सफेदपोश होना भारतीय परिवेश की देन नहीं है बल्कि इसके अतीत का विस्तार पूर्व से पश्चिम तक रहा है। भारत में प्राचीन ऋषिमुनि चादरनुमा श्वेतवसन ही धारण करते थे। बौद्ध-जैन परम्पराओं में भी इसी उत्तरीय का प्रयोग हुआ जिसे चीवर भी कहा गया। समाज को राह दिखानेवाले, गुरूपद के योग्य, महात्मा, धर्मोपदेशक और महात्माओं के लिए आचार-व्यवहार से लेकर पहनावे तक पर सादगी-सरलता की छाप छोड़नी जरूरी थी, तभी समाज उनके पीछे चलता था और वे प्रतिष्ठा पाते थे। सूफियों को भी सूफी इसी लिए कहा जाता रहा क्योंकि वे सूफ् अर्थात वे शरीर पर सफेद सूती चादर ही धारण करते थे। भारत में सफेद सूती कपड़े कि एक किस्म खादी के नाम से मशहूर है। संभव है इस खादी शब्द का मूल भी भारोपीय कंद से ही हो। नेताओं को हमारे यहां खद्दरपोश भी कहा जाता है। गांधी जी ताउम्र खादी की चादर ओढ़ कर बिना कैंडिडेट बने दुनिया को शांति, समता, चरित्र की पवित्रता जैसे गुणों का उजाला पहुंचाने में सफल रहे मगर उनके अनुयायी (देश के कर्णधार न कि सिर्फ कांग्रेसी) बगुला भगत बन गए। धूर्त, मक्कार, पाखंडी के चरित्र को उजागर करनेवाले इस मुहावरे में भी सफेद रंग की महिमा नज़र आ रही है। बगुला शुभ्र धवल होता है। वह सरोवर के छिछले पानी में एक टांग पर ध्यानस्थ संत की मुद्रा में खड़ा रहता है और मौका देखते ही चोंच में मछली को दबोच लेता है।

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

संस्कृति चिन्तन: आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें -सलिल

संस्कृति चिन्तन

॥ वृत्तेन आर्यो भवति ॥ आइये! आर्य (श्रेष्ठ) बनें

भारत की संस्कृति आदर्श प्रधान है. केवल भारत ही विश्व को आदर्शों को जीवंत और मूर्त करते हुए जीवन जीना सिखा सकता है. इस पुण्य भूमि पर हमेशा ही त्याग, बलिदान, निष्काम प्रेम, वैराग्य, समन्वय- सामंजस्य, ईश्वरानुराग, ज्ञान-विज्ञानं, तकनीक, धर्म एवं दर्शन का अध्ययन-अध्यापन और विविध प्रयोग होते रहे हैं

प्राणभूतञ्च यत्तत्त्वं सारभूतं तथैव च । संस्कृतौ भारतस्यास्य तन्मे यच्छतु संस्कृतम् ॥


"संस्कृत भारत भूमि की प्राणभूत व सारभूत भाषा है; संस्कृत के बिना भारत की भव्य संस्कृति, नीतिमूल्यों, और जीवनमूल्यों को यथास्वरुप समझना संभव नहीं ।


दुर्योगवश मानव सभ्यता का यह स्वर्णिम पृष्ठ देव भाषा संस्कृत में लिखा गया जिससे वर्तमान में जन सामान्य और विश्व लगभग अपरिचित है। वैदिक ऋचाओं, श्लोकों, सुभाषितों, बोध शास्त्रों, भाष्यों, पुराणों, उपनिषदों, नाट्य, इतिहास आदि श्रुति-स्मृति के सहारे संस्कृत वांग्मय (वेद, वेदांग, उपांग) अंततः अपने उद्गम ॐकार में विलीन हो जाता है. 'संस्कृत' रुपी राजमार्ग निसर्ग, विद्या, कला, धर्म, ईश्वर, और कर्मयोग ऐसे विविध स्वरुप लेते हुए अंतिमतः श्रुति (वेद, वेदांग और उपांग) और ॐकार में विलीन या व्याप्त हो जाता है. विश्व के अन्य भागों में सभ्यताओं के उदय से सदियों पूर्व भारत में ज्ञान-विज्ञानं के अद्वितीय साहित्य का सृजन हुआ. सुव्यवस्थित शासन प्रणाली के बिना यह कैसे संभव है? साहित्य साम्प्रत समाज का प्रतिबिम्ब ही नहीं मार्गदर्शक भी होता है किंतु समय के सत्य को न पहचानने, इतिहास से सीख न लेने, साहित्य के सनातन मूल्यों की अनदेखी कर निजी स्वार्थ को वरीयता देने से आगत अपने विनाश के बीज बोता है. त्रेता और द्वापर के समय और उसके बाद भारत में भी यही हुआ. मध्यकाल की पराजयों और सहस्र वर्षों की गुलामी से उपजी आत्म्हींत की मनोवृत्ति और वर्तमान भोग प्रधान क्षणजीवी जीवन पद्धति ने संस्कृति एवं संस्कृत की गरिमा को नष्ट:करने का प्रयत्न किया है किन्तु, भूतकाल में रौंदी गयी ज्ञान-भाषा को हमेशा दबाया या मिटाया नहीं जा सकता. 'संस्कृत' का सुसंस्कार हर भारतीय के हृदय में राख से ढँकी चिंगारी की तरह सुप्त होने से लुप्त होने का भ्रम पैदा करता है किंतु इस गुप्त चित्र के प्रगट होने में देर नहीं लगेगी यदि हम विवेकी जन संस्कृति और साहित्य का न केवल स्वयं अवगाहन करें अपितु अन्य जनों को भी प्रेरित कर सहायक बनें.

अग्रतः संस्कृतं मेऽस्तु पुरतो मेऽस्तु संस्कृतम् ।

संस्कृतं हृदये मेऽस्तु विश्वमध्येऽस्तु संस्कृतम् ॥

****************

भजन: गिरिजा पूजन... -स्व. शान्तिदेवी वर्मा.

***********

सिया फुलबगिया आई हैं

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

कमर करधनी, पांव पैजनिया, चाल सुहाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

कुसुम चुनरी की शोभा लख, रति लजाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

चंदन रोली हल्दी अक्षत माल चढाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

दत्तचित्त हो जग जननी की आरती गाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

फल मेवा मिष्ठान्न भोग को नारियल लाई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

लताकुंज से प्रगट भए लछमन रघुराई हैं।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

मोहनी मूरत देख 'शान्ति' सुध-बुध बिसराई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...

विधना की न्यारी लीला लख मति चकराई है।

गिरिजा पूजन सखियों संग सिया फुलबगिया आई हैं...


***********

गज़ल: मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.

असर दिखला रहा है खूब, मुझ पे गुलबदन मेरा,

उसी के रंग जैसा हो चला है, पैराहन मेरा।

कोई मूरत कहीं देखी, वहीं सर झुक गया अपना

मुझे काफ़िर कहो बेशक, यही है पर चलन मेरा।

हजारों बोझ हैं रूह पर, मेरे बेहिस गुनाहों के,

तेरे अहसां से लेकिन दब रहा है, तन-बदन मेरा।

उस इक कूचे में मत देना बुलावे मेरी मय्यत के,

शहादत की वजह ज़ाहिर न कर डाले कफ़न मेरा।

मैं इस आख़िर के मिसरे में, जरा रद्दो-बदल कर लूँ

ख़फा वो हो ना बैठे, खूब समझे है सुखन मेरा।

मुझे हर गाम पर लूटा है, मेरे रहनुमाओं ने,

ज़रा देखूं के ढाए क्या सितम, अब राहजन मेरा।

यहाँ शोहरत-परस्ती है, हुनर का अस्ल पैमाना

इन्हीं राहों पे शर्मिंदा रहा है, मुझसे फन मेरा।

कभी आ जाए शायद हौसला, परबत से भिड़ने का,

ज़रा तुम नाम तो रख कर के देखो, कोहकन मेरा

*******************

लघु कथा: चुनाव प्रचार - आभा झा

चुनाव प्रचार का माहौल गर्म था। सभी दलों के कार्यकर्ता अपने-अपने कार्य में जुटे थे।
किसी दल के कार्यकर्ता दूर-दराज़ के एक गाँव में पहुंचे और लोगों को समझाने लगे- 'आप लोग हमारा साथ दीजिये। इसी निशान का बटन दबाइए।
भीड़ में खड़े हुए एक वृद्ध ने निशान को गौर से देखा और कहा- ''का! ये चिह्न वाले बाई ला सरकार हा आत्तेक दिन म् घल्प नौकरी नहीं देइस। ये दे हर त केऊ बेर हमर मेर हाथ-पाँव जोड़े बर आए रहिस।
हमन हमन हर बार ईहीच मा अपन बटन दबा के ओला बोट दे रहें. आज एते फेर अपन चिन्हा ला भेज देइस. आखिर का बात ए. घेरी-बेरी ये हर हमन तीर नौकरी मांगे बर आते? (छतीसगढी)
अर्थात- क्यों भाई! इस चिन्हवाली महिला को सरकार ने इतने दिनों में भी कोई नौकरी नहीं दी? ये तो कई बार मेरे हाथ-पैर पड़ने आ चुकी है। मैंने हर बार इसी को बटन दबा कर मत दिया। आज फिर से इसने अपने चिन्ह भेज दिया। आखिर क्या बात है? ये बार-बार नौकरी मँगाने क्यों आती है?
***************************

सूक्ति कोष: कोवार्ड- कायर प्रो. बी.प. मिश्र 'निआज़' / सलिल

विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं। संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के।


इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ। अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है कि वह प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'


'नियाज़' जी कहते हैं- 'साहित्य उतना ही सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।


प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' । सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-


Coward कायर :

'Cowards die many times before their deaths,

The valient never taste of death but once.


मरण पूर्व ही बार-बार, हैं कायर मरते / शूर एक ही बार, मृत्यु आलिंगन करते।

मरण-पूर्व कायर मरे, जाने कितनी बार।
वीर न जाने mrityu वह, हो शहीद इक बार॥
************************************************