दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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रविवार, 29 मार्च 2009
निशानी
जयसिंह अल्वरी
कल के लिए
हम पास तुम्हारे
कोई निशानी छोडेंगे।
पल-पल तुम
जगाओ-मुस्काओ
दर्द तुम्हारे ओढेंगे।
रहें, न रहें
लेकिन दिल को
दिल से गहरे जोडेंगे।
दिल में दीपक
जले प्यार का
सब दीवारें तोडेंगे।
हर सीने में याद फफकती
आज नहीएँ,
कल छोडेंगे।
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शनिवार, 28 मार्च 2009
डॉ. श्यामानंद सरस्वती 'रौशन' के श्रेष्ठ दोहे
ज्यों गुलाब में रूप-रस। गंध और मकरंद॥
चार चाँद देगा लगा दोहों में लालित्य।
जिसमें कुछ लालित्य है, अमर वही साहित्य॥
दोहे में मात्रा गिरे, यह भारी अपराध।
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध॥
चलते-चलते ही मिला, मुझको यह मंतव्य।
गन्ता भी हूँ मैं स्वयं, और स्वयं गंतव्य॥
टूट रहे हैं आजकल, उसके बने मकान।
खंडित-खंडित हो गए, क्या दिल क्या इन्सान॥
जितनी छोटी बात हो, उतना अधिक प्रभाव।
ले जाती उस पार है, ज्यों छोटी सी नाव॥
कैसा है गणतंत्र यह, कैसा है संयोग?
हंस यहाँ भूखा मरे, काग उडावे भोग॥
बहरों के इस गाव में क्या चुप्पी, क्या शोर।
ज्यों अंधों के गाव में, क्या रजनी, क्या भोर॥
जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ।
उसकी बेटी के मगर, हुए न पीले हाथ॥
तेरे अजग विचार हैं, मेरे अलग विचार।
तू फैलता जा घृणा, मैं बाँटूंगा प्यार॥
शुद्ध कहाँ परिणाम हो, साधन अगर अशुद्ध।
साधन रखते शुद्ध जो, जानो उन्हें प्रबुद्ध॥
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009
लघुकथा ; वह गरीब है ना... -- अवनीश तिवारी, मुम्बई
भाषा सेतु -- संजीव 'सलिल' : भगवत प्रसाद मिश्रा 'निआज़'

दिया
आचार्य संजीव 'सलिल'
ज़िंदगी भर
तिल-तिलकर जला,
फ़िर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
न शिकवा,
न गिला।
लबों को रखा सिला।
जितनी क्षमता
उतना तिमिर पिया।
अपनी नहीं
औरों की खातिर जिया।
अंधेरे के विष का
नीलकंठ बन पान किया।
इसलिए,
बस इसलिए ही
मरकर भी अम्र हो गया
मिट्टी का दिया।
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अंगरेजी काव्यानुवाद-
प्रो भागवत प्रसाद मिश्रा 'निआज़'
अहमदाबाद
LAMP
Throughout the life
itburn itself
bit by bit
yet it never
felt sorry,
No complaint
stayed light-lipped,
drank the darkness
as much as it could,
lived not for itself
but for others,
drank the poison of darkness
like 'shiva'
but distributed light
to all the sundry.
It is for this reason-
this only,
that the mortal earthen lamp
became immortal.।
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गुरुवार, 26 मार्च 2009
खरीदे से नहीं मिलते,बड़े अनमोल हैं रिश्ते v.r.shrivastava
शबनमी अहसास हैं रिश्ते
निभें तो सात जन्मों का,
अटल विश्वास हैं रिश्ते
जिस बरतन में रख्खा हो,
वैसी शक्ल ले पानी
कुछ ऐसा ही,
प्यार का अहसास हैं रिश्ते
कभी सिंदूर चुटकी भर,
कहीं बस काँच की चूड़ी
किसी रिश्ते में धागे सूत के,
इक इकरार हैं रिश्ते
कभी बेवजह रूठें,
कभी खुद ही मना भी लें
नया ही रंग हैं हर बार ,
प्यार का मनुहार हैं रिश्ते
अदालत में
बहुत तोड़ो,
कानूनी दाँव पेंचों से लेकिन
पुरानी
याद के झकोरों में, बसा संसार हैं रिश्ते
किसी को चोट पहुँचे तो ,
किसी को दर्द होता है
लगीं हैं जान की बाजी,
बचाने को महज रिश्ते
हमीं को हम ज्यादा तुम,
समझती हो मेरी हमदम
तुम्हीं बंधन तुम्हीं मुक्ती,
अजब विस्तार हैं रिश्ते
रिश्ते दिल का दर्पण हैं ,
बिना शर्तों समर्पण हैं
खरीदे से नहीं मिलते,
बड़े अनमोल हैं रिश्ते
जो
टूटे तो बिखर जाते हैं,
फूलों के परागों से
पँखुरी पँखुरी सहेजे गये,
सतत व्यवहार हैं रिश्ते
--विवेक रंजन श्रीवास्तव
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
कुण्डली : हार न मानो --संजीव 'सलिल'
हर दीपक के तले है, अँधियारा भरपूर।
अँधियारा भरपूर मगर उजियारे की जय।
बाद अमावस के फिर सूरज ऊगे निर्भय।
हार न मानो, लडो, कहे चाचा की चिठिया।
जय पा अत्याचार मिटाओ, प्यारी बिटिया।
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लोकतंत्र में लोक ही, होता जिम्मेवार।
वही बनाता देश की भली-बुरी सरकार।
छोटे-छोटे स्वार्थ हित, जब तोडे कानून।
तभी समझ लो कर रहा, आजादी का खून।
भारत माँ को पूजकर, हुआ न पूरा फ़र्ज़।
प्रकृति माँ को स्वच्छ रख, तब उतरे कुछ क़र्ज़।
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ग़ज़ल
तू न होकर भी यहीं है मुझको सच समझा गई ।
ओ मेरी माँ! बनके बेटी, फिर से जीने आ गई ।।
रात भर तम् से लड़ा, जब टूटने को दम हुई।
दिए के बुझने से पहले, धूप आकर छा गई ।।
नींव के पत्थर का जब, उपहास कलशों ने किया।
ज़मीं काँपी असलियत सबको समझ में आ गई ।।
सिंह-कुल-कुलवंत कवि कविता करे तो जग कहे।
दिल पे बीती आ जुबां पर ज़माने पर छा गई
बनाती कंकर को शंकर नित निनादित नर्मदा।
ज्यों की त्यों धर दे चदरिया 'सलिल' को सिखला गई ।।
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दोहे
जो सबको हितकर वही, होता है साहित्य।
कालजयी होता अमर, जैसे हो आदित्य.
सबको हितकर सीख दे, कविता पाठक धन्य।
बडभागी हैं कलम-कवि, कविता सत्य अनन्य।
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बुधवार, 25 मार्च 2009
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव का रचना संसार
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
समाचार: सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ एंकर अलका सक्सेना, ज़ी न्यूज़ --ग्लैमरस महिला एंकर श्वेता सिंह, आजतक

ज़ी न्यूज़ की अलका सक्सेना सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ एंकर
आजतक की श्वेता सिंह सबसे ग्लैमरस महिला एंकर-मीडिया खबर, मार्च, २००९
हिंदी के समाचार चैनलों में कार्यरत महिलाओं को केंद्र में रखकर मीडिया खबर.कॉम ने अपने प्रिंट पार्टनर मीडिया मंत्र (मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका) के साथ मिलकर पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वे करवाया। सर्वश्रेष्ठ महिला एंकर और सबसे ग्लैमरस एंकर के अलावा कुल १२ सवाल सर्वे में पूछे गए। यह सर्वे १५ फरवरी से ६ मार्च के बीच हुआ।
सर्वे के प्रति लोगों ने काफी रूचि दिखाई और कुल ४१२५ लोगों ने सर्वे में भाग लिया। सर्वे में मीडिया और पत्रकारिता से जुड़े लोगों ने भी भाग लिया और इनकी संख्या ६५० के करीब रही। इन्हें व्यक्तिगत स्तर पर मीडिया का ऑनलाइन सर्वे फॉर्म भेजा गया। सर्वे में कुछ सवाल सिर्फ पत्रकारों के लिए थे मसलन महिलाओं के लिए किस चैनल का माहौल सबसे अच्छा है?
प्रक्रिया ऐसी थी कि एक बार मत देने के बाद उसी कंप्यूटर या आईपी एड्रेस से दुबारा वोट नहीं किया जा सके । १२ घंटे के बाद ही वोट कर चुका व्यक्ति दुबारा वोट कर सकता था।
ऑनलाइन सर्वे में सर्वश्रेष्ठ महिला न्यूज़ एंकर के लिए सबसे ज्यादा वोट जी न्यूज़ की कंसल्टिंग एडिटर अल्का सक्सेना को मिला। कुल २५.९८% लोगों ने उनके पक्ष में मतदान किया। एनडीटीवी की निधि कुलपति कुछ प्रतिशत के अंतर से दूसरे स्थान पर पिछड़ गयीं। उन्हें २३.०६% मत मिले। तीसरे स्थान पर एनडीटीवी की नगमा सेहर को ९.५०% मत मिले।
दूसरी तरफ न्यूज़ चैनलों की सबसे ग्लैमरस महिला एंकर के लिए मुख्य प्रतिस्पर्धा एनडीटीवी की अफसां अंजुम और आजतक की श्वेता सिंह के रही। इन दोनों को खेल पत्रकरिता में विशेषज्ञता हासिल है। प्रतिस्पर्धा के बाद चंद वोटों के फासले से आजतक की श्वेता सिंह को २२.९५% मत मिले जबकि अफसां अंजुम को २२.०७ % मत मिले। इन दोनों को सर्वश्रेष्ठ महिला न्यूज़ एंकर वाले श्रेणी में प्रथम दस में भी जगह मिली। तीसरा स्थान एनडीटीवी की अमृता राय को मिला। उनके पक्ष में ८% लोगों ने मतदान किया। चौथे , पांचवें और छठवें स्थान पर नगमा सेहर, सिक्ता देव और अंजना कश्यप रही। विविध चैनलों में काम करने वाली कुल ३५ महिला एंकरों के नाम सर्वे के दौरान वोटिंग में हिस्सा लेने वाले लोगों ने सुझाये और अपनी पसंद के विकल्प में उनका नाम देने के साथ-साथ उनके पक्ष में वोट भी किया।
सर्वे का पूरा परिणाम इस तरह से रहा :
क्रम एंकर चैनल प्रतिशत
३ नगमा सेहर एनडीटीवी इंडिया ९.५०%
४ अफसां अंजुम एनडीटीवी इंडिया ७.५० %
५ ऋचा अनिरुद्ध आईबीएन-७ ७ .००%
६ श्वेता सिंह आजतक ६ .००%
२. हिन्दी न्यूज चैनल की सबसे ग्लैमरस एंकर आप किसे मानते हैं?
४. नगमा सेहर एनडीटीवी इंडिया ७.५० %
५. सिक्ता देव एनडीटीवी इंडिया ७.००%
६. अंजना कश्यप न्यूज़ २४ ६ .०० %
8.
राधिका कौशिक
स्टार न्यूज़
3.00%
9.
शीतल राजपूत
जी न्यूज़
2.50%
10.
अदिति सावंत
स्टार न्यूज़
1.98%
3. आमतौर पर न्यूज चैनलों में स्त्रियों के चयन का आधार होता है..
अपीयरेंस
44.72%
खबरों की समझ
6.50%
लिखने और बोलने की क्षमता
25.20%
स्वयं स्त्री होना
18.70%
अन्य
4.88%
कुछ प्रतिक्रियाएं :@सुंदरता के अलावा चयन का कोई और आधार नहीं होता. @चयन का कोई आधार ही नहीं होता. @चयन का आधार खुबसूरत होना और दिमाग से गायब होना @बस महिला होना ही काफी है. @चयन के बहुत सारे आधार होते हैं.
@पुरुष पत्रकारों के लिए चयन की जो प्रक्रिया अपनाई जाती है वही प्रक्रिया महिला पत्रकार के चयन में भी अपनाई जाती है.
4. किसी भी चैनल में सबसे ज्यादा महिला पत्रकार किस काम पर लगाए जाते हैं-.
एकरिंग औऱ रिपोर्टिंग
84.55%
स्क्रिप्ट राइटिंग
1.63%
एडीटिंग,इन्जस्टिंग और एसाइन्मेंट
8.94%
तकनीकी
0.81%
अन्य
4.07%
5. चैनल की ब्रांड इमेज में महिला पत्रकारों का योगदान किस स्तर पर माना जाता है
अपीयरेंस
65.85%
रिपोर्टिंग
15.45%
रिवन्यू जेनरेटिंग और मार्केटिंग
12.20%
मैनेजमेंट
1.63%
अन्य
4.87%
6. मौजूदा हालत में स्त्री पत्रकारों की समस्या है-
सुरक्षा के स्तर पर
24.39%
शिफ्ट और वर्किंग आवर के स्तर पर
37.40%
एडजस्मेंट के स्तर पर
14.63%
जेंड़र भेदभाव के स्तर पर
19.51%
अन्य
4.07 %
7. स्त्रियों का मीडिया के प्रति बढ़ते रुझान की वजह है-
ग्लैमर और स्टेटस
73.98%
बदलाव की इच्छा
3.25%
चैलेजिंग प्रोफेशन
15.45%
सामाजिक भागीदारी
6.50%
अन्य
0.82%
8. ज्यादातर महिला पत्रकार किस फील्ड की रिपोर्टिंग पसंद करती है..
फिल्म,मनोरंजन और फैशन
89.43%
स्पोर्ट्स
0.81%
क्राइम और सोशल इश्यू
3.25%
बिजनेस और फाइनेंस
2.44%
अन्य
4.07%
9. महिला पत्रकारों के लिहाज से किस चैनल का महौल सबसे बेहतर है-
एनडीटीवी इंडिया
46.34%
आजतक
8.13%
न्यूज 24
9.76%
जी न्यूज
8.94%
सहारा
9.76%
स्टार न्यूज़
1.63%
अन्य
13.64%
10. चैनल की स्त्रियों से समाज में सबसे ज्यादा प्रसार होता है-
ग्लैमर का
37.40%
महिला जागरुकता और आत्मविश्वास का
44.72%
सामाजिक बराबरी का
8.94%
जिम्मेदारी का
6.50%
महिलाओं में टीवी पर आने का
2.44%
11. महिला एंकरों से ऑडिएंस के जुड़ने की वजह होती है-
खबरों की प्रस्तुति का अंदाज और आवाज
30.08%
प्रजेंस ऑफ माइंड और बोल्डनेस
10.57%
ग्लैमरस लुक
43.90%
फैमिलियर एप्रोच
13.01%
ग्लैमरस लुक और खबरों की प्रस्तुति का अंदाज़
0.81%
जेंडर आकर्षण
0.81%
अन्य
0.82%
12. टीवी पत्रकार के तौर पर ज्यादातर स्त्रियां अपने को किस रुप में देखना पसंद करती हैं-
एंकर
87.80%
रिपोर्टर
5.69%
प्रोड्यूसर
2.44%
स्क्रिप्ट राइटर
1.63%
अन्य
2.34 %
प्रतिक्रिया :एंकर रिपोर्टर प्रोड्यूसर स्क्रिप्ट राइटर मुझे लगता है....कि इनके अलावा प्रबंधन में भी शामिल किया जाए .
चपला , चंचला ,द्रुतगामिनी , विद्युत ,को हमने आसमान से धरती पर क्या उतारा बिजली ने इंसान की समूची जीवन शैली ही बदल दी
vivek ranjan shrivastava
बिजली के प्रकाश में रातें भी दिन मेँ परिर्वतित सी हो गई हैं . सोते जागते , रात दिन , प्रत्यक्छ या परोक्छ , हम सब आज बिजली पर आश्रित हैं . प्रकाश , ऊर्जा ,शीतलीकरण, गति, मशीनों के लिये ईंधन ,प्रत्येक कार्य के लिये एक बटन सबाते ही ,बिजली अपना रूप बदलकर तुरंत आपकी सेवा में हाजिर हो जाती है . प्रति व्यक्ति बिजली की खपत विकास का मापदण्ड बन गया है . यदि आज कुछ शत प्रतिशत शुद्ध है तो वह बिजली ही है . वर्तमान उपभोक्ता प्रधान युग में अभी भी यदि कुछ मोनोपाली सप्लाई मार्केट में है तो वह भी बिजली ही है . बिजली की मांग ज्यादा और उपलब्धता कम है . बिजली को बडे व्यवसायिक स्तर पर भण्डारण करके नहीं रखा जा सकता . इसका उत्पादन व उपभोग साथ साथ ही होता है . शाम के समय जब सारे देश में एक साथ प्रकाश के लिये बिजली का उपयोग बढ़ता है , मांग व आपूर्ति का अंतर सबसे ज्यादा हो जाता है . तब पनबिजली का उत्पादन ,जिसे त्वरित रूप से बढ़ाया घटाया जा सकता है , उसे बढ़ाकर उपभोक्ताओं की सेवा में, इस अंतर को कम करने के लिये विद्युत कर्मी जुटे रहते हैं . आज समय की मांग है कि सामाजिक संस्थायें जनजागरण कर ऐसा वातावरण बनायें कि हममें से जिन लोगों के पास जनरेटर , इनवर्टर आदि विद्युत उपकरण हैं वे शाम के पीकिंग अवर्स में बिना हानि लाभ की गणना किये उनका पूरा उपयोग करें . इस समय हम सबको न्यूनतम विद्युत उपकरणों का प्रयोग करना चाहिये . बूंद बूंद से ही घट भरता है .बिजली बिल जमा करने मात्र से हम इसके दुरुपयोग करने के अधिकारी नहीं बन जाते , क्योंकि अब तक बिजली की दरें सब्सिडी आधारित हैं . हमारे देश में बिजली का उत्पादन मुख्य रूप से ताप विद्युत गृहों से होता है, जिनमें कोयले को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ,और कोयले के भण्डार सीमित हैं . बिजली उत्पादन का दूसरा बडा तरीका बांध बनाकर , जल संग्रहण कर पानी की स्थितिज ऊर्जा को विद्युत में बदलना है .