।। ॐ परात्पर परब्रह्म श्री चित्रगुप्त चालीसा ।।
दोहा
सुमिर परात्पर ब्रह्म को, विधि-हरि-हर के संग।
मातृ त्रयी करिए कृपा, वश में रहे अनंग।०१।
ॐ अनाहद नाद को, श्वास-श्वास उच्चार।
आजीवन सुन सकें हम, मधुकर ध्वनि गुंजार।०२।
सदय वाग्देवी रहें, करें कृपा विघ्नेश।
ऋद्धि-सिद्धि वरदान दें, हों प्रसन्न कर्मेश।०३।
हों कृपालु अवतार सब, गृह-नक्षत्र सुसंत।
भू-गौ-भाषा-नर्मदा, छंद-व्याकरण-कंत।०४।
मानव के कल्याण हित, करें काम निष्काम।
वेद-उपनिषद हृदय रख, पहुँचें प्रभु के धाम।०५।
चौपाई
जयति-जय निराकार-साकार। तुम्हारी महिमा अपरंपार।०१।
हो अनंत अविनाशी भगवन। संत ॐ कह करते सुमिरन।०२।
श्यामल अंतरिक्ष में व्याप्त। थे एकाकी ईश्वर आप्त।०३।
सत न असत, नहिं जन्म-मरण था। तम ने तम का किया वरण था ।०४।
की इच्छा तब प्रभु ने मन में। गुप्त प्रगट हों मरें न जनमें।०५।
एक रहा, होना अनेक है। अनहद नादित मात्र एक है ।०६।
कण-कण चित्रगुप्त अनुप्राणित। निराकार साकार सुभावित ।०७।
चित्रगुप्त की आदि शक्तियाँ। परा व अपरा दिव्य पत्नियाँ।०८।
इरावती-नंदिनी कहे जग। जन्म-मरण पथ पर रखकर पग।०९।
ग्रह-उपग्रह, ब्रह्मांड बनाए। जड़-चेतन प्रभु ने उपजाए।१०।
तीन अंश तब निज प्रगटाए। विधि-हरि-हर त्रय देव कहाए।११।
शारद-उमा-रमा जब पाएँ। जनमें-पालें-नाश कराएँ। १२।
देव त्रयी के कर्म सुनिश्चित। भूल-चूक हो तो हों शापित।१३।
लें अवतार धर्म-पालन कर। जाते हैं निज लोक समय पर।१४।
नाद तरंगें अनगिन घूमें। मिलें-अलग हो टकरा झूमें।१५।
बनतीं कण निर्भार न दिखतीं। मिले भार तब आप विकसतीं।१६।
कण-से कण जुड़ पंचतत्व हों, अंतर्निहित अनंत सत्व हों।१७।
ऊर्जस्वित मायापति पल-पल। माया-मोह सुमन में परिमल।१८।
अक्षय अजर अमर अविनाशी। ईश घोर तम दैव प्रकाशी।१९।
चित्त-वृत्ति सुख-दुख की कारक। निराकार-साकार निवारक।२०।
लय-गति-नाद तरंग-लहर-रस। कर निर्जीव सजीव रहें बस।२१।
सुप्त चेतना जाग्रत करते। गुप्त चित्त में 'चित्र' विचरते।२२।
अनिल अनल भू गगन सलिल मिल। लोक बनाए सृष्टि सके खिल।२३।
सूक्ष्म जीव फिर 'मत्स्य' हुए प्रभु। 'कच्छप' अरु 'वाराह' हुए विभु।२४।
पाँच खंड में बाँटी धरती। बीच समुद में लगे तैरती।२५।
ले 'नरसिंह'-'वामन' अवतार। हरा 'परशु' ने भू का भार।२६।
हुआ सृष्टि विस्तार अनवरत। ब्रह्म नहीं कर सके व्यवस्थित।२७।
अंकपात तप कर फल पाया। असि-मसि, अक्षर-अंक सुहाया।२८।
बारह मास सदृश बारह सुत। बारह सुतवधु राशि धर्म युत।२९।
सतयुग में सुखमय संसार। अपना कर वैदिक आचार।३०।
त्रेता सुर-नर्-असुर बढ़े जब। मनमानी की ओर बढ़े तब।३१।
कर्म-दंड की नीति बनाई। जो बोए सो काटे भाई।३२।
लोभी नृप सौदास कुचाली। चरण-शरण आ शुभ गति पा ली।३३।
पूजन कर श्री राम अवध में। पूर्णकाम हो थके न मग में।३४।
कान्हा अंकपात में आए। कायथ-धर्म सुशिक्षा पाए।३५।
काम अकाम करे प्रभु अर्पण। मिले न फल, फिर हो नहिं तर्पण।३६।
काम सकाम भोगती काया। मर जनमे भोगे फल पाया।३७।
कर्म कुशलता योग प्रणेता। गुण-कर्मों से वर्ण विजेता।३८।
हो परमात्म आत्म काया बस। हो 'कायस्थ' जगत गाए जस।३९।
कर पितु-माँ द्वय कृपा तारिए। भक्ति-मुक्ति दे भ्रम निवारिए।४०।
दोहा
चित्रगुप्त जी की कृपा, सुर-नर-किन्नर चाह।
कर्म कुशल हों जगत में, मिले सफलता वाह।०६।
श्यामल-मनहर छवि-छटा, जहाँ वहीं हैं आप।
गौर दिव्य ममतामयी, माँ हरतीं संताप।०७।
विष अणु को अमृत करें, हरि-शिव होकर नित्य।
अनल अनिल नभ भू 'सलिल', बसते इष्ट अनित्य।०८।
चित्रगुप्त प्रभु हों सदय, दें निश-दिन आशीष।
शीश उठा हम जी सकें, हो मतिमान मनीष।०९।
कर्म-धर्म को जानकर, करें सत्य स्वीकार।
न्याय-नीति पथ पर चलें, पा-दें ममता-प्यार।१०।
कायथ कुल गौरव कथा, कहे सकल संसार।
ज्ञान-परिश्रम-त्याग वर, हो भव से उद्धार।।
।। इति श्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' रचित चित्रगुप्त चालीसा संपूर्ण ।।
०००
मानवता के काम आ, कर बुराई का अंत।
श्री वास्तव में पा सकें, दें प्रभु भक्ति अनंत।७।
चित्रगुप्त
चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं??
*
परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की अवतार कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। बौद्ध और जैन धर्मों में गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी की जातक कथाएँ विविध योनियों में उनके जन्म और कर्म पर केंद्रित हैं। इससे यह स्पष्ट है कि कोई उच्चतर शक्ति उन्हें इन योनियों में भेजती है।
कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं।
काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है।
आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तृण-तृण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर, ऋक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर आदि कायस्थ हैं।
कायस्थ और वर्ण
मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टम् गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित करते रहे हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सब नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है।
जाति
बुंदेली कहावत 'जात बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ 'जात' का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। संस्कृत की धातु 'जा' का अर्थ जन्म देना है। 'जा' से जाया (जग जननी का एक नाम, जन्म दिया), जच्चा (जन्म देनेवाली), जात (एक समान गुण वाले), जाति (एक समान कर्म करनेवाले) आदि शब्द बने हैं। स्पष्ट है कि जाति या वर्ण 'जन्मना' नहीं 'कर्मणा' निर्धारित होती हैं। सांस्कृतिक पराभव काल में विदेशी शक्तियों के अधीन हो जाने पर शिक्षा और ज्ञान की रह अवरुद्ध हो जाने के कारण जाति और वर्ण को जन्म आधारित माँ लिया गया।
कुलनाम और अल्ल
प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।
गोत्र
चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुए। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था। यह नियम पूरी तरह विज्ञान और तर्क सम्मत था। वर और वधु दो भिन्न कुल गुरुओं से दो भिन्न विषयों-विधाओं की शिक्षा प्राप्त कर विवाह करते तो उनके बच्चों को माता-पिता दोनों से उन विषयों का ज्ञान मिलता। बच्चे एक अन्य गुरु से अन्य विषय का ज्ञान पाते और उनका जीवन साथी नए विषय को सीखकर अगली पीढ़ी को अधिक ज्ञानवान बनाता। इस तरह हर पीढ़ी अपने से पूर्वजों से अधिक ज्ञानवान होती।
कालांतर में विदेश आक्रांताओं से पराजित होने पर सत्ता-सूत्र सम्हाले कायस्थों को स्थान परिवर्तन करना पड़ा। अपने योग्यता के बल पर नए स्थान पर उन्हें आजीविका तो मिल गई किंतु स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर कायस्थों को विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करना पड़ा।
आधा मुसलमान/आधा अंग्रेज
फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र सम्हालने के लिए कायस्थों को क्रमश: मुगल / अंग्रेज शासकों की भाषा, रहन-सहन और खान-पान अपनाना पड़ा। जिन्हें यह अवसर नहीं मिल सका वे कायस्थों के निंदक हो गए और उन्होंने कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा। बाद अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया। स्पष्ट है कि कायस्थों ने देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाला आउए 'जैसा देश, वैसा वेश' के सिद्धांत को अपनाकर सफलता पाई।
अल्ल
एक गोत्र में विवाह की मजबूरी होने पर कायस्थों ने आनुवंशिक शुद्धता के लिए एक नई राह अपनाई। कायस्थों ने एक 'अल्ल' में विवाह न करने की परंपरा को जन्म दिया। कुल के पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) मानते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। एक अल्ल के दो जातकों का आपस में विवाह वर्जित है। ऐसी ही परिस्थितियों में गहोई वैश्यों ने अल्ल-प्रथा को 'आँकने' नाम देकर अपनाया और समान आँकने वाले जातकों में विवाह निषिद्ध किया।
वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कर पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना भी है। कायस्थों में भिन्न मत, वाद, धर्म, पंथ के जातकों के साथ विवाह करने की परंपरा चिरकाल से रही है। इष्टदेव चित्रगुप्त जी के दो विवाह दो भिन्न संस्कृतियों की कन्याओं से होना विश्व मानवता की एकता की द्रक्षति से महत्वपूर्ण विरासत है।
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम) और उनके अर्थ
कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब
गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया।
कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-
अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त ।
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले।
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले।
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ।
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था। कायस्थ/ब्राह्मण उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले।
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे।
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया।
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त।
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।।
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे।
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है।
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले।
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी।
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं।
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे।
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले।
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
***
महासरस्वती ब्रह्मा पाएँ। विष्णु महालक्ष्मी अपनाएँ।१३।
शक्ति वरें शिव, महाकाल हों। यम पूजन करते निहाल हों।१४।
जय-जय चित्रगुप्त परमेश । परमब्रह्म ।।अज सहाय अवतरेउ गुसांई । कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई ।।श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा। भांति-भांति के जीवन राचा ।।अज की रचना मानव संदर । मानव मति अज होइ निरूत्तर ।।भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई । धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई ।।राचेउ धरम धरम जग मांही । धर्म अवतार लेत तुम पांही ।।अहम विवेकइ तुमहि विधाता । निज सत्ता पा करहिं कुघाता।।श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी । त्रय देवन कर शक्ति समानी ।।पाप मृत्यु जग में तुम लाए। भयका भूत सकल जग छाए ।।महाकाल के तुम हो साक्षी । ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी ।।धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो । कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो ।।राम धर्म हित जग पगु धारे । मानवगुण सदगुण अति प्यारे ।।विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें । पालन धर्म करम शुचि साजे ।।महादेव के तुम त्रय लोचन । प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन ।।सावित्री पर कृपा निराली । विद्यानिधि माँ सब जग आली।।रमा भाल पर कर अति दाया। श्रीनिधि अगम अकूत अगाया ।।ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो। जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो ।।गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा। जाके कर्म गहइ तव हाथा ।।रावण कंस सकल मतवारे । तव प्रताप सब सरग सिधारे ।।प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा । सोउ करत तुम्हारी सेवा ।।रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी । विघ्न हरण शुभ काज संवारी ।।व्यास चहइ रच वेद पुराना। गणपति लिपिबध हितमन ठाना।।पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा। असवर देय जगत कृत कीन्हा।।लेखनि मसि सह कागद कोरा। तव प्रताप अजु जगत मझोरा।।विद्या विनय पराक्रम भारी। तुम आधार जगत आभारी।।द्वादस पूत जगत अस लाए। राशी चक्र आधार सुहाए ।।जस पूता तस राशि रचाना । ज्योतिष केतुम जनक महाना ।।तिथी लगन होरा दिग्दर्शन । चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन ।।राशी नखत जो जातक धारे । धरम करम फल तुमहि अधारे।।राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई । प्रथम गुरू महिमा गुण गाई ।।श्री गणेश तव बंदन कीना । कर्म अकर्म तुमहि आधीना।।देववृत जप तप वृत कीन्हा । इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा ।।धर्महीन सौदास कुराजा । तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा ।।हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा । कायथ परिजन परम पितामा।।शुर शुयशमा बन जामाता । क्षत्रिय विप्र सकल आदाता ।।जय जय चित्रगुप्त गुसांई। गुरूवर गुरू पद पाय सहाई ।।जो शत पाठ करइ चालीसा। जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा।।विनय करैं कुलदीप शुवेशा। राख पिता सम नेह हमेशा ।।दोहाज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र।।
पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।
पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें