रसानंद दे छंद नर्मदा २२
:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा,
सोरठा, रोला,
आल्हा, सार
,
ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई
,
हरिगीतिका,
उल्लाला
,
गीतिका,
घनाक्षरी,
बरवै,
त्रिभंगी तथा सरसी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए
षट्पदिक छप्पय छन्द
से.
रोला-उल्लाला मिले, बनता छप्पय छंद
*
छप्पय षट्पदिक (६ पंक्तियों का), संयुक्त (दो छन्दों के मेल से निर्मित), मात्रिक (मात्रा गणना के आधार पर रचित), विषम (विशन चरण ११ मात्रा, सम चरण१३ मात्रा ) छन्द हैं। इसमें पहली चार पंक्तियाँ चौबीस मात्रिक रोला छंद (११ + १३ =२४ मात्राओं) की तथा बाद में दो पंक्तियाँ उल्लाला छंद (१३+ १३ = २६ मात्राओं या १४ + १४ = २८मात्राओं) की होती हैं। उल्लाला में सामान्यत:: २६ तथा अपवाद स्वरूप २८ मात्राएँ होती हैं। छप्पय १४८ या १५२ मात्राओं का छंद है। संत नाभादास सिद्धहस्त छप्पयकार हुए हैं। 'प्राकृतपैंगलम्'[1] में इसका लक्षण और इसके भेद दिये गये हैं।
छप्पय के भेद- छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद भानु के अनुसार छप्पय के ७१ प्रकार हैं। छप्पय अपभ्रंश और हिन्दी में समान रूप से प्रिय रहा है। चन्द[2], तुलसी[3], केशव[4], नाभादास [5], भूषण [6], मतिराम [7], सूदन [8], पद्माकर [9] तथा जोधराज हम्मीर रासो कुशल छप्पयकार हुए हैं। इस छन्द का प्रयोग मुख्यत:वीर रस में चन्द से लेकर पद्माकर तक ने किया है। इस छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त रोला में 'गीता' का चढ़ाव है और अन्त में उल्लाला में उतार है। इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन में भावों के उतार-चढ़ाव का इसमें अच्छा वर्णन किया जाता है। नाभादास, तुलसीदास तथा हरिश्चन्द्र ने भक्ति-भावना के लिये छप्पय छन्द का प्रयोग किया है।
उदाहरण - "डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर। ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर। दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर। सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर। चौंकि बिरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ। ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ॥"[10] पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ प्राकृतपैंगलम् - 1|105 ऊपर जायें ↑ पृथ्वीराजरासो ऊपर जायें ↑ कवितावली ऊपर जायें ↑ रामचन्द्रिका ऊपर जायें ↑ भक्तमाल ऊपर जायें ↑ शिवराजभूषण ऊपर जायें ↑ ललितललाम ऊपर जायें ↑ सुजानचरित ऊपर जायें ↑ प्रतापसिंह विरुदावली ऊपर जायें ↑ कवितावली : बाल. 11 धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 250।
लक्षण छन्द-
रोला के पद चार, मत्त चौबीस धारिये।
उल्लाला पद दोय, अंत माहीं सुधारिये।।
कहूँ अट्ठाइस होंय, मत्त छब्बिस कहुँ देखौ।
छप्पय के सब भेद मीत, इकहत्तर लेखौ।।
लघु-गुरु के क्रम तें भये,बानी कवि मंगल करन।
प्रगट कवित की रीती भल, 'भानु' भये पिंगल सरन।। -जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
*
उल्लाला से योग, तभी छप्पय हो रोला।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें