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शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

ट्रू मीडिया रचनाकार

ट्रू मीडिया

००१. कुमार अनुपम, बी २  हाउसिंग कॉलोनी सी कंकरबाग, पटना ८०००२०, चलभाष ९४३३११७८९७७
००२. कालीपद प्रसाद मंडल, ४०३ ज्योति मीदास, राममंदिर, कोंडापुर हैदराबाद ५०००८४ चलभाष ९६५७९२७९३१
००३. राजेंद्र वर्मा, ३/२९ विकास नगर, लखनऊ २२६०२२, चलभाष ८००९६६००९६
००४. मनोज श्रीवास्तव, २/ ७८ विश्वास खंड, गोमती नगर लखनऊ
००५. गुरु सक्सेना
००६. डॉ. एम.एल. खरे, एफ २ ऋषि अपार्टमेंट, ई ६ / १२४ अरेरा कॉलोनी भोपाल ४६२०१७, चलभाष ९७५२७७७४६२
००७. डॉ. सतीश सक्सेना 'शून्य', १३४ गायत्री विहार, मयूर मार्किट, थाटीपुर ग्वालियर म. प्र. चलभाष ९८२७२२५४९९
००८. अंजू खरबंदा, २०७ द्वितीय तल, भाई परमानंद कॉलोनी, केक विला के ऊपर, में रोड दिल्ली ११०००९ चलभाष ९५८२४०४१६४ / ९८१८५६४१६४
००९. शशि त्यागी, ३८ अमरोहा ग्रीन, जोया मार्ग, अमरोहा उत्तर प्रदेश चलभाष ९०४५१७२४०२
०१०. प्रो. शरद नारायण खरे, आज़ाद वार्ड, मंडला ४८१६६१ म. प्र.चलभाष ९४२५४८४३८२
०११. अमरनाथ, अभिषेक, ४०१ ए सेक्टर १ उद्यन १, लखनऊ चलभाष
०१२. अवध शरण
०१३. राजेश अरोरा 'शलभ', से. नि. वरिष्ठ प्रबंधक एच. ए. एल., ३/४५१ ए विराम खंड, गोमती नगर, लखनऊ उ. प्र. 
०१४. मनोरंजन सहाय, ए २५, इन्द्रपुरी, लालकोठी, टौंक रोड, जयपुर, राजस्थान, चलभाष ९४६१०९३०७७
०१५. विनोद जैनवाग्वर' पंचायत समिति क़्वार्टर नं. ५, सागवाड़ा, डूंगरपुर,  राजस्थान चलभाष ९६४९९७८९८१
०१६. संध्या सिंह, डी १२२५ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चालभश ७३८८१७८४५९ / ७३७६०६१०५६
०१७. अरुण शर्मा, मानसरोवर हाउसिंग सोसायटी, फ्लैट नं. ३०१, बिल्डिंग नं. ए / २ वरला देवी तालाब के पास, भिवंडी, ठाणे ४२१३०२ महाराष्ट्र चलभाष ९६८९३०२५७२ / ९०२२०९०३८७
०१८. डॉ. विनीता राहुरीकर, चलभाष ९८२६०४४७४१
०१९. सुनीता सिंह
०२०. पुष्पा जोशी,
०२१. आभा सक्सेना, १७, तेगबहादुर मार्ग १, देहरादून २४८००१, चलभाष ९४१०७०६२०७।
०२२. मञ्जूषा 'मन'
०२३. डॉ. बाबू जोसेफ
०२४. हिमकर श्याम, बी १ शांति एन्क्लेव, कुसुम विहार, मार्ग क्रमांक ४, निकट चिरंजीवी पब्लिक स्कुल, मोराबादी रांची ८३४००८ झारखण्ड चलभाष ८६०३१७१७१०
०२५. काँति शुक्ल 'उर्मि' एम् आई जी ३५ डी सेक्टर, अयोध्या नगर, भोपाल ४६२०४१, चलभाष ९९९३०४७७२६ / ७००९५५८७१७
०२६, हरि फ़ैज़ाबादी, बी १०४ / १२ निराला नगर, लखनऊ २२६०२० चलभाष ९४५०४८९७८९
०२७. श्रीधर प्रसाद द्विवेदी, अमरावती,  गायत्री मंदिर मार्ग, सुदना, डाल्टनगंज, पलामू ८२२१०२, झारखंड चलभाष ९४३१५५४४२८ / ९९३९२३३९३
०२८. सुजीत महाराज, नया साकेत नगर, रुस्तमपुर, गोरखपुर, उ. प्र., चलभाष  ९८३८७६२०१०
०२९ डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', सानिंध्य ८१७ महावीर नगर, २, कोटा राजस्थान ३२४००५ चलभाष ७४४२४२४८४८ / ७७२८८२४८१७ / ८२०९४८३४७७
०३०. डॉ. प्रकाशचंद्र फुलोरिआ, ९३७ सेकर २१ सी, फरीदाबाद १२१००१ हरियाणा दूरभाष : ०९९१०३८४०९९, ०१२९४०८४०९९
०३१. लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला, १६५ गंगोत्री नगर, गोपालपुरा, टोंक रोड, जयपुर ३०२०१८, चलभाष ९३१४२४९६०८
०३२. रीता सिवानी, ए ९५ द्वितीय तल, सेक्टर १९ नोएडा २०१३०१ चलभाष ९६५०१५३८४७
०३३. रामकिशोर उपाध्याय
०३४. डॉ. अनिल जैन बी ४७ वैशाली नगर, दमोह ४७०६६१ चलभाष ९६३०६३११५८
०३५. शशि पुरवार
०३६. सरस्वती कुमारी गवर्नमेंट मिडिल स्कूल, ईटानगर, ७९११११ जिला पापुंपारे अरुणांचल प्रदेश चलभाष ७००५८८४०४६
०३७. अनिल जी खंडेलवाल, ५३ अनूप नगर, निकट यूको बैंक, इंदौर म.प्र.
०३८. ओमप्रकाश शुक्ल, १२२ गली ४/७, सी.आर.पी.ऍफ़. कैम्प के सामने, बिहारीपुर विस्तार, दिल्ली ११००९४ चलभाष ९७१७६३४६३१ / ९६५४४७७११२
०३९. देवकी नंदन 'शांत',१०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६ चलभाष ९९३५२१७८४१ / ८८४०५४९२९६
०४० विजय 'प्रशांत', ई २/२/४/सेक्टर १५ रोहिणी दिल्ली
०४१. सुमन श्रीवास्तव
०४२ ज्योति मिश्रा
०४३. महातम मिश्रा, ग्राम-भरसी, पोस्ट-डाड़ी, जिला गोरखपुर २७३४२३ उत्तर प्रदेश ।चलभाष: ९४२६५ ७७१३९ (वाट्सएप), ८१६०८७ ५७८३
०४४. नवीन चतुर्वेदी  099670 24593
०४५. लता यादव
०४६. सुषमा शैली
०४७. डॉ. वीर सिंह मार्तण्ड दिए १, ९४ / ए पश्चिम पुटखाली, मंडलपाड़ा, पोस्ट दौलतपुर, व्हाया विवेकानंद पल्ली, कोलकाता ७००१३९ चलभाष ९८३१०६२३६२
०४८. डॉ. श्याम गुप्ता
०४९ ओमप्रकाश शुक्ल। १२२ गली ४/७, सी.आर.पी.ऍफ़.कैम्प के सामने, बिहारीपुर विस्तार दिल्ली ११००९४, चलभाष : ९७१७६३१, ९६५४४७७११२


५०. अरुण अर्णव खरे, डी १/३५ डेनिश नगर, होशंगाबाद मार्ग, भोपाल ४६२०२६, चलभाष ९८९३००७७४४
५१. डॉ, जगन्नाथ प्रसाद बघेल, डी २०४ प्लेजेंट पार्क, दहिसर पल के पास, दहिसर पश्चिम मुंबई ४०००६८ चलभाष ९८६९०७८४८५ /९४१०६३९३२२
५२. रामलखन सिंह चौहान 'भुक्कड़' झिरिया मोहल्ला, वार्ड ११, उमरिया ४८४६६१, चलभाष ९१३१७९८३४२
५३. प्रो विशम्भर शुक्ल, ८४ ट्रांस गोमती, त्रिवेणी नगर प्रथम, समीप डॉलीगंज रेलवे क्रॉसिंग, लखनऊ २२६०२० चलभाष ९४१५३२५१४६
५४. नीता सैनी, जगदंबा टेंट हाउस, ेल ५०५/४ शनि बाजार, संग मनिहार, नई दिल्ली ८० चलभाष ८५२७१८९२८९
५५. डॉ. नीलमणि दुबे, मोदी नगर, रीवा मार्ग, शहडोल ४८४००१ चलभाष ९४०७३२४६५०
५६. रामकुमार चतुर्वेदी, श्री राम आदर्श विद्यालय, शहीद वार्ड सिवनी ४८०६६१ चलभाष ९४२५८८८८७६ / ७००००४१६१०
५७. शुचि भवि, बी ५१२, स्ट्रीट ४ स्मृति नगर, भिलाई ४९००२० दुर्ग छत्तीसगढ़ चलभाष ९८२६८०३३९४
५८. चंद्रकांता अग्निहोत्री, ४०४ सेक्टर ६ पंचकूला १३४१०९ हरियाणा चलभाष ९८७६६५०२४८
५९. छगनलाल गर्ग 'विज्ञ', २ डी ७८ राजस्थान अवसान मंडल, आकरा भत्ता, आबू मार्ग, सिरोही ३०७०२६ चलभाष ९४६१४४९६२०
६०. प्रेम बिहारी मिश्र सी ५०१ चित्रकूट अपार्टमेंट्स प्लाट ९, सेक्ट २२, द्वारका नई दिल्ली ११००७७ चलभाष ९७११८६०५१९
६१. रामेश्वर प्रसाद सारस्वत, १०० पंत विहार, सहारनपुर ु.पर. चलभाष ९५५७८२८९५०
६२. विजय बागरी, बड़ा कछारगाँव, कटनी ४८३३३४ चलभाष ९६६९२५१३१९
६३. श्यामल सिन्हा, जे ३११ जलवायु टॉवर्स, सेक्टर ५६, गुड़गांव १२२०११ चलभाष ०१२४४३७७७७३ / ९३१३१११७१०९
६४. डॉ. रमेशचंद्र खरे श्यामायण एम आई जी बी ७३ विवेकानंद नगर दमोह ४७०६६१ चलभाष ९८९३३४०६०४
६५. डॉ. रंजना गुप्ता, सी १७२ निराला नगर लखनऊ चलभाष ९९३६३८२६६४
६५. धीरज श्रीवास्तव ए २५९ संचार विहार कॉलोनी, आई टी आई मनकापुर, गोंडा २७१३०८ उ. प्र. चलभाष ८८५८००१६८१ / ७८०००६७८९०
६६, बबिता चौबे  माँगंज वार्ड ३, निकट स्टेशन दमोह ४७०६६१ चलभाष ९६४४०७५८०९ / ९८९३६०३४७५
६७. हरिवल्लभ शर्मा, ७ डी / ४०२ रीगल टाउन, अवधपुरी पिपलानी भेल भोपाल ४६२०२२ चलभाष
५०. अनिल कुमार मिश्र, आवास क्रमांक बी ५८, ९ वीं कॉलोनी, उमरिया ४८४६६१, चलभाष ९४२५८९१७५६
५१. राहुल शिवाय, सरस्वती निवास, चटी रोड, रतनपुर, बेगूसराय ८५११०१ चलभाष ८२९५४०९६४९
५२. कांता रॉय सी २१ सुभाष कॉलोनी, गोविंदपुरा, भोपाल ४६२०२३ चलभाष ९५७५४६५१४७
५३ सदाशिव कौतुक, १५२० सुदामा नगर, इंदौर ४५२००९ चलभाष ४८२९४२४८२२५९
५४. हरेराम नेमा 'समीप' ३९५ सेक्टर ८, फरीदाबाद १२१००६ चलभाष ९८७१६९१३१३
५५. कैलाश त्रिपाठी शिवकुटी आर्यनगर, अजीतमल, औरैया उ. प्र. दूरभाष ०५६८३२८४५६१
५६. डॉ. हरेराम त्रिपाठी चेतन, स्वाध्याय, न्यू एरिआ, मोरहाबादी, रांची ८३४००८ झारखंड 
५७. बैकुण्ठनाथ ए १ परिक्रमा फ्लैट्स, सरकारी ट्यूब वेल के पास, बोपल, अहमदाबाद ३८००५८ चलभाष ९७२५६०२७३४
५८. योगराज प्रभाकर, ऊषा विला, ५३ रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला १४७००२ चलभाष ९८७२५६८२२८
५९. डॉ. भावना शुक्ल, WZ / २१ हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर, नई दिल्ली ११००५६ चलभाष ९२७८७२०३११
६०. ममता शर्मा, ए ६०४ शोभा विंडफॉल १५-अमृत हल्ली बेंगलुरु ५६००९२
६१. क्रांति कनाते द्वारा डॉ. संजय येवतीकर डाकघर के सामने सनावद खरगोन ४५११११
६२ ओमप्रकाश यति एच ८९ बीटा २ ग्रेटर नोएडा २०१३०८ चलभाष ९९९९०७५९४२
६३.







































































सूचना सरस्वती स्तवन


विश्ववाणी हिंदी संस्थान
४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१
***
१११ सरस्वती वंदनाओं का संग्रह शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। अपनी लिखी सरस्वती वंदना भेज सकते हैं। संकलित वंदना के साथ रचनाकार व स्रोत अवश्य लिखें अन्य भारतीय भाषाओँ में सरस्वती वंदना हिंदी अनुवाद सहित भेजें। हर सहभागी को २ प्रतियाँ ४०% रियायती मूल्य पर निशुल्क डाक सुविधा सहित उपलब्ध कराई जाएँगी। राशि रचना स्वीकृत होने पर निर्दिष्ट बैंक खाते में भेजना होगी। संपादक ख्यात छंदशास्त्री 'अब विमल मति दे' के रचतिया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' हैं। संपर्क- salil.sanjiv@gmail.com / ७९९९५५९६१८

बुधवार, 7 अगस्त 2019

लघुकथा : सूरज दुबारा डूब गया

लघुकथा :
सूरज दुबारा डूब गया
*
'आज सूरज दुबारा डूब गया', बरबस ही बेटे के मुँह से निकला।
'पापा गलत कह रहे हो,' तुरंत पोती ने कहा।
'नहीं मैं ठीक कहा रहा हूँ। '
'ठीक नहीं कह रहे हो।'
पोती बहस करने पर उतारू दिखी तो बाप-बेटी की बहस में बेटी को डाँट न पड़ जाए यह सोच बहू बोली 'मुनिया, बहस मत कर, बड़ों की बातें तू क्या समझे?'
'ठीक है, मैं न समझूँ तो समझाओ, चुप मत कराओ।'
'बेटे ने मोबाइल पर एक चित्र दिखाते हुए कहा 'देखो इनके माथे पर सूरज चमक रहा है न?'
'हाँ, पूरा चेहरा सूरज की रौशनी से जगमगा रहा है।'
तब तक एक और चित्र दिखाकर बेटे ने कहा- 'देखो सूरज पहली बार डूब गया।'
पोती ने चित्र देख और उसके चेहरे पर उदासी पसर गयी।
अब बेटे ने तीसरा चित्र दिखाया और कहा 'देखो सूरज फिर से निकल आया न?'
यह चित्र देखते ही पोती चहकी 'हाँ, चहरे पर बिलकुल वैसी ही चमक।'
बेटा चौथा चित्र दिखा पाता उसके पहले ही पोती बोल पडी 'पापा! सच्ची सूरज दुबारा डूब गया।'
बेटा पोती को लेकर चला गया। मैंने प्रश्न वाचक दृष्टि से बहू को देखा जो पोती के पीछे खड़ी थी। पिता जी! पहला चित्र शास्त्री जी और ललिता जी एक था, दूसरा ताशकंद में शास्त्री जी को खोने के बाद ललिता जी का और तीसरा सुषमा स्वराज जी का।
मैं और बहू सहमत थे की सूरज दुबारा डूब गया।
*

राष्ट्रनेत्री सुषमा स्वराज के प्रति भावांजलि

राष्ट्रनेत्री सुषमा स्वराज के प्रति भावांजलि
* शारद सुता विदा हुई, माँ शारद के लोक धरती माँ व्याकुल हुई, चाह न सकती रोक * सुषमा से सुषमा मिली, कमल खिला अनमोल मानवता का पढ़ सकीं, थीं तुम ही भूगोल * हर पीड़ित की मदद कर, रचा नया इतिहास सुषमा नारी शक्ति का, करा सकीं आभास *
पा सुराज लेकर विदा, है स्वराज इतिहास सब स्वराज हित ही जिएँ, निश-दिन किए प्रयास * राजनीति में विमलता, विहँस करी साकार ओजस्वी वक्तव्य से, दे ममता कर वार * वाक् कला पटु ही नहीं, कौशल का पर्याय लिखे कुशलता के कई, कौशलमय अध्याय *
राजनीति को दे दिया, सुषमामय आयाम भुला न सकता देश यह, अमर तुम्हारा नाम * शब्द-शब्द अंगार था, शीतल सलिल-फुहार नवरस का आगार तुम, अरि-हित घातक वार * कर्म-कुशलता के कई, मानक रचे अनन्य सुषमा जी शत-शत नमन, पाकर जनगण धन्य *
शब्दों को संजीव कर, फूँके उनमें प्राण दल-हित से जन-हित सधे, लोकतंत्र संप्राण * महिमामयी महीयसी, जैसा शुचि व्यक्तित्व फिर आओ झट लौटकर, रटने नव भवितव्य * चिर अभिलाषा पूर्ति से, होकर परम प्रसन्न निबल देह तुमने तजी, हम हो गए विपन्न *
युग तुमसे ले प्रेरणा, रखे लक्ष्य पर दृष्टि परमेश्वर फिर-फिर रचे, नव सुषमामय सृष्टि * संजीव ७-८-२०१९

लघुकथा शर संधान, निज स्वामित्व, दूषित वातावरण

लघुकथा 
शर संधान 
*
आजकल स्त्री विमर्श पर खूब लिख रही हो। 'लिव इन' की जमकर वकालत कर रहे हैं तुम्हारी रचनाओं के पात्र। मैं समझ सकती हूँ। 
तू मुझे नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा?
अच्छा है, इनको पढ़कर परिवारजनों और मित्रों की मानसिकता ऐसे रिश्ते को स्वीकारने की बन जाए उसके बाद बताना कि तुम भी ऐसा करने जा रही हो। सफल हो तुम्हारा शर-संधान।
***

लघुकथा 
निज स्वामित्व 
*
आप लघुकथा में वातावरण, परिवेश या पृष्ठ भूमि क्यों नहीं जोड़ते? दिग्गज हस्ताक्षर इसे आवश्यक बताते हैं। 
यदि विस्तार में जाए बिना कथ्य पाठक तक पहुँच रहा है तो अनावश्यक विस्तार क्यों देना चाहिए? लघुकथा तो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कहने की विधा है न? मैं किसी अन्य विचारों को अपने लेखन पर बन्धन क्यों बनने दूँ। किसी विधा पर कैसे हो सकता है कुछ समीक्षकों या रचनाकारों का निज स्वामित्व? 
***

लघुकथा
दूषित वातावरण
*
अपने दल की महिला नेत्री की आलोचना को नारी अपमान बताते हुए आलोचक की माँ, पत्नि, बहन और बेटी के प्रति अपमानजनक शब्दों की बौछार करते चमचों ने पूरे शहर में जुलूस निकाला। दूरदर्शन पर दृश्य और समाचार देख के बुरी माँ सदमें में बीमार हो गयी जबकि बेटी दहशत के मारे विद्यालय भी न जा सकी। यह देख पत्नी और बहन ने हिम्मत कर कुछ पत्रकारों से भेंट कर विषम स्थिति की जानकारी देते हुए महिला नेत्री और उनके दलीय कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा किया।
कुछ वकीलों की मदद से क़ानूनी कार्यवाही आरम्भ की। उनकी गंभीरता देखकर शासन - प्रशासन को सक्रिय होना पड़ा, कई प्रतिबन्ध लगा दिए गए ताकि शांति को खतरा न हो। इस बहस के बीच रोज कमाने-खानेवालों के सामने संकट उपस्थित कर गया दूषित वातावरण।
***


लघुकथा बेपेंदी का लोटा

लघुकथा
बेपेंदी का लोटा
*
'आज कल किसी का भरोसा नहीं, जो कुर्सी पर आया लोग उसी के गुणगान करने लगते हैं और स्वार्थ साधने की कोशिश करते हैं। मनुष्य को एक बात पर स्थिर रहना चाहिए।' पंडित जी नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे।

प्रवचन से ऊब चुका बेटा बोल पड़ा- 'आप कहते तो ठीक हैं लेकिन एक यजमान के घर कथा में सत्यनारायण भगवान की जयकार करते हैं, दूसरे के यहाँ रुद्राभिषेक में शंकर जी की जयकार करते हैं, तीसरे के निवास पर जन्माष्टमी में कृष्ण जी का कीर्तन करते हैं, चौथे से अखंड रामायण करने के लिए कह कर राम जी को सर झुकाते हैं, किसी अन्य से नवदुर्गा का हवन करने के लिए कहते हैं। परमात्मा आपको भी तो कहता होंगे बेपेंदी का लोटा।'
******
संजीव
७९९९५५९६१८ 

ज्योतिष / वास्तु जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र

ज्योतिष / वास्तु 
जन्म लग्न, रोग और भोजन पात्र -
मेष, सिंह, वृश्चिक लग्न- ताँबे के बर्तन पित्त, गुरदा, ह्रदय, श्रम भगंदर, यक्ष्मा आदि रोगों से बचायेंगे।
मिथुन, कन्या, धनु, मीन लग्न- स्टील के बर्तनों से अनिद्रा, गठिया, जोड़ दर्द, तनाव, अम्लता, आंत्र दोष की संभावना। कांसे के बर्तन लाभदायक।
वृष, कर्क, तुला लग्न - स्टील के बर्तनों से आँख, कान, गले, श्वास, मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं। चाँदी - पीतल मिश्र धातु का प्रयोग लाभप्रद। 
मकर लग्न - किसी धातु के साथ लकड़ी के पात्र का प्रयोग वायु दोष, चर्म रोग, तिल्ली, उर्वरता, स्मरण शक्ति हेतु फायदे मन्द।
कुम्भ लग्न - स्टील पात्र लाभप्रद, मिट्टी के पात्र में केवड़ा मिला जल लाभदायक।
***

चित्रगुप्त पूजन

चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

पुरोवाक - हौसलों ने दिए पंख गीतिका संग्रह आकुल

ॐ 
पुरोवाक 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्ववाणी हिंदी का साहित्य सृजन विशेषकर छांदस साहित्य इस समय संक्रमण काल से गुजर रहा है। किसी समय कहा गया था -  

सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास 
अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करात प्रकास 

जिन्हें 'उडुगन' अर्थात जुगनू कहा गया उन्हें आदर्श मान कर आज का कवि अपनी सृजन यात्रा आरम्भ करता है।  वे जुगनू जो रच साहित्य रच गए हैं उसकी थाह पाना आज के महारथियों के लिए भी मुमकिन है। कबीर, रहीम, रसखान, वृन्द, भूषण, घनानंद, देव, जायसी, प्रसाद, निराला, दद्दा, महीयसी, पंत, नेपाली, बच्चन, भारती, सुमन आदि-आदि यदि 'जुगनू' हैं तो आज के कवियों को क्या कहा जाए? 

स्वातन्त्र्योत्तर काल में किताबी पढ़ाई को शिक्षा और भौतिक सुविधाओं को विकास मानने की जिस मरीचिका का विस्तार हुआ उसने 'सादा जीवन उच्च विचार' की जीवन शैली को कहीं का नहीं छोड़ा। साहित्यकार भी समाज का ही अंग होता है। कुँए में ही भाँग घुली हो तो होश में कौन मिलेगा? राजनैतिक समीकरणों को साधकर सत्ता पाने को ही लक्ष्य मान लेने का दुष्परिणाम जटिल भाषा समस्या के रूप में आज तक सामने है। हिंदी को राजभाषा बनाने के बाद भी एक भी दिन हिंदी में राज ने काम नहीं किया। भारत विश्व का एकमात्र देश है जहाँ  की न्यायपालिका राजभाषा को 'अस्पृश्य' मानती है। पूर्व स्वामियों की भाषा बोलकर खुद को श्रेष्ठ समझने की मानसिकता ने ऐसी कॉंवेंटी पीढ़ियाँ खड़ी कर दीं जिन्हें हिंदी बोलने में 'शर्म' ही नहीं आती, हिंदी बोलनेवालों से 'घिन' की प्रतीति भी होती है। 

हर पारम्परिक विरासत को दकियानूसी कहकर ठुकराने और नकारने की मानसिकता ने समाज को वृद्धाश्रमों के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है तो साहित्य को 'अहं'-पोषण का माध्यम मात्र बना दिया है। पंडों-झंडों और डंडों की दलबंदी राजनीति ही नहीं, साहित्य में भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। एक समूह छंद-मुक्ति की दुहाई देते हुए छंद-हीनता तक जा पहुँचा और गीत के मरने की घोषणा करने के बाद भी जनगण द्वारा ठुकरा दिया गया। साम्यवादी दुष्प्रभाव के कारण व्यंग्य लेख, लघुकथा और नवगीत को विसंगति, वैषम्य, टकराव, बिखराव, शोषण और अरण्यरोदन का पर्याय कहकर परिभाषित किया गया। जिस साहित्य को 'सर्व जन हिताय और सर्व जन सुखाय' का लक्ष्य लेकर 'सत-शिव-सुंदर' और 'सत-चित-आनन्द' हेतु रचा जाना था, उसे 'स्यापा' और  'रुदाली' बनाने का दुष्प्रयास किया जाने लगा। 

उत्सवधर्मी भारतीय जन मानस के प्राण 'रस' में बसते हैं। 'नीरसता' को साध्य मानते साहित्य शिक्षा के प्रसार तथा नवपूँजीपतियों की यशैषणा ने साहित्य में रचनाकारों की बारह ला दी। लंबे समय तक अपनी दुरूहता और पिंगल ग्रंथों की अलभ्यता के कारण छंद प्रदूषण, लूट-खसोटी और छीना-झपटी से बचा रहा। मुद्रण के साधन सहज होते ही असंख्य रचनाकारों ने प्रतिदिन हजारों पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाओं से जन-मन को आक्रांत कर दिया। अब पैसा-पैसा जोड़कर के किताब खरीदना और उसे बार-बार पढ़ना और पढ़वाना, घर में 'पुस्तक' को सजाना, विवाह में दहेज़ के सामान के साथ 'किताब' देना बंद हो गया और स्थिति यह है कि पुस्तक विमोचन के पश्चात् महामहिम जन उन्हें मंच या अपने कक्ष में ही फेंक जाते हैं। इससे पुस्तकों में प्रकाशित सामग्री के स्तर और उपयोगिता का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि में हिंदी गीति साहित्य में छंद विधाओं के विकास और मान्यता को देखना चाहिए।    
  
हिंदी पिंगल की सर्वमान्य कृति जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' रचित 'छंद प्रभाकर' वर्ष १८९४ में प्रकाशित हुई थी। इसमें शास्त्रार्थ परंपरानुसार पांडित्य प्रदर्शन के साथ लगभग ७१५ छंदों का सोदाहरण प्रकाशन हुआ। तत्पश्चात लगभग हर दशक में एक-दो पुस्तकें प्रकाशित होती रहीं। अधिकांश छंदाचार्यों ने कुछ छंदों पर कार्य कर तथा कुछ ने भानु जी द्वारा दिए छंदों के उदाहरण बदलकर संतोष कर लिया। छंद की वाचिक परंपरा गाँवों में शहरों के अतिक्रमण ने समाप्त कर दी। छन्दाधारित चित्रपटीय गीतों के स्थान पर पाश्चात्य मिश्रित धुनों ने नव पीढ़ी तो छंदों से दूर कर दिया। हिंदी के प्राध्यापकों का छंद से कोई वास्ता ही नहीं रहा। स्थापित छंदों पर अपनी मान्यताएँ थोपने, महाकवियों के सृजन को दोषपूर्ण बताने और पूर्व छंदों के अंश की २-३ आवृत्ति (जनक) बताने, चित्र अलंकार की एक आकृति (पिरामिड) को नया छंद बताने का कौतुक आत्म तुष्टि के लिए किया जाने लगा। संस्कृत छंदों और शब्दों के फारसी में जाने पर उनका फ़ारसी रूपांतरण 'बह्र' नाम से किया गया। भारतीय शब्दों के स्थान पर फ़ारसी शब्द प्रयोग किये गए। कालांतर में विदेशी आक्रान्ताओं के साथ फ़ारसी के शब्द और काव्य सीमावर्ती भारतीय भाषाओँ के साथ घुल-मिलकर उर्दू नाम ग्रहणकर भारतीय छंदों पर श्रेष्ठता जताने लगे। फ़ारसी ग़ज़ल के चुलबुलेपन और सरल रचना प्रक्रिया ने रचनाकारों को आकृष्ट किया। ग़ज़ल को फ़ारसीपण से मुक्त कर भारतीय परिवेश से जोड़ने की कोशिश ने हिंदी ग़ज़ल की  राह अलग बना दी। जीवन हुए जमीन से जुड़कर हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल ने स्वीकार नहीं किया। इस कशमकश ने हिंदी ग़ज़ल की स्वतंत्र पहचान बनाने हुए उर्दू उस्तादों द्वारा खारिज किये जाने से बचाने के लिए गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, अणु गीत आदि नाम दिला दिए। गीत का लघु रूप गीतिका और मुक्तक का विस्तार मुक्तिका।गीतिका नाम से हिंदी पिंगल में वर्णिक और  मात्रिक दो छंद भी हैं। हिंदी ग़ज़ल के रचनाकार दो हिस्सों में बँट गए कुछ ग़ज़ल को ग़ज़ल कहते हुए उर्दू खेमे में हैं। यह स्थिति आदर्श नहीं है पर इसका समाधान समय ही देगा।

रचनाकारों  का धर्म रचना करना है। पिंगल शास्त्री छंद के विकास और नामांतरण को सुलझाते रहेंगे। इस सोच को लेकर वीर भूमि राजस्थान की परमाणु नगरी कोटा के ख्यात रचनाकार डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल' सतत सृजन रत हैं। गीतिका को लेकर श्री ॐ नीरव और श्री विशम्भर शुक्ल सृजन रत हैं।

नीरव जी के अनुसार 'गीतिका एक ऐसी ग़ज़ल है जिसमें हिंदी भाषा की प्रधानता  हो, हिंदी व्याकरण की अनिवार्यता हो और पारम्परिक मापनियों के साथ छंदों का समादर हो। १ नीरव जी के अनुसार मात्रा भार, तुकांत विधान, मापनी, आधार छंद आदि गीतिका के तत्व हैं।

शुक्ल जी  के अनुसार "गीतिका ग़ज़ल ,जैसी है, ग़ज़ल नहीं है.... हर ग़ज़ल गीतिका गीतिका है पर हर गीतिका ग़ज़ल नहीं है।' २ वे गीतिका के दो रूप छंद-मापनी युक्त तथा छंद-मापनीमुक्त मानते हैं।

आकुल जी गीतिका को 'छोटा गीत' मानते हुए पद्यात्मकता तथा न्यूनतम पद-युग्म दो लक्षण बताते हैं। ३ आकुल जी के अनुसार गीतिका के पहले दो युग्म मुक्तक का निर्माण करते हैं और मुक्तक को अन्य युग्मों के साथ बनाई गयी रचना गीतिका है।

सामान्यत: पश्चातवर्ती का परिचय पूर्वव्रती के संदर्भ से दिया जाता है। अमुक फलाने का पोता है। पूर्ववर्ती के नाम से पश्चात्वर्ती का परिचय नहीं दिया जा सकता। रचना पहले मुक्तक ही रचा जाता है। मुक्तक की अंतिम दो पंक्तियों के  पंक्तियाँ जोड़ते जाने पर बनी रचना को मुक्तिका कहने का तो आधार है, गीतिका कहने का नहीं है। गीत के अंग मुखड़ा और अंतरा हैं। अंतरे के अंत में मुखड़े समान पंक्ति रखकर मुखड़े आवृत्ति की जाती है।
ऐसा गीतिका में नहीं होता। अस्तु, नामकरण समय के हवाले कर रचनामृत का पान करना श्रेयस्कर है।

आकुल जी ने ३४ मापनियों पर आधारित सौ तथा मापनी मुक्त सौ कुल दो सौ रचनाओं को इस संग्रह में स्थान दिया है। कृति का वैशिष्ट्य 'छंद आधारित प्रख्यात रचनाएँ' आलेख है जिसमें कुछ प्रसिद्ध चित्रपटीय गीतों  का उल्लेख है। इससे नव रचनाकारों को उस मापनी के छंद को लयबद्ध कर गेयतायुक्त करने में सहजता हो सकती है। उल्लेखनीय है कि एक ही मापनी पर आधारित गीति रचनाओं की लय में भिन्नता सहज दृष्टव्य है। इसका कारण यति संख्या, यति स्थान, कभी-कभी आलाप, शब्द-युति, तथा कल विभाजन है। इन रचनाओं को गुनगुनाने  होता है कि आकुल जी ने इन्हें 'लिखा' नहीं, तन्मय होकर 'रचा' है। इसीलिए इनकी मात्रा गणना किताबी नहीं वाचिक परंपरा का पालन करती है। पहली रचना ही इस तथ्य को स्पष्ट कर देती है। 
छंद- अनंगशेखर
मापनी- 12122 12122 12122 12122
पदांत- है बारिशों की
समांत- आयें
चमक रही है गगन में’ बिजली, घिरी घटायें हैं' बारिशों की.
लुभा रही है, चमन में’ ठंडी, चली हवायें,हैं’ बारिशों की  

गुरु उच्चार को  ' द्वारा इंगित करना दर्शाता है कि आकुल जी रचना कर्म की शुद्धता के प्रति कितने सजग हैं।
आकुल जी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। वे किताबी भाषिक शुद्धता के पक्षधर नहीं हैं। लोकोक्ति है 'ताले चोरों नहीं शरीफों के लिए होते हैं।' इसी बात को आकुल जी अपने अंदाज़ में कहते हैं - 
चौकसी, ताले​ हैं फिर भी ​चोरियाँ
चोर को ताले नहीं प्रहरी नहीं 

अंग्रेजी की कहावत 'ऑल इस फेयर इन लव एन्ड वार' का उपयोग करते हुए आकुल कहते हैं- 
युद्ध में अरु प्रेम में जायज है' सब,
है जुनूं तो है झुका संसार भी.

भाषिक समन्वय - 

आकुल जी भाषिक समन्वय के समर्थक हैं। उनके दादुर और पखेरू अदावतों समुंदरों और दुआओं से परहेज नहीं करते। - पृष्ठ २० 

जीवन सुख-दुःख, जीत-हार और धूप-छाँव का संगम है। आकुल जी इस जीवन दर्शन को जानते और  जीत में मिलती रही है हार भी तथा संग फूलों के मिलेंगे ख़ार भी जैसी पंक्तियों से व्यक्त करते हैं। 

दौरे दुनिया एक दूसरे को अधिक से अधिक चोट पहुँचाने का है। आकुल इस रहे-रस्म के कायल नहीं हैं- 
लेखनी से तू कभी ना, दद4 दे,
जो न कर पाये भलाई, ग़म न कर

नीतिपरकता -
हिंदी साहित्य में नीति के दोहे कहने का चलन है। संस्कृत में सुभाषित और अंगरेजी में कोट्स की परंपरा है। आकुल जी नीति की बात भी इस तरह कहते हैं की वह ुपदेश न लगे- 
तू उड़ान बाज सी भरना सदा.
हौसला फौलाद सा रखना सदा.
बात हो तलवार क तो ढाल से,
वार हो तो घात से बचना सदा.
जोश म बरसात सा आवेश हो,
शांत िनझ4र सा नह' बहना सदा.
T यान म बक कोिशश हो काक सी,
च' टय सा कम4रत रहना सदा.
*
कर सको तो Wोध पर काबू करो,
मौन को आदत बनाना चािहए
*
लोकगायन, नृS य, झूले,
उS स घर घर म मनाना.
है यही सं%कृित हमारी,
गीत %वागत म सुनाना

जीवन दर्शन 

ज़िंदगी के फ़लसफ़ों को काव्य पंक्तियों में ढालने आकुल सानी नहीं है -
<ार_ ध म है उतना िमलेगा, कोई भरेगा नह' Bजदगी म ,
V यादा न आशा करना कभी भी, ये Bजदगी म छलती रहेगी.

मुहावरों का सटीक प्रयोग 
कहावतों, लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में जान पड़ जाती है। आकुल जी यह भली-भांति जानते हैं। 'कहावत मन चंगा तो कठौती में गंगा' का गीतिकाकरण देखिए। 
न जा सक जो ह रdार गंगा,
भर क चंगा मन हो कठौती. 
*
जैसे ही’ चार होत' आख लग' िमलाने,
किलयाँ कई दवानी भँवरे लग' रझाने
*
साँच को भी आँच ना हो
सS य क भी जाँच ना हो.

सार नहीं श्रृंगार बिन 
जीवन में श्रृंगार रास का अपना महत्व है। यह सत्य 'गोपाल कृष्ण' से बेहतर कौन जान सकता है। उन्हें इसीलिये लीला बिहारी कहा जाता है की वे रास में प्रवीण हैं और रस रंग के पर्याय हैं- 
मान रख आना पड़ा मुझको ते’री मनुहार पर.
ह सम\पत गीितका मेरी ते’रे शृंगार पर.
शोभते मिणबंध, कंकण, उर कनक हारावली,
कंचुक का भेद िलखती व\णका अिभसार पर.
(प यौवन को िलखूँ, गजगािमनी हो नाियका,
पंिiका कैसे िलखूँ म ^ककणी यलगार पर.
रेशमी पM लव X यिथत ह , हाथ म थामे $ए
कण4फूल से सजी अलकाव ली ह dार पर.
अंगराग से $ई सुरिभत ते’री मह फल ि<ये,
धj य म जो िलख सका इक गीितका गुलनार पर.
*
<ेम का संदेश प$ँचाय िeितज ​​तक लो चलो,
पा सको तो जीत लो मन उड़ सकोगे D यार सँग.
कM पना के लोक क , प रकM पना है <ेम ही,
िलख सको िलख आना’ इक पैगाम तुम भी D यार सँग.

रंगों की रंगीनियां 
उत्सवधर्मी भारतीय मानस प्रकृति में बिखरे रंगों को भावनाओं, कामनाओं और मानवीय प्रवृत्तियों से जोड़ता है। लाल-पीला होना, रतनारी आँखें, मन हरियाना, पीला पड़ना आदि में रंग ही परिस्थिति बता देते हैं। इस मनोविज्ञान से आकुल जी अपरिचित नहीं हैं- 
रंग हो सूखा गुलाबी लाल पीला केसरी,
ह सभी बस रंग काला पोतने का डर न हो.

शब्दवृत्ति 
शब्द सौंदर्य से भाव और लय दोनों का चारुत्व बढ़ता है। रचना में गीतिमयता की वृद्धि उसे श्रवणीयता संपन्न करते है। शब्दावृत्ति से भाषिक सौंदर्य उत्पन्न करने का उदाहरण देखिए- 
चलना सँभल-सँभल के, यह Bजदगी समर है.
फूल का मत समझना, काँट भरा सफर है.
*
है वो सुखी यहाँ पर, चलता रहे समय सँग,
रखता कदम-कदम को, जो फूँक-फूँक कर है.

 शब्द युग्म - 
शब्द युग्म से आशय दो या अधिक शब्दों का प्रयोग है जो एक साथ प्रयोग किये जाते हैं। ये कई प्रकार के होते हैं। कभी दोनों शब्द समानार्थी होते हैं, कभी भिन्नार्थी, कभी पूरक, कभी विपरीत, कभी निरर्थक भी - 
कर गुजर भूल जा िगले-िशकवे,
एक दन तो बरफ िपघलती है
*
yंथ कहते िपता <जापित है.
माँ-िपता के िबना नह' गित है.
_
छw-छाया रहे सदा इनक ,
सृिO क दी अमूM य सL पित है.
*
धम4 एवं सSय क हो जीत यह,
सu यता-सं% कृित हमारी हो सदा.
*
बुिIमS ता, शौय4 अ7 धन-धाj य हो,
िमwता उससे भी’ भारी हो सदा

कर्म योग 
गीता का कर्म योग सिद्धांत 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' आकुल जी को प्रिय -है 
कर िमलेगा Qम सदा, <ितफल तुझे,
तीथ4 जाके पाप तू, धोना नह'
*
धरे हाथ पर हाथ बैठे रहोगे.
अगर दो कदम भी न आगे बढ़ोगे.
िमलेगी नह' मंिजल जान लो तुम,
हमेशा सफर म अकेले चलोगे.

सामाजिक सद्भाव 
वर्तमान में समाज में घटता सद्भाव, एक दूसरे के प्रति द्वेष भाव आकुल जी को चिंतित करता है- 
गरीब भी रह दुखी,
अमीर के <भाव से
नह' सुखी अमीर भी
दुखी रह तनाव से

वे परिस्थिति को सुधरने की राह भी ेदीखते हैं 
न सीख ल न सीख द
खुशी व खूब चाव से
अमोल Bजदगी िमली
रह िजय िनभाव से

इस भौतिकताप्रधान समय में भोगवासना में फंसकर मनुष्य भक्ति भाव भूल रहा है। आकुल जी जानते हैं कि भक्ति ही सही राह है- 
आओ सभी दरबार म आओ,
माँ को चुन रया तो चढ़ानी है.
िनत ड|िडयाँ गरबा कर सारे,
माँ को रझाएँ मातरानी है.
समृिI सुख वरदाियनी देवी,
दुगा4 जया गौरी भवानी है
हे शारदे पथ*k ट होऊँ ना,
तुझसे सदा स}बुिI पानी है.

कर्तव्य भाव 
हम सब अधिकारों के प्रति सचेष्ट हैं कइँती कर्तव्य की अनदेखे करते रहते हैं. बहुत सी समस्याओं का कारण यही है। आकुल जी इस स्थिति पर चिंतित हैं और राह भी सुझाते हैं -
जंगली सा,
6 य बना है.
नाग रक हो,
सोचना है.
िसI करनी
कM पना है.
% वग4 को य द
खोजना है.
अितWमण को,
रोकना है.

राष्ट्रीयता 
कोई भी देश अपने नागरिकों में राष्ट्रीयता के बिना सशक्त नहीं हो सकता।  आकुल जी यह जानते हैं, इसलिए लिखते हियँ- 
गूँज गी अब चार दशा, झूम गे’ अब धरती गगन,
समवेत % वर म राk गा(न) गाय गे’ जब सब मान से
हमको रहेगा गव4 जीवन भर शहीद का करम,
उनसे ही’ तो ह जी रहे हम आज इतमीनान से.
ह कम दल म दू रयाँ, अब हौसले कम ह नह', ,
अब देश ही सवŽE च हो, D यारा हो’ अपनी जान से.
हो खS म अब आतंक, *k ट आचारण, दुk कम4 सब,
ह बढ़ रहे खतरे समझ ना पा रहे 6 य T यान से

नारी विमर्श 
आजकल नारी अपराधों का शिकार हो रही हैआकुल जी इस परिस्थिति से चिंतित हैं- 
नारी िबना दो कदम भी बढ़ोगे नह'.
सफलता क सी ढ़ याँ भी चढ़ोगे नह'.
अब नह' ह ना रयाँ िनब4ल ये’ जान ले,
इितहास कभी कोई, गढ़ सकोगे नह'.
अपसं% कृित, असu यता, बढ़ेगी रात दन,
नारी के आदश4 को जो मढ़ोगे नह'.
जान पाओगे नह', जो शिi नारी’ क ,
युग के इितहास को जो पढ़ोगे नह'.
*
 कसी मोरचे पर नारी को, कभी न कम आँके मानव,
अब तो दुिनया को मुी म , करने को तS पर नारी.
कोई भी हो कम4 eेw म , % वयंिसI करती है वह,
छोटा हो या बड़ा गँवाती, नह' कह' अवसर नारी.
*
कहाँ नह' वच4% व नारी’ का, अब यह भी जग जाना है.
अंत रe म गई, चाँद पर, अब परचम फहराना है.
राजनीित हो, या तकनीक , सेना हो या िव…ालय,
आज िच कS सा, j याय X यव% थ ा म भी उसको माना ह्.ै
घर के उS तरदाियS व म , कभी नह' वह पीछे थी,
कत4X य , अिधकार म भी, अिyम हो, यह ठाना है.

भाषा समस्या 
राजनीति ने भारत में भाषा को भी समस्या बना दिया है। राजभाषा हिंदी के प्रति यत्र-तत्र विरोध और द्वेष भाव से चिंतित आकुल जी कहते हैं- 
Bहदी आभूषण है इसको, अब शोिभत कर
Bहदी वण4माल से कृितयाँ, अब पोिषत कर .
हम कृताथ4 ह जाएँ य द, िसर पर हाथ हो
मधुर राk वाणी से सब को, संबोिधत कर .
बस मन-वचन-कम4 से इसको, अपनाय सभी,
अिभX यिi क है % वतंwता, न ितरोिहत कर .

जमीन से जुड़ाव 
आकुल जी की सृजन भूमि राजस्थान है। वे जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। देशज भषा भी उन्हें उतने ेहे प्रिय है जितनी आधुनिक हिंदी 
जात-पाँत, रीत-भाँत, मन नैकूँ हो न शांत,
सूखे ह जो पेट आँत, सपन न आत ह .
भीख ले के हो <सj न, पशु के समe अj न
फ कवे स„ नायँ नैकूँ, होनो जानो कछू भी.

नगरीकरण 
तथाकथित विकास की अंधे ेमें गाँवों से शहरों की ओर पलायन का दुष्चक्र आकुल जी को चिंता करता है -
चौपाल , पनघट सूने, ह कुँए बावड़ी सूनी ह ,
वृe काट खुश है मानव उसक भी पाली आएगी.
ना ही फूट गे टेसू, कचनार, हारBसगार यहाँ,
छायेगा न बसंत व होली भी न गुलाली आएगी.
‘आकुल’ बढ़ कर रोक कटते पेड़ को द संरeण,
लहराय गे वृe देखना देव दवाली आएगी.

वैकल्पिक ऊर्जा 
मनुष्य ने प्राकृतिक उपादानों को इतनी तेजी और निर्दयता से नष्ट किया है की भविष्य में इनका आभाव झेलना पड़ेगा। इससे बचने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत अपनाना ही कमात्र उपाय है- 
अतुिलत ऊजा4 ले <ाची से, जब सूयŽदय होता है.
जन जीवन का ऊजा4 से ही, तब अu युदय होता है.
इस ऊजा4 से चाँद िसतारे, <कृित धरा भी है रोशन,
अंितम X यिi बने ऊज4% वी, वह अंS योदय होता है.
युग युग से धरती घूमे, बाँट रही घर घर ऊजा4,
जब लेते सापेिeक ऊजा4, तब भा) योदय होता है.
ऊजा4 का <ाकृितक zोत यह, राk ोj नित का मूल बने,
इस ऊजा4 से सव4तोभZ, वह सवŽदय होता है.
<कृित ने दये इस ऊजा4 से, शोक अशोक % वभाव कई,
कभी कभी तो सूय4 % वयं भी, तो y%तोदय होता है.

प्रशासनिक विसंगति 
स्वतंत्रता के समय जनगण की शासन-प्रशासन से जो अपेक्षा थी, वह पूरी नहीं हुई। विदेशी अंग्रेज गए तो दषी अंग्रेज सत्तासीन हो गए। नेताओं ने बभी देश को लौटने में कोइ कसर नहीं छोड़ी  
इक थैली के च‰े-ब‰े, साठ-गाँठ मािहर नेता,
साम-दाम अ7 दंड-भेद म , आफत के परकाले ह .
मूक देखते j यायालय भी, दंडिवधान,<शासन भी,
को िविध िनकले राह तीसरी, कूटनीित म ढाले ह .
चोर चोर मौसेरे भाई, करते घोटाले ढेर ,
साथ रख कल-पुज–-कुंदे, महँगी कार वाले ह .
कहते ह चाण6 य-िवदुर भी, छल-बल िबना न राज चले,
इसीिलए शतरंज म आधे, होते खाने काले ह

'हौसलों ने दिए पंख' शीर्षक यह काव्य कृति सम-सामयिक परिस्थियों का दस्तावेज है। आकुल जी सजग चिंतक और कुशल कवि हैं। वे कल्पना विलास में विश्वास नहीं करते। चतुर्दिक घाट रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में वे साहित्य सृजन को यज्ञ  संपन्न करते हैं।  पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों से दूर रहकर विषय वस्तु और कथ्य पर तार्किक चिंतन कर, समाधान सुझाते हुए विसंगतियों को इंगित  काव्य को पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी युक्त करता है। आज आवश्यकता इस बात के है की शिल्प के किसी एक पहलू पर सारा विमर्श केंद्रित कर किये जा रहे विवादों को भूलकर साहित्य की कसौटी उद्देश्यपरकता हो। आकुल जी इस निकष पर सौ टके खरे साहित्यकार है और उनका साहित्य समय का दस्तावेज है। 
संदर्भ : १. गीतिकालोक -ॐ नीरव, २. दृगों में इक समंदर है -विशंभर शुक्ल, ३. चलो प्रेम का दूर क्षितिज तक पहुँचाएँ संदेश -आकुल
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com  
ध्यान दें -
पृष्ठ २१. कोयला सुलगता है, दीपक जलता है। 
पृष्ठ २४ म तिनक थोड़ा झुका होता वह' तनिक और थोड़ा समानार्थी हैं. दुहराव दोष है। 
 क्र, १३ और १८ पर एक ही रचना है। 
पृष्ठ ५२ भावना कMयाणकारी हो सदा.
कम4णा भी सदाचारी हो सदा.​ कर्मणा नहीं कामना ​

बाल गीत: बरसे पानी

बाल गीत:
बरसे पानी
संजीव 'सलिल'
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
*

नवगीत: आओ! तम से लड़ें...

नवगीत:
आओ! तम से लड़ें...
संजीव 'सलिल'
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
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नवगीत- दलबन्दी की धूल

नवगीत :
संजीव 
*
संसद की दीवार पर 
दलबन्दी की धूल 
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*

राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
***
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]
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सोमवार, 5 अगस्त 2019

मुक्तक

मुक्तक 

सखी-सहेली छाया धूप, जिसकी वह सूरज सा भूप
जो अरूप क्या जाने लोक, कब किसको कहता है रूप
कर्म कलश दे कीर्ति तुझे, व्यर्थ न बना महल-स्तूप
तृप्त नहीं प्यासा यदि, व्यर्थ 'सलिल' सलिला सर कूप
*

प्रार्थना है, वंदना है, अर्चना है बहुत सुन्दर
करें जब भी नव सृजन की साधना है बहुत सुंदर
कामना करिए वही जो काम आए संकटों में
सर्व हित की चाहना है, भावना है बहुत

*

दोहा वार्ता छाया शुक्ल, सलिल

दोहा वार्ता
*
सबकुछ अपना मानिये, छाया तो प्रतिरूप । ढल जाती है वह सदा, रूप रूप व अरूप ।। छाया शुक्ल
*
गलती-ढलती है नहीं, लुकती-छिपती खूब
बृज-छलिया की तरह ही, जड़ें जमीं ज्यों दूब संजीव सलिल
*
छाया जिसपर देव की, बन जाये वो दूब । फिर चढ़ जाए प्रभु चरण, तब जँचती है ख़ूब ।। छाया शुक्ल
*
छाया की माया अजब, गर्मी में दे शांति
कर अशांत दे शीत में, मिटे किस तरह भ्रान्ति संजीव सलिल
*
छाया को करिए नमन, सिर रह दे आशीष
प्रभु की छाया चाहते, सब संजीव मनीष
*

गीत- करवट ले इतिहास

आज विशेष
करवट ले इतिहास
*
वंदे भारत-भारती
करवट ले इतिहास
हमसे कहता: 'शांत रह,
कदम उठाओ ख़ास

*
दुनिया चाहे अलग हों, रहो मिलाये हाथ
मतभेदों को सहनकर, मन रख पल-पल साथ
देश सभी का है, सभी भारत की संतान
चुभती बात न बोलिये, हँस बनिए रस-खान
न मन करें फिर भी नमन,
अटल रहे विश्वास
देश-धर्म सर्वोच्च है
करा सकें अहसास
*
'श्यामा' ने बलिदान दे, किया देश को एक
सीख न दीनदयाल की, तज दो सौख्य-विवेक
हिमगिरि-सागर को न दो, अवसर पनपे भेद
सत्ता पाकर नम्र हो, न हो बाद में खेद
जो है तुमसे असहमत
करो नहीं उपहास
सर्वाधिक अपनत्व का
करवाओ आभास
*
ना ना, हाँ हाँ हो सके, इतना रखो लगाव
नहीं किसी से तनिक भी, हो पाए टकराव
भले-बुरे हर जगह हैं, ऊँच-नीच जग-सत्य
ताकत से कमजोर हो आहात करो न कृत्य
हो नरेंद्र नर, तभी जब
अमित शक्ति हो पास
भक्ति शक्ति के साथ मिल
बनती मुक्ति-हुलास
(दोहा गीत: यति १३-११, पदांत गुरु-लघु )
***
५-८-२०१९
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com

लेख: भाषा, काव्य और छंद


                                                                  ॐ
                     -: विश्व वाणी हिंदी संस्थान - समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर :- 
               ll हिंदी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल l 'सलिल' संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल ll  
        ll जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्यौहार l  'सलिल' बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ll
                                                                      *
लेख: 
भाषा, काव्य और छंद 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
विश्व की किसी भी भाषा का सौंदर्य उसकी कविता में निहित है। प्राचीन काल में काव्य-सृजन ​ ​वाचिक परंपरा से छंद की लय व प्रवाह आत्मसात कर ​चुके कवि ही करते थे​​। ​आजकल शिक्षा का सर्वव्यापी प्रचार-प्रसार होने तथा काव्य​-सृजन से आजीविका के साधन न मिलने के कारण अध्ययन काल में इनकी उपेक्षा की जाती है कालांतर में काव्याकर्षण होने पर भाषा का व्याकरण- पिंगल समझे बिना छंदहीन तथा दोषपूर्ण काव्य रचनाकर आत्मतुष्टि पाल ली जाती है जिसका दुष्परिणाम आमजनों में कविता के प्रति अरुचि के रूप में दृष्टव्य है। काव्य​-​तत्वों​,​ रस, छंद, अलंकार आदि सामग्री व उदाहरण पूर्व प्रचलित भाषा / बोलियों में होने के कारण उनका आशय हिंदी के वर्तमान रूप ​तक सीमित जन समझ नहीं पाते।काव्य सृजन के पूर्व उसके तत्वों को जानना आवश्यक है।  
भाषा :
अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।
चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप।
भाषा सलिला निरंतर करे अनाहद जाप।।

भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है।
निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द।
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द।।

व्याकरण ( ग्रामर ) -
व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है। व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप संबंधी नियमोपनियमों का संग्रह है। भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि, शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है।
वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार।
तभी पा सकें झट 'सलिल', भाषा पर अधिकार।।

वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं।
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण।
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण।।

स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है। स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं।
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान।
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान।।

व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते। व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म - श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं। अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं।
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव।
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव।।

शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।

अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है। यह भाषा का मूल तत्व है। शब्द के निम्न प्रकार हैं-
१. अर्थ की दृष्टि से :
सार्थक शब्द : जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि। 
निरर्थक शब्द : जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि ।
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से :
रूढ़ शब्द : स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि ।

यौगिक शब्द : दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि एवं
योगरूढ़ शब्द : जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि ।
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर:
तत्सम शब्द : मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि।
तद्भव शब्द : संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि।
अनुकरण वाचक शब्द : विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोड़े की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि।
देशज शब्द : आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिये गये शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि।
विदेशी शब्द : संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिये गये शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं। यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि।
४. प्रयोग के आधार पर:
विकारी शब्द : वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किये जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है। यथा - लड़का, लड़के, लड़कों, लड़कपन, अच्छा, अच्छे, अच्छी, अच्छाइयाँ आदि।
अविकारी शब्द : वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इन्हें अव्यय कहते हैं। यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि। इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं।
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल।
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल।।  
कविता के तत्वः
कविता के २ तत्व बाह्य तत्व (लय, छंद योजना, शब्द योजना, अलंकार, तुक आदि) तथा आंतरिक तत्व (भाव, रस, अनुभूति आदि) हैं ।
कविता के आंतरिक तत्वः
रस:
कविता को पढ़ने या सुनने से जो अनुभूति (आनंद, दुःख, हास्य, शांति आदि) होती है उसे रस कहते हैं । रस को कविता की आत्मा (रसात्मकं वाक्यं काव्यं), ब्रम्हानंद सहोदर आदि कहा गया है । यदि कविता पाठक को उस रस की अनुभूति करा सके जो कवि को कविता करते समय हुई थी तो वह सफल कविता कही जाती है । रस के 9 प्रकार श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, भयानक, वीर, वीभत्स, शांत तथा अद्भुत हैं । कुछ विद्वान वात्सल्य को दसवां रस मानते हैं ।
अनुभूतिः
गद्य की अपेक्षा पद्य अधिक हृद्स्पर्शी होता है चूंकि कविता में अनुभूति की तीव्रता अधिक होती है इसलिए कहा गया है कि गद्य मस्तिष्क को शांति देता है कविता हृदय को ।
भावः
रस की अनुभूति करानेवाले कारक को भाव कहते हैं । हर रस के अलग-अलग स्थायी भाव इस प्रकार हैं । श्रृंगार-रति, हास्य-हास्य, करुण-शोक, रौद्र-क्रोध, भयानक-भय, वीर-उत्साह, वीभत्स-जुगुप्सा/घृणा, शांत-निर्वेद/वैराग्य, अद्भुत-विस्मय तथा वात्सल्य-ममता । 
कविता के बाह्य तत्वः
लयः
भाषा के उतार-चढ़ाव, विराम आदि के योग से लय बनती है । कविता में लय के लिये गद्य से कुछ हटकर शब्दों का क्रम संयोजन इस प्रकार करना होता है कि वांछित अर्थ की अभिव्यक्ति भी हो सके।
छंदः
मात्रा, वर्ण, विराम, गति, लय तथा तुक (समान उच्चारण) आदि के व्यवस्थित सामंजस्य को छंद कहते हैं । छंदबद्ध कविता सहजता से स्मरणीय, अधिक प्रभावशाली व हृदयग्राही होती है । छंद के २ मुख्य प्रकार मात्रिक (जिनमें मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है) तथा वर्णिक (जिनमें वर्णों की संख्या निश्चित तथा गणों के आधार पर होती है) हैं । छंद के असंख्य उपप्रकार हैं जो ध्वनि विज्ञान तथा गणितीय समुच्चय-अव्यय पर आधृत हैं।
शब्दयोजनाः
कविता में शब्दों का चयन विषय के अनुरूप, सजगता, कुशलता से इस प्रकार किया जाता है कि भाव, प्रवाह तथा गेयता से कविता के सौंदर्य में वृद्धि हो।
तुकः
काव्य पंक्तियों में अंतिम वर्ण तथा ध्वनि में समानता को तुक कहते हैं । अतुकांत कविता में यह तत्व नहीं होता। मुक्तिका या ग़ज़ल में तुक के 2 प्रकार तुकांत व पदांत होते हैं जिन्हें उर्दू में क़ाफि़या व रदीफ़ कहते हैं।
अलंकारः
अलंकार से कविता की सौंदर्य-वृद्धि होती है और वह अधिक चित्ताकर्षक प्रतीत होती है। अलंकार की न्यूनता या अधिकता दोनों काव्य दोष हैं। अलंकार के २ मुख्य प्रकार शब्दालंकार व अर्थालंकार तथा अनेक भेद-उपभेद हैं।
छंद - प्रकार 
छंद को वाचिक, वर्णिक तथा मात्रिक तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। वाचिक छंद लोक-परंपरा रचे गए हैं। वर्णिक छंद वर्ण संख्या के आधार पर रचे जाते हैं। मात्रिक छंद मात्रा संख्या के अनुसार रचे जाते हैं।  
 मात्रा गणना - मात्रा गणना नियम
१. किसी ध्वनि-खंड को बोलने में लगनेवाले समय (उच्चार, सिलेबल्स) के आधार पर मात्रा गिनी जाती है।
२. कम समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की एक तथा अधिक समय में बोले जानेवाले वर्ण या अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती हैंं। तीन मात्रा के शब्द ॐ, ग्वं आदि संस्कृत में हैं, हिंदी में नहीं।
३. अ, इ, उ, ऋ तथा इन मात्राओं से युक्त वर्ण की एक मात्रा गिनें। उदाहरण- अब = ११ = २, इस = ११ = २, उधर = १११ = ३, ऋषि = ११= २, उऋण १११ = ३ आदि।
४. शेष वर्णों की दो-दो मात्रा गिनें। जैसे- आम = २१ = ३, काकी = २२ = ४, फूले २२ = ४, कैकेई = २२२ = ६, कोकिला २१२ = ५, और २१ = ३आदि।
५. शब्द के आरंभ में आधा या संयुक्त अक्षर हो तो उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। जैसे गृह = ११ = २, प्रिया = १२ =३ आदि।
६. शब्द के मध्य में आधा अक्षर हो तो उसे पहले के अक्षर के साथ गिनें। जैसे- क्षमा १+२, वक्ष २+१, विप्र २+१, उक्त २+१, प्रयुक्त = १२१ = ४ आदि।
७. रेफ को आधे अक्षर की तरह गिनें। बर्रैया २+२+२आदि।
८. अपवाद स्वरूप कुछ शब्दों के मध्य में आनेवाला आधा अक्षर बादवाले अक्षर के साथ गिना जाता है। जैसे- कन्हैया = क+न्है+या = १२२ = ५आदि।
९. अनुस्वर (आधे म या आधे न के उच्चारण वाले शब्द) के पहले लघु वर्ण हो तो गुरु हो जाता है, पहले गुरु होता तो कोई अंतर नहीं होता। यथा- अंश = अन्श = अं+श = २१ = ३. कुंभ = कुम्भ = २१ = ३, झंडा = झन्डा = झण्डा = २२ = ४आदि।
१०. अनुनासिक (चंद्र बिंदी) से मात्रा में कोई अंतर नहीं होता। धँस = ११ = २आदि। हँस = ११ =२, हंस = २१ = ३ आदि।
मात्रा गणना करते समय शब्द का उच्चारण करने से लघु-गुरु निर्धारण में सुविधा होती है। इस सारस्वत अनुष्ठान में आपका स्वागत है। कोई शंका होने पर संपर्क करें। 
***
  
                                                                                           संदेश में फोटो देखें                               
                                                                          (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                                                       अधिष्ठाता 
                                                                     २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
                                                               जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
                                                                              salil.sanjiv@gmail.com
                                                                               www.divyanarmada.in
लेखक परिचय:
नाम: संजीव वर्मा 'सलिल'। 
संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपिअर टाउन, जबलपुर ४८२००१। 
           salil.sanjiv@gmail.com, ९४२५१८३२४४, ७९९९५५९६१८। 
जन्म: २०-८-१९५२, मंडला मध्य प्रदेश।  
माता-पिता: स्व. शांति देवी - स्व. राज बहादुर वर्मा। 
प्रेरणास्रोत: बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा।  
शिक्षा: त्रिवर्षीय डिप्लोमा सिविल अभियांत्रिकी, बी.ई., एम. आई. ई., विशारद, एम. ए. (अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र), एलएल. बी., डिप्लोमा पत्रकारिता, डी. सी. ए.। 
संप्रति: पूर्व कार्यपालन यंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र., अधिवक्ता म. प्र. उच्च न्यायालय, अध्यक्ष अभियान जबलपुर, पूर्व वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष / महामंत्री राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद,  पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, संरक्षक राजकुमारी बाई बाल निकेतन, संयोजक विश्ववाणी हिंदी परिषद, संयोजक समन्वय संस्था प्रौद्योगिकी विश्व विद्यालय भोपाल।  
प्रकाशित कृतियाँ: १. कलम के देव (भक्ति गीत संग्रह १९९७), २. भूकंप के साथ जीना सीखें (जनोपयोगी तकनीकी १९९७), ३. लोकतंत्र का मक़बरा (कविताएँ २००१) विमोचन शायरे आज़म  कृष्णबिहारी 'नूर', ४. मीत मेरे (कविताएँ २००२) विमोचन आचार्य विष्णुकांत शास्त्री तत्कालीन राज्यपाल उत्तर प्रदेश, ५. काल है संक्रांति का  गीत-नवगीत संग्रह २०१६ विमोचन प्रवीण सक्सेना, लोकार्पण ज़हीर कुरैशी-योगराज प्रभाकर, ६. कुरुक्षेत्र गाथा प्रबंध काव्य २०१६ विमोचन रामकृष्ण कुसुमारिया मंत्री म. प्र. शासन, ७. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह २०१८ विमोचन पूर्णिमा बर्मन, राजेंद्र  वर्मा, कुँवर कुसुमेश, ।  
संपादन: (क) कृतियाँ: १. निर्माण के नूपुर (अभियंता कवियों का संकलन १९८३),२. नींव के पत्थर (अभियंता कवियों का संकलन १९८५),  ३. राम नाम सुखदाई १९९९ तथा २००९, ४. तिनका-तिनका नीड़ २०००, ५. सौरभः  (संस्कृत श्लोकों का दोहानुवाद) २००३, ६. ऑफ़ एंड ओन (अंग्रेजी ग़ज़ल संग्रह) २००१, ७. यदा-कदा  (ऑफ़ एंड ओं का हिंदी काव्यानुवाद) २००४, ८. द्वार खड़े इतिहास के २००६, ९. समयजयी साहित्यशिल्पी प्रो. भागवतप्रसाद मिश्र 'नियाज़' (विवेचना) २००६, १०-११. काव्य मंदाकिनी २००८ व २०१०, दोहा, दोहा सलिला निर्मला, दोहा दिव्य दिनेश २०१९।  
(ख) स्मारिकाएँ: १. शिल्पांजलि १९८३, २. लेखनी १९८४, ३. इंजीनियर्स टाइम्स १९८४, ४. शिल्पा १९८६, ५. लेखनी-२ १९८९, ६. संकल्प  १९९४,७. दिव्याशीष १९९६, ८. शाकाहार की खोज १९९९, ९. वास्तुदीप २००२ (विमोचन स्व. कुप. सी. सुदर्शन सरसंघ चालक तथा भाई महावीर राज्यपाल मध्य प्रदेश), १०. इंडियन जिओलॉजिकल सोसाइटी सम्मेलन २००४, ११. दूरभाषिका लोक निर्माण विभाग २००६, (विमोचन श्री नागेन्द्र सिंह तत्कालीन मंत्री लोक निर्माण विभाग म. प्र.) १२. निर्माण दूरभाषिका २००७, १३. विनायक दर्शन २००७, १४. मार्ग (IGS) २००९, १५. भवनांजलि (२०१३), १६. अभियंता बंधु (IEI) २०१३।  
(ग) पत्रिकाएँ: १. चित्राशीष १९८० से १९९४, २. एम.पी. सबॉर्डिनेट इंजीनियर्स मंथली जर्नल १९८२ - १९८७, ३. यांत्रिकी समय १९८९-१९९०, ४. इंजीनियर्स टाइम्स १९९६-१९९८, ५. एफोड मंथली जर्नल १९८८-९०, ६. नर्मदा साहित्यिक पत्रिका २००२-२००४। 
(घ). भूमिका लेखन: ४० पुस्तकें। 
(च). तकनीकी लेख: १५। 
अप्रकाशित कार्य-  
मौलिक कृतियाँ: 
जंगल में जनतंत्र, कुत्ते बेहतर हैं ( लघुकथाएँ),  आँख के तारे (बाल गीत), दर्पण मत तोड़ो (गीत), आशा पर आकाश (मुक्तक), पुष्पा जीवन बाग़ (हाइकु), काव्य किरण (कवितायें), जनक सुषमा (जनक छंद), मौसम ख़राब है (गीतिका), गले मिले दोहा-यमक (दोहा), दोहा-दोहा श्लेष (दोहा), मूं मत मोड़ो (बुंदेली), जनवाणी हिंदी नमन (खड़ी बोली, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी, निमाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, सिरायकी रचनाएँ), छंद कोश, अलंकार कोश, मुहावरा कोश, दोहा गाथा सनातन, छंद बहर का मूल है, तकनीकी शब्दार्थ सलिला।   
अनुवाद: 
(अ) ७ संस्कृत-हिंदी काव्यानुवाद: नर्मदा स्तुति (५ नर्मदाष्टक, नर्मदा कवच आदि), शिव-साधना (शिव तांडव स्तोत्र, शिव महिम्न स्तोत्र, द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र आदि),रक्षक हैं श्री राम (रामरक्षा स्तोत्र), गजेन्द्र प्रणाम ( गजेन्द्र स्तोत्र),  नृसिंह वंदना (नृसिंह स्तोत्र, कवच, गायत्री, आर्तनादाष्टक आदि), महालक्ष्मी स्तोत्र (श्री महालक्ष्यमष्टक स्तोत्र), विदुर नीति।  
(आ) पूनम लाया दिव्य गृह (रोमानियन खंडकाव्य ल्यूसिआ फेरूल)। 
(इ) सत्य सूक्त (दोहानुवाद)। 
रचनायें प्रकाशित: मुक्तक मंजरी (४० मुक्तक), कन्टेम्परेरी हिंदी पोएट्री (८ रचनाएँ परिचय), ७५ गद्य-पद्य संकलन, लगभग ४०० पत्रिकाएँ। मेकलसुता पत्रिका में २ वर्ष तक लेखमाला 'दोहा गाथा सनातन' प्रकाशित, पत्रिका शिकार वार्ता में भूकंप पर आमुख कथा।
परिचय प्रकाशित ७ कोश।
अंतरजाल पर- १९९८ से सक्रिय, हिन्द युग्म पर छंद-शिक्षण २ वर्ष तक, साहित्य शिल्पी पर 'काव्य का रचनाशास्त्र' ८० अलंकारों पर लेखमाला, छंदों पर लेखमाला जारी ८० छंद हो चुके हैं।
सम्मान- १० राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरयाणा, दिल्ली, गुजरात, छत्तीसगढ़, असम, बंगाल) की विविध संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान तथा अलंकरण। प्रमुख सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञान रत्न, २० वीं शताब्दी रत्न, आचार्य, वाग्विदाम्बर, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, वास्तु गौरव, मानस हंस, साहित्य गौरव, साहित्य श्री(३), काव्य श्री, भाषा भूषण, कायस्थ कीर्तिध्वज, चित्रांश गौरव, कायस्थ भूषण, हरि ठाकुर स्मृति सम्मान, सारस्वत साहित्य सम्मान, कविगुरु रवीन्द्रनाथ सारस्वत सम्मान, युगपुरुष विवेकानंद पत्रकार रत्न सम्मान, साहित्य शिरोमणि सारस्वत सम्मान, भारत गौरव सारस्वत सम्मान, कामता प्रसाद गुरु वर्तिका अलंकरण, उत्कृष्टता प्रमाणपत्र, सर्टिफिकेट ऑफ़ मेरिट, लोक साहित्य अलंकरण गुंजन कला सदन जबलपुर २०१७, राजा धामदेव अलंकरण २०१७ गहमर, युग सुरभि २०१७,  आदि।