कुल पेज दृश्य

सोमवार, 24 नवंबर 2025

जगदीशचंद्र बोस



भारतीय विश्वगुरु:
बेतार संवाद प्रणाली का भारतीय अन्वेषक: जगदीशचंद्र बोस
बेतार संचार (वायरलेस कम्युनिकेशन) रोजमर्रा की जरूरत है। सोते-जागते, उठते-बैठते इंटरनेट, रेडियो, टेलीफोन या मोबाईल फोन के रूप में हम इससे जुडे़ रहते हैं। क्या आप जानते हैं, इस उपयोगी टेक्नोलॉजी की खोज कैसी हुई और किसने की? अगर नहीं, तो यह जानकर आपको खुशी होगी कि इसके पीछे एक भारतीय का दिमाग है।
जगदीश चन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे। वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है। वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।


पिता ने दिखाई विज्ञान की राह:
जगदीश चन्द्र बोस (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु, ३० नवंबर, १८५८ – २३ नवंबर, १९३७) का जन्म मेमनसिंह, फरीदपुर (अब बांग्लादेश) में हुआ। उनके पिता भगवान चन्द्र बोस ब्रह्म समाज के नेता थे और फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य जगहों पर उप-मैजिस्ट्रेट या सहायक कमिश्नर थे। इनका परिवार रारीखाल गांव, बिक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुन्शीगंज जिले में है। ग्यारह वर्ष की आयु तक इन्होने गाँव के ही एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। जगदीश की शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई। उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छे से आनी चाहिए। विक्रमपुर में १९१५ में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए जगदीश चन्द्र बोस ने कहा- "उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।
विद्यालयी शिक्षा के बाद जगदीश कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। उनकी जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी। वे २२ वर्ष की आयु में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने लंदन चले गए। स्वास्थ खराब रहने पर वे चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये। वहाँ भौतिकी के विख्यात प्रो॰ फादर लाफोण्ट ने बोस को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। वर्ष १८८५ में ये स्वदेश लौटे तथा भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के रूप में १९१५ तक प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाया। भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिए जाने का विरोध कर उन्होंने बिना वेतन के तीन वर्षों तक काम किया। इस कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी, बहुत क़र्ज़ हो गया जिसे चुकाने के लिये उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। चौथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दिया गया। बोस एक अच्छे शिक्षक भी थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र जैसे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने।


ब्रिटिश सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय रूप से विविध तरंग दैर्ध्य की विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, पर उनकी भविष्यवाणी सत्य होने से पहले १८७९ में निधन उनका हो गया। ब्रिटिश भौतिकविद ओलिवर लॉज मैक्सवेल तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन १८८७-१८८८ में तारों के साथ उन्हें प्रेषित करके किया। जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हर्ट्ज ने १८८८ में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया।

एक किताब ने बदल दी दुनिया
१८९३ में, निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया। ब्रिटिश वैज्ञानिक ओलिवर लॉज ने हर्ट्ज की मृत्यु के बाद हर्ट्ज का काम जारी रखा। लॉज ने जून १८९४ में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लॉज ने रेडियो तरंगों से जुड़ी एक खोज में बताया कि प्रकाश (लाइट) की तरह रेडियो तरंगें हवा में तैर सकती हैं। इस खोज पर छपी किताब जगदीश ने भी खरीदी। लॉज के काम ने बोस सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया। इसे पढ़ने के बाद बोस इस खोज को आगे बढ़ाने में जुट गये। काम आसान नहीं था, लेकिन वह ठान चुके थे, करके रहेंगे। बोस दिन-रात रेडियो तरंगों के विषय में ही सोचते रहते थे। रेडियो तरंगें आकार में काफी बड़ी होने के कारण देखी न जा सकने पर भी उपकरणों की मदद से मापी जा सकती थीं। यही कारण था कि यह रेडियो तरंगें सिर्फ थोड़ी दूर तक ही जा पाती थीं।
बोस प्रकाश के माइक्रोवेव गुणों का अध्ययन करने के लिए लंबी तरंग दैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए। बोस के माइक्रोवेव अनुसंधान का पहला उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर (लगभग ५ मिमी तरंग दैर्ध्य) स्तर पर ला दिया । एक साल बाद, कोलकाता में नवम्बर १८९४ में सार्वजनिक प्रदर्शन दौरान, बोस ने एक मिलीमीटर रेंज माइक्रोवेव तरंग का उपयोग बारूद दूरी पर प्रज्वलित करने और घंटी बजाने में किया। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी ने कलकत्ता टाउन हॉल में बोस का प्रदर्शन देखा। बोस ने एक बंगाली निबंध, 'अदृश्य आलोक' में लिखा था, "अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि के भीतर से जा सकती है, इसलिए तार की बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।" रूस में पोपोव ने ऐसा ही एक प्रयोग किया।
बोस ने "डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर" पहला वैज्ञानिक लेख, मई १८९५ में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा। उनका दूसरा लेख अक्टूबर १८९५ में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लार्ड रेले द्वारा भेजा गया। दिसम्बर १८९५में, लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन ने (३६ Vol) ने बोस का लेख "एक नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप पर" प्रकाशित किया। उस समय अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द 'कोहिरर' का प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। बोस के कोहिरर पर अंग्रेजी पत्रिका इलेक्ट्रिशियन (१८ जनवरी १८९६) ने टिप्पणी की: "यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट सफल होते हैं, हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांति देखेंगे।"
बोस "अपने कोहिरर" को बेह्तर करने की योजना बनाई लेकिन यह पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया।
लघु रेडियों तरंगों को बनाने से अधिक कठिन काम था, उनका रिसीवर बनाना। रिसीवर को ही उन तरंगों को ग्रहणकर उन पर प्रतिक्रिया करनी थी। बसु पूरी तन्मयता से रिसीवर बनाने में जुट गए। इसके बिना उनकी खोज को पूरी नहीं हो सकती थी। अंतत: वह अर्ध चालक (सेमीकंडक्टर) की सहायता से रिसीवर बनाने में सफल हो गये। बसु ने अपने आविष्कार का परीक्षण किया तो वह हैरान रह गए। उनका बनाया रिसीवर रेडियो तरंगें पकड़ रहा था किन्तु वह जरा सी दूरी तक सीमित था। बसु उसे और आगे तक ले जाना चाहते थे। सन १८९५ में प्रेसीडेंसी कोलेज कोलकाता में भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपनी खोज प्रदर्शित। उन्होंने रेडियो तरंगों मदद से ७५ फीट दूर, दीवारों के पार एक घंटी को बजाया। लोग हैरान थे कि वह तरंग दीवारों के पार, इतनी दूर तक गई कैसे? इस खोज ने बसु को विज्ञान की दुनिया में मशहूर कर दिया था। अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इन पर आगे काम कर सकें। बोस ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बोस ने जो काम किया वह रेडियो कम्युनिकेशन से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन उनके द्वारा किये हुए सुधार एवं उनके द्वारा इस विषय में लिखे हुए तथ्यों ने दूसरे रेडियो आविष्कारकों को ज़रूर प्रभावित किया था। उस दौर में १८९४ के अंत में गुगलिएल्मो मारकोनी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे जो वायरलेस टेलीग्राफी के लिए विषिठ रूप डिज़ाइन किया जा रहा था। १८९६ के आरंभ तक यह प्रणाली फिजिक्स द्वारा बताये गए रेंज से ज़्यादा दूरी में रेडियो सिग्नल्स ट्रांस्मिट कर रही थी।
जगदीशचन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो तरंगे डिटेक्ट करने के लिए सेमीकंडक्टर जंक्शन का उपयोग कर इस पद्धति में कई माइक्रोवेव कंपोनेंट्स की खोज की। इसके बाद अगले ५० साल तक मिलीमीटर लम्बाई की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगो पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। १८९७ में बोस ने लंदन के रॉयल इंस्टीटूशन में अपने मिलीमीटर तरंगों पर किये हुए शोध की वर्णना दी थी। उन्होंने अपने शोध में वेवगाइड्स, हॉर्न ऐन्टेना, डाई-इलेक्ट्रिक लेंस, अलग अलग पोलराइज़र और सेमीकंडक्टर (फ्रीक्वेंसी ६० GHz तक) का उपयोग किया था। ये सब उपकरण आज भी कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में मौजूद हैं। एक १.३ मि.मी. मल्टीबीम रिसीवर जो की एरिज़ोना के NRAO १२ मीटर टेलिस्कोप में हैं , आचार्य बोस १८९७ में लिखे हुए रिसर्च पेपर के सिद्धांतोंया गया हैं।
सर नेविल्ले मोट्ट को १९७७ में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स में किये अपने शोधकार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने यह कहा था की आचार्य जगदीश चन्द्र बोस अपने समय से ६० साल आगे थे। असल में बोस ने ही P - टाइप और N - टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।
मार्कोनी का प्रवेश और रेडियो संचार की खोज:
कुछ समय बाद अपनी खोज पर बसु लंदन में एक सभागार में व्याख्यान दे रहे थे। यहाँ उपस्थित वैज्ञानिक समूह में मार्कोनी भी थे। वह ब्रिटिश डाक सेवा के लिए ऐसी ख़ोज में लगे थे, जिससे तरंगों के जरिये सन्देश भेज सकें। वह बसु से प्रभावित हुए। दोनों दोस्त बन गये। मार्कोनी ने बसु को अपने प्रयोग के बारे में बताया। बसु की रूचि जगी। वह अपने नए मिशन पर जुट गए। वह मानव समाज के कल्याण के लिए यह खोज करना चाहते थे। वे जानते थे कि यह खोज मनुष्य जाति के लिए बहुत लाभकारी होगी। इसे लोग आसानी से इस्तेमाल कर सकते थे। अंतत: १८९९ में वह इसमें सफल हुए। उनका यह आविष्कार लंदन ‘रॉयल सोसाइटी’ के एक संस्करण में छपा। विज्ञान जगत बसु की इस खोज से अचंभित था। मार्कोनी ने भी इसे पढ़ा। वह चोरी-छिपे बसु की खोज का प्रयोग कर रेडियो संचार का आविष्कार कर रहे थे। बसु के बनाए यंत्र से उन्हें अपना काम करने में आसानी हो गई। मार्कोनी के एक बाल मित्र ने इस यंत्र में कुछ सुधार कर उसे दे दिया।
चोरी हो चुकी थी बसु की खोज
मार्कोनी ने जैसे ही उस रिसीवर को अपने रेडियो संचार के यंत्र के साथ लगाया, वह काम करने लगा। मार्कोनी फूले नहीं समा रहे थे। उन्हें पता चल गया था कि उनके हाथ क्या लग चुका है। १९०१ में बसु के उस यंत्र पर मार्कोनी ने बिना पूछे-बताये कब्ज़ा कर लिया था। मार्कोनी ने दुनिया के सामने रेडियो संदेश भेज ही दिया। बसु के जिस यंत्र ने अभी तक ७५ फीट की दूरी तय की थी। मार्कोनी ने उसी यंत्र का इस्तेमाल करके दूरी को २००० मील तक पहुँचा दिया। मार्कोनी मशहूर हो चुके थे। इस खोज के लिए वह नोबेल पुरस्कार लेने मे भी कामयाब रहे।
बसु ने इस यंत्र का अन्वेषण किया था किन्तु उनका नाम कहीं नहीं था। वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि उन्होंने अपने किसी भी अविष्कार का पेटेंट नहीं कराया था। कानूनन उनका अपनी ही खोज पर कोई हक नहीं था। सारी दुनिया ने इसे मार्कोनी के नाम से जाना। इसके बाद बोस ने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। बोस ने क्रेस्कोग्राफ़ यंत्र का आविष्कार कर विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। बोस पेटेंट प्रक्रिया के बहुत विरुद्ध थे और मित्रों के कहने पर ही इन्होंने एक पेटेंट के लिए आवेदन किया। हाल के वर्षों में आधुनिक विज्ञान को मिले इनके योगदानों को फिर मान्यता दी जा रही है।

Guglielmo Marconi (Pic: thedailybeast.com)
इस खोज के सही हकदार बसु थे, लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था. बसु ने भारत आकर देश के लिए कई सारे अन्य योगदान दिए, जिनके लिए देश के लोग उनको अपने सिर आंखों पर बैठातै हैं.
[साभार: Vimal Naugain Staff Writer ROAR हिंदी]
कहें चाहते जिया को, नहीं जिया में चाह
निज खातिर जीवन जिया, जिया न कर परवाह

कोई टिप्पणी नहीं: