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बुधवार, 18 मार्च 2009

कविता

जीवन का सत्य

--सलिल

मुझे 'मैं' ने, तुझे 'तू' ने, हमेशा ही दिया झाँसा.
खुदी ने खुद को मकडी की तरह जाले में है फांसा. .
निकलना चाहते हैं हम नहीं, बस बात करते हैं.
खुदी को दे रहे शह फिर खुदी की मात करते हैं.
चहकते जो, महकते जो वही तो जिन्दगी जीते.
बहकते जो 'सलिल' निज स्वार्थ में वे रह गए रीते.
भरेगा उतना जीवन घट करोगे जितना तुम खाली.
सिखाती सत्य जीवन का हमेशा खिलती शेफाली.

कविता :

ऋतुराज बसंत

अवनीश तिवारी

जब धरती करवट लेती है ,
और अम्बर का जी भर देती है ,

जब गोरी पर नैन टिकती है ,
और बेचैनी में रैन कटती है ,

जब तन प्रेम रुधिर बहता है ,
और मन अस्थिर कर जाता है ,

जब छुअन , चुम्बन के दृश्य होते हैं,
और इर्द - गिर्द के परिदृश्य बदलते हैं,

जब प्रेम - पूर्ण ह्रदय इतराता है,
और प्रेम - रिक्त दिल पछताता है,

जब नव दुल्हन अक्सर हंसती है ,
और कुंवारी कोई तरसती है,

जब सारी सीमायें टूटती है,
और मिलन योजनायें बनती है,

जब गाँव के गाँव महकते है,
और शहर के शहर संवरते है,

तब ऋतुराज बसंत आता है,
और मधुमास, बहार दे जाता है

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स्तुति: नमन नर्मदा मातु...

स्तुति:

नमन नर्मदा मातु...

आचार्य संजीव 'सलिल'

नमन नर्मदा मातु को, नित्य निनादित धार।

भव-भय-भंजन कर रहीं, कर भव सागर पार।

कर भव सागर पार, हरें दुःख सबके मैया।

जो डूबे हो पार, किनारे डूबे नैया।

कल-कल में अनहद सुनो, किल-किल का हो अंत।

अम्ल विमल निर्मल 'सलिल', व्यापे दिशा-दिगंत।

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मंगलवार, 17 मार्च 2009

विशेष लेख :
‘जा घट प्रेम न संचरै...’-
डॉ.सी. जय शंकर बाबु
‘प्रेम’ ढ़ाई अक्षरों का अप्रतिम शब्द है । ‘ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय’ – उक्ति कोई निरर्थक कथन नहीं है । एक दार्शनिक कवि के अनुभव के सार के रूप में ही यह व्याख्या निसृत हुई है । वास्तव में प्रेम एक ऐसी अनूठी भावना है, जिसे समझे बिना संसार में कोई कवि नहीं बन पाया है ।
प्रेम-भावना अथवा प्रेम की अवधारणा को समझे बिना संसार में कोई दार्शनिक भी नहीं बन पाया है । प्रेम ईश्वरीय भावना का प्रतीक है । असीम प्रेम की अलौकिक शक्ति की संज्ञा ही ‘ईश्वर’ है । आधुनिक विज्ञान के सिद्धांत भले ही ईश्वरीय तत्व को नहीं मानते हैं, किंतु मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में एक विशेष मनोविकार के रूप में अवश्य ही मान्यता है ।
प्रेम व्यापक अर्थ वाला शब्द है, जिसकी सीमित शब्दों में कोई सर्वमान्य परिभाषा देना अथवा सीमित वाक्यों में विश्लेषण करना कठिन कार्य है । प्रेम भावना में एक चमत्कारी शक्ति है । प्रेम का इतना महत्व है कि प्रेम के बिना संसार का अस्तित्व अकल्पनीय है । प्रेम अस्तित्व का एवं अमूर्त शक्ति स्रोत का प्रतिरूप है। प्रेम एक विशिष्ट एवं अनूठा दैवी गुण है ।
मानव की संज्ञा मनुष्य के साथ जुड़ने का मुख्य कारण यह है कि वह अन्य प्राणियों की तुलना में गुण-संपन्न एवं बुद्धि-कुशल है । हिंदी में प्रेम भावना को अभिव्यक्त करने के लिए कई शब्द प्रयुक्त होते हैं – जैसे अनुराग, प्यार, प्रीति, स्नेह, इश्क़, मुहब्बत आदि । इन तमाम शब्दों में जो भी उत्कृष्ट आयाम हैं, वे सब ‘प्रेम’ में समाविष्ट हैं । ऐसे अनूठे प्रेम तत्व के विभिन्न आयामों के संदर्भ में कई विद्वानों ने अध्ययन किया है । ऐसे अध्ययनों से कई तथ्य उजागर हुए हैं । प्रेम भावना संबंधी संकल्पना, विवेचन, विश्लेषण एवं चिंतन – ये सब किसी रूप में प्रेम का गुणगान ही है ।
प्रेम में कई श्रेष्ठ तत्व मौज़ूद हैं जो असाध्य को सुसाध्य में परिवर्तित करने में सक्षम हैं । इन तमाम सुगुणों को ध्यान में रखते हुए प्रेम को ‘गुणों की खान’ कहना भी उचित ही लगता है । प्रेम को सांसारिक, असांसारिक (लौकिक – अलौकिक), दैवी, मानवीय आदि कई रूपों में मानते हैं । भले ही जितने भी उसके रूप हम मानते हैं, प्रेम की मूल भावना एक ही है, वह अतुलनीय है, अप्रतिम है ।प्रेम भावना को धारण करने वाले जीव से बढ़कर न कोई पंडित है, न कोई वीर, न कोई साहसी, न संत, न कोई योगी, न मानव, न कोई दैवी शक्ति ही है । तमाम उत्कृष्टताओं के कारण प्रेम तत्व के संदर्भ में विवेचन, विश्लेषण, चिंतन एवं अनुचिंतन के आधार पर कई विद्वान पुरुष, चिंतक, दार्शनिक एवं संत महात्माओं ने अपने उदगार प्रकट किए हैं ।
हिंदी के संत एवं दार्शनिक कवि कबीरदास जी ने प्रेम का मार्मिक विवेचन प्रस्तुत किया है । कबीर के विचार में बृहत ग्रंथ पढ़कर संसार में कोई पंडित नहीं बन पाए हैं, ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम’ शब्द के समूचे तत्वों को समझनेवाले निश्चय ही अच्छे पंडित साबित हुए हैं । कबीरदास जी ने कहा है –
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सुपंडित होय ।।”
उन्होंने यह भी कहा है –
“प्रेम न बाड़ी ऊपजौ, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय ।।”
कबीरदास जी की राय में प्रेम न तो बगीचे में पैदा होता है और न वह बाज़ार में बिकता है । राजा और प्रजा जो किसी भी स्तर का क्यों न हो, जिसको यह प्रेम अच्छा लगे वही अपना सिर देकर अर्थात अहंकार छोड़कर उसे ले जा सकता है और प्रेम का एक साथ पनपना संभव नहीं है । अहंकार रहित हृदय में ही प्रेम का दर्शन संभव है ।
इस संदर्भ को कबीरदास की एक और उक्ति स्पष्ट करती है –“प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं....”इसी विचार को कबीरदास जी ने एक और ढंग से कहा है –
“पीया चाहे प्रेम रस, राखा चाहे मान ।
एक म्यान में दो खड्ग, देखा सुना न कान ।।”
अर्थात् जो व्यक्ति प्रेम रस पीना चाहता है, वह यदि अभिमान भी रखना चाहता है – ये दोनों एक साथ निभाना कैसा संभव है ? एक म्यान में दो खड्ग रहने की बात न तो कानों से सुनी है और न उसे आँकों से देखा है । अहंकार प्रेम का शत्रु है । प्रेम और अहंकार को एक ही हृदय में स्थान नहीं मिलता है ।मानव को सृष्टि में उत्कृष्ट प्राणी के रूप में मान्यता है । प्रेम मानवीयता का एक महत्वपूर्ण आयाम है ।
यदि मनुष्य को सृष्टि का शृंगार कहा जाए तो अवश्य ही प्रेम को मानवीयता का शृंगार कहा जा सकता है । इसलिए यहाँ तक कहा गया है –
“प्रेम भाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाय ।।”
अर्थात् चाहे लाख तरह के भेष बदलें, घर पर रहें, चाहे वन में जाएं परंतु प्रेम-भाव ज़रूर होना चाहिए । अर्थात् संसार में किसी भी स्थान पर, किसी भी स्थिति में रहें, मगर प्रेम भाव से रहना चाहिए ।
