दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
शब्द-यात्रा : चाट -अजित वडनेरकर
पूरने की क्रिया से बनी कचौरी और पूरी ही पानीपूरी में भी समायी है, अलबत्ता पानीपूरी का आकार काफी छोटा होता है। कचौरी और पूरी बने हैं संस्कृत के पूरिका से। यह शब्द बना है पूर् धातु से जिसमें कुछ भरने, समाने और संतुष्टि का भाव है। कचौरी और पूरी दोनों में ही दाल भरी जाती है। यहां पानीपूरी के साथ थोड़ा उलटा मामला है। पानी पूरी को भी पूरा जाता है अर्थात इसमें भी स्टफिंग होती है मगर पकाने से पहले नहीं बल्कि इसे खाने के वक्त। इसकी खास स्टफिंग है पानी। इसे फोड़ कर इसमें पानी भरा जाता है। कुछ उबले आलू-बूंदी का नाम मात्र का मसाला भी साथ में होता है। असल भरावन पानी की होती है जो खट्टा-तीखा, खट्ठा-मीठा या सिर्फ मीठा हो सकता है। इसीलिए इसे पानीपूरी कहा जाता है। पानी पूरी के लिए सबसे मुफीद नाम गोलगप्पा ही है और काफी मशहूर भी।
पानीपूरी, फुलकी या पानी पताशा जैसे नाम इलाकाई पहचान रखते हैं मगर इस स्वादिष्ट खोमचा पक्वान्न के गोलगप्पा नाम को अखिल भारतीय सर्वस्वीकार्यता मिली हुई है। इसकी छोटी छोटी पूरियों के गोल-मटोल आकार की वजह से गोल शब्द तो एकदम सार्थक है। संस्कृत की गुडः धातु का अर्थ होता है पिंड। गोलः शब्द इससे ही बना है जिसका अर्थ होता है गोल, मंडलाकार वस्तु। मगर गप्पा का क्या अर्थ हुआ? आमतौर पर मुंह के रास्ते किसी चीज़ को निगलने के लिए गप् शब्द का प्रयोग होता है। इसे देशज शब्द बता कर इसकी व्युत्पत्ति को अज्ञात खाते में डाला जाता रहा है। मगर ऐसा नहीं है।
गप् शब्द पर गौर करें तो किसी स्वादिष्ट पदार्थ को समूचा या मीठे बताशेऔर ये पानी बताशे…पानी पूरी की छोटी छोटी फुलकियों को हवा से भरी पूरी के अर्थ में बताशा कहना तार्किक है… निवाले में एकबारगी उदरस्थ करने का भाव है। मराठी में एक मुहावरा है ‘गप्प’ यानी एकदम खामोश। हिन्दी में गुपचुप शब्द का जो भाव है वही मराठी के गप्प में है। खामोशी का अर्थ है अस्तित्व का पता न चलना। अस्तित्व का बोध करानेवाला महत्वपूर्ण तत्व ध्वनि है। यह गप्प या गुपचुप दरअसल संस्कृत की गुप् धातु से आ रहा है जिससे ही हिन्दी का गुप्त शब्द बना है जिसका अभिप्राय होता है छुपना, छुपाना, ढकना। पसंदीदा खाद्यपदार्थ को झटपट रसना का स्पर्श कराए बिना सीधे पेट में उतारने की प्रक्रिया पर गौर करें तो पता चलेगा कि किस तरह देखते ही देखते एक स्वाद-लोलुप स्वादिष्ट पदार्थ को ‘गुप्त’ कर देता है। गुप्त से ही बना है गुप शब्द जिसका चुप के साथ मेल होकर गुपचुप जैसा समास बनता है। साफ़ है कि गुप्त के ग़ायबाना अंदाज़ में ही छुपा है गोलगप्पा के गप्पा का राज़। एक स्वादिष्ट गोल पूरी को गप से खा जाने का भाव ही इसमें प्रमुख है। य़ूं भी हिन्दुस्तानी समाज में नाज़नीनों और पर्दानशीनों के गुपचुप गोलगप्पे खाने की अदाओं और तरीकों से कौन वाकिफ नहीं है। गोलगप्पे गुपचुप खाने की चीज़ ही तो हैं!!!
अब आते हैं पानी पताशा पर। यह बना है बताशा शब्द से जिससे सब परिचित है। बताशा एक ऐसी खुश्क मिठाई है जो शकर से बनती है। जॉन प्लैट्स के कोश में बताशा की व्युत्पत्ति वात+आस+कः बताई गई है। स्पष्ट है कि वाताशकः>वाताशअ>वाताशा होते हुए बताशा शब्द बन गया। इसका अर्थ हुआ ऐसा पदार्थ जिसके अंदर वात यानी हवा भरी गई हो। इसे बनाने की प्रक्रिया के तहत इसमें हवा रखी जाती है। बताशा अंदर से खोखला होता है और चारों और शकर की गोल पतली परत होती है। बताशा मुंह में रखते ही घुल जाता है इसलिए बताशा सा घुलना एक मुहावरा भी बन गया है। सबमें जल्दी घुलने-मिलने के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। प्रायः हर भारतीय तीज-त्योहार-पर्व पर भोग सामग्री का महत्वपूर्ण अंग है इसीलिए रोज उत्सवी ठाठ दिखाने वाले लोगों के लिए बताशे फोड़ना जैसा मुहावरा भी चल पड़ा है। इस तरह से पानी पूरी की छोटी छोटी फुलकियों को हवा से भरी पूरी के अर्थ में बताशा कहना तार्किक है। इसके लिए फुलकी शब्द इसीलिए प्रचलित हुआ क्योंकि ये फूली रहती हैं। गोलमटोल फूली हुई रोटी फुलका कहलाती है तो उसका छोटा रूप हुआ फुलकी।
रविवार, 26 अप्रैल 2009
हिन्दी में ब्लॉग लेखन की विधा : संजय बेंगाणी
ब्लॉग को आप अपनी ऑन लाइन डायरी कह सकते है। आपके आसपास की कोई घटना हो या गतिविधि, या कोई दिल को छूने वाली कोई बात, आप अपनी बात किसी कविता के माध्यम से कहना चाहते हों या किसी भी समसामयिक विषय पर अपनी टिप्पणी लिखना चाहते हों, इसके लिए आपको अब अखबारों के संपादक या प्रकाशक की मेहरबानी की ज़रुरत नहीं। आज के दौर में अपनी बात को अपरिचितों से लेकर हजारों-लाखों अनजान लोगों तक पहुँचाने का सस्ता, सुलभ और असरकारी साधन है, आपका चिट्ठा यानी ब्लॉग। समाचारपत्र या पत्रिकाओं में प्रकाशित आपकी बात को कहने को तो बहुत लोग पढ़ते हैं मगर ये पढ़ने वाले वो लोग होते हैं जनको न तो आपसे और न आपके लिखे हुए से कोई लेना-देना होता है, और अगर कोई पाठक आपसे जुड़ना चाहे तो वह आपसे संपर्क भी नहीं कर सकता है। जबकि ब्लॉग पर लिखी गई आपकी बात हमेशा हर समय मौजूद रहती है इसके माध्यम से दुनिया के किसी भी कोने में बैठा कोई भी व्यक्ति आपसे तत्काल संपर्क कर सकता है। अगर आपकी बात किसी को पसंद आ जाए तो आपको उस विषय पर लिखने के लिए प्रस्ताव भी मिल सकता है और आप घर बैठे अपने लिखने का शौक पूरा करते हुए खूब पैसा कमा सकते है। यानी ब्लॉग पर लिखना, लिखने का शौक ही पूरा नहीं करता बल्कि आपके शौक के बदले में कमाई का जरिया भी बन सकता है। अगर आपके मन में लिखते हुए पैसा कमाने के बारे में किसी भी प्रकार की जिज्ञासा, हिचक या अड़चन है तो हमसे तत्काल संपर्क करें, हिन्दी मीडिया आपको ऐसे लोगों से जोड़ने की कोशिश करेंगे जिनको आप जैसे लोगों की जरुरत है।
हिन्दी ब्लॉग का इतिहास
हिन्दी ब्लॉग लेखन का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। पहले पहल ज्ञात हिन्दी ब्लॉग आलोक व विनय द्वारा लिखे गये थे। तब से लेकर अब तक एक लम्बा सफर तय हो चुका है। आज हजारों हिन्दी ब्लॉगर सक्रिय है। तकनीकी समस्याएं भी अब काफी हद तक दूर हो गई है। यूनिकोड ने पहले ही हिन्दी की राह आसान बना दी थी, मगर शुरुआती दौर में हिन्दी लिखने के औजारों से लेकर अनेक समस्याएं थी, जिन्हे हिन्दी को नेट पर एक सम्मानित स्थान दिलाने को कृतसंकल्प तकनीक से सुसज्ज लोगो ने रात दिन एक कर सुलझाया और आज भी 24 घंटे सहायता के लिए उपलब्ध रहते है। हिन्दी ब्लॉगरी के इतिहास के बारे में सरस विवरण जाने-माने हिन्दी ब्लॉगर जितेन्द्र चौधरी के शब्दों में यहाँ पढ़ा जा सकता है। विभिन्न स्थलो पर लिखे जा रहे हिन्दी ब्लॉगो को एक ही स्थान पर अद्यतित होते तथा उनकी कड़ियों को नारद , चिट्ठाजगत तथा ब्लॉगवाणी पर देख सकते है।
ब्लॉग कहाँ लिखे जाते है?
ब्लॉग लेखन के लिए वर्डप्रेस, ब्लॉगर, लाइव जनरल जैसे स्थल मुफ्त सेवा प्रदान करते है। इसके अलावा निजी डोमेन पर भी ब्लॉग लिखे जा रहे है। अब हिन्दी मीडिया ने भी ब्लॉग लेखन की सुविधा प्रदान की है। इसके लिए आपको हिन्दी मीडिया की साइट पर लॉग इन (सत्रारम्भ) करना होगा, फिर "ब्लॉग लिखें" लिंक (कड़ी) पर जा कर आप अपना ब्लॉग लिखना शुरु कर सकते हैं।
जानें ब्लॉग की भाषा
ब्लॉग लेखन की शुरूआत अंग्रेजी में हुई वहीं नेट पर भी अंग्रेजी का अधिपत्य है, ऐसे में ब्लॉग लिखने से संबंधित अधिकांश शब्द अंग्रेजी के ही है, लेकिन ये तकनीकी शब्द हैं और आसानी से समझ में आने वाले हैं। वहीं किसी चीज के लिए पहले से ही उपलब्ध हिन्दी के शब्दों का प्रयोग करने से भी न बचे, क्योंकि हिन्दी का अपना सौन्दर्य है, शैली है। एक ब्लॉगर के रूप में अपने ब्लॉग को आम बोलचाल की सीधी-साधी भाषा में लिखें और तकनीकी शब्दों को बजाय हिन्दी का कोई भौंडा अनुवाद लिखने के उनको मूल अंग्रेजी में ही लिखें।
यहाँ कुछ ऐसे हिन्दी शब्दों की सूची है जो हजारों हिन्दी ब्लॉगर और उनसे कई गुना ज्यादा उनके पाठक भी मजे से उपयोग में ले रहे है, ये वे शब्द है जो आप हिन्दी ब्लॉग लिखते समय ध्यान में रखें तो एक दो दिन में ये परिचित से लगेंगे और अंग्रेजी के बेवजह प्रयोग से भी बच जायेंगे और हमारी हिन्दी भाषा भी विकृत होने से बचेगी।
ARE YOU REALLY AN ENGINEER: Jaddish Jain
* A person with specific identity must know the meaning of that word. For example an engineer must know the meaning of the word Engineer.
* In practice or in common men's language the two words engineer and technocrat appears to be identical, but it is not so.
* Word engineer appears to be derived from word engine=in+gine = इन अर्थात अन्दर जिन अर्थात विजेता, यानि जिसके अन्दर विजेता हो।
* By adding ‘er' it becomes living noun. B.E. means Bachelor of Engineering अर्थात अन्दर की विजेता शक्ति को कार्य मे परिणीत करने वाला स्नातक। a man with most of the below listed qualities must be defined or designated as an engineer. Engineer means a man with:
+Ingenuousness = चतुराई
+Ingenuity = निपुणता
+Freedom = स्वतन्त्र, बन्धन रहित
+Ingenuous = कल्पना शक्ति युक्त
+Frank = स्पष्ट वक्ता, शुद्ध भाव युक्त
+Honorable = सम्माननीय, आदरणीय
+Free from deception = मिथ्या/ प्रपंच रहित
+Genius = प्रतिभाशाली
+Turn of mind = अपूर्व बुद्धि
* He will always be sincere, honest and can not be over ruled by any body else.
* Technocrat or technologist means a tactful man. B.Tech means Bachelor of Technology or in true sense Bachelor of Tactics or Tricks अर्थात तिकड़मबाजी का स्नातक.
+Tactics= व्यूह रचना, तिकड़मबाजी
+Tricks= माया युक्त, प्रपंच युक्त, मायावी
* One can be trained as a technologist but never as an engineer. Engineer is by birth and the qualities are god gifted. Engineer is always a man of constructive attitude.
* Human errors are unavoidable. One can minimize errors by honesty/sincerity. मानवीय त्रुटियां निष्ठापूर्वक कार्य करने से न्यूनतम की जा सकती हैं.
* The only person who does not make mistakes is who does nothing. केवल वही मनुष्य त्रुटि नहीं करता है, जो कुछ नहीं करता है.
* It is easy to find mistakes but to make corrections is a difficult task. त्रुटियां निकालना/इंगित करना कठिन नहीं है, त्रुटियों का निराकरण करना कठिन है.
* It is not enough to make progress. It is more important to make it in the right direction. प्रगति करना ही पर्याप्त नहीं है। प्रगति की दिशा सही होना अधिक महत्वपूर्ण है.
* A technologist is not supposed to remember all the data's; he is supposed to know how a problem is to be tackled.
* An Engineer will always discharge his duties judiciously.
* The judicious man always adopts the path of sincerity which is the path of least time and travel. He learns till death and thus enjoys his life. 2+2=4 is right and one can answer within no time, but if 2+2=4 is not allowed then one can never answer it and his whole life will go to waste.
* Working of an Engineer is always quality based. He always remebers the following lines:
(1)
सुखस्य मूलं धर्मः
धर्मस्य मूलं अर्थः
अर्थस्य मूलं वाणिज्यं
वाणिजस्य मूलं स्वराज्यः
स्वराज्यस्य मूलं चारित्रयं
(2)
`HONESTY'
The person,
Who is patriot?
The person,
Who is honest?
His performance
Will be the best,
Behind him will be
The rest,
Don't need exam.
Don't need any test
Who is honest?
He will be the best.
(3)
`जननी जन्म भूमि'
जन्म भूमि की
माटी का ऋण,
कभी नहीं उतरता है,
जरा उसकी सोचिये,
जो देश के साथ भी
कुकर्म करता है,
ऐसा मनुष्य भले ही
खुशहाल दीखता हो
पर, अन्त समय,
सड़-सड़कर मरता है.
* Correct and character words are complementary. If a man is of character his doing will be correct, whatever he will deliver will be correct.
* Now one can easily check himself whether he is an Engineer or not....? If you are publicly known as an Engineer, please check it whether it is true or not.......?
Coutsey : Hindimedia।in
*********************************
REORGANIZATION of PUBLIC WORKS DEPARTMENTS IN INDIA
User Rating: / 0
PoorBest
MyBlog | Written by THE ROADS | शुक्रवार , 24 अप्रेल 2009
Public works departments in India whether central or states are mainly responsible for roads and buildings.
* Road network is backbone for socioeconomic development of a Nation.
* Healthy is backbone better will be out put. In any country condition of roads and the manners how travelers use them reflects about the whole system of that country.
* It is an indicator of SOBRIETY, DECENCY and PROSPERITY of a Nation.
* Every Government and public man will prefer to have better roads. Better Roads need better construction quality, better maintenance.
`SYSTEM'
In this universe all the happenings are performed under a system. No activity can be performed with out a system, whether it is related to living or non living or both. A system is said to be perfect if desired result is achieved economically i.e. on both the axis time and cost, and this is known as productivity. But if cost factor is not accounted and production is more, then it is production based result and productivity is not achieved.
Basically there are two components i.e. input, in carrying out any work or process and will result into out put. In absolute case these two components must be equal i.e. out must be equal to input, but it is not so. Because of some losses are unavoidable.
Thus if we further divide a system there will be total five components of a system:
`तन्त्र System'
I fact En+M+Ex must be equal to out put `O', but in spite of all care, precautions the three components can not be equal to out put. There will be some losses. These losses may be in terms of materials, labor, tolerance or quality. To minimize these losses on account of quality is known as quality assurance. If a job is carried with uttermost sincerity, honesty then one can achieve stipulated quality.
Here we aimed to discuss the departmental system. For better working the things should be well defined. And for that we need a prefect departmental set up.
The present system of P.W.Ds is out dated. It might be suitable for British who established this department. British were enough honest towards their duty and government. At that time this country was salve. But now a day this is not the position. So it was the primary duty of the government to organize not this but all the department of this country according to the need of an independent country. Not all at one time but step by step. We could not do it and the result is before us.
SMOSEY is a new organization with web site http://www.samoseyindia.com/. The samosey doesn't mean the delicious India dish.
This samosey mean: SOLUTION + MAKING + SAYSTEM (SMS).
And it our National language: स + मो + से = संकट + मोचन + सेवा.
Samosey will give you absolute solution of your problem.
Here we will give a brief for the Reorganization of Sate Public Works Departments
`सारांश'
किसी भी देश की शासन व्यवस्था के अनुसार ही उस देश की प्रशासन-प्रणाली होनी चाहिए अन्यथा देश को दुर्व्यवस्था का सामना करना पड़ता है, राजतन्त्र हो अथवा जनतन्त्र/ प्रजातन्त्र। शासन/ प्रशासन तीन प्रकार का होता हैः- (1) स्वतन्त्र (2) परतन्त्र (3) स्वच्छन्द। इनमें स्वतन्त्र शासन/ प्रशासन प्रणाली श्रेष्ठ एवं यथेष्ठ होती है, जो कि नैतिक जनों की आकांक्षाओं के अनुरूप होती है। स्वतन्त्र प्रणाली में शासन/ प्रशासन, कर्मियों/ जन साधारण के कर्तव्य व अधिकार में सन्तुलन होता है। निष्ठापूर्वक व सत्यवृत्ति से कार्य करने वाले जनों के बाहुल्य से स्वतन्त्र कार्य प्रणाली स्थापित होती है।
वर्तमान में इस देश के अंग्रेजों द्वारा परतन्त्र भारत की व्यवस्था के लिए बनाये गये विभाग व तत्कालीन प्रशासन प्रणाली लागू है। स्वतन्त्र भारत में उस प्रणाली में सुधार के नाम पर ‘मुफ्लिसी के काबः पर पैबन्द सीने (रखने) की तरह' संशोधन किये जाते रहते हैं। वस्तुतः परतन्त्रता की कार्यप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता थी/ है।
इस लेख में स्वतन्त्रता के अनुरूप व्यवस्था के मौलिक विचारों को लिपिबद्ध किया गया है। और इसके लिए सर्वप्रथम ‘लोक निर्माण विभाग' को चुना गया है। इसी Outline पर अन्य विभागों का भी पुनर्गठन किया जा सकता है। इस पुनर्गठन लेख का उद्देश्य प्रतिभाजनों को, देश की प्रशासनिक व्यवस्था के विषय में सोचकर, राष्ट्रहित का एक समाधान सोचने के लिए प्रोत्साहित करना है. जिससे कि वर्तमान में व्याप्त बुराईयों का निराकरण होकर, अच्छाई का सूत्रपात हो, और इस देश को हो रही दुर्गति से उबारा जा सके।
विषय सूची
1.0 प्राक्कथन
2.0 लोक निर्माण विभाग, अतीत व वर्तमान पर एक दृष्टि
3.0 कार्य प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता
4.0 परिवर्तन की रूपरेखा
5.0 विभिन्न पदों का वेतनमान व कार्य ढांचे में विवरण
5.1 तकनीकी पदों का विवरण व वेतनमान
5.2 लेखा वर्ग के पदों का विवरण
5.3 लिपिक वर्ग के पदों का विवरण
5.4 कम्प्यूटर प्रोग्रामर, भूमि अध्याप्ति, रेखाकार व मानचित्रकार आदि के पदों का विवरण
5.5 मार्गों व भवनों के निर्माण व अनुरक्षण के अन्तर्गत पदों का विवरण
5.6 कार्य ढांचे में कार्यालय व पदों का विवरण
6.0 नियुक्ति, पदोन्नति व अर्हता
6.1 (अ) नियुक्ति की प्रणाली
6.1 (ब) पदोन्नति की प्रणाली
6.2 अन्य पदों हेतु
7.0 वेतनमानों का ढ़ाँचा
7.1 तकनीकी पदों के वेतनमान
क- पदोन्नति वेतनमान
ख- क्रमशः वेतनमान
7.2 अन्य पदों हेतु वेतनमान
8.0 सेवाओं की प्रकार
9.0 कार्य दिवस व अवकाश
10.0 अनवरत शिक्षा-दीक्षा व अध्यापन
10.1 शिक्षा दीक्षा का उद्देश्य
10.2 शिक्षा दीक्षा के विषय
अ- तकनीकी पदधारियों हेतु
ब- अन्य कर्मियों हेतु
11.0 शोध व आविष्कार
12.0 डिजाइन, अन्वेषण व टैस्टिंग कार्य
13.0 अन्य महत्वपूर्ण बिन्द
13.1 स्वेच्छा से सेवा निवृत्ति
13.2 यात्रा भत्ता
13.3 राजकीय आवास
13.4 स्थानान्तरण
13.5 अधिष्ठान व्यय
14.0 कार्य सम्पादन सम्बन्धित व्यवस्थायें
14.1 शैडयूल आफ रेट का परिवद्र्दन
14.2 निविदाओं पर निर्णय
14.3 वित्तीय अधिकार
14.4 मार्गों/भवनों से होने वाली आय
14.5 मार्ग व यात्री
14.6 मार्ग/भवनों के अनुरक्षण हेतु श्रमिक दल
14.7 मशीनें
(1) जीप/स्टाफ कार
(2) वाहन खरीदने हेतु ऋण
(3) ट्रक व रोलर
(4) मिक्सर व वाईब्रेटर
14.8 कार्यालयों की स्टेशनरी, अन्य साज सज्जा व टेलीफोन आदि मद
14.9 अपव्यय
15.0 मार्गों पर अतिक्रमण यातायात नियंत्रण आदि के सम्बन्ध में
16.0 सम्पादित कार्यों की मापों को अंकित करना
1. उप इंजीनियर (Sub Engineer)
2. इकाई अभियन्ता (Unit Engineer)
3. उपमण्डल अधिकारी (Sub Divisional Officer)
17.0 सम्पादित कार्यों व सेवा का मूल्यांकन
18.0 कार्य प्रणाली को लागू करना
19.0 उपसंहार
20.0 साभार
REFERENCES
1.0 प्राक्कथन
जीवन में जड़ता की तुलना में गति/ परिवर्तन श्रेष्ठ होता है। लम्बे समय का ठहराव जीवन को नीरस बना देता है। एक ही व्यवस्था/ कार्य प्रणाली लम्बे समय तक यथावत बनी रहने पर चरमराने लगती है। ठीक उसी तरह जैसे उपयोगितावधि (Service life) पूरी हो जाने पर वाहन का उपयोग भी मितव्ययी (Economical) नहीं रह जाता है। इस प्रकार वाहन और कार्य प्रणाली दोनों ही समय से पूर्व खटारा हो जाती है। और तदन्तर अनुपयोगी व दुखःदायी हो जाती हैं। अधिकांश विभागों/ कार्य प्रणाली का सृजन अंग्रेजों ने परतन्त्र भारत के दोहन/ शोषण के लिए किया था। अंग्रेजों की बनायी वह प्रणाली स्वतन्त्र भारत के लिए अनुपयोगी थी, और हैं। इस देश को स्वतन्त्र भारत के अनुरूप प्रशासनिक/ अन्य विभागों के ढ़ाचों व तदानुसार ही उनकी कार्य प्रणाली की आवश्यकता थी. किन्तु ऐसा न हो सका, और ‘मुफ्लिसी‘ के काबः पर पैबन्द लगाने‘ की तरह परतन्त्रता की कार्य प्रणाली पर असंगत संशोधन के पैबन्द लगाते रहे/ रहते हैं।
परतन्त्र भारत के एक जनपद की प्रशासनिक व्यवस्था हेतु अंग्रेजों ने मुख्य रूप से जिलाधीश (Collector means a man who is responsible to collect the revenue) पुलिस अधीक्षक/ कप्तान व जिला जज (District Judge) तीन अधिकारियों की व्यवस्था की थी। अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य लगान वसूल करने (To collect the revenue), इस कार्य में व्यवधान डालने वालों को दंडित करने, स्वतन्त्रता के लिए प्रयासरत आजादी के अमर सैनानियों को हतोत्साहित करने, अर्थात लाठियों से पिटवाने, गोली मरवाने, जेल में डालने, फाँसी दिलवाने का था। इसलिए अंग्रेजों ने परतन्त्र भारत की प्रशासनिक व्यवस्था, अन्य विभागों की व्यवस्था अपने इस शोषण व दोहन के स्वार्थ को ध्यान में रखकर की थी। इन तीनों पदों पर उन्होंने अंग्रेज व अंग्रेजियत कृत भारतीयों को नियुक्त किया था। और इस प्रकार वें लम्बे समय तक भारत को परतन्त्र बनाये रखने में सफल रहे। अंग्रेजों द्वारा सृजित इस व्यवस्था को स्वतन्त्र देश की प्रशासनिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं कहा जा सकता है। और इसमें क्या बुराईयाँ हैं, इसके लिए इस स्वतन्त्र देश की वर्तमान दुर्दशा इसका जीता-जागता साक्ष्य/ उदाहरण है। प्रशासन की तरह ही अन्य विभागों की व्यवस्था है। यहाँ सभी विभागों की प्रशासनिक व्यवस्था, कार्य प्रणाली का विवेचन एक साथ इस लेख में संभव नहीं है। यहाँ केवल लोक निर्माण विभाग को लक्ष्य कर विवेचना की गई है और उसे स्वतन्त्र देश के अनुरूप करने के सुझाव उपाय प्रस्तुत किये गये हैं। अन्य विभागों के लिये भी सुझाव दिये जा सकते हैं।
`Apconsultants' is an integral part of samoseyindia.com and have a team of dedicated Engineers, Transport Planner, and Environmental Engineer and GIS Expert. All the experts are from reputed Institutes of India as IIT and SPA.
1. Chief Engineer 1 IItian with 38 Years of Experience
2. Superintending Engineer 1 IItian with 42 Years of Experience
3. Chief Architect 1 IItian with 11 Years of Experience
4. Executive Engineers 2 IItian with 35 Years of Experience
5. Transport Planner & GIS Expert 1 SPA
6. Environmental Engineer 1 SPA
7. Assistant Engineer 1 With > 40 Years of Experience
8. Assistant Engineer (E/M) 1 With > 40 Years of Experience
9. Junior Engineer 1 With > 40 Years of Experience
10. Lab Assistant(A-Grade) 1 With > 40 Years of Experience
We are in a position to turn of any problem related to Transportation/ Highways and Buildings, and are confident for our excellent Quality Audit System.
If any body, any Government in this country is interested to know more they can contact on:
Email: samoseyindia@gmail.com, courtsey: hindi media
ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं
तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं
काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं
अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं
जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं
लेख : भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र, 'सलिल'
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम्
समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है. वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं. वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम. सनातन भारतीय शिल्प विज्ञानं के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञानं का उद्देश्य है.
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिए ऐसा घर बनते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है ज्ब्म्क अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं. मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं.
एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है. यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि. हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है.
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है. उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पश्चिम-वायव्य दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), पूर्व-आग्नेय, उत्तर-वायव्य तथा दक्षिण दिशा से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए. यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है.
* भवन के मुख्या प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची मद्य mans आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो.
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है.
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो.
* वायव्य दिशा में कुंवारी कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो. इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है.
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए. मानव शरीर एक चुम्बक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है. मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएं आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी. फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं. सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है. पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है.
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है.
* शयन तथा भंडार कक्ष सेट हुए न हों.
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं.
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह ऐसा की पूजा करनेवाले का मुंह पूर्व दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम की ओर रहे. बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है. पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें.
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे. चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें. रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों. रसोई में अलमारियां दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान में रखें.
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. deevaron का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो. युद्ध, हिंसक जानवरों, शोइकर, दुर्घटना या एनी भयानक दृश्यों के चित्र न हों. अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों.
* सीढियां दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों. सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो.
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है, दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है.
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय में हों.
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान पूव्र या उत्तर में, सेप्टिक टंकी, उत्तर या पूर्व में हो.
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो. यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो.
* घर के पश्चिम में ऊंची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है.
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों. तहखाना ईशान, या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो. सूर्य किरंनें तहखाने तक पहुंचना चाहिए.
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो.
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है.
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है. नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः
आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह.
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन - धन्यादी का लाभ प्राप्त करता है.
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम / सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
Book Review: Showers to the Bowers : Poetry full of emotions- 'Salil'
Showers to the Bowers : Poetry full of emotions
(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )
Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.
The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'
'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.
According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'
Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.
Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'
In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.
.....................................................................................
Contact Acharya Sanjiv Verma 'Salil', email : salil.sanjiv@gmail.com / blog: sanjivsalil.blogspot.com
शब्द यात्रा : मार्कोपोलो -अजित वडनेरकर
निरंतर सैन्य अभियानों में व्यस्त रहने वाले मंगोल सैनिकों की एक बानगी भर पेश करता है उपरोक्त वाक्य। वेनिस के इतिहास प्रसिद्ध यात्री ''मार्कोपोलो'' के यात्रा अनुभवों पर आधारित पुस्तक का ये अंश है और किताब बहुत रोचक है। ये पुस्तक 13वी सदी में मार्कोपोलो और उसके पिता की वेनिस से पीकींग तक की यात्रा का वर्णन करती है। मार्कोपोलो की पुस्तक का मूलपाठ मौले और पेलियट का अनुवाद है। इस पुस्तक के लेखक मॉरिस कॉलिस हैं और अनुवादक उदयकांत पाठक हैं। इसे सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में पोलो की चारित्रिक विशेषताओं को बताने के लिए यद्यपि काफी जानकारी नहीं है पर कम से कम उसकी बुद्धि की झलक तो मिल ही जाती है। वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं था और उसकी पुस्तक की शैली में कुछ भी अनोखा या कलात्मक सा नहीं है मगर जो है, वह बांधे रखता है।
मार्कोपोलो की इस यात्रा का प्रारंभ 1271 में सत्रह वर्ष की उम्र में होता है। वेनिस से शुरू हुई उसकी यात्रा में वह कुस्तुन्तुनिया से वोल्गा तट, वहां से सीरिया, फारस, कराकोरम, कराकोरम से उत्तर की ओर बुखारा से होते हुए मध्य एशिया में स्टेपी के मैदानी से गुज़रकर पीकिंग पहुंचता है, जहां उसके पिता और चाचा कुबलाई खां के दरबार में अधिकारी हैं। इस पूरी यात्रा में साढ़े तीन वर्ष लग जाते हैं और इस अवधि में वह मंगोल भाषा सीख लेता है। पीकिंग में उसकी नियुक्ति मंगोल साम्राज्य की सिविल सेवा में हो जाती है। ऊपर की रूपरेखा में वर्णित सभी प्रदेश मंगोल साम्राज्य के अंतर्गत आते थे, जिसकी स्थापना 1206 में चंगेज खां ने मंगोल कबीलों की विकराल फौज की मदद से की थी। 1260 तक मंगोलों का उस समय ज्ञात विश्व के चार बटे पांच हिस्से पर अधिकार था, जिसकी सीमा चीन से लेकर जर्मनी तक और साइबेरिया से लेकर फारस तक थी। पोलो सिल्कमार्ग से होकर पीकिंग पहुंचता है और पंद्रह वर्ष तक वहां रहते हुए खाकान की निष्ठापूर्वक सेवा करता है और फिर यूरोप लौट जाता है।
इन पंद्रह वर्षों में वह एक बड़ा अधिकारी बन जाता है। वह कुबलाई खां के प्रतिनिधि के रूप में श्रीलंका, फारस, भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों की की यात्रा करता है और यहां रहने वाले लोगों का वर्णन करता है। वह अंडमान निकोबार के आदिवासियों के बारे में भी बताता है और बर्मा के पैगोडा और श्रीलंका के बौद्ध मंदिरों की भी प्रशंसा करता है। 1295 में पोलो फिर वेनिस पहुंचता है और एक व्यापारिक युद्ध में जिनोआ(एक राज्य, कोलम्बस भी यहीं का निवासी था) द्वारा बंदी बना लिया जाता है, ... बुखारा में पोलो परिवार... जहां क़ैद में रहते हुए उसकी मुलाकात रस्तिशेलो नाम के व्यक्ति से होती है जो उसके एशिया के अनुभवों को कलमबद्ध करता है। यह पुस्तक उस काल के यूरोपियनों के लिए समझ से बाहर की चीज़ थी और उन्होंने एशिया की ज़्यादातर बातों पर यकीन करना काफी मुश्किल पाया। पोलो के मरते समय उसके कुछ मित्रों ने उसे पुस्तक में संशोधन करने के लिए कहा, लेकिन पोलो ने इनकार करते हुए कहा कि उसने जो देखा उसका आधा भी नहीं लिखा। उसकी पुस्तक जनसाधारण द्वारा समझी नहीं गई थी और विद्वानों ने उसे पसंद नहीं किया क्योंकि वे उसे उस समय के ज्ञान से संबंधित करने में असफल रहे थे। पोलो जब मरा तब वह सत्तर वर्ष का था और काफी धनी हो चुका था।
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
गज़ल : स्व. नादाँ इलाहाबादी
इसलिए पेशेनजर अदना सी ये सौगात है..
***********************************************
होश मस्तों को है सागर का न पैमाने का.
फ़ैज़े-साकी से अजब रंग है मैखाने का..
अब उसे गम नहीं कुछ बज़्म में जल जाने का.
नाम तो शम'अ से रोशन रहा परवाने का..
अब तो मैं होश में भूले नहीं आने का.
अपने मुझको लकब दे दिया दीवाने का..
तालिबे-इश्क़ हूँ मज़हब से मुझे क्या मतलब?
मैं हूँ पाबन्द न काबे का न बुतखाने का..
मैं वो मैकश हूँ जहाँ शीश-ओ-सागर देखे.
आँख में खिंच गया नक्शा वहीं मैखाने का..
हो गयी पूरी तमन्ना तो मज़ा क्या 'नादाँ'.
ज़िन्दगी नाम है अरमां पे मिट जाने का..
****************************************
हिंदी के हित में ‘करो या मरो’
हिंदी के हित में ‘करो या मरो’
सु-समृद्ध संस्कृत की आत्मज – हिंदी की भारतीय जनमानस की वाणी के रूप में गौरवशाली परंपरा रही है । इसी कारण स्वतंत्र भारत के संविधान हिंदी के लिए उचित दर्जा मिला है । हिंदी बोलने, जानने वालों की आबादी के आधार पर भले ही उसके विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर होने के दावे पेश हो रहे हो, किंतु ‘विश्व भाषा’ के रूप में आज तक अपेक्षित मान्यता उसे नहीं मिल पाई है । ऐसी मान्यता दिलाने के लिए तथाकथित हिंदी-प्रेमियों द्वारा मांग किया जाना तथा मान्यता दिलाने की कोशिशें शुरू करने की घोषणाएँ सुनाई पड़ना सुखद समाचार है । ये मांगे भी अपनी जगह सही हैं, किंतु देश में हिंदी की समग्र स्थिति पर चिंतन एवं आत्ममंथन ज़रूरी है ।
हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने का जो प्रयास किया जो प्रयास किया जा रहा है, वह एक अर्थहीन पहल साबित हो रहा है । दरअसल भारत के भाल के बिंदी बनने से वंचित हिंदी को विश्व भाषा की संज्ञा देना ही कहीं अटपटा-सा लगता है । संविधान की मूल भावना को समझने, तदनुरूप अग्रसर होने से मुँह मोड़कर महज ‘हिंदी-प्रेम’ के आलाप में हम रुचि लेते रहे हैं । संवैधानिक दायित्व की पूर्ति महज आंकड़ों का मायाजाल साबित हो रहा है । शिक्षा, संचार, प्रशासन, विधि, चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि कई क्षेत्रों में निष्ठा पूर्वक हिंदी की प्रयोग वृद्धि के लिए अनुकूल शासकीय निर्णय लेना इन दिनों संभव होने की स्थिति नज़र नहीं आ रही है । हाँ, ऐसे एकाध निर्णय लिए भी गए हैं, जो या तो लंबित पड़े हैं या ‘धीरे धीरे रे मना.... ’ के अनुसरण में फँस गए हैं । जैसे कि स्पष्ट किया जा चुका है, यह कोई राज़ की बात नहीं है, सर्व विधित अराजकता है ।
लगता है कि तथाकथित हिंदी-प्रेम की उन्मत्तता से भी नेत्रोन्मीलन संभव नहीं हो पाया है । हिंदी संबंधी हमारी मानसिकता के संकुचित दायरों, संवैधानिक दायित्व-बोध से वंचित शासनिक क़दमों के कारण हिंदी की स्थिति आज बहुत ही नाज़ुक है । भूमंडलीकरण, निजीकरण, कंप्यूटरीकरण आदि हिंदी की गति की बुरी ढंग से प्रभावित करनेवाली घटनाएं साबित हो रही हैं ।
दुर्भाग्य से व्यवहार में भारतीय समाज की अधिमानित भाषा भी अंग्रेज़ी ही है । यहाँ किसी भी प्रकार की नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी में प्रमाणपत्र की ज़रूरत पड़ेगा । पग-पग पर अंग्रज़ी ज्ञान की अपेक्षा करना, सामाजिक स्तर एवं सत्कार के लिए अंग्रेज़ी मोह - - ये सब आज की अनिवार्यताएँ साबित हो रही हैं । भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र अंग्रेज़ी का राज है, ऐसे में हम हिंदी को अंतर राष्ट्रीय मान्यता दिलाने के लिए लालायित हो रहे हैं । यह एक विडंबना है । हिंदी के समक्ष ऐसी कई विडंबनाएँ हैं । हिंदी रोजी-रोटी के साथ एक संकुचित अर्थ में जुड़ी है । संवैधानिक मान्यता मिलने के बावजूद ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित साहित्य हिंदी में आज तक उपलब्ध न हो पाने के बहाने हिंदी उच्च शिक्षा का माध्यम बनने से वंचित है । प्रचार से कतरानेवाली संस्थाओं को हिंदी प्रचार के नाम पर बड़ी मात्रा में अनुदान की राशियाँ मिल रहीं हैं, शायद इसी कारण हिंदी की अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं हो रही हैं । हिंदी से कोई सरोकार न रखनेवाले आज हिंदी साम्राज्य के पदाधिकारी बन बैठे हैं । संवैधानिक अपेक्षाओं की खुलेआम की अवहेलना हो रही है ।
इधर एक आशा की किरण भी फूट रही है । आगामी जून, 2003 में सुरीनाम में सप्तम् विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित करने की तैयारियाँ शुरू हो चुकी हैं, जिसका विचाराधीन मुख्य विषय है – ‘विश्व हिंदी : नई शताब्दी की चुनौतियाँ’ । विगत विश्व हिंदी सम्मेलनों के संदर्भ में अध्ययन से यह बात स्पष्ट होती है कि ऐसे सम्मेलनों के बहाने बढ़ रहे भावावेश के अनुपात में हिंदी का हितवर्धन नहीं हो पा रहा है । अंग्रेज़ी का गढ़ ब्रिटेन साम्राज्य की राजधानी लंदन में संपन्न छठे विश्व हिंदी सम्मेलन का पटाक्षेप हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने की दिशा में प्रयास शुरू करने के निष्कर्ष के साथ हुआ था । लंदन में संपन्न सम्मेलन की तमाम विसंगतियों के संदर्भ में कई गण्य-मान्य हिंदी हितचिंतकों की आलोचनाओं से बचने की दिशा में अवश्य चिंतन करेंगे, ऐसी आशा है । स्वाधीनता प्राप्ति की आधी सदी के बाद भी भाषाई उपनिवेशवाद के शिकार होनेवाले भारत को हिंदीमय बनाने के लिए अपेक्षित भावभूमि तैयार करने की ओर सम्मेलन का ध्यान जाएगा तो अवश्य ही सम्मेलन की प्रासंगिकता बढ़ेगी ।
मौजूदा वास्तविकता को देखते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि भारतीय मानसिकता व्यवहार के धरातल पर आज काफ़ी हद तक पराई भाषा के पक्ष में है । देश में अंग्रेज़ी के हित में काफ़ी कुछ किया जा रहा है । अब अंग्रेज़ी के विरुद्ध करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु हिंदी के हित में कार्य करने से वंचित रहने से बढ़कर कोई बड़ा ढोंग नहीं रह जाएगा । हिंदी के हित में ‘करो या मरो’ यही मूल भावना मनसा-वाचा-कर्मणा हिंदी के लिए हितवर्धक है ।
हिंदी का हितचिंतन : डा. सी. जय शंकर बाबु
हिंदी के विकास के लिए कई आयामों पर चिंतन के साथ-साथ पूरी निष्ठा के साथ हमें प्रयास करने की आवश्यकता है । देश में आज हिंदी की दुस्थिति को लेकर व्यथित एवं व्यग्र होकर संघर्षपूर्ण स्वर में कोसनेवालों की श्रेणी एक ओर, हिंदी को विश्वभाषा साबित करने की, संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता दिलाने की मांग करनेवालों की श्रेणी दूसरी ओर है । बीच का रास्ता अपनाकर हिंदी के हितवर्धन हेतु अपने स्तर पर योग्य कार्य करनेवाले चंद हितैषी भी हैं । इन सबकी गति से सौ गुना अधिक तेजी से भारत में अंग्रेज़ी के दायरों का विस्तार होता जा रहा है । हिंदी की गति तभी बढ़ेगी जब हम जिम्मेदार एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का ध्यान आकर्षित करने में सक्रिय रहेंगे तथा कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें बाध्य करेंगे । भारतीय संविधान की मूल संकल्पना के अनुसार हिंदी को उचित दर्जा दिलाने हेतु उचित दिशा में संघर्ष करना आज हमारा कर्तव्य है ।
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्थिति के संदर्भ में भी हमें तुरंत सचेत होने की बड़ी आवश्यकता है । एक विडंबना है कि हम जानबूझकर कंप्यूटर में जिन चालन प्रणालियों (आपरेटिंग सिस्टम) को अपना चुके हैं उनका आधार अंग्रेज़ी भाषा है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणालियों से युक्त कंप्यूटर उपलब्ध कराने के लिए हमने उत्पादकों को बाध्य नहीं किया है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के परिप्रेक्ष्य में राजभाषा नीति के उल्लंघन का यह मूलबिंदु है ।
यहाँ एक और तथ्य पर हमें गौर करने की आवश्यकता है कि कंप्यूटर चालन प्रणालियों में आज सहजतः विश्वभर में मानक अंग्रेज़ी का एक फांट (अक्षर रूप) मिल जाता है । अंग्रेज़ी के अन्य फांट साफ्टवेयर के साथ इसका आदान-प्रदान (परिवर्तनीयता एवं पठनीयता) भी संभव है । हिंदी भाषा आधारित चालन प्रणाली का अभाव तो है ही, मानक हिंदी फांट भी आज कहीं उपलब्ध नहीं हैं जैसे कि अंग्रेज़ी में उबलब्ध हैं । आज भारतीय बाज़ार में हिंदी के कई साफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनका प्रचार राजभाषा विभाग के तकनीकी कक्ष की ओर से भी किया जा रहा है । किंतु मानक फांट साफ्टवेयर के अभाव में हिंदी के हित से बढ़कर अहित ही अधिक हो रहा है । हिंदी जिस देश की राजभाषा है वहाँ हिंदी साफ्टवेयर खरीदना पड़ रहा है जब कि अंग्रेज़ी जहाँ की राजभाषा भी नहीं, वहाँ भी मानक अंग्रेज़ी फांट निःशुल्क उपलब्ध हो रहा है । सरकार को चाहिए कि वह एक मानक हिंदी साफ्टवेयर को विकसित कराएँ जिससे कहीं परिवर्तनीयता अथवा पठनीयता की समस्या उत्पन्न न हो । हिंदी के हित में यह आवश्यक है कि विश्वभर में एक मानक फांट साफ्टवेयर निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान रखें । हिंदी के विकास के मार्ग अपने आप खुलने की दिशा में यह भी एक अपेक्षित कदम है । समस्त हिंदी प्रेमी इक दिशा में सरकार को बाध्य करने के लिए आज ही सक्रिय हो जावें
अश'आर : दोस्त -सलिल
दुश्मनी में न फिर कसर छोडी.
ए 'सलिल'! दिल को कर मजबूत ले.
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए.
शिकवा न दुश्मनों से मुझको रहा 'सलिल'.
हैरत है दोस्तों ने ही प्यार से मारा..
संबंधों के अनुबंधों में प्रतिबंधों की.
दम टूटी, जब मिला दोस्त सच्चा कोई भी..
जिस्म दो इक जां रहे जो.
दोस्त उनको जानिए.
दोस्त ने दोस्त से न कुछ चाहा.
हुई चाहत तो दोस्ती न रही.
*********************************
सूक्ति कोष: प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
सूक्ति कोष
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।
संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
appearance आकृति:
one may smile and smile and be a villain.'
अधरों पर मुस्कान ह्रदय में पाप भरा है. / ऐसे कुटिलों से पूरित यह वसुंधरा है.
दोहानुवाद : मनमोहक मुस्कान पर, ज़हर ह्रदय में खूब.
कुटिलों से बचिए 'सलिल', नाव जायेगी डूब..
All that glitters is not gold, Gilded tombs do worms unfold.'
प्रत्येक चमक का आधार स्वर्ण नहीं है. स्वर्ण समाधि के खुलने पर भी कीटाणु ही मिलते हैं.
दोहानुवाद : जगमग-जगमग जो करे. कनक न उसको मान.
कनक-मकबरे में 'सलिल', मिले कीट-कृमि-खान..
************************************************
शब्द-यात्रा: चुनाव - अजित वडनेरकर
प्रजातंत्र में वोट vote का बड़ा महत्व है। कोई भी निर्वाचित सरकार वोट अर्थात मत के जरिये चुनी जाती है। यह शब्द अंग्रेजी का है जो बीते कई दशकों से इतनी बार इस देश की जनता ने सुना है कि अब यह हिन्दी में रच-बस चुका है जिसका मतलब है मतपत्र के जरिये अपनी पसंद या इच्छा जताना। चुनाव के संदर्भ में मत और मतदान शब्दों का प्रयोग सिर्फ संचार माध्यमों में ही पढ़ने-सुनने को मिलता है वर्ना आम बोलचाल में लोग मतदान के लिए वोटिंग और मत के लिए वोट शब्द का प्रयोग सहजता से करते हैं। वोटर के लिए मतदाता शब्द हिन्दी में प्रचलित है। वोट यूं लैटिन मूल का शब्द है मगर हिन्दुस्तान में इसकी आमद अंग्रेजी के जरिये हुई। लैटिन में वोट का रूप है वोटम votum जिसका अर्थ है प्रार्थना, इच्छा, निष्ठा, वचन, समर्पण आदि। भाषा विज्ञानी इसे प्रोटो इंडो-यूरोपीय भाषा परिवार का शब्द मानते हैं। अंग्रेजी का वाऊ vow इसी श्रंखला का शब्द है जिसका मतलब होता है प्रार्थना, समर्पण और निष्ठा के साथ अपनी बात कहना। वोटिंग करने में दरअसल यही भाव प्रमुखता से उभरता है।
जब आप सरकार बनाने की प्रक्रिया के तहत अपने जनप्रतिनिधि के पक्ष में मत डालते हैं तब निष्ठा और समर्पण के साथ ही अपना मंतव्य प्रकट कर रहे होते हैं। इसी श्रंखला में वैदिक वाङमय में भी वघत जैसा शब्द मिलता है जिसका मतलब होता है किसी मन्तव्य की आकाक्षा में खुद को समर्पित करनेवाला। लैटिन के वोटम से ही बने डिवोटी devotee शब्द पर ध्यान दें। इसमें वहीं भाव है जो वैदिक शब्द वघत में आ रहा है अर्थात समर्पित, निष्ठावान आदि। डिवोशन इसी सिलसिले की कड़ी है। ये तमाम शब्द प्राचीन समाज की धार्मिक आचार संहिताओं से निकले हैं और अपनी आकांक्षाओं, इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के प्रति समर्पण व निष्ठा की ओर संकेत करते हैं। यह शब्दावली प्राचीनकाल के धर्मों, पंथों के प्रति उसके अनुयायियों के समर्पण व त्याग की अभिव्यक्ति के लिए थी। आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ में देखे तो ये बातें सीधे सीधे पार्टी या दल ... प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है।... विशेष से जुड़ रही हैं क्योंकि अधिकांश प्रत्याशियों की छवि या तो ठीक नहीं होती या आम लोग उससे सीधे सीधे परिचित नहीं होते। प्रत्याशियों के चरित्र को देख कर वोटर से समर्पण की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जो वोटिंग का मूलभूत उद्धेश्य है। शायद राजनीतिक दलों को इन शब्दों के शास्त्रीय अर्थ पहले से पता होंगे इसीलिए वे हमेशा वोटर से निष्ठा की उम्मीद करते हैं।
संस्कृत-हिन्दी के मत शब्द का मतलब होता है सोचा हुआ, सुचिंतित, समझा हुआ, अभिप्रेत, अनुमोदित, इच्छित, राय, विचार, सम्मति, सलाह आदि। यह संस्कृत धातु मन् से निकला है जिसका अर्थ होता है जिसमें चिन्तन, विचार, समझ, कामना, अभिलाषा जैसे भाव हैं। आदि। वोटिंग के लिए मतदान शब्द इससे ही बनाया गया है। प्राचीन भारत में भी गणराज्य थे। वोटिंग से मिलती जुलती प्रणाली तब भी थी अलबत्ता शासन व्यवस्था के लिए वोटिंग नहीं होती थी बल्कि किन्ही मुद्दों पर निर्णय के लिए मतगणना होती थी। मतपत्र के स्थान पर तब शलाकाएं अर्थात लोहे की छोटी छड़ियां होती थीं। गण की विद्वत मंडली जिसे हम कैबिनेट कह सकते हैं, मुद्दे के पक्ष, विपक्ष के लिए दो अलग अलग शलाकाएं सभा में पदर्शित करती थीं। उनकी गणना की जाती थी। जिस रंग की शलाकाओं की संख्य़ा अधिक होती वही फैसले का आधार होता। मतपत्र, मतदान, मतदानकेंद्र, मतगणना, मताधिकार, सहमत, असहमत जैसे शब्द इसी मूल से बने हैं। बुद्धि-विवेक के लिए मति शब्द भी इसी श्रंखला की कड़ी है जिसका अभिप्राय समझ, ज्ञान, जानकारी,। मत अर्थात राय में सोच-विचार, चिन्तन-मनन का भाव समाया हुआ है। मगर यह चिन्तन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हर चरण से तिरोहित हो चुका है। पार्टियों में आंतरिक स्तर पर प्रत्याशियों के चयन में चिन्तन का आधार जीत-हार होता है, न कि प्रत्याशी की छवि, विकास के जनकल्याण के लिए संघर्ष करने का माद्दा।
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
सूक्ति कोष प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' / 'सलिल'
सूक्ति कोष
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़'
विश्व वाणी हिन्दी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद तथा चिन्तक नियाज़ जी द्वारा इस स्तम्भ में विविध आंग्ल साहित्यकारों के साहित्य का मंथन कर प्राप्त सूक्ति रत्न पाठको को भेंट किए जा रहे हैं।
संस्कृत में कहा गया है- 'कोषस्तु महीपानाम् कोशाश्च विदुषामपि' अर्थात कोष या तो राजाओं के पास होता है या विद्वानों के.
इन सूक्तियों के हिन्दी अनुवाद मूल की तरह प्रभावी हैं। डॉ. अम्बाशंकर नागर के अनुसार 'अनुवाद के लिए कहा जाता है की वन प्रामाणिक होता है तो सुंदर नहीं होता, और सुंदर होता है तो प्रामाणिक नहीं होता किंतु मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि इन सूक्तियों का अनुवाद प्रामाणिक भी है और सुंदर भी।'
जी कहते हैं- 'साहित्य उतना hee सनातन है जितना कि मानव, देश और काल की सीमायें उसे बाँध नहीं सकतीं। उसके सत्य में एक ऐसी सत्ता के दर्शन होते हैं जिससे अभिभूत होकर न जाने कितने युग-द्रष्टाओं ने अमर स्वरों में उसका गान किया है।
..प्रांजल विचार संचरण के बिना श्रेष्ठ नव साहित्य का निर्माण असंभव है।' आंग्ल साहित्य के कुछ श्रेष्ठ रचनाकारों के साहित्य का मंथन कर नियाज़ जी ने प्राप्त सूक्ति रत्न बटोरे हैं जिन्हें वे पाठकों के साथ साँझा कर रहे हैं। सूक्तियों का हिन्दी काव्यानुवाद कर रहे हैं आचार्य संजीव 'सलिल' ।
सूक्तियाँ शेक्सपिअर के साहित्य से-
adversity विपत्ति:
'Sweet are the uses of adversity.' विपत्ति का फल मधुर होता है.
'Let me embrace thee, sour adversity,, For wise men say it is the wisest course.'
ओ दारुण दुर्भाग्य! आ, मैं तेरा आलिंगन करुँ क्योंकि विद्वानों के अनुसार यही मार्ग श्रेयस्कर है.
दोहानुवाद : आ, हँस आलिंगन करुँ, ओ मेरे दुर्भाग्य.
फल विपत्ति का हो मधुर, 'सलिल' बने सौभाग्य.
************************************************
लघुकथा : बुद्धिजीवी --लतीफ़ घोंघी
मैंने एक मित्र से पूछा- 'सांप्रदायिक सद्भावना बढ़ाने में आपकी क्या भूमिका रहेगी?'नमन नर्मदा : कृष्ण गोप, मंडला.
मध्य प्रान्त की जीवन रेखा, विस्तृत नेहिल नीर नर्मदा॥
उर्वर मिट्टी रच कछार में, सब्जी-फल भर देती है।

मछुआरों को मछली देती, हरती तट की पीर नर्मदा॥
फसल सम्पदा बाँट रहा है अमृत जल जीवनकारी।
मेकल का मस्तक ऊंचा है, अंचल की जागीर नर्मदा॥
बस्ती के मकान जुड़ने को, बालू के भंडार विपुल।
मंदी-मस्जिद गढ़ हैं, स्वयं सजाती तीर नर्मदा॥
सुर सरिता के हरे-भरे तट, आशाओं के पोषक हैं।
कोई किनारा कैसे छोड, हर मन की जंजीर नर्मदा॥
गंगा की मैया कहलाती, पापनाशिनी वरदानी।
दर्शन से ही पुण्यदायिनी, देखें नयन अधीर नर्मदा॥

हर महानता उद्गम क्षण में, होती लघुतम बीजाकार।
एक विहंगम नदी कपिल धारा तक क्षीण लकीर नर्मदा॥
विविध स्वरुप अमरकंटक से सिन्धु तीर सौराष्ट्र तलक।
कहीं चपल चंचलता कल-कल, कहीं गहन गंभीर नर्मदा॥
पूर्वमुखी सारी नदियों से, अलग कहानी कहती है।
पूरब से पश्चिम को बहती, अद्भुत एक नजीर नर्मदा॥
नश्वर है शरीर माटी का, अजर अमर आत्मा सबकी।
साक्षी है बनने-मिटने की, अमर-धार अशरीर नर्मदा॥
*****************************************
एक शे'र : इन्तिज़ार - आचार्य संजीव 'सलिल'
जवां बेवा सी घड़ी इन्तिज़ार की है 'सलिल'॥
-दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
-संजिव्सलिल.ब्लागस्पाट.कॉम
शब्द यात्रा : अजित वडनेरकर - पूरी-कचौडी
होती है जबकि पूरी या पूरिका से अभिप्राय ऐसे खाद्य पदार्थ से ही है जो भरावन से बनाया गया है। पूरी बनाने के लिए आटे या मैदे की लोई में गढ़ा बनाया जाता है और फिर उसे मसाले से पूरा जाता है। यही है पूरना। इस तरह पूरने की क्रिया से बनती है कचौरियांतैयार कचौरीप्याज कचौरीपूरी। रोटी और पूरी में एक फर्क और है वह यह कि रोटी को तवे पर सेंका जाता है जबकि पूरी को पकाने की क्रिया तेल में सम्पन्न होती है अर्थात उसे तला जाता है। सामान्य तौर पर जो पूरियां बनाई जाती हैं उन्हें सादी पूरी कहना ज्यादा सही होगा। पूरियां कई प्रकार की होती हैं मगर उन सभी में आमतौर पर उड़द की दाल का ही भरावन होता है। आटे में पालक, बथुआ या मेथी गूंथकर भी पूरियां बनाई जाती है। नाश्ते में कचौरी भी लोकप्रिय हैं। बेहद लोकप्रिय और लज़ीज़ कचौरियां भी कई प्रकार की होती हैं और इसकी रिश्तेदारी भी पूरी से ही है। कचौरी शब्द बना है कच+पूरिका से। क्रम कुछ यूं रहा- कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं। संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को उमेठ कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया।
मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत आने वाले सीहोर में आज भी मोदक के आकार की ही लौंग के स्वाद वाली कचौरियां बनती हैं जो इसके कचपूरिका नाम को सार्थक करती हैं। एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार तमिल भाषा में दाल को कच कहते हैं इस तरह कच+पूरिका से बनी कचौरी। वैसे देखा जाए तो तमिल में दाल के लिए अगर कच शब्द है तो दक्षिण भारत में भी कचौरी बहुत लोकप्रिय होनी चाहिए, मगर इसे हम उत्तर भारतीय पदार्थ के रूप में ही जानते हैं। दूसरी बात यह कि पूरिका शब्द में स्वयं ही भरावन का भाव आ रहा है और सामान्यतः उत्तर भारत में घरों में बननेवाली पूरियां भी दाल के बहुत हल्के भरावन से ही बनती है जिन्हें कचौरी भी कहते हैं। कचौरी मूलतः उड़द की दाल की भरावन से ही बनती है मगर छिलका मूंग और धुली मूंगदाल से भी ज़ायकेदार कचौरियां बनती हैं। सावन के मौसम में मालवा में हींग की सुवास वाली भुट्टे की कचौरियां लाजवाब होती हैं। कचौरी और पूरी में एक फर्क यह भी है कि पूरी को बेला जाता है जबकि कचोरी को बेला नहीं जाता बल्कि लोई में मसाला भर कर उसे हाथ से आकार दिया जाता है। कचौरी के आकार को अगर देखें तो यह पूरी की ही तरह से फूली हुई होती है अलबत्ता इनका आकार अलग अलग होता है तथा कचोरी के मैदे में खूब मोहन डाला जाता है ताकि यह खस्ता बन सके। कचौरियां जितनी खस्ता होंगी उतनी ही ज़ायकेदार होती हैं। उत्तर भारत में जोधपुर की प्याज की कचौरी, कोटा की हींग वाली कचौरी और समूचे अवध क्षेत्र की उड़द दाल की कचोरियां मशहूर हैं।
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
एक कुण्डली : आचार्य संजीव 'सलिल'
पाकर-देकर प्यार सब जग बनता रस-खान
जग बनता रस-खान, नेह-नर्मदा नाता.
बन अपूर्ण से पूर्ण, नया संसार बसाता.
नित्य 'सलिल' कविराय, प्यार का ही गुण गाता.
खुद को जाये भूल, प्यार को भुला न पाता.