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गुरुवार, 28 जून 2018

doha

दोहा सलिला: 
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हर्ष; खुशी; उल्लास; सुख, या आनंद-प्रमोद।
हैं आकाश-कुसुम 'सलिल', अब आल्हाद विनोद
*
कहीं न हैपीनेस है, हुआ लापता जॉय।
हाथों में हालात के, ह्युमन बीइंग टॉय
*
एक दूसरे से मिलें, जब मन जाए झूम।
तब जीवन का अर्थ हो, सही हमें मालूम
*
मेरे अधरों पर खिले, तुझे देख मुस्कान।
तेरे लब यदि हँस पड़ें, पड़े जान में जान।।
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तू-तू मैं-मैं भुलकर, मैं तू हम हों मीत।
तो हर मुश्किल जीत लें, यह जीवन की रीत।।
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श्वास-आस संबंध बो, हरिया जीवन-खेत।
राग-द्वेष कंटक हटा, मतभेदों की रेत।।
*
२८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८

बरसाती गीत

गीत:
कजरारे बादल
अविनाश ब्योहार 
*
अंबर पर
छा रहे हैं
कजरारे बादल। 

नाच रहे हैं
मोर बागन में,
छम-छम बरसीं
बूँदें आँगन में। 
पत्र मेह के
बाँट रहे हैं
हरकारे बादल 

मौसम में हरियाली ने
है रंग भरा,
दुबली-पतली नदिया
का है अंग भरा। 
फटी धरा की
प्यास बुझाये
मतवारे बादल 
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल,
कटंगी रोड, जबलपुर।

बुधवार, 27 जून 2018

दोहा सलिला:

दोहे बूँदाबाँदी के:
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झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते,  मनुज हुए कृतकृत्य।।
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माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
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पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
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कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
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नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
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माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
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हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे,  तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ,  बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***
२७.६.२०१८, salil.sanjiv@gmail.com
७९९९५५९६१८, ९४२५१८३२४४ 

मंगलवार, 26 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २०. लोकनाट्य और कर्मा गीतों में छंद

शोधलेख:
२०. लोकनाट्य और करमा-गीतों में छंद परंपरा   
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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लोक-काव्य और लोक-नाट्य का साथ चोली-दामन का सा है. मनुष्य के जन्म के साथ रुदन अर्थात ध्वनि में लय और गति-यति का समन्वय छंद का तथा नेत्र, हाथ-पैर आदि अंग सञ्चालन में अभिनय अर्थात नाट्य का उद्भव देखा जा सकता है. मनुष्य के तन और मन के विकास के साथ इन दोनों का भी विकास होता रहता है. आदि मानव ने पशु-पक्षियों से अलग होकर उन्नति पथ पर पग रखते समय उनकी विशेषताओं को आत्मसात करने का अथक प्रयास ही नहीं किया अपितु उन्हें अधिक विकसित भी किया. शेर के आगमन की सूचना हूक-हूककर देते वानरों से मानव ने ध्वनि का उपयोग सीखा होगा. पशु-पक्षियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि के कारण मानव ने कलकल बहते निर्जर, सनन-सनन-सन चलती पवन, मेघगर्जन, विद्युत्पात,  बरसात आदि की ध्वनियों को मस्तिष्क में संगृहीत कर अन्य मानव समूहों को सूचित किया होगा. इन ध्वनियों के उच्चारण के साथ उनकी लय, गति-विराम, उतार-चढ़ाव आदि में पारंगत होने के साथ उन्हें उच्चारित करना और सुनने पर पहचानकर तदनुसार आचरण करना मानव-स्वभाव हो गया. कालांतर में ध्वनि उच्चारण ने भाषा और लिपि के साथ समन्वित होकर लोक-काव्य तथा आचरण ने लोक-नाट्य को जन्म दिया होगा. इसलिए लोक-काव्य की आत्मा छंद और लोक-नाट्य के मध्य अनुभूति और प्रतिक्रिया के तंतु उन्हें सहोदर सिद्ध करते हैं. ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’, ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’, जैसी अभिव्यक्तियाँ इसी नाते की पुष्टि करती हैं. समय के साथ दोनों विधाओं का स्वतंत्र विकास होना स्वाभाविक है. आज स्थिति यह है कि अधिकांश जन लोक-नाट्य में छंद की अनुभूति कठिनाई से ही करते हैं जबकि छंद में लोक- नाट्य की उपस्थिति को असंभव मान लिया गया है.
काव्य:
शास्त्रानुसार काव्य मनरंजन का उत्तम साधन है. भारतीय आचार्यों ने आदिकाल से काव्य का सूक्ष्म विवेचन कर स्वरूप निर्धारण का कार्य किया है. ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुन: क्वपि’ –मम्मट (काव्य रचना के शब्दार्थों में दोष कतई न हों, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हो हों),  ‘काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते’ –दंडी (काव्य की शोभा अलंकार से है), अलंकारा एव काव्ये प्रधानमिति प्रच्यानाम मतं’ –रुय्यक (अलंकार ही काव्य में मुख्य है), ‘काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम. व्यसनेषु च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा.’ (काव्य शास्त्रर विनोद हेतु है), रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ –पं. जगन्नाथ (रमणीय अर्थ प्रतिपादित करनेवाले शब्द काव्य हैं), लोकोत्तरानंददाता प्रबंध: काव्यनामभाक’ –अंबिकादत्त व्यास (लोकोत्तर आनंद देनेवाली रचना काव्य है’), ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ –महापात्र विश्वनाथ (रसपूर्ण वाक्य काव्य है), ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ –वामन (रीति काव्य की आत्मा है), वक्रोक्ति काव्यजीवितं’ –कुंतक (काव्य वक्रोक्ति में जीवित है), काव्यस्यात्मा ध्वनिरति: -आनंदवर्धन (काव्य की आत्मा ध्वनि और रति में है), औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं; -क्षेमेन्द्र ( रस सिद्धि के औचित्य में काव्य जीवित है) तथा ‘वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं’. –आग्निपुरंकार (वाग्वैधदग्ध्य प्रधान होते हुए भी काव्य का प्राण रस है) कहर कव्यचार्यों ने समय-समय पर काव्यांगों और काव्य-रूप का चिंतन किया है.
दृश्य काव्य:  
पूर्व के वन मानुष या आज के आदिवासियों में शिकार करने, शिकार मिलने पर नाचने-गाने, मिल-बाँटकर खाने की परंपरा लोकनाट्य और लोककाव्य का संगम ही है जिसके मूल में छंद समाहित है. आरंभ में वाचिक परंपरा में पले-पुसे काव्य रूपी छंद और लोक-जीवन में घुले-मिले लोकाचार रूपी नाट्य को भाषा और लिपि के विकास ने उसी तरह अलग-अलग किया जैसे एक साथ पलते शिशु विकास के क्रम में किशोर-किशोरी के रूप में अलग-अलग हो जाते हैं. छंद, गीत, नृत्य और वाद्य एक-दूसरे के पूरक और रस के कारक हैं. ई. पू. तीसरी सदी में ऋषि नन्दिकेश्वर ने काव्य और नाट्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर ‘नान्दीपाथ का श्री गणेश किया. भरत मुनि द्वारा रचित ‘नाट्यशास्त्र तथा महर्षि पिंगल द्वारा रचित ‘छंदशास्त्र’ विश्व वांग्मय की निधि हैं. वैदिक ज्ञान राशि के संहिताकरण में लोक का अभूतपूर्व योगदान रहा किन्तु सत्ता सूत्र आभिजत्यों के हाथों में केंद्रित होने पर ज्ञान और अस्त्र संपन्नों और पुरोहितों के हाथ में केंद्रित हो गए. फलत: उपेक्षित लोक के आक्रोश का शमन करने हेतु वेदेतर ज्ञान-विधाओं को वेदांग बताकर लोक को उपलब्ध कराया गया. इस तरह वेद का पैर ’पिंगल या छंदशास्त्र’ तथा पंचम वेद आयुर्वेद व नाट्यशास्त्र को कहा गया. ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्ववेद से रस लेकर नाट्य-वेद रचना की संकल्पना में लोक-काव्य (छंद) और लोक-नाट्य (रंगमंच) समाहित हैं.
कालिदास के अनुसार नाट्यवेद का उद्देश्य ‘नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनं’ अर्थात भिन्न रुचि के लोगों का बहुत प्रकार से मन-रंजन करना है. गीत-संगीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी से लोक-नाट्य को जन्म मिला. तीसरी सदी में सीतावेंगरा सरगुजा तथा मोगीमारा की गुफाओं में प्रेक्षागृहों की उपलब्धता है. पाणिनि के सूत्रों में नटों का उल्लेख, पतंजलि के महाभाष्य में नाट्य मंचन, बौद्ध भिक्षुओं के लिए नाट्य-निषेध, उत्तर भारत में ‘रामलीला’ व ‘रासलीला’, मालवा में ‘माच’, राजस्थान में ‘ख़याल’, पंजाब में ‘स्वांग’, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नौटंकी, ग्राम्यांचलों में ‘स्वांग’, बृज में ‘भगत’, गुजरात में ‘भवाई’, बुंदेलखंड में आल्हा, बम्बुलिया और राई, बंगाल में ‘जात्रा’ और ‘गंभीरा’, महाराष्ट्र में ‘तमाशा’ और ‘बहुरूपिया’, दक्षिण भारत में ‘यक्षगान’ आदि लोककाव्य और लोकनाट्य के सम्मिलित रूप रहे हैं जिनके मूल में लोक-छंद धड़कन की तरह रचा-बसा था. लोक-नाट्य और लोक-काव्य में सरल-सहज लोक-भाषा, ग्रामीण-देशज शब्दावली, न्यूनतम आलंकारिकता, बोधगम्यता, पारदर्शिता, धार्मिक व सामाजिक प्रसंग, प्रवाहपूर्ण भाषा शैली, गति-यति-लय का सम्मिश्रण दृष्टव्य है. अभिव्यक्ति के इन दोनों रूपों में छंद की उपस्थिति ही नहीं, चेतना भी आद्योपांत अनुभव की जा सकती है.
आदिवासी बाल लोक-नाट्य बाघ-बकरी खेलते समय बच्चे गाते हैं: ‘अड्डल गड्डल काठे क माला / टेंकीचीरो तोड़ो बाला / कडुवा तेल कवल की बाती / ठांय-ठूँय ठस्स / उंचकी छाती दर्द.’ यहाँ प्रथम तीन पंक्तियों में संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की अनगढ़ उपस्थिति सहज दृष्टव्य है.
अन्य बाल लोक नाट्य दोल्हा-पाती में बच्चे गाते हैं: ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो / अस्सी-नब्बे पूरे सौ / सौ में लागा धागा / चोर निकल के भागा’ यहाँ प्रथम दो पद मानव जातीय हाकलि छंद की तथा अंतिम दो पंक्तियाँ आदित्य जातीय छंद की हैं. आजकल नवगीतों में विविध छंदों के मिश्रण (फ्यूजन) को अपनी खोज बतानेवाले देखें कि यह कार्य उनसे सदियों वर्ष पूर्व अनपढ़ कहे जानेवाले लोक-गायक कर चुके हैं.
बिहार तथा मध्यप्रदेश के घसिया आदिवासियों स्त्री-पुरुषों द्वारा किये जानेवाले लोकनाट्य ‘डोमकच’ के समय गाये जानेवाले गीत ‘हँकावे ननदा हो रे! / बछरू चरना हम जाब रे! / हरंका ननदों सातो कियारी / सूगा लागे हो रे!’ में क्रमश:१३-१५-१८-१२ मात्रा की पंक्तियाँ तथा ८-११-११-६ वर्ण हैं. ‘डोमकच’ नृत्य-गीत की एक अन्य अभिव्यक्ति देखिए- ‘आपन मैना हो मैनाधन, / काहे मैना हो? / काहे भूँजि गइल मैना भुटाना हो / भूँजि देला तीला चउरवा - / मैना आइ गइला हो.’ १६-१०-२१-१६-१३ मात्रा (१०-५-१३-१०-८ वर्ण) के इस लोकगीत का छंद खोजने और रचने की चुनौती क्या कभी वे कूप-मंडूक स्वीकार सकेंगे जो दोहे के विषम चरण में ‘सरन’ के अतिरिक्त अन्य गण प्रयोग देखकर छाती कूटने लगते हैं, वह भी तब जबकि तुलसी, कबीर और बिहारी जैसे कालजयी दोहाकारों के बीसियों दोहों में ऐसा किया गया   है.
आषाढ़ की पहली बूंदों के साथ क्वांरी आदिवासी कन्या वन में किसी धारदार हथियार से एक ही वार में ‘कदंब’ वृक्ष की तीन डालियाँ काटती हैं जिन्हें अन्य क्वांरी कन्याएँ भूमि पर गिरने से पूर्व हवा में पकड़कर मादलवादन के साथ देवस्थान पर बने मंडप में लाती हैं. यहाँ घी, गुड, जल-कलश, त्रिशूल तथा पक्की शराब आदि पूजा सामग्री एकत्र कर बैगा भूमि में दो वार कर गड्ढा बनाता है, अन्य व्यक्ति ३ गड्ढे बनाकर युवतियों द्वारा लाई गयी डालियाँ तथा एक डाल ‘भेला’ वृक्ष की गाड़ देते हैं. डाली काटी जाते समय दो पंक्तियाँ गई जाती हैं: ‘करमा जे कटले धांगर तोरे हाथे पगेरा पड़ जाय / आज क रहले करम खूंटा, कालि जइबे गंगा-तीरे.’ अर्थात हे धांगर! तुमने कदंब की शाख काटी तुम्हारे हाथ में पगेरा पड़ जाएगा. तुम गंगा-स्नान करो. मात्रा पतन को उर्दू की बपौती माननेवाले देखें कि उर्दू का जन्म होने के सदियों पहले से वनवासी-आदिवासी अपने गीतों में मात्रा-पतन करते रहे हैं. ३२-३० मात्रा की इन काव्य पंक्तियों का छंद वर्तमान में उपलब्ध किसी पिंगल-पोथी में नहीं है. कर्म देव की स्थापना करते समय गीत गाया जाता है: ‘के खनल?, के खनल? / अहरा पोखरे बदग / राजा खनल. पूजा हेतु लाई गयी शराब में भक्तों द्वारा लाई गयी शराब मिलकर देव को अर्पित करने के बाद प्रसाद के रूप में बांटी जाती है जिसे पीकर सब आदिवासी रात्रीपर्यंत नाचते हुए गाते हैं: ‘जोगिया भिच्छा माँगे कि / झिलमिल पोखरी क पानी.’ (१४-१४ मात्रा)
जौ को बालू में मिलाकर गाँव के हर जाती-वर्ग के घर में नौ दिन पूर्व बाँट दिया जाता है. उसी दिन जौ जमा (लगा) दी जाती है. करमा के दिन उसे देवस्थान पर लाकर अर्धरात्रि में पूजा की जाती है. इस समय का गीत है: ‘हे! हो! हाथी-घोड़ा से कइले सिंगार / हे! हो! बैगा के देबो सीधा सेर / घरे रहबू, घर अगोरबू / ना देखबू, काम बिगड़ि जाइ.’ (२२-२२, १५-१५ मात्राएँ) अर्थात हाथी-घोड़े आदि को ले जाकर देवस्थान की सजावट की गयी है. बैगा को सेर भर सीधा दिया गया है. हे सखी! तुम घर की रक्षा के लिए रह गईं, पूजा के लिए नहीं गईं. जाओ, दर्शन कर आओ, अन्यथा देव रुष हो जायेंगे और सब कार्य बिगड़ जाएँगे.
करमा समरसता, सहभागिता और सहकारिता का लोकपर्व है. कर्मा गीतों में सामान्य जन के जीवन से सम्बंधित सुख-दख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, हास-परिहास आदि के दृश्य संगीत की भाव-लहरियों में अभिव्यक्त किए जाते हैं. करमा गीतों में आलाप की महती भूमिका है. मात्रिक अथवा वार्णिक असंतुलन आलाप द्वारा संतुलित कर लिया जाता है. वाचिक छंद को मात्रिक या वार्णिक छंद की कसौटी पर कसें तो बहुधा पंक्तियाँ सामान न होने से दुविधा उपस्थित होती है किंतु गायक को कहीं असंतुलन नहीं प्रतीत होता. इस लिए वाची लोक-काव्य को छंदा-शास्त्र की कसैती पर कसते समय आलाप तथा टेर को भी गणना में लेना होगा.  
पहार तरे मुगिया मो बनके / साईं मोंगिया हरल झबरा के डार / ननदी सिरी किसुना बंसिया बजावे / ब्रिन्दावन सिरी किसुना बंसिया हो बजावे / कवन बन गइया रे चरावे / ननदी कवन घट पनिया हो पियावे / ननदी धीरे-धीरे गइया ठुकरावे / ननदी कदम तरे गइया रखवावे / नीबी तारे बछरू छ्नावे / ननदी अपने कदम चढ़ि जावे / जब लगि अपने कदम चढ़ि जाई / बाघिन लपसत आवे / केकर धइले छेरिया बछरुवा / ननदी हो केकर धइले धेनुगाय / ननदों हो लइकवा में कइले बा गोहार / ननद हो कोई नाहीं धवले गोहार / ननदी हो राम-लछिमन धवले गोहार. भावार्थ: वृन्दावन में धेनु चराते श्रीकृष्ण  कदम वृक्ष पर चढ़ जाते हैं. तभी एक बाघिन आकर गाय-बछड़ों को मारकर खा जाना चाहती है, गुहार मचने पर राम-लक्षमण रक्षा के लिए आ जाते हैं.
भुइंया आदिवासियों का करमा गीत:
लीप-लीप पिपरी क पात डोले/ दीप-दीप उगेले जोन्हइया/ तील-तील बढ़ेले गोरी के देहिया/ दड़हर खोजे, बड़हर खोजै कतहूँ न मिलल जोड़ी जवान./ केकर घरे तेल माड़े, केकर घरे ककही / केकर घरे मान सँवारे / बांह ले सुरूजा मंड़र खीया / भरि माँग सेन्हुआ भरावै / भरि माथ टिकुल ढमकावै / टक-टक मथवा निहारे निलजिया.
भावार्थ: पीपल का पत्ता धीरे-धीरे डोल रहा है, चाँदनी दिपदिपा रही है. किशोरी का तन तिल-तिल कर बढ़ रहा है. यहाँ-वहाँ खोजने पर भी सुयोग्य वर नहीं मिल रहा. किसी के घर से तेल, किसी के घर से कंघी माँगकर, सिन्दूर से माँग भरकर, माथे पर टिकुली लगाकर गोरी निर्लज्ज की तरह अपना रूप निहारती है.
धांगर आदिवासियों का करमा गीत:
देवरा दुलरू हव हो / कहि के आवें आधी रतिया / देवरा दुलरू हव हो / घरवा में सूतल रहली /  भउजी एक दिन दुपहरिया / देवरा खिड़की में ठाढ़ / तूंत बइठ देवरा माया के पलंगिया / देवरा दुलरू कहें / भउजी हमत बइठब तोहरे पलंगिया / भउजी बइठावे देवरा हो / देवरा दुलरू तूं अइसन मजा पइबा / बहरा तूं घूंमबा अकेल / घरवा म गाव ला गीत हो / देवरा दुलरू हवं हो.
भावार्थ: दुलारा देवर आधी रात में भाभी के पास क्यों आता है? एक दोपहर देवर खिड़की में खड़ा, घर में सोती भौजी को निहारता है. भाभी देख लेती है और कहती है कि वह माँ के पलंग पर सो जाए. देवर जिद करता है कि वह भाभी के पलंग पर ही बैठेगा. भाभी उसे बैठा लेती है. देवर बाहर अकेला घूमता रहता है पर घर में गीत गाता रहता है. देवर दुलारा है. 
इस गीत का मुखड़ा तथ अंतिम पंक्तियाँ भागवतजातीय तथा संस्कारीजातीय सिंह छंद में निबद्ध हैं. पदों में क्रमश: ३७ मात्रिक दंडक छंद का प्रयोग है.
वाचिक परंपरा के लोकगीत पिंगलशास्त्रीय ग्रंथ-सृजन के पूर्व रचे गए या उसी परंपरा में रचे जा रहे हैं. इन गीतों की रचना मात्रा संख्या या वर्ण संख्या पर आधारित न होकर उस अंचल विशेष में प्रचलित उच्चारणों और गायन के तरीके पर निर्भर है. इनमें मात्रा पतन तथा मात्र जोड़ने की छूट ली गयी है. इनकी रचना गायन शैली के आधार  पर है. लोकनाट्य के कथ्य को उभारने, रोचकता तथा सरसता वृद्धि के लिए छंदों का प्रयोग चिरकाल से होता रहा है. वर्तमान काल में चलचित्रों के गीतों में छंद-प्रयोग निरंतर हो रहा है किंतु आधुनिक रंगमंच पर छंद-प्रयोग सीमित हो गया है. ग्राम्यांचलों में लोकमंच पर छांदस गीतों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है किंतु उनकी विषयवस्तु स्तरीय नहीं है.
सन्दर्भ: १. लोकनाट्य मंच की पीठिका- डॉ. अर्जुनदास केसरी व मोहनलाल बाबुलकर,

साहित्य त्रिवेणी: सम्पादकीय


सम्पादकीय:
प्रिय पाठक!
वंदे भारत-भारती। 
साहित्य: अनुभूति को अभिव्यक्त करने की सुरुचि पूर्ण कला साहित्य की जन्मदात्री है। ’सहितस्य भाव:’ तथा ‘हितेन सहितं’ के निकष पर साहित्य में सबका साथ होना तथा सबके लिए हितकर होना आवश्यक है साहित्य में बुद्धि, भाव, कल्पना तथा कला तत्वों का सम्मिश्रण अपरिहार्य है रसानंद-प्राप्ति हेतु रचित साहित्य का भाव पक्ष लक्ष्य ग्रंथों तथा विचार पक्ष लक्षण ग्रंथों में सामने आता है साहित्य-सिंधु के मंथन से काव्यामृत की प्राप्ति होती है
काव्य: काव्यप्रकाशकार मम्मट के अनुसार ‘तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वपीपि’ (काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों और अर्थों में दोष न हो, गुण अवश्य हों, अलंकार कहीं-कहीं न भी हों’ आचार्य जगन्नाथ के मत में ‘रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यं’ (रमणीय अर्थ बतानेवाले शब्द काव्य हैं) अम्बिकादत्त व्यास के मत में ‘लोकोत्तारानंददाता प्रबंध: काव्यानामभाक’ (अलौकिक आनंद देनेवाली रचना काव्य है) महापात्र विश्वनाथ कहते है ‘रसात्मकं वाक्यं काव्यं’ (रसमय वाक्य काव्य है) डंडी काव्य की शोभा अलंकार से मानते हैं (काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते) रुय्यक काव्य में अलंकार को प्रधान मानते हैं (अलंकारा एव काव्य प्रधानमिति प्रच्यानां मतं) वामन के अनुसार काव्य की आत्मा रीति है (रीतिरात्मा काव्यस्य) कुंतक वक्रोक्ति को काव्य का जीवन बताते हैं (वक्रोक्ति: काव्यजीवितं) आनंदवर्धन ध्वनि को काव्य की आत्मा कहते हैं (काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति) क्षेमेंद्र ने रस को महत्त्व दिया (औचित्यं रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितं) रुद्रट  के अनुसार कितना भी अधिक यत्न करना पड़े किन्तु काव्य को रसयुक्त होना ही चाहिए (तस्मात्कर्तव्यं यत्नेन महीयासा रसैर्युक्तं) अग्निपुराणकार के अनुसार वाग्वैदग्ध्य प्रधान होने पर भी काव्य का प्राण ‘रस’ ही है (वाग्वैदग्ध्यप्रधानेsपि रस एवात्र जीवितं) काव्य के विविध तत्वों को अंतत: रस का सहायक प्रतिपादित किया गया- ‘तेन रस एव वस्तुत आत्मा वस्त्वलंकारध्वनि तु सर्वथा रसं प्रति पर्यवस्येते’ (रस ही वस्तुत: काव्य की आत्मा है, वस्तु-ध्वनि व अलंकार –ध्वनि अंतत: रस की सहायक मात्र हैं महापात्र विश्वनाथ समन्वय करते हुए कहते हैं: ‘शब्द-अर्थ काव्य पुरुष के शरीर, रस और भाव आत्मा, शूरता-दया-दाक्षिण्य के समान माधुर्य-ओज-प्रसाद आदि गुण हैं कानापन-बहरापन-भेंगापन के समान श्रुतिकटुत्व व च्युत संस्कृतित्व काव्य के दोष हैं वैदर्भी-पांचाली-गौडी रीतियाँ काव्य पुरुष के अवयवों का सुडौलपन है जबकि शब्दगत और अर्थगत अलंकार कुंडल-कंकण की भाँति अलंकार हैं छोटी पद्य  रचनाएँ मुक्तक आदि ‘कविता’ तथा बड़े पद्य ग्रन्थ ‘काव्य’ हैं काव्य के अंतर्गत सिद्धांतत: गद्य भी है       
काव्योद्देश्य: अलौकिक आनंद, उपदेश, मानवीय राग का सृष्टि के साथ सामंजस्य, कार्य में प्रवृत्त करना, स्वभाव शोधन आदि काव्य के उद्देश्य कहे गए हैं दृश्य तथा श्रव्य काव्य के २ प्रकार हैं श्रव्य काव्य के २ भेद वाच्यार्थपरक तथा व्यंग्यार्थपरक हैं अर्थ की रमणीयता के आधार पर ध्वनि काव्य को उत्तम, व्यंग्य काव्य को माध्यम तथा चित्र काव्य को अधम कहा गया है
छंद: प्रस्तुत अंक पद्य और छंद के अंतर्संबंध पर केंद्रित है छंद को आत्मा और पद्य को शरीर कह सकते हैं ध्वनि छंदबद्ध होकर पद्य रूप में आनंदित करती है चयनित छंदों के विधान और उदाहरण पर आधारित कई पत्रिकाओं के विशेषांक प्रकाश में आ चुके हैं साहित्य त्रिवेणी के इस अंक में नव रचनाकारों के लिए संस्कृत-काल से प्राप्त वैदिक-लौकिक छंदों की विरासत, संगीत, नृत्य और साहित्य में छंद, लय, गति आदि की अवधारणा, आंचलिक लोकगीतों में छंद, जीवन के विविध क्षेत्रों (बाल शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, यांत्रिकी, जनसंपर्क आदि) में छंद की भूमिका की पड़ताल का प्रयास संभवत: पहली बार किया गया है लीक से हटकर ऐसे अध्ययन और लेखन के लिए अधिकांश प्रतिष्ठित (?) हस्ताक्षरों का आगे न आना जटिल संपादकीय दायित्व को जटिलतर बनाता रहा 
गत ४ दशकों से छंद-पठन और छंद-रचना से निरंतर जुड़े रहने और २ दशकों से छंद कोष हेतु नव छंदों के प्रणयन के प्रतिबद्धता ने छंद से जुड़े अनेक आयामों से परिचय कराया है। कुछ इस अंक में स्थान पा सके हैं, शेष फिर कभी सामने लाए जाएँगे। वाचिक छंदों में लयाधारित मात्रा-गणना एक इसी ही संकल्पना है जिस पर अभी तक विचार नहीं हुआ है। हिंदी के किताबी प्राध्यापक और रचनाकार ध्वनि-खंड (सिलेबल्स, रुक्न) को वर्ण या मात्रा से हटकर उच्चार समय के आधार पर गिनने से परहेज करते हैं। वे भूल जाते हैं कि भाषा ओर छंद का जन्म और विकास 'लोक' में होता है, किताबों में नहीं। लोक-काव्य में 'छंद' की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद अध्येता उसके लक्षण तलाशकर किताब-बद्ध करते हैं। सलिल-धार की तरह सर्वाधिक लचीली काव्य विधा का विधान पत्थर की तरह रूढ़ कैसे हो सकता है? लय-खंडाधारित जापानी छंदों को वर्णाधारित कर, तुकबन्दी के माध्यम से सरसता लाने के दुष्प्रयास ने हिंदी हाइकु को विश्व की अन्य भाषाओं में हाइकु-लेखन हाइकु से सर्वथा अलग कर दिया है। यही जड़ता दोहा छंद के विषम चरण की ग्यारहवीं मात्रा को लघु रखने में दिन-ब-दिन बढ़ रही है। हिंदी छंद-लेखन में बाल की खाल निकलने की दुष्प्रवृत्ति के फलस्वरूप युवा पीढ़ी उस उर्दू की गोद में बैठ रही है जिसके शब्द कोष में उसका अपना कोई शब्द ही नहीं है। कमाल यह कि हिंदी छंद-लेखन की चीर-फाड़ करनेवालों को ग़ज़ल जैसी काव्य विधाओं में मात्र गिराने-बढ़ाने पर आपत्ति नहीं होती। इस प्रसंग में अन्य उपयुक्त अवसर पर चर्चा की जा सकेगी।    
आभार उन सभी कलमों का जिन्होंने हिचकते-हिचकते ही सही छंद-लेखन से संबंधित नव विचारों पर लेखन को मूर्त रूप दिया सर्वाधिक आभार साहित्य त्रिवेणी पत्रिका के कर्मठ और हिंदी हेतु प्राण-प्राण से समर्पित संपादक डॉ. कुंवर वीरसिंह शर्मा ‘मार्तण्ड’ का जिन्होंने ‘छंद विशेषांक’ नेकलने के मेरे प्रस्ताव को न केवल सहर्ष स्वीकार किया, इसकी परिकल्पना, सामग्री संचयन, संपादन आदि की पूर्ण स्वतंत्रता भी दी यहाँ तक कि पत्रिका के सामान्य अंक से दो गुने से अधिक सामग्री होने पर दो अंक संयुक्त करने और पुस्तकाकार प्रकाशित करने के विचार से भी सहमति दिखाई अपना सर्वोत्तम प्रयास करने के बाद भी मैं सामग्री समय पर जुटा और संपादित न कर सका, इस विलंब हेतु खेद-प्रकाश के अतिरिक्त मुझ अकिंचन के पास और है ही क्या? मन की अन्तरंग गहराइयों से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ सभी लेखकों के प्रति जिन्होंने समयाभाव और पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं के बाद भी मेरे आग्रह की रक्षा की आभार उन सबका भी जिन्होंने किसी कारणवश लेख नहीं भेजे, वे मेरे ‘तुरुप के इक्के’ हैं, अगले किसी सारस्वत अनुष्ठान में उनके सहारे ही नैया पार लगेगी। यह सकल अनुष्ठान माँ शारदा की प्रेरणा, कृपा और दिशा-दर्शन से इस रूपाकार में आपके सम्मुख है इसमें यत्किंचित जो भी अच्छा है वह माँ और लेखकों का है सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। असंख्य कमियाँ और त्रुटियाँ मेरी अक्षमता, अल्पज्ञता और अनुभवहीनता के कारण हैं, उन सबके लिए नतशिर क्षमाप्रार्थी हूँ नई पीढ़ी को इस अंक के माध्यम से ‘छंद’ से जुड़ने और छंद में लिखने की प्रेरणा मिल सके तो यह प्रयास सफल होगा
विश्ववाणी हिंदी की जय। 
हिंदी सेवार्थ समर्पित 
संजीव  
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साहित्य त्रिवेणी ३ बुंदेली वाचिक काव्य में छंद- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

३. बुंदेली वाचिक काव्य में छंद
आचार्य संजीव वर्मा ‘साल
वाचिक काव्य-परंपरा को लोकगीत भी कहा जाता है। इनमें जन-मन की अभिव्यक्ति का निश्छल रूप सामने आता है। मानव जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जिस लोकगीत न कहे गए हों। लोकगीतों को ग्राम्य-गीत भी कहा गया है। लोकगीत आम जनों की अभिव्यक्ति है, जिसे पढ़कर ख़ास जन अपनी अभिव्यक्ति को परिमार्जित करते हैं किंतु इससे लोक-साहित्य का कुछ भला नहीं होता, अपितु उसे हानि ही होती है। प्रख्यात लोक संस्कृति अध्येता देवेंद्र सत्यार्थी के अनुसार ‘लोकगीत प्रकृति के उदगार हैं, इनमें अलंकार नहीं रस है, छंद नहीं लय है, लालित्य नहीं माधुर्य है।‘ कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘लोक साहित्य को मानव के अर्ध चेतन मन की स्वच्छंद रचना कहा है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में: ‘लोकमानस गीतों को जन्म देते समय उन्हीं भावों से स्पंदित और आंदोलित हुआ है जिनसे कालिदास और भवभूति हुए थे। देश के हर अंचल के लोकगीत लगभग एक सी भावनाएँ-कामनाएँ, उल्लास-विषाद, सुख-दुःख, आशा-निराशा की अभिव्यक्ति करते हैं। वे अनेकता में एकता की सृष्टि करते हैं। बुंदेली लोकगीतों में श्रृंगार, वीर तथा करुण रस की प्रधानता है। छंद इन लोकगीतों का श्वास - प्रश्वास है।  
फागों में छंद  
फाग हिंदी भाषी प्रदेशों का लोकप्रिय लोकगीत है। मध्य प्रदेश के जबलपुर, सागर, नर्मदापुरम, रीवा, शहडोल,  छिंदवाड़ा व ग्वालियर संभागों में उत्तर प्रदेश के झांसी, आगरा संभागों में फाग गायन की परंपरा चिरकालिक है। बृज भूमि में लीलाविहारी आनंदकंद श्रीकृष्ण और राधारानी की लीलाओं के फाग तथा बुंदेलखंड में महाकवि ईसुरी रचित फाग गाँव-गाँव में गाए जाते हैं। अगहन पूस की कड़कड़ाती सर्दियों का अंत, माघ की मादक-महकती बयारें, ऋतुराज बसंत का धरागमन, basantbasanबसंतपंचमी, मादल, ढोलक, टिमकी पर थाप, झाँझ-मँजीरा की झंकार और लोकगायकों के कंठ-स्वरों से फूटती स्वर-लहरियाँ, झूमते-इठलाते फगुहारों की टोलियाँ, मन-बहलाव का साधन मात्र नहीं सुमधुर सनातन लोक परंपरा का पुनार्गायन है। फाग गीत पारस्परिक मनोमालिन्य को दूरकर सद्भाव, साहचर्य और सहकार के नए पृष्ठ खोलते रहे हैं। सूर, खुसरो, कबीर, तुलसी, मीरा, ईसुरी आदि के फाग-गीतों में आदि देव शिव, विष्णु के अवतार राम और श्याम ही नहीं, ग्र्राम्य बल रजऊ भी मनमोहिनी भाव-मुद्राओं के साथ विराजित हैं। इस फागों में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शांत आदि सभी रसों का समावेश है। फाग गायन सामूहिक रूप से किया जाता है। वादक गायकों के मध्य में होते हैं। मुख्य गायक फाग की ध्रुव-पंक्ति उठाता है। ध्रुव पंक्ति को सब मिलकर ३-४ बार दुहराते हैं। फिर मुख्य गायक अगली पंक्ति गाता है। फिर ध्रुव पंक्ति सब मिलकर दुहराते हैं।   
फाग-गीत पदों के रूप में रचे और गाए गए हैं। पद के आरंभ में मुखड़े की एक ध्रुव पंक्ति होती है जिसके बाद एक से लेकर ५ पंक्तियों तक के अंतरे होते हैं। अंतरों की संख्या निर्धारित नहीं है। ध्रुव पंक्ति में सामान्यत: १२ से १६ मात्राएँ तथा पदांत गुरु होता है। अंतरे में सामान्यत: २८ से ३२ मात्राओं की पंक्तियाँ होती है जिनका तुकांत ध्रुव पंक्ति के समान होता है। हर अंतरे के बाद  ध्रुव पंक्ति दुहराई जाती है। निम्न पारंपरिक फाग में ध्रुव पंक्ति १६ मात्रिक है जबकि अंतरे की पंक्तियाँ २८ मात्रिक है, १६-१२ पर यति तथा पदांत में गुरु गुरु है। मुखड़ा में आदित्य जातीय छंद है जबकि अंतरा यौगिक जातीय सार छंद में है।
प्रथमै श्री गणेश को गैये।। / गंगा-जमुना सरस्वती को, संगम घाट नहैये।। / काशीपुरी मुक्ति का द्वारा, तहाँ कछुक दिन रहिये।। / पाच पैग परिकरमा कै कै, तन के पाप कटैये।। / हरिद्वार से जल भरि लैये, बैजनाथ को जैये।। / अच्छत चार बेल की पाती, हर-हर कहि नहवैये।।
कुछ फागों में ध्रुव पंक्ति और अंतरा समान पदभार के देखे गए हैं। निम्न फाग में ध्रुव पंक्ति तथा अंतरा ३० मात्रिक महातैथिक जातीय ताटंक छंद में हैं। १६-१४ पर यति और पदांत में मगण है।
सदा अनंद रहै यहु द्वारे, मोहन खेलें होरी हो। / इकवर खेलें कुँवर कन्हैया, इकवर राधा गोरी हो। / मारत आवें गुलाब-छड़ियाँ, पछरत राधा गोरी हो। / डफ लै खेलें कुँवर कन्हैया, रँग लै राधा गोरी हो। / कहे-सुने का माख न मान्यों, बरस-बरस कै होरी हो। / बनी रहै भाइन की जोरी, नित उठ खेलें होरी हो।   
पदों को लेकर समय-समय पर खड़ी हिंदी में भी प्रयोग होते रहे हैं। संजीव वर्मा ‘सलिल’ रचित हिंदी वंदना की फाग देखें जिसमें ध्रुव पंक्ति तथा अंतरा ३० मात्रिक महातैथिक जातीय ताटंक छंद में हैं। १६-१४ पर यति और पदांत में मगण है: ‘हिंदी का हो जय-जय कारा, दुनिया बोले हिंदी हो। / स्वर-व्यंजन शब्दाक्षर सार्थक, मधु-रस घोले हिंदी हो। / शब्द-शक्तियाँ, शब्द-भेद मिल भावों को अभिव्यक्त करें। / अलंकार-रस-छंद अमिय पी, घर-घर डोले हिंदी हो। / विधि; विज्ञान; यांत्रिकी; भेषज, दर्शन; कला; गणित; वाणिज्य। / हिंदी में अभिव्यक्ति श्रेष्ठतम, मधु-रस ढोले हिंदी हो। / मात्रिक-वार्णिक; वैदिक-लौकिक, वाचिक छंद करोड़ों है। / गति-यति; नियम-विधान न भूले, मन-मन झूले हिंदी हो।
श्री राजेन्द्र वर्मा ने पद विधा के छंद विधान को लेकर ‘जीवन है अनमोल’ कृति का सृजन किया है जिसमें ५२ पद हैं। उन्होंने मुखड़ा या टेक में १२ से २० मात्राएँ, तथा पदावली में समान मात्राओं की ५ से ११ पंक्तियाँ (विषम सम मात्रिक छंद, प्रथम चरण १६ मात्रा, द्वितीय चरण १०-१५ मात्रा, तुकांत नियम-मुक्त) होना प्रतिपादित किया है। कभी-कभी मुखड़े में डेढ़ पंक्तियाँ भी होती हैं। मुखड़े और पदावली समतुकांती भी होते हैं और भिन्न तुकांती भी। राजेन्द्र जी ने सामाजिक विसंगतियों पर तीखे व्यंग्य प्रहार करते पदों से फाग-गीतों को एक नया आयाम दिया है: ‘बापू! अंग्रेजी का राग। / सत्तर वर्षों से इंग्लिश के, सिर पर साजे ताज। / बड़ी शान से हिंदी पर ही गिरा रही है गाज। संसद-न्यायालय को आती है हिंदी में लाज। / हिंदी में बातें करते पर करें न कोई काज। जब तक हिंदी में शिक्षा का नहीं सजेगा साज। / तब तक व्यर्थ गँवाएंगे हम, भाषिक साज-समाज।‘  
फाग उल्लास और राग का लोकगीत है। फागों के इस रूप में ध्रुव पंक्ति ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय छंद में होती है जिसमें १९-१३ पर यति तथा प्रथम भाग के अंत में दो गुरु का विधान होता है। आवश्यकतानुसार पहले अथवा दूसरे गुरु को दो लघु से बदल लिया जाता है। इस फाग के गायन हेतु गायक दो दलों में बँट जाते हैं। वादक दोनों दलों के मध्य में होते हैं। मुख्य गायक ध्रुव पंक्ति का १९ मात्रिक पहला भाग गाता है। लय परिवर्तन के साथ ३-४ बार आवृत्ति के बाद, सब गायक ध्रुव पंक्ति का १३ मात्रिक शेष भाग मिलकर गाते हैं। ‘अरे हाँ’, ‘बालमा’, ‘सैंया हो’ अथवा अन्य शब्दों का उद्घोष कर प्रथम भाग के अंतिम शब्दों को दुहराया जाता है। साथ ही वादक गण अपने वाद्यों को पूरे जोश के साथ बजाते हैं। एक अद्भुत समा बंध जाता है। ध्रुव पंक्ति के प्रथमार्ध को दोनों दल दो-दो बार दुहराते हैं। अब अंतरा गायन के गायक-वादक सब शांत हो जाते हैं। कोई एक गायक उच्च स्वर में अंतरे की पंक्ति गाता है। अंतरा गायन एक या एक से अधिक गायक भी  कर सकते हैं। अंतरा सामान्यत: ४ पंक्तियों का होता है। प्रथम दो पंक्तियाँ रोला छंद (११-१३, पदांत दो गुरु) तथा शेष दो पंक्तियाँ २४ मात्रिक होती हैं जिनके अंत में गुरु-लघु मात्राओं का विधान है। अंतरा-संख्या का कोई विधान नहीं है। फागों का शिवावतारी, रामावतारी, कृष्णावतारी, सुराजी, मतवारी, श्रृंगारी, किसानी, व्यवहारी आदि नामकरण विषयानुसार किया जाता है। फाग-गायन-स्पर्धा में एक दल के गायक गाते-गाते दूसरे दल की और बढ़ते हुए उसे पीछे खदेड़ते जाते हैं, फिर दूसरा दल भी यही प्रक्रिया करता है। इसे दौड़ा की फाग कहते हैं।
शारदावातारी फाग का एक अंतरा देखें: ध्रुव पंक्ति: शारदा शरण तुम्हारी आए हैं, कर दो वीणा झंकार (१९-१३) / अंतरा: दइयो माता ज्ञान, शरण में हैं अज्ञानी (११-१३)/ हम बच्चों की लाज, राखियो मात भवानी २(११-१३), / करें विनय आचार्यगण, तुमसें बारम्बार (१३-११) / कृपा करो संगीत की बह जावै रसधार २( १३-११), शारदा शरण तुम्हारी आए हैं। - आचार्य भागवत दुबे
देश में मत फैलाओ कचरा रे!, सब मिलकर कर लो साफ़ (१९-१३)/ मिलकर कर लो साफ़, बने तब उज्ज्वल भारत (११-१३) / सेहत हो न ख़राब, ज़िन्दगी होय न गारत (११-१३) / शौचालय निर्माण से, हो न आपको रोग (१३-११) / अपना स्वास्थ्य सुधार हो, रोज-रोज कर योग (१३-११) / देश में मत फैलाओ कचरा रे! – आचार्य sanjivसंजीव वर्मा ‘सलिल’  .   .  
रंगतवारी चौकड़िया फाग: महाकवि ईसुरी ने चौकड़िया फागों की रचना ही नहीं की, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा भी की। नरेंद्र छंद में रचित चौकड़िया फागों में ४ पंक्तियाँ होती है। राधावातारी श्रृंगारी फाग में महाकवि ईसुरी ने राधा के नख-शिख वर्णन की सात्विकता दर्शनीय है: ‘लागै नख-शिख सें तन नीको, कुँवरि राधिका जी कौ। / केहरि, कदली, श्रीफल, दाड़िम, गति मंडल गज फीकौ। / आनंद कंद मंद मुसकैबो, गिरधर को मन झींकौ। / ईसुर उड़त सुबास सुकृत की, शोभन घर कौ टीकौ। इस फाग में २८ मात्रिक नरेंद्र छंद का प्रयोग है जिसमें १६-१२ पर यति है। राधा जी के विविध अंगों हेतु प्रयुक्त प्रतीक केहरि (कमर), कदली (जंघाएँ), श्रीफ्क (उरोज), दाड़िम (दन्तावली), मंडल गज (गजगामिनी चाल) आदि दर्शनीय हैं। ssss
बंबुलिया / लमटेरा में छंद:
बंबुलिया गीत नर्मदांचल में गाँव-गाँव में गाए जाते हैं। नर्मदा को मा मानते हुए मायके से ससुराल आती-जाती बेटियाँ नर्मदा में ही स्वजनों का बिंब देखती-गाती हैं: नरमदे मैया ऐंसीं तो मिलीं रेsss / ऐंसीं तो मिलीं रे जैसे / मिल गै मताई औ बाप रेsss /wars नरमदे मैया होsss’  इस लोक गीत को लय सहित यूट्यूब पर भी सुना जा सकता है। बंबुलिया गायन खेतों में मचान पर बैठे-बैठे पशु-पक्षिओं से फसलों की रक्षा करते हुए भी किया जाता है। प्राय: एक गायक या गायिका अपने अकेलेपन को दूर करते हुए बंबुलिया गाता है और उसे सुनकर कहीं दूर खेत ताक रहा कोई दूसरा सर्वथा अपरिचित गायक/गायिका सर में स्वर मिलाते हुए अपनी पंक्तियाँ गा उठता है। बहुधा कोई पूर्व निर्धारित विषय या पाठ न होने पर भी बंबुलिया गायन में साँझ से रात या रात से भोर कब हो जाती है पता ही नहीं चलता। ऐसे सरस बंबुलिया गायन से ग्राम्यांचलों में बसे अनजान आशु कवियों की प्रतिभा परवान चढ़ती है। इस छंद में बार-बार लम्बे आलाप (टेर = पुकार) होते हैं, इसलिए इसे लमटेरा (लम्बी टेरवाला) छंद कहा गया। नर्मदा का उद्गम बाँस-वन से होने के कारण इसका एक नाम ‘वंशलोचनी’ है। बाँस को बंबू कहा जाता है, बंबू की पुत्री को टेरनेवाले छंद का नाम ‘बंबुलिया’ सटीक है।  
बंबुलिया का आरंभ और अंत प्राय: १९ से २२ मात्राओं की दो चरणों में विभक्त पंक्ति से होता है। दूसरा चरण दूसरी पंक्ति में ‘रे’ अथवा अन्य ‘टेक’ के साथ दुहराया जाता है। दूसरी पंक्ति में १५ से १९ मात्राएँ होती हैं। तीसरी पंक्ति में १३ से १५ मात्राएँ होती हैं। चौथे पंक्ति में ९ से ११ मात्राएँ होती हैं। वाचिक छंद का गायन लय के आधार पर किया जाता है; मात्रिक / वार्णिक असंतुलन आलाप से पूरा कर लिया जाता है।     
डॉ. शरद मिश्र प्राध्यापक हिंदी ने इसे छंद में नर्मदा शतक (१११ पद) की रचना की है, जो मेरे संपादन में ‘नर्मदा पत्रिका के अंक ६ में २००४ में प्रकाशित हुए हैं। बानगी देखें: ‘मेकल चोटी पे उतरी है रेवा रे / उतरी है रेवा रे! चिर कुँआरी / पानी हे छूबे कौन रे! / नरबदे अरि हो।‘ (२२-१९-१५-९)। एक और उदाहरण देखें: ‘पहारन बीच मैया रे बहत हैं / मैया रे बहत हैं; गहरो पानी / चिरैया गावे भोर रे! / नरबदे अरि हो।’ (१९-१९-१४-९)।
मेरे लिखे हुए बंबुलिया नर्मदा की धार से अभियंताओं द्वारा बिजली बनाए और सिंचाई करने की बानगी प्रस्तुत करते हैं: नरमदे मैया हिरनी सी दौडीं / हिरनी सी दौडीं, परवत पे / बन्धा ने थामो वेग रे! / नरमदे जय हो।(१९-१६-१५-९)। बरगी बँधा में बन रई बिजुरिया / बन रई बिजुरिया, नरमदे / खेतों में पोंची धार रे / नरमदे जय हो।(१९-१५-१५-९)।   
सोहर गीत: हो
बच्चे के जन्म के समय सोहर गीत गाए जाते हैं। इनमें छटी के गीत, सरियां गीत, चौक के गीत, दस दिन बाद बधाई गीत, कुआं पूजन गीत (१ माह बाद) आदि होते हैं। प्रसव पीड़ा से छटपटाती प्रसूत का दर्द बयां करता है यह सोहर गीत: ‘मोरे उठत कमर घन पीर, अब नैयां जीने की’(नाक्षत्रिक जातीय छंद) / सुन राजा रे!, महाराजा रे!, मोर सासू को देव बुलाव ( लाक्षणिक जातीय छंद), / अब नैयां जीने की’
श्रीमती शांति देवी वर्मा रचित निम्न गीत में अवध में श्री राम के जन्म लेने पर शंकर जी दर्शन करने आये हैं: ‘अवध में जन्में हैं श्री राम, दरश को आए शंकर जी / कौन नाचते, कौन गा रहे, कौन बजाए करताल, दरश को आये शंकर जी (मुखड़ा अश्वावतारी जातीय छंद, अंतरा महायौगिक जातीय, मरहठा माधवी छंद)। शांति देवी रचित यौगिक जातीय सार छंद में रचित बधाई गीत में ‘फाग’ की तर्ज पर ‘हाँ-हाँ’ की टेक का उपयोग किया गया है। ‘बाजे अवध बधैया हाँ-हाँ, बाजे अवध बधैया / मोद मगन नर-नारी नाचें, हर्षित तीनों मैया / हा-हाँ हर्षित तीनों मैया... भतीजे के जन्म पर ननदी ‘बधावा’ लाए तो गीत से स्वागत होना ही चाहिए: ‘बधावा लाई ननदी अरे! साँवलिया! (महारौद्र जातीय,राधिका छंद) / कहाँ से आई सोंठ, कहाँ से आई पीपर (महावतारी जातीय छंद) / कहाँ से आई ननदी अरे! साँवलिया! (महारौद्र जातीय,राधिका छंद)।
‘सोंठ के लडुआ चिरपिरे रे! (संस्कारी जातीय अरिल्ल छंद) / लडुआ बँधावे जिठानी मोरी आई (महारौद्र जातीय कुंडल छंद) / बिन्ना तनक सो लडुआ हमें दे राखो (महारौद्र जातीय कुंडल छंद) / लडुआ फोड़त मोरी बैयाँ दुखत है (त्रैलोक जातीय छंद) / सेंगो दओ नईं जाय (भागवत जातीय छंद)  / पसेरी भर जिज्जी घी डरो है.(पौराणिक जातीय, पुरारी छंद)। 
‘मिथिला में सजी बरात, सखी! देखन चलिए (अवतारी जातीय छंद) / शंख मँजीरा तुरही बाजे, झाँझ नगाड़ा शहनाई (महातैथिक जातीय, कुकुभ छंद)/ सखी! देखन चलिए... –शांति देवी वर्मा रचित बरात स्वागत गीत के पश्चात उन्हीं की कलम से नि:सृत ज्योनार गीत का आनंद लें: ‘जनक अँगना में होती ज्योनार / जीमें बराती ले-ले चट्खार (पौराणिक जातीय बंदन छंद)।
बारात स्वागत गीत: बने दूल्हा छबि देखो भगवान की (महादैशिक जातीय अरुण छंद) / दुल्हिन बनी सिया जानकी (तैथिक जातीय उज्वला छंद) / जैसे दूल्हा अवध बिहारी (संस्कारी जातीय, पादाकुलक छंद)/ वैसी दुल्हिन जानकी प्यारी / जाऊँ तं-मन से बलिहारी / मंशा पूरी हुई रे अरमान की / दुल्हिन बनी सिया जानकी। -शकुंतला खरे   
बिदाई गीत: ‘ठाँड़े जनक संकुचाए, राम जी को का देऊँ? (महाभागवत जातीय छंद) / हीरा पन्ना मानिक मोती मूंगा मानिक लाल (नाक्षत्रिक जातीय, सरसी छंद)/ राम जी को का देऊँ? – शांति देवी वर्मा रचित इस बिदाई गीत में जनक धर्म संकट में हैं कि राम जी तो लक्ष्मी पति विष्णु हैं, उन्हें लोकाचार के अनुसार दहेज़ क्या दूँ? सब कुछ उन्हीं का है और गीत के अंत में राम उनका संधान करते हुए कहते हैं ‘दुल्हन ही सच्चा दहेज है, मत दें धन-सामान। नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में रचित अन्य बिदा गीत में शांति देवी चली मार्मिक वर्णन करती हैं- चलीं जानकी प्यारी सूना भया जनकपुर आज / मात सुनैना अंक भर रोएँ, बाबुल जनक बेहाल / सूना भया जनकपुर आज। सुख-दुःख धूप-छाँव की तरह आते-जाते हैं। जनकपुर से बिदा का दुःख अवधपुरी में कुलवधू के स्वागत के सुख में विलीन होता है। शांति देवी महावतारी जातीय मुक्तामणि छंद में इस सुख का वर्णन करती हैं: ‘द्वारे बहुरिया आई /सुनत जननि उठि धाई।  
राई गीतों में छंद:
राई त्रिपदिक बुंदेली छंद है। पहली पंक्ति को २ बार गाया जाता है, फिर तीसरी पंक्ति अभिवयक्ति को चरम पर ले जाती है। ‘ऊँसई लै लो प्रान, ऊँसई लै लो प्रान, छाती पे होरा नें भून्जो’ (१२-१२-१६)। राई गीतों में मात्रिक या वार्णिक संख्या के स्थान पर लय को अधिक महत्त्व दिया जाता है। ‘नल में टोंटी लगाव / नल में टोंटी लगाव / पानी बचाव अनमोल है’ (१२-१२-१५) आचार्य भागवत दुबे। ‘माँगो न दहेज़ / माँगो न दहेज़ / दुल्हन ही सच्चा दहेज़ है। (९-९-१६) –आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’। जापानी त्रिपदिक छंद हाइकु की तुलना में भारतीय त्रिपदिक छंदों राई, माहिया, जनक छंद आदि में लालित्य, चारूत्व, माधुर्य और सन्देशपरकता अधिक है।   
घाघ-भड्डरी की कहावतों में छंद
भाषा और छंद का जन्म और विकास लोक में ही होता है लोक द्वारा स्वीकृत हो जाने पर विद्वज्जन उस और आकृष्ट होकर उनमें अन्तर्निहित तत्वों का अध्ययन कर भावी अभिव्यक्ति के लिए मानक बनाते हैं लोक का मूल कर्म कृषि है, क्योंकि कृषि के बिना व्यवस्थित उदर-पोषण और पारिवारिक जीवन संभव नहीं होता इसलिए कृषि-कहावतों में काव्य का मूल रूप मिलता है जिसमें छंद की उपस्थिति सहक दृष्टव्य है कृषि काव्य के शिखर हस्ताक्षर घाघ और भड्डरी हैं इन दोनों ने प्रकृति और पर्यावरण का सूक्ष्म अवलोकन कर चतुर्दिक हो रहे ऋतु-परिवर्तन तथा गृह-नक्षत्र परिवर्तन के कृषि पर पड़े प्रभावों का आकलन कर जो निष्कर्ष निकाले उन्हें छंद-बद्धकर लोक में प्रस्तुत किया पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस निष्कर्षों का परीक्षण हुआ और आज भी इन्हें सही पाया जाता है छंद और कृषि-विज्ञान के मध्य सेतु-स्थापन में इन कृषि कहावतों की महती भूमिका है इस कहावतों के अध्ययन से ज्योतिष-शास्त्र और छंद के मध्य बने सेतु समूह का अध्ययन किया जा सकता है
घाघ के काव्य में छंद:
‘चना चित्तरा चौगुना, / स्वाती गेहूँ होय’ दोहा छंद की इस अर्धाली के अनुसार चित्रा नक्षत्र में बोने पर चना और स्वाति नक्षत्र में बोए जाने पर गेहूं की फसल चौगुनी होती है
‘चित्रा गेहूँ, आर्द्रा धान, / न उनके गेरुई, न इनके घाम’ क्रमश: १५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद तथा १८ मात्रिक पौराणिक जातीय बंदन छंद की इन पंक्तियों के अनुसार चित्रा नक्षत्र में गेहूँ और आर्द्रा नक्षत्र में धान बोने से गेहूँ में गेरुई नहीं लगती तथा धान पर धूप का दुष्प्रभाव नहीं होता फलत: फसल अच्छी होती है
आधे चित्रा फूटी धान / विधि का लिखा ना होई आन १५ मात्रिक तैथिक जातीय पुनीत छंद में घाघ कहते हैं: आधा चित्र नक्षत्र व्यतीत होने पर धान में बालें निकलने लगे तो उपज अच्छी होना ब्रम्हा के लिखे की तरह अटल है इसी छंद में एक और कहावत देखें- ‘माघ महीना बोइये झार / फिर राखो रब्बी की डार’ माघ महीने में खरीफ को साफकर घर में रख लो फिर खेत रबी (गेहूं) बोने के लिए तैयार रखो
‘आर्द्रा धान पुनर्वसु पैया / रोवै किसान जो बोवै चिरैया।‘ आर्द्रा नक्षत्र में धान बोयें, पुनर्वसु नक्षत्र में धान बोने पर दाना रहित पुआल होता है चिरैया (पुष्य) नक्षत्र में धान बोने पर किसान रोता है अर्थात फसल नहीं होती यहाँ १६ मात्रिक संस्कारी जातीय अरिल्ल छंद तथा १९ मात्रिक महापौराणिक जातीय दिंडी छंद की पंक्तियाँ है
‘आधे हथिया मूरि मुराई / आधे हथिया सरसों राई।‘ १६ मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद की इन पंक्तियों के अनुसार हस्त नक्षत्र आधा बीतने पर मूली, सरसों और राई बोना चाहिए निम्न पादाकुलक छंद से कृषक-जीवन का सूत्र समझिए- ‘समथर जाते पूत चरावै, लगते जेठ भुसाला छावै / भादों मास उठे जो गरदा, बीस बरस तक जोतो बरदा’ बैल से समतल की गयी जमीन पर जुताई का काम लेने के बाद किसान का पुत्र उसे चरावे, जेठ माह आरंभ होते ही भूसा रखने के लिए स्थान तैयार हो, भादों माह में बैल को सूखे स्थान पर बाँधे तो २० वर्ष तक बैल को जोत सकता है    
बुद्ध-ब्रहस्पति को भले, शुक्र न भले बखान / रवि मंगल बोनी करे, द्वार न आए धान इस दोहा २ (१३+११) के अनुसार बुध तथा गुरुवार को धान बोना अच्छा होता है शुक्रवार को धान बोना अच्छा नहीं तथा रवि और मंगल को धान बोने पर द्वार पर धान नहीं आता अर्थात फसल नहीं उपजती ‘बाड़ी में बाड़ी करे, करे ईख में ईख. /
सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय चौपाई छंद में कृषि संबंधी तथ्य सहजता से कहे गए हैं: ’घनी-घनी जब सनई बोवै / तब सुतरी की आशा होवै’ सन के पौधे निकट बोने पर ही उससे पर्याप्त मात्रा में सुतली पाई जा सकती है ऊख गोड़ि के तुरत दबावै / तौ फिर ऊख बहुत सुख पावै गन्ने की गोड़ाई करने के तुरंत बाद उसे दबा दें तो गन्ना की उपज प्रचुर होती है
‘पैग-पैग पर बाजरा, मेंढक कुदैनो ज्वार / ऐसे बोवै जो कोई, घर का भरे भण्डार.’ इस पच्चीस मात्रिक महावतारी जातीय छंद के अनुसार कदम-कदम पर बाजरा और मेंढक की छलाँग बराबर दूरी पर ज्वार बोनेवाला घर का भण्डार भर लेता है
२३ मात्रिक रौद्राक जातीय १२-११ चरणीय छंद में पुनरावृत्ति अलंकार के साथ जौ, चना और गन्ना संबंधी सीख देखें: ‘छीछी भली जौ-चना, छीछी भली कपास / जिनकी छीछी उखड़ी, उनकी छोडो आस’ जौ, चना और कपास छिछली (दूर-दूर) बोई जाए तो अच्छी फसल देती है किंतु गन्ना छिछला हो तो फसल की आशा छोड़ देना चाहिए
११-१३ चरणीय २४ मात्रिक सोरठा और रोला छंद में श्रेष्ठ कृषक के लक्षण देखिए: ‘बीघा बायर बॉय, बाँध जो होय बँधाए / भरा भुसला होय, बबुर जो होय बुआए / बढ़ई बसे समीप, बसूला बाढ़ धराए / पुरखिन होय सुजान, बिया बोउनिहा बनाए / बरद बगौधा होए, बदरिया चतुर सुहाए / बेटवा होय सपूत, कहे बिन करे कराए’ सच्चा किसान वह है जिसने बड़े-बड़े खेतों में पानी रोका हो. उसका भूसा घर भरा हो. बबूल के वृक्ष लगाए हों. उसके निकट बसूले पर धार रखे बढ़ई हो, उसकी पत्नी खेतों में समय-समय पर बोए जानेवाले बीजों की अच्छी जानकार हो जो बीज तैयार रखती हो उसके बैल अच्छे, हलवाहे चतुर और बेटा सपूत हो जो बिना कहे गृहस्थी के सब काम करता हो.
१५ मात्रिक तैथिक जातीय छंद में ऋतु अनुसार भोजन संबंधी संकेत आयुर्वेद चिकित्सा से भी जुड़ते हैं- ‘सावन हर्रे भादों चीत, क्वांर मास गुड़ खायउ मीत / कार्तिक मूली अगहन तेल, पूस में करे दूध से मेल / माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठि के प्रात नहाय / चैत मास में नीम बेसहती, बैशाखे में खाय जड़हथी / जेठ मास जो दिन में सोवे, / ओकर जर असाढ़ में रोवै
भड्डरी की कहावतें:
‘सुक्रवार की बादरी, रहे सनिस्चर छाय। तो यो भाखे भड्डरी, बिन बरसे नहिं जाय।‘ इस दोहे के अनुसार भड्डरी कहती हैं यदि शुक्रवार के बादल शनिवार तक छाए रहें तो बिना बरसे नहीं जाते।
‘माघ उजारी दूज दिन, बादर बिज्जु समोय। / तो भाखै यों भड्डरी, अन्न जु मँहगो होय।‘ माघ शुक्ल दूज के दिन बदल-बिजली हो तो भड्डरी कहती हैं कि अनाज मँहगा होगा।
‘माघ सुदी जो सप्तमी, भौमवार को होय। / तो भड्डरी जोसी कहै, नाज किरानो लोय।।‘ यदि माघ शुक्ल सप्तमी मंगलवार को पड़े तो भड्डरी ज्योतिष का कहना है कि अनाज सड़ेगा।
‘भादों बदी एकादसी, जों ना छिटकें मेघ। चार मास बरसें नहीं, कहे भड्डरी पेख।।’ भड्डरी विचार कर कहती हैं यदि भादों बदी एकादशी को आकाश में मेघ हों तो चार माह तक वर्षा न होगी।
‘जेठ उजारी तीज दिन, आद्रा रिष बरसंत। / जोसी भाखै भड्डरी, दुर्भिख अवसि करंत।।‘ ज्येष्ठ शुक्ल तीज के दिन आर्द्रा नक्षत्र में पानी बरस जाए तो ज्योतिष भड्डरी कहती हैं कि अकाल अवश्य पड़ेगा।
‘रात निर्मली दिन को छाँही। कहे भड्डरी पानी नाहीं।।‘ – चौपाई
कृतिका जो कोरी गई, आर्द्रा मह न बुंद। तो यों जानो भड्डरी, काल मचावे दुंद।। -दोहा
‘जो कहुँ हवा इकासे जाय, परै न बूँद काल परि जाय। दक्खिन-पश्चिम आधो समयों, भद्दर जोसी ऐसे भन्यो।। यादो आसाढ़-सावन में हवा बादलों को उड़ा अले जाए तो पानी बिलकुल नहीं बरसेगा, अकाल होगा। भद्दर ज्योतिषी का कथन है कि दक्षिण-पश्चिम देश में आधी फसल होगी।
घाघ और उनकी पत्नी भड्डरी दोनों छंदों के अच्छे जानकार, प्रकृति-पर्यावरण, कृषि-ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विविध विषयों के अच्छे जानकार थे. उनकी कई कहावतें प्रश्नोत्तर रूप में भी हैं। ‘आदि न बरसे आदरा हस्त न बरस निदान। / कहे घाघ सुन भड्डरी, भये किसान पिसान।‘। घाघ कवि भड्डरी से कहते हैं- यदि वर्षा काल के आरम्भ में आर्द्रा नक्षत्र में जल न बरसे, बाद में हस्त नक्षत्र में पानी न बरसे तो किसान पिस जाता है।
‘उत्तर चमकै बीजुरी, पूरब बहती बाउ। / घाघ कहै सुन भड्डरी, बरधा भीतर लाउ।।‘ इस दोहा में भड्डरी से घाघ कहते हैं: ‘जब उत्तर दिशा में बिजली चमके, पूर्व दिशा से वायु बहे तो बैल भीतर बाँध लो, शीघ्र वर्षा होगी.
‘रोहिन बरसे मृग तपे, कुछ-कुछ अद्रा जाय। / घाघ कहें घाघिन से, स्वान भात नहिं खाय।‘ घाघ कवि अपनी पत्नी घाघिन से कहते हैं मृगशिरा नक्षत्र में गर्मी हो, रोहिणी नक्षत्र में जल बरसे, अद्रा नक्षत्र में कुछ दिनों बाद पानी बरसे तो क्वांर की फसल इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते तक भात नहीं खाएँगे।
‘सावन सुकला सप्तमी, गगन स्वच्छ जो होय। कहे घाघ सुन भड्डरी, पुहुमी खेती होय।’ यदि श्रवण शुक्ल सप्तमी को आकाश साफ़ हो तो खेती कमजोर होगी।   
घाघ-भड्डरी ने तुक मिलते समय कई जगह लघु या गुरु की समानता पर्याप्त मानी है, वार्णिक समनाता को अनुल्लंघनीय नहीं माना है। जैसे: ‘चैत मास में नीम बेसहती, बैशाखे में खाय जड़हथी’ चैत मास में नीम बेसहती, बैशाखे में खाय जड़हथी एक और उदाहरण देखें: ‘छीपा छेड़ी ऊँट कोंहार। पीलवान अरु गाडीवान। / आक जवासा वैश्या बानी। दसों दुखी जब बरसे पानी।‘ पानी बरसें पर रंगरेज, बकरी, ऊँट, कुम्हार, पीलवान, गाडीवान, मदारी, वैश्या, औए बनिया ये दसों दुखी रहते हैं।
कहीं-कहीं छंद के चरणों में असंतुलन भी है: ‘थोड़ा जोत बहुत हेंगावै, ऊँच न बाँधै आड़। / ऊँचे पर खेती करै, पैदा होवै भाड़। (१६-११ / १३-११) जो किसान खेत कम जोतता और हल्ला अधिक करता है, खेत में मेंड़ ऊँची नहीं बंधता और खेती ऊँचाई पर करता है उसके खेत में भाड़ (कांटेदार पेड़) के लावा और क्या होगा?
माघ में टारे, जेठ में जारे, भादों सारै। / तेकर महरी डेहरी पारै।। (९-९-८ / ८-९) जो माघ में खेत की जुताई कर, कचरा-जेठ में जलाएगा, भादों में खेत में मिट्टी सड़ाएगा, उसकी घरवाली अन्न पात्र में अन्न भरेगी।                    
उत्तम खेती, मद्धम बान। / अधम चाकरी, भीख निदान।। पंद्रह मात्रिक तैथिक जातीय गुपाल छंद।
घाघ-भड्डरी की कहावतों की भाषा और छंद-विन्यास से तात्कालिक भाषा, छंद-विविधता और छंद-विधान की जानकारी मिलती है। कुछ भ्रम भी टूटते हैं। दो या अधिक छंदों का सम्मिश्रण, देशज शब्द-प्रयोग, तुकांत-नियमों पर कथ्य को वरीयता, वार्णिक साम्य के स्थान पर मात्रिक साम्य को प्रमुखता आदि से छंद-विकास का अनुमान किया जा सकता है तथा छंद रचना में किस तत्व को कितना महत्व देना है, यह अनुमान भी किया जा सकता है। सन्दर्भ: १. बुन्देलखंडी लोकगीत –शिवसहाय चतुर्वेदी, २. बुंदेलखंड के लोकगीत –उमाशंकर शुक्ल, ३. बुंदेली लोक साहित्य –डॉ, रामस्वरूप श्रीवास्तव ‘स्नेही’, ४. मामुलिया पत्रिका विविध अंक, ५. फागों में लोक रंग –आचार्य भगवत दुबे, ६. सड़गोड़ासनी –रुद्रदत्त दुबे ‘करुण’, ७. राम नाम सुखदाई –शांति देवी वर्मा, ८. सुहानो लगे अंगना (गारी संग्रह) शकुंतला खरे, ९. मिठास लोकगीत संग्रह –शकुंतला खरे, डॉ. मुक्ता श्रीवास्तव।   
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