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सोमवार, 24 नवंबर 2025

पुरोवाक्, कर्नाटक की शेरनियाँ, अंबुजा, ओबव्वा, अब्बक्का, चेन्नम्मा, मल्लम्मा, वीरगाथा काव्य

पुरोवाक्
'कर्नाटक की शेरनियाँ' - वीरांगनाओं की अप्रतिम शौर्य गाथाएँ  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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वीरगाथा काव्य का उद्भव लोक में            

            यह निर्विवाद है कि लिपि के उद्भव के पूर्व विश्व की सभी अन्य भाषाओं की तरह विश्ववाणी हिंदी का साहित्य भी लोक द्वारा मौखिक रूप में ही सृजित हुआ। तत्कालीन अशिक्षित किंतु समझदार आशुकवियों ने कहने-सुनने-सुमिरने की परंपरा में काव्य सृजन किया जो अगणित लोगों के गले में विराजकर कालजयी हो गया। कोटि-कोटि कंठों से गाए जाते समय स्थानीय भाषिक परंपरा, सांगीतिक आवश्यकता तथा मति-भ्रम के कारण इन लोककाव्य रचनाओं के विविध पाठ प्रचलित हुए किंतु उन सबमें तथ्य, कथ्य और वर्णन लगभग समान रहे। लोक साहित्य का उद्देश्य केवल मन-रंजन नहीं अपितु जनगण को प्रेरित करना, आपातकाल में धैर्य बँधाना, लोक-आचरण को मर्यादित रखना, नीति ज्ञान देना तथा आक्रमण आदि के समय संघर्ष व शौर्य भाव जागृत करना था। भारत में लोकगीतों में वीरगाथा काव्य की चिरकालिक समृद्ध और जीवंत परंपरा हर अंचल और भाषा में है। इनमें स्थानीय संघर्षों में अप्रतिम पराक्रम दिखानेवाले शूरवीरों व वीरांगनाओं के शौर्य और बलिदान का गायन मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता रहा है। वीरगाथा (Ballads) लोक-साहित्य की एक प्रमुख विधा है। वीरगाथाएँ ओज गुण और वीर रस से भरपूर होती हैं। वीरगाथा काव्य  गीत लोक संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। इन्हें चारण, भाट या लोकगायक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाते रहे हैं, जिससे ये जनमानस में गहराई तक पैठ सके।

वीरगाथा काव्य सामाजिक एकता की कारक 

            लोकगाथाएँ वास्तविक ऐतिहासिक घटनाओं, युद्धों और वीरों के जीवन-संघर्ष पर आधारित होती हैं।  कुछ लोकगाथाओं में पौराणिक पात्रों की वीरता का वर्णन मिलता है। लोकगाथाओं का मूल भाव वीर रस होता है, जिसका स्थायी भाव उत्साह है। ये लोगों में निडरता, आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प और देशभक्ति की भावना जागृत करते हैं। लोकगाथाएँ  किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय की सामूहिक चेतना और पहचान स्थापित करती हैं। लोकगाथाएँ न केवल मनोरंजन करने के समानांतर सामाजिक मूल्यों और पूर्वजों के संघर्षों की कहानियों और सामाजिक गौरव तथा एकता को भी जीवित रखती हैं। लोकगीतों में वीरगाथा काव्य की परंपरा भारतीय संस्कृति की उस विरासत का हिस्सा है, जो वीरों का सम्मान करती है और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती है। लोक गीत मुख्य रूप से मौखिक रूप से प्रसारित होते हैं, ठीक उसी तरह जैसे प्राचीन काल में चारण और भाट समुदाय वीरों की गाथाओं को जनमानस तक पहुँचाते थे। लोकगाथाओं में गेयता (लयात्मक गायन) और कथा तत्व का संतुलित सामंजस्य होता है। इन्हें अक्सर विशेष लोक वाद्यों (जैसे ढोल, नगाड़ा, टिमकी, तुरही, मँजीरा, ढोलक आदि ) की संगत में गाया जाता है। वीर गाथाओं के गायन-नर्तन में स्त्री-पुरुष दोनों ही सहभागी होते रहे, कलाकारों की जाति-धर्म नहीं, प्रवीणता का महत्व होता था इसलिए सामाजिक एकता सेतु सुदृढ़ करने में वीरगाथाओं ने महती भूमिका का निर्वहन किया। कालांतर में लिपि का आविष्कार होने पर वीरगाथाएँ विजयदशमी जैसे पर्वों,  रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों के सृजन का आधार बनीं। वीर गाथाओं के पराक्रमी नायक-नायिकाएँ आदर्श के रूप में स्थापित होकर भावी पीढ़ी के प्रेरणा-स्तोत्र बने। 

हिंदी साहित्य में वीर गाथाएँ 
 
            आल्हखंड- हिंदी साहित्य का उद्गम लोक साहित्य से ही हुआ है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अनेक वीरगाथाएँ  लोकगीत में गूँथ कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाई जाती रही हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र में आल्हा और उदल नामक दो महावीरों की वीरता की गाथाएँ बहुत लोकप्रिय हैं। महकवि जगणिक ने इन्हें 'आल्हखंड' शीर्षक महाकाव्य का विषय बनाया। सकल बुंदेलखंड और बघेलखंड के ग्राम्यांचलों में वर्षाकाल में सार्वजनिक आल्हा-गायन की परंपरा है। 'अल्हैत' (आल्हा-गायक) आल्हा-ऊदल द्वारा लड़े गए युद्धों में उनके अद्भुत पराक्रम का वर्णन ओजभरी वाणी में ''आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया जिनसें हार गई तलवार'' तथा ''एक को मारें दो मारी जावें, तीजा गिरे कुलाटी खाय'' कहकर इस तरह करते हैं कि कायर भी जान की बाजी लगाने को तैयार हो जाए- 

"बारह बरस लौ कूकर जीवै, अरु सोरह लौ जियै सियार। 
बरस अठारह क्षत्री जीवै, आगे जीवै को धिक्कार।।" 

            ढोला-मारवणी : राजस्थान में प्रचलित 'ढोला-मारू की गाथा' प्रेम और वीरता से ओतप्रोत महत्वपूर्ण कथा  पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत (राजस्थान,पंजाब, बुंदेलखंडउत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि) में गाई जाती रही है। राजिस्थानी ढोला-मारू कथा नरवर के कछवाहा राजकुमार ढोला और पूगल की राजकुमारी मारू की प्रेम कहानी में खलनायिका 'मालवणी' है जबकि छत्तीसगढ़ी कथा में ढोला राजा नल और माता दमयंती का पुत्र और खलनायिका 'रीवा' है। दोनों कथाओं का घटना-क्रम भी भिन्न है।

वीरगाथा काल / आदिकाल 

            आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के आदिकाल  1050 से 1375 विक्रमी / 993 ई० से 1318 ई०) को इसी वीरगाथात्मक प्रवृत्ति के आधार पर "वीरगाथा काल" नाम दिया था। इस काल को डॉ॰ ग्रियर्सन, रामकुमार वर्मा ने चारणकाल, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने वीरकाल, राहुल संकृत्यायन ने सिद्ध सामंत युग, महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल, मिश्रबंधु ने आरम्भिक काल तथा हरिश्चंद्र वर्मा ने संक्रमण काल कहा है। वीरगाथाओं में किसी क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक पहचान और इतिहास की झलक होती है। इनमें सामान्य जनजीवन की भावनाओं और आदर्शों का चित्रण होता है। लोकगाथाएँ लोकगीतों का ही एक विस्तृत रूप हैं, जिनमें कथा तत्व (कहानी) और गेयता (गायन की विशेषता) का संतुलित सामंजस्य होता है। चंदबरदायी रचित 'पृथ्वीराज रासो' (1600 वि. सं. के आसपास) वीरगाथाकाल / आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य है। रासो में पृथ्वीराज के विभिन्न युद्धों और विवाहों के साथ नायिका का नख-शिख वर्णन, सेना के प्रयाण, युद्ध, षड्ऋतुओं आदि का सुंदर समायोजन है। चंदबरदाई अनेक मन:स्थितियों का संश्लिष्ट चित्र खींचने में सिद्ध हैं। रासो के एक खंड 'कैमास बध' का छप्पय इस प्रकार है-

एकु वान पुहवी नरेस कयमासह मुक्कउ।
उर उपरि परहरिउ वीर कष्षतर चुक्कउ।।
बीउ बान संधानि हनउ सोमेसुरनंदन।
गाडउ करि निग्गहउ पनिव षोदउ संभरि धनि ।
थर छडि न जाइ अभागरउ गारइ गहउ जुगुन परउ।
इम जंपइ चंद विरदिया सु कहा निमिट्टिइ इह प्रलउ।। 
हिंदी वीरगाथा काव्यों में नारी 

            वीर गाथा काव्यों में नारी को प्रमुखता अपेक्षाकृत कम मिली है। इसका कारण भारतीय पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में नारी का पिता, पति अथवा पुत्र पर आश्रित होना, हो सकता है किंतु मातृ सत्तात्मक समाजों में भी लोक काव्य में वीरांगनाओं की अनुपस्थिति का कारण नारी के पत्नी और माता रूप की प्रतिष्ठा ही हो सकता है। वीरांगना के रूप में विष्पला (ऋग्वेद कालिक महिला योद्धा, युद्ध में पैर कट जाने के बाद, अश्विनी कुमारों ने उन्हें धातु का पैर लगाकर युद्ध में वापस लड़ने योग्य बनाया), मुद्गलानी (असुर सेना को पराक्रमपूर्वक परास्त कर पति मुद्गल ऋषि के गोधन को मुक्त कराया तथा इंद्र सेना का सारथ्य किया), दुर्गा और काली (महिषासुर, रक्तबीज, शुंभ, निशुंभ आदि असुरों का वध किया), कैकेयी (देवासुर संग्राम में दशरथ के साथ युद्ध करते समय रथ चक्र में अंगुली फँसाकर उनकी प्राण-रक्षा की तथा चारों पुत्रों को वीरोचित प्रशिक्षण दिलवाया), सत्यभामा (नरकासुर-वध में सारथी के रूप में कृष्ण का साथ देकरर स्वयं भी युद्ध किया) आदि उल्लेखनीय हैं। मुगल काल में रजिया सुलताना (1236 से 1240 ईस्वी गुलाम वंश की शासिका), गोंडवाना की पराक्रमी रानी दुर्गावती (मुगल सम्राट अकबर की सेना को कई बार हराया किंतु 24 जून 1564 को अंतिम लड़ाई में देवर बदनसिंग द्वारा विश्वासघात करने पर बंदी होने के स्थान पर  खुद को कटार मारकर शहीद हो गईं), अहमदनगर और बीजापुर सल्तनत की रीजेंट चाँद बीबी ने  1595 में अकबर की मुगल सेना से अहमदनगर किले को बचाया और मुगलों को शांति संधि के लिए मजबूर किया, बाद में विश्वासघाती सैनिकों ने उनकी हत्या कर दी), रानी ताराबाई (मराठा साम्राज्य की रानी ताराबाई ने मुगल बादशाह औरंगजेब के खिलाफ लंबे समय तक मराठा प्रतिरोध का नेतृत्व किया), माई भाग कौर (सिख संत योद्धा जिसने 1705 में मुगलों के खिलाफ सिख सैनिकों 'चली मुक्ते' के एक समूह का नेतृत्व किया), रानी कर्णावती (गढ़वाल की रानी कर्णावती ने मुगल-आक्रमणों का दृढ़ता से विरोध कर 1640 में शाहजहाँ की सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया) आदि उल्लेखनीय हैं।    

            अंग्रेजों के शासन काल में पहाड़िया विद्रोह (1772- 1789) के दौरान शहीद जिउरी पहाड़िन ने कड़ा संघर्ष किया था।  बिरसा मुंडा के उलगुलान में 3 झारखंडी महिलाओं तिनगी मुंडा (खूंटी के मुरहू प्रखंड स्थित जिउरी गांव में जन्म, बंकन मुंडा की पत्नी,  वर्ष 1895 में आंदोलन से जुड़ीं, लगातार सक्रिय रहीं,  9 जनवरी 1900 को डोंबारी (सईल रकब) में अपने पति के साथ शहीद हुईं), लोकोम्बा मुंडा (जन्म बाड़ कुबे गांव, चाईबासा जिला, जिउरी के वर्ष 1884 में माझिया मुंडा से विवाह, शादी के बाद अपने ससुराल जिउरी गाँव आ गईंबिरसा मुंडा की सभा में शामिल होती थीं, विद्रोह की रणनीति में भाग लेतीं थीं, महिलाओं को संबोधित करतीं थीं, जुड़वाँ बच्चों बेटा-बेटी सहित संघर्ष में जूझीं, डोंबारी में शहीद हुईं,  बेटे को अंग्रेज ले गए, बेटी पिता के साथ रही, शिलालेख पर नाम नहीं, सिर्फ मझिया मुंडा की पत्नी लिखा है),  जिउरी गांव निवासी दसकीर मुंडा डुन्डंग मुंडा की पत्नी, वर्ष 1900 में बिरसा मुंडा के आंदोलन के दौरान वह भी डोंबारी पहाड़ पर थीं. वह भी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुईं थीं. शिलालेख पर अंकित है- डुन्डंग मुंडा की पत्नी), माकी मुंडा (गया मुंडा की पत्नी, 3 बेटियों और 2 बहुओं के साथ बहादुरी से अंग्रेजों का सामना किया, लाठी, कुल्हाड़ी और दौली से गया मुंडा को पकड़ने गये अंग्रेज सिपाहियों का सामना किया, 2 महिलाओं ने अपने बायें हाथों में छोटे बच्चों को पकड़ रखा था और दाहिने हाथ से कुल्हाड़ी चला रहीं थीं) आदि ने अद्भुत पराक्रम दिखाया।

            वर्ष 1842 के बुंदेला विद्रोह में अनेक बुंदेला महिलाओं ने बलिदान दिए किंतु उनके नाम अंग्रेजों ने छिपा लिए ताकि जन विद्रोह न फैले। वर्ष 1857 के स्वातंत्र्य समर में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ महिला सेना 'दुर्गा दल' की सेनापति झलकारी बाई (रानी की पागपने सिर पर रखकर रानी को निकलने में सहायता की, खुद शहीद हुईं), मुंदर (खातून , रानी के साथ लड़ते हुए शहीद हुईं), जूही (रानी का अंतिम समय तक साथ दिया), काना (अंग्रेजी सेना पर कहर बरपाया), काशी बाई, मोती बाई, और अन्य कई महिलाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी। बांदा के नवाब की बेटी राबिया बेगम (या रजिया बेगम) ने भी अंग्रेजों के खिलाफ तलवार उठाई थी। रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने अपने आस-पास के राजाओं और ज़मींदारों को प्रेरित कार अंग्रेजों से संघर्ष किया। अवध की बेगम हजरत महल ने भी अंग्रेजों से युद्ध किया। लखनऊ के सिकंदरबाग में पीपल के पेड़ पर चढ़कर 36 अंग्रेज सैनिकों को ढेर करने वाली ऊदा देवी को कौन भुला सकता है? नाना साहब की 13 वर्षीय दत्तक पुत्री मैना देवी को अंग्रेज जनरल आउटरम ने जलाकर शहीद कर दिया था। भारत के कोने-कोने से स्वातंत्र्य समर में शहीद हुई अगणित वीरांगनाओं के नाम इतिहास में इसलिए नहीं आ सके कि भारत में महिलाओं को ससुर, पति या पुत्र के नाम से पहचान जाता था। स्वतंत्रता सत्याग्रहों में अनगिनत भरते नारी-रत्नों ने घर-ग्रहस्थी का मोह छोड़कर अंग्रेजों का दमन सहकर देश को स्वतंत्र कराने और देश का संविधान बनाने में सक्रिय अनुकरणीय भूमिका का निर्वहन किया। 

            इस पृष्ठभूमि में वर्तमान संक्रमण काल में जब नई पीढ़ी को आतंकवाद की चुनौती झेलकर देश को विश्व गुरु बनाने की चुनौती उपस्थित है, वीरांगनाओं की अप्रतिम शौर्य गाथाओं का गायन करने से अधिक पावन कर्तव्य और कुछ नहीं हो सकता। वीरगाथा काव्य की सनातन परंपरा में नूतन कड़ी जोड़ते हुए डॉ. अंबुजा एन. मळखेडकर 'सुवना' ने ''कर्नाटक की शेरनियाँ'' शीर्षक से 5 वीरांगनाओं का स्मरण कर 'लिव इन' के कुमार्ग पर भटकती पीढ़ी को देश के लिए सर्वस्व निछावर करने  प्रेरणा देने के लिए ऐसी पुस्तकों की महती आवश्यकता है। डॉ. अंबुजा साधुवाद की पात्र हैं कि उन्होंने समय की पुकार सुनते हुए 5 वीरांगनाओं रानी अब्बक्का ,कित्तूर चेन्नममा,  बेलवड़ी  मल्लम्मा, मूसल ओबव्वा और केलदी चन्नम्मा पर प्रामाणिक, वीर रस प्रधान लंबी 5गीति रचनाओं का न केवल सृजन किया अपितु उन्हें पुस्तक रूप में उपलब्ध करा रही हैं।

            अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। भारत में 500 से अधिक भाषाएँ-बोलियाँ बोली जाती हैं।इन भाषाओं-बोलिओं मे मध्य सृजन- सेतु बनाने की प्रक्रिया निरंतर चलनी आवश्यक हैं। देश की कोई भाषा किसी से कम नहीं है। अंबुजा जी ने एक पंथ दो काज करते हुए दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र की 5 वीरांगनाओं का प्रेरक जीवन चरित राजभाषा हिंदी में लिखकर उत्तर-दक्षिण सृजन-सेतु को सुदृढ़ किया है। इसके पूर्व अंबुजा जी कन्नड़ से हिंदी में पुण्यकोटि (बाल कहानियाँ), मादा का संघर्ष और अन्य कहानियाँ, अमर वीरांगनाएँ (2023), ज्ञान और  परिणाम कैसे बढ़ाएँ तथा मोहपुर (लघु उपन्यास 2025) आदि तथा अर्धसत्य हिंदी से कन्नड़ अनूदित कृति रचकर चर्चित हो चुकी हैं। उक्त के अतिरित 8 कन्नड कृतियों (प्रेम प.द.नि.स., मन हरी ध्यान मंदिर, राजन नंटु कन्नडिय गंटु, गोम्बेय जीवन, दड सेरीसेन हरीये, मडिल शृंगार, पुण्य नाम दिव्य नाम, एकांत मंथन आदि) तथा 8 हिंदी कृतियों (हाइकु संग्रह , पिरामिड, नाटक- दास-श्रेष्ठ पुरंदरदास, कविता संग्रह पुष्प  फल, लघुकथा संग्रह आनंद-पथ) व मन के धूप-छाँव, बालकाव्य संग्रह सुमन वाटिका, वेदना के स्वर तथा जीवन के रंग-तरंग द्वारा अंबुजा जी की कारयित्री प्रतिभा का परिचय साहित्य जगत को मिल चुका है। 

            'कर्नाटक की 5 शेरनियाँ' का श्री गणेश ओनके (मूसल) ओबव्वा  (1770–1779) के विरुद-गायन से हुआ है। एक दिन पति कट्टप्पा को भोजन कराने के पहले ओबव्वा पानी लेने गई तो उसने देखा की एक दहीवली को दुर्ग से निकलते देख हैदरअली के सैनिक मार्ग का पता पाकर दुर्ग में घुसने को उद्यत हैं। बिना देर की ओबव्वा घर से एक विराट मूसल ले आई और खिड़की में शत्रु-सैनिकों के प्रवेश करते ही एक-एक कर मारती रही। देर होने पर  पति ने आकर यह दृश्य देखते ही नगाड़ा बजा दिया, तत्काल सेना जुट गई और दुर्ग बचा लिया गया किंतु ओबव्वा शहीद हो गई। उसकी स्मृति में उस खाइडकी का नाम 'मूसल खिड़की रखा गया। 

            उल्लाल नगर पश्चिम करावली की रानी अब्बक्का (1550–1590) ने व्यापार करने आए पुर्तगलियों द्वारा शासन सूत्र सम्हालने के विरुद्ध संघर्ष किया।  पति लक्षमप्पा अरस द्वारा साथ न देने पर उसका त्याग कर,  पुर्तगलियों के स्थान पर वेंकटप्पा को कर देकर अपने राज्य को समृद्ध किया तथा कल्लीकोटे  के जमोरीन के साथ मैत्री कार ली। पुर्तगालियों द्वारा अपने जहाज कब्जाए जाने पर रानी ने वेंकटप्पा तथा जमोरीन के साथ मिलकर विदेशियों को नायकों चने चबवा दिए। दुर्भाग्यवश धोखे से रानी को शत्रु ने बंदी बना लिया। कारावास में भी रानी ने अपना सिर नहीं झुकाया तथा मौत का वर्ण किया। 

            मलेनाडु पर्वत के बीच केलदीनायक शिवप्पा के पुत्र सोमशेखर ने रामेश्वर मेले में सिद्धप्पा शेट्टर की रूपवती पुत्री रानी चेन्नम्मा (1671–1704) से विवाह किया। एक नर्तकी कलावती के रूप-जाल में फँसकर सोमशेखर रानी और राज-काज भूलकर भोग-विलास में डूब गया। सुअवसर देखकर बीजापुर के सुल्तान ने आक्रमण कर दिया। रानी द्वारा चेताए जाने पर भी राजा न माना, मंत्री आदि भी स्वार्थ साधने के लिए रानी से विमुख हो गए। साहसी रानी चेन्नम्मा ने बस्सप्पा नायक को गोद लेकर राज-काज सम्हाला। जनोपन्त राय ने संधि की आड़ में षड्यन्त्र कर राजा सोम शेखर का वध करवा दिया। शोकाकुल रानी  ने सिर नहीं झुकाया पिता को साथ लेकर किला छोड़ भुवनगिरी चली गई। सुलतान को किला जीतने पर भी कुछ न मिला। उसने भुवनगिरी पर हमला किया किंतु तिम्मन्ना नायक का साथ पाकर रानी ने विजय पाई। वेंकट नायक के उकसाने पर मैसूर नरेश चिक्कदेवराय ने हमला किया किंतु हार गया। मुगल सम्राट औरंगजेब से प्रताड़ित शिवाजी-पुत्र राजाराम को रानी ने शरण दी। मुगलों को भी रानी से हार माननी पड़ी। रानी के 25 वर्ष के शासनकाल में राज्य की सर्वतोमुखी प्रगति हुई। 

            बेलवड़ी जिला बेलगाम के राजा ईशप्रभु की पत्नी मल्लम्मा (1670–1690) ने गोकर्ण व महाबलेश्वर की यात्रा के पश्चात वन में सोते हुए पति की शेर के आक्रमण से रक्षा कर शेर को मार डाला। 500 महिलाओं को लेकर स्त्री सेना का गठन किया। शिवाजी की सेना हमला कर गायों को ले गई, मल्लम्मा ने गाएँ वापिस छीन लीं। शिवाजी के हमले में राजा ईशप्रभु शहीद हुए, रानी बंदी बना ली गई। पूरी जानकारी होने पर शिवाजी ने रानी से क्षमा याचना की था उन्हें बहिन मानकर राज्य लौट दिया।

        बेलगाम-धारवाड़ के बीच कित्तूर राज्य की रानी चेन्नम्मा (1778–1829) अपने पति राजा मल्लसरजा से राज्य-संचालन सीखा, पति का निधन होने पर सौत-पुत्रों को अपना कर, ज्येष्ठ पुत्र शिवलिंग को सत्ता सौंपी अस्वस्थ्य शिवलिंग का निधन होने पर दत्तक पुत्र शिवलिंगप्पा को राजा बनाकर राज्य का सुचारु संचालन किया। ब्रिटिश एजेंट थेकरे ने कित्तूर को अपने अधीन करना चाहा। रानी ने शिवलिंगप्पा को गद्दी पर बैठा दिया। अंग्रेजों ने भारी सनी बल सहित हमला कर दिया। अद्भुत पराक्रम के साथ लड़ने पर भी रानी की पराजय हुई, वे बंदी बना ली गईं। कैद में भी रानी ने अंग्रेजों के आगे सिर नहीं झुकाया और अंतत: शहीद हो गईं। 

            पाँच वीरांगनाओं की ये पराक्रम कथाएँ भारतीय संस्कृति की शौर्य पताका की तरह हैं। इनसे प्रेरित होकर नई पीढ़ी देश की माटी का कर्ज उतारने के लिए खुद को तैयार कर सकती है। अंबुजा जी ने इन गीति काव्यों की भाषा सरल, सुबोध, प्रवाहमयी राखी है। पाठक सहज ही कथ्य समझ सकता है। दक्षिणभाषी होते हुए भी हिंदी पर पूरा अधिकार है कवयित्री अंबुजा का। भारत की जल-थल-वायु सेनाओं और अर्ध सैन्य बालों, पुलिस आदि में महिला सैनिकों और अधिकारियों को पराक्रम दिखने के स्वर्णिम अवसर अब् सुलभ है। ऐतिहासिक महिला वीरांगनाओं की गाथाएँ शक्षणिक पाठ्यक्रमों में सम्मिलित की जाना चाहिए तथा सेनाओं में वितरित की जाना चाहिए। महिला वीरांगनाओं के नाम पर सैन्य ईकाइयों, छावनियों आदि का नामकरण किया जाए तथा शौर्य पदक आदि दिए जाएँ तो वीरांगनाओं के प्रति कृतज्ञ देश को गौरव की अनुभूति होगी। इस मांगलिक सारस्वत अनुष्ठान के लिए अंबुजा जी साधुवाद की पात्र हैं। 
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नवंबर २४, सॉनेट, अधिवक्ता, दोहा, रेलगाड़ी, मुक्तक, लघुकथा, गीत, शिशु गीत, मुक्तिका