प्रायः कबीरदास की तुलना तमिल के संत कवि तुरुवल्लुवर से की जाती है । इन दोनों संत कवियों के विचारों में कई आयामों में समानता नज़र आती है । संत तिरुवल्लुवर ने तो कबीरदास जी से लगभग हजार वर्ष पूर्व ही अपने श्रेष्ठतम विचारों को ‘तिरुक्कुरल’ में अक्षरबद्ध किया था । संत तिरुवल्लुवर की अनन्य कृति ‘तिरुक्कुरल’ को तमिल वेद के रूप में विशिष्ट मान्यता है ।संत तिरुवल्लुवर ने भी प्रेम को सर्वश्रेष्ठ गुण का दर्जा दिया है । उत्तम गुणों की सूची में उन्होंने प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । उन्होंने गुण-संपन्नता के आधारों के संबंध में लिखित ‘कुरल’ (तमिल का एक प्रसिद्ध दोहा-छंद, जिसमें प्रथम पंक्ति में चार शब्द एवं दूसरी पंक्ति में तीन शब्द होते हैं
यहाँ उद्धृत है –“अंबुनाण् ऑप्पुरवु कण्णोट्टम् वाय्मैयॉडुऐंदुशाल्पु ऊनरिय तूण ।”प्रेम, पाप-भीती, उदारता, करुणा तथा सत्यभाषिता – ये पांचों श्रेष्ठ गुण आचरण के आधार-स्तंभ हैं । संत तिरुवल्लुवर ने अपने इस कुरल में प्रेम को प्रथम स्थान पर रखा है । तिरुवल्लुवर जी के विचार में इन गुणों से वंचित मनुष्य संसार के लिए भार है और संसार उनके भार-वहन करने में असमर्थ हो जाएगा । प्रेम के संबंध में संत तिरुवल्लुवर के विचार मननीय एवं आचरणीय हैं । उनके विचार में अनभिज्ञ लोग अक्सर यह कहते नज़र आते हैं कि प्रेम धर्म की चीज़ है, मगर वास्तविकता यह है कि प्रेम हमें दुष्टता से बचानेवाला रक्षक है । प्रेम से संसार में स्नेह बढ़ जाता है, जो सब कुछ मंगलमय बना देता है । जिनका जीवन प्रेममय होता है उन्हें सच्चा सुख और समृद्धि सुलभ हो जाते हैं ।
सूरज की तेज धूप से जिस भांति अस्तिहीन कीटादि झुलस जाते हैं, वैसे ही प्रेम रहित लोगों को धर्म लील लेता है । प्रेम-रहित प्राणी स्वार्थी होते हैं । प्रेम से भरपूर प्राणी अपने सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर रहते हैं ।
इस प्रकार संत तिरुल्लुवर ने ‘तिरुक्कुरल’ में प्रेम के संबंध कई जगह अपनी सुंदरतम भावनाएँ प्रकट की हैं । उनके अनुसार प्रेम ही जीवन है और प्रेम-रहित तन केवल अस्थि-पंजर है । उन्होंने प्रेम रहित जीवन को मरुभूमि में पुष्पित होनेवाले फूल के बराबर माना है । प्रेम केवल बहिरंग की ही नहीं, अंतरंग की भी शोभा है । प्रेम रहित सुंदरता की कल्पना करना निरर्थक है ।
तिरुवल्लुर जी यह प्रश्न करते हैं कि क्या प्रेम-द्वार का कोई ताला होता है ... इसका समाधान स्वयं वे ही देते हैं – “प्रिय के नयन-सिंधु से जनित अश्रु-बिंदुओं से ही हृदय का प्रेम प्रकट हो जाता है ।” उनके विचार में अस्तिमय देह से आत्मा के बार-बार जुड़ने का कारण भी यही है कि वह प्रेमानंद का फ़ायदा उठाना चाहती है ।प्रेम सृष्टि का महत्वपूर्ण तत्व है । पवित्र हृदय में प्रेम भाव अवश्य रहता है । जहाँ तिरुवल्लुवर ने प्रेम रहित देह को अस्ति-पंजर की संज्ञा दी है, वहीं कबीरदास जी प्रेम रहित हृदय को श्मशान तुल्य मानते हैं ।
संत कबीर ने एक मार्मिक उदाहरण से इस विचार को प्रकट करने का प्रयास किया है –
“जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान ।
जैसे खाल लोहार की, साँस लेत बिनु प्रान ।”
अर्थात् जिस हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता, उस हृदय को श्मशान समझना चाहिए । वह व्यक्ति जिसके हृदय में प्रेम का संचार नहीं होता है, लोहार की धौंकनी की तरह प्राण के बिना ही साँस लेता है ।हृदय में प्रेम भाव को स्थान न देकर अपने हृदय को श्मशान साबित करना कौन चाहता है ?
मानव मात्र के हृदयों में प्रेम तत्व भर जाने से अवश्य ही सारा संसार प्रेममय बन जाएगा । संसार में अशांति का सवाल ही नहीं उठता है । आधुनिक समय के आध्यात्मिक विचारक ओशो की इन पंक्तियों में प्रेम तत्व के महत्व की झांकी मिल जाती है – “प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है । प्रेम का हाथ जहाँ भी छू देता है, वहाँ क्रांति हो जाती है, वहाँ मिट्टी सोना हो जाती है । प्रेम का हाथ जहाँ स्पर्श देता है, वहाँ अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है । जरूरी है हम प्रेमल बने रहे, तभी यह दुनिया प्रेमपूर्ण होगी ।”संसार में शांति पनपने के लिए आज प्रेम भावना को फैलाने की बड़ी ज़रूरत है ।
अतिवाद के जितने भी भयानक रूप उभर रहे हैं तथा उनके जितने भी अमानवीय कृत्यों से यह संसार पीड़ित है, वे सब मानवीयता पर न मिटने वाले दाग़ हैं । तथाकथित अतिवादियों में रंच मात्र भी प्रेम भरने में हम सफल हो जाएंगे तो दुनिया में शांति का साम्राज्य सुस्थापित हो पाएगा । प्रेम में निश्चय ही वह अजस्र शक्ति है ।आज हम कहीं तथाकथित धर्म के पीछे भी पागल होते जा रहे हैं और प्रेम से नाता तोड़ रहे हैं । जिसमें प्रेम नहीं, वह कोई धर्म नहीं है । स्वामी विवेकानंद ने कहा था – “दूसरों से प्रेम करना धर्म है, द्वेष करना पाप ।” मेरे विचार में सभी धर्मों का तत्व सार ही ‘प्रेम’ है । ‘जियो और जीने दो’ की संकल्पना को साकर बनाने के लिए संसार को प्रेममय बनाने की नितांत आवश्यकता है ।
आइए हम सब ढ़ाई अक्षरों के ‘प्रेम' को पढ़ें और बड़े प्रेमी-स्वभाव के बन जाएं ।
संपादक, ‘युग मानस’,18/795/एफ़/8-ए, तिलक नगर,गुंतकल (आं।प्र।) – ५१५ ८०१
ई-मेल – yugmanas@जीमेल.com
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पुस्तक समीक्षा :समयजयी साहित्यशिल्पी भगवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' : व्यक्तित्व-कृतित्व - एक अद्बुत कृति


पुस्तक समीक्षा :
समयजयी साहित्यशिल्पी भगवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' : व्यक्तित्व-कृतित्व - एक अद्बुत कृति

समीक्षक : प्रो. अर्चना श्रीवास्तव,
d 105 shilendra nagar रायपुर
( कृति विवरण : नाम- समयजयी साहित्यशिल्पी भगवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' : व्यक्तित्व-कृतित्व, विधा- समालोचना, संपादक : संजीव 'सलिल', आकार- डिमाई, बहुरंगी सजिल्द आवरण, पृष्ठ ४५५, मूल्य- ५०० रु., प्रकाशक- समन्वय प्रतिष्ठान, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ )
समयजयी साहित्यशिल्पी भगवदप्रसाद मिश्र 'नियाज़' : व्यक्तित्व - कृतित्व एक अद्बुत कृति है जिसमें हिन्दी के इस वरिष्ठतम तथा प्रतिष्ठित साहित्यकार के इन्द्रधनुषी साहित्यिक-शैक्षणिक योगदान का निष्पक्ष मूल्यांकन किया गया है. प्रस्तुत ग्रन्थ को हिन्दी स्वरों के आधार पर अ से अः तक १२ सर्गों में विभक्त किया गया है.
'चित्र-चित्र स्मृतियाँ अनुपम' के अंतर्गत श्री मिश्र की चित्रमय जीवन झांकी ८ शीर्षकों में विभक्त कर संजोई गयी है. 'सांसों का सफर' में ९० वर्षीय चरितनायक का संक्षिप्त शाब्दिक जीवन वृत्त है. 'कुछ अपनी कुछ अपनों की' के २२ आलेख मिश्र जी के स्वजनों-परिजनों, मित्रों, स्नेहियों, वरिष्ठ व समकालिक रचनाकारों द्वारा लिखे गए हैं जिनमें ३ पीढियों की भावांजलियाँ हैं. 'कलकल निनादिनी नर्मदा' शीर्षक अध्याय नियाज़ की कम लम्बी काव्य रचनाओं के संग्रहों तरंगिणी, गीत रश्मि, अजस्रा, व जननी जन्मभूमिश्च पर केंद्रित समालोचनात्मक आलेखों से समृद्ध हुआ है. 'नील नीरनिधि नील नभ' नामक सर्ग में खंड काव्य कारा, दीर्घ कविताओं के संग्रह कस्मै देवाय, दीर्घा, अनुवादित खंड काव्य धाविका का आकलन विद्वदजनों ने किया है. शायर नियाज़ के कलाम को 'भँवरे की गुनगुन' अध्याय में १६ पारखियों ने परखा है. गजल संग्रहों तलाश, आखिरी दौर, खामुशी व अहसास तथा कता संग्रह ज़रा सुनते जाइए को १६ जानकारों ने कसौटी पर कसकर खरा पाया है.
बहुमुखी प्रतिभा के धनि मिश्रजी ने बल साहित्य के सारस्वत कोष को शिशुगीत, चाचा नेहरू, क्या तुम जानते हो? तथा सूक्ति संग्रह नामक कृतियों से नवाजा है. 'डगमग पग धर च्कोओ लें नभ' के अंतर्गत बाल साहित्य निकष पर है. अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे मिश्रजी अंग्रेज़ी में सृजन न करें यह नामुमकिन है. 'भाव शब्द ले काव्य है' नामक अध्याय में द ब्रोकन मिरर एंड अदर पोयम्स एवं पेटल्स ऑफ़ लव दो संग्रहों की विवेचना की गयी है.
'गोमती से साबरमती तक' शीर्षक अध्याय में मिश्रजी के गद्य साहित्य कथा संग्रह त्रयोदशी व संस्मरण संग्रह अतीत इक झलकियाँ पर विवेचनात्मक आलेख हैं. आदर्श शिक्षक और शिक्षाविद के रूप में मिश्र जी के अवदान को परखा गया है 'सघन तिमिर हर भोर उगायें' शीर्षक सर्ग में.
विश्व वाणी हिन्दी व सम्पर्क भाषा अंग्रेज़ी के मध्य संपर्क सेतु बने मिश्र जी द्वारा ३१ देशों में प्रचलित १८ भाषाओँ के १११ कवियों की कविताओं का हिन्दी काव्यानुवाद किया है. 'विश्व कविता' शीर्षक इस कृति तथा डॉ अम्बाशंकर नगर के काव्य संग्रह 'चाँद चांदनी और कैक्टस' के मिश्र जी कृत अंग्रेज़ी अनुवाद 'मून मूंलित एंड कैक्टस' की समीक्षा 'दिल को दिल से जोड़े भाषा' अध्याय में है.
समीक्षक के रूप में मिश्र जी द्वारा समकालिक साहित्यकारों की कृतियों का सतत मूल्यांकन किया जाता रहा. 'कौन कैसा कसौटी पर' सर्ग में समीक्ष कर्म को परखा गया है.'बात निकलेगी तो फ़िर' में मिश्रजी के दो लम्बे साक्षात्कार हैं जिनमें उनकी रचनाधर्मिता से जुड़े विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है. अन्तिम पर महत्वपूर्ण अध्याय 'साईं भजे भाव पार हो' में मिश्रजी के आध्यात्मिक-धार्मिक कृतित्व का आकलन है. सुमनांजलि, भक्त संह भगवान, साईं चालीसा, साईं बाबा द इटरनल कम्पेनियन, रिलेशनशिप विथ गोड, मैं हरि पतित पवन सुने, वेद पुरूष वाणी, ॐ साईं बाबा और नर नारायण गुफा आश्रम, साईत्री, ॐ श्री साईश्वर, श्री साईं यंत्र-मन्त्र, आध्यात्मिक अनुभूतियाँ, तथा श्री साईं गीतांजली संकीर्तनम आदि कृतियों पर १६ आलेख इस अध्याय में हैं.
श्री नियाज जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार के ७० वर्षीय बहु आयामी योगदान के लगभग हर पहलू का सम्यक-संतुलित मूल्यांकन कराकर शताधिक शोधपरक आलेखों को एक ही जगह सुव्यवस्थित सुनियोजित करने दे दुष्कर सम्पादकीय कार्य को संजीव सलिल ने निपुणता के साथ करने में सफलता पाई है. शोध छात्रों के लिए अत्यावश्यक ४५५ पृष्ठीय सजिल्द डिमाई आकार की यह कृति केवल ५०० रु. में समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ से प्राप्त की जा सकती है. समकालिक हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर निआजजी के सकल साहित्य कर्म के निष्पक्ष विवेचन का यह श्रेष्ठ प्रयास वाकई अपनी मिसाल आप है.

मुक्तक : सन्दर्भ चाँद-फिजा प्रकरण

दिल लिया दिल बिन दिए ही, दिल दिया बिन दिल लिए।
देखकर यह खेल रोते दिल बिचारे लब सिए।
फिजा जहरीली कलंकित चाँद पर लानत 'सलिल'-
तुम्हें क्या मालूम तुमने तोड़ कितने दिल दिए।

कभी दिलवर -दिलरुबा थे, आज क्या हो क्या कहें?
यह बताओ तुम्हारी बेहूदगी हम क्यों सहें?
भाड़ में दे झोंक तुमको, तमाशा तुम ख़ुद बने।
तुम हवस के हो पुजारी, दूर तुम से हम रहें।

देह बनकर तुम मिले थे, देह तक सीमित रहे।
आज लगता भाव सारे, तुम्हारे बीमित रहे।
रोज चर्चाओं का बोनस, मिल रहा है मुफ्त में-
ठगे जन के मन गए हैं, दर्द असीमित रहे।

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गीत

श्वास गीत आस-प्यास अंतरा।
सनातन है रास की परम्परा । ।

तन का नही, मन का मेल जिंदगी।
स्नेह-सलिल-स्नान ईश- बन्दगी।
नित सृजन ही सभ्यता औ' संस्कृति।
सृजन हेतु सृष्टि नित स्वयंवरा। ।

आदि-अंतहीन चक्र काल का।
सादि-सांत लेख मनुज-भाल का।
समर्पण घमंड, क्रोध, स्वार्थ का।
भावनाविहीन ज्ञान कोहरा । ।

राग-त्याग नहीं सत्य-साधना।
अनुराग औ' आसक्ति पूत भावना।
पुरातन है प्रकृति-पुरूष का मिलन।
निरावरण गगन, धारा दिगंबरा। ।

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रविवार, 15 मार्च 2009

जब -जब भी तुम तनहा होगे

तब साथ मुझे ही पाओगे .

जब याद मेरी आ जायेगी.

तब ख़ुद से ही शरमाओगे.

हर कोशिश कर के देख लो तुम

पल भर भी भूल न पाओगे .

जैसे ही कुछ आहट होगी .

बाहों में 'सलिल' की आओगे।


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गुरु अर्थात अज्ञान के अंधकार को हटाकर ज्ञान के प्रकाश से पथ को आलोकित करने वलाप्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध"

गुरु ...रघुवंश के संदर्भ में
प्रो. सी. बी . श्रीवास्तव "विदग्ध"

गुरु अर्थात अज्ञान के अंधकार को हटाकर ज्ञान के प्रकाश से पथ को आलोकित करने वाला , अर्थात समस्या का समाधान करने वाला या मार्ग दर्शन करने वाला ...जीवन को प्रकाशित करने वाला . विशेषतः अध्यात्म के क्षेत्र में .यही कारण है कि अतीत में गुरू का स्थान बहुत उँचा था .
गुरू को ईश्वर से प्रथम पूज्य मानने का कारण यही है कि वही ईश्वर का दर्शन कराता है . इसीलिये प्राचीन राजा महाराजाओ को गुरू के मार्गदर्शन का महत्व था और कठिनाई के समय समाधान का सहारा .
राजा दिलीप के संतान नहीं थी इसी लिये पुत्र की कामनापूर्ति हेतु वे गुरु से मिलकर कष्ट निवारण का उपाय जानने वन में गुरु के पास गये . गुरुवर ने उन्हें स्वर्ग लोक कामधेनु गाय की पुत्री नन्दिनी की सेवा करने की सलाह दी . निष्ठा पूर्वक वैसा करने पर राजा को पुत्र की प्राप्ति हुई , ...... रघुवंश के संदर्भ में
अथाभ्यच्र्य विधातारं प्रयतौ पुत्रकाम्यया ।
तौ दंपती वसिष्ठस्य गुरोर्जग्मतुराश्रमम् ।।
ब्रह्म की कर अर्चना , रख मन में विश्वास
दोनो पति पत्नी गये गुरू वशिष्ठ के पास ।। 35।।सर्ग १

नलिनीकांत के हाइकु गीत

नलिनीकांत के हाइकु गीत

तितली

तितली तुम
इन्द्रधनुषी रानी
रंग बिरंगी।

नाचा करतीं
ता-ता-थैया, तुम तो
भोंरे की संगी।

लाली फूलों की
मुस्कान कलियों की
तुम अप्सरी।

नीलाम्बरी हो
कभी हो पीताम्बरी
चंचला अरी।

क्षण यहाँ तो
क्षण वहां, आतीं न
हाथ में कभी।

भटक रही
सुरभि में, कैसी हो
चमक रही?

विवाहिता या
कुंवारी हो, बताती
क्यों न सुन्दरी?
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विलुप्त प्रजातियाँ

चहचहाती थीं
कितनी चिडियां
इस वन में।

गाते थे
गीत दल के दल पंछी ,
मधुवन में।

किंतु न रह
सके चैन से इस
प्रदूषण में।

फुर्र हो गए
जाने पंछी किधर
किस क्षण में?

विलुप्त ईन
प्रजातियाँ अनेक
संक्रमण में।

बढ़ी है संख्या
नर व बन्दर की
किंतु रण में।

प्रभु! विज्ञानं
नहीं, ज्ञान बढाओ
जन-जन में।
*************

फूल व बच्चे

क्यों लगते हैं
इतने प्यारे-प्यारे
फूल व बच्चे?

खिलखिलाना
हँसना, दोनों के
लगते सच्चे।

कलियों और
नन्हों के आधे बोल
मधुर कच्चे।

रूप माधुर्य
फूलों-बच्चों के कभी
न खाते गच्चे।

प्रभु क्या तुम्हीं
हो परम प्रसन्न
फूल व बच्चे?
****************

हाइकु काव्य

सबसे बड़ा
प्रश्न और उत्तर
मधुर मौन।

गाछ-गाछ के
पत्ते-पत्ते पर लिखा
प्रभु का पत्र।

सही शख्स को
मिलती है ज़िंदगी
मौत के बाद।

मुस्काया मुन्ना
तो खुशियों से भरा
आँचल माँ का।

बूंदों की चोट
tee पर, गोलियाँ ,
ज्यों पीठ पर।

मेघ मल्हार
गा रही रसवंती
वधु श्रावणी।

फूल बेचता
हूँ मैं taja, faav men
detaa khushboo।

लहरों का क्या?
विश्वास, किनारे को
मरता धक्का।

-अंदाल ७१३३२१, प बंगाल।

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काव्य का रचना शास्त्र : १

-संजीव 'सलिल'

-ध्वनि कविता की जान है...

ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास।
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास।।

अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे। प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं । बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था। विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी।

बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका। अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का। वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता। प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता।

मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते। उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता। अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं। अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी।

सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य।
जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य।।

भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ साहित्य के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए। सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है। 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ। साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा।

मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है। भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया। यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है। आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है।

होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत।
दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत।।

साध्य आत्म-आनंद है :काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है। भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है। आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है।

जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद।
कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद।।

काव्य के तत्व:

बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व।
तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व।।

बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है। सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं। कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है।

भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है। भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है। संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है।

कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है। रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं। साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है। रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनाता। वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है।

कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं। किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं। हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है। कला तत्व ही 'शिवता का वाहक होता है। कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है।

शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है। भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है। रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है।

साहित्य के रूप :

दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार।
बनता है साहित्य की, रचना का आधार।।

बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है। हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है। अमर साहित्यकार डॉ। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है।

लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ :

रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं । साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके।

लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिए व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गए हैं ।

लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे। लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष।

काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है।

साहित्य के रूप --

१। लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य।

२.लक्षण ग्रन्थ: (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र।

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शनिवार, 14 मार्च 2009

गीत
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी करुण - व्यथाएँ हैं....

अपने-अपने पिंजरों में हैं कैद सभी।
और चाहते हैं होना स्वच्छंद सभी।
श्वास-श्वास में कथ्य-कथानक हैं सबमें-
सत्य कहूँ गुन-गुन करते हैं छंद सभी।
अलग-अनूठे शिल्प-बिम्ब-उपमाएँ हैं
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

अक्षर-अजर-अमर हैं आत्माएँ सबकी।
प्रेरक-प्रबल-अमित हैं इच्छाएँ सबकी।
माँग-पूर्ती, उपभोक्ता-उत्पादन हैं सब।
खन-खन करती मोहें मुद्राएँ सबकी।
रास रचता वह, सब बृज बालाएँ है
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

जो भी मिलता है क्रेता-विक्रेता है।
किन्तु न कोई नौका अपनी खेता है।
किस्मत शकुनी के पाँसों से सब हारे।
फिर भी सोचा अगला दाँव विजेता है।
मौन हुई माँ, मुखर-चपल वनिताएँ हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

करें अर्चना स्वहितों की तन्मय होकर।
वरें वंदना-पथ विधि का मृण्मय होकर।
करें कामना, सफल साधना हो अपनी।
लीन प्रार्थना में होते बेकल होकर।
तृप्ति-अतृप्ति नहीं कुछ, मृग- त्रिश्नाएं हैं।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

यह दुनिया मंडी है रिश्तों-नातों की।
दाँव-पेंच, छल-कपट, घात-प्रतिघातों की।
विश्वासों की फसल उगाती कलम सदा।
हर अंकुर में छवि है गिरते पातों की।
कूल, घाट, पुल, लहर, 'सलिल' सरिताएँ हैः।
सबकी अपनी-अपनी राम कथाएँ हैं.....

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शुक्रवार, 13 मार्च 2009

जियो तो ऐसे जियो

शिवानी जोशी

इस देश के घर-घर और मंदिरों में जिसके शब्द बरसों से गूंज रहे हैं, दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिंदू परिवार में ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है जिसके ह्रदय-पटल पर बचपन के संस्कारों में उसके लिखे शब्दों की छाप न पड़ी हो। उनके शब्द उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के हर घर और मंदिर मे पूरी श्रध्दा और भक्ति के साथ गाए जाते हैं। बच्चे से लेकर युवाओं को और कुछ याद रहे या न रहे इसके बोल इतने सहज, सरल और भावपूर्ण है कि एक दो बार सुनने मात्र से इसकी हर एक पंक्ति दिल और दिमाग में रच-बस जाती है।

हम बात कर रहे हैं देश और दुनियाभर के करोड़ों हिन्दुओं के रग-रग में बसी ओम जय जगदीश की आरती की। हजारों साल पूर्व हुए हमारे ज्ञात-अज्ञात ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति गीत रचे, ओम जय जगदीश की आरती की भक्ति रस धारा ने उन सभी को अपने अंदर समाहित सा कर लिया है। यह एक आरती संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का निचोड़ है। लेकिन इस अमर भक्ति-गीत और आरती के रचयिता पं। श्रध्दाराम शर्मा के बारे में कोई नहीं जानता और न किसी ने उनके बारे में जानने की कोशिश की। हमारे हजारों पाठकों ने हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि हम ओम जय जगदीश की आरती के लेखक के बारे में कुछ बताएं। प्रस्तुत है इस अमर रचनाकार का जीवन परिचय।

ओम जय जगदीश की आरती जैसे भावपूर्ण गीत के रचयिता थे पं। श्रध्दाराम शर्मा। प. श्रध्दाराम शर्मा का जन्म 1837 में पंजाब के लुधियाना के पास फुल्लौर में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बालक श्रध्दाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार तो विरासत में ही मिले थे। उन्होंने बचपन में सात साल की उम्र तक गुरुमुखी में पढाई की। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, पर्शियन, ज्योतिष, और संस्कृत की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए।

पं। श्रध्दाराम ने पंजाबी (गुरूमुखी) में 'सिखों दे राज दी विथिया' और 'पंजाबी बातचीत' जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।

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holee के रंग नज़ीर अकबराबादी के sang

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की...

परियों के रंग दमकते हों
खूँ शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
तब देख बहारें होली की...

नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
तब देख बहारें होली की...

मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तककर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की...

जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की...

- नज़ीर अकबराबादी

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गुरुवार, 12 मार्च 2009

कवितायें

प्रो. वीणा तिवारी

कभी-कभी

कभी-कभी ऐसा भी होता है
कोई अक्स, शब्द
या वाक्य का टुकडा
रक्त में घुल-मिल जाता है।

फ़िर उससे बचने को
कनपटी की नस दबाओ
उँगलियों में कलम पकडो

या पाँव के नाखून से
धरती की मिट्टी कुरेदो
वह घड़ी की टिक-टिक-सा
अनवरत
शिराओं में दौड़ता-बजता रहता है।
-कभी ऐसा क्यों होता है?

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क्या-क्यों?

क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
इस 'क्या' और 'क्यों' को
न तो हम जानना चाहते हैं
न ही जानकर मानना
बल्कि प्रश्न के भय से
उत्तर की तरफ पीठ करके
सारी उम्र नदी की रेत में
सुई तलाशते हैं.

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मन

दूसरों की छोटी-छोटी भूलें
आँखों पर चढी
परायेपन की दूरबीन
बड़े-बड़े अपराध दिखाती है
जिनकी सजा फांसी भी कम लगती है
अपनों की बात आने पर ये मन
भुरभुरी मिट्टी बन जाता है
जिसमें वह अपराध कहीं भीतर दब जाता है.
फिर सजा का सवाल कहाँ रह जाता है?

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बसंतोत्सव पर विशेष

श्री जयदेव रचित गीत गोविन्द

महीयसी महादेवी वर्मा

छाया सरस बसंत विपिन में,
करते श्याम विहार.
युवती जनों के संग रास रच
करते श्याम विहार.

ललित लवंग लताएँ छूकर
बहता मलय समीर।
अली संकुल पिक के कूजन से
मुखरित कुञ्ज कुटीर.
विरहि जनों के हित दुरंत
इस ऋतुपति का संचार.
करते श्याम विहार.
जिनके उर में मदन जगाता
मदिर मनोरथ-भीर.
वे प्रोशितपतिकाएं करतीं
करूँ विलाप अधीर.
वकुल निराकुल ले सुमनों पर
अलिकुल का संभार.
करते श्याम विहार.
मृगमद के सौरभ सम सुरभित
नव पल्लवित तमाल,
तरुण जनों के मर्म विदारक
मनसिज नख से लाल-
किंशुक के तरु jaal कर रहे
फूलन से श्रृंगार.
करते श्याम विहार.
राजदंड स्वर्णिम मनसिज का
केशर-कुसुम-vikas
समर तूणीर बना है पाटल
लेकर भ्रमर-विलास.
करता है ऋतुपति दिगंत में
बासंती विस्तार.
करते श्याम विहार.
विगलित-लज्जा जग सता है
तरुण करूँ उपहास,
कुंतामुखाकृतिमयी केतकी
फूल रही सोल्लास,
विरहिजनों के ह्रदय निकृन्तन
में जो है दुर्वार.
करते श्याम विहार.
ललित माधव परिमल से,
मल्लिका सुमन अभिराम,
मुनियों का
मन भी कर देता
यह ऋतुराज सकाम,
बंधु अकारण यह तरुणों का
आकर्षण-अगर.
करते श्याम विहार.
भेंट लता अतिमुक्त, मंजरित
पुलकित विटप रसाल
तट पर भरा हुआ यमुनाजल
रहा जिसे प्रक्षाल,
वह वृन्दावन पूत हो रहा
पा अभिषेक उदार.
करते श्याम विहार.
इसमें है श्रीकृष्ण-चरण की
मधु स्मृतियों का सार,
मधुर बसन्त-कथा में मन के
भाव मदन-अनुसार
श्री जयदेव-रचित रचना यह
शब्दों में साकार।

********************
कवितायें
लक्ष्मी शर्मा
एक विभ्रम में
शायद शब्द कुछ बन पाते
हो पाते साकार
इसके पूर्व ही
एक विभ्रम में
बिखर गए शब्द
हो गए निराकार.

और कागज़ के स्थान पर
निरंतर
छपते रहे
मस्तिष्क के पटल पर.

चलता रहा यह अनवरत क्रम
और बनते -गिरते रहे
लगातार
बार-बार
बार-बार

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रूपांतरण
वक़्त को
ओढ़कर
सो गयी मैं.

कई वर्ष बीत गए,
जब जागी अपनी निद्रा से
तो उस अन्तराल को देखकर
आश्चर्यचकित रह गयी.
बड़ा आश्चर्य हुआ,
इस बीच जो कुछ
मैंने देखा
वह स्वप्न सरीखा था।
मोरपंखी,
रंग-बिरंगे-
कई चित्र
मुझे लगा
इस अन्तराल ने
मुझे
दो व्यक्तित्वों में बदल दिया है।

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अनवरत क्रम
स्वप्निल आँखों में
एकाकीपन
और अधिक गहराने लगता है।

चारों ओर
वीरानगी नजर आती है।
गुजरती हवाएं
कचोटती सी लगती हैं।

अपना ही साया
हो गया है बेगाना
सब कुछ
खोया-खोया सा
महसूस होता है.

सूरज के उगने से
लेकर
चाँद के ढलने तक
अनवरत चलता है यह क्रम
झोली भर सुख की तलाश में
प्रतीक्षारत हूँ मैं।

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रविवार, 8 मार्च 2009

kaaljayee कविता

खूनी हस्‍ताक्षर

कवि: गोपाल प्रसाद व्यास

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही, खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, स्‍वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्‍हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्‍हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं, पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा, नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्‍ता की, ऑंखें में खून उतर आया!
मुख रक्‍त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,"रक्‍त मुझे देना।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।
स्‍वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे।

"हम देंगे-देंगे खून", शब्‍द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष," इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं, आकर हस्‍ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्‍व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्‍जवल रक्‍त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्‍तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्‍ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्‍त चढ़ाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्‍त गिराते थे!

फिर उस रक्‍त की स्‍याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर, हस्‍ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ना देखा था, हिंदुस्‍तानी विश्‍वास नया।
जब लिखा था महा रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

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शक्ति और क्षमा !

कवि: रामधारी सिंह "दिनकर"

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो ripu -सक्षम, तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल है

तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे प्यारे

उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से

सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की, बंधा मूढ़ बन्धन में

सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की

सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है !

गुरुवार, 5 मार्च 2009

मुक्तक

पारस नाथ मिश्र, शहडोल

सफ़र भी खूबसूरत है चलो तुम भी,
शहसवारों की जरूरत है चलो तुम भी।
व्यावहारिक दक्षता कब काम आयेगी?
पाँव पड़ने का मुहूरत है चलो तुम भी।

गीत

पारस नाथ मिश्र, शहडोल

माटी का आकर बना है,
माटी का आधार बना है।
फिर क्यों प्यार न हो माटी से-
माटी का संसार बना है...

माटी के उत्तान महल ये,
माटी की औंधी झोपडियां।
माटी डाल गयी माटी के-
हाथों में बलात हथकडियां।
माटी की छाया में, माटी की-
मूरत शहीद होती है।
माटी के हाथों, माटी की-
नित माटी पलीद होती है.
माटी के क्रेता-विक्रेता
माटी का व्यापार बना है...

यद्यपि माटी के दीपक पर
माटी का पतंग जल जाता।
फिर भी शाश्वत रहा विश्व में,
माटी से माटी का नाता।
माटी अमृत और ज़हर भी,
माटी अमर और नश्वर भी।
युग-युग का विप्लव है माटी,
कल्प-कल्प का शांत समर भी.
माटी सृजन, सतत शाश्वत पर
माटी पर संहार पला है..

माटी का प्रणयी मिटता,
माटी की परिणीता के पीछे।
माटी का भगवान् भटकता,
माटी की सीता के पीछे।
माटी का मसीह, माटी को
चूम-चूम चन्दन कर जाता।
माटी का रसूल माटी ले,
माटी का कुरान रच जाता.
माटी के चरणों की रज ले,
माटी का पाषाण तरा है...

मैं माटी का बुला रहा हूँ,
कोइ माटी का आ जाए।
माटी पहचाने माटी को,
माटी को माटी पा जाए।
माटी का पुतला है साकी,
माटी का ही पीने वाला।
माटी पर ही मर मिटाता है,
हर माटी का जीने वाला.
साकी माटी के प्याले में,
माटी का ही सार भरा है,
फिर क्यों प्यार न हो माटी से
माटी का संसार बना है...

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गीत

लज्जा

अवध प्रताप शरण

एक शाम खजुराहो की निर्वसना नारी
से कर बैठा प्रश्न एक अनजान अनाडी.
नारी का तो लज्जा ही भूषण है देवी.
तुमने चोली-लाज तजी, किसको दी साडी?

उत्तर में मुस्काई मधुर आर्या-प्रतिमा,
बोली-भद्र! तुम्हारा प्रश्न अरण्य-रुदन है.
लज्जा तो आवरण पुरुष ने डाला मुझ पर-
नग्न, सत्य, शाश्वत है और चिरंतन है.

नग्न न थी तो कलाकार ने नग्न कर दिया.
नग्न हुई तो कलाकार ने नयन ढँक लिए.
नग्न मूर्ति के कलाकार को मिली प्रशंसा-
नग्न मूर्ति ने दृष्टि, व्यंग,आक्षेप सह लिए.

दुर्बलता ताकत श्रृद्धा नर की नारी है,
उसे वासना-ममता की कठपुतली लगती.
सहनशीलता ही नारी का सच्चा गुण है.
मान या कि अपमान मौन हो सह लेती है.

मुझे कला की संज्ञा देकर नग्न किया है.
कलाकार ही मुझे बताये कला कहाँ है?
नेत्र, अधर, भ्रू, पग, सिर रहते नग्न सदा ही-
और कौन सा अंग कलामय यहाँ ढला है?

दूर देश से कई पर्यटक आते रहते.
मुझको कहते मूर्ति कला का अजब नमूना.
सत्य अजब हूँ, यही भारतीयों का कहना-
लाजवती भारत की नारी पर तन सूना.

नित्य सहस्त्राधिक पुरुषों के सम्मुख होकर
यह विवस्त्र तन लज्जित होकर दिखलाती हूँ.
नग्न किया, तन देखो फिर खुद ही शरमाओ
माँ भगिनी मैं सुता लाज से गड जाती हूँ.

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गीत

विशाल देश का अन्तस्


अवध प्रताप शरण


अंधी गलियाँ, मूक डगर,
उजडे गाँव-विवस्त्र शहर।
महानगर में शीत लहर.
अनगिनती शव किये शीत ने
कितनी लोई?, कितने कम्बल?...

नत मस्तक लाचार नयन,
भूख अधिक कम है राशन।
अश्रुगैस-डंडा शासन
अनगिन पेट कलपते भूखे
कितना गेहूं?, कितना चांवल?...

लाखों अंधे, लाखों लूले।
लाखों पिचके, लाखों फूले।
अपाहिजों से खूब वसूले?
लुप्त दावा, परिचारक रूठे
कितने रोगी?, कितने घायल?...

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रविवार, 1 मार्च 2009

ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना

परीक्षा
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी ६ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर म.प्र.

परीक्षा जीवन की एक अनिवार्यता है . परीक्षा का स्मरण होते ही याद आती है परीक्षा की शनैः शनैः तैयारी . निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन , फिर परीक्षा में क्या पूछा जायेगा यह कौतुहल , निर्धारित अवधि में हम कितनी अच्छी तरह अपना उत्तर दे पायेंगे यह तनाव . परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही यदि कुछ समय और मिल जाता या फिर अगर मगर का पछतावा ..और फिर परिणाम घोषित होते तक का आंतरिक तनाव . परिणाम मिल जाने पर भी असंतुष्टि या पुनर्मूल्यांकन की चुनौती ..हम सब इस प्रक्रिया से किंचित परिवर्तन के साथ कभी न कभी कुछ न कुछ मात्रा में तनाव सहते हुये गुजरे ही है . टी वी के रियल्टी शोज में तो इन दिनों प्रतियोगी के सम्मुख लाइव प्रसारण में ही उसे सफल या असफल घोषित करने की परंपरा चल निकली है .. परीक्षा और परिणाम के इस स्वरूप पर प्रतियोगी की दृष्टि से सोचकर देखें .

सामान्यतः परीक्षा लिये जाने के मूल उद्देश्य व दृष्टिकोण को हममें से ज्यादातर लोग सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना ही येन केन प्रकारेण अधिकतम अंक पाना ही परीक्षा का उद्देश्य मान लेते हैं . और इसके लिये अनुचित तौर तरीकों के प्रयोग तक से नही हिचकिचाते . या फिर असफल होने पर आत्महत्या जेसे घातक कदम तक उठा लेते हैं .
प्रश्न है कि क्या परीक्षा में ज्यादा अंक पाने मात्र से जीवन में भी सफलता सुनिश्चित है ? जीवन की अग्नि परीक्षा में न तो पाठ्यक्रम निर्धारित होता है और न ही यह तय होता है कि कब कौन सा प्रश्न हल करना पड़ेगा ? परीक्षा का वास्तविक उद्देश्य मुल्यांकन से ज्ञानार्जन हेतु प्रोत्साहित करना होता है . जीवन में सफल वही होता है जो वास्तविक ज्ञानार्जन करता है न कि अंक मात्र प्राप्त कर लेता है . यह तय है कि जो तन्मयता से ज्ञानार्जन करता है वह परीक्षा में भी अच्छे अंक अवश्य पाता है . अतः जरूड़ी है कि परीक्षा के तनाव में ग्रस्त होने की अपेक्षा शिक्षा व परीक्षा के वास्तविक उद्देश्य को हृदयंगम किया जावे , संपूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी समूची बौद्धिकता के साथ गहन अध्ययन किया जावे व तनाव मुक्त रहकर परीक्षा दी जावे . याद रखें कि सफलता कि शार्ट कट नही होते . परीक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना मात्र है . ज्ञानार्जन एक तपस्या है . स्वयं पर विश्वास करें . विषय का मनन चिंतन , अध्ययन करें , व श्रेष्ठतम उत्तर लिखें , परिणाम स्वयमेव आपके पक्ष में आयेंगे .
विवेक रंजन श्रीवास्तव

फागुनी दोहे आचार्य संजीव 'सलिल'

फागुनी दोहे

आचार्य संजीव 'सलिल'

संजिव्सलिल।ब्लागस्पाट.कॉम / दिव्य नर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

दूरभाष: ०७६१ २४१११३१ / चलभाष: ९४२५१ ८३२४४

महुआ महका, मस्त हैं पनघट औ' चौपाल।

बरगद बब्बा झूमते, पत्ते देते ताल।

सिंदूरी जंगल हँसे, बौराया है आम।

बौरा-गौरा साथ लख, काम हुआ बेकाम।

पर्वत का मन झुलसता, तन तपकर अंगार।

वसनहीन किंशुक सहे, पञ्च शरों की मार। ।

गेहूँ स्वर्णाभित हुआ, कनक-कुञ्ज खलिहान।

पुष्पित-मुदित पलाश लख, लज्जित उषा-विहान।

बाँसों पर हल्दी चढी, बंधा आम-सिर मौर,

पंडित पीपल बांचते, लगन पूछ लो और।

तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार।

लाल गाल संध्या किये, दस दिश दिव्य बहार।

प्रणय-पंथ का मान कर, आनंदित परमात्म।

कंकर में शंकर हुए, प्रगट मुदित मन-आत्म।

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