परमाणु विद्युत , अपारम्परिक ऊर्जा स्त्रोतों जैसे सौर्य ऊर्जा , विंड पावर, टाइडल पावर आदि से भी व्यवसायिक विद्युत के उत्पादन के व्यापक प्रयास हो रहे हैं . राजनैतिक कारणों से बिना दूरदर्शी दृष्तटकोण अपनाये १९९० के दशक में कुछ राजनेताओं ने खुले हाथों मुफ्त बिजली बांटी . इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक समूची पीढ़ी को मुफ्त विद्युत उपयोग की आदत पड गई है . लोग बिजली को हवा , पानी की तरह ही मुफ्त का माल समझने लगे हैं . विद्युत प्रणाली के साथ बुफे डिनर सा मनमाना व्यवहार होने लगा है . जिसे जब जहाँ जरूरत हुई स्वयं ही लंगर ,हुक ,आंकडा डालकर तार जोड कर लोग अपना काम निकालने में माहिर हो गये हैं . खेतों में पम्प , थ्रेशर गावों में घरों में उजाले के लिये , सामाजिक , धार्मिक आयोजनों , निर्माण कार्यों के लिये अवैधानिक कनेक्शन से विद्युत के उपयोग को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है . ऐसा करने में लोगों को अपराध बोध नहीं होता . यह दुखद स्थिति है . बिजली घर से उपयोग स्थल तक बिजली के सफर में यह स्टेप अप ट्रांसफारमर , अतिउच्चदाब बिजली की लाइनों , उपकेंद्रों में स्टेप डाउन होते हुये निम्नदाब बिजली लाइनों पर सवार होकर आप तक पहुँचती है . नये परिदृश्य में देश के बिजली बोर्डों को उत्पादन ,पारेषण , व वितरण कम्पनियों में विखण्डित कर बेहतर बिजली व्यवस्था बनाने के प्रयास जारी हैं . हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार बिजली केंद्र व राज्य की संयुक्त व्यवस्था का विषय है . विद्युत प्रदाय अधिनियम १९१० व १९४८ को एकीकृत कर संशोधित करते हुये वर्ष २००३ में एक नया कानून विद्युत अधिनियम के रूप में लागू किया गया है . इसके पीछे आधार भूत सोच बिजली कम्पनियों को ज्यादा जबाबदेह , उपभोक्ता उन्मुखी , स्पर्धात्मक बनाकर , वैश्विक वित्त संस्थाओं से ॠण लेकर बिजली के छेत्र में निवेश बढ़ाना है . रोटी ,कपडा व मकान जिस तरह जीवन के लिये आधारभूत आवश्यकतायें हैं , उसी तरह बिजली , पानी ,व संचार अर्थात सडक व कम्युनिकेशन देश के औद्योगिक विकास की मूलभूत इंफ्रास्ट्रक्चरल जरूरतें है . इन तीनों में भी बिजली की उपलब्धता आज सबसे महत्व पूर्ण है . उत्पादन के स्तर से उपभोग तक तकनीकी दछता ५० प्रतिशत है , इसका मतलब एक यूनिट बिजली चोरी रोक पाने का अर्थ २ यूनिट बिजली का उत्पादन है . नये विद्युत अधिनियम के अनुसार विद्युत नियामक आयोग राज्य स्तर पर विद्युत उपभोग की दरें तय कर रहे हैं . ये दरें शुद्ध व्यवसायिक आकलन पर आधारित न होकर कृषि , घरेलू , व्यवसायिक , औद्योगिक आदि अलग अलग उपभोक्ता वर्गों हेतु विभिन्न नीतियों के आधार पर तय की जाती हैं . विद्युत उत्पादन हेतु प्रकृतिदत्त कोयले के भण्डार तेजी से प्रयुक्त हो रहे हैं , ताप विद्युत गृह से होता प्रदूषण , या पनबिजली के लिये बनाये गये बांधों से जंगलों के डूबने से पर्यावरण को जो अपूरणीय छति हो रही है , उसके चलते बिजली का दुरुपयोग सामाजिक अपराध निरूपित किया जा सकता है . ऐसी स्थिति में बिजली चोरी कितना संगीन अपराध है , यह समझना बहुत सरल है . बिजली के मुफ्त उपयोग को बढ़ावा देकर , दी गई सुविधायें वापस लेने के नियम तो सरकारों ने बिजली व्यवस्था के सुधार हेतु बना दिये हैं पर अब तक बिजली चोरी के विरूद्ध कोई बडा जन शिक्छा अभियान किसी ने नहीं चलाया है . सर्व शिक्छा अभियान , पल्स पोलियो , आयोडीन नमक , एड्स , परिवार नियोजन , भूजल संवर्धन आदि राष्टीय कार्यक्रमों के लिये व्यापक जन जागरण , रैली , विग्यापन , भाषण , लेख , फिल्म आदि द्वारा जनचेतना जगाने के प्रयास हम सब ने देखे हैं . इनका महत्व निर्विवाद है . वर्तमान परिदृश्य में अनिवार्य आवश्यकता है कि बिजली चोरी के विरुद्ध भी गांव गांव , शहर शहर , स्कूल कालेज , समाज के प्रत्येक स्तर पर बृहद आयोजन हों . आम आदमी के मन में बिजली चोरी को एक सामाजिक अपराध के रूप में प्रतिष्ठित किया जावे . इस कार्य के लिये गैर शासकीय सामाजिक संस्थाओं की भागीदारी भी तय की जानी चाहिये . केवल कानून बना देने से , और उसके सीधे इस्तेमाल से बिजली चोरी की विकराल समस्या हल नहीं हो सकती . कानूनी रूप से तो भीख मांगना भी अपराध है पर स्वयं न्यायालयों के सामने ही भिखारियों को सहजता से देखा जा सकता है . हमारे जैसे लोकतांत्रिक जन कल्याणी देश में वही कानून प्रभावी हो सकता है जिसे जन समर्थन प्राप्त हो . आंध्रप्रदेश के मुख्य मंत्री चँद्रबाबू नायडु ने ढ़ृड इच्छा शक्ति से बिजली चोरी के विरूद्ध देश में सर्व प्रथम कशे कदम उठाये पर इससे किंचित बिजली चोरी भले ही रुकी हो पर उन्हें सत्ता गंवानी पडी . मध्य प्रदेश सहित प्रायः राज्यों में विद्युत वितरण कम्पनियों ने विद्युत अधिनियम २००३ की धारा १३५ के अंर्तगत बिजली चोरी के अपराध कायम करने के लिये उडनदस्तों का गठन किया है . पर विभिन्न शासकीय सीमाओं के चलते , इन दलों में विशेष बिजली चोरी रोकने के विशेषग्यों की नई भर्ती की अपेछा कम्पनी में ही अन्य कार्यों में कार्यरत कर्मचारियों का उपयोग किया जा रहा है .किसी और कार्य में दछ कर्मचारियों से , बेमन से , विवशता में उडनदस्ता कार्य करवाये जाने से अनुकूल परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं .बिजली चोरी पर जन शिछा के अभाव में इन उडनदस्तों को जगह जगह नागरिकों के गहन प्रतिरोध का सामना करना पड रहा है .मारपीट , गाली गलौच , झूठे आरोप एक आम समस्या है . बिजली चोरी के खिलाफ जन जागरण से बिजली चोरी करते हुये भी लोग एक दूसरे से वैसे ही डरेंगे जैसे अन्य किसी चोरी के प्रति उनमें अपराध भाव होता है . ऐसा सामाजिक वातावरण बन जाने पर लोग बिजली चोरी करने वाले को हिकारत की दृष्टि से देखेंगे . तब बिजली चोरी रोकने में लगे अमले को जन सहयोग मिल सकेगा . बिजली देश के विकास की सतत प्रवाही ऊर्जा है . बिजली लिंग , जाति , धर्म , राज्य , प्रत्येक कुत्सित सीमा से परे सबके प्रति समदर्शी है . इसका मितव्ययी , विवेक पूर्ण , सदुपयोग समय की जरूरत है . आइये बिजली चोरी के विरूद्ध जनजागरण में अपना योगदान दें . बच्चों के पाठ्यक्रम में इस विषय पर सामग्री शामिल की जानी चाहिये . अशासकीय समाजसेवी संस्थायें बिजली को अपना विषय बनायें . केंद्र व राज्यों की उत्पादन ,पारेषण ,वितरण से जुडी सभी संस्थायें , ब्यूरो आफ इनर्जी एफिसियेंशी आदि संस्थान बिजली चोरी के विरुद्ध ठोस ,रचनात्मक ,जागरूखता अभियान मीडिया के माध्यम से प्रारंभ करें . पहले लोगों को बिजली चोरी कानून की पूरी जानकारी दी जाये , तभी उसके परिपालन की प्रभावी कार्यवाही हो सकती है . इंजी. विवेक रंजन श्रीवास्तव
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
मंगलवार, 24 मार्च 2009
किसने मेरी नींदें चुराईं
प्रदीप पाठक
किसने मेरी नींदें चुराईं,
किसने मुझे व्यथा सुनाई,
वो लोरी के बहाने आई -
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.
शिकार पर तो हम गए थे उसके,
साकार हुए थे सपने, हताश हुए थे जिसके,
वो ग़ज़ल में शेर के बहाने
आई,लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.
हरे जख्मों को दफना दिया था हमने,
बर्बादी में भी सुकून दिखा दिया था हमने,
वो आंगन में मुस्कराहट के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.
समंदर के मांझियों ने किनारा दिखा दिया था,
सूरज ने भी चंदा को छुपा दिया था,
वो सावन में बरखा के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.
बेटे के कद को पिता ने ऊँचा पाया,
माँ ने भी उठ कर तिलक चंदन लगाया,
वो जवानी में नाकामी के बहाने आई,
लो फ़िर मौत दबे पाओं आई.
कब तक यूँ सेहेमता रहूँगा मैं,
कब तक रोज़ मरता रहूँगा मैं,
जाने कब ज़िन्दगी मेरे गर्व को सहारा देगी,
न जाने कब मौत को हरा सकूँगा मैं
***************
* POETRY
mehak
Today on the road
While I was passing by
Saw u there
Thro corner of my eye
Since long we r not in touch
My fault I had forgoten u as such
Now all emotions,
Overwhelmed inside
Logging into old memories
Seeing u beside
Remembered ur cold touch
And ur kiss on my lips
Loved the way u drooled on my neck
And sometimes u on my nose tips
Couldn't control myself
To feel the same u again
So am near there u
Please come in my hands
The feel is so good
With u this world I forgot
Together we make good seen
Love always being with u
Ohh my delicious icecream.
***********************
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव।
सस्ता हुआ नमक का भाव।
मंझधारों-भंवरों को पार
किया किनारे डूबी नाव।
सौ चूहे खाने के बाद
सत्य-अहिंसा का है चाव।
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव।
ठण्ड भगाई नेता ने
जला झोपडी, बना अलाव।
डाकू तस्कर चोर खड़े
मतदाता क्या करे चुनाव?
नेता रावण, जन सीता
कैसे होगा सलिल निभाव?
*******
जबलपुर में पीपल के एक पुरातन वृक्ष को विस्थापित कर पुनः रोपने का अद्भुत सफल प्रयोग हुआ
विस्थापन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ. सी ..६ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.
फोन ०७६१ २६६२०५२ ,
सदा साथ ०९४२५८०६२५२
vivek1959@yahoo.co.in
बाबा कस्बे की शान हैं . वे उनके जमाने के कस्बे के पहले ग्रेजुएट हैं . बाबा ने आजादी के आंदोलन का जमाना जिया है , उनके पास गाँधी जी और सुभाष बाबू की कस्बे की यात्राओं के आंखों देखे हाल के कथानक हैं . बाबा ने कस्बे के कच्चे मकानों को दोमंजिला पक्की इमारतों में बदलते और धूल भरी गलियों को पक्की सीमेंटेड सड़कों में परिवर्तित होते देखा है.पूरा कस्बा ही जैसे बाबा का अपना परिवार है . स्कूल में निबंध प्रतियोगिता हो या कस्बे के किसी युवा को बाहर पढ़ने या नौकरी पर जाना हो , किसी की शादी तय हो रही हो या कोई पारिवारिक विवाद हो , बाबा हर मसले पर निस्वार्थ भाव से सबकी सुनते हैं , अपनेपन से मश्विरा देते हैं . वे अपने हर परिचित की बराबरी से चिंता करते हैं . उन्होंने दुनियां देखी है , वे जैसे चलते फिरते इनसाइक्लोपीडिया हैं . समय के साथ समन्वय बाबा की विषेशता है . वे हर पीढ़ी के साथ ऐसे घुल मिल जाते हैं मानो उनके समवयस्क हों . शायद इसी लिये बाबा "बाबा " हैं .
बाबा का एक ही बेटा है और एक ही नातिन अनु, जो उनकी हर पल की साथिन है . अनु के बचपन में बाबा स्वयं को फिर से जीते हुये लगते हैं . वे और अनु एक दूसरे को बेहद बेहद प्यार करते हैं .शायद अनु के बाबा बनने के बाद से ही वे कस्बे में हर एक के बाबा बन गये हैं . बाबा स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक हैं . बाबा को घर के सामने चौराहे के किनारे लगे बरगद से बहुत लगाव है . लगता है बरगद बाबा का समकालीन है . बरगद और बाबा अनेक घटनाओं के समानांतर साक्ष्य हैं . दोनों में कई अद्भुत साम्य हैं , अंतर केवल इतना है कि एक मौन की भाषा बोलता है दूसरा मुखर है . बरगद पर ढ़ेरों पक्षियों का आश्रय है , प्रत्यक्ष या परोक्ष बाबा पर भी गांव के नेतृत्व और अनेकानेक ढ़ंग से जैसे कस्बा ही आश्रित है . अनु की दादी के दुखद अनायास देहांत के बाद , जब से बाबा ने डाढ़ी बनाना छोड़ दिया है , उनकी श्वेत लंबी डाढ़ी भी मानो बरगद की लम्बी हवा में झूलती जड़ों से साम्य उत्पन्न करती हैं , जो चौराहे पर एक दूसरे को काटती दोनों सड़कों पर राहगीरों के सिरों को स्पर्श करने लगी हैं . बच्चे इन जड़ों को पकड़कर झूला झूलते हैं . बरगद कस्बे का आस्था केंद्र बन चुका है . उसके नीचे एक छोटा सा शिवालय है . लोग सुबह शिवपिंडी पर जल चढ़ाते सहज ही देखे जा सकते हैं . तपती गर्मियों मे बरगदाही के त्यौहार पर स्त्रियाँ बरगद के फेरे लगाकर पति की लम्बी उम्र के लिये पूजन करती हैं , बरगद के तने पर बंधा कच्चा सूत सालों साल स्त्रियों की उन भावना पूर्ण परिक्रमाओ का उद्घोष करता नही थकता .
अनु , बाबा की नातिन पढ़ने में कुशाग्र है . बाबा के पल पल के साथ ने उसे सर्वांगीण विकास की परवरिश दी है . कस्बे के स्कूल से अव्वल दर्जे में दसवी पास करने के बाद अब वह शहर जाकर पढ़ना चाहती है . पर इसके लिये जरूरी हो गया है परिवार का कस्बे से शहर को विस्थापन .. क्योंकि बाबा की ढ़ृड़ प्रतिज्ञ अनु ने दो टूक घोषणा कर दी है कि वह तभी शहर पढ़ने जायेगी जब बाबा भी साथ चलेंगे . बाबा किंकर्तव्यविमूढ़ , पशोपेश में हैं .
विकास के क्रम में कस्बे से होकर निकलने वाली सड़क को नेशनल हाईवे घोषित कर दिया गया है . सड़क के दोनो ओर भवनों के सामने के हिस्से शासन ने अधिगृहित कर लिये हैं बुल्डोजर चल रहा है , सड़क चौड़ी हो रही है . बरगद इस विकास में आड़े आ रहा है . वह नई चौड़ी सड़क के बीचों बीच पड़ रहा है . ठेकेदार बरगद को उखाड़ फेंकना चाहता है . बाबा ने शायद पहली बार स्पष्ट उग्र प्रतिरोध जाहिर कर दिया है , कलेक्टर साहब को लिखित रूप से बता दिया गया है कि बरगद नहीं कटेगा सड़क का मार्ग बदलना हो तो बदल लें . कस्बे का जन समूह एकमतेन बाबा के साथ है .
गतिरोध को हल करने अंततोगत्वा युवा जिलाधीश ने युक्ति ढ़ूढ़ निकाली , उन्होंने बरगद को समूल निकालकर , कस्बे में ही मंदिर के किनारे खाली पड़े मैदान में पुनर्स्थापित करने की योजना ही नहीं बनाई उसे क्रियांवित भी कर दिखाया . विशेषज्ञो की टीम बुलाई गई , क्रेन की मदद से बरगद को निकाला गया , और नये स्थान पर पहले से किये गये गड्ढ़े में बरगद का वृक्ष पुनः रोपा गया है . लोगों के लिये यह सब एक अजूबा था . अखबारों में सुर्खिया थी . सबको संशय था कि बरगद फिर से लग पायेगा या नहीं ? बरगद के नये स्थान पर पक्का चबूतरा बना दिया गया है , जल्दी ही बरगद ने फिर से नई जगह पर जड़ें जमा लीं , उसकी हरियाली से बाबा की आँखों में अश्रुजल छलक आये . बरगद ने विस्थापन स्वीकार कर लिया था .बाबा ने भी अनु के आग्रह को मान लिया था और अनु की पढ़ाई के लिये आज बाबा सपरिवार सामान सहित शहर की ओर जा रहे थे , बाबा ने देखा कि बरगद में नई कोंपले फूट रही थीं .
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
लहरों से किनारे तक
रात भर का फासला है अँधेरे से उजाले तक
दूर बहुत लगती हो खुद में ही उलझी उलझी
हाथ भर का फासला है हमारे से तुम्हारे तक
मोहब्बत लेती है इम्तिहान कई कई मुश्किल
पहुँचती है तब जाकर अँखियों के इशारे तक
घुली हुई हो गंध हवन की पवन में जैसे
वैसी ही तू बसी हुई है घर के द्वारे द्वारे तक
कौन है जिसके आगे हमसब हरदम बेबस होते है
कैद नहीं ताकत वो कोई मस्जिद और दिवाले तक
घोटालों की शकलें बदलीं वही कहानी पर हर बार
कभी है मंदी कभी है तेजी हर्षद और हवाले तक
शब्दों की सीमा असीम है शब्द ब्रह्म है शाश्वत हैं
शब्द ज्ञान हैँ शब्द शक्ति हैं पोथी और रिसाले तक
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
रविवार, 22 मार्च 2009
कविता एक पुडिया - मौत का समान : प्रदीप पाठक

दोहे समय 'सलिल'
समय न होता है सगा, समय न होता गैर।
'सलिल' सभी की मांगता, है ईश्वर से खैर।
समय बड़ा बलवान है, चलें सम्हलकर मीत।
बैर न नाहक ही करें, बाँटें सबको प्रीत।
समय-समय पर कीजिये, यथा-उचित व्यवहार।
सदा न कोई जीतता, सदा न होती हार।
समय-समय की बात है, राजा होता रंक।
कभी रंक राजा बने, सदा रहें निश्शंक।
समय-समय का फेर है, आज धूप कल छाँव।
'सलिल' रह पर रख सदा, भटक न पायें पाँव।
**************************************
अक्स लखनवी
जिसकी आँखों में अक्स उतरा नहीं।
बस वही सामने मेरे चेहरा नहीं।
मेरे बारे में इतना भी सोचा नहीं।
वक्ते-रुखसत पलटकर भी देखा नहीं।
जब से देखी हैं रानाइयाँ आपकी।
दिल मेरे पास पल भर भी ठहरा नहीं।
दाग दिखाते न हों ये अलग बात है।
आज दामन किसी का भी उजला नहीं।
वुसअते आरजू पूछिए मत अभी।
आसमां भी कभी इतना फैला नहीं।
खिल्वतों में तो तुम मिलते हो रात-दिन।
जल्वतों में मगर कोई जलवा नहीं।
कौन दरिया की मानिंद देगा पनाह?
दर कोई मछलियों के लिए वा नहीं।
दूसरों के घरों में न झाँका करो।
जब निगाहों में ऐ अक्स! पर्दा नहीं.
- अक्स = प्रतिबिम्ब, वक्ते-रुखसत = बिदाई का समय, रानाइयाँ = सुन्दरता, वुसअते आरजू = इच्छाओं का विस्तार, खिल्वतों = एकांत, जल्वतों = खुले-आम, वा = खुला हुआ.
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मुक्तक संजीव 'सलिल'
खन-खन, छम-छम तेरी आहट, हर पल चुप रह सुनता हूँ।
आँख मूँदकर, अनजाने ही तेरे सपने बुनता हूँ।
छिपी कहाँ है मंजिल मेरी, आकर झलक दिखा दे तू-
'सलिल' नशेमन तेरा, तेरी खातिर तिनके चुनता हूँ।
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बादलों की ओट में महताब लगता इस तरह
छिपी हो घूँघट में ज्यों संकुचाई शर्मीली दुल्हन।
पवन सैयां आ उठाये हौले-हौले आवरण-
'सलिल' में प्रतिबिम्ब देखे, निष्पलक होकर मगन।
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शनिवार, 21 मार्च 2009
कम्प्यूटर पीडित।
कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी.-6, एम.पी.एस.ई.बी. कालोनी,
रामपुर, जबलपुर.
हमारा समय कम्प्यूटर का है, इधर उधर जहॉ देखें, कम्प्यूटर ही नजर आते है, हर पढा लिखा युवा कम्प्यूटर इंजीनियर है, और विदेश यात्रा करता दिखता है। अपने समय की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाकर, श्रेष्ठतम सरकारी नौकरी पर लगने के बाद भी आज के प्रौढ पिता वेतन के जिस मुकाम पर पहुंच पाए है, उससे कही अधिक से ही, उनके युवा बच्चे निजी संस्थानों में अपनी नौकरी प्रारंभ कर रहे हैं, यह सब कम्प्यूटर का प्रभाव ही है।
कम्प्यूटर ने भ्रष्टाचार निवारण के क्षेत्र में वो कर दिखाखा है, जो बडी से बडी सामाजिक क्रांति नही कर सकती थी। पुराने समय में कितने मजे थे, मेरे जैसे जुगाडू लोग, काले कोट वाले टी. सी से गुपचुप बातें करते थे, और सीधे रिजर्वेशन पा जाते थे। अब हम कम्प्यूटर पीडितों की श्रेणी में आ गए है - दो महीने पहले से रिजर्वेशन करवा लो तो ठीक, वरना कोई जुगाड नही। कोई दाल नही गलने वाली, भला यह भी कोई बात हुई। यह सब मुए कम्प्यूटर के कारण ही हुआ है।
कितना अच्छा समय था, कलेक्द्रेट के बाबू साहब शाम को जब घर लौटते थे तो उनकी जेबें भरी रहती थीं अब तो कम्प्यूटरीकरण नें `` सिंगल विंडो प्रणाली बना दी है, जब लोगों से मेल मुलाकात ही नही होगी, तो भला कोई किसी को `ओबलाइज कैसे करेगा, हुये ना बडे बाबू कम्प्यूटर पीडित।
दाल में नमक बराबर, हेराफेरी करने की इजाजत तो हमारी पुरातन परंपरा तक देती है, तभी तो ऐसे प्यारे प्यारे मुहावरे बने हैं, पर यह असंवेदनशील कम्प्यूटर भला इंसानी जज्बातों को क्या समझे ? यहॉ तो ``एंटर´´ का बटन दबा नही कि चटपट सब कुछ रजिस्टर हो गया, कहीं कोई मौका ही नही।
वैसे कम्प्यूटर दो नंबरी पीडा भर नही देता सच्ची बात तो यह है कि इस कम्प्यूटर युग में नंबर दो पर रहना ही कौन चाहता है, मैं तो आजन्म एक नंबरी हूं, मेरी राशि ही बारह राशियों में पहली है, मै कक्षा पहली से अब तक लगातार नंबर एक पर पास होता रहा हूंं । जो पहली नौकरी मिली , आज तक उसी में लगा हुआ हूंं यद्यपि मेरी प्रतिभा को देखकर, मित्र कहते रहते हैं, कि मैं कोई दूसरी नौकरी क्यों नही करता `` नौकरी डॉट कॉम की मदद से,पर अपने को दो नंबर का कोई काम पसंद ही नही है, सो पहली नौकरी को ही बाकायदा लैटर पैड और विजिटिंग कार्ड पर चिपकाए घूम रहे हैं। आज के पीडित युवाओं की तरह नही कि सगाई के समय किसी कंपनी में , शादी के समय किसी और में , एवं हनीमून से लौटकर किसी तीसरी कंपनी में , ये लोग तो इतनी नौकरियॉं बदलते हैं कि जब तक मॉं बाप इनकी पहली कंपनी का सही- सही नाम बोलना सीख पाते है, ये फट से और बडे पे पैकेज के साथ, दूसरी कंपनी में शिफ्ट कर जाते हैं, इन्हें केाई सेंटीमेंटल लगाव ही नही होता अपने जॉब से। मैं तो उस समय का प्राणी हूं, जब सेंटीमेंटस का इतना महत्व था कि पहली पत्नी को जीवन भर ढोने का संकल्प, यदि उंंघते- उंंघते भी ले लिया तो बस ले लिया। पटे न पटे, कितनी भी नोंकझोंक हो पर निभाना तो है, निभाने में कठिनाई हो तो खुद निभो।
आज के कम्प्यूटर पीडितों की तरह नही कि इंटरनेट पर चैटिंग करते हुए प्यार हो गया और चीटिंग करते हुए शादी,फिर बीटिंग करते हुए तलाक।
हॉं हम कम्प्यूटर की एक नंबरी पीडाओं की चर्चा कर रहे थ्ेा, अब तो `` पैन ³ªाइव´´ का जमाना है, पहले फ्लॉपी होती थी, जो चाहे जब धोखा दे देती थी, एक कम्प्यूटर से कॉपी करके ले जाओ, तो दूसरे पर खुलने से ही इंकार कर देती थी। आज भी कभी साफ्टवेयर मैच नही करता, कभी फोंन्टस मैच नही करते, अक्सर कम्प्यूटर, मौके पर ऐसा धोखा देते हैं कि सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, फिर बैकअप से निकालने की कोशिश करते रहो। कभी जल्दबाजी में पासवर्ड याद नही आता, तो कभी सर्वर डाउन रहता है। कभी साइट नही खुलती तो कभी पॉप अप खुल जाता है, कभी वायरस आ जाते हैं तो कभी हैर्कस आपकी जरुरी जानकारी ले भागते हैं, अथाZत कम्प्यूटर ने जितना आराम दिया है, उससे ज्यादा पीडायें भी दी हैं। हर दिन एक नई डिवाइस बाजार में आ जाती है, ``सेलरॉन´´ से ``पी-5´´ के कम्प्यूटर बदलते- बदलते और सी.डी. ड्राइव से डी.वी.डी. राईटर तक का सफर , डाट मैट्रिक्स से लेजर प्रिंटर तक बदलाव, अपडेट रहने के चक्कर में मेरा तो बजट ही बिगड रहा है। पायरेटेड साफ्टवेयर न खरीदने के अपने एक नंबरी आदशोZं के चलते मेरी कम्प्यूटर पीडित होने की समस्यांए अनंत हैं, आप की आप जानें। अजब दुनिया है इंटरनेट की कहॉं तो हम अपनी एक-एक जानकारी छिपा कर रखते हैं, और कहॉं इंटरनेट पर सब कुछ खुला- खुला है, वैब कैम से तो लोंगों के बैडरुम तक सार्वजनिक है, तो हैं ना हम सब किसी न किसी तरह कम्प्यूटर पीडित।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
रामपुर, जबलपुर.
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
इनके किसी एक के बिन भी , सृष्टि सकल निष्प्राण है !
अग्नि , ताप , ऊर्जा प्रकाश का एक अनुपम समवाय है
बिजली उसी अग्नि तत्व का , आविष्कृत पर्याय है !
बिजली है तो ही इस जग की, हर गतिविधि आसान है
जीना खाना , हँसना गाना , वैभव , सुख , सम्मान है !
बिजली बिन है बड़ी उदासी , अँधियारा संसार है ,
खो जाता हरेक क्रिया का , सहज सुगम आधार है !
हाथ पैर ठंडे हो जाते , मन होता निष्चेष्ट है ,
यह समझाता विद्युत का उपयोग महान यथेष्ट है !
यह देती प्रकाश , गति , बल , विस्तार हरेक निर्माण को
घर , कृषि , कार्यालय, बाजारों को भी ,तथा शमशान को !
बिजली ने ही किया , समूची दुनियाँ का श्रंगार है ,
सुविधा संवर्धक यह , इससे बनी गले का हार है !
मानव जीवन को दुनियाँ में , बिजली एक वरदान है
वर्तमान युग में बिजली ही, इस जग का भगवान है !
कण कण में परिव्याप्त , जगत में विद्युत का आवेश है
विद्युत ही जग में , ईश्वर का , लगता रूप विशेष है !!
- प्रो सी बी श्रीवास्तव
सामाजिक लेखन हेतु ११ वें रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार से सम्मानित .
"रामभरोसे", "कौआ कान ले गया" व्यंग संग्रहों ," आक्रोश" काव्य संग्रह ,"हिंदोस्तां हमारा " , "जादू शिक्षा का " नाटकों के माध्यम से अपने भीतर के रचनाकार की विवश अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का दुस्साहस ..हम तो बोलेंगे ही कोई सुने न सुने .
यह लेखन वैचारिक अंतर्द्वंद है ,मेरे जैसे लेखकों का जो अपना श्रम, समय व धन लगाकर भी सच को "सच" कहने का साहस तो कर रहे हैं ..इस युग में .
लेखकीय शोषण , व पाठकहीनता की स्थितियां हम सबसे छिपी नहीं है , पर समय रचनाकारो के इस सारस्वत यज्ञ की आहुतियों का मूल्यांकन करेगा इसी आशा और विश्वास के साथ ..