 सलिल सृजन नवंबर २४

सॉनेट
संजय
अजय रहे यह चाह नहीं है,
हिंसा पंथ नहीं अपनाता,
कर संतोष सदा सुख पाता,
विजय वरे वह राह नहीं है।
तनिक हृदय में डाह नहीं है,
पाता जो दायित्व निभाता,
कृष्ण-सखा होना मन भाता,
मिलकर मिलती वाह नहीं है।
अपना मस्तक ऊँचा रखता,
निर्मलता उसका आभूषण,
पाता-देता नहीं पराजय।
सत्य कहे अप्रिय बिन कटुता,
आत्म आचरण निरख परखता,
नहीं धनंजय से कम संजय।
२४.११.२०२३
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सॉनेट
अधिवक्ता
अधिवक्ता वक्ता हो उनका जो सच्चे हैं,
पीड़ित-निर्बल की लाठी बन न्याय दिलाए,
नहीं सबल अन्यायी का चाकर हो जाए,
न ही बचाए उसको जो अन्यायी लुच्चा।
रखे मनोबल सुदृढ़, न हो वह मन का कच्चा,
और न केवल धन अर्जन ही लक्ष्य बनाए,
न्यायालय को विधि-मंदिर का सुयश दिलाए,
डरे दंड से हर अपराधी नंगा टुच्चा।
करो वकालत पर जमीर नीलाम न करना,
मरना बेहतर अपराधी के संरक्षण से,
काला कोट न मातम-वाहक नहीं रुदाली,
नव आशा पर्याय सदा अभिभाषक बनना,
प्रतिभाओं का हनन नहीं हो आरक्षण से,
लिए एडवोकेट धरा पर नित खुशहाली।
२४.११.२०२३
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काव्य संकलन - चंद्र विजय अभियान
हिंदी के साहित्येतिहास में पहली बार किसी वैज्ञानिक परियोजना को केंद्र में रखकर साझा काव्य संकलन प्रकाशित कर कीर्तिमान बनाया जा रहा है। इसरो के चंद्र विजय अभियान को सफल बनानेवाले वैज्ञानिकों, अभियंताओं व तकनीशियनों की कलमकारों की ओर से मानवंदना करते हुए काव्यांजलि अर्पित करने के लिए तैयार किए जा रहे काव्य संग्रह "चंद्र विजय अभियान" में सहभागिता हेतु आप आमंत्रित हैं। आप अपनी आंचलिक बोली, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्र भाषा या विदेशी भाषा में लगभग २० पंक्तियों की रचना भेजें। संकलन में अब तक १४५ सहभागी सम्मिलित हो चुके हैं। संकलन में देश-विदेश की भाषाओं/बोलिओं की रचनाओं का स्वागत है। संकलन में ९४ वर्ष से लेकर २२ वर्ष तक की आयु के ३ पीढ़ियों के रचनाकार सम्मिलित हैं।
अंगिका, अंग्रेजी, असमी, उर्दू, कन्नौजी, कुमायूनी, गढ़वाली, गुजराती, छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी, पचेली, पाली, प्राकृत, बघेली, बांग्ला, बुंदेली, ब्रज, भुआणी, भोजपुरी, मराठी, मारवाड़ी, मालवी, मैथिली, राजस्थानी, संबलपुरी, संथाली, संस्कृत, हलबी, हिंदी आदि ३० भाषाओं/बोलिओं की रचनाएँ आ चुकी हैं। आस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा इंग्लैंड से रचनाकार जुड़ चुके हैं।
पहली बार विविध भाषाओं/बोलियों में वैज्ञानिकों/अभियंताओं को काव्यांजलि देकर कीर्तिमान बनाया जा रहा है।
पहली बार देश-विदेश की सर्वाधिक २८ भाषाओं/बोलियों के कवियों का संगम कीर्तिमान बना रहा है।
पहली बार शताधिक कवि एक वैज्ञानिक परियोजना पर कविता रच रहे हैं।
पहली बार २२ वर्ष से लेकर ९४ वर्ष तक के तीन पीढ़ी के रचनाकार एक ही संकलन में सहभागिता कर रहे हैं।
हर सहभागी को इन कीर्तिमानों में आपकी सहभागिता संबंधी प्रमाणपत्र संस्थान अध्यक्ष के हस्ताक्षरों से ओन लाइन भेजा जाएगा।
आप सम्मिलित होकर इस पुनीत सारस्वत अनुष्ठान में अपनी साहित्यिक समिधा समर्पित कर इसे अधिक से अधिक विविधता से समृद्ध करें। अपनी रचना, चित्र, परिचय (जन्म तिथि-माह-वर्ष-स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स एप) तथा सहभागिता निधि ३००/- प्रति पृष्ठ वाट्स ऐप क्रमांक ९४२५१८३२४४ पर भेजें। ६००/- मूल्य की पुस्तक की अतिरिक्त प्रति सहभागियों को अग्रिम राशि भेजने पर ४००/- प्रति (पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क) की दर से उपलब्ध होगी। प्रकाशन के पश्चात प्रकाशक से निर्धारित मूल्य पर लेनी होगी।
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सामयिक लघुकथाएँ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'सार्थक लघुकथाएँ' शीर्षक से सहयोगाधार पर इच्छुक लघुकथाकारों की २-२ प्रतिनिधि लघुकथाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) आदि २ पृष्ठों पर प्रकाशित होंगी। लघुकथा पर शोधपरक सामग्री भी होगी। पेपरबैक संकलन की २-२ प्रतियाँ पंजीकृत पुस्त-प्रेष्य की जाएँगी। यथोचित संपादन हेतु सहमत सहभागी मात्र ३००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं। संपर्क हेतु ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, roy.kanta@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४ । अतिरिक्त प्रतियाँ मुद्रित मूल्य से ४०% रियायत पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित मिलेंगी।
प्रतिनिधि नवगीत
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'प्रतिनिधि नवगीत'' शीर्षक से प्रकाशनाधीन संकलन हेतु इच्छुक नवगीतकारों से एक पृष्ठीय ८ नवगीत, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) सहभागिता निधि ३०००/- सहित आमंत्रित है। यथोचित सम्पादन हेतु सहमत सहभागी ३०००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। । प्रत्येक सहभागी को १५ प्रतियाँ निशुल्क उपलब्ध कराई जाएँगी जिनका विक्रय या अन्य उपयोग करने हेतु वे स्वतंत्र होंगे। ग्रन्थ में नवगीत विषयक शोधपरक उपयोगी सूचनाएँ और सामग्री संकलित की जाएगी। हिंदीतर भारतीय भाषाओँ के नवगीत हिंदी अनुवाद सहित भेजें।
शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ५००/- भेजने पर निम्न में से ७००/- की पुस्तकें तथा शब्द साधना पत्रिका व् दिव्य नर्मदा पत्रिका के उपलब्ध अंक पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा सहित उपलब्ध हैं। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।
पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट ८०/-
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत)- डॉ. एम. एल. खरे २५०/-
१९. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव १२०/-
२०. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२१. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२२. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२३. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२४. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२५. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
२६. हिंदी सॉनेट सलिला - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/-
२७. ओ मेरी तुम - गीत-नवगीत - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३००/-
२८. आदमी अभी जिंदा है - लघु कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३७०/-
२९. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३०. २१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ मध्य प्रदेश - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३१ काव्य कालिंदी - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/-
३२. खुशियों की सौगात - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/-
३३. छंद सोरठा खास - डॉ. संतोष शुक्ला 'प्रज्ञा' - ३००/-
३४. जीतने जी जिद, - काव्य संग्रह - सरला वर्मा - १२५/-
३५. व्यक्ति रेखा - डॉ. जयश्री जोशी - संस्मरण - १५०/-
३६. सौरभ: - संस्कृत -हिंदी काव्यानुवाद - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३७. मता-ए-परवीन - गजल संग्रह - परवीन हक - २००/-
३८. सूर्य मंजरी - काव्य संग्रह - सुनीता सिंह - ३००/-
३९. भूकंप के साथ जीना सीखें - लोकोपयोगी - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४०. राम नाम सुखदायी - भजन संग्रह - शांति देवी वर्मा - १५०/-
४१. नीरव का संगीत - काव्य संग्रह - डॉ. अग्निभ मुखर्जी - २५०/-
४२. लोकतंत्र का मकबरा - काव्य संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४३. कलम के देव - भक्ति गीत संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - २००/-
४४. बोध कथा सलिला - बोध कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४५. सूरज आया द्वार - दोहा संग्रह - इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव - १४९/-
४६. क्षण के साथ चलाचल - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी - ४००/-
४७. मुझे चाँद नहीं चाहिए - बबीता चौबे - लघुकथा संग्रह- २५०/-
४८. चंद्र विजय अभियान - साझा काव्य संग्रह - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ११००/-
४९. इटैलियन सोनेट सलिला - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/- (शीघ्र प्रकाश्य)
५०. जंगल में जनतंत्र - लघुकथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
५१. फुलबागिया - साझा काव्य संग्रह - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ११००/-
***
सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!
आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर
आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का
आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
●●●
मुक्तिका
पदभार : १२१२ x ४
प्रभो! तुम्हें सदा जपूँ, कभी न भूलना मुझे।
रहूँ न काम के बिना, अकाम ही सदा रहूँ।।
न याचना, न कामना, न वासना, न क्रोध हो।
स्वदेश के लिए जिऊँ, स्वदेश के लिए मरूँ।।
ध्वजा कभी झुके नहीं, पताकिनी रुके नहीं।
न शत्रु एक शेष हो, सुमित्र के लिए जिऊँ।।
न आम आदमी कभी दुखी रहे, सुखी रहे।
न खास का गुलाम हो, हताश मैं कभी रहूँ।।
अमीर है वही न जो, गरीब से घृणा करे।
न दर्द दूँ कभी, मिटा सकूँ जरा तभी तरूँ।।
स्वधर्म को तजूँ नहीं, अधर्म मैं वरूँ नहीं।
कुरीत से सदा बचूँ, अनीत मैं नहीं करूँ।।
प्रभो! कृपा बनी रहे, क्षमा करो, दया करो।
न पाप हो; न शाप दो, न भाव भक्ति मैं तजूँ।।
२४-११-२०२२
***
दोहा और रेलगाड़ी
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफॉर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
बदल गया है वक़्त अब, छुकछुक गाड़ी गोल
इंजिन दिखे न भाप का, रहा नहीं कुछ मोल
*
भोर दुपहरी सांझ या, पूनम-'मावस रात
काम करे निष्काम रह, इंजिन बिन व्याघात
*
'स्टेशन आ रहा है', क्यों कहते इंसान?
आते-जाते आप वे, जगह नहीं गतिमान
*
चलें 'रेल' पर गाड़ियाँ, कहते 'आई रेल'
आती-जाती 'ट्रेन' है, बात न कर बेमेल
*
डब्बे में घुस सके जो, थाम किसी का हाथ
बैठ गए चाहें नहीं, दूजा बैठे साथ
*
तीसमारखाँ बन करें, बिना टिकिट जो सैर
टिकिट निरीक्षक पकड़ता, रहे न उनकी खैर
*
दर्जन भर करते विदा, किसी एक को व्यर्थ
भीड़ बढ़ाते अकारण, करते अर्थ-अनर्थ
*
ट्रेन छूटने तक नहीं चढ़ते, करते गप्प
चढ़ें दौड़ गिरते फिसल, प्लॉटफॉर्म पर धप्प
*
सुविधा का उपयोग कर, रखिए स्वच्छ; न तोड़
बारी आने दीजिए, करें न नाहक होड़
*
कभी नहीं वह खाइए, जो देता अनजान
खिला नशीली वस्तु वह, लूटे धन-सामान
*
चेहरा रखिए ढाँककर, स्वच्छ हमेशा हाथ
दूरी रखिए हमेशा, ऊँचा रखिए माथ
*
२३-११-२०२०
***
मुक्तक
मुख पुस्तक मुख को पढ़ने का ज्ञान दे
क्या कपाल में लिखा दिखा वरदान दे
माँ-शान कब रहे सदा मत दे ईश्वर!
शुभाशीष दे, स्नेह, मान जा दान दे
***
नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
२४-११-२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२४-११-२०१५
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे।'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था।'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका।
*
पुस्तक सलिला: हिन्दी महिमा सागर
[पुस्तक विवरण: हिन्दी महिमा सागर, संपादक डॉ. किरण पाल सिंह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २०४, प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, १००/२ कृष्ण नगर, देहरादून २४८००१]
हिंदी दिवस पर औपचारिक कार्यक्रमों की भीड़ में लीक से हटकर एक महत्वपूर्ण प्रकाशन हिंदी महिमा सागर का प्रकाशन है. इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए संपादक डॉ. किरण पाल सिंह तथा प्रकाशक प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान देहरादून साधुवाद के पात्र हैं. शताधिक कवियों की हिंदी पर केंद्रित रचनाओं का यह सारगर्भित संकलन हिंदी प्रेमियों तथा शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है. पुस्तक का आवरण तथा मुद्रण नयनाभिराम है. भारतेंदु हरिश्चंद्र जी, मैथिलीशरण जी, सेठ गोविन्ददास जी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, गोपाल सिंह नेपाली, प्रताप नारायण मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, आदि के साथ समकालिक वरिष्ठों अटल जी, बालकवि बैरागी, डॉ. दाऊ दयाल गुप्ता, डॉ. गार्गी शरण मिश्र 'मराल' , संजीव वर्मा 'सलिल', आचार्य भगवत दुबे, डॉ. राजेंद्र मिलन, शंकर सक्सेना, डॉ. ब्रम्हजित गौतम, परमानन्द जड़िया, यश मालवीय आदि १०८ कवियों की हिंदी विषयक रचनाओं को पढ़ पाना अपने आपमें एक दुर्लभ अवसर तथा अनुभव है. मुख्यतः गीत, ग़ज़ल, दोहा, कुण्डलिया तथा छंद मुक्त कवितायेँ पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
२४.११.२०१४
***
मुक्तिका
देख जंगल
कहाँ मंगल?
हर तरफ है
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
***
नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***
नवगीत:
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
२३-११-२०१४
***
शिशु गीत सलिला : 3
*
21. नाना
मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।
खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1
कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2
नानी जी के गोरे बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?
चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा
चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में लगते बच्चे।।
चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें।
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ
प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा
मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी
मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*
28. दोस्त
मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह
सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज
आसमान में आया सूरज ।
सबके मन को भाया सूरज।।
लाल-लाल आकाश हो गया।
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी।
आँख दिखा गरमाया सूरज।।
दिन भर करता थानेदारी।
किरणों के मन भाया सूरज।।
रात-अँधेरे से डर लगता।
घर जाकर सुस्ताया सूरज।।
२३.११.२०१२
***
मुक्तिका:
जीवन की जय गाएँ हम..
*
जीवन की जय गाएँ हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहराएँ हम..
*
बाधा-संकट-अड़चन से
जूझ-जीत मुस्काएँ हम..
*
गिरने से क्यों कहोडरें?,
उठ-बढ़ मंजिल पाएँ हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गाएँ हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खाएँ हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षाएँ हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनाएँ हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजाएँ हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलाएँ हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जाएँ हम..
***
लीक से हटकर एक प्रयोग:
निरंतरी मुक्तिका:
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको अंत आता है..
*
न आता अंत तो कहिए कहाँ धरती पे पग रखते,
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
जगत ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टँगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फँसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जाएगा, महज धमकाएगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
२३-११-२०१०
***
सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!
आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर
आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का
आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्य-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
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मुक्तक
काैन किसका सगा है
लगता प्रेम पगा है
नेह नाता जाे मिला
हमें उसने ठगा है
*
दिल से दिल की बात हो
खुशनुमा हालात हो
गीत गाये झूमकर
गून्जते नग्मात हो
२३-११-२०१४
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जगदीशचंद्र बोस



भारतीय विश्वगुरु:
बेतार संवाद प्रणाली का भारतीय अन्वेषक: जगदीशचंद्र बोस
बेतार संचार (वायरलेस कम्युनिकेशन) रोजमर्रा की जरूरत है। सोते-जागते, उठते-बैठते इंटरनेट, रेडियो, टेलीफोन या मोबाईल फोन के रूप में हम इससे जुडे़ रहते हैं। क्या आप जानते हैं, इस उपयोगी टेक्नोलॉजी की खोज कैसी हुई और किसने की? अगर नहीं, तो यह जानकर आपको खुशी होगी कि इसके पीछे एक भारतीय का दिमाग है।
जगदीश चन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे। वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है। वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।


पिता ने दिखाई विज्ञान की राह:
जगदीश चन्द्र बोस (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु, ३० नवंबर, १८५८ – २३ नवंबर, १९३७) का जन्म मेमनसिंह, फरीदपुर (अब बांग्लादेश) में हुआ। उनके पिता भगवान चन्द्र बोस ब्रह्म समाज के नेता थे और फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य जगहों पर उप-मैजिस्ट्रेट या सहायक कमिश्नर थे। इनका परिवार रारीखाल गांव, बिक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुन्शीगंज जिले में है। ग्यारह वर्ष की आयु तक इन्होने गाँव के ही एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। जगदीश की शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई। उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छे से आनी चाहिए। विक्रमपुर में १९१५ में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए जगदीश चन्द्र बोस ने कहा- "उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।
विद्यालयी शिक्षा के बाद जगदीश कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। उनकी जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी। वे २२ वर्ष की आयु में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने लंदन चले गए। स्वास्थ खराब रहने पर वे चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये। वहाँ भौतिकी के विख्यात प्रो॰ फादर लाफोण्ट ने बोस को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। वर्ष १८८५ में ये स्वदेश लौटे तथा भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के रूप में १९१५ तक प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाया। भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिए जाने का विरोध कर उन्होंने बिना वेतन के तीन वर्षों तक काम किया। इस कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी, बहुत क़र्ज़ हो गया जिसे चुकाने के लिये उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। चौथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दिया गया। बोस एक अच्छे शिक्षक भी थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र जैसे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने।


ब्रिटिश सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय रूप से विविध तरंग दैर्ध्य की विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, पर उनकी भविष्यवाणी सत्य होने से पहले १८७९ में निधन उनका हो गया। ब्रिटिश भौतिकविद ओलिवर लॉज मैक्सवेल तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन १८८७-१८८८ में तारों के साथ उन्हें प्रेषित करके किया। जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हर्ट्ज ने १८८८ में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया।

एक किताब ने बदल दी दुनिया
१८९३ में, निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया। ब्रिटिश वैज्ञानिक ओलिवर लॉज ने हर्ट्ज की मृत्यु के बाद हर्ट्ज का काम जारी रखा। लॉज ने जून १८९४ में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लॉज ने रेडियो तरंगों से जुड़ी एक खोज में बताया कि प्रकाश (लाइट) की तरह रेडियो तरंगें हवा में तैर सकती हैं। इस खोज पर छपी किताब जगदीश ने भी खरीदी। लॉज के काम ने बोस सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया। इसे पढ़ने के बाद बोस इस खोज को आगे बढ़ाने में जुट गये। काम आसान नहीं था, लेकिन वह ठान चुके थे, करके रहेंगे। बोस दिन-रात रेडियो तरंगों के विषय में ही सोचते रहते थे। रेडियो तरंगें आकार में काफी बड़ी होने के कारण देखी न जा सकने पर भी उपकरणों की मदद से मापी जा सकती थीं। यही कारण था कि यह रेडियो तरंगें सिर्फ थोड़ी दूर तक ही जा पाती थीं।
बोस प्रकाश के माइक्रोवेव गुणों का अध्ययन करने के लिए लंबी तरंग दैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए। बोस के माइक्रोवेव अनुसंधान का पहला उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर (लगभग ५ मिमी तरंग दैर्ध्य) स्तर पर ला दिया । एक साल बाद, कोलकाता में नवम्बर १८९४ में सार्वजनिक प्रदर्शन दौरान, बोस ने एक मिलीमीटर रेंज माइक्रोवेव तरंग का उपयोग बारूद दूरी पर प्रज्वलित करने और घंटी बजाने में किया। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी ने कलकत्ता टाउन हॉल में बोस का प्रदर्शन देखा। बोस ने एक बंगाली निबंध, 'अदृश्य आलोक' में लिखा था, "अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि के भीतर से जा सकती है, इसलिए तार की बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।" रूस में पोपोव ने ऐसा ही एक प्रयोग किया।
बोस ने "डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर" पहला वैज्ञानिक लेख, मई १८९५ में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा। उनका दूसरा लेख अक्टूबर १८९५ में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लार्ड रेले द्वारा भेजा गया। दिसम्बर १८९५में, लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन ने (३६ Vol) ने बोस का लेख "एक नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप पर" प्रकाशित किया। उस समय अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द 'कोहिरर' का प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। बोस के कोहिरर पर अंग्रेजी पत्रिका इलेक्ट्रिशियन (१८ जनवरी १८९६) ने टिप्पणी की: "यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट सफल होते हैं, हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांति देखेंगे।"
बोस "अपने कोहिरर" को बेह्तर करने की योजना बनाई लेकिन यह पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया।
लघु रेडियों तरंगों को बनाने से अधिक कठिन काम था, उनका रिसीवर बनाना। रिसीवर को ही उन तरंगों को ग्रहणकर उन पर प्रतिक्रिया करनी थी। बसु पूरी तन्मयता से रिसीवर बनाने में जुट गए। इसके बिना उनकी खोज को पूरी नहीं हो सकती थी। अंतत: वह अर्ध चालक (सेमीकंडक्टर) की सहायता से रिसीवर बनाने में सफल हो गये। बसु ने अपने आविष्कार का परीक्षण किया तो वह हैरान रह गए। उनका बनाया रिसीवर रेडियो तरंगें पकड़ रहा था किन्तु वह जरा सी दूरी तक सीमित था। बसु उसे और आगे तक ले जाना चाहते थे। सन १८९५ में प्रेसीडेंसी कोलेज कोलकाता में भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपनी खोज प्रदर्शित। उन्होंने रेडियो तरंगों मदद से ७५ फीट दूर, दीवारों के पार एक घंटी को बजाया। लोग हैरान थे कि वह तरंग दीवारों के पार, इतनी दूर तक गई कैसे? इस खोज ने बसु को विज्ञान की दुनिया में मशहूर कर दिया था। अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इन पर आगे काम कर सकें। बोस ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बोस ने जो काम किया वह रेडियो कम्युनिकेशन से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन उनके द्वारा किये हुए सुधार एवं उनके द्वारा इस विषय में लिखे हुए तथ्यों ने दूसरे रेडियो आविष्कारकों को ज़रूर प्रभावित किया था। उस दौर में १८९४ के अंत में गुगलिएल्मो मारकोनी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे जो वायरलेस टेलीग्राफी के लिए विषिठ रूप डिज़ाइन किया जा रहा था। १८९६ के आरंभ तक यह प्रणाली फिजिक्स द्वारा बताये गए रेंज से ज़्यादा दूरी में रेडियो सिग्नल्स ट्रांस्मिट कर रही थी।
जगदीशचन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो तरंगे डिटेक्ट करने के लिए सेमीकंडक्टर जंक्शन का उपयोग कर इस पद्धति में कई माइक्रोवेव कंपोनेंट्स की खोज की। इसके बाद अगले ५० साल तक मिलीमीटर लम्बाई की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगो पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। १८९७ में बोस ने लंदन के रॉयल इंस्टीटूशन में अपने मिलीमीटर तरंगों पर किये हुए शोध की वर्णना दी थी। उन्होंने अपने शोध में वेवगाइड्स, हॉर्न ऐन्टेना, डाई-इलेक्ट्रिक लेंस, अलग अलग पोलराइज़र और सेमीकंडक्टर (फ्रीक्वेंसी ६० GHz तक) का उपयोग किया था। ये सब उपकरण आज भी कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में मौजूद हैं। एक १.३ मि.मी. मल्टीबीम रिसीवर जो की एरिज़ोना के NRAO १२ मीटर टेलिस्कोप में हैं , आचार्य बोस १८९७ में लिखे हुए रिसर्च पेपर के सिद्धांतोंया गया हैं।
सर नेविल्ले मोट्ट को १९७७ में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स में किये अपने शोधकार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने यह कहा था की आचार्य जगदीश चन्द्र बोस अपने समय से ६० साल आगे थे। असल में बोस ने ही P - टाइप और N - टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।
मार्कोनी का प्रवेश और रेडियो संचार की खोज:
कुछ समय बाद अपनी खोज पर बसु लंदन में एक सभागार में व्याख्यान दे रहे थे। यहाँ उपस्थित वैज्ञानिक समूह में मार्कोनी भी थे। वह ब्रिटिश डाक सेवा के लिए ऐसी ख़ोज में लगे थे, जिससे तरंगों के जरिये सन्देश भेज सकें। वह बसु से प्रभावित हुए। दोनों दोस्त बन गये। मार्कोनी ने बसु को अपने प्रयोग के बारे में बताया। बसु की रूचि जगी। वह अपने नए मिशन पर जुट गए। वह मानव समाज के कल्याण के लिए यह खोज करना चाहते थे। वे जानते थे कि यह खोज मनुष्य जाति के लिए बहुत लाभकारी होगी। इसे लोग आसानी से इस्तेमाल कर सकते थे। अंतत: १८९९ में वह इसमें सफल हुए। उनका यह आविष्कार लंदन ‘रॉयल सोसाइटी’ के एक संस्करण में छपा। विज्ञान जगत बसु की इस खोज से अचंभित था। मार्कोनी ने भी इसे पढ़ा। वह चोरी-छिपे बसु की खोज का प्रयोग कर रेडियो संचार का आविष्कार कर रहे थे। बसु के बनाए यंत्र से उन्हें अपना काम करने में आसानी हो गई। मार्कोनी के एक बाल मित्र ने इस यंत्र में कुछ सुधार कर उसे दे दिया।
चोरी हो चुकी थी बसु की खोज
मार्कोनी ने जैसे ही उस रिसीवर को अपने रेडियो संचार के यंत्र के साथ लगाया, वह काम करने लगा। मार्कोनी फूले नहीं समा रहे थे। उन्हें पता चल गया था कि उनके हाथ क्या लग चुका है। १९०१ में बसु के उस यंत्र पर मार्कोनी ने बिना पूछे-बताये कब्ज़ा कर लिया था। मार्कोनी ने दुनिया के सामने रेडियो संदेश भेज ही दिया। बसु के जिस यंत्र ने अभी तक ७५ फीट की दूरी तय की थी। मार्कोनी ने उसी यंत्र का इस्तेमाल करके दूरी को २००० मील तक पहुँचा दिया। मार्कोनी मशहूर हो चुके थे। इस खोज के लिए वह नोबेल पुरस्कार लेने मे भी कामयाब रहे।
बसु ने इस यंत्र का अन्वेषण किया था किन्तु उनका नाम कहीं नहीं था। वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि उन्होंने अपने किसी भी अविष्कार का पेटेंट नहीं कराया था। कानूनन उनका अपनी ही खोज पर कोई हक नहीं था। सारी दुनिया ने इसे मार्कोनी के नाम से जाना। इसके बाद बोस ने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। बोस ने क्रेस्कोग्राफ़ यंत्र का आविष्कार कर विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। बोस पेटेंट प्रक्रिया के बहुत विरुद्ध थे और मित्रों के कहने पर ही इन्होंने एक पेटेंट के लिए आवेदन किया। हाल के वर्षों में आधुनिक विज्ञान को मिले इनके योगदानों को फिर मान्यता दी जा रही है।

Guglielmo Marconi (Pic: thedailybeast.com)
इस खोज के सही हकदार बसु थे, लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था. बसु ने भारत आकर देश के लिए कई सारे अन्य योगदान दिए, जिनके लिए देश के लोग उनको अपने सिर आंखों पर बैठातै हैं.
[साभार: Vimal Naugain Staff Writer ROAR हिंदी]
कहें चाहते जिया को, नहीं जिया में चाह
निज खातिर जीवन जिया, जिया न कर परवाह