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सोमवार, 24 नवंबर 2025

नवंबर २४, सॉनेट, अधिवक्ता, दोहा, रेलगाड़ी, मुक्तक, लघुकथा, गीत, शिशु गीत, मुक्तिका

 सलिल सृजन नवंबर २४

सॉनेट
संजय
अजय रहे यह चाह नहीं है,
हिंसा पंथ नहीं अपनाता,
कर संतोष सदा सुख पाता,
विजय वरे वह राह नहीं है।
तनिक हृदय में डाह नहीं है,
पाता जो दायित्व निभाता,
कृष्ण-सखा होना मन भाता,
मिलकर मिलती वाह नहीं है।
अपना मस्तक ऊँचा रखता,
निर्मलता उसका आभूषण,
पाता-देता नहीं पराजय।
सत्य कहे अप्रिय बिन कटुता,
आत्म आचरण निरख परखता,
नहीं धनंजय से कम संजय।
२४.११.२०२३
***
सॉनेट
अधिवक्ता
अधिवक्ता वक्ता हो उनका जो सच्चे हैं,
पीड़ित-निर्बल की लाठी बन न्याय दिलाए,
नहीं सबल अन्यायी का चाकर हो जाए,
न ही बचाए उसको जो अन्यायी लुच्चा।
रखे मनोबल सुदृढ़, न हो वह मन का कच्चा,
और न केवल धन अर्जन ही लक्ष्य बनाए,
न्यायालय को विधि-मंदिर का सुयश दिलाए,
डरे दंड से हर अपराधी नंगा टुच्चा।
करो वकालत पर जमीर नीलाम न करना,
मरना बेहतर अपराधी के संरक्षण से,
काला कोट न मातम-वाहक नहीं रुदाली,
नव आशा पर्याय सदा अभिभाषक बनना,
प्रतिभाओं का हनन नहीं हो आरक्षण से,
लिए एडवोकेट धरा पर नित खुशहाली।
२४.११.२०२३
•••
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान - समन्वय प्रकाशन
२०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
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विश्ववाणी हिंदी संस्थान एक स्वैच्छिक अपंजीकृत समूह है जो ​भारतीय संस्कृति और साहित्य के प्रचार-प्रसार तथा विकास हेतु समर्पित है। संस्था पीढ़ियों के अंतर को पाटने और नई पीढ़ी को साहित्यिक-सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए निस्वार्थ सेवाभावी रचनात्मक प्रवृत्ति संपन्न महानुभावों तथा संसाधनों को एकत्र कर विविध कार्यक्रम न लाभ न हानि के आधार पर संचालित करती है। इकाई स्थापना, पुस्तक प्रकाशन, लेखन कला सीखने, भूमिका-समीक्षा लिखवाने, विमोचन-लोकार्पण-संगोष्ठी-परिचर्चा अथवा स्व पुस्तकालय स्थापित करने हेतु संपर्क करें: salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४ ​/ ७९९९५ ५९६१८।
काव्य संकलन - चंद्र विजय अभियान
हिंदी के साहित्येतिहास में पहली बार किसी वैज्ञानिक परियोजना को केंद्र में रखकर साझा काव्य संकलन प्रकाशित कर कीर्तिमान बनाया जा रहा है। इसरो के चंद्र विजय अभियान को सफल बनानेवाले वैज्ञानिकों, अभियंताओं व तकनीशियनों की कलमकारों की ओर से मानवंदना करते हुए काव्यांजलि अर्पित करने के लिए तैयार किए जा रहे काव्य संग्रह "चंद्र विजय अभियान" में सहभागिता हेतु आप आमंत्रित हैं। आप अपनी आंचलिक बोली, प्रादेशिक भाषा, राष्ट्र भाषा या विदेशी भाषा में लगभग २० पंक्तियों की रचना भेजें। संकलन में अब तक १४५ सहभागी सम्मिलित हो चुके हैं। संकलन में देश-विदेश की भाषाओं/बोलिओं की रचनाओं का स्वागत है। संकलन में ९४ वर्ष से लेकर २२ वर्ष तक की आयु के ३ पीढ़ियों के रचनाकार सम्मिलित हैं।
अंगिका, अंग्रेजी, असमी, उर्दू, कन्नौजी, कुमायूनी, गढ़वाली, गुजराती, छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी, पचेली, पाली, प्राकृत, बघेली, बांग्ला, बुंदेली, ब्रज, भुआणी, भोजपुरी, मराठी, मारवाड़ी, मालवी, मैथिली, राजस्थानी, संबलपुरी, संथाली, संस्कृत, हलबी, हिंदी आदि ३० भाषाओं/बोलिओं की रचनाएँ आ चुकी हैं। आस्ट्रेलिया, अमेरिका तथा इंग्लैंड से रचनाकार जुड़ चुके हैं।
पहली बार विविध भाषाओं/बोलियों में वैज्ञानिकों/अभियंताओं को काव्यांजलि देकर कीर्तिमान बनाया जा रहा है।
पहली बार देश-विदेश की सर्वाधिक २८ भाषाओं/बोलियों के कवियों का संगम कीर्तिमान बना रहा है।
पहली बार शताधिक कवि एक वैज्ञानिक परियोजना पर कविता रच रहे हैं।
पहली बार २२ वर्ष से लेकर ९४ वर्ष तक के तीन पीढ़ी के रचनाकार एक ही संकलन में सहभागिता कर रहे हैं।
हर सहभागी को इन कीर्तिमानों में आपकी सहभागिता संबंधी प्रमाणपत्र संस्थान अध्यक्ष के हस्ताक्षरों से ओन लाइन भेजा जाएगा।
आप सम्मिलित होकर इस पुनीत सारस्वत अनुष्ठान में अपनी साहित्यिक समिधा समर्पित कर इसे अधिक से अधिक विविधता से समृद्ध करें। अपनी रचना, चित्र, परिचय (जन्म तिथि-माह-वर्ष-स्थान, माता-पिता-जीवनसाथी, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष/वाट्स एप) तथा सहभागिता निधि ३००/- प्रति पृष्ठ वाट्स ऐप क्रमांक ९४२५१८३२४४ पर भेजें। ६००/- मूल्य की पुस्तक की अतिरिक्त प्रति सहभागियों को अग्रिम राशि भेजने पर ४००/- प्रति (पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क) की दर से उपलब्ध होगी। प्रकाशन के पश्चात प्रकाशक से निर्धारित मूल्य पर लेनी होगी।
***
सामयिक लघुकथाएँ
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'सार्थक लघुकथाएँ' शीर्षक से सहयोगाधार पर इच्छुक लघुकथाकारों की २-२ प्रतिनिधि लघुकथाएँ, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) आदि २ पृष्ठों पर प्रकाशित होंगी। लघुकथा पर शोधपरक सामग्री भी होगी। पेपरबैक संकलन की २-२ प्रतियाँ पंजीकृत पुस्त-प्रेष्य की जाएँगी। यथोचित संपादन हेतु सहमत सहभागी मात्र ३००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com पर ईमेल करें। संपादक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं। संपर्क हेतु ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com, roy.kanta@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४ । अतिरिक्त प्रतियाँ मुद्रित मूल्य से ४०% रियायत पर पैकिंग-डाक व्यय निशुल्क सहित मिलेंगी।
प्रतिनिधि नवगीत
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में 'प्रतिनिधि नवगीत'' शीर्षक से प्रकाशनाधीन संकलन हेतु इच्छुक नवगीतकारों से एक पृष्ठीय ८ नवगीत, चित्र, संक्षिप्त परिचय (जन्मतिथि-स्थान, माता-पिता, जीवन साथी, साहित्यिक गुरु व प्रकाशित पुस्तकों के नाम, शिक्षा, लेखन विधाएँ, अभिरुचि/आजीविका, डाक का पता, ईमेल, चलभाष क्रमांक) सहभागिता निधि ३०००/- सहित आमंत्रित है। यथोचित सम्पादन हेतु सहमत सहभागी ३०००/- सहभागिता निधि पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। । प्रत्येक सहभागी को १५ प्रतियाँ निशुल्क उपलब्ध कराई जाएँगी जिनका विक्रय या अन्य उपयोग करने हेतु वे स्वतंत्र होंगे। ग्रन्थ में नवगीत विषयक शोधपरक उपयोगी सूचनाएँ और सामग्री संकलित की जाएगी। हिंदीतर भारतीय भाषाओँ के नवगीत हिंदी अनुवाद सहित भेजें।
शांति-राज स्व-पुस्तकालय योजना
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के तत्वावधान में नई पीढ़ी के मन में हिंदी के प्रति प्रेम तथा भारतीय संस्कारों के प्रति लगाव तभी हो सकता है जब वे बचपन से सत्साहित्य पढ़ें। इस उद्देश्य से पारिवारिक पुस्तकालय योजना आरम्भ की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत ५००/- भेजने पर निम्न में से ७००/- की पुस्तकें तथा शब्द साधना पत्रिका व् दिव्य नर्मदा पत्रिका के उपलब्ध अंक पैकिंग व डाक व्यय निशुल्क की सुविधा सहित उपलब्ध हैं। राशि अग्रिम पे टी एम द्वारा चलभाष क्रमांक ९४२५१८३२४४ में जमाकर पावती salil.sanjiv@gmail.com को ईमेल करें। इस योजना में पुस्तक सम्मिलित करने हेतु salil.sanjiv@gmail.com या ७९९९५५९६१८/९४२५१८३२४४ पर संपर्क करें।
पुस्तक सूची
०१. मीत मेरे कविताएँ -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' १५०/-
०२. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह -आचार्य संजीव 'सलिल' १५०/-
०३. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य -स्व. डी.पी.खरे -आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
०४. पहला कदम काव्य संग्रह -डॉ. अनूप निगम १००/-
०५. कदाचित काव्य संग्रह -स्व. सुभाष पांडे १२०/-
०६. Off And On -English Gazals -Dr. Anil Jain ८०/-
०७. यदा-कदा -उक्त का हिंदी काव्यानुवाद- डॉ. बाबू जोसफ-स्टीव विंसेंट ८०/-
०८. Contemporary Hindi Poetry - B.P. Mishra 'Niyaz' ३००/-
०९. महामात्य महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' ३५०/-
१०. कालजयी महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' २२५/-
११. सूतपुत्र महाकाव्य -दयाराम गुप्त 'पथिक' १२५/-
१२. अंतर संवाद कहानियाँ -रजनी सक्सेना २००/-
१३. दोहा-दोहा नर्मदा दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१४. दोहा सलिला निर्मला दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा २५०/-
१५. दोहा दिव्य दिनेश दोहा संकलन -सं. सलिल-डॉ. साधना वर्मा ३००/-
१६. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह आचार्य संजीव 'सलिल' ३००/-
१७. The Second Thought - English Poetry - Dr .Anil Jain​ १५०/-
१८. हस्तिनापुर की बिथा कथा (बुंदेली संक्षिप्त महाभारत)- डॉ. एम. एल. खरे २५०/-
१९. शब्द वर्तमान नवगीत संग्रह - जयप्रकाश श्रीवास्तव १२०/-
२०. बुधिया लेता टोह - बसंत कुमार शर्मा - १८०/-
२१. पोखर ठोंके दावा नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १८०/-
२२. मौसम अंगार है नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार १६०/-
२३. कोयल करे मुनादी नवगीत संग्रह - अविनाश ब्योहार २००/-
२४. अंधी पीसे कुत्ते खाँय व्यंग्य काव्य संग्रह - अविनाश ब्योहार १००/-
२५. काव्य मंदाकिनी काव्य संग्रह - ३२५/-
२६. हिंदी सॉनेट सलिला - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/-
२७. ओ मेरी तुम - गीत-नवगीत - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३००/-
२८. आदमी अभी जिंदा है - लघु कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३७०/-
२९. २१ श्रेष्ठ बुंदेली लोक कथाएँ - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३०. २१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ मध्य प्रदेश - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३१ काव्य कालिंदी - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/-
३२. खुशियों की सौगात - डॉ. संतोष शुक्ला - २५०/-
३३. छंद सोरठा खास - डॉ. संतोष शुक्ला 'प्रज्ञा' - ३००/-
३४. जीतने जी जिद, - काव्य संग्रह - सरला वर्मा - १२५/-
३५. व्यक्ति रेखा - डॉ. जयश्री जोशी - संस्मरण - १५०/-
३६. सौरभ: - संस्कृत -हिंदी काव्यानुवाद - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - १५०/-
३७. मता-ए-परवीन - गजल संग्रह - परवीन हक - २००/-
३८. सूर्य मंजरी - काव्य संग्रह - सुनीता सिंह - ३००/-
३९. भूकंप के साथ जीना सीखें - लोकोपयोगी - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४०. राम नाम सुखदायी - भजन संग्रह - शांति देवी वर्मा - १५०/-
४१. नीरव का संगीत - काव्य संग्रह - डॉ. अग्निभ मुखर्जी - २५०/-
४२. लोकतंत्र का मकबरा - काव्य संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४३. कलम के देव - भक्ति गीत संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - २००/-
४४. बोध कथा सलिला - बोध कथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
४५. सूरज आया द्वार - दोहा संग्रह - इन्द्र बहादुर श्रीवास्तव - १४९/-
४६. क्षण के साथ चलाचल - आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी - ४००/-
४७. मुझे चाँद नहीं चाहिए - बबीता चौबे - लघुकथा संग्रह- २५०/-
४८. चंद्र विजय अभियान - साझा काव्य संग्रह - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ११००/-
४९. इटैलियन सोनेट सलिला - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ५००/- (शीघ्र प्रकाश्य)
५०. जंगल में जनतंत्र - लघुकथा संग्रह - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ३५०/-
५१. फुलबागिया - साझा काव्य संग्रह - सं. आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - ११००/-
***
सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!
आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर
आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का
आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
●●●
मुक्तिका
पदभार : १२१२ x ४
प्रभो! तुम्हें सदा जपूँ, कभी न भूलना मुझे।
रहूँ न काम के बिना, अकाम ही सदा रहूँ।।
न याचना, न कामना, न वासना, न क्रोध हो।
स्वदेश के लिए जिऊँ, स्वदेश के लिए मरूँ।।
ध्वजा कभी झुके नहीं, पताकिनी रुके नहीं।
न शत्रु एक शेष हो, सुमित्र के लिए जिऊँ।।
न आम आदमी कभी दुखी रहे, सुखी रहे।
न खास का गुलाम हो, हताश मैं कभी रहूँ।।
अमीर है वही न जो, गरीब से घृणा करे।
न दर्द दूँ कभी, मिटा सकूँ जरा तभी तरूँ।।
स्वधर्म को तजूँ नहीं, अधर्म मैं वरूँ नहीं।
कुरीत से सदा बचूँ, अनीत मैं नहीं करूँ।।
प्रभो! कृपा बनी रहे, क्षमा करो, दया करो।
न पाप हो; न शाप दो, न भाव भक्ति मैं तजूँ।।
२४-११-२०२२
***
दोहा और रेलगाड़ी
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफॉर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
बदल गया है वक़्त अब, छुकछुक गाड़ी गोल
इंजिन दिखे न भाप का, रहा नहीं कुछ मोल
*
भोर दुपहरी सांझ या, पूनम-'मावस रात
काम करे निष्काम रह, इंजिन बिन व्याघात
*
'स्टेशन आ रहा है', क्यों कहते इंसान?
आते-जाते आप वे, जगह नहीं गतिमान
*
चलें 'रेल' पर गाड़ियाँ, कहते 'आई रेल'
आती-जाती 'ट्रेन' है, बात न कर बेमेल
*
डब्बे में घुस सके जो, थाम किसी का हाथ
बैठ गए चाहें नहीं, दूजा बैठे साथ
*
तीसमारखाँ बन करें, बिना टिकिट जो सैर
टिकिट निरीक्षक पकड़ता, रहे न उनकी खैर
*
दर्जन भर करते विदा, किसी एक को व्यर्थ
भीड़ बढ़ाते अकारण, करते अर्थ-अनर्थ
*
ट्रेन छूटने तक नहीं चढ़ते, करते गप्प
चढ़ें दौड़ गिरते फिसल, प्लॉटफॉर्म पर धप्प
*
सुविधा का उपयोग कर, रखिए स्वच्छ; न तोड़
बारी आने दीजिए, करें न नाहक होड़
*
कभी नहीं वह खाइए, जो देता अनजान
खिला नशीली वस्तु वह, लूटे धन-सामान
*
चेहरा रखिए ढाँककर, स्वच्छ हमेशा हाथ
दूरी रखिए हमेशा, ऊँचा रखिए माथ
*
२३-११-२०२०
***
मुक्तक
मुख पुस्तक मुख को पढ़ने का ज्ञान दे
क्या कपाल में लिखा दिखा वरदान दे
माँ-शान कब रहे सदा मत दे ईश्वर!
शुभाशीष दे, स्नेह, मान जा दान दे
***
नवगीत
.
बसर ज़िन्दगी हो रही है
सड़क पर.
.
बजी ढोलकी
गूंज सोहर की सुन लो
टपरिया में सपने
महलों के बुन लो
दुत्कार सहता
बचपन बिचारा
सिसक, चुप रहे
खुद कन्हैया सड़क पर
.
लत्ता लपेटे
छिपा तन-बदन को
आसें न बुझती
समर्पित तपन को
फ़ान्से निबल को
सबल अट्टहासी
कुचली तितलिया मरी हैं
सड़क पर
.
मछली-मछेरा
मगर से घिरे हैं
जबां हौसले
चल, रपटकर गिरे हैं
भँवर लहरियों को
गुपचुप फ़न्साए
लव हो रहा है
ज़िहादी सड़क पर
.
कुचल गिट्टियों को
ठठाता है रोलर
दबा मिट्टियों में
विहँसता है रोकर
कालिख मनों में
डामल से ज्यादा
धुआँ उड़ उड़ाता
प्रदूषण सड़क पर
२४-११-२०१७
***
नवगीत महोत्सव लखनऊ के पूर्ण होने पर
एक रचना:
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
दूर डाल पर बैठे पंछी
नीड़ छोड़ मिलने आये हैं
कलरव, चें-चें, टें-टें, कुहू
गीत नये फिर गुंजाये हैं
कुछ परंपरा,कुछ नवीनता
कुछ अनगढ़पन,कुछ प्रवीणता
कुछ मीठा,कुछ खट्टा-तीता
शीत-गरम, अब-भावी-बीता
ॐ-व्योम का योग सनातन
खूब सुहाना मीत पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
सुख-दुःख, राग-द्वेष बिसराकर
नव आशा-दाने बिखराकर
बोयें-काटें नेह-फसल मिल
ह्रदय-कमल भी जाएँ कुछ खिल
आखर-सबद, अंतरा-मुखड़ा
सुख थोड़ा सा, थोड़ा दुखड़ा
अपनी-अपनी राम कहानी
समय-परिस्थिति में अनुमानी
कलम-सिपाही ह्रदय बसायें
चिर समृद्ध हो रीत, पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
*
मैं-तुम आकर हम बन पायें
मतभेदों को विहँस पचायें
कथ्य शिल्प रस भाव शैलियाँ
चिंतन-मणि से भरी थैलियाँ
नव कोंपल, नव पल्लव सरसे
नव-रस मेघा गरजे-बरसे
आत्म-प्रशंसा-मोह छोड़कर
परनिंदा को पीठ दिखाकर
नये-नये आयाम छू रहे
मना रहे हैं प्रीत-पर्व यह
फिर-फिर होगा गीत पर्व यह
२४-११-२०१५
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
संजीव
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता था। क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें बाकी सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे।'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था।'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका।
*
पुस्तक सलिला: हिन्दी महिमा सागर
[पुस्तक विवरण: हिन्दी महिमा सागर, संपादक डॉ. किरण पाल सिंह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ २०४, प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान, १००/२ कृष्ण नगर, देहरादून २४८००१]
हिंदी दिवस पर औपचारिक कार्यक्रमों की भीड़ में लीक से हटकर एक महत्वपूर्ण प्रकाशन हिंदी महिमा सागर का प्रकाशन है. इस सारस्वत अनुष्ठान के लिए संपादक डॉ. किरण पाल सिंह तथा प्रकाशक प्रकाशक भारतीय राजभाषा विकास संस्थान देहरादून साधुवाद के पात्र हैं. शताधिक कवियों की हिंदी पर केंद्रित रचनाओं का यह सारगर्भित संकलन हिंदी प्रेमियों तथा शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है. पुस्तक का आवरण तथा मुद्रण नयनाभिराम है. भारतेंदु हरिश्चंद्र जी, मैथिलीशरण जी, सेठ गोविन्ददास जी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, गोपाल सिंह नेपाली, प्रताप नारायण मिश्र, गिरिजा कुमार माथुर, डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, आदि के साथ समकालिक वरिष्ठों अटल जी, बालकवि बैरागी, डॉ. दाऊ दयाल गुप्ता, डॉ. गार्गी शरण मिश्र 'मराल' , संजीव वर्मा 'सलिल', आचार्य भगवत दुबे, डॉ. राजेंद्र मिलन, शंकर सक्सेना, डॉ. ब्रम्हजित गौतम, परमानन्द जड़िया, यश मालवीय आदि १०८ कवियों की हिंदी विषयक रचनाओं को पढ़ पाना अपने आपमें एक दुर्लभ अवसर तथा अनुभव है. मुख्यतः गीत, ग़ज़ल, दोहा, कुण्डलिया तथा छंद मुक्त कवितायेँ पाठक को बाँधने में समर्थ हैं.
२४.११.२०१४
***
मुक्तिका
देख जंगल
कहाँ मंगल?
हर तरफ है
सिर्फ दंगल
याद आते
बहुत हंगल
स्नेह पर हो
बाँध नंगल
भू मिटाकर
चलो मंगल
***
नवगीत:
दादी को ही नहीं
गाय को भी भाती हो धूप
तुम बिन नहीं सवेरा होता
गली उनींदी ही रहती है
सूरज फसल नेह की बोता
ठंडी मन ही मन दहती है
ओसारे पर बैठी
अम्मा फटक रहीं है सूप
हित-अनहित के बीच खड़ी
बँटवारे की दीवार
शाख प्यार की हरिया-झाँके
दीवारों के पार
भौजी चलीं मटकती, तसला
लेकर दृश्य अनूप
तेल मला दादी के, बैठी
देखूँ किसकी राह?
कहाँ छबीला जिसने पाली
मन में मेरी चाह
पहना गया मुँदरिया बनकर
प्रेमनगर का भूप
***
नवगीत:
अड़े खड़े हो
न राह रोको
यहाँ न झाँको
वहाँ न ताको
न उसको घूरो
न इसको देखो
परे हटो भी
न व्यर्थ टोको
इसे बुलाओ
उसे बताओ
न राज अपना
कभी बताओ
न फ़िक्र पालो
न भाड़ झोंको
२३-११-२०१४
***
शिशु गीत सलिला : 3
*
21. नाना
मम्मी के पापा नाना,
खूब लुटाते हम पर प्यार।
जब भी वे घर आते हैं-
हम भी करते बहुत दुलार।।
खूब खिलौने लाते हैं,
मेरा मन बहलाते हैं।
नाना बाँहों में लेकर-
झूला मुझे झुलाते हैं।।
*
22. नानी -1
कहतीं रोज कहानी हैं,
माँ की माँ ही नानी हैं।
हर मुश्किल हल कर लेतीं-
सचमुच बहुत सयानी हैं।।
*
23. नानी-2
नानी जी के गोरे बाल,
धीमी-धीमी उनकी चाल।
दाँत ले गए क्या चूहे-
झुर्रीवाली क्यों है खाल?
चश्मा रखतीं नाक पर,
देखें उससे झाँक कर।
कैसे बुन लेतीं स्वेटर?
लम्बा-छोटा आँककर।।
*
24. चाचा
चाचा पापा के भाई,
हमको लगते हैं अच्छे।
रहें बड़ों सँग, लगें बड़े-
बच्चों में लगते बच्चे।।
चाचा बच्चों संग खेलें,
सबके सौ नखरे झेलें।
जो बच्चा थक जाता -
झट से गोदी में ले लें।।
*
25. बुआ
प्यारी लगतीं मुझे बुआ,
मुझे न कुछ हो- करें दुआ।
पराई बहिना पापा की-
पाला घर में हरा सुआ।।
चना-मिर्च उसको देतीं
मुझे खिलातीं मालपुआ।
*
26.मामा
मामा मुझको मन भाते,
माँ से राखी बँधवाते।
सब बच्चों को बैठकर
गप्प मारते-बतियाते।।
हम आपस में झगड़ें तो-
भाईचारा करवाते।
मुझे कार में बिठलाते-
सैर दूर तक करवाते।।
*
27. मौसी
मौसी माँ जैसी लगती,
मुझको गोद उठा हँसती।
ढोलक खूब बजाती है,
केसर-खीर खिलाती है।
*
28. दोस्त
मुझसे मिलने आये दोस्त,
आकर गले लगाये दोस्त।
खेल खेलते हम जी भर-
मेरे मन को भाये दोस्त।।
*
29. सुबह
सुबह हुई अँधियारा भागा,
हुआ उजाला भाई।
'उठो, न सो' गोदी ले माँ ने
निंदिया दूर भगाई।।
गाय रंभाई, चिड़िया चहकी,
हवा बही सुखदाई।
धूप गुनगुनी हँसकर बोली:
मुँह धो आओ भाई।।
*
30. सूरज
आसमान में आया सूरज ।
सबके मन को भाया सूरज।।
लाल-लाल आकाश हो गया।
देख सुबह मुस्काया सूरज।।
डरकर भाग गयी है ठंडी।
आँख दिखा गरमाया सूरज।।
दिन भर करता थानेदारी।
किरणों के मन भाया सूरज।।
रात-अँधेरे से डर लगता।
घर जाकर सुस्ताया सूरज।।
२३.११.२०१२
***
मुक्तिका:
जीवन की जय गाएँ हम..
*
जीवन की जय गाएँ हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहराएँ हम..
*
बाधा-संकट-अड़चन से
जूझ-जीत मुस्काएँ हम..
*
गिरने से क्यों कहोडरें?,
उठ-बढ़ मंजिल पाएँ हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गाएँ हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खाएँ हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें हर्षाएँ हम..
*
तम को पी, बन दीप जलें.
दीपावली मनाएँ हम..
*
लगन-परिश्रम-कोशिश की
जय-जयकार गुंजाएँ हम..
*
पीड़ित के आँसू पोछें
हिम्मत दे, बहलाएँ हम..
*
अमिय बाँट, विष कंठ धरें.
नीलकंठ बन जाएँ हम..
***
लीक से हटकर एक प्रयोग:
निरंतरी मुक्तिका:
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद कर मुस्कुराता है.
*
करा सौदा खरा जिसने, जो जीता वो सिकंदर है.
