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शनिवार, 19 मार्च 2016

बुंदेली लघुकथा - 

कचोंट
सुमन श्रीवास्तव 
    सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की बातें सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संग तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारी जी खों भी आंगें करकें समदियों कें लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। अब आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास बंदनबार बाँद गओ तो, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।
    इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनंे रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय के को है ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्तें में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसे पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, तैंसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घूंघट सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे।
    तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते कै आज की मरयादा तो देखो। फिर कुजाने का सोचकें गम्भीर हो गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं तिबारन हतीं मनों बा कचोंट आज लौं नैं भूली ती। 
    सत्तनारान तिबारी जी को ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दाड़ी-मूछें नें उँगीं तीं। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें। मनों दद्दा ने कड़क कैं दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। सो ब्याओ भलंेईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, हो गओ ब्याओ। खूब ढपला बजेे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। 
    सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनकेे ब्याओ हो गअे हतेे, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की माया में नैं परे ते, मनो कभउँ कभउँ खेयाल जरूर आत हतो कै देबास बारी को कैंसो रूप-सरूप हुइये, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये। 
    खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, कभउँ सुधार दिखानौ भी तो बिरथां। सत्तू को मन होय कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रहे आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने जबाब दै दओ। सब लौट गअे। और फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै बे नईं रहीं। सत्तू तिबारी गत्तौ-सो खाकैं रै गअे। एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊकौ मों तक नैं देख पाय। बा चली गई और जे दो बोल नैं बोल पाय। जे मरयादइ पालत रै गअे।
    इत्ते में नातन उनकें पास आई। तिबारीजी खों आँखें मींचें देखकंे समझी कै नाना सो या गअे। हाथ छूकें उठान लगी। तिबारी जी हांत झटक कैं, अकबका कें उठ गअे। ऐंसइ बारा-तेरा साल के हांत की छुअन भर तो याद रह गई ती जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो,मनो कचोट कबऊ नें मिटी। 

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