कुल पेज दृश्य

सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

२६ फरवरी,सॉनेट,तुम,सुमुखी सवैया,सावरकर,शिव,रामकिंकर,सावरकर,सरस्वती,हास्य,तुम,शिशु गीत

सलिल सृजन २६ फरवरी
*
युगतुलसी 
आत्म-दीप प्रज्वलित कर, जग दे जो उजियार।
युगतुलसी सिय-राम पर, खुद को करें निसार।।
खुद को करें निसार, पवनसुत बनें सहायक।
श्वास-आस कर एक, रहे आजीवन साधक।।
अनुपम ग्रंथ अमोल, तरें हम प्रवचन सुनकर।
हों भवसागर पार, आत्म-दीप प्रज्वलित कर।।
(छंद-कुंडलिया)
२६.२.२०२४
•••
सॉनेट
तुम
आँख लगी तुम रहीं रिझाती।
आँख खुली हो जातीं गायब।
आँख मिली तुम रहीं लजाती।।
आँख झुकी मन भाती है छब ।।
आँख उठाई दिल निसार है।
आँख लड़ाई दिलवर हारा।
आँख दिखाई, क्या न प्यार है?
आँख तरेरी उफ् फटकारा।।
आँख झपककर कहा न बोलो।
आँख अबोले रही बोलती।
आँख बरजती राज न खोलो।।
आँख लाल हो रही डोलती।।
आँख मुँदी तो हो तुम ही तुम।
आँख खुली तो हैं हम ही हम।।
२६-२-२०२२
•••
महाकाल की जय जय बोलो।
प्रभु-दर्शन कर पावन हो लो।।
*
करे भस्म श्रंगार मनोहर, मंद मंद मुस्काते।
डम-डम डिम-डिम डमरू ध्वनि कर दूषण सभी मिटाते।।
नेह नर्मदा धार शीश पर, जग हित हेतु बहाते।
कंठ नाग-विष; सिर शशि अमृत रख जीवन जय गाते।।
सत्य-तुला पर करनी तोलो।
प्रभु महिमा गा नव रस घोलो।।
महाकाल की जय जय बोलो प्रभु-दर्शन कर पावन हो लो।।
*
काम क्रोध मद त्रिपुरासुर को पल में मार भगाते।
भक्ति-भाव गह चरण शरण ले भक्त अभय हो जाते।।
रुद्र-अक्ष रुद्राक्ष हार हर बाधा दूर हटाते।
नंदी वृषभ साथ रखते फिर वन में धूनि रमाते।।
पौध लगा किस्मत पट खोलो।
वृक्ष बचाकर प्रभुप्रिय हो लो।।
महाकाल की जय जय बोलो।
प्रभु-दर्शन कर पावन हो लो।।
*
अशुभ आप ले शुभ देते हर, कंकर में बस जाते।
शंका तज विश्वास अमिट रख शंकर पूजे जाते।।
क्षिप्रा मति-गति करे न आलस, संकट पर जय पाते।
जंगल में मंगल करते प्रभु, देव-दनुज यश गाते।।
अपने पाप, पुण्य कर धो लो।
सत्-शिव-सुंदर पावन हो लो।।
महाकाल की जय जय बोलो।
प्रभु-दर्शन कर पावन हो लो।।
२६.२.२०२१
***
मुक्तिका
निराला हो
*
जैसे हुए, न वैसा ही हो, अब यह साल निराला हो
मेंहनतकश ही हाथों में, अब लिये सफलता प्याला हो
*
उजले वसन और तन जिनके, उनकी अग्निपरीक्षा है
सावधान हों सत्ता-धन-बल, मन न तनिक भी काला हो
*
चित्र गुप्त जिस परम शक्ति का, उसके पुतले खड़े न कर
मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में, देव न अल्लाताला हो
*
कल को देख कलम कल का निर्माण आज ही करती है
किलकिल तज कलकल वरता मन-मंदिर शांत शिवाला हो
*
माटी तन माटी का दीपक बनकर तिमिर पिये हर पल
आये-रहे-जाए जब भी तब चारों ओर उजाला हो
*
क्षर हो अक्षर को आराधें, शब्द-ब्रम्ह की जय बोलें
काव्य-कामिनी रसगगरी, कवि-आत्म छंद का प्याला हो
*
हाथ हथौड़ा कन्नी करछुल कलम थाम, आराम तजे
जब जैसा हो जहाँ 'सलिल' कुछ नया रचे, मतवाला हो
***
दोहा सलिला
सावरकर
*
उन सा वर कर पंथ हम, करें देश की भक्ति
सावरकर को प्रिय नहीं, रही स्वार्थ अनुरक्ति
वीर विनायक ने किया, विहँस आत्म बलिदान
डिगे नहीं संकल्प से, कब चाहा प्रतिदान?
भक्तों! तजकर स्वार्थ हों, नीर-क्षीर वत एक
दोषारोपण बंद कर, हों जनगण मिल एक
मोटी-छोटी अँगुलियाँ, मिल मुट्ठी हों आज
गले लगा-मिल साधिए, सबके सारे काज
***
वंदना
हे हंसवाहिनी! वीणा के तारों से झट झंकार करो
जो मतिभ्रम फैला वह हरकर, सद्भाव सलिल संचार करो
हो शरद पूर्णिमा की झिलमिल, दिल से दिल मिल खिल पाएँ
टकराव न हो, अलगाव न हो, मिल सुर से सुर सरगम गाएँ
२६-२-२०२०
***
सुमुखी सवैया
सूत्र: सतजलग = सात जगण + लघु गुरु
वर्णिक मापनी - १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२१ १२
*
नहीं घुसपैठ सहे अब देश, करे प्रतिकार न रोक सको
सुनो अब बात नहीं कर घात, झुको इमरान न टोक सको
उड़े कुछ यान नहीं कुछ भान, गिरा बम लौट सके चुपके
नहीं जिद ठान करो मत मान, छुरा अब पीठ न भोक सको
*
नहीं करता हमला यदि भारत, तो न कहो नहिं ताकत है
करे हमला यदि तो न बचो तुम, सत्य सुनो अब शामत है
मिटे अब पाक नहीं कुछ धाक, न साथ दिया चुप चीन रहा-
नहीं सुधरे यदि तो समझो, न भविष्य रहा बस आफत है
*
मिराज उड़े जब भारत के, नभ ने झुक वंदन आप किया
धरा चुप देख रही उड़ते, अभिनंदन चंदन माथ किया
किया जब लेसर वार अचूक, कँपा तब पाक न धैर्य रहा-
मिटे सब बंकर धूल मिले, अभिशाप बना सब पाप किया
२६-२-२०१९
***
दोहा सलिला
ट्रस्टीशिप सिद्धांत लें, पूँजीपति यदि सीख
सबसे आगे सकेगा, देश हमारा दीख
*
लोकतंत्र में जब न हो, आपस में संवाद
तब बरबस आते हमें, गाँधी जी ही याद
*
क्या गाँधी के पूर्व था, क्या गाँधी के बाद?
आओ! हम आकलन करें, समय न कर बर्बाद
*
आम आदमी सम जिए, पर छू पाए व्योम
हम भी गाँधी को समझ, अब हो पाएँ ओम
*
कहें अतिथि की शान में, जब मन से कुछ बात
दोहा बनता तुरत ही, बिना बात हो बात
*
समय नहीं रुकता कभी, चले समय के साथ
दोहा साक्षी समय का, रखे उठाकर माथ
*
दोहा दुनिया का सतत, होता है विस्तार
जितना गहरे उतरते, पाते थाह अपार
***
एक व्यंग्य मुक्तिका
*
छप्पन इंची छाती की जय
वादा कर, जुमला कह निर्भय
*
आम आदमी पर कर लादो
सेठों को कर्जे दो अक्षय
*
उन्हें सिर्फ सत्ता से मतलब
मौन रहो मत पूछो आशय
*
शाकाहारी बीफ, एग खा
तिलक लगा कह बाकी निर्दय
*
नूराकुश्ती हो संसद में
स्वार्थ करें पहले मिलकर तय
*
न्यायालय बैठे भुजंग भी
गरल पिलाते कहते हैं पय
*
कविता सँग मत रेप करो रे!
सीखो छंद, जान गति-यति, लय
२६-२-२०१८
***
रचना एक : रचनाकार दो
वासंती कुंडली
दोहा: पूर्णिमा बर्मन
रोला: संजीव वर्मा
*
वसंत-१
ऐसी दौड़ी फगुनहट, ढाँणी-चौक फलाँग।
फागुन झूमे खेत में, मानो पी ली भाँग।।
मानो पी ली भाँग, न सरसों कहना माने।
गए पड़ोसी जान, बचपना है जिद ठाने।।
केश लताएँ झूम लगें नागिन के जैसी।
ढाँणी-चौक फलाँग, फगुनहट दौड़ी ऐसी।।
*
वसंत -२
बौर सज गये आँगना, कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा, मौसम हुआ बहार।।
मौसम हुआ बहार, थाप सुन नाचे पायल।
वाह-वाह कर उठा, हृदय डफली का घायल।।
सपने देखे मूँद नयन, सर मौर बंध गये।
कोयल चढ़ी अटार, आँगना बौर सज गये।
*
वसंत-३
दूब फूल की गुदगुदी, बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी, मौसम को है आस।।
मौसम को है आस, प्यास का त्रास अकथ है।
मधुमाखी हैरान, लली सी कली थकित है।।
कहे 'सलिल' पूर्णिमा, रात हर घड़ी मिलन की।
कथा कही कब जाए, गुदगुदी डूब-फूल की।।
२६.२.२०१७
***
नवगीत:
तुमने
*
तुमने
सपने सत्य बनाये।
*
कभी धूप बन,
कभी छाँव बन।
सावन-फागुन की
सुन-गुन बन।
चूँ-चूँ, कलकल
स्वर गुंजाये।
*
अंकुर ऊगे,
पल्लव विकसे।
कलिका महकी
फल-तरु विहँसे।
मादक परिमल
दस दिश छाये।
*
लिखी इबारत,
हुई इबादत।
सचमुच रब की
बहुत इनायत।
खनखन कंगन
कुछ कह जाए।
*
बिना बताये
दिया सहारा।
तम हर घर-
आँगन उजियारा।
आधे थे
पूरे हो पाये।
*
कोई न दूजा
इतना अपना।
खुली आँख का
जो हो सपना।
श्वास-प्यास
जय-जय गुंजाये।
***
नवगीत:
तुम पर
*
तुम पर
खुद से अधिक भरोसा
मुझे रहा है।
*
बिना तुम्हारे
चल, गिर, उठ, बढ़
तुम तक आया।
कदम-कदम बढ़
जगह बना निज
तुमको लाया।
खुद को किया
समर्पित हँस, फिर
तुमको पाया।
खाली हाथ बढ़ाया
तेरा हाथ गहा है।
*
तन-मन-धन
कर तुझे समर्पित
रीत गया हूँ।
अदल-बदल दिल
हार मान कर
जीत गया हूँ।
आज-आज कर
पता यह चला
बीत गया हूँ।
ढाई आखर
की चादर को
मौन तहा है।
*
तुम पर
खुद से अधिक भरोसा
मुझे रहा है।
२६.२.२०१६
***
नवगीत:
संजीव
.
हमने
बोये थे गुलाब
क्यों
नागफनी उग आयी?
.
दूध पिलाकर
जिनको पाला
बन विषधर
डँसते हैं,
जिन पर
पैर जमा
बढ़ना था
वे पत्त्थर
धँसते हैं.
माँगी रोटी,
छीन लँगोटी
जनप्रतिनिधि
हँसते हैं.
जिनको
जनसेवा
करना था,
वे मेवा
फँकते हैं.
सपने
बोने थे जनाब
पर
नींद कहो कब आयी?
.
सूत कातकर
हमने पायी
आज़ादी
दावा है.
जनगण
का हित मिल
साधेंगे
झूठा हर
वादा है.
वीर शहीदों
को भूले
धन-सत्ता नित
भजते हैं.
जिनको
देश नया
गढ़ना था,
वे निज घर
भरते हैं.
जनता
ने पूछा हिसाब
क्यों
तुमने आँख चुरायी?
.
हैं बलिदानों
के वारिस ये
जमी जमीं
पर नजरें.
गिरवी
रखें छीन
कर धरती
सेठों-सँग
हँस पसरें.
कमल कर रहा
चीर हरण
खेती कुररी
सी बिलखे.
श्रम को
श्रेय जहाँ
मिलना था
कृषक क्षुब्ध
मरते हैं.
गढ़ ही
दे इतिहास नया
अब
‘आप’ न हो रुसवाई.
२६.२.२०१५
***
शिशु गीत सलिला : १
*
१. श्री गणेश
श्री गणेश की बोलो जय,
पाठ पढ़ो होकर निर्भय।
अगर सफलता पाना है-
काम करो होकर तन्मय।।
*
२. सरस्वती
माँ सरस्वती देतीं ज्ञान,
ललित कलाओं की हैं खान।
जो जमकर अभ्यास करे-
वही सफल हो, पा वरदान।।
*
३. भगवान
सुन्दर लगते हैं भगवान,
सब करते उनका गुणगान।
जो करता जी भर मेहनत-
उसको देते हैं वरदान।।
*
४. देवी
देवी माँ जैसी लगती,
काम न लेकिन कुछ करती।
भोग लगा हम खा जाते-
कभी नहीं गुस्सा करती।।
*
५. धरती माता धरती सबकी माता है,
सबका इससे नाता है।
जगकर सुबह प्रणाम करो-
फिर उठ बाकी काम करो।।
*
६. भारत माता सजा शीश पर मुकुट हिमालय,
नदियाँ जिसकी करधन।
सागर चरण पखारे निश-दिन-
भारत माता पावन।
*
७. हिंदी माता
हिंदी भाषा माता है,
इससे सबका नाता है।
सरल, सहज मन भाती है-
जो पढ़ता मुस्काता है।।
*
८. गौ माता
देती दूध हमें गौ माता,
घास-फूस खाती है।
बछड़े बैल बनें हल खीचें
खेती हो पाती है।
गोबर से कीड़े मरते हैं,
मूत्र रोग हरता है,
अंग-अंग उपयोगी
आता काम नहीं फिकता है।
गौ माता को कर प्रणाम
सुख पाता है इंसान।
बन गोपाल चराते थे गौ
धरती पर भगवान।।
*
९. माँ -१ माँ ममता की मूरत है,
देवी जैसी सूरत है।
थपकी देती, गाती है,
हँसकर गले लगाती है।
लोरी रोज सुनाती है,
सबसे ज्यादा भाती है।।
*
१०. माँ -२ माँ हम सबको प्यार करे,
सब पर जान निसार करे।
माँ बिन घर सूना लगता-
हर पल सबका ध्यान धरे।।
*

