कुल पेज दृश्य

रविवार, 30 मई 2021

समीक्षा सुरेंद्र पवार सड़क पर

पुस्तक समीक्षा
जीवन कहता ''सड़क पर'' सलिल सलिल सम जान
*
नवगीत, कविता की पूर्व-पीठिका पर गूँजता सामवेदी गान है।
नव गीत के वामन- स्वरूप में संवेदना की गहनता, सघनता,
सांद्रता, विषयवस्तु की वैविध्यपूर्ण विस्तृति, नवोन्मेषमयी
कल्पना की उत्तरंग उड़ान, इंद्रिय-संवेद्य बिंबों की प्रत्यग्रता
तो होती ही है, वहीं लोक-भाषा, लोक-लय के प्रति आत्मीयता
पूर्ण आग्रह ‘नव’ विशेषण युक्त अवदात्त गीतों के शिल्प में
अतिरिक्त चारुत्व का आधान करती है.। अप्रासंगिक नहीं
कि कविता ने ‘गीत’ और फिर ‘नव गीत’ की यात्रा में अपने
प्राणतत्व ‘गेयता’ का दामन थामे रखा।
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का सद्य: प्रकाशित गीत - नवगीत संकलन ‘सड़क पर’ की रचनात्मक-गूढ़ता और बहुआयामिता, परिवेश और परिस्थिति का आवरण हटाकर अभिव्यक्ति के मौलिक संवेदन और विमर्श का दर्शन कराती है। इस संकलन के रचना विधान में नवगीतकार ने शीर्षक (सड़क पर) में ही अपनी विषयवस्तु की मनोवृति का प्रकाशन कर दिया है और उसे लेकर अपनी रचनात्मक या सर्जनात्मक भूमिका को विभिन्न कूचों-कुलियों, पगडंडियों, रास्तों, राजपथों पर प्रश्न के रूप में खड़ा किया है। भाषा, शब्द, मुहावरा, बिम्ब, प्रतीक और प्रयोगों द्वारा उसमें व्याप्त समस्याओं को परोसा ही नहीं है, अपितु गम्भीरतर प्रश्नों के रूप में प्रस्तुत किया है।
संकलन के अंतिम ९ गीतों में उठाए गए मूल्यगत प्रश्न परिचर्चा में वरीयता पर आवश्यक हैं। यथा; सड़क पर बसेरा, कचरा उठा हँस पड़ी जिंदगी, सड़क पर होती फिरंगी सियासत, जमूरा-मदारी का खेल, सड़क पर सोते लोगों को गाड़ी से कुचलना, सड़क विस्तार के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, लव जिहाद, नाचती बारात, हिंसा-वारदात, एम्बुलेंस को रास्ता न देना, सड़क पर गड्ढे, अतिक्रमण, पंचाट, प्यासा राहगीर, सरपट भागती गाड़ियाँ, कालिख हवा में डामल से ज्यादा इत्यादि। नव गीतकार सड़क और भवन निर्माण तकनीक में पारंगत अभियंता है और निर्माण के महत्वपूर्ण तत्वों, रागों, धुनों और सुरों के साथ प्रयुक्त शब्दावलियों को विस्तार से प्रस्तुत करता है। इस उद्यम में अनुभूत वेदना की व्यंजना से रचनात्मकता प्रभावित हुई जान पड़ती है। इतने पर भी नव गीतकार के शिल्प की विशेषता यह है कि उसने वेदना कि तीव्र आवृतियों को आत्मसात किया। अध्ययन-अध्यापन, गहन-चिंतन, विचार-मंथन उपरांत जो परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है, वह भिन्न है। बिंबों, प्रतीकों और मिथकों के सहारे सड़क पर चलता नव गीत-गायक, जब अपनी बात कहता है तो सीधे पाठकों-श्रोताओं के दिल को छू लेती है-
गौतम हौले से पग धरते
महावीर कर नहीं झटकते
’मरा’ नाम जप ‘राम’ पा रहे (सड़क पर- ६ पृ/९२ )
इच्छाओं की कठपुतली हम
बेबस नाच दिखाते हैं
उस पर यह तुर्रा है खुद को
तीसमारखां पाते हैं
रास न आए
सच कबीर का
हम बुद बुद गुब्बारे हैं। -(दिशाहीन बंजारे-पृ/७२ )
यद्यपि दोराहे, तिराहे और चौराहे पर उपजता मति-भ्रम, सड़क के किनारे योगियों की भाँति साधना रत ट्रेफिक-सिग्नल और मील के पत्थर, सेतु, सुरंग और फ्लाई-ओवर जैसे सड़क-सत्य, कवि की ड्योढ़ी पर खड़े प्रतीक्षा करते रहे कि काश! उन्हें भी इन गीतों में स्थान मिलता।
नव गीतकार सलिल का पूर्व नवगीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। समीक्ष्य-संग्रह में भी बाल सूर्य को बिम्बित किया गया है, खग्रास का सूर्य भी है, वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है।
वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है। प्रकृति के लजीले-सजीले श्रंगार के साथ वह नए-नए बिम्ब तलाशता है। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियाँ, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नवजीवन पा जाना और इन सबसे इतर वर्षागमन से गरीब की जिंदगी में आई उथल-पुथल सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं। हाँ! इनमें अतिवृष्टि और अनावृष्टि की विसंगति भी दृष्टव्य होती है, परंतु जीवनदायिनी प्रकृति के सौन्दर्य के समक्ष क्षणिक दुखों या आवेगों को अनदेखा किया गया है।
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे/ठुमक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे।
नेह निमंत्रण था वसुधा का
झूम उठे बादल कानन
छाछ महेरी संग जिमाए
गुड़ की मीठी डली लली।
जन्मे माखन चोर
हरीरा भक्त पियें
गणपती बप्पा, लाये
मोदक, हुए मजे।
और यहीं से नव गीतकार की चिंता तथा चिंतन शुरू होता है। सही भी है। जब, दसों दिशाओं में श्रम जयकारा गूँज रहा हो, तो वह (मजदूर) दाने-दाने का मोहताज क्यों ? उसके श्रम का अपेक्षित भुगतान क्यों नहीं होता? उसे मूलभूत-सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं होतीं? अपने ही देश में मजदूर, प्रवासी-अप्रवासी क्यों?
मेहनतकश के हाथ हमेशा
रहते हैं क्यों खाली खाली?
मोती तोंदों के महलों में
क्यों वसंत लाता खुशहाली?
ऊँची कुर्सीवाले पाते
अपने मुँह में
सदा बताशा।(चूल्हा झाँक रहा-पृ ३९)
देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुँह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है, बिल्कुल बुंदेलखंड की 'गुलगुला' मिठाई जैसा। कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मल्हम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,
एक महल
सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊँच-नीच यह
कहो खुपड़िया कौन खपाए?
मेहनत भूखी
चमड़ी सूखी आँखें चमके
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हो न पराए
बहका-बहका
संभल गया पग
बढा रहा पर
ठिठका- ठिठका। -(महका-महका पृ/४२ )
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सँभल-सँभल
चलना रपट न जाना
मिल-जुल
पार करो पाठ की फिसलन।
लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली -(मन भावन सावन-पृ/२६ )
परंतु यहीं गीतकार “होईहि सोई जो राम रची राखा” की दुहाई देता है---
राजमार्ग हो या पगडंडी
पग की किस्मत
सिर्फ फिसलन। -(पग की किस्मत पृ/६३)
और, दिलासा देते हुए कहता है,
थक मत, रुक मत, झुक मत, चुक मत
फूल-शूल सम, हार न हिम्मत
सलिल मिलेगी पग तल किस्मत
मौन चला चल
नहीं पलटना।(पग की किस्मत –पृ/६३ )
और यहाँ अन्योक्ति में अपनी बात कहता है,
कहा किसी ने,- नहीं लौटता
पुन: नदी में बहता पानी
पर नाविक आता है तट पर
बार-बार ले नई कहानी
दिल में अगर
हौसला हो तो
फिर पहले सी बातें होंगी।
हर युग में दादी होती है
होते है पोती और पोते
समय देखता लाड़-प्यार के
रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते
नयी कहानी
नयी रवानी
सुखमय सारी बातें होंगी। -(कहा किसी ने-पृ/६२)
और सड़क पर गुजरती जिंदगी के मानी समझाता है,
अक्षर, शब्द, वाक्य पुस्तक पढ़
तुझे मिलेगा ज्ञान नया
जीवन पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है। (जिंदगी के मानी-पृ/४८ )
वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-
जब भी मुड़कर पीछे देखा
गलत मिला कर्मों का लेखा
एक नहीं सौ बार अजाने
लाँघी थी निज किस्मत रेखा
माया ममता
मोह क्षोभ में
फँस पछताए जन्म गवाए। -(सारे जग में---पृ/६४)
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है
कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू
व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है
सत्य जिह्वा पर
असत का गान है।
इसका क्या कारण है?-
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो ( बिक रहा ईमान पृ/६५ )
कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निशिदिन (आठों प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने कि नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है, समर्थ सहस्त्रबाहु की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है,
घट रहा भूजल
समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा
निरंतर बढ़ रहा
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है
दैव एक लुहार की अब जड़ रहा
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है। -(बिक रहा ईमान—पृ६६)
नवगीतकार सलिल ने मध्यवर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास को स्वर तो दिया है उसमें सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न को भी मुखरित किया है। इसमें विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है, जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।
अपने नव गीतों में दोहा, जनक, सरसी, भजंगप्रयात और पीयूषवर्ष आदि छंदों को स्थान देकर कवि ने गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशजशब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गैल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुँह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, माँ की सौं, कम लिखता हूँ बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरा), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। छंद-शास्त्री सलिल की रस और अलंकारों पर भी अच्छी पकड़ है, उनके संग्रहित गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारो (उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग किया है। प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,
सागर उथला
पर्वत गहरा
डाकू तो ईमानदार
पर पाया चोर सिपाही
सौ अयोग्य पाये, तो
दस ने पायी वाहवाही
नाली का पानी बहता है
नदिया का जल ठहरा (सागर उथला पृ/५४ )
पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी-शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकता आभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप-छाँव , सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।
इन नव गीतों में “इलाहाबाद के पथ पर तोड़ती पत्थर”(तोड़ती पत्थर) तथा
“वह आता, पछताता, पथ पर जाता”(भिक्षुक) के भाव व स्वर झंकृत होते हैं। क्यों(?) न हों,महाकवि निराला ही तो वे आदि-गीतकार हैं जिन्होंने पहले-पहले “नव गति नव लय, ताल छंद नव” के मधुर घोष के साथ गीत की कोख से नवगीत के उपजने का पूर्व संकेत दे दिया था।
इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया, वरना सड़क कहाँ जाती है? वह तो जड़वत है, अचलायमान है, उसके न पैर हैं न पहिये, हाँ! उस पर पाँव-पाँव चलकर या हल्के/भारी वाहन दौडाकर अपने गंतव्य तक अवश्य पहुँचा जा सकता है। ‘ऊँघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (ओढ़ कुहासे की पृ/६३) में सतपुड़ा का नींद में ऊँघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियाँ’ (वही नेह नाता पृ/७८) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘हलधर हल धर शहर न जाएं’ का यमक, ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतना तथा ‘पथवारी मैया’ में लोक-चेतना के साथ–साथ दैवीय स्वरूप के दर्शन होते हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।
नव गीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का उम्दा-उपयोग किया है। यदि सम्पादन तथा मुद्रण की भूलों को अनदेखा कर दिया जाए तो यह एक स्तरीय और संग्रहणीय संकलन है। अंत में, सुप्रसिद्ध समीक्षाकार राजेंद्र वर्मा के स्वर-से-स्वर मिलाते हुए कहना चाहूँगा कि “इन गीतों में वह जमीन तोड़ने की कोशिश की गई है जो पिछले २०-२५ वर्षों से पत्थर हो गई है उसके सीलने, सौंधेपन, पपड़ाने जैसे गुण नष्ट हो गए हैं, उस भूमि में अंकुरण की संभावना न्यून है।“ फिर भी वह(गीतकार सलिल) मिट्टी पलटा रहा है, फसल-चक्र बदलने का प्रयास कर रहा है।
सलिल के गीतों-नवगीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से करना संभव नहीं है मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, राधेश्याम बंधु, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, नहीं! कदापि नहीं! मेरी निजी मान्यता है कि “सलिल सलिल सम जान” यानि, ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और न्यायसंगत होगा। एक बात-और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन संजीव सलिल इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य पर अच्छी पकड़ है। अध्येता-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं।
गीतकार संजीव वर्मा ‘सलिल’ के इस संग्रह (सड़क पर)के नवगीतों की
रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं कि आचार्य सलिल आज के नवगीतकारों से पृथक परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नव गीतकार हैं।
-----------------------------------------------------------------------------------
सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ २०१, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
९३००१०४२९६ /७०००३८८३३२/ email pawarss2506@gmail-com
कृति—सड़क पर (गीत-नवगीत संग्रह) / नवगीतकार –आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’/प्रकाशक-
विश्ववाणी हिन्दी संस्थान, समन्वय प्रकाशन अभियान, जबलपुर/ मूल्य- २५०/- मात्र

बालगीत: बिटिया रानी

बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
३०.५.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तिका दिंडी छंद

मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
*
३०.५.२०१८, ७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

विश्ववाणी हिंदी और हम

विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।

दूरलेख वार्ता सविता तिवारी



ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से एक दूरलेख वार्ता
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |

नवगीत

नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल धरती नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
*

लखनऊ प्रवास

 एक रचना

शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
३०-५-२०१६
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]

समीक्षा निर्मल शुक्ल

पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
*************
समन्वयम २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१ ८३२४४

दोहा, मुक्तक

दोहा सलिला:
संजीव
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
*
अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
*

भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
जला रही है तन-बदन, धूप दसों दिश धाक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते शीतल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
*
बीते दिन फुटपाथ पर, प्लेटफोर्म पर रात
ट्रेन लेट है प्रीत की, बतला रहा प्रभात
*
कोरी जीवन स्लेट थी, अब न जगह है शेष .
पाठ सभी बाकी रहे, कैसे लिखूं अशेष?
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
*
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
सुमन सु-मन ले गंध दे, महके सारा बाग़.
बारिश हो या गर्मियां, गंध न देता त्याग.
*
अथक सफ़रकर थक गए, यदि न उठ रहे पैर.
तो समझो मंजिल निकट, मांगो सबकी खैर.
*
द्विपदी हवेली-गाँव को हम छोड़ आए

शहर में फ़्लैट ले उन्नति करी है.



मुक्तक:
संजीव
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*३०-५-२०१५

द्विपदी

द्विपदी सलिला :
संजीव
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
३०-५-२०१५

हाइकु का रंग पलाश के संग

 हाइकु सलिला:

हाइकु का रंग पलाश के संग
संजीव
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
*
३०-५-२०१५

विमर्श ; सावन में ससुराल

विमर्श :
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?

कहिए, क्या राय है? 

तांका

 विश्ववाणी हिंदी - जापानी सेतु :

तांका: एक परिचय
संजीव
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
*

मुक्तिका



मुक्तिका :
संजीव 'सलिल'
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
३०-५-२०११ 
***

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

घनाक्षरी / मनहरण कवित्त

... झटपट करिए

संजीव 'सलिल'

*

लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,

काम जो भी करना हो, झटपट करिए.

तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,

मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.

आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,

खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-

गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,

'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.

*

छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,

८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
३०-५-२०११ 

***

मुक्तिका

मुक्तिका
.....डरे रहे.
संजीव 'सलिल'
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम डरे-डरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
लगन-जल हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
समझिये मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
३०-५-२०१०
**************

मुक्तिका

: मुक्तिका :मन का इकतारा
संजीव 'सलिल'
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
३०-५-२०१० 
****

शनिवार, 29 मई 2021

https://www.facebook.com/626532814643724/posts/821839735113030/

समीक्षा भगवत दुबे



पुस्तक चर्चा:
'बुंदेली दोहे' सांस्कृतिक शब्द छवियाँ मन मोहे
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: बुंदेली दोहे, दोहा संग्रह , आचार्य भगवत दुबे, प्रथम संस्करण २०१६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १५२, मूल्य ५०/-, ISBN ९७८-९३-८३८९९-१८-०, प्रकाशक आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, म. प्र. संस्कृति परिषद्, श्यामला हिल्स, भोपाल ४६२००२, कृतिकार संपर्क- ९३००६१३९७५]
*
विश्ववाणी हिंदी का कालजयी छंद दोहा अपनी मिसाल आप है। संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता, कालजयिता, उपयोगिता तथा लोकप्रियता के सप्त सोपानी निकष पर दोहा जन सामान्य से लेकर विद्वज्जनों तक अपनी प्रासंगिकता निरंतर बनाए रख सका है। बुंदेली के लोककवियों ने दोहे का महत्त्व पहचान कर नीतिपरक दोहे कहे. घाघ-भड्डरी, ईसुरी, जगनिक, केशव, जायसी, घनानंद, राय प्रवीण प्रभृति कवियों ने दोहा के माध्यम से बुंदेली साहित्य को समृद्ध किया। आधुनिक काल के बुंदेली दोहकारों में अग्रगण्य रामनारायण दास बौखल ने नारायण अंजलि भाग १ में ४०८३ तथा भाग २ में ३३८५ दोहों के माध्यम से साहित्य और आध्यात्म का अद्भुत समागम करने में सफलता अर्जित की है।
बौखल जी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बहुमुखी प्रतिभा और बहुविधायी स्तरीय कृतियों के प्रणेता आचार्य भगवत दुबे ने विवेच्य कृति में बुंदेली लोक जीवन और लोक संस्कृति के वैविध्य को उद्घाटित किया है। इसके पूर्व दुबे जी 'शब्दों के संवाद' दोहा संकलन में शुद्ध साहित्यिक हिंदी के अभिव्यंजनात्मक दोहे रचकर समकालिक दोहकारों की अग्रपंक्ति में स्थापित हो चुके हैं। यह दोहा संग्रह दुबे जी को बुंदेली का प्रथम सांस्कृतिक दोहाकार के रूप में प्रस्तुत करता है। 'किरपा करियो शारदे' शीर्षक अध्याय में कवि ने ईशवंदना करने के साथ-साथ लोकपूज्य खेडापति, जागेसुर, दुल्हादेव तथा साहित्यिक पुरखों लोककवियों ईसुरी, गंगाधर, जगनिक, केशव, बिहारी, भूषण, राय प्रवीण, आदि का स्मरण कर अभिनव परंपरा का सूत्रपात किया है।
'बुंदेली नौनी लगे' शीर्षक के अंतर्गत 'बुंदेली बोली सरस', 'बुंदेली में लोच है', 'ई में भरी मिठास', 'अपनेपन कौ भान' आदि अभिव्यक्तियों के माध्यम से दोहाकार ने बुंदेली के भाषिक वैशिष्ट्य को उजागर किया है। पाश्चात्य संस्कृति तथा नगरीकरण के दुष्प्रभावों से नवपीढ़ी की रक्षार्थ पारंपरिक जीवन-मूल्यों, पारिवारिक मान-मर्यादाओं, सामाजिक सहकार भाव का संरक्षण किये जाने की महती आवश्यकता है। दुबे जी ने ने यह कार्य दोहों के माध्यम से संपन्न किया है किन्तु बुंदेली को संयुक्त राष्ट्र संघ तक पहुँचाने की कामना अतिरेकी उत्साह भाव प्रतीत होता है। आंचलिक बोलिओं का महत्त्व प्रतिपादित करते समय यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे हिंदी के उन्नयन पथ में बाधक न हों। वर्तमान में भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि के समर्थकों द्वारा अपनी क्षेत्रीय बोलि हिंदी पर वरीयता दिए जाने और उस कारण हिंदी बोलनेवालों की संख्या में कमी आने से विश्व में प्रथम स्थान से च्युत होकर तृतीय होने को देखते हुए ऐसी कामना न की जाए तो हिंदी के लिए बेहतर होगा।
इस कृति में 'जेवर हैं बुन्देल के' शीर्षक अध्याय में कवि ने लापता होते जा रहे पारंपरिक आभूषणों को तलाशकर दोहों में नगों की तरह जड़ दिया है। इनमें से अधिकांश जेवर ग्राम्यांचलों में आज भी प्रचलित हैं किन्तु नगरीकरण के प्रभाव ने उन्हें युवाओं के लिए अलभ्य बना दिया है।
नौ गज की धुतिया गसैं, लगै ओई की काँछ।
खींसा बारो पोलका, धरें नोट दस-पाँच।।
*
सोन पुतरिया बीच में, मुतियन की गुनहार।
पहरै मंगलसूत जो, हर अहिबाती नार।।
*
बीच-बीच में कौडियाँ, उर घुमची के बीज।
पहरैं गुरिया पोत के, औ' गंडा-ताबीज़।।
*
इन दोहों में बुंदेली समाज के विविध आर्थिक स्तरों पर जी रहे लोगों की जीवंत झलक के साथ-साथ जीवन-स्तर का अंतर भी शब्दित हुआ है। 'बनी मजूरी करत हैं' अध्याय में श्रमजीवी वर्ग की पीड़ा, चिंता, संघर्ष, अभाव, अवदान तथा वैशिष्ट्य पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित है-
कोदों-कुटकी, बाजरा, समा, मका औ' ज्वार।
गुजर इनई में करत हैं, जुरैं न चाउर-दार।।
*
महुआ वन की लकडियाँ, हर्र बहेरा टोर।
और चिरौंजी चार की, बेचें जोर-तंगोर।।
*
खावैं सूखी रोटियाँ, नून मिर्च सँग प्याज।
हट्टे-कट्टे जे रहें,महनत ई को राज।।
*
चंद्र, मंगल और अब सूर्य तक यान भेजनेवाले देश में श्रमिक वर्ग की विपन्नावस्था चिंतनीय है। बैद हकीमों खें रओ' शीर्षक के अंतर्गत पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा, 'बनन लगत पकवान' में उत्सवधर्मी जीवनपद्धति, 'कई नेंग-दस्तूर', 'जब बरात घर सें कढ़े', 'खेलें बाबा-बाइयें', 'बधू खें चढ़े चढ़ाव', 'पाँव पखारे जांय', 'गारी गावै औरतें', 'सासू जी परछन करैं', 'गोद भराई होत है', 'मोंड़ा हों या मोंड़ियाँ', आदि अध्यायों में बुंदेली जन-जीवन की जीवंत पारिवारिक झलकियाँ मन मोह लेती हैं। दोहाकार ने चतुरतापूर्वक रीति-रिवाजों के साथ-साथ दहेज़ निषेध, कन्या संरक्षण, पक्षी संरक्षण, पौधारोपण, प्रदुषण निवारण जैसे समाज सुधारक विचारों को दोहा में पिरोकर 'सहकार में कुनैन लपेटकर खिलाने और मलेरिया को दूर करने का सार्थक और प्रभावी प्रयोग किया है।
'नौनिहाल कीआँख में', 'काजर आंजे नन्द', 'मामा करैं उपासनी', 'बुआ झालिया लेय', बुआ-सरहजें देत हैं', बाजे बजा बधाव' आदि में रिश्तों की मिठास घुली है। 'तुलसी चौरा स्वच्छ हो', 'सजे सातिया द्वार', 'आँखों से शीतल करैं', 'हरी छिछ्लती दूब', 'गौरैया फुदकत रहे', मिट्ठू सीताराम कह', 'पोसें कुत्ता-बिल्लियाँ', गाय-बैल बांधे जहाँ', 'कहूँ होय अखंड रामान', 'बुंदेली कुस्ती कला', 'गिल्ली नदा डाबरी चर्रा खो-खो खेल' आदि में जन जीवन की मोहक और जीवंत झलकियाँ हैं। 'बोनी करैं किसान', 'भटा टमाटर बरबटी', 'चढ़ा मलीदा खेत में', 'करैं पन्हैया चर्र चू', 'फूलें जेठ-असाढ़ में', 'खेतों में पानी भरे', 'पशुओं खें छापा-तिलक' आदि अध्यायों में खेती-किसानी से सम्बद्ध छवियाँ मूर्तिमंत हुई हैं। आचार्य भगवत दुबे जी बुंदेली जन-जीवन, परम्पराओं, जीवन-मूल्यों ही नहीं क्षेत्रीय वैशिष्ट्य आदि के भी मर्मज्ञ हैं। बंजारी मनिया बरम, दतिया की पीताम्बरा, खजराहो जाहर भयो, मैया को दरबार आदि अध्यायों का धार्मिक-अध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्व है। इस संग्रह के हर दोहे में कथ्य, शिल्प, कहन, सारल्य तथा मौलिकता के पंच तत्व इन्हें पठनीय और संग्रहनीय बनाते हैं। ऐसी महत्वपूर्ण कृति के प्रकाशन हेतु आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास परिषद् अकादमी भी बधाई की पात्र है।
***

नवगीत: शिरीष

 नवगीत:

शिरीष
संजीव
.
क्षुब्ध टीला
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा, पाता बुरा ही
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध 'शिरीष के फूल' है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.
२९-५-२०१६