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बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

रुहेली, चंद, दोहा मुक्तिका, नवगीत, वास्तु, भवन, हरिगीतिका, लघुकथा



धरती की बर्बाद चाँद पे जा रए हैं २३

चंदा डर सेन पीरो, जे मुस्का रए हैं

एक दूसरे की छाती पै बम फेंकें २२
***
गीत
चंदा! हमैं वरदान दै
(रुहेली)
*
चंदा! हमैं वरदान दै,
पाँयन तुमारिन सै परैं।

पूनम भौत भाती हमैं
उम्मीद दै जाती हमैं।
उजियारते देवा तुमई
हर साँझ हरसाते हमैं।
मम्मा! हमैं कछु ज्ञान दै,
अज्ञान सागर सै तरैं।।

दै सूर्य भैया उजारो
बहिन उसा नैं पुकारो।
तारों सैं यारी पुरानी
रजनी में सासन तुमारो।
बसबे हमें स्थान दै,
लै बिना ना दर सै टरैं।।

तुम चाहते हौ सांत हौं
सबसै मिलें हम प्रेम से।
किरपा तुमारी मिलै तौ
तुम पै बसें हम छेम से।
खुस हो तुरत गुनगान सें ,
हम सब बिनै तुम सै करैं।।
११-१०-२०२३
***
दोहा मुक्तिका:
संदेहित किरदार.....
*
लोकतंत्र को शोकतंत्र में, बदल रही सरकार.
असरदार सरदार सशंकित, संदेहित किरदार..
योगतंत्र के जननायक को, छलें कुटिल-मक्कार.
नेता-अफसर-सेठ बढ़ाते, प्रति पल भ्रष्टाचार..
आम आदमी बेबस-चिंतित, मूक-बधिर लाचार.
आसमान छूती मंहगाई, मेहनत जाती हार..
बहा पसीना नहीं पल रहा, अब कोई परिवार.
शासक है बेफिक्र, न दुःख का कोई पारावार..
राजनीति स्वार्थों की दलदल, मिटा रही सहकार.
देश बना बाज़ार- बिकाऊ, थाना-थानेदार..
अंधी न्याय-व्यवस्था, सच का कर न सके दीदार.
काले कोट दलाल- न सुनते, पीड़ित का चीत्कार..
जनमत द्रुपदसुता पर, करे दु:शासन निठुर प्रहार.
कृष्ण न कोई, कौन सकेगा, गीता-ध्वनि उच्चार?
सबका देश, देश के हैं सब, तोड़ भेद-दीवार.
श्रृद्धा-सुमन शहीदों को दें, बाँटें-पायें प्यार..
सिया जनास्था का कर पाता, वनवासी उद्धार.
सत्ताधारी भेजे वन को, हर युग में हर बार..
लिये खडाऊँ बापू की जो, वही बने बटमार.
'सलिल' असहमत जो वे भी हैं, पद के दावेदार..
'सलिल' एक है राह, जगे जन, सहे न अत्याचार.
अफसरशाही को निर्बल कर, छीने निज अधिकार..
***
नवगीत:
कम लिखता हूँ...
*
क्या?, कैसा है??
क्या बतलाऊँ??
कम लिखता हूँ,
बहुत समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
खेतों संग
रोती अमराई.
अन्न सड़ रहा,
फिके उदासा.
किस्मत में
केवल गरीब की
भूखा मरना...
*
चूहा खोजे,
मिला न दाना.
चमड़ी ही है
तन पर बाना.
कहता भूख,
नहीं बीमारी,
जिला प्रशासन
बना बहाना.
न्यायालय से
छल करता है
नेता अपना...
*
शेष न जंगल,
यही अमंगल.
पर्वत खोदे-
हमने तिल-तिल.
नदियों में
लहरें ना पानी.
न्योता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
बहुत समझना...
***
मुक्तिका :
भजे लछमी मनचली को..
*
चाहते हैं सब लला, कोई न चाहे क्यों लली को?
नमक खाते भूलते, रख याद मिसरी की डली को..
गम न कर गर दोस्त कोई नहीं तेरा बन सका तो.
चाह में नेकी नहीं, तू बाँह में पाये छली को..
कौन चाहे शाक-भाजी-फल खिलाना दावतों में
चाहते मदिरा पिलाना, खिलाना मछली तली को..
ज़माने में अब नहीं है कद्र फनकारों की बाकी.
बुलाता बिग बोंस घर में चोर डाकू औ' खली को..
राजमार्गों पर हुए गड्ढे बहुत, गुम सड़क खोजो.
चाहते हैं कदम अब पगडंडियों को या गली को..
वंदना या प्रार्थना के स्वर ज़माने को न भाते.
ऊगता सूरज न देखें, सराहें संध्या ढली को..
'सलिल' सीता को छला रावण ने भी, श्री राम ने भी.
शारदा तज अवध-लंका भजे लछमी मनचली को..
***
दोहा सलिला
दोहे बात ही बात में
*
बात करी तो बात से, निकल पड़ी फिर बात
बात कह रही बात से, हो न बात बेबात
*
बात न की तो रूठकर, फेर रही मुँह बात
बात करे सोचे बिना, बेमतलब की बात
*
बात-बात में बढ़ गयी, अनजाने ही बात
किये बात ने वार कुछ, घायल हैं ज़ज्बात
*
बात गले मिल बात से, बन जाती मुस्कान
अधरों से झरता शहद, जैसे हो रस-खान
*
बात कर रही चंद्रिका, चंद्र सुन रहा मौन
बात बीच में की पड़ी, डांट अधिक ज्यों नौन?
*
आँखों-आँखों में हुई, बिना बात ही बात
कौन बताये क्यों हुई, बेमौसम बरसात?
*
बात हँसी जब बात सुन, खूब खिल गए फूल
ए दैया! मैं क्या करूँ?, पूछ रही चुप धूल
*
बात न कहती बात कुछ, रही बात हर टाल
बात न सुनती बात कुछ, कैसे मिटें सवाल
*
बात काट कर बात की, बात न माने बात
बात मान ले बात जब, बढ़े नहीं तब बात
*
दोष न दोषी का कहे, बात मान निज दोष
खर्च-खर्च घटत नहीं, बातों का अधिकोष
*
बात हुई कन्फ्यूज़ तो, कनबहरी कर बात
'आती हूँ' कह जा रही, बात कहे 'क्या बात'
११-१०-२०१८
*
लेख :
भवन निर्माण संबन्धी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश
वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव
चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की
कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च
तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों
को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा
घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो
बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश
समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर
करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-
पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई,
ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की
दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर
निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किये जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय)
तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण-
पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासम्भव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश
अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस
आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मन्दिर न हो।
* वायव्य दिशा में अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष आदि हो। इस दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक सम्भावना होती है।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुम्बक की
तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक
दिशा में ऐसा तो उनसे निकलने वाली चुम्बकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण
प्रगाढ़ निद्रा नहीं आयेगी। फलतः अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग ऐसा सकते हैं। सोते
समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक
प्रभाव से बुद्धि के विकास का अनुमान किया जाता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य
से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना
मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आइना रखें तो ईशान दिशा में ही रखें अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व
या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला
भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या
अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा
आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा
एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में
रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर
लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों।
सीढियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या
नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, धोने के लिए कपडे वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर
तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केन्द्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खम्बा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगन्धित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व् उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम कि दीवारें अधिक मोटी हों।
तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरनें तहखाने तक
पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है।
वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद
संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन -
धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
हरिगीतिका:
मानव सफल हो निकष पर पुरुषार्थ चारों मानकर.
मन पर विजय पा तन सफल, सच देवता पहचान कर..
सौरभमयी हर श्वास हो, हर आस को अनुमान कर.
भगवान को भी ले बुला भू, पर 'सलिल' इंसान कर..
*
अष्टांग की कर साधना, हो अजित निज उत्थान कर.
थोथे अहम् का वहम कर ले, दूर किंचित ध्यान कर..
जो शून्य है वह पूर्ण है, इसका तनिक अनुमान कर.
भटकाव हमने खुद वरा है, जान को अनजान कर..
*
हलका सदा नर ही रहा नारी सदा भारी रही.
यह काष्ट है सूखा बिचारा, वह निरी आरी रही..
इसको लँगोटी ही मिली उसकी सदा सारी रही.
माली बना रक्षा करे वह, महकती क्यारी रही..
*
माता बहिन बेटी बहू जो, भी रही न्यारी रही.
घर की यही शोभा-प्रतिष्ठा, जान से प्यारी रही..
यह हार जाता जीतकर वह, जीतकर हारी रही.
यह मात्र स्वागत गीत वह, ज्योनार की गारी रही..
*
हमने नियति की हर कसौटी, विहँस कर स्वीकार की.
अब पग न डगमग हो रुकेंगे, ली चुनौती खार की.
अनुरोध रहिये साथ चिंता, जीत की ना हार की..
हर पर्व पर है गर्व हमको, गूँज श्रम जयकार की..
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
मुक्तिका:
*
काम कर बेकाम, कोई क्यों निठल्ला रह मरे?
धान इस कोठे का बनिया दूजे कोठे में भरे.
फोड़ सर पत्थर पे मिलता है अगर संतोष तो
रोकता कोई नहीं, मत आप करने से डरे
काम का परिणाम भी होता रहा जग में सदा
निष्काम करना काम कब चाहा किसी ने नित करे?
नाम ने बदनाम कर बेनाम होने ना दिया
तार तो पाता नहीं पर चाहता है नर तरे
कब हरे हमने किसी के दर्द पहले सोच लें
हुई तबियत हरी, क्यों कोई हमारा दुःख हरे
मिली है जम्हूरियत तो कद्र हम करते नहीं
इमरजेंसी याद करती रूह साये से डरे
बेहतर बहता रहे चुपचाप कोई पी सके
'सलिल' कोई आ तुझे अपनी गगरिया में भरे
११-१०-२०१५
***
नवगीत
बचपन का
अधिकार
उसे दो
याद करो
बीते दिन अपने
देखे सुंदर
मीठे सपने
तनिक न भाये
बेढब नपने
अब अपना
स्वीकार
उसे दो
पानी-लहरें
हवा-उड़ानें
इमली-अमिया
तितली-भँवरे
कुछ नटखटपन
कुछ शरारतें
देखो हँस
मनुहार
उसे दो
इसकी मुट्ठी में
तक़दीरें
यह पल भर में
हरता पीरें
गढ़ता पल-पल
नई नज़ीरें
आओ!
नवल निखार
इसे दो
***
लघुकथा
सफलता
*
गुरु छात्रों को नीति शिक्षा दे रहे थे- ' एकता में ताकत होती है. सबको एक साथ हिल-मिलकर रहना चाहिए- तभी सफलता मिलती है.'
' नहीं गुरु जी! यह तो बीती बात है, अब ऐसा नहीं होता. इतिहास बताता है कि सत्ता के लिए आपस में लड़ने वाले जितने अधिक नेता जिस दल में होते हैं' उसके सत्ता पाने के अवसर उतने ज्यादा होते हैं. समाजवादियों के लिए सत्ता अपने सुख या स्वार्थ सिद्धि का साधन नहीं जनसेवा का माध्यम थी. वे एक साथ मिलकर चले, धीरे-धीरे नष्ट हो गए. क्रांतिकारी भी एक साथ सुख-दुःख सहने कि कसमें खाते थे. अंतत वे भी समाप्त हो गए. जिन मौकापरस्तों ने एकता की फ़िक्र छोड़कर अपने हित को सर्वोपरि रखा, वे आज़ादी के बाद से आज तक येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पर काबिज हैं.' -होनहार छात्र बोला.
गुरु जी चुप!
११-१०-२०१४
***
दोहा सलिला
दोहे बात ही बात में
*
बात करी तो बात से, निकल पड़ी फिर बात
बात कह रही बात से, हो न बात बेबात
*
बात न की तो रूठकर, फेर रही मुँह बात
बात करे सोचे बिना, बेमतलब की बात
*
बात-बात में बढ़ गयी, अनजाने ही बात
किये बात ने वार कुछ, घायल हैं ज़ज्बात
*
बात गले मिल बात से, बन जाती मुस्कान
अधरों से झरता शहद, जैसे हो रस-खान
*
बात कर रही चंद्रिका, चंद्र सुन रहा मौन
बात बीच में की पड़ी, डांट अधिक ज्यों नौन?
*
आँखों-आँखों में हुई, बिना बात ही बात
कौन बताये क्यों हुई, बेमौसम बरसात?
*
बात हँसी जब बात सुन, खूब खिल गए फूल
ए दैया! मैं क्या करूँ?, पूछ रही चुप धूल
*
बात न कहती बात कुछ, रही बात हर टाल
बात न सुनती बात कुछ, कैसे मिटें सवाल
*
बात काट कर बात की, बात न माने बात
बात मान ले बात जब, बढ़े नहीं तब बात
*
दोष न दोषी का कहे, बात मान निज दोष
खर्च-खर्च घटत नहीं, बातों का अधिकोष
*
बात हुई कन्फ्यूज़ तो, कनबहरी कर बात
'आती हूँ' कह जा रही, बात कहे 'क्या बात'
११-१०-२०११
***

मंगलवार, 10 अक्टूबर 2023

उपसर्ग

उपसर्ग :


वह अव्यय जो शब्द के पहले लगकर शब्द का अर्थ बदल दे। उपसर्ग ऐसे शब्दांश है जो किसी शब्द के पूर्व जुड़ कर उसके अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं या उसके अर्थ में विशेषता ला देते है। उपसर्ग दो शब्दों ‘उप’ और ‘सर्ग’ से जुड़कर बना हुआ है। उपसर्ग का अर्थ है किसी शब्द के पास आ कर नया शब्द बनाना।


दो शब्दों के योग से मिले शब्द के आरंभ का अंश उपसर्ग कहलाता है। किसी शब्द के आरंभ में 'उपसर्ग' जोड़कर नया शब्द बनाया जा सकता है।


उपसर्ग का खुद का एक अर्थ होता है जो उस शब्द के अर्थ को बदल देता है।एक उपसर्ग का एक से अधिक अर्थ भी निकल सकता है। यह जुड़ने वाले शब्द पर निर्भर करता है कि वह किस तरह किसी बात को प्रस्तुत करता है।
उपसर्ग के तीन प्रकार होते हैं


१. संस्कृत / तत्सम उपसर्ग - २२। अति, अधि, अनु, अप, अभि, अव, आ, उत्, उप, दुर, नि, परा, परि, प्र, प्रति, वि, सम्, सु, निर्, दुस्, निस्, अपि।


अति = अधिक, उस पार, ऊपर, परे। अत्यधिक, अत्याचार, अतीव, अत्यंत, अतिकाल, अतिक्रमण, अतिमानव, अतिरिक्त, अतिरेक, अतिवृष्टि, अतिशय, अतिशीघ्र ।


अधि = ऊपर, अधिक, प्रधान, श्रेष्ठ। अध्यात्म, अधिकरण, अधिक्रम, अधिकार, अधिपाठक, अधिमास, अधिराज, अधिष्ठाता, अध्यक्ष, अध्यादेश, अधिपति, अधिगम, अधिनायक, अध्यापक, अध्यापन, अधिसूचना, अधीन, अधीर, अधीक्षण।


अनु = पीछे, समान। अन्वय, अनुकरण, अनुकूल, अनुक्रम, अनुग्रह, अनुगामी, अनुच्छेद, अनुज, अनुजा, अनुताप, अनुदान, अनुनय, अनुपमा, अनुपमेय, अनुपात, अनुफल, अनुबन्ध, अनुभव, अनुभूत, अनुमान, अनुराग, अनुरूप, अनुवाद, अनुशासन, अनुशंसा, अनुसार, अनुस्वार, ।
अनुमोदन।


अप = बुरा, विपरीत, हीन, विरुद्ध, अभाव। अपकर्म, अपकर्ष, अपकार, अपकीर्ति, अपचार, अपभ्रंश, अपमान, अपयश, अपराध, अपव्यय, अपशकुन, अपशब्द, अपसव्य, अपहरण, अपहृत, अपहर्ता।


अपि – अपिधान।


अभि = सामने, पास, ओर। अभिनय, अभिनव, अभिप्राय, अभिनेता, अभिनंदन, अभिभाषण, अभिभूत, अभिमान, अभिमुख, अभियान, अभिलाष, अभिवादन, अभिशंसा, अभिषेक, अभिसार, अभ्युदय, अभ्यागत, अभ्यास, अभिज्ञान, अभीष्ट।


अव = नीचा, बुरा, हीन, अभाव। अवनति, अवतीर्ण, अवगुण, अवज्ञा, अवधान, अवगाह, अवनत, अवतार, अवबोध, अवधारणा, अवलेह, अवसाद, अवगत, अवकाश, अवसर, अवलोकन, अवस्था, अवसान।अवगणना, अवतरण;अवगुण।


आ = तक, इधर, से, उल्टा, समेट। आजन्म, आक्रमण, आयात, आचरण, आतप, आकांक्षा, आकर्षण, आकाश, आक्रमण, आगमन, आकार, आचार, आदान, आगार, आधार, आमोद, आहार, आभार, आलंबन, आशंका, आतंक, आरंभ। आगमन, आदान; आकलन।


उत् – उत्/उद् Upsarg का अर्थ – ऊपर, उँचा, श्रेष्ठ।
उत्/उद् Upsarg के उदाहरण – उत्पन्न, उत्कृष्ट, उत्तम, उत्थान, उत्कर्ष, उत्कण्ठा, उल्लेख, उद्बोधन, उन्मत्त, उत्सर्ग, उज्जयिनी, उत्पत्ति, उन्नति, उद्घाटन, उद्देश्य, उत्पल।
उत्कर्ष, उत्तीर्ण, उत्पात, उत्थान, उद्धार, उत्साह।


उप – उप Upsarg का अर्थ – पास, सहायक, निकट, गौण, सदृश।
उप Upsarg के उदाहरण – उपसर्ग, उपहार, उपचार, उपभेद, उपनेत्र, उपकृत, उपमंत्री, उपनाम, उपस्थिति, उपसमिति, उपवास, उपयोग, उपदेश, उपनिवेश, उपबंध, उपमान, उपराम, उपवन, उपवचन, उपभेद, उपवेद।
उपाध्यक्ष, उपक्रम, उपग्रह, उपचार, उपजा, उपदिशा; उपध्येय, उपनेत्र।


दुर्, दुस् – मूल उपसर्ग ‘दु:’ होता है संधि होने पर इसी के दुर्, दुस्, दूष्, दुश् इत्यादि उपसर्ग बनते हैं।
दुर् Upsarg का अर्थ – कठिन, बुरा, विपरीत.
दुर् Upsarg के उदाहरण – दुर्लभ, दुर्जन, दुर्गुण, दुर्गति, दुराचार, दुर्योधन, दुर्गंध, दुर्भावना।
दुराशा, दुरुक्ति।


नि – नि Upsarg का अर्थ – बड़ा, विशेष।
नि Upsarg के उदाहरण – निगूढ़, निष्ठा, निरोध, निकर, निलंबन, निगम, निधन, निवास, निदान, निपात, नियुक्त, निपुण, नियोग, निज, निबंध, निदेशक, नियंत्रण, नियुक्ति, नियोजन।
निमग्न, निबंध निकामी।


निर् –मूल उपसर्ग ‘नि:’ होता है, संधि होने पर इसी के निर्, निस्, निश्, निष् इत्यादि उपसर्ग बनते हैं।
निर् Upsarg का अर्थ – बाहर, बिना।
निर् Upsarg के उदाहरण – निरादर, निर्यात, निरंकुश, निरंतर, निरामिष, निराकार, निर्गुण, निरनुनासिक, निरस्त, निरतिशय, निराश्रय, निरीश्वर, निरुत्साह, निर्मम, निर्णय, निरपराध, निर्भीक, निर्वाह, निर्दोष, निराधार, निरुपाय, निर्बल, निरोग, निर्जल।
निरंजन, निराशा।


निस् –निष्फळ, निश्चल।


परा (परा = कमी) –परा उपसर्गपरा Upsarg का अर्थ – परे, विपरीत, पीछे, अधिक।
परा Upsarg के उदाहरण – पराकाष्ठा, परामर्श, परावर्तन, पराभव, पराजय, पराक्रम, पराविद्या।
पराजय।


परि – परि Upsarg का अर्थ – चारों ओर, पास
परि Upsarg के उदाहरण – परिक्रमा, परिवार, परिजन, परिधान, परितोष, परिचारिका, परिणय, परिमार्जन, परिसर, परिज्ञान, परिधि, परिवर्तन, परिपूर्ण, परिकल्पना, परिमाण, परिश्रम, पर्याप्त।
परिपूर्ण,परिश्रम, परिवार।


प्र – प्र Upsarg का अर्थ – आगे, अधिक।
प्र Upsarg के उदाहरण – प्रबंध, प्रणीत, प्रदान, प्रगाढ़, प्रमाद, प्रणयन, प्रगति, प्रचुर, प्रसिद्ध, प्रपौत्र, प्रभाव, प्रचार, प्रगीत, प्रस्तुत, प्रमुख, प्रकोप, प्रबल।
प्रकोप, प्रबल।


प्रति – (प्रति = प्रत्येक,हर एक) प्रति Upsarg का अर्थ – विपरीत, प्रत्येक, ओर।
प्रति Upsarg के उदाहरण – प्रतिकूल, प्रतिहिंसा, प्रतिक्षण, प्रतिज्ञा, प्रतिघात, प्रतिवाद, प्रतिक्रिया, प्रतिकार, प्रतिवादी, प्रतीक्षा, प्रतिध्वनि, प्रतिदिन, प्रतिरूप, प्रतिनिधि, प्रतिस्पर्धा, प्रतिबन्ध, प्रत्येक।
प्रतिकूल, प्रतिच्छाया, प्रतिदिन, प्रतिवर्ष, प्रत्येक ।


वि –(वि = अधिक) वि Upsarg का अर्थ – विशेष, भिन्न, अभाव।
वि Upsarg के उदाहरण – विघटन, वितान, विदीर्ण, विधान, विपाक, विहार, विभेद, विशेष, विक्रम, विनय, विदेश, विज्ञानं, विख्यात, विपक्ष, विकार, विनाश, विजय, विलोचन, विप्लव, विस्मरण, वियोग।
विख्यात, विवाद, विफल, विसंगति।


सम् – सम् Upsarg का अर्थ – अच्छी तरह, पूर्ण, साथ, शुद्ध।
सम् Upsarg के उदाहरण – सम्पूर्ण, संधान, संपर्क, संभव, संबंध, संतोष, सम्मान, संचार, सन्देश, संसार, संहार, सम्मुख, समाचार, संगम, संघटन, संचय, संगत, संजय, सम्मोह, संज्ञा, संवहन।
संस्कृत, संस्कार, संगीत, संयम, संयोग, संकीर्ण।


सु – सु Upsarg का अर्थ – अच्छा, सरल, विशद।
सु Upsarg के उदाहरण – सुपुत्र, सुकर्म, सुमार्ग, सुमन, सुशील, सुगति, सुअवसर, सुचरित्र, सुगंध, सुलभ, सुजन, सुपरिचित, सुशिक्षित।
सुभाषित, सुकृत, सुग्रास; सुगम, सुकर, स्वल्प।


सु – (सु = अच्छी तरह,अधिक) सुबोधित, सुशिक्षित।


एक उपसर्ग के एक से अधिक अर्थ भी होते है। यह नियम उसके साथ जुड़ने वाले शब्द पर निर्भर करता है कि वह किस अर्थ के रूप में उस से जुड़ रहा है। सभी उपसर्गशब्द के आरंभ में लगाए गए हैं। इनसे शब्द का वास्तविक अर्थ बदल गया है, एक नया अर्थ उत्पन्न हुआ है।


दुस् Upsarg का अर्थ – बुरा, विपरीत, कठिन।
दुस् Upsarg के उदाहरण – दुष्कर, दुष्कर्म ।


22. अन् उपसर्गअन् Upsarg का अर्थ – अभाव, रहित।
अन् Upsarg के उदाहरण – अनन्त, अनादि, अनेक।


संस्कृत के अन्य उपसर्ग, उनके अर्थ तथा उदाहरण


संस्कृत भाषा में कुछ शब्दांश ऐसे होते हैं, जो मूल रूप से Upsarg नहीं होते हैं लेकिन उपसर्गों की तरह व्यवहार करते हैं। इन्हीं शब्दांशों को संस्कृत के अन्य Upsarg कहते हैं।


निचे सबसे पहले क्रम संख्या, उसके बाद संस्कृत Upsarg का नाम उसके बाद संस्कृत Upsarg का अर्थ और फिर संस्कृत Upsarg के उदाहरण दिए गए हैं।अ- (तत्सम) ==> नहीं, अभाव ==> अज्ञान, अभाव, अमंद, अधर्म, अजात, अकाल, अकारण, अथाह, अबाध, अटल, अव्यय
अध: ==> नीचे ==> अध:पतन, अधोगति, अधोमुख, अधोवस्त्र, अधोभाग
अन्त: ==> भीतर, मध्य ==> अन्तःपुर, अन्तर्यामी, अन्तःकरण, अंतर्गत, अंतर्मन, अंतरात्मा
अमा ==> पास ==> अमात्य, अमावस्या
तिरस् ==> तुच्छ ==> तिरस्कार, तिरोधान, तिरोहित
सत् ==> सत्कार ==> सत्संग, सदाचरण, सदुपदेश, सन्मार्ग, सन्मति, सज्जन
स्व ==> अपना ==> स्वदेश, स्वतंत्र, स्वार्थ, स्वार्थी, स्वाभिमान
पर ==> दूसरा ==> परदेश, परतंत्र, परार्थ, परहित, परोपकार
सह ==> साथ ==> सहचर, सहयोग, सहगान, सहयात्री, सहचर, सहोदर
प्राक् ==> पहले का ==> प्राक्तन, प्राक्कथन, प्राक्कलन
पुनर्(पुनः) ==> फिर ==> पुनर्जन्म, पुनरावृति, पुनरागमन, पुनर्निर्माण, पुनर्वास, पुनर्भाव
पुरस्(पुर:) ==> सामने, आगे ==> पुरस्कार, पुरोहित, पुरस्सर, पुरोगामी
नमस् नमः ==> नमस्कार, नमस्कर्ता, नमस्कृत
प्रातर ==> पहले ==> प्रातःकाल, प्रातःवंदनीय
संस्कृत के उपसर्ग के उदहारणअ- (a-) – निषेध या अभाव – अदृष्ट, अशब्द, अमर्त्य
अधि- (adhi-) – अधिकता, ऊपरीता – अधिपति, अधिकार, अधिशासन
अनु- (anu-) – अनुसरण, अनुकरण – अनुवाद, अनुसंधान, अनुक्रमणिका
उत्- (ut-) – ऊर्ध्व, ऊपरी – उत्क्रान्ति, उत्पन्न, उत्सव
उप- (upa-) – निकटता, समीपता – उपकार, उपनिषद, उपास्य
नि- (ni-) – नीचता, अवचेतन – निर्माण, निर्णय, निष्ठा
परा- (para-) – अतीत, अग्र – परमाणु, परवाना, परमार्थ
परि- (pari-) – चारों ओर, आसपास – परिवृत्ति, परिपूर्ण, परियोजना
प्रति- (prati-) – प्रत्येक, विरोध – प्रतिपक्ष, प्रतिवर्ष, प्रतिद्वंद्वी
प्राक्- (prak-) – पूर्व, आदि – प्राकृतिक, प्राग्ज्योतिष, प्राचीन
बहिः- (bahis-) – बाहर, अल्पता – बहिरङ्ग, बहिरागमन, बहिष्प्रवेश
बहु- (bahu-) – बहुत, विविध – बहुवचन, बहुसंख्यक, बहुरूप
भुज्- (bhuj-) – धारण, प्राप्ति – भोगभूमि, भुजंग, भुजाधारी
महा- (maha-) – महान, बड़ा – महाकाव्य, महासभा, महाजन
वि- (vi-) – विभाजन, विपरीत – विज्ञान, विपथ, विभाजन
वि- (vi-) – प्रत्येक, विपरीत – विज्ञान, विपथ, विभाजन
सम्- (sam-) – समान, संगत – समुद्र, समय, समरस
समु- (samud-) – उद्दीपन, संग्रह – समुद्घाटन, समुद्र, समुद्री
सम्प्रति- (samprati-) – अभी, इस समय – सम्प्रति, सम्प्रत्युदय, सम्प्रत्यागम
हि- (hi-) – नियति, प्राप्ति – हित, हिमशील, हितोपदेश
आ- (aa-) – प्रवेश, पूर्व, ऊर्ध्व – आगम, आवर्तन, आत्मा
अ- (a-) – निषेध या अभाव – अदृष्ट, अशब्द, अमर्त्य
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२. हिंदी उपसर्ग - १०। अ, अध, ऊन, औ, दु, नि, बिन, भर, कु, सु।


अ, अध, ऊन, औ, दु, नि, बिन, भर, कु, सु।


अ – अनेक


ऊन – उन्नति


अध – अधूरा, अधम


दु – दुश्मन, दुष्प्रभाव


नि – निस् Upsarg का अर्थ – बाहर, निषेध, बिना।
निस् Upsarg के उदाहरण – निरपराध, निस्तेज, निराकार।
निर्भय, निराला


भर– भरपूर, भरा ( भर का अर्थ पूरा या भरा हुआ होता है)


कु – कुकर्म, कुशलता (कुकर्म में कु उपसर्ग गलत अर्थ हो दर्शाता है जबकि कुशलता अर्थ में कु उपसर्ग अच्छी और निपुणता को दर्शाता है)


सु – सुस्वागत, सुइच्छा ( सु का अर्थ अच्छा होता है)


इस प्रकार शब्द के आरंभ में हिंदी के उपसर्ग को लगाया जाता है। यह उपसर्ग लगाने के बाद शब्द के मूल अर्थ में परिवर्तन आ जाता है।
===============

३. आगत उपसर्ग अथवा तद्भव उपसर्ग - हिंदी भाषा में विदेशी भाषाओं से आए शब्द आगत Upsarg कहलाते हैं।


अ. फ़ारसी (उर्दू) उपसर्ग - १९।
उदाहरण
गैर ==> अभाव, नहीं ==> गैर-कानूनी, गैरहाजिर, गैर-सरकारी
कम ==> थोड़ा, हीन ==> कमअक्ल, कमउगम्र, कमज़ोर
दर ==> में ==>दरअसल, दरकार, दरमियान
ना ==> अभाव ==> नापसन्द, नाराज़, नासमझ
खुश ==> अच्छा ==> खुशबू, खुशहाल, खुशदिल
ब ==> अनुसार में ==> बनाम, बदौलत, बदस्तूर
हर ==> प्रत्येक ==> हररोज, हरएक
अल==> निश्चित ==> अलबत्ता, अलगरज़, अलमस्त
बिल ==> के साथ ==> बिल्कुल, बिलवजह, बिलआखिर
बर ==> ऊपर, बाहर, पर ==> बरदाश्त, बरखास्त
बद ==> बुरा ==> बदनीयत, बदतमीज़, बदमाश
बिला ==> बिना ==> बिलाकसूर, बिलाशक
फ़िल, फी ==> प्रति, में ==> फिलहाल, फ़ीआदमी
बे ==> बिना ==> बेचारा, बेइमान
बा ==> साथ ==> बाइंसाफ, बावफा, भाकायदा
ला ==> बिना ==> लाजबाव, लाचार
सर ==> मुख्य ==> सरदार, सरताज
हम ==> बराबर ==> हमउम्र, हमवतन



अल – अलविदा, अलबत्ता
कम – कमसिन, कमअक्ल, कमज़ोर
खुश – खुशबू, खुशनसीब, खुशकिस्मत, खुशदिल, खुशहाल, खुशमिजाज
ग़ैर ( गैर का अर्थ किसी चीज की मनाही होता है)- ग़ैरहाज़िर ग़ैरकानूनी ग़ैरवाजिब ग़ैरमुमकिन ग़ैरसरकारी, ग़ैरमुनासिब
दर – दरअसल दरहकीकत
ना – (अभाव) – नामुमकिन नामुराद नाकामयाब नापसन्द नासमझ नालायक नाचीज़ नापाक नाकाम
फ़ी – फ़ीसदी, फ़ीआदमी
ब – बनाम, बदस्तूर , बमुश्किल , बतकल्लुफ़
बद – (बुरा)- बदनाम , बदमाश, बदकिस्मत,बददिमाग, बदहवास, बददुआ,
बर – (पर,ऊपर, बाहर) – बरकरार, बरअक्स ,बरजमां
बा – ( बा का अर्थ सहित होता है) – बाकायदा, बाकलम, बाइज्जत, बाइन्साफ, बामुलाहिजा
बिला - (बिला का अर्थ बिना होता है)- बिलावज़ह, बिलालिहाज़
बे - (बे का अर्थ बिना/ नहीं होता है) – बेबुनियाद , बेईमान , बेवक्त , बेरहम, बेतरह, बेइज्जत, बेअक्ल, बेकसूर, बेमानी, बेशक
ला - (ला का अर्थ बिना, नहीं होता है) – लापता , लाजबाब, लावारिस लापरवाह।

इस प्रकार उर्दू के उपसर्गों को शब्दों के आरंभ में जोड़कर एक नया शब्द बनाया जाता है। जिससे पुराने शब्द का अर्थ बदल जाता है।
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आ. अंग्रेजी उपसर्ग-
पश्चिमी देशों से आये शब्द जब उपसर्ग के रूप में प्रयोग किये जाते हैं, तो उन्हें विदेशी भाषाओं के Upsarg अथवा अंग्रेजी Upsarg कहते हैं। जो कि निम्न है-Upsarg ==> अर्थ ==> उदाहरण
सब ==> अधीन, नीचे ==> सब-जज, सब-कमेटी
फुल ==> पूरा ==> फुल शर्ट, फुल प्रूफ
जनरल ==> प्रधान ==> जनरल मैनेजर, जनरल सेक्रेटरी
डिप्टी ==> सहायक==> डिप्टी रजिस्ट्रार, डिप्टी कलेक्टर
वाइस ==> सहायक ==> वाइस चांसलर, वाइसराय
हेड ==> मुख्य ==> हेड मास्टर, हेड कलर्क
डबल ==> दुगुना ==> डबलरोटी, डबल बेड
चीफ ==> प्रमुख ==> चीफ-इन्जीनियर, चीफ-मिनिस्टर
अल, ऐन, कम, खुश, गैर, दर, ना, फ़िल्, ब, बद, बर, बा, बिल, बिला।
***
उपसर्ग कभी भी अविकारी शब्दों के साथ नहीं जुड़ते। यह तत्सम शब्दों के साथ संस्कृत में, हिंदी भाषा के शब्दों के साथ हिंदी में और विदेशी भाषा के शब्दों के साथ विदेशी भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं।
उपसर्गअव्यय स्वरूप होते हैं, और उनके द्वारा बनाए जाने वाले नए शब्द भी अव्यय स्वरूप होते हैं। इसका मतलब है कि Upsarg स्वतंत्र रूप से उपयोग नहीं किया जा सकता है, वे किसी शब्द के साथ मिलकर ही उपयोग होते हैं।
उपसर्ग के योग से संधि पद और सामासिक पद बनाए जा सकते हैं। यह उपसर्ग और अन्य शब्दों के संयोजन से नए शब्दों का निर्माण करता है।

महत्वपूर्ण उपसर्ग

Upsarg Upsarg का अर्थ Upsarg के उदाहरण
अ- (तत्सम) नहीं, अभाव अज्ञान, अभाव, अमंद, अधर्म, अजात, अकाल, अकारण, अथाह, अबाध, अटल, अव्यय
अध:- नीचे अध:पतन, अधोगति, अधोमुख, अधोवस्त्र, अधोभाग
अन्त:- भीतर, मध्य अन्तःपुर, अन्तर्यामी, अन्तःकरण, अंतर्गत, अंतर्मन, अंतरात्मा
अमा- पास अमात्य, अमावस्या
तिरस् तुच्छ तिरस्कार, तिरोधान, तिरोहित
सत् सत्कार सत्संग, सदाचरण, सदुपदेश, सन्मार्ग, सन्मति, सज्जन
स्व अपना स्वदेश, स्वतंत्र, स्वार्थ, स्वार्थी, स्वाभिमान
पर दूसरा परदेश, परतंत्र, परार्थ, परहित, परोपकार
सह साथ सहचर, सहयोग, सहगान, सहयात्री, सहचर, सहोदर
प्राक्- पहले का प्राक्तन, प्राक्कथन, प्राक्कलन
पुनर्(पुनः) फिर पुनर्जन्म, पुनरावृति, पुनरागमन, पुनर्निर्माण, पुनर्वास, पुनर्भाव
पुरस्(पुर:) सामने, आगे पुरस्कार, पुरोहित, पुरस्सर, पुरोगामी
नमस् नमः नमस्कार, नमस्कर्ता, नमस्कृत
प्रातर पहले प्रातःकाल, प्रातःवंदनीय

ख़ुश- अच्छा ख़ुशक़िस्मत, ख़ुशबू, ख़ुशहाल, ख़ुशनुमा, ख़ुशदिल, खुशख़बरी.
गैर- रहित, भिन्न ग़ैर-ज़रूरी, ग़ैर-हाज़िर, ग़ैर-सरकारी, ग़ैर-मुमकिन, ग़ैर-जवाबी.
फ़ी- प्रत्येक फ़ी आदमी, फ़ी मैदान.
बद- बुरा बदनाम, बदचलन, बदतमीज़, बदबू, बदकार, बदज़ात, बदनसीब, बदहवास, बदसूरत, बदमाश, बदहज़मी.
बा- अनुसार, साथ में बाक़ायदा, बाइज़्ज़त, बादब, बमुलाइज़ा.
बिला- बिना बिलवाज़ह, बिलाशर्त, बिलाशक.
बे- अभाव, रहित बेचारा, बेईमान, बेहद, बेहिसाब, बेसमझ, बेजान, बेचैन, बेदर्द, बेइज़्ज़त, बेमानी, बेसिर, बेवक़्त, बेधड़क, बेरहम, बेवकूफ़.
ला- बिना लाइलाज, लाचार, लापता, लाजवाब, लावारिस, लापरवाह, लाज़िम.
दर- में दरहक़ीक़त, दरअसल, दरकार.
ना- बिना नालायक़, नापसन्द, नाकाम, नाचीज़, नामुमकीन, नादान, नाबालिग़.
सर- अच्छा सरकार, सरनाम, सरपंच, सरदार, सरताज, सरहद.
हर- प्रत्येक हरवक़्त, हररोज़, हरएक, हरदम, हरतरफ़, हरबार, हरकोई.
ब- सहित बखूबी, बतौर, बशर्त.
बेश- अत्यधिक बेश कीमती, बेश कीमत.
नेक- भला नेकराह, नेकनाम, नेकदिल, नेकइंसान, नेकनीयत.
ऐन- ठीक ऐनवक़्त, ऐनजगह.
हम- साथ हमराज़, हमदम, हमउम्र, हमराही, हमसफ़र.
अल- निश्चित अलगरज, अलविदा.
हैड- प्रमुख हैडमास्टर, हैड ऑफिस.
हाफ- आधा हाफकमीज, हाफ़पैंट.
सब- उप सब रजिस्ट्रार, सब कमेटी, सब डिवीज़न, सब इंस्पेक्टर.
को- सहित को-ऑपरेटिव, को-ओपरेशन.
वाइस उप वाइस प्रेसिडेंट, वाइस चांसलर, वाइस प्रिंसिपल.
टेली दूर टेलीफोन, टेलीविज़न, टेलिस्कोप.

राजस्थानी मुक्तिका, मानव, चित्रगुप्त, जनक छंद, हाइकु, शे'र, लघुकथा, गुजराती

विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
चंद्र-विजय अभियान काव्य संकलन
कीर्तिमान सहभागिता आमंत्रण
*
इसरो के वैज्ञानिकों अभियंताओं की अभूतपूर्व उपलब्धि पर कलमकारों द्वारा कविता रचकर उनकी मानवंदना की जा रही है। अब तक २५ भाषाओं/बोलिओं के १२१ कवि जुड़कर कीर्तिमान बना रहे हैं।

रचना, चित्र, परिचय (जन्म दिनांक माह वर्ष स्थान, माता- पिता, पति/पत्नि, शिक्षा, संप्रति, प्रकाशित पुस्तकें, डाक पता, ईमेल, चलभाष, वाट्स एप), सहयोग निधि ३००/- प्रति पृष्ठ, वाट्स ऐप ९४२५१८३२४४ पर आमंत्रित है। देश के हर क्षेत्र तथा हर भाषा/ बोली के कवियों का हृदय से स्वागत है। अब तक बुंदेली, बघेली, पचेली, भुआड़ी, निमाड़ी, मालवी, अंगिका, पाली, प्राकृत, संस्कृत, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, ब्रज, भोजपुरी, मारवाड़ी, राजस्थानी, मैथिली, संबलपुरी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बांग्ला, कुमायूँनी, गढ़वाली, अंग्रेजी आदि कीर्तिमान बनाने में सम्मिलित हो चुके हैं। शेष का स्वागत है।
*
राजस्थानी मुक्तिका
*
घाघरियो घुमकाय
मरवण घणी सुहाय
*
गोरा-गोरा गाल
मरते दम मुसकाय
*
नैणा फोटू खैंच
हिरदै लई मँढाय
*
तारां छाई रात
जाग-जगा भरमाय
*
जनम-जनम रै संग
ऐसो लाड़ लड़ाय
*
देवी-देव मनाय
मरियो साथै जाय
१०-१०-२०२०
***
मुक्तिका
(१४ मात्रिक मानव जातीय छंद, यति ५-९)
मापनी- २१ २, २२ १ २२
*
आँख में बाकी न पानी
बुद्धि है कैसे सयानी?
.
है धरा प्यासी न भूलो
वासना, हावी न मानी
.
कौन है जो छोड़ देगा
स्वार्थ, होगा कौन दानी?
.
हैं निरुत्तर प्रश्न सारे
भूल उत्तर मौन मानी
.
शेष हैं नाते न रिश्ते
हो रही है खींचतानी
.
देवता भूखे रहे सो
पंडितों की मेहमानी
.
मैं रहूँ सच्चा विधाता!
तू बना देना न ज्ञानी
.
संजीव, १०.१०.२०१८
***
वन्दन
शरणागत हम
*
शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आये।
*
अनहद, अक्षय,अजर,अमर हे!
अमित, अभय,अविजित अविनाशी
निराकार-साकार तुम्हीं हो
निर्गुण-सगुण देव आकाशी।
पथ-पग, लक्ष्य, विजय-यश तुम हो
तुम मत-मतदाता प्रत्याशी।
तिमिर हटाने
अरुणागत हम
द्वार तिहांरे आये।
*
वर्ण, जात, भू, भाषा, सागर
अनिल, अनल,दिश, नभ, नद,गागर
तांडवरत नटराज ब्रम्ह तुम,
तुम ही बृज-रज के नटनागर।
पैग़ंबर, ईसा,गुरु बनकर
तारों अंश सृष्टि हे भास्वर!
आत्म जगा दो
चरणागत हम
झलक निहारें आये।
*
आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे!
असि-मसि,कलम-तूलिका हो तुम
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम।
जन्म-मरण,यश-अपयश चक्रित
छाया-माया,सुख-दुःख हो सम।
द्वेष भुला दो
करुणाकर हे!
सुनों पुकारें, आये।
*****
गुजराती अनुवाद
વન્દના
શરણાગત અમે
શરણાગત અમે
ચિત્રગુપ્ત પ્રભુ
હાથ પસારી આવ્યા .
અમાપ ,અખુંટા ,અજર ,અમર છે
અમિત ,અભય, અવિજયી, અવિનાશી,
નિરાકાર, સાકાર તમે છો
નિર્ગુણ ,સગુણ દેવ આકાશી
પથ -પગ લક્ષ્ય વિજય,યશ તમે છો
તમેજ મત -મતદાતા ,પ્રત્યાશી
અંધકાર મટાવા
સૂર્ય સમક્ષ અમે
દ્વાર તમારે આવ્યા .
વર્ણ ,જાત , ભૂ, ભાષા ,સાગર
અનિલ, અગ્નિ ,ખૂણો ,નભ, નદી ,ગાગર
તાંડવકરનાર નટરાજ બ્રહ્મ તમે
તમેજ બૃજ -રજ ના નટનાગર
પૈગમ્બર,ઈસા, ગુરુ બનીને
તારાજ અંશ શ્રુષ્ટિ છે ભાસ્વર
આત્મા જગાડવાને
ચરણાગત અમે
ઝલક નિહારવાને આવ્યા.
આદિ -અંત ,ક્ષય -ક્ષર વિહીન છે
કટાર-અંજન , કલમ તૂલિકા તમે છો
પારકા નથી કોઈ બધાંજ તમે છો
કાયા માં છે પોતાના બધા અમે
જન્મ -મરણ , યશ-અપયશ ચક્રીત
છાયા-માયા ,સુખ -દુઃખ સર્વ સરખા
દ્વેષ ભુલાવો
કરુણાકર છો
સાંભળો પોકારવાને આવ્યા .
મૂળ રચના :આચાર્ય સંજીવ વર્મા "સલિલ"
ભાવાનુવાદ :કલ્પના ભટ્ટ
***
मुक्तक सलिला
*
जीवन की आपाधापी ही है सरगम-संगीत
रास-लास परिहास इसी में मन से मन की प्रीत
जब जी चाहे चाहों-बाँहों का आश्रय गह लो
आँख मिचौली खेल समय सँग, हँसकर पा लो जीत
*
प्रीत की रीत सरस गीत हुई
मीत सँग श्वास भी संगीत हुई
आस ने प्यास को बुझने न दिया
बिन कहे खूब बातचीत हुई
*
क्या कहूँ, किस तरह कहूँ बोलो?
नित नई कल्पना का रस घोलो
रोक देना न कलम प्रभु! मेरी
छंद ही श्वास-श्वास में घोलो
*
छंद समझे बिना कहे जाते
ज्यों लहर-साथ हम बहे जाते
बुद्धि का जब अधिक प्रयोग किया
यूं लगा घाट पर रहे जाते
*
गेयता हो, न हो भाव रहे
रस रहे, बिम्ब रहे, चाव रहे
बात ही बात में कुछ बात बने
बीच पानी में 'सलिल' नाव रहे
*
छंद आते नहीं मगर लिखता
देखने योग्य नहीं, पर दिखता
कैसा बेढब है बजारी मौसम
कम अमृत पर अधिक गरल बिकता
*
छंद में ही सवाल करते हो
छंद का क्यों बवाल करते हो?
है जगत दन्द-फन्द में उलझा
छंद देकर निहाल करते हो
*
छंद-छंद में बसे हैं, नटखट आनंदकंद
भाव बिम्ब रस के कसे कितने-कैसे फन्द
सुलझा-समझाते नहीं, कहते हैं खुद बूझ
तब ही सीखेगा 'सलिल' विकसित होगी सूझ
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
*
खून न अपना अब किंचित बहने देंगे
आतंकों का अरि-खूं से बदला लेंगे
सहनशीलता की सीमा अब ख़त्म हुई
हर ईंटे के बदले में पत्थर देंगे
* ·
कहाँ और कैसे हो कुछ बतलाओ तो
किसी सवेरे आ कुण्डी खटकाओ तो
बहुत दिनों से नहीं ठहाके लगा सका
बहुत जल चुका थोड़ा खून बढ़ाओ तो
*
क्षणिका :
पुज परनारी संग
श्री गणेश गोबर हुए
रूप - रूपए का खेल
पुजें परपुरुष साथ पर
लांछित हुईं न लक्ष्मी
दोहा :
तुलसी जब तुल सी गयी, नागफनी के साथ
वह अंदर यह हो गयी, बाहर विवश उदास.
सोरठा :
घटे रमा की चाह, चाह शारदा की बढ़े
गगन न देता छाँह, भले शीश पर जा चढ़े
जनक छंद :
नोबल आया हाथ जब
उठा गर्व से माथ तब
आँख खोलना शेष अब
हाइकु :
ईंट रेत का
मंदिर मनहर
देव लापता
मुक्तक  :
मेरा गीत शहीद हो गया, दिल-दरवाज़ा नहीं खुला
दुनियादारी हुई तराज़ू, प्यार न इसमें कभी तुला
राह देख पथराती अखियाँ, आस निराश-उदास हुई
किस्मत गुपचुप रही देखती, कभी न पाई विहँस बुला
शे'र :
लिए हाथों में अपना सर चले पर
नहीं मंज़िल को सर कर सके अब तक
१०-१०-२०१६
***
लघुकथा:
बुद्धिजीवी और बहस
*
'आप बताते हैं कि बचपन में चौपाल पर रोज जाते थे और वहाँ बहुत कुछ सीखने को मिलता थ. क्या वहाँ पर ट्यूटर आते थे?'
'नहीं बेटा! वहाँ कुछ सयाने लोग आते थे जिनकी बातें शेष सभी लोग सुनते-समझते और उनसे पूछते भी थे.'
'अच्छा, तो वहाँ टी. वी. की तरह बहस और आरोप भी लगते होंगे?'
'नहीं, ऐसा तो कभी नहीं होता था'
'यह कैसे हो सकता है? लोग हों, वह भी बुद्धिजीवी और बहस न हो... आप गप्प तो नहीं मार रहे?'
दादा समझाते रहे पर पोता संतुष्ट न हो सका.
१०-१०-२०१४
***
दोहा सलिला :
*
शत वंदन मैया सजा, अद्भुत रूप अनूप
पूनम का राकेश हँस, निरखे रूप अरूप
सलिल-धार बरसा रहे, दर्शन कर घन श्याम
किये नीरजा ने सभी, कमल तुम्हारे नाम
मृदुल कीर्ति का कर रहीं, शार्दूला गुणगान
प्रतिभा अनुपम दिव्य तव, सकता कौन बखान
कुसुम किरण जिस चमन में, करती शर संधान
वहाँ बहार न लुट सके, मधुकर करते गान
मैया भारत भूमि को, ऐसे दें महिपाल
श्री प्रकाश से दीप्त हो, जिनका उन्नत भाल
कर महेश की वंदना, मिले अचल आनंद
ॐ प्रकाश निहारिये, रचकर सुमधुर छंद
प्रणव नाद कर भारती से पायें आशीष
सीता-राम सदय रहें, कृपा करें जगदीश
कंकर-कंकर में बसे, असित अजित अमरीश
धूप-छाँव सुख-दुःख तुम्हीं, श्वेत-श्याम अवनीश
ललित लास्य तुम हास्य तुम, रुदन तुम्हीं हो मौन
कहाँ न तुम?, क्या तुम नहीं? कह सकता है कौन?
रहा ज्ञान पर बुद्धि का, अंकुश प्रति पल नाथ
प्रभु-प्रताप से छंद रच, धन्य कलम ले हाथ
प्रभु सज्जन अमिताभ की, किरण छुए आकाश
नव दुर्गा को नमन कर, पाये दिव्य-प्रकाश
स्नेह-सलिल का आचमन, हरता सकल विकार
कलकल छलछल निनादित, नेह नर्मदा धार
१०-१०-२०१३
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सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

माहिया, व्यंग्य गीत, सॉनेट, वीणा, शरतचंद्र, नेपाल, मुक्तिका, ध्वनि, नवगीत, हरिगीतिका, लोकगीत,

माहिया
(पंजाबी छंद)
विधान
१२-१०-१२
सम तुकांत पहला-तीसरा चरण।
मानव शशि पर जाना
द्वेष-घृणा-नफरत
तुम साथ न ले जाना।
रंगों का बंँटवारा
धर्म व मजहब में
चंदा पर भी होगा?
खाई जो है खोदी
जनता के मन में
चंदा पर भी होगी?
९-१०-२०२३
•••
व्यंग्य गीत
हिंदी लिखते डर लगता है
शब्द-अर्थ बेघर लगता है
खाल बाल की एक निकाले
दूजा डाल अक्ल पर ताले
खींचेगा बेमतलब टाँग
'शब्द बदल' कर देगा माँग
वह गर्दभ का स्वर लगता है
हिंदी लिखते डर लिखता है
होती आस्था पल में घायल
करें सियासत पल पल पागल
अच्छा अपना, बुरा और का
चिंतन स्वार्थी हुआ दौर का
बिखरा उजड़ा घर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
पैसे दे किताब छपवाओ
हाथ जोड़ घर घर दे आओ
पढ़े न कोई, बेचे रद्दी
फिर दूजी दो बनकर जिद्दी
दस्यु प्रकाशक हर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
कथ्य भाव रस से नहिं नाता
गति-यति-लय द्रोह रहा मन भाता
मठाधीश बन चेले पाले
दे-ले अभिनंदन घोटाले
लघु रवि बड़ा तिमिर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
इसको हैडेक हुआ पेट में
फ्रीडमता लेडियाँ भेंट लें
'लिव इन' नया मंच नित भाए
सुना चुटकुले कवि कहलाए
सूना पूजा-घर लगता है
हिंदी लिखते डर लगता है
९-१०-२०२२
●●●
सॉनेट
वीणा
वीणा की झंकार, मौन सुन
आँख मूँद ले पहले पगले!
छेड़े मन के तार कौन सुन।
सँभल न दुनिया तुझको ठग ले।
तू है कौन?, कहाँ से आया?
जाना कहाँ न तुझको मालुम
करे सफर, सामान जुटाया।
मेला-ठेला देख गया गुम।
रो-पछता मत, मन बहला ले
गिर, रो चुप हो, धीरज धरना
लूट न लुटना, खो दे, पा ले।
जैसे भी हो बढ़ना-तरना।
वीणा-तार कहें क्या सुन ले
टूटे तार न सपने बुन ले।
९-१०-२०२२
●●●
सॉनेट
शरत्चंद्र
*
शरत्चंद्र की शुक्ल स्मृति से
मन नीलाभ गगन हो हँसता
रश्मिरथी दे अमृत, झट से
कंकर हो शंकर भुज कसता
सलज उमा, गणपति आहट पा
मग्न साधना में हो जाती
ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ
शीश नवा, माँ के जस गाती
हो संजीव सलिल लहरें उठ
गौरी पग छू सकुँच ठिठकती
अंजुरी भर कर पान उमा झुक
शिव को भिगा रिझाकर हँसती
शुक्ल स्मृति पायस सब जग को
दे अमृत कण शरत्चंद्र का
९-१०-२०२२, १५-४३
●●●
मुक्तक-
माँ की मूरत सजीं देख भी आइये।
कर प्रसादी ग्रहण पुण्य भी पाइये।।
मन में झाँकें विराजी हैं माता यहीं
मूँद लीजै नयन, क्यों कहीं जाइये?
*
आस माता, पिता श्वास को जानिए
साथ दोनों रहे आप यदि ठानिए
रास होती रहे, हास होता रहे -
ज़िन्दगी का मजा रूठिए-मानिए
*
९-१०-२०१६
***
एक रचना:
*
ओ मेरी नेपाली सखी!
एक सच जान लो
समय के साथ आती-जाती है
धूप और छाँव
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं
अपना गाँव।
परिस्थितियाँ बदलती हैं,
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं
लेकिन दोस्त नहीं बदलते
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते।
मुँह फुलाकर रूठ जाने से
सदियों की सभ्यताएँ
समेत नहीं होतीं।
हम-तुम एक थे,
एक हैं, एक रहेंगे।
अपना सुख-दुःख
अपना चलना-गिरना
संग-संग उठना-बढ़ना
कल भी था,
कल भी रहेगा।
आज की तल्खी
मन की कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह
न कल थी,
न कल रहेगी।
नेपाल भारत के ह्रदय में
भारत नेपाल के मन में
था, है और रहेगा।
इतिहास हमारी मित्रता की
कहानियाँ कहता रहा है,
कहता रहेगा।
आओ, हाथ में लेकर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ।
नेता आयेंगे-जायेंगे
संविधान बनेंगे-बदलेंगे
लेकिन हम-तुम
कोटि-कोटि जनगण
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे
दूध और पानी की तरह
शिव और भवानी की तरह
जन्म-जन्म साथ थे, हैं और रहेंगे
ओ मेरी नेपाली सखी!
***
मुक्तिका :
सूखी नदी भी रेत सीपी शंख दे देती हमें
हम मनुज बहती नदी को नित्य गन्दा कर रहे
.
कह रहे मैया! मगर आँसू न इसके पोंछते
झाड़ पत्थर रेत मछली बेच धंधा कर रहे
.
काल आ मारे हमें इतना नहीं है सब्र अब
गले मिलकर पीठ पर चाकू चलाकर हँस रहे
.
व्यथित प्रकृति रो रही, भूचाल-तूफां आ रहे
हम जलाने लाश अपनी आप चंदा कर रहे
.
सूरज ठहाका लगाता है, देख कोशिश बेतुकी
मलिन छवि भायी नहीं तो दीप मंदा कर रहे
.
वाह! शाबाशी खुदी को दे रहे कर रतजगा
बाँह में ये, चाह में वो आह फंदा कर रहे
.
सभ्यता-तरु पौल डाला, मूल्य अवमूल्यित किये
पांच अँगुली हों बराबर, 'सलिल' रंदा कर रहे
९-१०-२०१५
***
काव्य का रचना शास्त्र : १
।-संजीव 'सलिल'
-ध्वनि कविता की जान है...
ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास।
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास।।
अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे। प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं । बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था। विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी।
बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका। अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का। वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता। प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता।
मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते। उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता। अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं। अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी।
सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य।
जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य।।
भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ साहित्य के रूप में प्रस्फुटित हुआ। सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए। सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है। 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ। साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा।
मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है। भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया। यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है। आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है। विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है।
होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत।
दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत।।
साध्य आत्म-आनंद है :काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है। भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है। आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है।
जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद।
कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद।।
काव्य के तत्व:
बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व।
तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व।।
बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है। सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं। कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है।
भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है। भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है। संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है।
कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है। रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं। साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है। रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनाता। वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है।
कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं। किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं। हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है। कला तत्व ही 'शिवता का वाहक होता है। कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है।
शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है। भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है। रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है।
साहित्य के रूप :
दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार।
बनता है साहित्य की, रचना का आधार।।
बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है। हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है। अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है।
लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ :
रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं । साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके।
लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिए व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गए हैं ।
लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे। लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष।
काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है।
साहित्य के रूप -- १. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य।
२.लक्षण ग्रन्थ: (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र।
***
मौसम बदल रहा
मौसम बदल रहा है, टेर रही अमराई
परिवर्तन की आहट, पनघट आई
जन-आकांक्षा नभ को छूती, नहीं अचंभा
छाँव प्रतिनिधि, ज्यों बिजली का खंभा
आश्वासन की गर्मी, सूरज पीटे डंका
शासन भरमाता है, जनगण-मन में शंका
अपचारी ने निष्ठा, बरगद पर लटकाई
मौनी बाबा गायब, दूजा बड़बोला है
रंग भंग में मिलकर बाकी ने घोला है
पत्नी रुग्णा लेकिन रास रचाये बुढ़ापा
सुत से छोटी बीबी,लाई घर में स्यापा
घोटालों में पीछे, ना सुत नहीं जमाई
अच्छे दिन आये हैं, रखो साल भर रोजा
घाटा घटा सकें हम, यही रास्ता खोजा
हिंदी की बिंदी भी रुचे, न माँ-मस्तक पर
धड़क रहा दिल जन का, सुन द्वारे पर दस्तक
क्यों विरोध की खातिर ही विरोध हो भाई?
***
नवगीत
आस कबीर
नहीं हो पायी
हास भले कल्याणी है
प्यास प्राण को
देती है गति
रास न करने
देती है मति
परछाईं बन
त्रास संग रह
रुद्ध कर रहा वाणी है
हाथ हाथ के
साथ रहे तो
उठा रख सकें
विनत माथ को
हाथ हाथ मिल
कर जुड़ जाए
सुख दे-पाता प्राणी है
नयन मिलें-लड़
झुक-उठ-बसते
नयनों में तो
जीवन हँसते
श्वास-श्वास में
घुलकर महके
जीवन चोखी ढाणी है
***
नवगीत:
नेताजी को
श्रद्धांजलि है
नेताजी की
अनुयायी के
विरोध में हैं
कहते बिलकुल
अबोध ये हैं
कई बरस का
साथ न प्यारा
प्यारी सत्ता
नहीं मित्रता
नेताजी की
अपनी कथनी
अपना काम
मुँह पर
गाँधीजी का नाम
गह नव आशा
गढ़ नव भाषा
निज हितकारक
साफ़-सफाई
नेताजी की
९-१०-२०१४
***
नवगीत:
उत्सव का मौसम
*
उत्सव का मौसम
बिन आये ही सटका है...
*
मुर्गे की टेर सुन
आँख मूँद सो रहे.
उषा की रूप छवि
बिन देखे खो रहे.
ब्रेड बटर बिस्कुट
मन उन्मन ने
गटका है.....
*
नाक बहा, टाई बाँध
अंगरेजी बोलेंगे.
अब कान्हा गोकुल में
नाहक ना डोलेंगे..
लोरी को राइम ने
औंधे मुँह पटका है...
*
निष्ठा ने मेहनत से
डाइवोर्स चाहा है.
पद-मद ने रिश्वत का
टैक्स फिर उगाहा है..
मलिन बिम्ब देख-देख
मन-दर्पण चटका है...
*
देह को दिखाना ही
प्रगति परिचायक है.
राजनीति कहे साध्य
केवल खलनायक है.
पगडंडी भूल
राजमार्ग राह भटका है...
*
मँहगाई आयी
दीवाली दीवाला है.
नेता है, अफसर है
पग-पग घोटाला है.
अँगने को खिड़की
दरवाजे से खटका है...
***
हरिगीतिका:
*
उत्सव सुहाने आ गये हैं, प्यार सबको बाँटिये.
भूलों को जाएँ भूल, नाहक दण्ड दे मत डाँटिये..
सबसे गले मिल स्नेह का, संसार सुगढ़ बनाइये.
नेकी किये चल 'सलिल', नेकी दूसरों से पाइये..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
ऐसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें, सुना सरगम 'सलिल' सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
दिल से मिले दिल तो बजे त्यौहार की शहनाइयाँ.
अरमान हर दिल में लगे लेने विहँस अँगड़ाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या सँग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप अपने काव्य को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियां संभाव्य को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यहे एही इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध है हम यह न भूलें एकता में शक्ति है.
है इल्तिजा सबसे कहें सर्वोच्च भारत-भक्ति है..
इसरार है कर साधना हों अजित यह ही युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
९-१०-२०११
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल- पीकर
जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
लोकगीत:
हाँको न हमरी कार.....
*
पोंछो न हमरी कार
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
हाँको न हमरी कार,
ओ बलमा!
हाँको न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग -
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, न करियो रार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
***
नव गीत:
कैसी नादानी??...
*
मानव तो रोके न अपनी मनमानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
जंगल सब काट दिये
दरके पहाड़.
नदियाँ भी दूषित कीं-
किया नहीं लाड़..
गलती को ले सुधार, कर मत शैतानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पाट दिये ताल सभी
बना दीं इमारत.
धूल-धुंआ-शोर करे
प्रकृति को हताहत..
घायल ऋतु-चक्र हुआ, जो है लासानी...
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
*
पावस ही लाता है
हर्ष सुख हुलास.
तूने खुद नष्ट किया
अपना मधु-मास..
मेघ बजें, कहें सुधर, बचा 'सलिल' पानी.
'रुको' कहे प्रकृति से कैसी नादानी??...
****
बाल गीत / नव गीत:
खोल झरोखा....
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
बाल गीत:
माँ-बेटी की बात
*
रानी जी को नचाती हैं महारानी नाच.
झूठ न इसको मानिये, बात कहूँ मैं साँच..
बात कहूँ मैं साँच, रूठ पल में जाती है.
पल में जाती बहल, बहारें ले आती है..
गुड़िया हाथों में गुड़िया ले सजा रही है.
लोरी गाकर थपक-थपक कर सुला रही है.
मारे सिर पर हाथ कहे: ''क्यों तंग कर रही?
क्यों न रही सो?, क्यों निंदिया से जंग कर रही?''
खीज रही है, रीझ रही है, हो बलिहारी.
अपनी गुड़िया पर मैया की गुड़िया प्यारी..
रानी माँ हैरां कहें: ''महारानी सो जाओ.
आँख बंद कर अनुष्का! सपनों में मुस्काओ.
तेरे पापा आ गए, खाना खिला, सुलाऊँ.
जल्दी उठना है सुबह, बिटिया अब मैं जाऊँ?''
बिटिया बोली ठुमक कर: ''क्या वे डरते हैं?'
क्यों तुमसे थे कह रहे: 'तुम पर मरते हैं?
जीते जी कोई कभी कैसे मर सकता?
बड़े झूठ कहते तो क्यों कुछ फर्क नहीं पड़ता?''
मुझे डाँटती: ''झूठ न बोलो तुम समझाती हो.
पापा बोलें झूठ, न उनको डाँट लगाती हो.
मेरी गुड़िया नहीं सो रही, लोरी गाओ, सुलाओ.
नाम न पापा का लेकर, तुम मुझसे जान बचाओ''..
हुई निरुत्तर माँ गोदी में ले बिटिया को भींच.
लोरी गाकर सुलाया, ममता-सलिल उलीच..
९-१०-२०१०

***