समीक्षा,मधुर कुलश्रेष्ठ,हिंदी सॉनेट सलिला

पुस्तक समीक्षा
'हिंदी सॉनेट सलिला' काव्य नर्मदा निर्मला
- मधुर कुलश्रेष्ठ
*
                    विश्ववाणी हिंदी विश्व के सभी देशों और भाषाओं की काव्य धाराओं को आत्मसात के अपने संस्कार में ढालकार दिनों-दिन संपन्न व समृद्ध हो रही है। इस दिशा में संस्कारधानी के आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का अवदान महत्वपूर्ण है। इन्होंने जापान, इंग्लैंड तथा इटली के छंदों का अध्ययन कर उनके मानक तथा हिंदी पिंगल-नियमों का गंगो-जमुनी सृजन सरिता प्रवहित की है। हिंदी सोनेट सलिला इस दिशा में अभिनव सार्थक प्रयास है। सॉनेट जैसे विदेशी छंद को हिंदी में अपनाना, सिखाना और अल्प समयावधि में समान गुणधर्म वाले स्तरीय इंग्लिश सॉनेट (शेक्सपीरियन सॉनेट) लिखवाकर अल्प समय में साझा संग्रह प्रकाशित कराने का विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर व आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी का प्रयास न केवल सराहनीय है बल्कि स्वयं तीन विश्व रिकॉर्ड धारी ग्रंथ है। यह हिंदी भाषा में प्रथम साझा सॉनेट संकलन है। यह प्रथम सॉनेट संकलन है जिसमें ३६ सॉनेटकार सहभागी हैं। यह प्रथम संकलन है जिसमें एक साथ ३२१ सॉनेट प्रकाशित हैं। इतना विशाल सॉनेट संकलन इंग्लैंड में भी नहीं छपा। 

                    प्रोफेसर अनिल जैन ने अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष होते हुए भी उर्दू भाषा की तहजीब और मिठास से परिपूर्ण प्रस्तावना में सॉनेट के इतिहास, उद्भव, विकास और प्रकार पर प्रकाश डालकर संग्रह की उत्कृष्टता की ओर इंगित कर दिया है।

                    आचार्य जी द्वारा विद्वतापूर्ण पुरोवाक् में विश्वववानी हिंदी संस्थान, हिंदी छंद परंपरा, सॉनेट के प्रकार, विधान, विश्व में सॉनेट लेखन का इतिहास तथा सॉनेट के हिंदीकरण पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है जिससे नव रचनाकारों को सॉनेट लिखने हेतु प्रेरणा व मार्गदर्शन मिल सके।

                  हिंदी रचनाकारों के लिए विधा नई है लेकिन सभी 32 रचनाकारों की सीखने की जिजीविषा भी उल्लेखनीय है। ये अदम्य जिजीविषा ही किसी भी क्षेत्र में सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है। पावन सलिला माँ नर्मदा के पावन प्रवाह की तरह हिंदी सॉनेट सलिला के सॉनेटों में प्रत्येक रचनाकार ने नवोन्मेष, परिश्रम, लगन तथा प्रयास से नव रस सलिला प्रवाहित कर दी है।

                    मन में उमड़ते-घुमड़ते विचारों के आवारा बादलों के प्रवाह को अनुशासन और लयबद्ध कर रचना में निर्झर झरने की कल-कल जैसी सुमधुर ध्वनि और माधुर्य पैदा करना छंद की विशेषता होती है। वह छंदबद्ध रचना दोहा, मुक्तक, कुंडलियाँ, गीत, ग़ज़ल या सॉनेट हो सकती है। यह कवि का अपना-अपना काव्य कौशल होता है कि वह अपने तराने को पाठकों के मन में गहराई तक उतारने में कितना सफल हो सकता है। सभी 32 सॉनेटकारों ने अपने अपने कौशल, वृहद् शाब्दिक कोष तथा छांदिक अनुशासन से अपने-अपने सॉनेटों में जीवन के अनेक बिंबों को जीवंत कर दिया है। श्रम का जीवन में बहुत महत्व है लेकिन श्रमिक वर्ग की बदहाली से रचनाकार व्यथित होकर लिखते हैं -

"कपड़ा और मकान रहा सपना ही सपना,
छप्पर पन्नी ढाँकबचें बारिश पानी से।"

                    भारतीय दर्शन में "सर्वे भवन्तु सुखिन:", "विश्व बंधुत्व" तथा "अतिथि देवो भव" की भावना निहित है उसी का अनुपालन करते हुए रचनाकारों ने सॉनेट को भी भरपूर प्यार दुलार देकर देशज विषयों में आत्मसात कर हिंदी सॉनेट को नव रूप दिया है।

"क्रिया सृष्टि की वह सपूजित सनातन।
रखे बाँध संसार में प्रेम बंधन।।"

                    बेटी परिवार की चहेती होती है, बेटियाँ भी किसी से कम नहीं हैं, इसलिए रचनाकारों ने बेटियों को भी अपने सॉनेटों के माध्यम से प्यार दुलार दिया है-

"बेटी भारत वर्ष की शान।
हम सब जनों की वह है आन।।"

                    विदेशी सॉनेटकारों ने सॉनेट में प्रेम को प्रमुखता दी है वहीं भारतीय रचनाकारों का प्रमुख विषय प्रकृति, नदी, पहाड़, तीज त्यौहार, बारह मास, अध्यात्म आदि हैं। भारत की सभी छह ॠतुओं का अपना-अपना आकर्षण और महत्व है। इन ॠतुओं में जीवन के अनेक रूपों के दर्शन होते हैं। इसीलिए भारतीय रचनाकारों का सर्वाधिक प्रिय विषय मौसम यथा फागुन, बरसात, गर्मी, सर्दी रहता है। संग्रह के अधिकांश सॉनेटकारों ने अपने सॉनेटों में ॠतुओं के इन्हीं उल्लास तथा रसमय फुहारों को रचकर पाठकों के हृदय को उल्लसित कर दिया है।

रास रचाने भँवरा आया, कलियों कलियों डोल रहा है,       
काला उसने सूट सिलाया, गुनगुन गुनगुन बोल रहा है।"

                    कोई भी रचनाकार अपनी रचनाओं में नवाचार करने के लिए उद्यत रहता है जिससे पुरानी लीक से हटकर कुछ नए प्रतिमान स्थापित होवें। संग्रह के सॉनेटकारों ने ज्यों प्राथमिक शाला से ही सॉनेट में नवाचार करने की ठान ली। जहाँ सॉनेट में 14 से 16 मात्राओं का मानक है वहीं कुछ सॉनेटकारों ने बहुत कम शब्दों एवं मात्राओं के सॉनेट लिखकर गागर में सागर भरने जैसा प्रयोग किया है -

"नेक कर्म,
कर बंदे,
सत्य धर्म,
तज फंदे।"

                    साहित्य समाज का दर्पण होता है। समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उस पर रचनाकारों की कलम चलना स्वाभाविक है। इसीलिए संग्रह में चंद्रयान की सफलता की कामना भी की गई है -

"चाँद की धरती को चूमने,
उड़ चला है चंद्रयान तीन,
राष्ट्र की जय जयकार गुणने,
होगा सार्थक अभियान तीन।"

                    रचनाकारों का प्रिय विषय इतिहास भी रहा है। जहाँ इतिहास हमें तात्कालिक शासन, समाज, परंपरा, शौर्य व वैभव से परिचय कराता है वहीं उस काल के शूरवीरों का भी स्मरण कराता है। ऐसे ऐतिहासिक पात्रों को सॉनेटकार कैसे विस्मृत कर सकते हैं। ओरछा के नरेश इंद्रजीत, विदुषी सुंदरी राय प्रवीण तथा कवि केशव पर सॉनेट लिखकर संग्रह को अतुलनीय बना दिया है।

                    सम सामयिक राजनैतिक विसंगतियों पर शब्दाघात 'बादल; शीर्षक सॉनेट में दृष्टव्य है-

अंबर में संसद बादल की, 
हर बादल गरज गरज बोले, 
चिंता न किसी को छागल की,
रोके न रुके जो मुँह खोले।  
यह बादल मन की बात करे, 
जुमलेबाजी वह करता है, 
उह अंधभक्ति को शीश धरे, 
ले-दे सरकार पलटता है।  

                राष्ट्र है तो संस्कृति है, संस्कृति है तो साहित्य है, साहित्य है तो समाज है और समाज है तो हम हैं। अतः राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि है इसलिए हमें इसकी आन-बान-शान पर गर्व है -

"राष्ट्रोत्सव की शान है तिरंगा,
भारत का अभिमान है तिरंगा।"

                   सॉनेट को प्रेम के एकाकी रंग से निकालकर जीवन के विविध रंगों से महकती, पल्लवित होती बगिया जैसा संग्रह "हिंदी सॉनेट सलिला" पाठकों, शोधार्थियों को बहुत पसंद आएगा। आचार्य जी व 32 सॉनेटकारों की पूरी टीम की कड़ी मेहनत का प्रतिफल है सहज, सुबोध, पठनीय तथा संग्रहणीय है "हिंदी सॉनेट सलिला।" संकलन प्राप्ति हेतु विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान, जबलपुर के कार्यालय में चलभाष 9425183244 पर संपर्क किया जा सकता है। 
--------------
हिंदी सॉनेट सलिला
(हिंदी सॉनेट का प्रथम साझा संकलन)
संपादक -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
प्रस्तुति - विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान ,जबलपुर 
प्रकाशक - श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली
प्रथम संस्करण -2023
---------/-------------

समीक्षा,यादें बनी लिबास,सुमित्र,सलिल

 कृति चर्चा:

दोहों में प्रणय-सुवास: यादें बनी लिबास
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: यादें बनीं लिबास, दोहा संग्रह, डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र', प्रथम संकरण, २०१७, आई.एस.बी.एन. ९७८-८१-७६६७-३४६-४, पृष्ठ १०४ मूल्य २००/-, आवरण बहुरंगी, सजिल्द, आकर २१ सेमी x १४ सेमी,भावना प्रकाशन, १०९-ए पटपड़गंज दिल्ली ११००९२, दूरभाष ९३१२८६९९४७, दोहाकार संपर्क ११२ सराफा, मोतीलाल नेहरू वार्ड, निकट कोतवाली जबलपुर ४८२००१, ०७६१ २६५२०२७, ९३००१२१७०२]
*
बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार दोहा हिंदी ही नहीं बहुतेरी भारतीय भाषाओँ का कालजयी सर्वाधिक लोकप्रिय ही नहीं लोकोपयोगी छंद भी है। हर काल में दोहा कवियों की काव्याभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम रहा है। आदिकाल (१४०० सदी से पूर्व) चंदबरदाई आदि कवियों ने रासो काव्यों में वीर रस प्रधान दोहों की रचना कर योद्धाओं को पराक्रम हेतु प्रेरित किया। भक्तिकाल (१३७५ से ११७०० ई. पू.) में निर्गुण भक्ति धारांतर्गत ज्ञानाश्रयी भाव धारा के कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, मलूकदास, सुंदरदास, धर्मदास आदि ने तथा प्रेमाश्रयी भाव धारा के मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, शेख नबी, कासिम शाह, नूर मोहम्मद आदि ने आध्यात्मिक भाव संपन्न दोहे प्रभु-अर्पित किए। सगुण भावधारा की रामाश्रयी शाखा में तुलसीदास, रत्नावली, अग्रदास, नाभा दास, केशवदास, हृदयराम, प्राणचंद चौहान, महाराज विश्वनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह आदि ने कृष्णाश्रयी शाखा के सूरदास, नंददास,कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुज दास, कृष्णदास, मीरा, रसखान, रहीम के साथ मिलकर दोहा को इष्ट के प्रति समर्पण का माध्यम बनाया। रीतिकाल (१७००-१९०० ई. पू. मे केशव, बिहारी, भूषण, मतिराम, घनानन्द, सेनापति आदि ने मुख्यत: श्रृंगार तथा आलंकारिकता की अभिव्यक्ति करने के लिए दोहा को सर्वाधिक उपयुक्त पाया। आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात) छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और यथार्थवादी युग में पारम्परिक हिंदी छंदों की उपेक्षा का शिकार दोहा भी हुआ। नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात) में तथाकथित प्रगतिवादी कविता से मोह भंग होने के साथ-साथ आंग्ल साहित्य के अनुकरण की प्रवृत्ति भी घटी। अंतरजाल पर हिंदी भाषा और साहित्य को नव प्रतिष्ठा मिली। गीत और दोहा फिर उत्कर्ष की ओर अग्रसर हुए।
सनातन सलिला नर्मदा के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि डॉ. राजकुमार तिवारी सुमित्र का काव्य प्रवेश लगभग १९५० में हुआ। शिक्षक तथा पत्रकार रहते हुए आपने कलम को तराशा। पारिवारिक संस्कार, अध्ययन वृत्ति तथा साहित्यकारों की संगति ने उम्र के साथ अध्ययन और सृजन के क्षेत्र में उन्हें गहराई और ऊँचाई की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा दी। दोहा संग्रह ''यादें बनीं लिबास'' में यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप्ति है उनकी जिन्होंने कवी के जीवन में प्रवेश कर उसे पूर्णता प्रदान की, जो जाकर भी जा न सकी, जिसकी उपस्थिति की प्रतीति कवि को पल-पल होती है। उसे उपस्थित मानते ही अनुपस्थिति अपना अस्तित्व बताने लगती है और तब उसकी संगति के समय की यादें कवि-मन को उसी तरह आवृत्त कर लेती हैं जैसे लिबास तन को ढाँकता है। शीर्षक की सार्थकता पूरी कृति में उसी तरह अनुभव की जा सकती है जैसे बगिया में सुमन-सुरभि। प्रेम, रूप-सौंदर्य, देह-दर्शन, नयन, स्वप्न, वसंत, सावन, फागुन आदि अनेक शीर्षकों के अंतर्गत सहेजे गए दोहे कहे-अनकहे उन्हीं के लिए कहे गए हैं जो विदेह होकर भी जानना छाती हैं कि उनका स्मरण सायास है या अनायास? उन्हें निश्चय ही संतुष्टि होगी यह जानकर कि जब स्मृतियाँ अभिन्न हों तो लिबास बन जाती हैं, तब याद नहीं करना पड़ता।
याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।
अपना तो ये हाल है, यादें बनीं लिबास।।
जिसने आजीवन शैया से उठाकर धरा पर पग रखने से आरंभ कर धरा को छोड़ शैया पर जाने तक पल-पल रीति-रिवाजों का पालन मन-प्राण से किया ही उसे स्मृतियों के दोहांजलि समर्पित करने के पूर्व ईश स्मरण की विरासत की रीति न निभाकर उपालंभ का अवसर नाराज कैसे करें अग्रजवत सुमित्र जी। 'वीणापाणि स्तवन' तथा 'प्रार्थना के स्वर' शीर्षकांतर्गत पाँच-पाँच दोहों से शब्द ब्रम्ह आराधना का श्री गणेश कर बिना कहे कह दिया कि तुम्हारी जीवन पद्धति से ही जीवन जिया जा रहा है। -
वाणी की वरदायिनी, दात्री विमल विवेक।
सुमन अश्रु अक्षर करें, दिव्योपम अभिषेक।।
सुमित्र जी 'रस' को 'काव्य' ही नहीं 'जीवन' का भी 'प्राण' मानते हैं। वे जानते-मानते हैं की प्रकृति बिना पुरुष भले ही वह परम् पुरुष हो, सृष्टि की रचना नहीं कर सकता।
रस ही जीवन-प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
सामान्यत: प्रकृति के समर्पण की गाथा कवी लिखते आये हैं किन्तु सत्य यह भी है समर्पण तो पुरुष भी करता है। इस सत्य की प्रतीति और अभिव्यक्ति सुमित्र ही कर सकता है, स्वामी नहीं-
साँसों में हो तुम बसे, बचे कहाँ हम शेष।
अहम् समर्पित कर दिया, और करें आदेश।।
कृति में श्रृंगार का इंद्रधनुष विविध रंगों और छटाओं का सौंदर्य बिखरता है। संयोग (रूप ज्योति की दिव्यता) तथा वियोग (तुम बिन दिन पतझर लगें, यादें बनीं लिबास) बिना देखे दिख जाने की तरह सुलभ है।
निर्गुण श्रृंगार को कबीरी फकीरी के बिना जीना दुष्कर है किंतु सुमित्र जी सांसारिकता का निर्वाह करते हुए भी निर्गुण को सगुण में पा सके हैं-
निराकार की साधना, कठिन योग पर्याय।
योग शून्य का शून्य में, शून्य प्रेम संकाय।।
सगुण श्रृंगार को लिखना तलवार पर धार की तरह है। भाव जरा डगमगाया कि मांसलता की राह से होते हुए नश्वरता और क्षण भंगुरता की नियति का शिकार हो जाता है जबकि कोई 'चाहक' अपनी 'चाह' को अकाल काल कवलित होते नहीं देखना चाहता। सुमित्र का तन की बात करते हुए भी मन को रंगारंग रखकर 'नट-कौशल' का परिचय देते हुए बच निकलते हैं-
अनुभव होता प्रेम का जैसे जलधि तरंग।
नस नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।
शिक्षक (टीचर नहीं) रहकर बरसों सिखाने के पूर्व सीखने की नर्मदा में बार-बार डुबकी लगा चुके कवि का शब्द-भंडार समृद्ध होना स्वाभाविक है। वह संस्कृत निष्ठ शब्दों( उच्चार, विन्यास, मकरंद, कुंतल, सुफलित, ऊर्ध्वमुख, तन्मयता, अध्यादेश, जलजात, मनसिज, अवदान, उत्पात, मुक्माताल, शैयाशायी, कल्याणिका, द्युतिमान, विन्यास, तिष्यरक्षिता, निर्झरी, उत्कटता आदि) के साथ देशज शब्दों (गैल, अरगनी, कथरी, मजूर, उजास, दहलान, कुलाँच, कातिक, दरस-परस, तिरती, सँझवाती, अँकवार आदि) का प्रयोग पूरी सहजता के साथ करता है। यही नहीं आंग्ल शब्दों (वैलेंटाइन, स्वेटर, सीट, कूलर, कोर्स, मोबाइल, टाइमपास, इंटरनेटी आदि) यथा स्थान सही अर्थों में प्रयोग करते हुए भी उससे चूक नहीं होती। कवि का पत्रकार समाज में प्रचलित अन्य भाषाओँ के शब्द संपदा से सुपरचित होने के नाते उन्हें पूरी उदारता के साथ यथावसर प्रयोग करता है।अरबी (मतलब, इबादत, तासीर, तकदीर, सवाल, गायब, किताब, कंदील, मियाद, ख़याल, इत्र, फरोश, गलतफहमी, उम्र, करीब, सलीब, नज़ीर, सफर, शरीर, जिला आदि), फ़ारसी (आवाज़, ज़िंदगी, ख्वाब, जागीर, बदर) शब्दों को प्रयोग करने में भी कवि को कोई हिचक नहीं है। अरबी 'जिला' और फ़ारसी 'बदर' को मिलाकर 'जिलाबदर', उम्र (अरबी) और दराज (फारसी) का प्रयोग करने में भी कवि कोताही नहीं करता। स्पष्ट है कि कवि खैरात की उस भाषा का उपयोग कर रहा है जिसे आधुनिक हिंदी कहा जाता है, वह भाषिक शुद्धता के नाम पर भाषिक साम्प्रदायिकता का पक्षधर नहीं है। यहाँ उल्लेखनीय है कि आंग्ल शब्द 'लेन्टर्न' का हिंदीकृत रूप 'लालटेन' भी कवि को स्वीकार है।
अलंकार संपन्नता इस दोहा संग्रह का वैशिष्ट्य है। अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, श्लेष, संदेह आदि अलंकार यत्र-तत्र पूरी स्वाभाविकता सहित प्रयुक्त हुए हैं। कुछ अलंकारों के एक-एक उदाहरण देखें। दोहा छंद में अन्त्यानुप्रास आवश्यक होता है, अत: वह सर्वत्र है ही। छेकानुप्रास अधरों पर रख बाँसुरी, और बाँध भुजपाश / नदी आग की पी गया, फिर भी बुझी न प्यास, वृत्यानुप्रास (चंचल चितवन चंद्रमुख, चारु चंपई चीर / चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर), श्रुत्यानुप्रास ( नींद निगोड़ी बस गई, जाकर उनके पास / धीरे-धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास) , लाटानुप्रास (संजीवन की शक्ति है, प्यार प्यार बस प्यार) तथा पुनरुक्ति प्रकाश (आँखों आँखों दे दिया / मन का चाहा दान) की छटा मोहक है।
वृत्नुयाप्रास काबू का प्रिय अलंकार है-
मुख मयंक, मंजुल मुखर, मधुर मदिर मुस्कान।
मन-मरल मोहित मुदित, मनसिज मुक्त मान।।
सुमुखि सलौनी सांवरी, सुखदा सुषमा सार।
सुरभित सुमन सनेह सर, सपन सरोज संवार।।
चंचल चितवन चन्द्रमुख, चारु चंपई चीर।
चौंक चकित चपला चले, चले चाप चौतीर।।
सभंग मुख यमक (कहनी अनकहनी सुनी, भरते रहे हुंकार ) तथा अभंग गर्भ यमक (बालों में हैं अंगुलियाँ, अधर अधर के पास) दृष्टव्य हैं।
उपमा के १६ प्रकारों में से कुछ की झलक देखें- धर्म लुप्तोपमा (नयन तुम्हारे वेद सम), उपमेय लुप्तोपमा (हिरन सरीखी याद है, चौपाई सी चारुता), धर्मोपमेय लुप्तोपमा (अनुप्रास सी नासिका, उत्प्रेक्षा सी छवि-छटा, अक्षर से लगते अधर, मन महुआ सा हो गया)।
यमक अलंकार दोहा दरबार में हाजिरी बजा रहा है-वेणु वेणुधर की बजी, रेशम रेशम तो कहा, हुई रेशमी शाम। / रेशम रेशम सुन कहा, रेशम किसका नाम।। आदि।
श्लेष भी छूटा नहीं है, यहाँ खेत द्विअर्थी है -
सपने बोये खेत में, दी आँसू की खाद।
जब लहराती है फसल, तुम आते हो याद।।
रूपक की छवि मत्तगयंदी चाल लख, काया रस-आगार आदि में है।
कुंतल मानो काव्य घन में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
संदेह अलंकार जाग रही है आँख या जाग रही है पीर, मुख सरोज या चन्द्रमा में है।
कवि अपनी प्रेयसी में सर्वत्र अलंकारों का सादृश्य देखता है-
यमक सरीखी दृष्टि है, वाणी श्लेष समान।
अतिशयोक्ति सी मधुरता, रूपक सी मुस्कान।।
विरोधाभास अलंकार 'शब्दों का है मौन व्रत', 'एकाकी संवाद' आदि में है।
दोहे जैसी देह, अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग, कोलाहल का कोर्स, यादों के स्तूप, फूल तुम्हारी याद के, कोलाहल का कोर्स, आँखों के आकाश, आँखों का अखबार, पलक पुराण आदि सरस् अभिव्यक्तियाँ पाठक को बाँधती हैं।
कवि ने शब्द युग्मों (रंग-बिरंग, भाषा-भूषा, नदी-नाव, ऊंचे-नीचे, दरस-परस, तन-मन, हर्ष-विषाद, रात-दिन, किसने-कब-कैसे आदि) का प्रयोग कुशलता से लिया है।
इन दोहों में शब्दावृत्ति (धीरे-धीरे कह गई, प्यार प्यार बस प्यार, देख-देखकर विकलता, आँखों-आँखों दे दिया, अभी-अभी जो था यहाँ, अभी-अभी है दूर, सच्ची-सच्ची बताओ, महक-महक मेंहदी कहे, मह-मह करता प्यार, खन-खन करती चूड़ियाँ, उखड़ी-उखड़ी साँस, सुंदर-सुंदर दृश्य हैं, सुंदर-सुंदर लोग, सर-सर चलती पवनिया, फर-फर उड़ते केश, घाटी-घाटी गूँजती, उजली-उजली धूप, रात-रात भर जागता, कभी-कभी ऐसा लगे, सूना-सूना घर मगर, मन-ही-मन, युगों-युगों की प्यास, अश्रु-अश्रु में फर्क है आदि) माधुर्य और लालित्य वृद्धि करती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोहों की रचना भिन्न काल तथा मन:स्थितियों में हुई तथा मुद्रण के पूर्व पाठ्य शुद्धि में सजगता नहीं रखे जा सकी। इससे उपजी त्रुटियाँ खीर में कंकर की तरह बदमजगी उत्पन्न करती हैं। अनुनासिक तथा अनुस्वार सम्बन्धी त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोष भी हैं।
दोहे के विषम चरण में १४ मात्रा होने का या अधिकत्व दोष पर्वत हो जाएंगे, प्रेम रंग में जो रंगी, डूब गए मंझधार में, बहुरूपिया बन आ गया आदि में है। सम चरण में १२ मात्रा का मात्राधिक्य दोष जीवन का एहसास, पी गई कविता प्यास आदि में है। सम चरण में न्यूनत्व दोष रूपराशि अमीतिया १२ मात्रा में है।
आँखों के आकाश में, घूमें सोच-विचार में तथ्य दोष है चूँकि सोच-विचार आँख नहीं मन की क्रिया है।
अपवाद स्वरुप पदांत दोष भी है। ऐसा लगता नवोदितों के लिए काव्य दोषों के उदाहरण रखे गए हैं। इन्हें काव्य दोष शीर्षक के अंतर्गत रखा जाता तो उपयोगी होता।
ओर-छोर मन का नहीं, छोटा है आकाश।
लघुतम निर्मल रूप है, जैसे किरन उजास।।
संशय प्रिय करना नहीं, अर्पित जीवन पुण्य।
जनम-जनम तक प्रीती यह, बनी रहे अक्षुण्य।।
मन का विद्यापीठ में लिंग दोष, अक्षुण्य (अक्षुण्ण), रूचता (रुचता) अदि में टंकण दोष है।
औगुनधर्मी, मधुवंती, मधुता, पवनिया आदि नव प्रयोग मोहक हैं।
पत्रकार रहा कवि अख़बार, खबर (बाँच सको तो बाँच लो आँखों का अखबार, शरणार्थी फागुन हुआ, यही ख़बर है आज) और चर्चा (फागुन की चर्चा करो) की अर्चा न करे, यह कैसे संभव है?
कवि स्मरण वैशिष्ट्य-
सुमित्रजी ने कई दोहों में कवियों का स्मरण स्थान-स्थान पर इस तरह किया है कि वह मूल कथ्य के साथ संगुफित होकर समरस हो गया है, आरोपित नहीं प्रतीत होता-
कालिदास का कथाक्रम, तेरा ही संकेत।
पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन।।
पारिजात विद्योत्तमा, कालिदास वनगन्ध।
हो दोनों का मिलन जब मिटे द्वैत की धुंध।।
मन मोती यों चुन लिया, जैसे चुने मराल।
मान सरोवर जिंदगी मन हो गया मराल।
रूप-धूप है सिरजती, घनानंद रसखान।।
ले वसंत से मधुरिमा, मन होता रसखान।।
मन के हाथों बिक गए, कितने ग़ालिब-मीर।।
पलक पुलिन अश्रुज तुहिन, पुतली पंकज भान।
नयन सरोवर में बसें, साधें सलिल समान।।
खुसरो ने दोहे कहे, कहे कबीर कमाल।
फिर तुलसी ने खोल दी, दोहों की टकसाल।।
गंग वृन्द दादू वली, या रहीम मतिमान।
दोहों के रसलीन से कितने हुए इमाम।।
किन्तु बिहारी की छटा, घटा न पाया एक।।
तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने इतिहास।
कौन कहे मीरा कथा, आँसू का उपवास।।
घनानंद का अश्रुधान, अर्पित कृष्ण सुजान।
उसी अहज़रु की धार में, डूबे थे रसखान।।
आँसू डूबी साँस से, रचित ईसुरी फाग।
रजऊ ब्रम्ह थी जीव थी, ऐसा था अनुराग।।
आंसू थे जयदेव के, ढले गीत गोविन्द।
विद्यापति का अश्रुदल, खिला गीत अरविन्द।।
सारत: 'यादें बनी लिबास' सुमित्र जी के मानस पटल पर विचरते विचार-परिंदों के कलरव का गुंजन है जो दोहा की लाक्षणिकता, संक्षिप्तता, नव्यता, माधुर्य तथा संप्रेषणीयता के पंचतत्वों का सम्यक सम्मिश्रण कर काव्यानंद की प्रतीति कराती है। पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय कृति से हिंदी के सारस्वत कोष की अभिवृद्धि हुई है।
***
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४, अणुडाक: salil.sanjiv@gmail.com
-----------

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

२५ फरवरी,राम किंकर,गीत,बसंत,होली,दोहा,फाग,ईसुर,ममता,शामियाना,शिव,सोरठे,

सलिल सृजन २५ फरवरी
*
स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय*
२५.२.२०२४
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार
*
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान
*
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
२५.२.२०२४
***
सोरठे
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा आ।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।
नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।
पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।
मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३
***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
***
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
***
रंगों का नव पर्व बसंती
*
गीत 
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
***

राम किंकर, मंदाकिनी, राम, सीता, हनुमान,

स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय
*
३.३.२०२४ 
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल,  सरस्वती वंदना/राम भजन- विभा तिवारी। 
वक्ता - कृष्ण कान्त चतुर्वेदी, डॉ. योगेंद्र तिवारी, इंदिरा गुप्ता- संस्मरण। 
संत अनगिनत हुए पर, किंकर सबसे भिन्न। 
सिया-राम हनुमान प्रिय, शिव से रहे अभिन्न।।
*
मंगलप्रद शारद शिवा, शिव गणपति हनुमान। 
निर्गुण हरि होता सगुण, राम-श्याम गुणवान॥ 
*  
भक्ति करें भगवान की, मंगलप्रद अनुकूल। 
बिन माँगे सब कुछ मिले, माँगें माँग न शूल।। 
*
श्री मुख में हनुमत बसे, किंकर  जी हैं यंत्र। 
राम भक्ति निष्काम कर, यही साधना मंत्र।। 
*
किंकर जी का चित्र रख, करिए पूजन नित्य।
सियाराम-हनुमत प्रभु, प्रगटें यह है सत्य।। 
*
राम कथा अनुपम कही, दृष्टि नवीन  

***
२५.२.२०२४ 
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या    
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी.   
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार 
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार 
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान 
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान 
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह 
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह 
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान 
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत 
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत 
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न 
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न 
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार  
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार 
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास 
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास  
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य 
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
***

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

२४ फरवरी,सॉनेट गीत,वसुंधरा,वंदे मातरम्,मुक्तिका,केरल,हाइकु,शिव,नवगीत,भजन,तुम,

सलिल सृजन २४ फरवरी
हास्य रचना
मुक्तिका
*
चाँद के जा निकट खुल सब सच गया
तारीफ कर जो फँस गया था बच गया

झील से नैनों में डूबा हुलसकर-
कयामत अँगुली पे बेबस नच गया

बात बोले बिना बोले सुख मिले
इंगितों में छंद अनगिन रच गया

जो तना टूटा हमेशा याद रख
बच उठा सिर जो विपद में लच गया

देवयानी के ह्रदय ने कुछ कहा
सुन-समझ संजीवनी तक कच गया

बैड या गुड इरादे होते 'सलिल'
हुआ दोषी सजा पाने 'टच' गया•••
कुण्डलिया
१.
झाड़ू पोछा कर रहे, पुरुष घरों में बंद
समर चुनावी में उतर, जूझे महिला वृंद
जूझे महिला वृंद, थम कार बेलन चिमटा
पुरुष बिचरा शीश बचे सिकुड़ सिमटा
महिलाओं का समय, आचरण करें न ओछा
हो जवान या वृद्ध, लगानित झाड़ू-पोछा
•••
२.
झाड़ू पोछा कर रहे, पुरुष घरों में बंद
महिला घर तज घूमती, सुना मञ्च पर छंद
सुना मञ्च पर छंद, वाह कर रहे आह भर
श्रोता देखें धूप, रूप की रात जागकर
कन्यादान न किया, दिया वरदान कह रहे
जिनने लिया दहेज, झाड़ू पोछा कर रहे
•••
मुक्तक
ममता की समता काय, रमता मन क्षमता भर
कमता है स्नेह नहीं, बढ़ता है बढ़-बढ़कर
हिंदी की बिंदी से छंद प्रार्थना बनता-
साधना सफल होती प्रगटें प्रभु सुन भू पर
•••
सॉनेट गीत
वसुंधरा
हम सबकी माँ वसुंधरा।
हमें गोद में सदा धरा।।

हम वसुधा की संतानें।
सब सहचर समान जानें।
उत्तम होना हम ठानें।।
हम हैं सद्गुण की खानें।।
हममें बुद्धि परा-अपरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।

अनिल अनल नभ सलिल हमीं।
शशि-रवि तारक वृंद हमीं।
हम दर्शन, विज्ञान हमीं।।
आत्म हमीं, परमात्म हमीं।।
वैदिक ज्ञान यहीं उतरा।
हम सबकी माँ वसुंधरा।।

कल से कल की कथा कहें।
कलकल कर सब सदा बहें।
कलरव कर-सुन सभी सकें।।
कल की कल हम सतत बनें।।
हर जड़ चेतन हो सँवरा।
हम सब की माँ वसुंधरा।।
(विधा- अंग्रेजी छंद, शेक्सपीरियन सॉनेट)
२४-२-२०२२
•••
सॉनेट गीत
वंदे मातरम्
वंदे मातरम् कहना है।
माँ सम सुख-दुख तहना है।।

माँ ने हमको जन्म दिया।
दुग्ध पिलाया, बड़ा किया।
हर विपदा से बचा लिया।।
अपने पैरों खड़ा किया।।
माँ संग पल-पल रहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।

नेह नर्मदा है मैया।
स्वर्गोपम इसकी छैंया।
हम सब डालें गलबैंयां।
मिल खेलें इसकी कैंया।।
धूप-छाँव सम सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।


सब धर्मों का मर्म यही।
काम करें निष्काम सही।
एक नीड़ जग, धरा मही।।
पछुआ-पुरवा लड़ी नहीं।।
धूप-छाँव संग सहना है।
वंदे मातरम् कहना है।।
२४-२-२०२२
•••
मुक्तिका
शशि पुरवार
न माने हार।
रोग को जीत
सुनो जयकार।
पराजित पीर
मानकर हार।
खुशी लो थाम
खड़ी तव द्वार।
अधर पर हास
बने सिंगार।
लिखो नवगीत
बने उपचार।
करे अभिषेक
सलिल की धार।
***
पुरोवाक
केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारत भूमि का सौंदर्य और समृद्धि चिरकाल से सकल विश्व को आकर्षित करता रहा है। इसी कारण यह पुण्यभूमि आक्रांताओं द्वारा बार-बार पददलित और शोषित की गयी। बकौल इक़बाल 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा', भारत हर बार संघर्ष कर स्वाभिमान के साथ पूर्वापेक्षा अधिक गौरव के साथ सर उठाकर न केवल खड़ा हुआ अपितु 'विश्वगुरु' भी बना। संघर्ष और अभ्युत्थान के वर्तमान संघर्षकाल में देश के सौंदर्य, शक्ति और श्रेष्ठता को पहचान कर संवर्धित करने के साथ-साथ-कमजोरियों को पहचान कर दूर किया जाना भी आवश्यक है। विवेच्य कृति 'केरल : एक झाँकी' इस दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
पुस्तक की लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी प्रतिष्ठित राजघराने की सदस्य (केणल गोदवर्म राजा की पुत्री, थिरुवल्ला के राजराजा की पत्नी) होते हुए भी जन सामान्य की समस्याओं में गहन रूचि लेकर, उनके कारणों का विश्लेषण और समाधान की राह सुझाने का महत्वपूर्ण दायित्व स्वेच्छा से निभा सकी हैं। हिंदी में संस्मरण निबंध विधाओं में अन्य विधाओं की तुलना में लेखन कम हुआ है जबकि संस्मरण लेखन लेखन बहुत महत्वपूर्ण विधाएँ हैं । इस महत्वपूर्ण कृति का सरस हिंदी अनुवाद कर प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. ने हिंदी-मलयालम सेतु सुदृढ़ करने के साथ-साथ केरल की सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सौंदर्य से अन्य प्रदेश वासियों को परिचित कराने का सफल प्रयास किया है। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से इस स्तुत्य सारस्वत अनुष्ठान के लिए लेखिका अश्वती तिरुनाळ गौरी लक्ष्मीभायी तथा अनुवादक द्व्य प्रो. डी. तंकप्पन नायर तथा अधिवक्ता मधु बी. साधुवाद के पात्र हैं।
प्रथम संस्मरण 'जरूरत है एक मलयाली गुड़िया की' में सांस्कृतिक पहचानों के प्रति सजग होने का आह्वान करती विदुषी लेखिका का पूरे देश में खिचड़ी अपसंस्कृति के प्रसार को लेकर चिंतित होना स्वाभाविक है। 'स्मृतियाँ विस्मृति में' ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा की ओर ध्यानाकर्षित किया गया है। 'आयुर्वेद एक अमूल्य निधि' में भारत के पुरातन औषधि विज्ञान एवं वैद्यक परंपरा की महत्ता को रेखांकित किया गया है। भारतीय संस्कारों की महत्ता 'आचार प्रभवो धर्म:' में प्रतिपादित की गयी है। 'तिरुवितांकुर का दुर्भाग्य' विलोपित होती विरासत की करुण कथा कहती है। 'हे मलयालम माफ़ी! माफ़ी!' में मातृभाषा की उपेक्षाजनित पीड़ा मुखरित हुई है। आंचलिक परिधानों की प्रासंगिकता और महत्व 'मुंट (धोती) और तोर्त (अँगोछा) का महत्व' संस्मरण में है।
वर्तमान में केरल की ख्याति नयनाभिराम पर्यटल स्थल के रूप में सारी दुनिया में है। वर्षों पूर्व केरल का भविष्य पर्यटन में देख सकने की दिव्य दृष्टि युक्त केणल गोदवर्म राजा पर भारत सरकार को डाक टिकिट निकलना चाहिए। केरल सरकार प्रतिवर्ष उनकी जन्मतिथि को केरल पर्यटन दिवस के रूप में मनाये। लेखिका का परिवार भी इस दिशा में पहल कर केरल के पर्यटन पर देश के अन्य प्रांतों के लेखकों से पुस्तक लिखवा-छपाकर राजाजी की स्मृति को चिरस्थायी कर सकता है। 'पिताजी के सपने और यथार्थ' शीर्षक संस्मरण में उनके अवदान को उचित ही स्मरण किया गया है। समयानुशासन का ध्यान न रखने पर अपनी लाड़ली बेटी को दंडित कर, समय की महत्ता समझाने का प्रेरक संस्मरण 'समय की कैसी गति' हमारे जन सामान्य, अफसरों और नेताओं को सीख देता है। 'किस्सा एक हठी का' रोचक संस्मरण है जो अतीत और वर्तमान के स्थापित करता है।
आधुनिक वैज्ञानिक उन्नति और शहरीकरण ने भारत की परिवार व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुँचाने के साथ-साथ बच्चों के कुपोषण तथा संस्कारों की उपेक्षा की समस्या को जन्म दिया है। 'टेलीविजन और नन्हें बच्चे', 'नारी की आवाज', 'मलयाली का ह्रास', 'कन्या कनक संपन्ना' में समकालिक सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए, निराकरण के संकेत अन्तर्निहित हैं। 'क्या मलयाली व्यंजन भी फ्रीज़र में रखे जायेंगे?' में आहार संबंधी अपसंस्कृति को उचित ही लांछित किया गया है। 'टिकिट के साथ गंदगी और गर्द' तथा 'धन्यवाद और निंदा' में सामाजिक दायित्वों की ओर सजगता वृद्धि का उद्देश्य निहित है। समाजिक जीवन में नियमों और उद्घोषणाओं के विपरीत आचरण कर स्वयं को गर्वित करने के कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुए लेखिका ने 'उद्घोषणा करने लायक कुछ मौन सत्य' शीर्षक संस्मरण में सार्वजानिक अनुशासन और सामाजिक शालीनता की महत्ता प्रतिपादित की है।
'धार्मिक मैत्री का तीर्थाटन मौसम', 'आयात की गई जीवन शैलियाँ', 'अतिथि देवो भव' आदि में लेखिका के संतुलित चिंतन की झलक है। लेखिका के बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक देते इनसंस्मरणों में पर्यावरण के प्रति चिंता 'काई से भरे मन और जलाशय' में दृष्टव्य है। दुर्भाग्य से प्राचीन विरासत के विपरीत स्वतंत्र भारत में जल परिवहन को महत्व न देकर खर्चीले हुए परवरण के लिए हानिप्रद वायु परिवहन तथा थल परिवहन को महत्व देकर देख का राजकोषीय घाटा बढ़ाया जाता रहा है।
चिर काल से भारत कृषि प्रधान देश था, है और रहेगा। विलुप्त होती फसलों के संबंध में लेखिका की चिंता 'उन्मूलन होती फसलें' संस्मरण में सामने आई है। देश के हर भाग में साधनहीन बच्चों द्वारा भिक्षार्जन की समस्या पर 'नियति की धूप मुरझाती कलियाँ', रोग फैलाते मच्छरों पर 'मच्छर उन्मूलन : न सुलझती समस्या', महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए विशेष व्यवस्थाओं पर 'प्रदर्शकों को एक मार्ग, जनता को राजमार्ग' पठनीय मात्र नहीं, चिंतनीय भी हैं। कृति के अंत में 'स्वगत' के अंतर्गत अपने व्यक्तित्व पर प्रकाश डालकर उनके ऊर्जस्वित व्यक्तित्व से अपरिचित पाठकों को अपना परिचय देते हुए अपनी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि, बहुरंगी बचपन और असाधारण व्यक्तित्व का उल्लेख इतने संतुलित रूप में किया है की कहीं भी अहम्मन्यता नहीं झलती तथा सामान्य पाठक को भी वे अपने परिवार की सदस्य प्रतीत होती हैं।