क्यों कीमत तू अदा करता है?, क्यों तू सिर कटाता है??
*
यहाँ जो सिर कटाता है, कटाये- हम तो नेता हैं.
हमारा शौक- अपने मुल्क को ही बेच-खाता है..
*
करें क्यों मुल्क की चिंता?, सकल दुनिया हमारी है..
है बंटाढार इंसां चाँद औ' मंगल पे जाता है..
*
न मंगल अब कभी जंगल में कर पाओगे ये सच है.
जहाँ भी पग रखे इंसान उसको अंत आता है..
*
न आता अंत तो कहिए कहाँ धरती पे पग रखते,
जलाकर रोम नीरो सिर्फ बंसी ही बजाता है..
*
बजी बंसी तो सारा जग, करेगा रासलीला भी.
कोई दामन फँसाता है, कोई दामन बचाता है..
*
लगे दामन पे कोई दाग, तो चिंता न कुछ करना.
बताता रोज विज्ञापन, इन्हें कैसे छुड़ाता है??
*
छुड़ाना पिंड यारों से, नहीं आसां तनिक यारों.
सभी यह जानते हैं, यार ही चूना लगाता है..
*
लगाता है अगर चूना, तो कत्था भी लगाता है.
लपेटा पान का पत्ता, हमें खाता-खिलाता है..
*
खिलाना और खाना ही हमारी सभ्यता- मानो.
जगत ईमानदारी का, हमें अभिनय दिखाता है..
*
किया अभिनय न गर तो सत्य जानेगा जमाना यह.
कोई कीमत अदा हो हर बशर सच को छिपाता है..
*
छिपाता है, दिखाता है, दिखाता है, छिपाता है.
बचाकर आँख टँगड़ी मार, खुद को खुद गिराता है..
*
गिराता क्या?, उठाता क्या?, फँसाता क्या?, बचाता क्या??
अजब इंसान चूहे खाए सौ, फिर हज को जाता है..
*
न जाता है, न जाएगा, महज धमकाएगा तुमको.
कोई सत्ता बचाता है, कमीशन कोई खाता है..
*
कमीशन बिन न जीवन में, मजा आता है सच मानो.
कोई रिश्ता निभाता है, कोई ठेंगा बताता है..
*
कमाना है, कमाना है, कमाना है, कमाना है.
कमीना कहना है?, कह लो, 'सलिल' फिर भी कमाता है..
२३-११-२०१०
***
सॉनेट
आज
आज कह रहा जागो भाई!
कल से कल की मिली विरासत
कल बिन कहीं न कल हो आहत
बिना बात मत भागो भाई!
आज चलो सब शीश उठाकर
कोई कुछ न किसी से छीने
कोई न फेंके टुकड़े बीने
बढ़ो साथ कर कदम मिलाकर
आज मान आभार विगत का
कर ले स्वागत हँस आगत का
कर लेना-देना चाहत का
आज बिदा हो दुख मत करना
कल को आज बना श्रम करना
सत्य-शिव-सुंदर भजना-वरना
२३-११-२०२२
●●●
मुक्तक
काैन किसका सगा है
लगता प्रेम पगा है
नेह नाता जाे मिला
हमें उसने ठगा है
*
दिल से दिल की बात हो
खुशनुमा हालात हो
गीत गाये झूमकर
गून्जते नग्मात हो
२३-११-२०१४
***

जगदीशचंद्र बोस



भारतीय विश्वगुरु:
बेतार संवाद प्रणाली का भारतीय अन्वेषक: जगदीशचंद्र बोस
बेतार संचार (वायरलेस कम्युनिकेशन) रोजमर्रा की जरूरत है। सोते-जागते, उठते-बैठते इंटरनेट, रेडियो, टेलीफोन या मोबाईल फोन के रूप में हम इससे जुडे़ रहते हैं। क्या आप जानते हैं, इस उपयोगी टेक्नोलॉजी की खोज कैसी हुई और किसने की? अगर नहीं, तो यह जानकर आपको खुशी होगी कि इसके पीछे एक भारतीय का दिमाग है।
जगदीश चन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो और सूक्ष्म तरंगों की प्रकाशिकी पर कार्य किया। वनस्पति विज्ञान में उन्होनें कई महत्त्वपूर्ण खोजें की। साथ ही वे भारत के पहले वैज्ञानिक शोधकर्त्ता थे। वे भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमरीकन पेटेंट प्राप्त किया। उन्हें रेडियो विज्ञान का पिता माना जाता है। वे विज्ञानकथाएँ भी लिखते थे और उन्हें बंगाली विज्ञानकथा-साहित्य का पिता भी माना जाता है।


पिता ने दिखाई विज्ञान की राह:
जगदीश चन्द्र बोस (बंगाली: জগদীশ চন্দ্র বসু जॉगोदीश चॉन्द्रो बोशु, ३० नवंबर, १८५८ – २३ नवंबर, १९३७) का जन्म मेमनसिंह, फरीदपुर (अब बांग्लादेश) में हुआ। उनके पिता भगवान चन्द्र बोस ब्रह्म समाज के नेता थे और फरीदपुर, बर्धमान एवं अन्य जगहों पर उप-मैजिस्ट्रेट या सहायक कमिश्नर थे। इनका परिवार रारीखाल गांव, बिक्रमपुर से आया था, जो आजकल बांग्लादेश के मुन्शीगंज जिले में है। ग्यारह वर्ष की आयु तक इन्होने गाँव के ही एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। जगदीश की शिक्षा एक बांग्ला विद्यालय में प्रारंभ हुई। उनके पिता मानते थे कि अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी मातृभाषा अच्छे से आनी चाहिए। विक्रमपुर में १९१५ में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए जगदीश चन्द्र बोस ने कहा- "उस समय पर बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेजना हैसियत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बांग्ला विद्यालय में भेजा गया वहाँ पर मेरे दायीं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम परिचारक का बेटा बैठा करता था और मेरी बाईं ओर एक मछुआरे का बेटा। ये ही मेरे खेल के साथी भी थे। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलजीवों की कहानियों को मैं कान लगा कर सुनता था। शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।
विद्यालयी शिक्षा के बाद जगदीश कलकत्ता आ गये और सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश लिया। उनकी जीव विज्ञान में बहुत रुचि थी। वे २२ वर्ष की आयु में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने लंदन चले गए। स्वास्थ खराब रहने पर वे चिकित्सक (डॉक्टर) बनने का विचार त्यागकर कैम्ब्रिज के क्राइस्ट महाविद्यालय चले गये। वहाँ भौतिकी के विख्यात प्रो॰ फादर लाफोण्ट ने बोस को भौतिकशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। वर्ष १८८५ में ये स्वदेश लौटे तथा भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के रूप में १९१५ तक प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाया। भारतीय शिक्षकों को अंग्रेज शिक्षकों की तुलना में एक तिहाई वेतन दिए जाने का विरोध कर उन्होंने बिना वेतन के तीन वर्षों तक काम किया। इस कारण उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो गयी, बहुत क़र्ज़ हो गया जिसे चुकाने के लिये उन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी। चौथे वर्ष जगदीश चंद्र बोस की जीत हुई और उन्हें पूरा वेतन दिया गया। बोस एक अच्छे शिक्षक भी थे, जो कक्षा में पढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक प्रदर्शनों का उपयोग करते थे। बोस के ही कुछ छात्र जैसे सतेन्द्र नाथ बोस आगे चलकर प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री बने।


ब्रिटिश सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने गणितीय रूप से विविध तरंग दैर्ध्य की विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, पर उनकी भविष्यवाणी सत्य होने से पहले १८७९ में निधन उनका हो गया। ब्रिटिश भौतिकविद ओलिवर लॉज मैक्सवेल तरंगों के अस्तित्व का प्रदर्शन १८८७-१८८८ में तारों के साथ उन्हें प्रेषित करके किया। जर्मन भौतिकशास्त्री हेनरिक हर्ट्ज ने १८८८ में मुक्त अंतरिक्ष में विद्युत चुम्बकीय तरंगों के अस्तित्व को प्रयोग करके दिखाया।

एक किताब ने बदल दी दुनिया
१८९३ में, निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया। ब्रिटिश वैज्ञानिक ओलिवर लॉज ने हर्ट्ज की मृत्यु के बाद हर्ट्ज का काम जारी रखा। लॉज ने जून १८९४ में एक स्मरणीय व्याख्यान दिया और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। लॉज ने रेडियो तरंगों से जुड़ी एक खोज में बताया कि प्रकाश (लाइट) की तरह रेडियो तरंगें हवा में तैर सकती हैं। इस खोज पर छपी किताब जगदीश ने भी खरीदी। लॉज के काम ने बोस सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया। इसे पढ़ने के बाद बोस इस खोज को आगे बढ़ाने में जुट गये। काम आसान नहीं था, लेकिन वह ठान चुके थे, करके रहेंगे। बोस दिन-रात रेडियो तरंगों के विषय में ही सोचते रहते थे। रेडियो तरंगें आकार में काफी बड़ी होने के कारण देखी न जा सकने पर भी उपकरणों की मदद से मापी जा सकती थीं। यही कारण था कि यह रेडियो तरंगें सिर्फ थोड़ी दूर तक ही जा पाती थीं।
बोस प्रकाश के माइक्रोवेव गुणों का अध्ययन करने के लिए लंबी तरंग दैर्ध्य की प्रकाश तरंगों के नुकसान को समझ गए। बोस के माइक्रोवेव अनुसंधान का पहला उल्लेखनीय पहलू यह था कि उन्होंने तरंग दैर्ध्य को मिलीमीटर (लगभग ५ मिमी तरंग दैर्ध्य) स्तर पर ला दिया । एक साल बाद, कोलकाता में नवम्बर १८९४ में सार्वजनिक प्रदर्शन दौरान, बोस ने एक मिलीमीटर रेंज माइक्रोवेव तरंग का उपयोग बारूद दूरी पर प्रज्वलित करने और घंटी बजाने में किया। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर विलियम मैकेंजी ने कलकत्ता टाउन हॉल में बोस का प्रदर्शन देखा। बोस ने एक बंगाली निबंध, 'अदृश्य आलोक' में लिखा था, "अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों आदि के भीतर से जा सकती है, इसलिए तार की बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।" रूस में पोपोव ने ऐसा ही एक प्रयोग किया।
बोस ने "डबल अपवर्तक क्रिस्टल द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर" पहला वैज्ञानिक लेख, मई १८९५ में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा। उनका दूसरा लेख अक्टूबर १८९५ में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लार्ड रेले द्वारा भेजा गया। दिसम्बर १८९५में, लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन ने (३६ Vol) ने बोस का लेख "एक नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप पर" प्रकाशित किया। उस समय अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द 'कोहिरर' का प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। बोस के कोहिरर पर अंग्रेजी पत्रिका इलेक्ट्रिशियन (१८ जनवरी १८९६) ने टिप्पणी की: "यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने में और पेटेंट सफल होते हैं, हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांति देखेंगे।"
बोस "अपने कोहिरर" को बेह्तर करने की योजना बनाई लेकिन यह पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा। इन्होंने बेतार के संकेत भेजने में असाधारण प्रगति की और सबसे पहले रेडियो संदेशों को पकड़ने के लिए अर्धचालकों का प्रयोग करना शुरु किया।
लघु रेडियों तरंगों को बनाने से अधिक कठिन काम था, उनका रिसीवर बनाना। रिसीवर को ही उन तरंगों को ग्रहणकर उन पर प्रतिक्रिया करनी थी। बसु पूरी तन्मयता से रिसीवर बनाने में जुट गए। इसके बिना उनकी खोज को पूरी नहीं हो सकती थी। अंतत: वह अर्ध चालक (सेमीकंडक्टर) की सहायता से रिसीवर बनाने में सफल हो गये। बसु ने अपने आविष्कार का परीक्षण किया तो वह हैरान रह गए। उनका बनाया रिसीवर रेडियो तरंगें पकड़ रहा था किन्तु वह जरा सी दूरी तक सीमित था। बसु उसे और आगे तक ले जाना चाहते थे। सन १८९५ में प्रेसीडेंसी कोलेज कोलकाता में भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपनी खोज प्रदर्शित। उन्होंने रेडियो तरंगों मदद से ७५ फीट दूर, दीवारों के पार एक घंटी को बजाया। लोग हैरान थे कि वह तरंग दीवारों के पार, इतनी दूर तक गई कैसे? इस खोज ने बसु को विज्ञान की दुनिया में मशहूर कर दिया था। अपनी खोजों से व्यावसायिक लाभ उठाने की जगह इन्होंने इन्हें सार्वजनिक रूप से प्रकाशित कर दिया ताकि अन्य शोधकर्त्ता इन पर आगे काम कर सकें। बोस ने अपने प्रयोग उस समय किये थे जब रेडियो एक संपर्क माध्यम के तौर पर विकसित हो रहा था। रेडियो माइक्रोवेव ऑप्टिक्स पर बोस ने जो काम किया वह रेडियो कम्युनिकेशन से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन उनके द्वारा किये हुए सुधार एवं उनके द्वारा इस विषय में लिखे हुए तथ्यों ने दूसरे रेडियो आविष्कारकों को ज़रूर प्रभावित किया था। उस दौर में १८९४ के अंत में गुगलिएल्मो मारकोनी एक रेडियो सिस्टम पर काम कर रहे थे जो वायरलेस टेलीग्राफी के लिए विषिठ रूप डिज़ाइन किया जा रहा था। १८९६ के आरंभ तक यह प्रणाली फिजिक्स द्वारा बताये गए रेंज से ज़्यादा दूरी में रेडियो सिग्नल्स ट्रांस्मिट कर रही थी।
जगदीशचन्द्र बोस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने रेडियो तरंगे डिटेक्ट करने के लिए सेमीकंडक्टर जंक्शन का उपयोग कर इस पद्धति में कई माइक्रोवेव कंपोनेंट्स की खोज की। इसके बाद अगले ५० साल तक मिलीमीटर लम्बाई की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगो पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। १८९७ में बोस ने लंदन के रॉयल इंस्टीटूशन में अपने मिलीमीटर तरंगों पर किये हुए शोध की वर्णना दी थी। उन्होंने अपने शोध में वेवगाइड्स, हॉर्न ऐन्टेना, डाई-इलेक्ट्रिक लेंस, अलग अलग पोलराइज़र और सेमीकंडक्टर (फ्रीक्वेंसी ६० GHz तक) का उपयोग किया था। ये सब उपकरण आज भी कोलकाता के बोस इंस्टिट्यूट में मौजूद हैं। एक १.३ मि.मी. मल्टीबीम रिसीवर जो की एरिज़ोना के NRAO १२ मीटर टेलिस्कोप में हैं , आचार्य बोस १८९७ में लिखे हुए रिसर्च पेपर के सिद्धांतोंया गया हैं।
सर नेविल्ले मोट्ट को १९७७ में सॉलिड स्टेट इलेक्ट्रॉनिक्स में किये अपने शोधकार्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने यह कहा था की आचार्य जगदीश चन्द्र बोस अपने समय से ६० साल आगे थे। असल में बोस ने ही P - टाइप और N - टाइप सेमीकंडक्टर के अस्तित्व का पूर्वानुमान किया था।
मार्कोनी का प्रवेश और रेडियो संचार की खोज:
कुछ समय बाद अपनी खोज पर बसु लंदन में एक सभागार में व्याख्यान दे रहे थे। यहाँ उपस्थित वैज्ञानिक समूह में मार्कोनी भी थे। वह ब्रिटिश डाक सेवा के लिए ऐसी ख़ोज में लगे थे, जिससे तरंगों के जरिये सन्देश भेज सकें। वह बसु से प्रभावित हुए। दोनों दोस्त बन गये। मार्कोनी ने बसु को अपने प्रयोग के बारे में बताया। बसु की रूचि जगी। वह अपने नए मिशन पर जुट गए। वह मानव समाज के कल्याण के लिए यह खोज करना चाहते थे। वे जानते थे कि यह खोज मनुष्य जाति के लिए बहुत लाभकारी होगी। इसे लोग आसानी से इस्तेमाल कर सकते थे। अंतत: १८९९ में वह इसमें सफल हुए। उनका यह आविष्कार लंदन ‘रॉयल सोसाइटी’ के एक संस्करण में छपा। विज्ञान जगत बसु की इस खोज से अचंभित था। मार्कोनी ने भी इसे पढ़ा। वह चोरी-छिपे बसु की खोज का प्रयोग कर रेडियो संचार का आविष्कार कर रहे थे। बसु के बनाए यंत्र से उन्हें अपना काम करने में आसानी हो गई। मार्कोनी के एक बाल मित्र ने इस यंत्र में कुछ सुधार कर उसे दे दिया।
चोरी हो चुकी थी बसु की खोज
मार्कोनी ने जैसे ही उस रिसीवर को अपने रेडियो संचार के यंत्र के साथ लगाया, वह काम करने लगा। मार्कोनी फूले नहीं समा रहे थे। उन्हें पता चल गया था कि उनके हाथ क्या लग चुका है। १९०१ में बसु के उस यंत्र पर मार्कोनी ने बिना पूछे-बताये कब्ज़ा कर लिया था। मार्कोनी ने दुनिया के सामने रेडियो संदेश भेज ही दिया। बसु के जिस यंत्र ने अभी तक ७५ फीट की दूरी तय की थी। मार्कोनी ने उसी यंत्र का इस्तेमाल करके दूरी को २००० मील तक पहुँचा दिया। मार्कोनी मशहूर हो चुके थे। इस खोज के लिए वह नोबेल पुरस्कार लेने मे भी कामयाब रहे।
बसु ने इस यंत्र का अन्वेषण किया था किन्तु उनका नाम कहीं नहीं था। वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि उन्होंने अपने किसी भी अविष्कार का पेटेंट नहीं कराया था। कानूनन उनका अपनी ही खोज पर कोई हक नहीं था। सारी दुनिया ने इसे मार्कोनी के नाम से जाना। इसके बाद बोस ने वनस्पति जीवविद्या में अनेक खोजें की। बोस ने क्रेस्कोग्राफ़ यंत्र का आविष्कार कर विभिन्न उत्तेजकों के प्रति पौधों की प्रतिक्रिया का अध्ययन किया। इस तरह से इन्होंने सिद्ध किया कि वनस्पतियों और पशुओं के ऊतकों में काफी समानता है। बोस पेटेंट प्रक्रिया के बहुत विरुद्ध थे और मित्रों के कहने पर ही इन्होंने एक पेटेंट के लिए आवेदन किया। हाल के वर्षों में आधुनिक विज्ञान को मिले इनके योगदानों को फिर मान्यता दी जा रही है।

Guglielmo Marconi (Pic: thedailybeast.com)
इस खोज के सही हकदार बसु थे, लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था. बसु ने भारत आकर देश के लिए कई सारे अन्य योगदान दिए, जिनके लिए देश के लोग उनको अपने सिर आंखों पर बैठातै हैं.
[साभार: Vimal Naugain Staff Writer ROAR हिंदी]
कहें चाहते जिया को, नहीं जिया में चाह
निज खातिर जीवन जिया, जिया न कर परवाह

जगदीश चन्द्र बोस

“यदि मेरे जीवन मे सफलता है तो उसका निर्माण असफलता की स्थिर नींव पर हुआ था”
“बोस एक भौतिक विज्ञानी था और अपने जीवन के अन्त तक उसका दृष्टिकोण भौतिकवादी ही रहा”।
मेघानन्द साहा
“जगदीश चन्द्र की सामान्यतः स्वीकृत व्याख्या यह है कि वह निश्चित रूप से प्रकृति की जीवविज्ञानी संकल्पना रखता था; कलकत्ता में विद्यार्थी के रूप में जैव अध्ययनों के लिए अवसरों का अभाव था और बाद में जीव विज्ञान में अध्यापक के पद के अभाव में जगदीश चन्द्र को भौतिकी में अध्यापक का पद ग्रहण करने के लिए राज़ी होना पड़ा ….”।
डी.एम.बोस
वह(बोस) वास्तव में आधुनिक भारत का प्रथम भौतिक विज्ञानी था, देश का सब से पहला वैज्ञानिक। गेलिलियो – न्यूटन परम्परा का वह अपनी मातृभूमि का पहला सक्रिय सहभागी था। उसने विश्वास न करने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया। उसने दिखा दिया था कि पश्चिमी विज्ञान द्वारा अपेक्षित सही विचार और विचार उत्पन्न करने के लिए पूर्वी मन वास्तव में योग्य है। उसने सांचे को तोड़ दिया था।
एस दासगुप्ता “जगदीश चन्द्र और पश्चिमी विज्ञान का भारतीय उत्तर ”में

आधुनिक भारतीय विज्ञान के इतिहास में 
जगदीश चन्द्र बोस को स्वतंत्र भारत का प्रथम आधुनिक वैज्ञानिक माना जाता है। अपने समकालिक महान वैज्ञानिक रसायनविद प्रफुल्ल चन्द रे (1861-1944) तथा महान् गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम (1887-1920) जो रॉयल सोसाइटी के फैलो के रूप में सब से पहले चुने गये की प्रसिद्धि और अवदान के रहते हुए बॉस को यह मान्यता मिलना उनके महान कार्य और व्यक्तित्व का कद इंगित करता है बोस पहले भारतीय थे जिन्हें जनवरी 1897 में इंग्लिश के विश्व विख्यात रॉयल संस्थान, लंडन में दाखिला दिया गया।   बोस ने  शुक्रवार सायं प्रवचन, जो नई खोजों की घोषणाओं के लिए उस समय अत्यन्त प्रतिष्ठित और दृश्य प्लेटफार्म था, अपना भाषण दिया। 1826 में माईकल फैराडे (1791-1867) ने शुक्रवार सायं प्रवचन आरंभ किए थे। कुछ अत्यन्त प्रसिद्ध ब्रिटिश विज्ञानियों ने रॉयल संस्थान में काम किया और इन प्रवचनों में भाग लिया। इस भाषण में बोस ने रेडियों तरंगों की उत्पत्ति और संसूचन के लिए अपनी युक्तियां प्रदर्शित की।
बोस ने पहले भौतिकी में और बाद में शरीर विज्ञान में पथप्रदर्शक खोज की। वर्ष 1888 में,, हीनरिच रुडोल्फ हटर्ज़ (1857-1894) ने 60 सेमी वेवलेंग्थ रेंज में विद्युत चुम्बकीय तरंगे उत्पन्न कीं और संसूचित की और ऐसा करते हुए उसने जेम्स क्लर्क मैक्सवेल (1831-79) के विद्युत चुम्बकीय सिद्धांत की जांच की। तथापि बोस पहला वैज्ञानी था जिसने मिलिमीटर – लंबाई रेडियो तंरगों को उत्पन्न किया और उनकी विशेषाताओं का अध्ययन किया। बोस ने जे.सी.बोस ड्रीम 2047 सी वाई एस विद्युत चुंबकीय तरंगों के संचरण और अभिग्रहण की पद्धति का भी परिष्कार किया। हाल ही के वर्षों में एक बहुत अच्छा समाचार मिला है कि बेतार टेलीग्राफी के क्षेत्र में अग्रणी कार्य के लिए बोस को उपयुक्त श्रेय दिया जा रहा है। विद्युत और इलैक्ट्रानिक्स इंजीनियर संस्थान (IEEE) ने अपने एक प्रकाशन में लिखा : “सालिड स्टेट डायोड संसूचक युक्तियों के आंरभ और पहले बड़े प्रयोग के बारे में हमारी छानबीन से ऐसी ईजाद का पता चला कि मारकोनी के विश्व प्रसिद्ध प्रयोग में मारकोनी द्वारा पहले ट्रांस –अटलांटिक का बेतार संकेत आयरनमरकरी –आयरन –संसक्त का टेलीफोन संसूचक के साथ इस्तेमाल करके जिसका आविष्कार सर जी जी सी बोस ने 1898 में किया था।” माइक्रोवेव आपटिक्स टेक्नॉलोजी में बोस पथप्रदर्शक था। वह पहला विज्ञानी था जिसने दिखाया कि सेमीकंडक्टर दिष्टकारी रेडियों तरंगों को संसूचित कर सकते हैं। बोस की गैलेना रिसीवर लैड सल्फाइड फोटो चालक युक्ति के पहले उदाहरणों में एक थी।
जीवित और अजैव के बीच संबंध और उद्दीपन के प्रति पौदे की प्रक्रिया के बारे में बोस के सिद्धांतों को उसके जीवन काल में गम्‍भीतरता-पूर्वक नहीं लिया गया और अब भी उसके कुछ विचार गूढ़ बने हुए हैं। ताथापि जैसा डी एम बोस ने, जो बोस इंस्‍टीच्‍यूट में निदेशक के रूप में उसका उत्तराधिकारी था बताया कि ‘एक विद्युत आंख वाला उसका मॉडल जो बाहरी दुनिया से प्राप्‍त विद्युत संकेत संदेशों को रिकार्ड करता है, सूचना संचयन के लिए यंत्रावली के रूप में मैमोरी का उसका भौतिक मॉडल इस बात का औचित्‍य सिद्ध करता है कि उसे साइबरनेटिक्‍स के वर्तमान विषय का पूर्वगामी माना जाता है।’ अब इस बात को मान्‍यता दी जाती है कि क्रोनोबायालोजी और सिरकेडियन आवर्तन के क्षेत्र में बोस का योगदान अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण था जब कि इन तकनीकी शब्‍दों को नाम तक नहीं दिया गया था।
बोस भारत में प्रायोगिक विज्ञान का प्रथप्रदर्शक था। वह उच्‍च कोटि का अन्‍वेषक था। अपने अनुसंधान भौतिक-विज्ञान और शरीर-विज्ञान दोनों में उन्‍होंने संवेदी यंत्रों का निर्माण किया।
बोस रवीन्‍द्रनाथ टैगोर (1861-1941) का गहरा मित्र था और कठिनार्ठ के समय में उनसे बहुत भावनात्‍मक समर्थन प्राप्‍त किया। वैज्ञानिक खोज (1894) को गम्‍भीरतापूर्वक हाथ में लेने से पहले, बोस अपनी छुट्टियां सुरम्‍य सुन्‍दर एतिहासिक स्‍थानों की यात्रा करने और चित्र लेने में बिताता था और पूर्ण-साइज़ कैमरा से सुस‍‍ज्जित रहता था। अपने कुछ अनुभवों को उसने सुन्‍दर बंगाली गद्य में लिपिबद्ध किया। इनको उसके अन्‍य ‍साहित्यिक भाषणों और लेखों के साथ ‘अभियुक्त’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया।
जगदीश चन्द्र बोस का जन्म 30 नवम्बर 1858 को मेमनसिंह में अपने ननिहाल में उसी वर्ष हुआ जिसमें भारत सीधे ब्रिटिश प्रशासन के अधीन हो गया, वर्ष 1757 से ईस्ट इंडिया कंपनी इस पर शासन चला रही थी। लार्ड कैनिंग को वाइसराय घोषित किया गया, ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्य प्रशासक के रूप में वह गर्वनर जनरल था जैसा 1772 से वार्न हेस्टिंग्स के पदभार संभालने के समय से चला आ रहा था। बोस का पुशतैनी धर विक्रमपुर में रशिवाल नामक गांव मे था जो ढाका, बंगलादेश की वर्तमान राजधानी से दूर नहीं था। उसके पिता भगबान(भगवान भी लिखते थे) चन्द्र बोस ब्रिटिश इंडिया गवर्नमेंट में विभिन्न कार्यकारी और दण्डाधिकारीय पदों पर कार्यरत रहे। जब बोस का जन्म हुआ, उस समय भगवान चन्द्र फ्ररीदपुर का उप मजिस्ट्रेट था और यहां ही बोस ने अपना आरंभिक बाल्यकाल बिताया। भगबन चन्द्र कोई मामूली सरकारी कर्मचारी नहीं था। बोस के अत्यधिक प्रमाणिक जीवनचरित्रों में से एक का लेखक सेंट एन्डरियूस यूनिवर्सिट पर वनस्पति –विज्ञान का प्रोफेसर पेटरिक जेडेस था, वह लिखता है : “बोस का पिता भगबन चन्द्र बोस, डिप्टी मजिस्ट्रेट फ़रीदपुर – न केवल छोटे नगर का, बल्कि आस पास के बहुत से गांवो का भी, सक्रिय रक्षिक था। आधुनिक मजिस्ट्रेट अपने कोर्टहाउस और अपने घर के बीच ही मुख्यतः रहता था; लेकिन यहां उन दिनों एक ऐसे आदमी की जरूरत थी, जिसे न्यायिक क्षमता, बुद्धिमत्ता और स्थानीय जानकारी के लिए ही नहीं बल्कि सक्रिय पहल शक्ति और हौसले के लिए चुना जाता और इस प्रकार किसी भी समय अपनी पुलिस की कमान संभालने के लिए और छापामारों पर धावा करने के लिए भी तैयार रहता। उसकी तत्परता की बहुत सी कहानियां कही जा सकती हैं। एक उदाहरण देते हैं। उसने सुना कि उसके पड़ोस में डाकुओं का एक गिरोह आया है, मिस्टर बोस हाथी पर आरोहित हो गया और उपलब्ध चन्द पुलिस कर्मियों को साथ लेकर सीधे डाकुओं के कैम्प के मध्य तक चला गया। डाकू हैरान हो गए और इधर उधर दौड़ गए; तत्पर मजिस्ट्रेट ने नीचे छलांग लगाई, लिडर को अपने हाथों से पकड़ा और उसे मुकदमा चलाने के लिए वापस ले आया”। भगबान चन्द्र ने अपने घर में एक खूंखार पूर्व – डाकू को रखा हुआ था, जिसे उसने पहले कैद की सजा दी थी और वह बाल जगदीश चन्द्र की देखभाल करता था। यद्यपि भगवान चन्द्र ब्रिटिश सरकार की सेवा में था लेकिन फिर भी वह पक्का राष्ट्रीयवादी और स्वप्न – द्रष्टा भी था। उसने बहुत से शैक्षिणिक, कृषि और तकनीकी परियोजना को आरंभ किया, चाहे सदा सफलता न मिली, ताकि कम भाग्यवान देश –वासियों के लिए रोजगार उपलब्ध कराया जाये और अवसरों को बढ़ावा दिया जाए। 1869 में बोस के पिता की तैनाती बरदवान में सहायक कमिशनर के रूप में हुई। यहां उसने बढ़ईगिरी, सामान्य धातु कार्य में धातु खरादने और फाउंडरी के कारखाने खोले। बोस अपने पिता के आदर्शों से अत्यधिक प्रभावित था। अपने पिता द्वारा फ़रीदपुर में स्थापित प्रदर्शनी और मेला की पचासवीं वर्षगांठ के अवसर पर बोलते हुए बोस ने कहा : “एक असफलता हां लेकिन हेय या किसी भी प्रकार व्यर्थ नहीं”। और इस संघर्ष के गवाह माइकल फेराडे हीनरिच रूडोल्फ़ हर्टज के माध्यम से, पुत्र ने सफलता या असफलता को एक रूप से देखना सीखा और यह महसूस किया कि कुछ हार जीत से ज्यादा महान होती है। मेरे लिए उसका जीवन एक वरदान है, हर रोज़ शुक्रगुजारी। फिर भी, हर किसी ने कहा कि उसने अपना जीवन बर्बाद कर दिया जो अधिक महान बातों के लिए था। चन्द लोग ही महसूस करते हैं कि असंख्य जीवनों के कंकालों पर विस्तृत महाद्विरों का निर्माण हुआ है। और उसके जैसे, और बहुत से वैसे ही जीवनों की तबाही पर भावी महान् भारत का निर्माण होगा हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों होगा, लेकिन हम निश्चित रूप से जानते है कि मातृ – भूमि सदा बलिदान मांगती हैं।
बोस ने अपनी शिक्षा एक देशी – भाषा या बंगाली स्कूल में, एक पाठशाला में आरंभ की जिसे उसके पिता ने स्थापित किया था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि भगबान चन्द्र बड़ी आसानी से अपने पुत्र को स्थानीय अंग्रेजी स्कूल में भेज सकता था। तथापि वह चाहता था कि उसका बेटा मातृभाषा में सीखे और अंग्रेजी सीखने से पहले अपनी संस्कृति की जानकारी प्राप्त करे। इस पाठशाला में बोस किसानों, माहीगीरों और कामगारों के बच्चों के साथ पढ़ता था। उनके मेल से बोस में प्रकृति के प्रति प्रेम जागृत हुआ। बोस गांव के मेलों में अकसर जातराओं (लोक नाटकों) में जाता था जिनसे उसे महान काव्य महाभारत और रामायण पढ़ने की प्ररेणा प्राप्त हुई। महाभारत में करण के चरित्र से वह अत्यधिक प्रभावित था। बोस को उद्धृत करते हुए : “उसकी(करण) की निम्न जाति से अस्वीकृति मिली, प्रत्येक अलाम मिला; लेकिन वह सदा खेलता और औचित्यपूर्ण ढंग से लड़ता था इस प्रकार उसका जीवन, बहुत सी निराशाओं और पराजयों को अन्त तक लिए हुए था अर्जुन द्वारा उसका वध बच्चे के रूप में मुझे महान विजय के रूप में बहुत पसन्द आया। मैं उस खेल के बारे में अब भी सोचता हूँ जहाँ अर्जुन विजयी हुआ और तब उसे चुनौती देने के लिए अजनबी के रूप में करण आ गया। नाम और जन्म के बारे में पूछने पर उसने उत्तर दिया, मैं स्वयं अपना पूर्वज हूँ। आप शक्तिशाली गंगा से तो नहीं पूछते कि अपने बहुत से नालों में से यह किस से आती है : इसका अपना प्रवाह ही इसका औचित्य है, और इस प्रकार मेरे पराक्रम ही मेरे लिए सब कुछ होंगे। ” उसने आगे लिखा : “मेरे बचपन के नायक करण की तरह मेरा जीवन सदा संघर्ष पूर्ण रहा है और अन्त तक रहेगा। आदमी के लिए यह उचित नहीं कि हालात की शिकायत करे बल्कि उसे उन्हें बहादुरी से स्वीकार करना चाहिए, सामना करना चाहिए और उनपर शासन करना चाहिए।”
1869 में बोस को कोलकाता (तब कलकत्ता) भेजा गया जहां तीन माह हेयर स्कूल में रहने के बाद सेंट ज़ेवियर कालेज में दाखिला मिल गया जो एक सेकण्डरी स्कूल और कालेज दोनों ही था। इसकी स्थापना बेलजियन जेसूइट द्वारा 1860 में की गई। यहां बोस फॉदर इयूजीन लाफन्ट (1837-1908) के संपर्क में आया जिसने कोलकाता में आधुनिक विज्ञान की परम्परा विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। लाफन्ट की पहल पर सेंट ज़ेवियर कालेज ने विज्ञान शिक्षण पर विशेष बल दिया। 1875 में कालेज में, उसने एक छोटी खगोल – विज्ञान बेधशाला स्थापित की। वह ऐसे प्रिंसिपलों में से एक था जिन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय को प्रेरित किया कि विज्ञान मे एक अंडर –ग्रजुएट पाठ्यक्रम प्रस्तुत करें। लाफ़न्ट ने विज्ञान के संवर्धन के लिए भारतीय संघ मे लोकप्रिय विज्ञान लैक्चर भी दिए, इस संघ की स्थापना महेन्द्रलाल सरकार (1833-1904) द्वारा की गई थी। वास्तव में, संघ का वह प्रथम लैक्चरार था। बोस लॉफन्ट , से अत्यधिक प्रभावित था। पेट्रिक जेडीस को उद्धृत करते हुए : “फॉदर लॉफन्ट के सब विद्यार्थी, जब तक वह उस कालेज मं भौतिकी विज्ञान प्रोफेसर था, उसकी शिक्षा और प्रभाव को वस्तुतः शिक्षाप्रद के रूप में याद करते है। उसके अनुभवों की दौलत और व्याख्या की सुस्पष्टता से समस्त कालेज में उसकी क्लास अत्यधिक दिलचस्प बन गई और सब से बढ़कर नौजावन विद्यार्थी उसकी धैर्यवान कुशलता, उसकी सूक्ष्मता और प्रयोग की प्रतिभा की बहुत प्रशंसा करते थे। बौद्धिक सुबोधगम्यता और प्रायोगिक युक्ति के धन के संयोजन के प्रति यहां बोस का पहला अनुशासन और आश्रय था जिसके द्वारा उसने अपने वृद्ध मास्टर से आगे निकल कर उसका पूरी तरह प्रतिनिधित्व किया है और सम्मानित किया है। ”
1879 में बोस ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिक–विज्ञान ग्रुप में बीए परीक्षा पास की। अपने ग्रजुएशन के समय भावी कैरियर के लिए बोस की कोई स्पष्ट योजना नहीं थी, इसे छोड़ कि उच्चतर शिक्षण के लिए उसके पिता की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उसके पिता की नवीन योजना और पूंजी निवेश बहुधा विफल हो गया थ और इसके फलस्वरूप वह कर्ज़ के नीचे दबा हुआ था। कुछ परियोजनाएं ऐसी भी थी जो सफल थी लेकिन बोस का पिता उनसे लाभ नहीं लेना चाहता था। उदाहरणार्थ, जनता बैंक, बाद की सहकारी सोसाइटियों का पूर्वगामी, जिसे उसके पिता ने आरंभ किया बहुत सफल था। यदि बोस के पिता ने शेयर रखे होते जो संस्थापक के रूप में उसने खरीदे थे तो किसी प्रकार की आर्थिक कठिनाई उत्पन्न न होती। लेकिन उसने शेयर अपने गरीब मित्रों को दे दिए थे। बोस ने निर्णय लिया कि उसका पहला कर्तव्य पैसा कमाना और अपने पिता के ऋणों को चुकाना है। अपने पिता के उदाहरण का अनुसरण करते हुए उसके सामने सहज विकल्प प्रसिद्ध भारतीय सिविल सेवा में भरती होना था। तथापि उसका बाप नहीं चाहता था कि वह सरकारी नौकर बने जिसके बारे में उसने सोचा कि उसका बेटा आम जनता से परे चला जाएगा। वास्तव में, उसका पिता चाहता था कि उसका बेटा आम आदमी के लिए सहायक बने और ब्रिटिश भारत में सरकारी नौकर बन कर ऐसा नहीं किया जा सकता था। अन्ततः यह फैसला किया गया कि बोस किसी इंग्लिश यूनिवर्सिटी मे चिकित्सा का अध्ययन करेगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बोस के सामने दो कठिनाइयां थी। पहली, जैसा पहले बताया जा चुका है कि उसके पिता की आर्थिक स्थिति बिल्कुल अपर्याप्त थी कि इंग्लैंड में रहते हुए ऐसी खर्चीली शिक्षा में सहायता की जाए। और भी खराब बात यह थी कि उस समय भगबान चन्द्र दो वर्ष की बीमारी छुट्टी पर, घटे हुए वेतन पर था, और उसे निश्चित नहीं था कि उसका स्वास्थ्य कब ठीक होगा और वह ड्यूटी पर जाएगा और पूरा वेतन प्राप्त करेगा। उसकी दूसरी कठिनाई उसकी मां की चिन्ता थी जो अनजानी पश्चिमी दुनिया में उसे नहीं भेजना चाहती थी। उन दिनों समुद्री यात्रा बहुत खतरनाक मानी जाती थी। उसका दूसरा लड़का 10 वर्ष की आयु में खो गया था इसलिए वह अपने एकमात्र बचे हुए बच्चे के प्रति बहुत स्वत्वात्मक बन गई थी। इन बातों पर ध्यान देते हुए बोस ने भारत में रहने का निर्णय लिया और देखना चाहता था कि वह क्या बेहतर कर सकता है। उसकी मां वनसुन्दरी देवी ने तब अचानक फ़ैसला किया कि उसका बेटा अपनी पूर्वयोजना के अनुसार इंग्लैड जाएगा। उसने कहा, “मेरे बेटे, यूरोप में जाने के बारे में मैं कुछ ज्यादा नहीं समझती लेकिन मैं तुम्हारे दिल की इच्छा को देख रही हूँ कि तुम बहुत पढ़ना चाहते हो; इसलिए मैने अपना मन बना लिया है। तुम्हारी मन की इच्छा पूर्ण होगी। चाहे तुम्हारे पिता की सम्पत्ति का कुछ नहीं बचा है लेकिन मेरे पास मेरे हीरे हैं। मेरा पास अपना कुछ धन भी है और इसे मिला कर मैं व्यवस्था कर सकती हूँ। तुम जरूर जाओगे”। एक मां के लिए यह हौसला पूर्ण निर्णय था और भारत और भारत के लोग उसके आभारी है। उसकी मां की सहमति के बाद पिता भी तत्काल मान गया। उसकी आपत्ति सरकारी नौकर बनने या क़ानून पढ़ने के बारे में थी। इस प्रकार मां के हीरे बेच कर बोस इंग्लैड के लिए रवाना हो गया।
तथापि, एक वर्ष की पढ़ाई के बाद उसे चिकित्सा-शास्त्र पढ़ने की अपनी योजना छोड़नी पड़ी क्योंकि पहले से प्राप्त बुखार उसे बार-बार हो जाता था और विच्छेदन कमरों की बू से तीव्र हो जाता था। जनवरी 1882 में बोस लंडन छोड़ कर कैम्ब्रिज आ गया जहां नैसर्गिक विज्ञान पढ़ने के लिए उसने क्राइस्ट कालेज में दाखिला लिया। क्राइस्ट कालेज में दाखिला लेने का उसका निर्णय इस बात से प्रभावित था ति उसके बहनोई आनन्द मोहन बोस (1847-1906) वहां पहले पढ़ चुका था। आनन्द मोहन ने 1874 में गणित विषय लिया और वह कैम्ब्रिज का पहला विवादक था। कैम्ब्रिज में बोस के अध्यापक थे : लार्ड रेलेह(1842-1919), माइकल फास्टर (1836-1907), सिडनी वाइनस (1849-1934) और फ्रांसिस डारविन (1848-1925)।
1884 में बोस ने नैसर्गिक विज्ञान विषय में दूसरी श्रेणी में कला स्नातक की और लंडन यूनिवर्सिटी से विज्ञान स्नातक की डिग्री भी प्राप्त की। भारत वापस आकर उसने प्रैसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता में 1885 में दाखिला लिया। वह पहला भारतीय था जिसकी नियुक्ति प्रैसीडेंसी कॉलेज में भौतिक-विज्ञान प्रोफ़ैसर के रूप में हुई। उसकी नियुक्ति का सर एल्फ़रेड क्राफ्ट तत्कालीन निदेशक, लोक शिक्षा बंगाल और मि. चार्ल्स आर. टॉनी प्रिंसिपल प्रैसिडेंसी कालेज ने भारी विरोध किया। लेकिन लार्ड रिपन, तत्कालीन भारत के वाइसराय के हस्तक्षेप के कारण बोस को अन्ततः नौकरी मिल ही गई। नियुक्ति प्राप्त करने में बोस की सहायता प्रो. फ़ॉसेट, अर्थशास्त्री और तत्कालीन पोस्ट मास्टर जनरल ब्रिटिश न की। फ़ॉसेट बोस के बहनोई आनन्द मोहन बोस का मित्र था। फ़ॉसेट के परिचय-पत्र के साथ बोस लार्ड रिपन से शिमला में मिला। उन दिनों शिमला में भारत की ग्रीष्म राजधानी होती थी। रिपन बोस से बहुत अच्छी तरह पेश आया और उसने उसे इम्पीरियल शिक्षा सेवा के लिए नामित करने का वादा किया। लेकिन कलकत्ता आकर जब बोस क्रॉफ्ट से मिला तो उसका तनिक भी सत्कार न हुआ। क्रॉफ्ट ने कहा : “सामान्यतः मेरे पास लोग नीचे से सिफ़ारिश लेकर आते है, ऊपर से नहीं। इस समय इम्पीरियल शिक्षा सेवा में उच्चतर श्रेणी में कोई नियुक्ति उपलब्ध नहीं है। मैं प्रान्तीय सेवा में आपको नौकरी दे सकता हूं जहां से आपकी पदोन्नति हो सकती है”। बोस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार न किया। वाइसराय ने बंगाल सरकार को दुबारा लिखा और बोस की नियुक्ति में विलंब के लिए स्पष्टीकरण मांगा। अन्ततः विवश होकर क्रॉफ्ट को बोस की नियुक्ति करनी पड़ी। उस समय ब्रिटेन वासियों का विचार था कि शिक्षा सेवा में उच्च पद प्राप्त करने के लिए भारतीय योग्य नहीं हैं और इस प्रकार इम्पीरियल शिक्षा सेवा उनकी पहुँच से बाहर है, चाहे वे कितनी ही अर्हता रखते हों। उदाहरणार्थ, पी सी राय लंडन से पी.एच.डी डिग्री के साथ वापस आया लेकिन इम्पीरियल शिक्षा सेवा में उसे स्थान न मिल सका और उसे प्रान्तीय सेवा से ही सन्तुष्ट होना पड़ा। भारतीय सिविल सेवा में कोई भी भारतीय निर्धारित परीक्षा पास करके भरती हो सकता है लेकिन इम्पीरियल शिक्षा सेवा में ऐसा न होकर भरती नामांकन के माध्यम से ही होती थी।
यद्यपि लार्ड रिपन के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण बोस को उच्चतर सेवा मे नौकरी मिल गई लेकिन उसे उस्थायी आधार पर पद के लिए निर्धारित वेतन से आधे वेतन पर रखा गया। बोस ने विरोध किया और उसी वेतन की मांग की जिसे प्राप्त करने के लिए कोई यूरोपियन हकदार था। जब उसके विरोध पर विचार न हुआ तो उसने वेतन लेने से इन्कार कर दिया। वह अपने अध्यापन कार्य में तीन साल तक बिना वेतन के लगा रहा। अन्ततः निदेशक लोक शिक्षा और प्रिंसिपल प्रेसिडेंसी कालेज दोनों ने अध्यापन-कार्य में बोस की योग्यता की कीमत और उसके उदात्त चरित्र को पूरी तरह महसूस कर लिया। इसके फलस्वरूप उसकी नियुक्ति को पूर्वव्याप्ति से स्थायी बना दिया। उसे गत तीन वर्ष का वेतन एकमुश्त दे दिया गया जिसका इस्तेमाल उसने अपने बाप का ऋण उतारने के लिए किया।
1894 में अपने पैंतीसवे जन्म दिन पर बोस ने अपने विज्ञान अनुसंधान कार्य को आगे बढ़ाने और केवल अध्यापन कार्य तक ही अपने आपको सीमित न रखने का फ़ैसला किया। कोई प्रयोगशाला, उपकरण या साथी उपलब्ध नहीं थे। प्रेसिडेंसी कालेज में दिए गए एक छोटे 24 वर्गफुट कमरे में उसने अपने अनुसंधान किए। विद्युत विकिरण पर अपने पहले अनुसंधान के लिए एक नए उपकरण के आविष्कार और निर्माण के लिए उसने एक अशिक्षित टिन स्मिथ की सहायता ली। ओलिवर लॉज की पुस्तक हीनरिच हर्टज और उसके उत्तराधिकारी पढ़ने के बाद, विद्युत तंरगों की विशेषताओं का अध्ययन करने के लिए वह प्रेरित हुआ। रेडियों तंरगों के उत्पादन के लिए बोस ने एक नए प्रकार का रेडिएटर अभिकल्पित और निर्मित किया। रेडियो तंरगों के अभिग्रहण के लिए उसने एक अद्भुत और उच्च संवेदी ‘कोहिरर’ या रेडियो रिसीवर का निर्माण भी किया। यूरोप में प्रयुक्त किए जा रहे कोहिरर की तुलना में, बोस का कोहिरर बहुत ज्यादा ठोस, कुशल और प्रभावी था। फ्रांस के एडयूअर्ड ब्रेनली(1846-1940) द्वारा 1890 में बनाए गए कोहिरर के सुधरे रूपांतर को ओलिवर लॉज ने अभिकल्पित किया। यद्यपि ब्रेनली ने कोहिरर का आविष्कार किया था लेकिन उसने संसूचक के रूप में इसकी संकल्पना नहीं की थी, यह तो लॉज का योगदान था। शब्द कोहिरर का निर्माण भी लॉज ने द्वारा किया गया। ब्रेनली ने दिखाया कि कांच नलियों में रखी शिथिल संपर्कों वाली धातु भराई विद्युतरोधित बनाती हैं। यद्यपि भराई स्वयं अच्छी कंडक्टर होती है लेकिन वह छोटी वोल्टताओं के प्रति बहुत प्रतिरोधक होती हैं। तथापि, हर्टज़ीयन तंरगों की मौजूदगी उनका प्रतिरोध काफी हद तक घट जाता है या दूसरे शब्दों में वे एक चालन स्थिति में परिवर्तित हो जाती हैं और वे उसी हालत में ही बनी रहेंगी जब तक कि उन्हें हिलाया या धीरे से टेप न किया जाए। लॉज द्वारा विकसित कोहिरर में, कांच नली में रखी भराई के सम्पर्क में तारों को नली के सिरे से बाहर निकाल कर गोल्वानोमीटर के साथ एक सिरीज में योजित किया गया। एक विकिरण होने पर, भराई चालन स्थिति में स्विच हो जाएगी और एक धारा प्राप्त की जाएगी जिसे गोल्वानोमीटर द्वारा संसूचित किया जाएगा। बोस का रिसिवर ब्रेनली और लॉज के रिसिवरों का बहुत उन्नत रूप था। पहले रूपांतरणों में संवेदना में विभिन्नता थी और कई बार उनका व्यवहार अनियमित होता था। बोस ने अनियमित भराई को महीन तार कुंडलित स्प्रिंगों से बदल दिया। उन्हें एबोनाइट में एक स्प्रिंग के नियन्त्रण में लगाया गया। इस सुधरे उपस्कर का प्रयोग करते हुए बोस ने रेडियो तंरगों की विभिन्न विशेषताओं जैसे पावर्तन, अवशोषण, व्यतिकरण, दोहरे परावर्तन और ध्रुवण का प्रदर्शन दिया। उसने 1सेमी से 5मिमि तक छोटी रेडियो तंरगों के नए प्रकारों को भी प्रदर्शित किया। ऐसी तंरगों को अब माइक्रोवेव कहते हैं और इनका प्रयोग राडार, भू-दूरसंचार, सेटेलाइट संचार, सदूर संवेदी और माइक्रोवेव भठ्ठियों में किया जात है। मई 1895 में, उसने ‘दोहरे परवर्तक क्रिस्टलों द्वारा विद्युत किरणों के ध्रुवण पर’ अपना अनुसंधान प्रलेख एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के सामने पढ़ा। उसी वर्ष ‘विद्युत किरण के लिए सल्फ़र के अपवर्तन के आंकड़ों के निर्धारण पर’ शीर्षक उसका शोध-पत्र रॉयल सासाइटी, लंडन को लार्ड रेलेह द्वारा भेजा गया। इस शोध-पत्र को रॉयल सोसाइटी के सामने दिसम्बर 1895 को पढ़ा गया और जनवरी 1896 में सोसाइटी के कार्य विवरण में प्रकाशन के लिए इसे स्वीकृत किया गया। बोस के तीन लेख इलैक्ट्रीशन आफ फ़्राईडे 27 दिसम्बर में प्रकाशित किए गए थे। ये शायद एक भारतीय के प्रथम प्रलेख थे जिन्हें एक पश्चिमी वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित किया जाना था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन दिनों दि इलैक्ट्रीशन अत्यनत प्रसिद्ध पत्रिकाओं में से एक थी जो विद्युत मामलों से सम्बद्ध थी। अत्यन्त विपरित परिस्थितियों के होते हुए भी, बोस अपे पूर्ण समर्पण और प्रवीणता के कारण सफल हुआ। रॉयल सोसाइटी, लंडन ने उसके शोधपत्र को न केवल प्रकाशन के लिए स्वीकृत किया बल्कि अपने संसदीय अनुदान से उसके लिए वित्तीय सहायता भी प्रस्तुत की ताकि बोस अपना अनुसंधान कार्य जारी रखे। लंडन यूनिवर्सिटी ने बिना किसी परीक्षा के उस डॉक्टर ऑफ साईंस (D Sc) की उपाधि प्राप्त की। लार्ड केलवीन ने बोस को बधाई दी और कहा कि वह ‘अक्षरश: आश्चर्य और प्रशंसा से परिपूर्ण है...... कठिन और नवीन प्रायोगिक समस्या में अपनी सफलता के लिए .....’ मैरी अल्फर्ड कार्नू (1941-1902), पूर्व अध्यक्ष फ्रेन्च साईंस अकादमी, ने लिखा: ‘आपके अनुसन्धानों के पहले परिणाम से ही विज्ञान की प्रगति आगे बढ़ाने की आपकी क्षमता प्रमाणित होती है। अपनी ओर से मैं उस पूर्णता से जिस तक आप अपने तन्त्र को लाए है, इकाली पॉलीटेनीक के लाभ के लिए और भावी अनुसन्धानों के लिए मैं पूरा लाभ उठाना चाहती हूँ जिन्हें मैं पूरा करना चाहती हूँ।’ अनुसन्धान में बोस की अचानक सफलता और इंग्लैंड और अन्य पश्चिमी देशों के प्रसिद्ध विज्ञानिकों द्वारा उसकी प्रशांसा का भारत में भी प्रभाव हुआ। सर विलियम मेकेन्ज़ी, लैं. गवन्रर बंगाल का ध्यान बोस के काम की ओर दिलाया गया और उसने उन परिस्थितियों में सुधार करने की चेष्टा की जिनमें बोस काम कर रहा था। बोस के साथ बढ़े हुए वेतन के साथ एक नए पद का सृजन किया, जिसमें ज्यादा पहल शक्ति थी और अनुसंधान के लिए उपयुक्त अवकाश था। तथापि इस नियुक्ति को रद्द कर दिया गया क्योंकि कलकत्ता यूनिवर्सिटी को जिसका वह फैलो था, एक बैठक में सरकारी नीति का समर्थन करने से उसनें इनकार कर दिया। नई नियुक्ति के लिए शिक्षा विभाग के विरोध को पराभूत करने में विफल होने पर लै. गर्वनर ने बोस द्वारा अनुसंधान में वहन किए गए व्यय की प्रतिपूर्ति करने का निण्रय लिया। तथापित, बोस ने अपने पिछले कार्य के लिए अनुदान स्वीकार करने से इनकार कर दिया। लेकिन प्रेसिडेंसी कालेज में अपने भावी अनुसंधान कार्य के लिए सरकारी की 2500 रु. ($166) का वार्षिक अनुदान स्वीकार कर लिया। विलियम मेकेन्ज़ी की पहल पर, शिक्षा विभाग ने बोस को छह: के लिए इंग्लैंड में प्रतिनियुक्ति पर भेजने के लिए स्वीकृति दे दी और वह 24 जुलाई 1876 को समुद्री मार्ग से इंग्लैंड के लिए रवाना हो गया। उसने लिवरपूल में विज्ञान की उन्नति के लिए ब्रिटिश संघ की बैठक में रेडियों तरंगों पर अपनी नई खोजों पर भाषण एवं प्रदर्शन दिया। उपस्थित श्रोताओं में सर जेमस जानसन (1856-1940) थामसन ओलिवर लॉज और लार्ड केलवीन भी थे। अनुसन्धान ने अपनी सफलता के बाद बोस का इंग्लिश विज्ञानिकों के साथ पहला अन्योन्यक्रिया थी। बोस के प्रस्तुतीकरण से उपस्थित विज्ञानिक अत्यधिक प्रभावित हुए। लार्ड केलवनी महिला गैलरी में श्रीमती अबाला बोस को उसके पति के शानदार कार्य के लिए बधाई देने के लिए गए। रॉयल इंस्टीट्यूशन ने भी उसे शुक्रवार सायं वार्तालाप देने के लिए भी आमंत्रित किया। यह बड़े सम्मान की बात थी। भारत सरकार ने भाषण तैयार करने के लिए उसकी प्रतिनियुक्ति को तीन माह के लिए बढ़ा दिया। उसने अपना शुक्रवार सायं भाषण 19 जुलाई 1897 को दिया। भाषा का शीर्षक था- विद्युत किरणों के ध्रुवण पर।’ बोस को सुनने के लिए पांच सौ से ज़्यादा लोग एकत्र हुए जिनमें ओलिवर लॉज, जेम्स जान थामसन और लार्ड केलवीन शामिल थे। भाषण के न केवल प्रशंसा की गई बल्कि इस रॉयल सोसाइटी के कार्यकलापों में प्रकाशन के लिए भी बहुत मूल्यवान समझा गया। बोस की ख्याति पड़ौसी देशों, फ्रांस और जम्रनी में तेज़ी से फैल गई। अपने परिणामों पर चर्चा करने के लिए उसे भौतिक सोसाइटी, पैरिस और बर्लिन के विख्यात भौतिक-विज्ञानिकों ने आमंत्रित किया।
इंग्लैंड में बोस के समकक्ष व्यक्ति उसकी उपलब्धियों से अत्यधिक प्रभावित थे और बोस की कार्य-स्थितियों में सुधार करने में सहायता देन चाहते थे। अपना अनुसन्धान कार्य करने के लिए उसके पास उपयुक्त प्रयोगशाला नहीं थी। लार्ड केलवीन ने तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लार्ड जार्ज हैमिलटन को लिखा: भारत के लिए और कलकत्ता में वैज्ञानिक शिक्षा के लिए श्रयस्कर होगा यदि एक पूर्ण सुसज्जित भौतिक प्रयोगशाला कलकत्ता विश्वविद्यालय के संसाधनों में, डॉ. बोस की प्रोफेसरशिप के संबंध में जोड़ दी जाए।’ लार्ड केलवनी के पत्र के बाद बहुत से प्रसिद्ध विज्ञानिकों द्वारा हस्तारित एक पत्र भेजा गया जिनमें लार्ड जोज़ेफ लिस्टर (1829-1912) रॉयल सोसाइटी के तत्कालीन अध्यक्ष प्रो. फ़िटज़रलैंड, सर विलियम रामसे, सर जार्ज जेबरील स्टोक्स (1819-1902) और बहुत से अन्य शामिल थे। इस विज्ञप्ति में कहा गया: ‘प्रेसिडेन्सी कालेज, कलकत्ता के संबंध में, उन्नत प्रशिक्षण और अनुसन्धान के लिए एक केन्द्रीय प्रयोगशाला, भारतीय साम्राजय में स्थापित करने को हम बहुत महत्व देते है। हमें विश्वास है कि यह न केवल उच्चतर शिक्षा के लिए लाभप्रद होगी बल्कि इसे लिए भी इससे देश के भौतिक हित को बहुत हद तक बढ़ावा मिलेगा, और उस महान साम्राज्य के अनुरूप भौतिक प्रयोगशाला भारत में स्थापित करने के लिए आपको प्रार्थना करने का हौसला करते है।’ सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने पत्र न केवल भारत सरकार को भेजा बल्कि प्रस्ताव का यह कहते हुए समर्थन भी किया ‘मेरी राय है कि सि प्रकार के संस्थान की स्थापना का उल्लेख किया गया है उसमें कौसल में महामहिम द्वारा विचार करना अपेक्षित है।’ यद्यपि तत्कालीन वाइसराय लार्ड एल्गिन ने बोस को सूचित किया कि सरकार को उसकी परियोजना में रूचि है कि लेकिन संबंधित सरकारी विभाग ने अन्तत: निर्णय लिया कि यद्यपि परियोजना महत्वपूर्ण है लेकिन इसे भविष्य के लिए स्थगित किया जाए। ऐसी एक प्रयोगशाला की नींव 1914 में रखी गई, बोस की सेवानिवृत्ति से केवल एक वर्ष पहले।
बोस अपने अविष्कार को पेटन्ट बनाने के बहुत विरूद्ध था। उसने निश्चय किया था कि अपने अविष्कारों से व्यक्तिगत लाभ नहीं उठाएगा। उसने विज्ञान का अनुसरण उसके लिए नहीं बल्कि मानवता की भलाई में उसके प्रयोग के लिए किया है, रॉयल इंस्टीच्यूशन लंडन, में अपने शुक्रवार सायं प्रवचन में उसने कोहिरर के अपने निर्माण को प्रकट किया। इस पर विद्युत इंजीनियरों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि किसी भी समय इसके निर्माण को गुप्त नहीं रखा गया और इस प्रकार यह सारे विश्व के लिए खुला है कि व्यावहारिक कार्यों और संभवत: धन बनाने के प्रयोजनों के लिए इसका इस्तेमाल किया जाये। 1901 में वायरलेस उपकरण का एक बड़ा विनिर्माता बोस के पास उसके नए प्रकार के रिसीवर के लिए एक लाभकारी करार पर हस्ताक्षर कराने के लिए गया। तथापि बोस ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। उसकी एक अमरीकी मित्र सारा बुल (श्रीमती ओल बुल के नाम से भी जानी जाती है) बोस को प्रेरित करने में सफल रही कि अपने गैलेना रिसीवर के लिए पेटन्ट अर्जी दाखिल करे। आवेदन 30 सितम्बर 1901 को दिया गया और 29 मार्च 1904 को (यू एस पेटन्ट नं. 755, 840) इसकी स्वीकृति मिली। तथापि बोस ने अपने अधिकारों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और पेटन्ट को कालातीत होने दिया।
अपने विद्युत तरंग रिसीवर के विलेक्षण व्यवहार से अभिभूत हो कर जो लम्बे प्रयोग के बाद ‘श्रांति’ के चिह्न दिखाता था लेकिन कुछ आराम के बाद उसे उसकी वास्तविक संवेदनशीलता के लिए पुन: चालू किया जा सकता था, इस घटना के समझने के लिए बोस ने योजनाबद्ध अध्ययन किया। उसने यह विश्वास करना आरंभ किया कि धातुओं की भी अपनी ‘भावनाएं’ होती है। धातुओं से उसने अपना ध्यान पौदों की ओर मोड़ा और उसने पाया कि धातुओं की तुला में पौदे उसके प्रयोग के प्रति ज्यादा अनुकूल प्रतिक्रिया रखते हैं। बोस ने सोचा कि जीवित और अजैव के बीच नैसर्गिक विश्व में छिपी एकता को उसने पहचान लिया है। जांच की इस लाइन के प्रति वह पूरी तरह समर्पित हो गया। 1900 में बोस ने अपना शोध-पत्र ‘अजैव और जीवन्त पदार्थों की समान अनुक्रियाओं पर’ भौतिक-विज्ञानियों की पैरिस इन्टरनेशल कांग्रेस के सामने पढ़ा। विज्ञान में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी ने जीवित उत्कों की अजैव पदार्थ के उत्कों उत्तेजना की अनुक्रियाओं को समांतर रूप से देखा और तुलना की। कांग्रेस द्वारा प्राप्त शोधपत्रों में बोस के शोध-पत्र को अत्यन्त महत्वपूर्ण समझ गया। इस शोध-पत्र को कांग्रेस के कार्य-विवरणों में प्रकाशित किया गया। भारत में बहुत से लोगों ने सोचा कि बोस ने पूर्व की युगों पुरानी बुद्धिमता को एक ताजा वैज्ञानिक संवेग दिया है जो समस्त जीवन मूल एकता में विश्वास रखती थी। स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) जो उस समय पेरिस में थे बोस को सुनने के लिए कांग्रेस में गए। कांग्रेस के बारे में अपने प्रभाव का उल्लेख करते हुए, स्वामी विवेकानन्द ने लिखा ‘यहां पैरिस में प्रत्येक देश के महान लोग एकत्र हुए हैं जो देश की शान प्रमाणित करेंगे। यहां विद्वानों का जय जयकार किया जाएगा, और प्रतिध्वनि में उनके देशों को महिमामण्डित किया जाएगा। विश्व के सब भागों से एकत्र इन लाजवाब आदमियों के बीच आपका प्रतिनिधि कहां है, ओ मेरी मातृ भूमि इस भारी भीड़ में एक युवक तेरे लिए खड़ा है, तुम्हारे ओजस्वी पुत्रों में से एक, यहां जिसके शब्दों ने श्रोताओं को चौंका दिया और अपने सब देश वासियों को रोमांचित करेगा।’ टैगोर ने कविता के रूप में अपनी प्रशंसा व्यक्त की।
ब्रेडफोर्ड, इंग्लैंउ में ब्रिटिश संघ की बैठक के भौतिक सत्र पर बोस ने 1900 में ऐसा ही एक शोध-पत्र पढ़ा। यहां भी भौतिक-विज्ञानियों ने उसके विचारों की बहुत श्लाधा की। ब्रेडफ़ोर्ड बैठक के बाद बोस बीमार हो गया और दो माह तक बिस्तर पर रहा। स्वस्थ होने पर उसके पुराने मित्रों और अध्यापकों लार्ड रेलेह और सर जेम्स डेवार (1842-1923) ने उसे रॉयल इंस्टीच्यूशन की डेवी-फ़ेराडे प्रयोग शाला में काम करने के लिए आमंत्रित किया। बोस ने 10 मई, 1901 को रायल इंस्टीच्यूशन में इस बार जीवित और अजैव की प्रतिक्रियाओं पर अपने अनुसंधान के बारे में अपना दूसरा शुक्रवार सायं भाषण दिया। इस भाषण की बहुत प्रशंसा की गई। जब बोस ने 6 जून, 1901 को रॉयल सोसाइटी में अपना शोध पत्र पढ़ा तो बोस के विचारों का पहली बार दो प्रसिद्ध वनस्पति शरीर विज्ञानियों जॉन बुर्डन सेंडसर्न और आगस्टस वालर ने विरोध किया। उनकी आलोचना को देखते हुए रॉयल सोसाइटी ने इस शोध-पत्र को प्रकाशित नही किया। बोस ने निर्णय लिया कि अपने सिद्धांत को साबित करने के लिए प्रयोग करने के लिए वह लंडन में थोड़ा समय और रहेगा और किसी प्रकार अपनी प्रतिनियुक्ति को बढ़वाने में वह सफल हो गया। यद्यपि उसे एक ब्रिटिश विश्वविद्यालय में नौकरी का प्रस्ताव दिया गया था लेकिन दो वर्ष रुकने के बाद, बोस ने भारत वापस आने का निर्णय लिया।
कोलकाता वापस आकर बोस ने संजीव और अजैव अनुक्रियाओं और वनस्पति ऊतकों की भौतिकीय विशेषताओं और जीव ऊतकों के व्यवहार के साथ उनके व्यवहार की समानता पर काम जारी रखा। उसने अपनी खोजों के परिणामों का प्रबन्धों के रूप में प्रस्तुत किया।
बोस ने प्रदर्शित किया कि यांत्रिक, ताप के अनुप्रयोग, विद्युत प्रघात, रसायन और ड्रग्स जैसी विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों के आधीन वनस्पति ऊतक वैसी ही विद्युत अनुक्रिया उत्पन्न करते हैं जैसी कि जीव ऊतकों द्वारा की जाती है। उसने यह प्रदर्शित करने की भी कोशिश की कि उद्दीपन के प्रति वैसी ही विद्युत अनुक्रियाएं कुछ अजैव तन्त्रों में भी देखे जा सकते हैं। अपनी खोजों के लिए बोस ने कई नए और उच्च संवेदी यन्त्रों का आविष्कार किया। इनके बीच अत्यधिक महत्वपूर्ण क्रेस्कोग्राफ़ था – एक यन्त्र जिसका प्रयोग एक पौधे के विकास को मापने के लिए किया जाता है। यह 1/100,000 इंच प्रति सेकंड तक छोटी वृद्धि को भी दर्ज कर सकता था। बोस ने अपने प्रयोग बहुधा मानोसा पुडीक और डेस्मोनडियम जायरन्स (भारतीय टेलीग्राफ प्लांट) पर किए। अपनी सब खोजों में बोस ने मूल व्याख्याओं को प्रस्तुत करने की चेष्टा की। उसने माडल उत्पन्न करने की कोशिश की जो स्मृति के भौतिक आधार को चित्रित करते थे। उसके निर्ष्कसों ने बाद में शरीर-विज्ञान, जीव-विज्ञान, साइबरनेटिक्स चिकित्सा-शास्त्र और कृषि जैसे विषयों को प्रभावित किया। बोस 1915 में शिक्षा सेवा से भौतिकी के सीनियर प्रोफ़ेसर के रूप में सेवानिवृत्त हुआ। वास्तव में उसे पचपन वर्ष की आयु पूरी करने पर 1913 में सेवानिवृत्त होना था जैसा कि उस समय सरकारी नियम थे। तथापि प्रेसिडेंसी कॉलेज के लिए उसकी सेवाओं और उसकी वैज्ञानिक उपलब्धियों को देखते हुए बंगाल सरकार ने उसके सेवाकाल को दो वर्ष के लिए बढ़ा दिया। सेवानिवृत्ति के बाद, सरकार ने पेशन की बजाय, पूर्ण वेतन पर उसे सेवा मुक्त प्रोफ़ेसर बना दिया। और वह प्रेसिडेंसी कालेज के साथ स्थायी तौर पर जुड़ा रहा। सेवानिवृत्ति के बाद भी उसके अनुसंधानों में कोई रुकावट नहीं हुई। उसने अपने घर में स्थापित एक छोटी प्रयोगशाला में वनस्पति शरीर-विज्ञान खोज जारी रखी। इसी दौरान एक अनुसंधान संस्थान स्थापित करने के लिए भी वह काम कर रहा था। इस संस्थान का संस्थापन समारोह 23 नवंबर, 1917 को हुआ। बोस ने अपने धर्मदाय के लिए लगभग 11 लाख रुपये की राशि एकत्र की और इस प्रयास में उसके मित्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उसकी पर्याप्त सहायता की। बोस उसका आजीवन निदेशक बन गया। उसका उद्घाटन भाषण अत्यन्त स्फूर्तिदायक था जिसमें आदर्शों को उसने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया। उसका एक अंश नीचे उद्धत किया जा रहा है।
‘में इस संस्थान को आज समर्पित करता हूँ- जो केवल प्रयोगशाला नहीं बल्कि एक मंदिर है....... इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य विज्ञान की तरक्की और ज्ञान का प्रसार है। हम यहां लैक्चर रूप में हैं जो इस ज्ञान के सदन की सब अनेक चेम्बरों में सब से बड़ा है। इस विशेषता को इस मात्रा में जोड़ते हुए जो आजतक एक अनुसंधान संस्थान के लिए असामान्य है मै चाहता हूँ कि ज्ञान की उन्नति को यथा संभव इसके व्यापक नागरिक और लोक प्रसार के साथ स्थायी रूप से सम्बद्ध किया जाए, और ऐसा बिना किन्ही शैक्षणिक सीमाओं के बिना, अब से सब जातियों और भाषाओं, पुरूषों और स्त्रियों दोनों के लिए समान रूप से, भविष्य में सब समय किया जाए।
यहां दिए गए लैक्चर सुने-सुनाए ज्ञान की मात्र पुनरावृत्ति नहीं होंगे। लगभग 1500 दर्शकों के सामने की गई खोजों की घोषणा करेंगे जिन्हें पहली बार जनता के सामने प्रदर्शित किया जाएगा। इस प्रकार ज्ञान की प्रगति और प्रसार में सक्रिया भाग लेते हुए ज्ञान के बड़े अधिष्ठान के उच्चतम लक्ष्यों को सदा बनाए रखेंगे। संस्थान के कार्य-सम्पादन के नियमित प्रकाशन द्वारा, ये भारतीय योगदान समस्त विश्व तक पहुँचेंगे। इस प्रकार की गई खोजें लोक सम्पत्ति बन जाएंगी। नियमित कर्मचारीयों के अलावा चुन्निदा संख्या में विद्वान भी होंगे जिन्होंने अपने कार्य के द्वारा विशेष अभिरुचि दिखाई है और जो अनुसंधान के अनुसरण अपने सारे जीवन को समर्पित करेंगे। उसके लिए व्यक्तिगत प्रशिक्षण की जरूरत होगी और यह आवश्यक है कि उनकी संख्या सीमित होगी; लेकिन मात्रा नहीं बल्कि विशिष्टता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मेरी यह भी इच्छा है कि जहां तक सीमित स्थान अनुमति दे, इस संस्थान की सुविधाएं सह देशों के कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध रहनी चाहिए। ऐसा करते हुए मैं अपने देश की परंपरा को ही आगे बढ़ा रहा हूँ जिस ने पच्चीस शताब्दियों से पहले नालंदा और टेक्सला के अपने ज्ञान अधिष्ठानों की सीमाओं में विश्व के विभिन्न भागों से सब विद्वानों का स्वागत किया.........
पदार्थ में नहीं; बल्कि विचार में, सम्पत्ति में और उपलब्धियों में नहीं बल्कि आदर्शों में, अमरत्व के बीज पाये जाएंगे। भौतिक अर्जन के माध्यम से नहीं बल्कि विचारों और आदर्शों के प्रचुर प्रसार से मानवता का सच्चा सामाज्य स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार अशोक के लिए, जो एक बड़े राज्य का स्वामी ता जो अक्षत समुद्रों से सीमित था, सब कुछ देकर विश्व के सामने प्रायश्चित करने की चेष्टा के बाद, एक समय आ गया जब देने के लिए केवल आधे अम्लाकी फल को छोड़ उसके पास कुछ नहीं बचा था। यह ही उसकी अंतिम सम्पत्ति थी और उसकी मनोव्यथा की यह चीख थी कि चूंकि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं बचा है इसलिए इस आधे अम्लाकी को ही उसके अंतिम उपहार के रूप में स्वीकार किया जाए।
अशोक के अम्लाकी के प्रतीक को इस संस्थान के कारनिस पर देखा जाएगा और सब से बुलन्द वज्रपात का प्रतीक होगा। परम शुद्ध और अनिन्द्य ऋण दधिची ने अपना जीवन प्रस्तुत किया ताकि बुराई को समाप्त करने और अच्छाई को बढ़ाने के लिए उसकी हड्डियों से दिव्य अस्त्र, वज्रपात बनाया जाए। हमारे पास केवल आधा अम्लाकी है जिसे हम इस समय प्रस्तुत कर सकते हैं लेकिन आगे अधिक अच्छे भविष्य में भूतकाल का पुर्नजन्म होगा। हम यहां आज खड़े है और कल काम आंरभ करेंगे। ताकि हमारे जीवन के प्रयासों और भविष्य में अडिग विश्वास द्वारा हम सब आगे आने वाले महान् भारत के निर्माण में सहायता दे सकें।
अनुनादी रिकार्डर का सामान्य दृश्य
बोस के उद्घाटन-भाषण भारत और विदेश दोनों में गहरा प्रभाव हुआ। लंडन के एक अग्रणी समाचार पत्र दि टाइम्स ने लिखा : “(भारत में) वैज्ञानिक पुनर्जागरण लाने में सर जगदीश का योगदान प्रभावशाली था। भारतीयों को कुछ आदमियों की उपलब्धि पर उचित गर्व है जिन्होंने कार्यकलाप के विशेष क्षेत्रों में विश्व-व्यापी ख्याति प्राप्त की है, और इस गर्व की लोकमत पर मज़बूत अनुक्रिया हुई है। अनुसन्धान संस्थान पर भारतीय पोस्ट-ग्रेजूएट विद्यार्थियों का एक समूह अपने जीवन अनुसन्धान कार्य को लगा देता है। संस्थान के प्रकाशित कार्य-विवरणों से पता चलता है कि इस प्रसिद्ध बंगाली के नेतृत्व में भारतीय अनुसंधान वैज्ञानिक ज्ञान को भारी योगदान दे रहा है और इस क्षेत्र में पश्चिमी और पूर्वी मन में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है, जैसा कि समझा गया था जब सर जगदीश ने अपना काम शुरू किया था।’’ दि एथीनेअम ने लिखा: ‘विशुद्ध विज्ञान में अनुसंधान के लिए एक संस्थान की बुनियाद भारत के इतिहास में एक घटना है। अपने कार्यकलाप के पहले फल के रूप में कार्य विवरणी के प्रकाशन से पता चलता है कि यह विज्ञान के इतिहास में भी एक घटना है।’
1903 में, ब्रिटिश सरकार ने बोस को हिल्ली में कमांडर आफ दि आर्डर आफ दि इंडियन एम्पायर (CIE) से सम्मानित किया। ब्रिटिश सम्राट की ताजपोशी पर 1912 में उसे कमांडर ऑफ दि स्टर इंडिया (CSI) से विभूषित किया गया। 1916 में ब्रिटिश सरकार ने उसे नाइट की उपाधि दी। 1928 में बोस को रॉयल सोसाइटी के फैलो (FRS) के रूप में चुना गया। बोस का निधन 23 नवम्बर 1937 को गिरिडी, बिहार में हुआ। जेडेस के के उद्धरण के साथ हम इस लेख को समाप्त करना चाहेंगे: जगदीश बोस की जीवन-कथा सब नौजवान भारतीयों द्वारा गहरे और प्रबल विचार के योग्य है जिनका उद्देश्य विज्ञान की सेवा या विवेक या सामाजिक भावना के अन्य उच्च कार्य के लिए अपने आपको तैयार करना है। यह संभव है कि मंज़िल की विजय को देखते हुए और लम्बी चढ़ाई वाली सड़क के बारे में कुछ भी न जानते हुए, लक्ष्यों की धीमीगति मूल्यवान उपलब्धि के कारण वे सोच सकते है कि बौद्धिक सृजन में सफल उपलब्धि की पूववर्ती शर्त के रूप में एक शानदार प्रयोगशाला या अन्य भौतिक स्थायी विधि ज़रूरी है। वास्तव में सच्चाई इस से बहुत भिन्न है। जिन अनगिनत अवरोधों को पार करना पड़ा उसके लिए बोस ने सब प्रकार की सहनशीलता और सब प्रयासों का बोस ने आह्वान किया जो पुरूषोचित स्वभाव में नहित रहते है। चरित्र की पूर्ण शक्ति और विचार की तीव्रता के साथ उन्हें वेल्ड करना और इसी से एक महान जीवन कार्य सम्पन्न किया जा सकता है। अपने साथी देशवासियों के महान कैरियर पर विचार करते हुए जवान भारत प्रेरित होगा कि अपने दिमाग़ और हाथों को बढ़िया कार्यों में, निडर होकर लगाए। इस प्रकार वह न केवल विगत भारत की शानदार बौद्धिक परम्परा को पाने के लिए प्रेरित होग बल्कि इन परम्पराओं की आधुनिक युगों में पुर्नपरिभाषा करेगा और आनेवाले ज़माने के साथ महत्वपूर्ण संबंध प्राप्त करने के लिए मन और आत्मा के लिए भारती चुनौती पायेगा।
बोस द्वारा लिखी पुस्तकें
1. रिस्पांस इन लिविंग, लांगमैनस, ग्रीन एंड कं, लंडन
2. प्लांट रिस्पांस ऐज़ ए मीन्स ऑफ फ़िजीओलाजिकल इंवेस्टीगेशन्स लांग मैन्स, ग्रीन एंड कं, लंडन
3. कम्पैरिटिव इलैक्टरो फ़िज़िओलाजी लांगमैनस, ग्रीन एंड कं, लंडन
4. रिसर्च आन इरीटिबिलिटी ऑफ प्लांट्स लांगमैनस, ग्रीन एंड कं, लंडन
5. कुलैक्टिड फ़िज़ीकल पेपर्स लांगमैनस, ग्रीन एंड कं, लंडन
6. प्लांट आटोग्राफ़्स एंड देयर रेवीलेशन्स – मैक्मीलियन कं, न्यूयार्क
7. अम्याक्ता (बंगाली में) बंगया विज्ञान परिषद्र, कलकत्ता
8. फ़िज़ीआलोजी ऑफ़ असेंट आफ सैप, लांगमैन्स, ग्रीन एंड कं, लंडन
9. रवीन्द्रनाथ टैगोर को पत्र (बंगला में), बोस इंस्टीच्यूट कलकत्ता