सारत: 'केरल : एक झाँकी - मनोरम और बाँकी' एक रोचक, ज्ञानवर्धक, लोकोपयोगी कृति है जो देश के सामान्य और विशिष्ट वर्ग की खूबियों और खामियों को भारतीय विरासत के संदर्भ से जोड़ते हुए इस तरह उठाती है कि किसी को आघात भी न पहुँचे और सबको निराकरण हेतु संदेश और सुझाव मिल सकें। इस तरह के लेखन की कमी को देखते हुए इस कृति के अल्प मोली संस्करण निकाले जाकर इसे हर बच्चे और बड़े पाठक तक पहुँचाया जाना चाहिए।
२४.२.२०२१
***
हाइकु:
*
हर-सिंगार
शशि भभूत नाग
रूप अपार
*
रूप को देख
धूप ठिठक गयी
छवि है नयी
*
झूम नाचता
कंठ लिपटा सर्प
फुंफकारता
*
अर्धोन्मीलित
बाँके तीन नयन
करें मोहित
*
भंग-भवानी
जटा-जूट श्रृंगार
शोभा अपार
***
चिंतन
शिव, शक्ति और सृष्टि
सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भारतीय दर्शन में वर्णित एक दृष्टान्त के अनुसार शिव निद्रालीन थे. शिव के साथ क्रीड़ा (नृत्य) करने की इच्छा लिये शक्ति ने उन्हें जाग्रत किया. आरंभ में शिव नहीं जागे किन्तु शक्ति के सतत प्रयास करने पर उग्र रूप में गरजते हुए क्रोध में जाग्रत हुए. इस कारण उन्हें रूद्र (अनंत, क्रोधी, महाकाल, उग्ररेता, भयंकर, क्रंदन करने वाला) नाम मिला। शिव ने शक्ति को देखा, वह शक्ति पर मोहित हो उठ खड़े हुए. शक्ति के प्रेम के कारण वे शांत होते गये. उन्होंने दीर्घवृत्ताभ (इलिप्सॉइड) का रूप लिया जिसे लिंग (स्वगुण, स्वभाव, विशेषता, रूप) कहा गया.
शिव कोई सशरीर मानव या प्राणी नहीं हैं. शिव का अर्थ है निर्गुण, गुणातीत, अक्षर, अजर, अमर, अजन्मा, अचल, अज्ञेय, अथाह, अव्यक्त, महाकाल, अकर्ता आदि. शिव सृष्टि-कर्ता भी हैं. शक्ति सामान्य ताकत या बल नहीं हैं. शक्ति का अर्थ आवेग, ऊर्जा, ओज, प्राण, प्रणोदन, फ़ोर्स, एनर्जी, थ्रस्ट, त्रिगुणा, माया, प्रकृति, कारण आदि है. शिव अर्थात “वह जो है ही नहीं”। जो सुप्त है वह होकर भी नहीं होता। शिव को हमेशा श्याम बताया गया है. निद्रावस्था को श्याम तथा जागरण को श्वेत या उजला कहकर व्यक्त किया जाता है.
शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. इस मत में ईश्वर की कल्पना स्त्री रूप में कर उसे शक्ति कहा गया है. शक्ति के आनंदभैरवी, महाभैरवी, त्रिपुरसुंदरी, ललिता आदि नाम भी हैं.
विज्ञान सृष्टि निर्माण के कारक को बिग-बैंग कहता है और भारतीय दर्शन शिव-शक्ति का मिलन. विज्ञान के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के पीछे डार्क मैटर और डार्क इनर्जी की भूमिका है. योग और दर्शन के अनुसार डार्क मैटर (शिव) और डार्क एनर्जी (महाकाली) का मिलन ही सृष्टि-उत्पत्ति का कारण है. स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच संबंध (लिंक) है. पहले वे इन्हें भिन्न मानते थे अब अभिन्न कहते हैं. विज्ञान के अनुसार डार्क मैटर और डार्क इनर्जी के मिलन से एक विस्फोट नहीं विस्फोटों की श्रृंखला उत्पन्न होती है. क्या यह विस्फोट श्रंखला जागकर क्रुद्ध हुए शिव के हुंकारों की ध्वनि है?
वैज्ञानिकों के अनुसार आरम्भ में समूची सृष्टि दीर्घवृत्ताभ आकार के विशाल गैस पिंड के रूप में गर्जना कर रही थी. धीरे-धीरे वह गैसीय पिंड ठंडा होता गया. शीतल होने की प्रक्रिया के कारण इस जगत की रचना हुई. योग कहता है कि जब शक्ति ने शिव को जगा दिया तो वह गुस्से में दहाड़ते हुए उठे। वह कुछ समय के लिये रूद्र बन गये थे. शक्ति को देखकर उनका गुस्सा ठंडा हुआ. शक्ति पर मोहित होकर वह दीर्घवृत्ताभ बन गये, जिसे लिंग कहा गया.
वैज्ञानिक बड़ा धमाकों के बाद की स्थिति एक खंभे की तरह बताते हैं, जिसमें ऊपर के सिरे पर छोटे-छोटे मशरूम लगे हैं. यह ठीक वैसा है जैसा योग-विद्या में बताया गया है. सृष्टि दीर्घवृत्त के आकार में है, जो ऊष्मा, गैसों के फैलाव और संकुचन तथा उनके द्रव्यमान की सघनता पर निर्भर है. इसका ज्यादातर हिस्सा खाली है जिसमें द्रव्य कण, तारे, ग्रह और आकाशीय पिंड बिखरे हुए हैं। सम्भवत:ज्यादातर चीजें अब तक आकार नहीं ले सकी हैं।
विज्ञान जो बात अब समझा है, उसे दर्शन बहुत पहले समझा चुका था। यह शरीर भी वैसे ही है, जैसे कि यह संपूर्ण सृष्टि। पेड़ के तने में बने छल्लों से पेड़ के जीवन-काल में धरती पर घटित हर घटना का ज्ञान हो सकता है. मानव शरीर में अन्तर्निहित ऊर्जा से साक्षात हो सके तो ब्रह्मांड के जन्म और विकास की झाँकी अपने भीतर ही मिल सकती है।
संदर्भ:
१.
२. बृहत् हिंदी कोष सं. कलिका प्रसाद, राजवल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव
३. समान्तर कोष, अरविन्द कुमार, कुसुम कुमार
==============
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
२४-२-२०१७
...
भजन
*
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
तू सर्वज्ञ व्याप्त कण-कण में
कोई न तुझको जाने।
अनजाने ही सारी दुनिया
इष्ट तुझी को माने।
तेरी आय दृष्टि का पाया
कहीं न पारावार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
हर दीपक में ज्योति तिहारी
हरती है अँधियारा।
कलुष-पतंगा जल-जल जाता
पा मन में उजियारा।
आये कहाँ से? जाएँ कहाँ हम?
जानें, हो उद्धार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
*
कण-कण में है बिम्ब तिहारा
चित्र गुप्त अनदेखा।
मूरत गढ़ते सच जाने बिन
खींच भेद की रेखा।
निराकार तुम,पूज रहा जग
कह तुझको साकार
प्रभु!
तेरी महिमा अपरम्पार
***
नवगीत:
ओ उपासनी
*
ओ उपासनी!
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
हो सुहासिनी!
*
भोर, दुपहरी, साँझ, रात तक
अथक, अनवरत
बहती रहतीं।
कौन बताये? किससे पूछें?
शांत-मौन क्यों
कभी न दहतीं?
हो सुहासिनी!
सबकी सब खुशियों का करती
अंतर्मन में द्वारचार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
इधर लालिमा, उधर कालिमा
दीपशिखा सी
जलती रहतीं।
कोना-कोना किया प्रकाशित
अनगिन खुशियाँ
बिन गिन तहतीं।
चित प्रकाशनी!
श्वास-छंद की लय-गति-यति सँग
मोह रहीं मन अलंकार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
*
चौका, कमरा, आँगन, परछी
पूजा, बैठक
हँसती रहतीं।
माँ-पापा, बेटी-बेटा, मैं
तकें सहारा
डिगीं, न ढहतीं
मन निवासिनी!
आपद-विपद, कष्ट-पीड़ा का
गुप-चुप करतीं फलाहार सी
शीतल-निर्मल सलिल धार सी
सतत प्रवाहित
ओ उपासनी!
२४.२.२०१६
***
नवगीत:
बहुत समझ लो/सच, बतलाया/थोड़ा है
.
मार-मार
मनचाहा बुलावा लेते हो.
अजब-गजब
मनचाहा सच कह देते हो.
काम करो,
मत करो, तुम्हारी मर्जी है-
नजराना
हक, छीन-झपट ले लेते हो.
पीर बहुत है/दर्द दिखाया/थोड़ा है
बहुत समझ लो/सच, बतलाया/थोड़ा है
.
सार-सार
गह लेते, थोथा देते हो.
स्वार्थ-सियासत में
हँस नैया खेते हो.
चोर-चोर
मौसेरे भाई संसद में-
खाई पटकनी
लेकिन तनिक न चेते हो.
धैर्य बहुत है/वैर्य दिखाया/थोड़ा है
बहुत समझ लो/सच, बतलाया/थोड़ा है
.
भूमि छीन
तुम इसे सुधार बताते हो.
काला धन
लाने से अब कतराते हो.
आपस में
संतानों के तुम ब्याह करो-
जन-हित को
मिलकर ठेंगा दिखलाते हो.
धक्का तुमको /अभी लगाया/थोड़ा है
बहुत समझ लो/सच, बतलाया/थोड़ा है
२४.२.२०१५
***