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मंगलवार, 3 अक्टूबर 2023

सॉनेट, काली, छंद पुनीत, गीत, समालोचना, सिक्का, मुहावरा, हरियाणवी हाइकु, तीर अलंकार, मुक्तिका, माँ, पापाजी

रोचक विमर्श
अतीत के सिक्के : आज के मुहावरे
*
2..दमड़ी =1 पाई (पावली )
2..पाई = 1 धेला
2..धेला = 1 पैसा
2..पैसे का 1 टका
2..टका का 1 आना
2..टका की 1 दुवन्नी
2..दुवन्नी की 1 चवन्नी
2.. चवन्नी की 1 अट्ठनी
2.. अट्ठन्नी का 1 रुपया अर्थात् 64 पैसों का एक रुपया ।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्य प्रकाश ग्रन्थ में कर्मकांडी पंडितों की अर्थ लोलुपता पर एक श्लोक कहा है:
टका धर्मष्टकाकर्मष्टकाहि परमं पदं
यस्य गृहे टका नास्ति हा टका टकटकायते
इनसे कुछ मुहावरे भी बने:
सिक्का जमना = प्रभाव पड़ना
चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए = कृपाण, कंजूस
पाई-पाई जोड़ना = थोड़ा-थोड़ा बचाना
ढेला भर अकल न होना = थोड़ी भी बुद्धि न होना
पैसे-पैसे को मुहताज = अत्यधिक गरीबी
टका सेर भाजी, टका सेर खाजा, अंधेर नगरी, चौपट राजा = भला-बुरा बराबर
सोलह आने सही = पूरी तरह ठीक
बाप भला न भैया, सबसे भला रुपैया= दुनिया में मतों की नहीं दौलत की कदर होती है.
स्वातंत्र्य सत्याग्रह के समय एक एक नारा लगाकर चंदा माँगा जाता था -
एक चवन्नी चाँदी की, जय बोलो महात्मा गांधी की
कुछ चित्रपटीय गीतों में भी मुद्राओं का जिक्र हुआ है. बात आगे बढ़ाने के लिए आमंत्रित हैं आप सब.
***

सॉनेट
काली
कल क्यों?, काल आज ला काली
अत्याचारी का विनाश कर
करा पाप से दुनिया खाली
सत्ता-सुख का भवन ताश कर
कलकत्ते की मातु कराली
घर घर आ नैवेद्य ग्रहण कर
हाथों में ले थाम भुजाली
शस्य श्यामला वसुंधरा कर
खप्पर कभी न हो माँ खाली
आतंकी का लहू पान कर
फूल-फलों लद झूमे डाली
सुजला सुफला सलिला हो हर
सींचो बगिया बनकर माली
सदय रहो हे मैया काली
३-१०-२०२२
•••
प्रार्थना
कब लौं बड़ाई करौं सारदा तिहारी
मति बौराई, जस गा जुबान हारी।
बीना के तारन मा संतन सम संयम
चोट खांय गुनगुनांय धुन सुनांय प्यारी।
सरस छंद छांव देओ, मैया दो अक्कल
फागुन घर आओ रचा फागें माँ न्यारी।
तैं तो सयानी मातु, मूरख अजानो मैं
मातु मति दै दुलार, 'सलिल' काब्य क्यारी।
***
छंदशाला ३०
पुनीत छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल व उज्जवला छंद)
विधान
प्रति पद १५ मात्रा, पदांत SSI ।
लक्षण छंद-
तिथि पुनीत पंद्रहवी खूब।
चाँद-चाँदनी सोहें खूब।।
गुरु गुरु लघु पद का हो अंत।
सरस सरल हो तो ही तंत।।
उदाहरण-
राजा नहीं, प्रजा का राज।
करता तंत्र लोक का काज।।
भूल न मालिक सच्चा- लोक।
सेवक है नहिं नेता- शोक।।
अफसर शोषण करता देख।
न्यायालय नहिं खींचे रेख।।
व्यापारी करता है लूट।
पत्रकारगण डाले फूट।।
सत्ता नहीं घटाती भाव।
जनता सहे घाव पर घाव।।
२-१०-२०२२
•••
हरियाणवी हाइकु
*
घणा कड़वा
आक करेला नीम
भला हकीम।१।
*
​गोरी गाम की
घाघरा-चुनरिया
नम अँखियाँ।२।
*
बैरी बुढ़ापा
छाती तान के आग्या
अकड़ कोन्या।३।
*
जवानी-नशा
पोरी पोरी मटकै
जोबन-बम।४।
*
कोरा कागज
हरियाणवी हाइकु
लिक्खण बैठ्या।५।
*
'हरि' का 'यान'
देस प्रेम मैं आग्गै
'बहु धान्यक'।६।
*
पीछै पड़ गे
टाबर चिलम के
होश उड़ गे।७।
*
मानुष एक
छुआछूत कर्‌या
रै बेइमान।८।
*
हैं भारतीय
आपस म्हं विरोध
भूल भी जाओ।९।
*
चिन्ता नै चाट्टी
म्हारी हाण कचोट
रंज नै खाई।१०।
*
ना है बाज का
चिडिय़ा नै खतरा
है चिड़वा का।११।
*
गुरू का दर्जा
शिक्षा के मन्दिर मैं
सबतै ऊँच्चा।१२।
*
कली नै माली
मसलण लाग्या हे
बची ना आस। १३।
*
माणस-बीज
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१४।
*
लड़ी लड़ाई
जमीन छुड़वाई
नेता लौटाई।१५।
*
भुख्खा किसाण
कर्ज से कर्ज तारै
माटी भा दाणे।१६।
*
बाग म्हं कूकै
बिरहण कोयल
दिल सौ टूक।१७।
*
चिट्ठी आई सै
आंख्या पाणी भरग्या
फौजी हरख्या।१८।
*
सब नै दंग
करती चूड़ी-बिंदी
मैडल ल्याई।१९।
*
लाडो आ तूं
किलकारी मारकै
सुपणा मेरा।२०।
***
अभिनव प्रयोग
दृश्य काव्य-
तीर अलंकार
*
मैं
बच्चा,
बचपन
से दूर हूँ।
मत समझो
बेबस-मजबूर हूँ।
दुनिया बदल सकता
मेहनत से अपनी।
कहूँगा समय से
कल- देख ले!
मैं भी तो
मशहूर
हूँ।
*
३-१०-२०१६
***
मुक्तिका :
माँ थीं आँचल, लोरी, गोदी
माँ थीं आँचल, लोरी, गोदी, कंधा-उँगली थे पापाजी.
माँ थीं मंजन, दूध-कलेवा, स्नान-ध्यान, पूजन पापाजी..
*
माँ अक्षर, पापा थे पुस्तक, माँ रामायण, पापा गीता.
धूप सूर्य, चाँदनी चाँद, चौपाई माँ, दोहा पापाजी..
*
बाती-दीपक, भजन-आरती, तुलसी-चौरा, परछी आँगन.
कथ्य-बिम्ब, रस-भाव, छंद-लय, सुर-सरगम थे माँ-पापाजी..
*
माँ ममता, पापा अनुशासन, श्वास-आस, सुख-हर्ष अनूठे.
नाद-थाप से, दिल-दिमाग से, माँ छाया तरु थे पापाजी..
*
इनमें वे थे, उनमें ये थीं, पग-प्रयास, पथ-मंजिल जैसे.
ये अखबार, आँख-चश्मा वे, माँ कर की लाठी पापाजी..
*
माला-जाप, भाल अरु चंदन, सब उपमाएँ लगतीं बौनी,
माँ धरती सी क्षमा दात्री, नभ नीलाभ अटल पापाजी..
*
पापा पत्ते सींक बनी माँ, घर दौना भव सागर नदिया
पँखुड़ी बच्चे शिक्षा दीपक, माँ ममता साहस पापाजी
*
दिल-दिमाग माँ-पापा जैसे, मन-तन कह लो उज्र नहीं कुछ
संस्कार माँ पिता शिष्टता, माला माँ जप-तप पापाजी
*
माँ हरियाली पापा पर्वत, फूल और फल कह लो चाहे.
माँ बहतीं थीं 'सलिल'-धार सी, कूल-किनारे थे पापाजी..
३-१०-२०१५
***
पुस्तक चर्चा :
खुद को 'परख' : साहित्य चख
*
भारतीय सृजन परंपरा सबका हित समाहित होने को साहित्य की कसौटी मानती है। 'सत्यं शिवं सुंदरं' के आदर्श को शब्द के माध्यम से समाज तक पहुँचाना ही साहित्य सृजन का ध्येय रहा है। साहित्य के भाव पक्ष का विवेचन कर उसमें अन्तर्निहित भव्य भावों की दिव्यता का दर्शन कर पाठकों-श्रोताओं को उनसे अवगत कराना समालोचना का उद्देश्य रहा है। साहित्य में लोकोत्तर आनंद का अन्वेषण कर साधक-बाधक तत्वों का विश्लेषण और वर्गीकरण कर, सामान्य सिद्धांतों का निर्धारण ही समालोचना शास्त्र है। कालांतर में ऐसे सिद्धांत ही किसी रचना के मूल्यांकन हेतु आधार का कार्य करते हैं। ये सिद्धांत देश-काल-परिस्थिति अनुरूप परिवर्तित होते हैं। कालिदास के अनुसार न तो सब पुराण श्रेष्ठ है, न सब नया हेय। श्रेष्ठ जन गुणावगुण के अधरा पर निर्णय करते हैं -
"पुराण मित्येव न साधु सर्वं, न छापी काव्यं नवमित्यवजर्न।
संत: परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते, मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।। - (मालविकाग्निमित्र १-६)
एक बार प्लेटो ने कहा "आयम नो राइटर ऑफ़ हिस्ट्री."
डायोजनीज ने उत्तर दिया- "एव्री ग्रेट राइटर इस राइटर ऑफ़ हिस्ट्री, लेट हिम ट्रीट ऑन ऑलमोस्ट व्हाट सब्जेक्ट ही मे. ही कैरीज विथ हिम फॉर थाउसेंड ऑफ़ इयर्स ए पोरशन ऑफ़ हिज टाइम्स."
कवीन्द्र रवींद्र के शब्दों में "विश्व मानव का विराट जीवन साहित्य द्वारा आत्म-प्रकाश करता आया है।" वस्तुत: साहित्य की सीमा लिखने, पढ़ने और पढ़ने तक सीमित नहीं है, वह मनुष्य के शाश्वत जीवन में आनंद और अमृत का कोष है।
भारतीय वांग्मय में, निबंध अति प्राचीन अभिधान है। वर्तमान में हम जिसे निबंध कहते हैं, वह अपनी भावात्मक व वैचारिक यात्रा में साहित्य की चिर नवीन और सशक्त विधा के रूप में भारतेन्दु काल से अद्यतन स्वीकृत और विकसित होता रहा है। वर्तमान गद्य युग में, नीर-क्षीर विवेक का, समीक्षा-समालोचना का, तर्क-वितर्क (कभी-कभी कुतर्क भी) का और और वैश्विक आदान-प्रदान की हर अनुभूति निबंध में समाहित हो रही है। निबंध गंभीर गद्य साहित्य के अंतर्गत कथानक निरपेक्ष श्रव्य विधा के विशिष्ट रूप में पहचाना जा रहा है। वर्तमान निबंध प्राणवान, गतिशील, सशक्त, साहित्यिक, रसात्मक अभिव्यक्ति से संयुक्त विश्वजनीन वैचारिक परिदृश्य से संपुष्ट विधा के रूप में पाठकार्षण का केंद्र है। आचार्य त्रयी (रामचंद्र शुक्ल, नंददुलारे बाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी), लाला भगवान दीन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जैनेन्द्र, महादेवी, डॉ, नगेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, गुलाबराय, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ, विवेकी राय, डॉ.जगदीश गुप्त, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, आदि ने विविध विधान में निबंध लेखन कर उसे समृद्ध किया है।
हिंदी को विरासत में "गद्यं कवीनां निकषं वदंति" का मानक मिला है। समीक्षा दृष्टि से निबंध लेखन कलात्मकता और वैज्ञानिकता के साँचे में साहित्यिकता को ढालकर शब्द-सामर्थ्य से अभिषिक्त करने का सारस्वत अनुष्ठान है। समीक्षा में विषय की विवेचना कर आख्यान को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिभा, अध्ययन और मनन की पूँजी आवश्यक है। वर्तमान में प्राच्य समीक्षा से संपर्क सहज होने के कारण बिम्ब-विधान, प्रतीक, कल्पना, रस, अलंकार, भाषिक वैशिष्ट्य, अभिव्यक्तात्मक गुण-दोष, लक्षण, व्यंजना आदि को ही आधार मानकर समीक्षा-कर्म की इतिश्री नहीं मानी जा सकती। समीक्षा कर्म हेतु सिद्धांत, नियम और आदर्श की कसौटियों को लेकर पश्चिम में भी कलावादियों और भाववादियों में मतभेद है। समीक्षक का कार्य पाठक को गुण-दोष विषयक मान्यताओं से अवगत करना है, निर्णय देना नहीं। पाठकीय अभिरुचि के परिष्करण, बोधशक्ति और रसास्वादन वृद्धि तक ही समीक्षक का दायित्व है। कला, भाव, कथ्य, भाषा और प्रासंगिकता के पंचतत्वों पर चिंतन हेतु समीक्षक की दृष्टि का पूर्वाग्रहमुक्त होना अपरिहार्य है।
समालोचना के ४ प्रधान मार्ग १. सैद्धान्तिक आलोचना, २. निर्णयात्मक आलोचना, ३. प्रभावाभिव्यजंक आलोचना तथा ४. व्याख्यात्मक आलोचना हैं। सैद्धांतिक समालोचना किसी सिद्धांत को केंद्र में रखकर की जाती है। निर्णयात्मक समीक्षा में रचना के गुण-दोषों का आकलन कर स्थान निर्धारण किया जाता है। प्रभावाभिव्यजंक समीक्षा में रचना से व्युत्पन्न प्रभावों को प्रमुखता दे जाती है। व्याख्यात्मक समीक्षा में रचना के विविध अंगों की विशेषताओं को उद्घाटित करती है। समालोचना के कुछ अन्य प्रकार भी हैं। ऐतिहासिक समीक्षा में सामाजिक, राजनैतिक, अभियांत्रिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विविध परिप्रेक्ष्यों में कृति का मूल्यांकन और अन्य कृतियों से तुलना की जाती है। मनोवैज्ञानिक समीक्षा, दर्शन शास्त्रीय समीक्षा, विज्ञानपरक समीक्षा, अर्थ शास्त्रीय समीक्षा आदि विषय विशेष के अंगोपांगों, मूल्यों, विधानों आदि के अनुरूप होती हैं। निर्णायात्मक समीक्षा अब कालातीत हो गयी है। "द रैंकिंग ऑफ़ राइटर्स इन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट हैस बिकम ओब्सोलीट" - द न्यू क्रिटिसिज़्म, जे. ई. स्प्रिंगन
आधुनिक हिंदी में समीक्षा लेखन का सूत्रपात १९वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतेन्दु हरिश्चंद्र के समय से हुआ।'समालोचना' का शाब्दिक अर्थ है - 'अच्छी तरह देखना'। 'आलोचना' शब्द 'लुच' धातु से बनी क्रिया 'लोच' से निर्गत है। 'लोच' का अर्थ है 'देखना'। 'लोच' का अर्थ देखना, प्रकाशित करना है। 'लोच' से ही 'लोचन' शब्द बना है। 'लोचन' में 'आ' प्रत्यय लगने पर 'आलोचन' फिर आलोचना बना।' आलोचना में 'सम' प्रत्यय जुड़कर 'समालोचना' बन। व्यवहार में समीक्षा, आलोचना, समालोचना (अंग्रेजी 'क्रिटिसिज्म') समानार्थी हैं।शब्द के समानार्थी रूप में 'आलोचना' का व्यवहार होता है।संस्कृत में प्रचलित 'टीका-व्याख्या' और 'काव्य-सिद्धान्तनिरूपण' के लिए भी आलोचना शब्द का प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का स्पष्ट मत है कि आधुनिक आलोचना, संस्कृत के काव्य-सिद्धान्तनिरूपण से स्वतंत्र चीज़ है। आलोचना का कार्य है किसी साहित्यक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गणु और अर्थव्यस्था का निर्धारण करना। डॉक्टर श्यामसुन्दर दास ने आलोचना की परिभाषा इन शब्दों में दी है - "यदि हम साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"
अर्थात् आलोचना से आशय साहित्यक कृति की विश्लेषणपरक व्याख्या से है। साहित्यकार जीवन और अनभुव के जिन तत्वों के संश्लेषण से साहित्य रचना करता है, आलोचना उन्हीं तत्वों का विश्लेषण करती है। साहित्य में जहाँ रागतत्व प्रधान है वहाँ आलोचना में बुद्धि तत्व। आलोचना ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों और शिस्तयों का भी आकलन करती है और साहित्य पर उनके पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना करती है। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा या प्रशंसा करना आलोचना का धर्म नहीं है। कृति की व्याख्या और विश्लेषण के लिए आलोचना में पद्धति और प्रणाली का महत्त्व होता है। आलोचना करते समय आलोचक अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, रुचि-अरुचि से तभी बच सकता है जब पद्धति का अनुसरण करे, वह तभी वस्तुनिष्ठ होकर साहित्य के प्रति न्याय कर सकता है। इस दृष्टि से हिन्दी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को सर्वश्रेष्ठ आलोचक माना जाता है।
लाला भगवान दीन और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकमंगलपरक रसाश्रित आलोचना, शास्त्रानुमोदित सामाजिक सामयिकता और सटीक भाषिक अभिव्यक्ति से हिंदी समीक्षा भवन की नींव सुदृढ़ हुई। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐतिहासिक गर्वानुभूति की चाशनी और पाण्डुलिपीय शोधपरक व्यावहारिक आदर्श को ध्रुव तारे की तरह समीक्षा जगत में स्थापित किया। डॉ. नगेंद्र की रसग्राही दृष्टि आचार्य नंददुलारे बाजपेई के राष्ट्रीय गौरव के साथ सम्मिश्रित होकर महादेवी की रहस्यात्मकता की ओर उन्मुख हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा ने समीक्षा का साम्यवादी यथार्थवाद और अस्तित्ववाद से परिचय कराया। हिंदी साहित्य के विशिष्ट, अभिजात्य, मौलिक हस्ताक्षर रहे अज्ञेय के अनुसार "यह सब अनुभव अद्वितीय, जो मैंने किया, सब तुम्हें दिया।" - आत्मने पद। वे साहित्य सृजन को 'व्यक्ति' विलयन का माध्यम मानते थे। ऋषिगण अपने 'अहं' को विलीन कर सृजन करते थे, अज्ञेय इस ऋषि बोध के कायल थे। उनके अनुसार - "लेखकों को नहीं, समालोचकों को शिक्षित बनने के प्रयत्न करना चाहिए। लेखक बंधन से परे है और रहेगा.... लेखक बंध सकता है पर रचना-शक्ति को नहीं बाँध सकता, बंधने से वह मर जाएगी।" अज्ञेय ने आलोचना और रचना प्रक्रिया को एक कर दिया। उन्होंने व्याख्यात्मक सैद्धांतिक आलोचना पर कम ध्यान दिया। अज्ञेय ने काव्य की आत्मा को शैली (अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य, रस आदि) में न मानकर, मानव को केंद्र में रखा। रचनाकार और आलोचक का विभाजन पश्चिम में भी रहा। आलोचना की पहचान उसका शास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक, समाजपरक, ऐतिहासिक या सौंदर्यवादी होना है। व्यक्तिपरक, अध्यापकीय, भाषिक लालित्य को ध्येय मानने से आलोचना की शक्ति क्षीण होना स्वाभाविक है। आलोचना को तार्किक, संदर्भयुक्त, मूल्य-पोषित होना होगा। मूल्याश्रित आलोचना वस्तुनिष्ठता और तात्कालिकतापरक हो यह स्वाभाविक है। अज्ञेय के अनुसार "भाषा हमारी शक्ति है, उसको हम पहचानें। वही रचनाशीलता का उत्स है, व्यक्ति के लिए भी और समाज के लिए भी।" - (स्रोत और सेतु, पृष्ठ ९९) वे कहते हैं - "क्या किसी साहित्यकार को समझना, उसकी समीक्षा करना, साहित्य के विकास में उसका स्थान और महत्व निश्चित करना, रचना का मूल्य आँकना, क्या केवल उसी को देखकर संभव है? क्या उसकी तथाकथित विशेषता, भिन्नता को देखने के लिए हम उन्हें पूर्ववर्तियों के बीच रख- तुलना कर, पूर्ववर्तियों साहित्यकारों और कवियों के साथ संबंध की जाँच-पड़ताल नहीं करेंगे?"
मुक्तिबोध के अनुसार समीक्षा का अनिवार्य गुण जीवन, विवेक व उसकी मर्मज्ञता है। उनके अनुसार "वस्तुत: समीक्षात्मक कला में समीक्षा जीवनगत तथ्यों की हुआ करती है।"-नए साहित्य का सौंदर्य शास्त्र, पृ. ९९। शारदा प्रसाद सक्सेना, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि ने मुक्तिबोध के चिंतन को 'मार्क्सवादी पूर्वाग्रह' कहा किन्तु डॉ. नामवर सिंह ने इसे 'प्रस्थान भेद और मूल्य केंद्रित दृष्टि' माना। मुक्तिबोध के अनुसार रचनाकार को "तत्व, अभिव्यक्ति और दृष्टिविकास, तीनों क्षेत्रों में रचनाप्रक्रिया को निरंतर उन्नत करना चाहिए। 'नयी कविता का दायित्व' में मुक्तिबोध मानव मुक्ति के संघर्ष को रचनाकार का सबसे बड़ा दायित्व कहते हैं। उनके अनुसार "रचनाकार की दायित्व चेतना मूलत: सामाजिक दृष्टि का प्रतिफल होती है जिसका सहकार उसकी सौंदर्य प्रतीति में अनिवार्य रूप से रहता है।" मुक्तिबोध 'नवीन समीक्षा का आधार' में जीवन संघर्ष के धरातल पर लेखक और समीक्षक में होड़ देखते हैं। " नि:संगता से सृजन नहीं उपजता" - काव्य की रचना प्रक्रिया। उनके अनुसार आलोचक के कर्तव्य और दायित्व बड़े हैं। उसे अहंकार शून्य होना चाहिए। - एक साहित्यकार की डायरी। "समीक्षा को मानवीय यथार्थ से जोड़े बिना कोई मूल्य नहीं दिया जा सकता।" -नयी कविता का आत्म संघर्ष, पृष्ठ १५८। मुक्तिबोध के अनुसार आलोचक का कार्य कलाकृति के भीतर के तत्वों को हृदयंगम कर तत्वों की समुचित व्याख्या करना है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता और लेखन अभियंता सुरेंद्र सिंह पवार की कृति 'परख' चयनित पुस्तकों पर समीक्षात्मक निबंधों का संकलन है। इस विधा पर हिंदी में अपेक्षाकृत कम कार्य हुआ है। यह कार्य समय, धन, बुद्धि और श्रम साध्य है।संकलन में विविध विधाओं, विविध विषयों, विविध आयुवर्ग और पृष्ठभूमि के रचनाकारों का होना इसका वैशिष्ट्य है। स्वाभाविक है कि हर कृति के साथ न्याय करने के लिए हर निबंध की विषयवस्तु, लेखन आधार, मानक और वर्णन शैली भिन्न रखना होगी। अन्तर्निहित ३२ निबंधों में से १८ पद्य कृतियों पर और १४ गद्य कृतियों पर हैं। पद्य कृतियों में २ दोहा संकलन (दोहा-दोहा नर्मदा - संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - डॉ. साधना वर्मा, बुंदेली दोहे - आचार्य भगवत दुबे), ४ खंड काव्य (जयद्रथ मरण - देवराज गोंटिया 'देवराज', महारानी मंदोदरी - प्रतिमा अखिलेश, कालजयी - अमरनाथ, प्राणमय पाषाण - गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' ), २ काव्यानुवाद (धाविका - भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', श्री गीता मानस - उदयभानु तिवारी 'मधुकर'), ३ कविता संग्रह (फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक - बद्रीनारायण सिंह पहाड़ी, प्रेमांजलि - विष्णु प्रसाद पांडेय, खुशियों के रंग - मदन मोहन उपाध्याय,), ३ गीत संग्रह (पंख फिर भीगे सपन के - कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', जंगल राग - अशोक शाह, काल है संक्रांति का - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'), २ ग़ज़ल संग्रह (इन दिनों - कृष्ण कुमार राही, सरगोशियाँ - इंदिरा शबनम ), एक मुक्तक संग्रह (कुछ छाया कुछ धूप - चन्द्रसेन 'विराट') तथा एक महाकाव्य (रानी थी दुर्गावती - केशव सिंह दिखित) हैं। गद्य कृतियों में ३ उपन्यास (नींद क्यों रात भर नहीं आती - सूर्यनाथ सिंह, विक्रमादित्य कथा - प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, कितने पाकिस्तान - कमलेश्वर), ५ कहानी संग्रह (सही के हीरो - डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, अपना अपना सच - संतोष परिहार, दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे, अष्टदल - डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', सरेराह - डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव), पर्यटन (नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा - भारती ठाकुर), इतिहास (मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार - शंकर सिंह 'राजन'), निबंध संग्रह (काल क्रीडति - डॉ.श्याम सुंदर दुबे), बाल कहानी संग्रह (अनमोल कहानियाँ - श्रीमती गुलाब दुबे), आत्मकथा (जब मेरी वादी हरी भरी थी - डॉ. कंवर के. कौल), लघुकथा (अंदर एक समंदर - सुरेश 'तन्मय' ) सम्मिलित हैं।
रचनाकारों में ६ अभियंता (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', देवराज गोंटिया 'देवराज', अमरनाथ, गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर', उदय भानु तिवारी 'मधुकर', चन्द्रसेन विराट), २ चिकित्सक (डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल), २ उच्च प्रशासनिक अधिकारी (मदन मोहन उपाध्याय, अशोक शाह), ४ शिक्षा शास्त्री (भगवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़', डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल', प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी, डॉ.श्याम सुंदर दुबे), प्राध्यापक (डॉ. साधना वर्मा), चिकित्सा कर्मी (आचार्य भगवत दुबे), ३ शिक्षक (विष्णु प्रसाद पांडेय, कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक', केशव सिंह दिखित, ), शासकीय अधिकारी (सुरेश 'तन्मय'), पत्रकार (कमलेश्वर), गृहस्वामिनी (डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव) हैं। इनमें केवल ६ महिलाएँ (डॉ. साधना वर्मा, प्रतिमा अखिलेश, इंदिरा शबनम, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव, भारती ठाकुर, श्रीमती गुलाब दुबे) हैं, शेष २६ पुरुष हैं। लगभग सभी रचनाकार उच्च शिक्षित हैं, डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव डी.लिट्, डॉ. साधना वर्मा पीएच. डी. तथा डॉ. अव्यक्त अग्रवाल, डॉ. कंवर के. कौल चिकित्सा क्षेत्र में शोधोपाधियाँ प्राप्त हैं। इससे उच्च शिक्षित वर्ग में साहित्य सृजन की बढ़ती रूचि का अनुमान सहज ही किया जा सकता है। अब कबीर, रैदास आदि की तरह शिक्षा अवसर रहित किन्तु उच्चतम समझ से संपन्न रचनाकार अपवाद ही हैं। इसका प्रभाव रचनाओं में भाषिक शुद्धता, प्रांजल अभिव्यक्ति, विषय और कथ्य के प्रति स्पष्ट समझ तथा विचारों के व्यवस्थित प्रस्तुतीकरण के रूप में देखा जा सकता है किन्तु इसमें स्वाभाविकता पर कृत्रिमता के हावी होने का खतरा भी है। कथ्य पर शिल्प हावी हो सकता है जिसका दुष्परिणाम संवेदनाओं का पाठक / श्रोता तक संवेदनाएँ न पहुँचने के कारण जुड़ न पाने के रूप में होने के रूप में हो सकता है। सौभाग्य से ऐसा हुआ नहीं है और इसीलिये ये कृतियाँ समीक्षक की चयन सूची में आ सकी हैं।
कृतिकार सुरेंद्र जी अभियंता हैं, गुणवत्ता के प्रति सजग रहना उनका स्वभाव है। कृति चयन, पठन और उन पर समीक्षात्मक निबंध लेखन का कार्य रज्जु पर नर्तन की तरह दुष्कर कृत्य है। एक ओर अपनों के नाराज होने की संभावना, दूसरी ओर कृति और कथ्य के साथ न्याय न हो पाने का खतरा, तीसरी और समीक्षा के मानकों का पालन न होने से आलोचना का भय। इन सबके मध्य कृतियाँ विविध विषयों और विधाओं की हों जिनमें कुछ के परिक्षण के मानक ही अस्पष्ट हों तो समीक्षक का कार्य अधिक कठिन हो जाता है। संतोष है की सुरेंद्र जी धुआँधार जलप्रपात से व्युत्पन्न भँवर युक्र नर्मदा सलिल धार की तरह जटिल समीक्षा नद को कुशल तैराक की तरह पार कर सके हैं। इसमें सबसे बड़ी सहायक उनकी तर्क-शक्ति, ग्राह्य सामर्थ्य और निष्पक्षता हुई है। वे संबंधों के शोणभद्र को नैकट्य की जोहिला पर मुग्ध नहीं होने देते और निश्छल नर्मदा की तरह सत्य-शिव-सुंदर को सराहते हुए नीर-क्षीर विवेक का परिचय देते हुए, खूबियों को सराहते, खामियों को इंगित कर समीक्षक धर्म का पालन कर सके हैं।
दोहा संकलन
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग १ 'दोहा-दोहा नर्मदा' संपादक संजीव वर्मा 'सलिल' - प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा की समीक्षा करते हुए वे लगभग १७०० दोहों में से कुछ दोहों को उद्धृत करने के साथ किसी छंद पर अब तक हुए सबसे महत्वपूर्ण कार्य की हिंदी साहित्य के हिमालय 'तार सप्तक' के साथ जोड़ने में संकोच नहीं करते। प्रत्येक दोहाकार के गुण-दोष संकेतन के साथ एक-एक दोहा उद्धृत कर संतुलित-निष्पक्ष समीक्षा सुरेंद्र जी ने की है।
बुंदेली दोहे में सदाबहार छंद दोहा और सरस बुंदेली का सम्मिलन रसधार की तरह प्रवाहित हो, यह स्वाभाविक है। समीक्षक ने कृति में प्रयुक्त बुंदेली शब्द-संपदा के महत्व को रेखांकित किया है। वरिष्ठ साहित्यकार आचार्य भगवत दुबे की यह कृति बुंदेली साहित्य का रत्न है।
खंड काव्य
जयद्रथ मरन अभियंता कवि देवराज गोंटिया 'देवराज' लिखित महत्वपूर्ण बुंदेली खंड काव्य है। इसी प्रसंग पर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने 'जयद्रथ वध' खंड काव्य की रचना हरगीतिका छंद ( ४ x ११२१२) में की है। देवराज ने आल्हा छंद (१६-१५ पर यति, विषम पदांत गुरु, सम पदांत लघु) का प्रयोग किया है। सुरेंद्र जी ने बुंदेलखंड में वाचिक छंद परंपरा, अलंकारों, रसों आदि का उल्लेख करते हुए कृति का सम्यक विवेचन किया है।
प्रतिमा अखिलेश की औपन्यासिक कृति महारानी मंदोदरी पर विमर्श में पंचकन्याओं में परिगणित मंदोदरी द्वारा धर्म या परंपरा के नाम पर वैयक्तिक महत्ता के स्थान पर कर्तव्य के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने की स्वागतेय वृत्ति को इंगित किया गया है।
लखनऊ के वरिष्ठ कवि अभियंता अमरनाथ द्वारा रचित खंड काव्य कालजयी की समीक्षा में कारण की मनोग्रंथियों, आदर्शों तथा कवि द्वारा प्रयुक्त अभियांत्रिकीय उपमानों झरता - दीवार, घुनता - लकड़ी, रिसता - छत, दीमक - काया, पानी - आँखें आदि की प्रस्तुति परख की सजगता की परिचायक है।
प्राणमय पाषाण खंड काव्य अभियंता कवि गोपाल कृष्ण चौरसिया 'मधुर' की काव्य कृति है। यह मदन महल की शिलाओं से सद्गुरु कृपालु जी महाराज के संवाद की भावभूमि पर आधृत है। समीक्षक ने कवि के कथ्य के साथ न्याय करने के प्रयास करते हुए भी काल क्रम दोष को उचित ही इंगित किया है।
काव्यानुवाद
प्रो. भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' बुंदेलखंड के वरिष्ठ शिक्षा विद रहे हैं। उनहोंने सत्य साईं बाबा की शिक्षा संस्था में अध्यापन के समय बाबा का नैकट्य पाया और अंत में बापू की कम भूमि अहमदाबाद में सारस्वत साधना की। आंग्ल कवि विलियम मॉरिस के महाकाव्य 'अर्थली पैरेडाइज' के १२ वे सर्ग 'एटलांटाज रेस' को खंड काव्य के रूप में धाविका शीर्षक से रचकर नियाज़ जी ने अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। समीक्षक ने कथानक, प्रकृति चित्रण, चरित्र चित्रण, कला पक्ष आदि अनुच्छेदों में कृति का सम्यक विवेचन किया है।
श्री गीता मानस में उदयभानु तिवारी 'मधुकर' ने गीता के कथ्य को मानस के शिल्प में ढाला है। से मूल ग्रंथ की आत्मा को सुरक्षित रखते हुए भाषा और भाव की दृष्टि से अद्वितीय काव्यानुवाद ठीक ही कहा गया है।
कविता संग्रह
फ़ुटबाल से कंप्यूटर तक काव्य संग्रह में बद्रीनारायण सिंह 'पहाड़ी' द्वारा प्रयुक्त आम भाषा की पैरवी करता रचनाकार मानव मूल्यों के ह्रास से चिंतित है।सुरेंद्र कवि द्वारा पर्यावरण के अंधाधुंध दोहन के प्रति चिंता को उकेरते ही नहीं उभरते भी हैं।
शिक्षक कवि विष्णु प्रसाद पांडेय प्रणीत काव्य कृति प्रेमांजलि प्रकृति को आध्यत्मिक दृष्टिकोण से निहारते हुए उत्पन्न भावों से समृद्ध है। समीक्षक ने 'काम' और 'राम' दोनों को पहचाना है।
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी कवि मदन मोहन उपाध्याय के काव्य संग्रह 'खुशियों के रंग' की १२९ कविताओं में अंतर्निहित अनीश्वरवाद, विषय वैविध्य और हुलास की तलाश समालोचक की दृष्टि से नहीं बचते। कवि ने कथ्य और समीक्षक ने रचनाओं के विवेचन में नीर-क्षीर दृष्टी का परिचय दिया है।
गीत संग्रह
पंख फिर भीगे सपन के संस्कारधानी जबलपुर के सरस्-समर्थ गीतकार कृष्ण कुमार चौरसिया 'पथिक' के रचनाकर्म की बानगी है। समीक्षक इन गीतों में रजऊ और मीरा की दीवानगी, अनुरागी तन-बैरागी मन देख सका है।
गीत संग्रह 'जंगल राग' के रचयिता अशोक शाह उच्चतम तकनीकी शिक्षा प्राप्त प्रशासकीय अधिकारी हैं। उनका गहन अध्ययन और सुदीर्घ प्रशासनिक अनुभव उनकी अनुभूतियों को सामान्य से इतर अभिव्यक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बनाये, यह स्वाभाविक है। ऐसे रचनाकर को पढ़ना अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। सुरेंद्र जी ने कृति में प्रयुक्त प्राचीन मिथकों, वनवासियों की वाचिक परंपराओं आदि से संपन्न जंगल राग को जीवन राग से ठीक ही जोड़ा है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' अभियंता रचनाकारों द्वारा नई लीक गढ़ने का अन्यतम उदाहरण है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की इस कृति को समीक्षक सुरेंद्र जी ने 'गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीत रूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान' करता पाया है। वे इन गीतों के केंद्र में आम आदमी को देख पाते हैं जो श्रम जीवी है और जिसे हर दिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। उनके अनुसार इन नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और संपन्न रूप में मौजूद है। इन नवगीतों में अन्तर्निहित कसावट, संक्षिप्तता, नूतन बिम्ब, अभिनव प्रतीक और छांदस प्रयोग मिथकों, मुहावरों आदि आदि को भी समीक्षक की सूक्ष्म दृष्टि देख-परख लेती है।
ग़ज़ल संग्रह
हिंदी गीति काव्य के शिखर हस्ताक्षर अभियंता चंद्रसेन विराट रचित हिंदी ग़ज़ल (मुक्तिका) संग्रह इस सदी का आदमी की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए 'बहरों का दरबार जोर से बोल यहाँ / मिमिया मत, हुंकार जोर से बोल यहाँ' का उल्लेख समालोचक की सुधारात्मक सोच का संकेत करता है।
ग़ज़ल संग्रह 'इन दिनों' की रचनाओं में कृष्ण कुमार 'राही' पर समकलिक अन्य ग़ज़लकारों का प्रभाव देख पाना समीक्षक की पैनी दृष्टि का साक्ष्य है।
सरगोशियाँ ग़ज़ल संग्रह इंदिरा शबनम की कृति है। इन ग़ज़लों के हिन्दुस्तानी तेवर को सराहता समीक्षण उनकी छन्दबद्धता, मौलिकता और भाव प्रवणता को भी परखता है।
मुक्तक संग्रह 'कुछ छाया कुछ धूप' हिंदी के यशस्वी साहित्यकार अभियंता चन्द्रसेन 'विराट' की कीर्ति पताका है। समीक्षक ने विराट जी द्वारा अपनाये गए उर्दू छंद की चर्चा की है जो हिंदी का पौराणिक जातीय छंद का एक प्रकार है।
महाकाव्य
रानी थी दुर्गावती भारतीय इतिहास के उज्वल चरित्र को सामने लता है जिसके उत्सर्ग को वनवासी क्षत्राणी होने के नाते वह महत्व नहीं मिला जो मिलना था। केशव सिंह दिखित ने इस कृति द्वारा दुर्गावती के बलिदान के साथ न्याय किया है। दुर्गावती पाए वृन्दावन लाल वर्मा, हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने उपन्यास और गोविन्द प्रसाद तिवारी ने खंड काव्य पूर्व में लिखा है। समालोचक ने क्षत्रिय राज वंशों की विस्तृत चर्चा करते हुए चंदेल-गोंड विवाह को सामाजिक मान्यताओं के अनुसार उचित ठहराया है। महाकाव्यत्व के निकष पर कृति खरी है।
उपन्यास
सूर्यनाथ सिंह के मनोवैज्ञानिक उपन्यास 'नींद क्यों रात भर नहीं आती' की समीक्षा करते समय किस्सागोई की देशज परंपरा का उल्लेख कल को आज से जोड़कर कल के लिए उसकी प्रासंगिकता को इंगित करता है।
'विक्रमादित्य कथा' ज्येष्ठ साहित्यकार प्रो. राधाबल्लभ त्रिपाठी लिखित, ६वीं सदी के संस्कृत साहित्य सुमेरु डंडी के अप्राप्य ग्रंथ पर आधारित कृति है। सुरेंद्र जी ने इसे उद्भट विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की कालजयी कृति बाणभट्ट की आत्मकथा के समकक्ष रखा है किंतु दोनों के मध्य समानता के बिंदु नहीं दिए हैं।
कितने पाकिस्तान ख्यात साहित्यकार-प्रकार-संपादक कमलेश्वर की बहुचर्चित कृति है। इसे पढ़ते समय सूयरंध्र जी की सजग पाठकीय दृष्टि बुन्देल केसरी छत्रसाल संबंधी तथ्यात्मक चूक की और गयी और उन्होंने निस्संकोच पत्र लिखकर कमलेश्वर को इसकी प्रतीति कराई। यह निबंध उपन्यास की समीक्षा न होकर इस प्रसंग पर सुरेंद्र जी के अध्ययन पर केंद्रित है।
कहानी संग्रह
डॉ. अव्यक्त अग्रवाल लिखित कहानी संग्रह 'सही के हीरो' में प्रयुक्त अहिन्दी शब्दों से हिंदी की श्रीवृद्धि होने की समझ, ऐसे शब्दों को परे रखने की संकुचित सोच पर करारा प्रहार है। पारंपरिक कहावतों, मुहावरों के प्रासंगिक प्रयोग पर समीक्षकीय दृष्टिपात सजगता का परिचायक है।
अपना अपना सच में संतोष परिहार की कहानियों के मूल में प्रेमचंद-प्रभाव का संकेत और तब से अब तक विसंगतियों का अक्षुण्ण प्रभाव समीक्षक की पैनी निगाह से बचा नहीं है।
दूल्हादेव - आचार्य भगवत दुबे का चर्चित कथा संग्रह है। कहानियां खड़ी बोली में होने पर भी पात्रों के संवाद परिवेशानुकूल बुंदेली में होने को समीक्षक ने ठीक ही, ठीक ठहराया है। समकालिक कहानीकारों के प्रभाव का उल्लेख उपयुक्त है।
अष्टदल डॉ. गार्गीशरण मिश्रा 'मराल' की ८ ऐसी कहानियों का संग्रह है जिनमें सामाजिक विसंगतियों और अंतर्द्व्न्दों के बावजूद आदमियत की अहमियत बरक़रार है। समीक्षक इनमें अच्छी कहानी के सब गुण पाता है।
डॉ. सुमनलता श्रीवास्तव विदुषी गृहस्वामिनी हैं। अभियंता पति के साथ व्यस्त रहते हुए भी उन्होंने कायस्थ परिवार की विरासत शब्द संस्कृति को जीवंत रखकर अपनी शोध यात्रा को शिखर पर पहुँचाया है। संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी चारों भाषाओँ में दखल रखने वाली कहानीकार 'सरेराह' की २८ कहानियों में ऑटोरिक्षा में आते-जाते समय होते वार्तालाप को कहानियों का धार बनाती हैं। सुरेंद्र जी अपनी परख में इन कहानियों में अंतर्व्याप्त बहुरंगी जीवंत छवियों को कहानी और लघुकथा के बीच उकेरे गए कथा-चित्र पाते हैं।
पर्यटन
हिंदी में पर्यटन साहित्य अपेक्षाकृत कम लिखा गया है। नर्मदा घाटी पर्यटकों को हमेशा लुभाती रही है। स्व. अमृतलाल वेगड़ कृत 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'तीरे-तीरे नर्मदा' तथा 'नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो', 'नदी तुम बोलती क्यों हो?' - नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, 'समय नर्मदा धार सा' - मस्तराम गहलोत, 'नर्मदा की धारा से' - शिव कुमार तिवारी-गोविन्द प्रसाद मिश्र, आदि के क्रम में 'नर्मदा परिक्रमा : एक अंतर्यात्रा' लिखकर भारती ठाकुर ने सत्प्रयास किया है। कृति के गुण-दोष विवेचन पश्चात् समीक्षक ने बच्चों को शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करने के तथ्य सामने लाकर सामाजिक प्रसंगों के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है।
इतिहास
शंकर सिंह 'राजन' की कृति मुस्लिम शासन में हिन्दुओं के साथ पैशाचिक व्यवहार इतिहास के उस पृष्ठ को समने लाती है जिससे वर्तमान सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुँच सकती है। सुरेंद्र जी ने संक्षिप्त चर्चा कर इस प्रसंग को उचित ही काम महत्व दिया है।
डॉ.श्याम सुंदर दुबे विंध्य क्षेत्र के ख्यात शिक्षाविद, ४० से अधिक कृतियों के रचयिता हैं। उनके ३३ निबंधों का संग्रह 'काल क्रीडति' अपने नाम से ही अंतर्वस्तु का परिचय देता है। प्रकृति के विविध रति रंगों से क्रेडा करता पुरुष, आप ही उसका खिलौना न बन जाए। ऐसी चेतना जगाते इन निबंधों पर विमर्श करते समय उतनी ही संवेदनशीलता का परिचय देता है, जितनी अपेक्षित है।
बाल कहानी संग्रह 'अनमोल कहानियाँ' में श्रीमती गुलाब दुबे ने २८ कहानियों तथा ८ पद्य रचनाओं को स्थान दिया है। ये पारंपरिक कहानियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी कही-सुनी जाती रही हैं। लेखिका ने पारंपरिक कथ्य को अपने शब्दों का बाना पहनाकर बच्चों को प्रेरित करने के साथ समीक्षकीय समर्थन भी पाया है।
डॉ. कंवर के. कौल की अंगरेजी आत्मकथा 'व्हेन माय वैली वाज ग्रीन' का हिंदी रूपांतर 'जब मेरी वादी हरी थी' को समीक्षक ने आप बीती घटनाओं, यादों, यात्राओं, संस्मरणों, अनुभवों, घटनाओं व परिवर्तनों का पिटारा ठीक ही निरूपित किया है।
लघुकथा
हिंदी और निमाड़ी के समर्थ रचनाकार सुरेश 'तन्मय' का लघुकथा संग्रह 'अंदर एक समंदर' में ८२ लघुकथाएँ हैं। समीक्षक ने लघुकथा के मानकों को लेकर हो रहे अखाड़ेबाजी से दूर रह कर लघुकथाओं को कथ्य के आधार पर परखा है।
समीक्षात्मक निबंधों में कृति के हर पक्ष की चर्चा अनावश्यक विस्तार-भय से नहीं हो पाती है। समीक्षा करते समय उससे होने वाले प्रभावों और प्रतिक्रियाओं का भी ध्यान रखना होता है। कहा गया है 'सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मा ब्रूयात सत्यं अप्रियं' अर्थात 'जब सच बोलो प्रिय सच बोलो, अप्रिय सच को कभी न बोलो'। सुरेन्द्र जी ने इसी नीति का अनुसरण किया है। कृतियों के वैशिष्ट्य को यत्र-तत्र उद्घाटित किया है किन्तु न्यूनताओं को प्रे: अनदेख किया है। आलोचना के निकष पर यह नीति आलोचना की पात्र होगी किन्तु सम ईक्षा की दृष्टि से इसे सहनीय मानने में किसी को आपत्ति न होगी। इस तरह की कृतियाँ नव रचनाकारों के लिए पथ दर्शक की भूमिका निभा सकती हैं। गहन और व्यापक अध्ययन हेतु सुरेंद्र जी साधुवाद के पात्र हैं।
***
गीत:
कम हैं...
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न देता-पाता धोखा
हर रिश्ता लगता है चोखा.
खलिश नहीं नासूर हो सकी
पल में शिकवे दूर हुए हैं.
शब्द-भाव के अनुबंधों से
दूर रहे जो सूर हुए हैं.
मैं-तुम के बंधन को तोड़े
जाग्रत होता रिश्ता 'हम' हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हम सब एक दूजे के पूरक
लगते हैं लेकिन प्रतिद्वंदी.
उड़ते हैं उन्मुक्त गगन में
लगते कभी दुराग्रह-बंदी.
कौन रहा कब एकाकी है?
मन से मन के तार जुड़े हैं.
सत्य यही है अपने घुटने
'सलिल' पेट की ओर मुड़े हैं.
रिश्तों के दीपक के नीचे
अजनबियत के कुछ तम-गम हैं.
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
३-१०-२०११
***

रविवार, 1 अक्टूबर 2023

मुक्तिका, यास्मीन, हिंदी, सोनेट, गीत, दुर्गा

सॉनेट
*
रतजगा कर किताब को पढ़ना
पंखुड़ी गर गुलाब की पाओ
इश्किया गजल मौन रह गाओ
ख्वाब में ख्वाब कुछ नए गढ़ना।
मित्र का चित्र हृदय में मढ़ना
संग दिल संगदिल न हो जाओ
बाँह में चाह को सदा पाओ
हाथ में हाथ थाम कर बढ़ना।

बिंदु में सिंधु ज्यों समाया हो
नेह से नेह को समेटें हम
दूर होने न कभी, हम भेंटें।
गीत ने गीत गुनगुनाया हो
प्रेम से प्रेम को लपेटें हम
चाँद को ताक जमीं पर लेटें।
१-१०-२०२३
***
आदि शक्ति वंदना'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत रूप.
दिव्य-भव्य, नित नवल-विमल छवि, माया-छाया-धूप..
जन्म-जन्म से भटक रहा हूँ, माँ ! भव से दो तार.
चरण-शरण जग, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
नाद, ताल, स्वर, सरगम हो तुम. नेह नर्मदा-नाद.
भाव, भक्ति, ध्वनि, स्वर, अक्षर तुम, रस, प्रतीक, संवाद..
दीप्ति, तृप्ति, संतुष्टि, सुरुचि तुम, तुम विराग-अनुराग.
उषा-लालिमा, निशा-कालिमा, प्रतिभा-कीर्ति-पराग.
प्रगट तुम्हीं से होते तुम में लीन सभी आकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
वसुधा, कपिला, सलिलाओं में जननी तव शुभ बिम्ब.
क्षमा, दया, करुणा, ममता हैं मैया का प्रतिबिम्ब..
मंत्र, श्लोक, श्रुति, वेद-ऋचाएँ, करतीं महिमा गान-
करो कृपा माँ! जैसे भी हैं, हम तेरी संतान.
ढाई आखर का लाया हूँ,स्वीकारो माँ हार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
***
: अलंकार चर्चा १४ :
पुनरुक्तवदाभास अलंकार
*
जब प्रतीत हो, हो नहीं, काव्य-अर्थ-पुनरुक्ति
वदाभास पुनरुक्त कह, अलंकार कर युक्ति
जहँ पर्याय न मूल पर, अन्य अर्थ आभास.
तहँ पुनरुक्त वदाभास्, करता 'सलिल' उजास..
शब्द प्रयोग जहाँ 'सलिल', ना पर्याय- न मूल.
वदाभास पुनरुक्त है, अलंकार ज्यों फूल..
काव्य में जहाँ पर शब्दों का प्रयोग इस प्रकार हो कि वे पर्याय या पुनरुक्त न होने पर भी पर्याय प्रतीत हों पर अर्थ अन्य दें, वहाँ पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है.
किसी काव्यांश में अर्थ की पुनरुक्ति होती हुई प्रतीत हो, किन्तु वास्तव में अर्थ की पुनरुक्ति न हो तब पुनरुक्तवदाभास अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
२.
आतप-बरखा सह 'सलिल', नहीं शीश पर हाथ.
नाथ अनाथों का कहाँ?, तात न तेरे साथ..
यहाँ 'आतप-बरखा' का अर्थ गर्मी तथा बरसात नहीं दुःख-सुख, 'शीश पर हाथ' का अर्थ आशीर्वाद, 'तात' का अर्थ स्वामी नहीं पिता है.
३.
वे बरगद के पेड़ थे, पंछी पाते ठौर.
छाँह घनी देते रहे, उन सा कोई न और..
यहाँ 'बरगद के पेड़' से आशय मजबूत व्यक्ति, 'पंछी पाते ठौर' से आशय संबंधी आश्रय पाते, छाँह घनी का मतलब 'आश्रय' तथा और का अर्थ 'अन्य' है.
४.
धूप-छाँव सम भाव से, सही न खोया धीर.
नहीं रहे बेपीर वे, बने रहे वे पीर..
यहाँ धूप-छाँव का अर्थ सुख-दुःख, 'बेपीर' का अर्थ गुरुहीन तथा 'पीर' का अर्थ वीतराग होना है.
५.
पद-चिन्हों पर चल 'सलिल', लेकर उनका नाम.
जिनने हँस हरदम किया, तेरा काम तमाम..
यहाँ पद-चिन्हों का अर्थ परंपरा, 'नाम' का अर्थ याद तथा 'काम तमाम' का अर्थ समस्त कार्य है.
६. . देखो नीप कदंब खिला मन को हरता है
यहाँ नीप और कदंब में में एक ही अर्थ की प्रतीति होने का भ्रम होता है किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं। यहाँ नीप का अर्थ है कदंब जबकि कदंब का अर्थ है वृक्षों का समूह।
७. जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
यहाँ कनक और सुवर्ण में अर्थ की पुनरुक्ति प्रतीत होती है किन्तु है नहीं। कनक का अर्थ है सोना और सुवर्ण का आशय है अच्छे वर्ण का।
८. दुल्हा बना बसंत, बनी दुल्हिन मन भायी
दुल्हा और बना (बन्ना) तथा दुल्हिन और बनी (बन्नी) में पुनरुक्ति का आभास भले ही हो किन्तु दुल्हा = वर और बना = सज्जित हुआ, दुल्हिन = वधु और बनी - सजी हुई. अटल दिखने पर भी पुनरुक्ति नहीं है।
९. सुमन फूल खिल उठे, लखो मानस में, मन में ।
सुमन = फूल, फूल = प्रसन्नता, मानस = मान सरोवर, मन = अंतर्मन।
१० . निर्मल कीरति जगत जहान।
जगत = जागृत, जहां = दुनिया में।
११. अली भँवर गूँजन लगे, होन लगे दल-पात
जहँ-तहँ फूले रूख तरु, प्रिय प्रीतम कित जात
अली = सखी, भँवर = भँवरा, दल -पत्ते, पात = पतन, रूख = रूखे, तरु = पेड़, प्रिय = प्यारा, प्रीतम = पति।
***
मुक्तिका: यास्मीन
*
पूरी बगिया को महकाती यास्मीन चुप
गले तितलियों से लग गाती यास्मीन चुप
*
चढ़े शारदा के चरणों में किस्मतवाली
सबद, अजान, भजन बन जाती यास्मीन चुप
*
जूही-चमेली-चंपा के सँग आँखमिचौली
भँवरे को ठेंगा दिखलाती यास्मीन चुप
*
शीश सुहागिन के सज, दिखलाती है सपने
कानों में क्या-क्या कह जाती यास्मीन चुप
*
पाकीज़ा शबनम से मिलकर मुस्काती है
देख उषा को खिल जाती है यास्मीन चुप
***
मुक्तिका: हिंदी
हिंदी प्रातः श्लोक है, दोपहरी में गीत
संध्या वंदन-प्रार्थना, रात्रि प्रिया की प्रीत
.
हम कैसे नर जो रहे, निज भाषा को भूल
पशु-पक्षी तक बोलते, अपनी भाषा मीत
.
सफल देश पढ़-पढ़ाते, निज भाषा में पाठ
हम निज भाषा भूलते, कैसी अजब अनीत
.
देशवासियों से कहें, ओबामा सच बात
बिन हिंदी उन्नति हुई, सचमुच कठिन प्रतीत
.
हिंदी का ध्वज थामकर, जय भारत की बोल
लानत उन पर दास जो, अंग्रेज़ी के क्रीत
.
हम स्वतंत्र फिर क्यों नहीं, निज भाषा पर गर्व
करे 'सलिल', क्यों हम हुए, अंग्रेजी से भीत?
.
पर भाषा मेहमान है, सौंप न तू घर-द्वार
निज भाषा गृह स्वामिनी, अपनाकर पा जीत
***
षटपदी :
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान, बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख-सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों
१.१०.२०१५
***
गीत:
ज्ञान सुरा पी.…
*
ज्ञान सुरा पी बहकें ज्ञानी,
श्रेष्ठ कहें खुद को अभिमानी।
निज मत थोप रहे औरों पर-
सत्य सुनें तो मरती नानी…
*
हाँ में हाँ चमचे करते हैं,
ना पर मिल टूटे पड़ते हैं.
समाधान स्वीकार नहीं है-
सद्भावों को चुभ-गड़ते हैं.
खुद का खुद जयकारा बोलें
कलह करेंगे मन में ठानी…
*
हिंदी की खाते हैं रोटी,
चबा रहे उर्दू की बोटी.
अंग्रेजी के चाकर मन से-
तनखा पाते मोटी-मोटी.
शर्म स्वदेशी पर आती है
परदेशी इनके मन भानी…
*
मोह गौर का, असित न भाये,
लख अमरीश अकल बौराये.
दिखे चन्द्रमा का कलंक ही-
नहीं चाँदनी तनिक सुहाये.
सहज बुद्धि को कोस रहे हैं
पी-पीकर बोतल भर पानी…
१-१०-२०१३
(असितांग = शिव का एक रूप, असित = अश्वेत, काला (शिव, राम, कृष्ण, गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद सभी अश्वेत), असिताम्बुज = नील कमल
अमर = जिसकी मृत्यु न हो. अमर + ईश = अमरीश = देवताओं के ईश = महादेव. वाग + ईश = वागीश।)

मेरी बगिया के फूल, प्रताप

पुरोवाक् 
काव्य सलिला में मस्तूल ''मेरी बगिया के फूल''
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर  
*
 अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्य और काव्य                                                   

                         अनुभूति और अभिव्यक्ति का नाता पुरातन और अधुनातन दोनों है। जीव में चेतना का संचार होते ही उसे अनुभूति होने लगती है और वह अनुभूतियों को जाने-अनजाने व्यक्त करने लगता है। यह क्रिया जितनी सघन, तीव्र और गहन होती है जीव का अधिकाधिक विकास होता जाता है। मानव अन्य जीवों से अधिक उन्नत, सभ्य और सुसंस्कृत इसीलिए हुआ कि उसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति अन्य जीवों की तुलना में अधिक संवेदनपूर्ण और गतिमय थी और है। मानवीय अभिव्यक्ति के प्रागट्य  का सर्वाधिक संवेदनापूर्ण सृजन माध्यम ध्वनि (काव्य/छंद) है। छंद वह जो छा जाए, मन पर, चिंतन पर, आत्मा पर। काव्यकविता या पद्यसाहित्य की वह विधा है जिसमें किसी भाषा के द्वारा, किसी मनोभाव को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त किया जाता है। कविता का शाब्दिक अर्थ है छन्दों की शृंखलाओं में विधिवत निबद्ध काव्यात्मक रचना या कृति। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है।रसगंगाधर के अनुसार 'रमणीय' अर्थ प्रतिपादक शब्द संग्रह 'काव्य' है। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ के अनुसार 'रसात्मक वाक्य  काव्य है'। 

काव्य के प्रकार 
                         काव्यप्रकाश के अनुसार काव्य के तीन प्रकार ध्वनि, गुणीभूत व्यंजना और चित्र हैं। ध्वनि में शब्दों से निकले अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंजना) प्रधान, गुणीभूत व्यंग्य में गौण तथा चित्र या अलंकार में बिना व्यंजना के चमत्कार होता है। इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं। काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य। दृश्य काव्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाए। जैसे- नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनने योग्य हो, वह श्रव्य है। श्रव्य काव्य (साहित्य) दो प्रकार का होता है, गद्य और पद्य। पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद हैं। गद्य काव्य के दो भेद कथा और आख्यायिका हैं । काव्य के ३ और प्रकार चंपू, विरुद और कारंभक हैं। 

गीतिकाव्य, प्रबंधकाव्य और मुक्तककाव्य  

                         कवित्व और सांगितिकता प्रधान काव्य को ‘गीतिकाव्य’ कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना से कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। किसी विशिष्ट विषय पर केंद्रित प्रबंध योजनानुसार रचित गीतिकाव्य को प्रबंधकाव्य कहते हैं। प्रबंधकाव्य के दो रूप महाकाव्य (विषय से संबद्ध सकल घटनाक्रम पर केंद्रित) तथा खंड काव्य (किसी घटना विशेष या कालखंड विशेष पर केंद्रित) हैं। मुक्तक काव्य विषय विषय के बंधन से मुक्त रहता है। 

                         मुक्तककाव्य की परम्परा स्फुट सन्देश रचनाओं के रूप में वैदिक युग से ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद में सरमा नामक कुत्ते को सन्देशवाहक के रूप में भेजने का प्रसंग है। वैदिक मुक्तककाव्य के उदाहरणों में वसिष्ठ और वामदेव के सूक्त, उल्लेखनीय हैं। रामायण, महाभारत और उनके परवर्ती ग्रन्थों में भी इस प्रकार के स्फुट प्रसंग विपुल मात्रा में उपलब्ध होते हैं। कदाचित् महाकवि वाल्मीकि के शोकोद्गारों में यह भावना गोपित रूप में रही है। पतिवियुक्ता प्रवासिनी सीता के प्रति प्रेषित श्री राम के संदेशवाहक हनुमान, दुर्योधन के प्रति धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रेषित श्रीकृष्ण और सुन्दरी दयमन्ती के निकट राजा नल द्वारा प्रेषित सन्देशवाहक हंस इसी परम्परा के अन्तर्गत गिने जाने वाले प्रसंग हैं। इस सन्दर्भ में भागवत पुराण का वेणुगीत तथा कालिदास कृत मेघदूत उद्धरणीय है जिनकी रसविभोर करने वाली भावना व छवि अब तक मुक्तक काव्यों का आदर्श है।


                         इस पृष्ठ भूमि में ''मेरी बगिया के फूल'' युवा कवि राहुल प्रताप सिंह रचित मुक्तककाव्य है। राहुल समर्पित अध्येता और कर्मठ शिष्य है। वह जिससे जो सीखने योग्य है, सीखता है और विनम्र सम्मान भाव समर्पित कर निरंतर सीखता रहता है, वह उन ज्ञान पिपासुओं में नहीं है जो पंछी की तरह चंद बूंदें पीकर तृप्त हो जाते हैं। इस प्रवृत्ति का परिणाम यह है कि राहुल ने हिंदी व संस्कृत काव्य सलिलाओं की विविध छंद निर्झरियों में अवगाहन कर संतुष्टि पाई है तथा अब वह विविध छंद रचनाओं के माध्यम से काव्यामृत अपने पाठकों को पिला रह है। ''मेरी बगिया के फूल'' के फूल के आरंभ में परंपरा का निर्वहन करते हुए पूज्य जनों (पुरखों और देवगणों) के प्रति प्रणति निवेदन पश्चात ऋतुराज बसंत का यशगान ६४ मात्रिक चौपाई छंद में किया गया है- 


पतझड़ में झरकर धरणी पर, पल्लव पुष्प यहाँ बिखरे जब।

नव -पल्लव नव -पुष्प दिखें, तब नव आगंतुक सखा यहाँ सब।।

भ्रमर-पुष्प आलिंगन करते, मन को विचलित ये करते तब।

योग प्रताप करें हठ का अरु, मन को करतेहै वश में अब।।


                         हिंदी के आदिकवियों में से एक अमीर खुसरो (1253 ईस्वी - अक्तूबर 1325) लोक काव्य 'कहमुकरी' (कोई बात कहकर न स्वीकारना)  की ३३ रचनाओं में कहमुकरीकार राहुल ने आशु चिंतन, अवलोकन सामर्थ्य और रसिक दृष्टि का परिचय दिया है- 


नित सोलह शृंगार रचाऊँ।

उसे देखकर मैं इठलाऊँ।

सम्मुख उसके करूँ समर्पण।

क्या सखि साजन?, ना सखि दर्पण।।२९।।  


                         ६४ मात्रिक चौपाई की आरंभिक ३ पाइयों (चरणों) में पहेली रूप में कुछ कहना, चौथी पाई के अर्ध भाग में सखी द्वारा उत्तर बूझना और शेष अर्ध भाग में नायिका द्वारा उस उत्तर को नकारकर समान लक्षण युक्त अन्य उत्तर बताना, गागर में सागर भरने की तरह है। कहमुकरीकार की शब्द सामर्थ्य और अभिव्यक्ति क्षमता की कठिन परीक्षा लेती है 'कहमुकरी'। किस तरह एक छंद के विधान का पालन करते हुए समर्थ कवि नव छंद का अन्वेषण करता है, उसका श्रेष्ठ उदाहरण है 'कहमुकरी'। राहुल इस कसौटी पर खरे उतरे हैं। 


                         ११ कुंडलिनी छंद (एक विषय पर केंद्रित दो समतुकांती  द्विपदियाँ जिनका चौथा-पाँचवा चरण समान हो) भी छंद से नव छंद रचना का उदाहरण है- 


आया था जब जगत में, बिलख रहा था खूब।

धीरे-धीरे फिर दिखी, मनमोहक सी दूब।

मनमोहक सी दूब, दिखी हरियाली माया।

लगता ऐसा आज, पुन: है सावन आया।। 


                         कुण्डलिया (एक दोहा+एक रोला) छंद में राहुल ने समसामयिक प्रसंगों को उठाया है। दोहा और रोल की लय भिन्नता को साधने में कुंडलिकार को सफलता मिली है। 


हिंदी भाषा का करें, स्वयं वही अपमान

जो कहते फिरते दिखें, यही राष्ट्र की शान।। 

यही राष्ट्र की शान, बताते जो नर नारी।

हिंदी का उपयोग लगे क्यों उनको भारी।

कहता सदा प्रताप, बने माथे की बिंदी।

देखो कैसे लोग रटेंगे हिंदी-हिंदी।।  


                         सार छंद में विवाह गीत, आरक्षित रेल डब्बे का हाल, सरस छंद में शीत वर्णन, आनंदवर्धक छंद में मातृ वंदना, विधाता छंद में गीत,  गीता, पंच चामर, लावणी,  ककुभ, ताटंक, अर्धाली, तोटक, पंचचामर, दोहा, रोला, सोरठा, मुक्तक, संस्मरण आदि विविध विधाओं का सृजन कर राहुल ने अपनी सृजन सामर्थ्य का परिचय इस कृति में दिया है। 


                         राहुल के पास शब्द सामर्थ्य है, शब्द चयन का सलीका भी है, छंदों में उनकी रुचि और छंद विधान की समझ भी है। कमी है तो छंद-को आत्मसात करने की। इसके पहले कि एक छंद पर अधिकार हो, वे दूसरे-तीसरे छंद को लिखने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पूर्व छंद पर अधिकार होने के पहले ही वे अन्य छंद रच रहे होते हैं। आत्म कथ्य और संस्मरण में भी यही जल्दबाजी की गई है। 'मेरी बगिया के फूल' के रचनाकार को समझना होगा कि फूल को महकने का समय देना होता है। एक फूल खिलते ही उसमें पानी सींचना बंद कर नया पौधा लगा दें तो अनेक कलियाँ अनखिली ही मुरझा जाती हैं। 


                         'मेरी बगिया के फूल' एक रंग-बिरंगा गुलदस्ता है जिसकर रूप-रस का पान कर मन आह्लादित हो जाता है। इस बगिया के बागबान में प्रतिभा है, समझ है और सामर्थ्य भी। विश्ववाणी हिंदी का सारस्वत कोश उनकी कलम से नि:सृत विविध विधायी अनेक कृतियों से समृद्ध-संपन्न हो, यही कामना है। 

***

संपर्क- ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 

चलभाष- ९४२५१८३२४४, एमेल- salil.sanjiv@gmail.com  


                         

शनिवार, 30 सितंबर 2023

चंद्र मंत्र , दोहा, राम, शिव, तरही, रावण वध, दहेज

एक दोहा
अमिधा हो या लक्षणा, बिना व्यंजना सून
दोहे में हो व्यंजना, रसानन्द हो दून
३०.९.२०२०

दोहे दहेज़ पर
*
लें दहेज़ में स्नेह दें, जी भरकर सम्मान
संबंधों को मानिए, जीवन की रस-खान
*
कुलदीपक की जननी को, रखिए चाह-सहेज
दान ग्रहण कर ला सके, सच्चा यही दहेज
*
तीसमारखां गए थे, ले बाराती साथ
जीत न पाए हैं किला, आए खाली हाथ
*
शत्रुमर्दिनी अकेली, आयी बहुत प्रबुद्ध
कब्ज़ा घर भर पर किया, किया न लेकिन युद्ध
*
जो दहेज की माँग कर, घटा रहे निज मान
समझें जीवन भर नहीं, पाएँगे सम्मान
३०-९-२०१८
***
​​: शोध :
रावण ​वध ​की तिथि दशहरा ​नहीं​
*
न जाने क्यों, कब और किसके द्वारा विजयादशमी अर्थात दशहरा पर रावण-दाह की भ्रामक और गलत परंपरा आरम्भ हुई? रावण ब्राम्हण था जिसके वध से लगे ब्रम्ह हत्या के पाप हेतु सूर्यवंशी राम को प्रायश्चित्य करना पड़ा था। रावण वध के बाद उसकी अंत्येष्टि उसके अनुज विभीषण ने की थी, राम ने नहीं। रामलीला के बाद राम के बाण से रावण का दाह संस्कार किया जाना तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह गलत, अप्रामाणिक और अस्वीकार्य है। रावण का जन्म दिल्ली के समीप एक गाँव में हुआ, सुर तथा असुर मौसेरे भाई थे जिन्होंने दो भिन्न संस्कृतियों और राज सत्ताओं को जन्म दिया। उनमें वैसा ही विकराल युद्ध हुआ जैसा द्वापर में चचेरे भाइयों कौरव-पांडव में हुआ, उसी तरह एक पक्ष से सत्ता छिन गई। रावण वध की तिथि जानने के लिए पद्म पुराण के पाताल खंड का अध्ययन करें।
पदम पुराण,पातालखंड
​ ​के अनुसार ‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक
८७ दिन तक चले संग्राम के मध्य कारणों से १५ दिन युद्ध बंद रहा तथा हुआ। ​इस महासंग्राम​ का समापन लंकाधिराज रावण के संहार से हुआ। राम द्वारा रावण वध क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र वदी चतुर्दशी को किया गया था।
ऋषि आरण्यक द्वारा सत्योद्घाटन- ​
पद्मपुराण​, पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में ​पहुँचकर, परिचय देकर प्रणाम करते ​हैं। शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- ''गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया।'' उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य ​के उपदेश ​का उल्लेख कर कहा ​की गुरु ने कहा ​था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ​आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास ​पहुँचा देंगे।
इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते
​हैं- ''जनकपुरी में धनुषयज्ञ में राम-लक्ष्मण कें साथ विश्वामित्र का पहुँचना​,​ राम द्वारा धनुषभंग, राम-सीता विवाह ​आदि प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया विवाह के समय राम ​१५ वर्ष के और सीता ​६ वर्ष की ​थीं। विवाहोपरांत वे ​१२ वर्ष अयोध्या में रहे​ २७ वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई ​दुवारा राम वनवास का वर ​माँगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
वनवास में राम प्रारंभिक
​३ दिन जल पीकर रहे, चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। ​पाँचवे दिन वे चित्रकूट पहुँचे। श्री राम ​ने ​चित्रकूट में​ १२ वर्ष ​प्रवास किया। ​१३वें वर्ष के प्रारंभ में राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुँचे और शूर्प​णखा को कुरूप किया। माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया।​ बाल्मीकि रामायण, राम चरित मानस तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार राम ने वर्षाकाल में चार माह ऋष्यमूक पर्वत पर ​बिताए थे। ​मानस में श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं-
​घन घमंड गरजत चहु ओरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा।।
आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाती नामक गिद्ध ने बताया कि सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने ​सागर पार किया और रात में लंका प्रवेश कर सीता की खोज-बीन ​आरम्भ की।कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को अशोक वाटिका विध्वं​कर, उसी दिन अक्षय कुमार का बध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद का ब्रह्मपाश में ​बँधकर दरबार में गये और लंकादहन किया। हनुमानजी ​ने ​कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित वानर​ दल ​ने नाचते​-​गाते ​५ दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे, हाल-चाल दिये।
अगहन कृष्ण अष्टमी ​उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और ​७ दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया। अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर चर्चा हुई। सागर से मार्ग ​की ​याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक ​४ दिन अनशन किया। नवमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक ​४ दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक ​३ दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को ​रावण के गुप्तचर ​सुक​-​ सारन ​वानर वेश धारण कर ​वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और ​उन्हें ​पहचान कर​ ​पकड़ा गया और शरणागत होने पर श्री राम द्वारा अभयदान दिया। पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया।
​श्री राम द्वारा शांति-प्रयास का अंतिम उपाय करते हुए ​पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया।​ ​अंगद के विफल लौटने पर ​पौष शुक्ल द्वितीया से युद्ध आरंभ हुआ। अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में ​जकड़ दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटकर राम-लक्ष्मण को मुक्त किया। पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का वध किया गया।
माघ कृष्ण द्वितीया से राम-रावण में तुमुल युद्ध प्रारम्भ हुआ। माघ कृष्ण चतुर्थी को रावण को भागना पड़ा। रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक ​४ दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया। कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि ​५ राक्षसों का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया। माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ ​वध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष वध हुआ।
फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध प्रारंभ हुआ। फागुन कृष्ण सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुए, उपचार आरम्भ हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक ​५ दिन युद्ध विराम रहा। फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से फागुन कृष्ण तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया। इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया।
फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ। फागुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि का राक्षसों का वध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुए, सुखेन वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुए।
राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया। फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक ​१८ दिन युद्ध चला। ​अंतत: ​चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण मौत के घाट उतारा गया।
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ​८७ दिन​ युद्ध ​(७२ दिन​ ​युद्ध, ​१५ दिन ​​युद्ध विराम​)​ चला और श्रीराम विजयी हुए। चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया का सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण, सीता उत्तर दिशा में ​उड़कर, चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज ​ऋषि ​के आश्रम में पहुँचे। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ। चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया। फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुँचाया, जहाँ अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।
यह निर्विवाद है कि दशहरा को रावण वध तथा दीपावली को श्री राम के अयोध्या लौटने पर प्रजा द्वारा दीप पर्व मनाए जाने की लोक धरना मिथ्या, अप्रमाणिक और निराधार है। ​
​***
सामयिक कविता: फेर समय का
*
फेर समय का ईश्वर को भी बना गया- देखो फरियादी.
फेर समय का मनुज कर रहा निज घर की खुद ही बर्बादी..
फेर समय का आशंका, भय, डर सारे भारत पर हावी.
फेर समय का चैन मिला जब सुना फैसला, हुई मुनादी..
फेर समय का कोई न जीता और न हारा कोई यहाँ पर.
फेर समय का वहीं रहेंगे राम, रहे हैं अभी जहाँ पर..
फेर समय का ढाँचा टूटा, अब न दुबारा बन पायेगा.
फेर समय का न्यायालय से खुश न कोई भी रह पायेगा..
फेर समय का यह विवाद अब लखनऊ से दिल्ली जायेगा.
फेर समय का आम आदमी देख ठगा सा रह जायेगा..
फेर समय का फिर पचास सालों तक यूँ ही वाद चलेगा?
फेर समय का नासमझी का चलन देश को पुनः छलेगा??
फेर समय का नेताओं की फितरत अब भी वही रहेगी.
फेर समय का देश-प्रेम की चाहत अब भी नहीं जगेगी..
फेर समय का जातिवाद-दलवाद अभी भी नहीं मिटेगा.
फेर समय का धर्म और मजहब में मानव पुनः बँटेगा..
फेर समय का काले कोटोंवाले फिर से छा जायेंगे.
फेर समय का भक्तों से भगवान घिरेंगे-घबराएंगे..
फेर समय का सच-झूठे की परख तराजू तौल करेगी.
फेर समय का पट्टी बाँधे आँख ज़ख्म फिर हरा करेगी..
फेर समय का ईश्वर-अल्लाह, हिन्दू-मुस्लिम एक न होंगे.
फेर समय का भक्त और बंदे झगड़ेंगे, नेक न होंगे..
फेर समय का सच के वधिक अवध को अब भी नहीं तजेंगे.
फेर समय का छुरी बगल में लेकर नेता राम भजेंगे..
फेर समय का अख़बारों-टी.व्ही. पर झूठ कहा जायेगा.
फेर समय का पंडों-मुल्लों से इंसान छला जायेगा..
फेर समय का कब बदलेगा कोई तो यह हमें बताये?
फेर समय का भूल सियासत काश ज़िंदगी नगमे गाये..
फेर समय का राम-राम कह गले राम-रहमान मिल सकें.
फेर समय का रसनिधि से रसलीन मिलें रसखान खिल सकें..
फेर समय का इंसानों को भला-बुरा कह कब परखेगा?
फेर समय का गुणवानों को आदर देकर कब निरखेगा?
फेर समय का अब न सियासत के हाथों हम बनें खिलौने.
फेर समय का अब न किसी के घर में खाली रहें भगौने..
फेर समय का भारतवासी मिल भारत की जय गायें अब.
फेर समय का हिन्दी हो जगवाणी इस पर बलि जाएँ सब..
***
शुभकामना
विजयदशमी पर हम जीत सकें निज मन को
देश-धर्म के शत्रु हनें पल-पल निर्भय हो
रचें पंक्तियाँ ऐसी हों नव ऊर्जा वाहक
नमन मातु को करें जगतवाणी हिंदी हो
३०.९.२०१७
***
कार्य शाला
निम्न पंक्ति से सोरठा पूरा करें
*
मेरे प्यासे नैन, रात-रात भर जागते -मिथलेश बड़गैयां
मिलें नैन से नैन, सोचे दिल धड़कनें गिन -संजीव
*
मिले न मन को चैन, मीठी वाणी सुने बिन
कटे न काटे रैन, प्रभु सुमिरन कर निरंतर
३०.९.२०१६
***
दोहा
सज्जन के सत्संग को, मान लीजिये स्वर्ग
दुर्जन से पाला पड़े, जितने पल है नर्क
*
मिले पूर्णिमा में शशि-किरणों के संग खीर
स्वर्गोपम सुख पा 'सलिल', तज दे- धर मत धीर
*
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
३०.९.२०१५
***
चंद्र मंत्र
चंद्र देव को भी प्रत्यक्ष भगवान माना जाता है। अमावस्या को छोड़कर चंद्रदेव अपनी सोलह कलाओं परिपूर्ण होकर साक्षात दर्शन देते हैं। सोमवार चंद्रदेव का दिन है।
चंद्रमा से शुभ फल प्राप्त करने के लिए इस दिन खीर जरूर खाना चाहिए। यदि कुंडली में चंद्र नीच का हो तो सफेद कपड़े पहनना चाहिए और श्वेत चंदन का तिलक लगाना चाहिए।
चंद्रमा का रत्न मोती है। चंद्र रत्न मोती को चांदी की अंगूठी में जड़वा कर कनिष्ठिका अंगुली में पहनना चाहिए। शीत से पीड़ित होने पर गले में मोतीयुक्त चांदी का अर्धचंद्र लॉकेट पहनने से फायदा होता है।
चंद्र मंत्र -
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम ।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणं ।।
ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:।।
ॐ ऐं क्लीं सोमाय नम:।

ॐ भूर्भुव: स्व: अमृतांगाय विदमहे कलारूपाय धीमहि तन्नो सोमो प्रचोदयात्।

***

दोहा सलिला:

राम सत्य हैं, राम शिव.......

*

राम सत्य हैं, राम शिव, सुन्दरतम हैं राम.

घट-घटवासी राम बिन सकल जगत बेकाम..



वध न सत्य का हो जहाँ, वही राम का धाम.

अवध सकल जग हो सके, यदि मन हो निष्काम..



न्यायालय ने कर दिया, आज दूध का दूध.

पानी का पानी हुआ, कह न सके अब दूध..



देव राम की सत्यता, गया न्याय भी मान.

राम लला को मान दे, पाया जन से मान..



राम लला प्रागट्य की, पावन भूमि सुरम्य.

अवधपुरी ही तीर्थ है, सुर-नर असुर प्रणम्य..



शुचि आस्था-विश्वास ही, बने राम का धाम.

तर्क न कागज कह सके, कहाँ रहे अभिराम?.



आस्थालय को भंगकर, आस्थालय निर्माण.

निष्प्राणित कर प्राण को, मिल न सके सम्प्राण..



मन्दिर से मस्जिद बने, करता नहीं क़ुबूल.

कहता है इस्लाम भी, मत कर ऐसी भूल..



बाबर-बाकी ने कभी, गुम्बद गढ़े- असत्य.

बनीं बाद में इमारतें, निंदनीय दुष्कृत्य..



सिर्फ देवता मत कहो, पुरुषोत्तम हैं राम.

राम काम निष्काम है, जननायक सुख-धाम..



जो शरणागत राम के, चरण-शरण दें राम.

सभी धर्म हैं राम के, चाहे कुछ हो नाम..



पैगम्बर प्रभु के नहीं, प्रभु ही हैं श्री राम.

पैगम्बर के प्रभु परम, अगम अगोचर राम..



सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.

दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..



रामालय निर्माण में, दें मुस्लिम सहयोग.

सफल करें निज जन्म- है, यह दुर्लभ संयोग..



पंकिल चरण पखार कर, सलिल हो रहा धन्य.

मल हर निर्मल कर सके, इस सा पुण्य न अन्य..

***
तरही मुक्तिका ३ :
क्यों है?
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??

थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??

गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??

नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??

उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज रोती है बिलख, हाय ये मंजर क्यों है?
३०.९.२०१०
***

राजपूत वंशावली

: राजपूत वंशावली :
“दस रवि से दस चन्द्र से, बारह ऋषिज प्रमाण,
चार हुतासन सों भये , कुल छत्तिस वंश प्रमाण
भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण.”
अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय, दस चन्द्र वंशीय, बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है, बाद में भौमवंश. , नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग- अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।
सूर्य वंश की दस शाखायें:-
१. कछवाह
२. राठौड
३. बडगूजर
४. सिकरवार
५. सिसोदिया
६.गहलोत
७.गौर ८.गहलबार
९.रेकबार
१०.जुनने
चन्द्र वंश की दस शाखायें:-
१.जादौन
२.भाटी
३.तोमर
४.चन्देल
५.छोंकर
६.होंड
७.पुण्डीर
८.कटैरिया
९.स्वांगवंश
१०.वैस
अग्निवंश की चार शाखायें:-
१.चौहान
२.सोलंकी
३.परिहार
४.परमार.
ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर
२.दीक्षित
३.दायमा
४.गौतम
५.अनवार (राजा जनक के वंशज)
६.विसेन
७.करछुल
८.हय
९.अबकू तबकू
१०.कठोक्स
११.द्लेला
१२.बुन्देला
चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-
१.हाडा
२.खींची
३.सोनीगारा
४.पाविया
५.पुरबिया
६.संचौरा
७.मेलवाल
८.भदौरिया
९.निर्वाण
१०.मलानी
११.धुरा
१२.मडरेवा
१३.सनीखेची
१४.वारेछा
१५.पसेरिया
१६.बालेछा
१७.रूसिया
१८.चांदा
१९.निकूम
२०.भावर
२१.छछेरिया
२२.उजवानिया
२३.देवडा
२४.बनकर.
क्षत्रिय जातियो की सूची
(क्रमांक/ नाम/ गोत्र/वंश / स्थान और जिला)
१.सूर्यवंशी /भारद्वाज/सूर्य /बुलन्दशहर / आगरा , मेरठ, अलीगढ
२.गहलोत / बैजवापेण/सूर्य /मथुरा, कानपुर, और पूर्वी जिले
३.सिसोदिया /बैजवापेड/ सूर्य /महाराणा उदयपुर स्टेट
४.कछवाहा/ मानव/सूर्य /महाराजा जयपुर और ग्वालियर राज्य
५.राठोड/ कश्यप/ सूर्य / जोधपुर, बीकानेर और पूर्व और मालवा
६.सोमवंशी/अत्रय/ चन्द/प्रतापगढ और जिला हरदोई
७.यदुवंशी/ अत्रय/ चन्दराजकरौली, राजपूताने में
८.भाटी / अत्रय/ जादौनमहारlजा जैसलमेर. , राजपूताना
९.जाडेचा/ अत्रय/ यदुवंशीमहाराजा कच्छ, भुज
१०.जादवा/अत्रय/ जादौनशाखा अवा. कोटला , ऊमरगढ, आगरा
११.तोमर/ व्याघ्र/चन्दपाटन के राव, तंवरघार, जिला ग्वालियर
१२.कटियार/ व्याघ्र /तोंवरधरमपुर का राज और हरदोई
१३.पालीवार/व्याघ्र/ तोंवरगोरखपुर/
१४.परिहार/ कौशल्य/अग्नि /इतिहास में जानना चाहिये
१५.तखी/ कौशल्य/ परिहारपंजाब, कांगडा , जालंधर, जम्मू में
१६.पंवार/ वशिष्ठ /अग्नि /मालवा, मेवाड, धौलपुर, पूर्व मे बलिया
१७.सोलंकी/ भारद्वाज/ अग्नि /राजपूताना , मालवा सोरों, जिला एटा
१८.चौहान/ वत्स /अग्नि / राजपूताना पूर्व और सर्वत्र
१९.हाडा/ वत्स / चौहान / कोटा , बूंदी और हाडौती देश
२०.खींची / वत्स/ चौहानखींचीवाडा , मालवा , ग्वालियर
२१.भदौरिया/ वत्स / चौहान/नौगंवां , पारना, आगरा, इटावा ,गालियर
२२.देवडा/वत्स/चौहान /राजपूताना, सिरोही राज
२३.शम्भरी /वत्स / चौहाननीमराणा , रानी का रायपुर, पंजाब
२४.बच्छगोत्री/ वत्स/ चौहानप्रतापगढ, सुल्तानपुर
२५.राजकुमार/वत्स / चौहान/दियरा , कुडवार, फ़तेहपुर जिला
२६.पवैया /वत्स / चौहान /ग्वालियर
२७.गौर, गौड/ भारद्वाज / सूर्य/शिवगढ, रायबरेली, कानपुर, लखनऊ
२८.वैस/ भारद्वाज/चन्द्र /उन्नाव, रायबरेली , मैनपुरी पूर्व में
२९.गेहरवार/ कश्यप / सूर्य / माडा , हरदोई, उन्नाव, बांदा पूर्व
३०.सेंगर/ गौतम/ ब्रह्मक्षत्रिय/जगम्बनपुर, भरेह, इटावा , जालौन,
३१.कनपुरिया/भारद्वाज / ब्रह्मक्षत्रिय/पूर्व में राजा अवध के जिलों में हैं
३२.बिसैन/ वत्स / ब्रह्मक्षत्रिय / गोरखपुर ,गोंडा , प्रतापगढ में हैं
३३.निकुम्भ/ वशिष्ठ/सूर्य/गोरखपुर, आजमगढ, हरदोई, जौनपुर
३४.सिरसेत/भारद्वाज /सूर्य/गाजीपुर, बस्ती, गोरखपुर
३५.कटहरिया/वशिष्ठ्या भारद्वाज / सूर्य/ बरेली, बंदायूं, मुरादाबाद, शहाजहांपुर
३६.वाच्छिल/अत्रय/ वच्छिलचन्द्र/ मथुरा, बुलन्दशहर, शाहजहांपुर
३७.बढगूजर/वशिष्ठ/सूर्य/अनूपशहर, एटा , अलीगढ, मैनपुरी , मुरादाबाद , हिसार, गुडगांव, जयपुर
३८.झाला/मरीच /कश्यप/चन्द्र/धागधरा , मेवाड, झालावाड, कोटा
३९.गौतम/गौतम/ ब्रह्मक्षत्रिय/ राजा अर्गल , फ़तेहपुर
४०.रैकवार/ भारद्वाज/ सूर्य/ बहरायच, सीतापुर, बाराबंकी
४१.करचुल /हैहय/कृष्णात्रेय/चन्द्र/बलिया ,फ़ैजाबाद, अवध
४२.चन्देल/चान्द्रायन/चन्द्रवंशी/गिद्धौर, कानपुर, फ़र्रुखाबाद, बुन्देलखंड, पंजाब, गुजरात
४३.जनवार/कौशल्य/सोलंकी शाखा/बलरामपुर, अवध के जिलों में
४४.बहरेलिया / भारद्वाज/ वैस की गोद/ सिसोदिया/रायबरेली, बाराबंकी
४५.दीत्तत/कश्यप/सूर्यवंश की शाखा/ उन्नाव, बस्ती, प्रतापगढ ,जौनपुर , रायबरेली, बांदा
४६.सिलार/ शौनिक/चन्द्र/ सूरत , राजपूतानी
४७.सिकरवार/ भारद्वाज/ बढगूजर/ ग्वालियर, आगरा और उत्तरप्रदेश में
४८.सुरवार/ गर्ग/ सूर्य /कठियावाड में
४९.सुर्वैया/वशिष्ठ/यदुवंश/काठियावाड
५०.मोरी/ ब्रह्मगौतम/सूर्य/मथुरा, आगरा, धौलपुर
५१.टांक (तत्तक)/शौनिक / नागवंश,मैनपुरी और पंजाब
५२.गुप्त/गार्ग्य/चन्द्र/अब इस वंश का पता नही है
५३.कौशिक/कौशिक/चन्द्र/ बलिया, आजमगढ, गोरखपुर
५४.भृगुवंशी/भार्गव/चन्द्र/वनारस, बलिया , आजमगढ, गोरखपुर
५५.गर्गवंशी/गर्ग ब्रह्
राजपूत का मतलब – क्षत्रिय
राजपूत इतिहास – राजपूत का मतलब
राजपूतों के लिये यह कहा जाता है कि वह केवल राजकुल में ही पैदा हुआ होगा, इसलिये ही राजपूत नाम चलाl
लेकिन राजा के कुल मे तो कितने ही लोग और जातियां पैदा हुई है सभी को राजपूत कहा जाता!
यह राजपूत शब्द राजकुल मे पैदा होने से नही बल्कि राजा जैसा बाना रखने और राजा जैसा धर्म “सर्व जन हिताय,सर्व जन सुखाय” का रखने से राजपूत शब्द की उत्पत्ति हुयी।

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

नवगीत, चित्रमूलक अलंकार, पुरखे, पितृ मोक्ष, दोहा, मुक्तक


नवगीत
तुम्हें प्रणाम
*
मेरे पुरखों!
तुम्हें प्रणाम।
*
सूक्ष्म काय थे,
चित्र गुप्त रख, विधि बन
सृष्टि रची अंशों से।
नाद-ताल-ध्वनि, सुर-सरगम
व्यापे वंशों में।
अणु-परमाणु-विषाणु
विष्णु हो धारे तुमने।
कोष-वृद्धि कर
'श्री' पाई है।
जल-थल-नभ पर
कीर्ति-पताका
फहराई है।
बन श्रद्धा-विश्वास
व्याप्त हो हर कंकर में।
जननी-जनक देखते हम
गौरी-शंकर में।
पंचतत्व तुम
नाम अनाम।
मेरे पुरखों!
सतत प्रणाम।
*
भूत-अभूत तुम्हीं ने
नाते, बना निभाए।
पैर जमीं पर जमा
धरा को थे छू पाए।
द्वैत दिखा,
अद्वैत-पथ वरा।
कहा प्रकृति ने
मनुज हो खरा।
लड़े, मर-मिटे
असुर और सुर।
मिलकर जिए
किंतु वानर-नर।
सेतुबंध कर मिटा दूरियाँ
काम करे रहकर निष्काम।
मेरे पुरखों!
विनत प्रणाम।
*
धरा-पुत्र हे!
प्रकृति-मित्र हे!
गही विरासत,
हाय! न हमने।
चूक करी
रौंदा प्रकृति को।
अपनाया मोहक विकृति को।
आम न रहकर
'ख़ास' हो रहे।
नाश बीज का
अपने हाथों आप बो रहे।
खाली हाथों जाना फिर भी
जोड़ मर रहे
विधि है वाम।
मेरे पुरखों!
अगिन प्रणाम।।
***
: अलंकार चर्चा १३ :
चित्रमूलक अलंकार
काव्य रचना में समर्थ कवि ऐसे शब्द-व्यवस्था कर पाते हैं जिनसे निर्मित छंदों को विविध आकृतियों चक्र, चक्र-कृपाण, स्वस्तिक, कामधेनु, पताका, मंदिर, नदी, वृक्ष आदि चित्रों के रूप में अंकित किया सकता है.
कुछ छंदों को किसी भी स्थान से पढ़ा जा सकता है औए उनसे विविध अन्य छंद बनते चले जाते हैं. इस वर्ग के अंतर्गत प्रश्नोत्तर, अंतर्लिपिका, बहिर्लिपिका, मुकरी आदि शब्द चमत्कारतयुक्त काव्य रचनाएँ समाहित की जा सकती हैं.
चित्र काव्य का मुख्योद्देश्य मनोरंजन है. इसका रसात्मक पराभव नगण्य है. इस अलंकार में शब्द वैचित्र्य और बुद्धिविलास के तत्व प्रधान होते हैं.
शोध लेख:
चित्र मूलक अलंकार और चित्र काव्य
हिंदी साहित्य में २० वीं सदी तक चित्र काव्य का विस्तार हुआ. चित्र काव्य के अनेक भेद-विभेद इस कालखण्ड में विकसित हुए. प्राचीन काव्य ग्रंथों में इनका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त है. सामंतवादी व्यवस्था में राज्याश्रय में चित्र अलंकार के शब्द-विलास और चमत्कार को विशेष महत्व प्राप्त हुआ. फलत: उत्तरमध्ये काल और वर्तमान काल के प्रथम चरण में समस्यापूर्ति का काव्य विधा के रूप में प्रचलन और लोकप्रियता बढ़ी. इस तरह के काव्य प्रकार ऐसे समाज में हो रचे, समझे और सराहे जाना संभव है जहाँ पाठक/श्रोता/काव्य मर्मज्ञ को प्रचुर समयवकाश सुलभ हो.
चित्र अलंकार सज्जित काव्य एक प्रकट का कलात्मक विनोद और कीड़ा है. शब्द=वर्ण क्रीड़ा के रूप में ही इसे देखा-समझा-सराहा जाता रहा. संगीत के क्षेत्र में गलेबाजी को लेकर अनेक भाव-संबद्ध अनेक चमत्कारिक पद्धतियाँ और प्रस्तुतियाँ विकसित हुईं और सराही गयीं. इसी प्रकार काव्य शास्त्र में चित्रात्मक अलंकार का विकास हुआ.
चित्र काव्य को १. भाव व्यंजना, २. वास्तु - विचार निरूपण तथा ३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा के दृष्टिकोण से परखा जा सकता है.
१. भाव व्यंजना:
भाव व्यंजना की दृष्टि से चित्र काव्य / चित्र अलंकार का महत्त्व न्यून है. भावभिव्यंजना चित्र रहित शब्द-अर्थ माध्यम से सहज तथा अधिक सारगर्भित होती है. शब्द-चित्र, चैत्र काव्य तथा चित्र अलंकार जटिल तथा गूढ़ विधाएँ हैं. रस अथवा भाव संचार के निकष पर शब्द पढ़-सुन कर उसका मर्म सरलता से ग्रहण किया जा सकता है. यहाँ तक की चक्षुहीन श्रोता भी मर्म तक पहुँच सकता है किन्तु चित्र काव्य को ब्रेल लिपि में अंकित किये बिना चक्षुहीन उसे पढ़-समझ नहीं सकता। बघिर पाठक के लिए शब्द या चित्र देखकर मर्म समान रूप से ग्रहण किया जा सकता है.
२. वास्तु - विचार निरूपण:
निराकार तथा जटिल-विशाल आकारों का चित्रण संभव नहीं है जबकि शब्द प्रतीति करने में समर्थ होते हैं. विपरीत संश्लिष्ट आकारों को शब्द वर्णन कठिन पर चित्र अधिक स्पष्टता से प्रतीति करा सकता है. बाल पाठकों के लिए अदेखे आकारों तथा वस्तुओं का ज्ञान चित्र काव्य बेहतर तरीके से करा सकता है. ज्यामितीय आकारों, कलाकृतियों, शिल्प, शक्य क्रिया आदि की बारीकियाँ एक ही दृश्य में संचारित कर सकता है जबकि शब्द काव्य को वर्णन करने में अनेक काव्य पंक्तियाँ लग सकती हैं.
३. उत्सुकता, कुतूहल अथवा क्रीड़ा:
चित्र अलंकारों तथा चित्र काव्य का मूल अधिक रहा है. स्वयं को अन्यों से श्रेष्ठ प्रतिपादित करने के असाधारण शक्ति प्रदर्शन की तरह असाधारण बौद्धिक क्षमता दिखने की वृति चित्रात्मकता के मूल में रही है. चित्र अलंकार तथा चित्र काव्य का प्रयोग करने में समर्थ जन इतने कम हुए हैं कि स्वतंत्र रूप से इसकी चर्चा प्रायः नहीं होती है.
मम्मट आदि संस्कृत काव्याचार्यों ने तथा उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हुई हिंदी के विद्वानों ने चित्र काव्य को अवर या अधम कोटि का कहा है. जीवन तथा काव्य की समग्रता को ध्यान में रखते हुए ऐसा मत उचित नहीं प्रतीत होता. संभव है कि स्वयं प्रयोग न कर पाने की अक्षमता इस मत के रूप में व्यक्त हुई हो. चित्र काव्य में बौद्धिक विलास ही नहीं बौद्धिक विकास की भी संभावना है. चित्र काव्य का एक विशिष्ट स्थान तथा महत्व स्वीकार किये जाने पर रचनाकार इसका अभ्यास कर दक्षता पाकर रचनाकर्म से वर्ग विशेष के ही नहीं सामान्य श्रोताओं-पाठकों को आनंदित कर सकते हैं.
४. नव प्रयोग:
जीवन में बहुविध क्रीड़ाओं का अपना महत्व होता है उसी तरह चित्र काव्य का भी महत्त्व है जिसे पहचाने जाने की आवश्यकता है. पारम्परिक चित्र काव्यलंकारों और उपादानों के साथ बदलते परिवेश तथा वैज्ञानिक उपकरणों ने चित्र काव्य को नये आयाम कराकर समृद्ध किया है. काव्य पोस्टर, चित्रांकन, काव्य-चलचित्र आदि का प्रयोग कर चित्र काव्य के माध्यम से काव्य विधा का रसानंद श्रवण तथा पठन के साथ दर्शन कर भी लिया जा सकेगा. नवकाव्य तथा शैक्षिक काव्य में चित्र काव्य की उपादेयता असंदिग्ध है. शिशु काव्य ( नर्सरी राइम) का प्रभाव तथा ग्रहण-सामर्थ्य में चित्र काव्य से अभूतपूर्व वृद्धि होती है. चित्र काव्य को मूर्तित कर उसे अभिनय विधा के साथ संयोजित किया जा सकता है. इससे काव्य का दृश्य प्रभाव श्रोता-पाठक को दर्शक की भूमिका में ले आता है जहाँ वह एक साथ श्रवणेंद्रिय दृश्येन्द्रित का प्रयोग कर कथ्य से अधिक नैकट्य अनुभव कर सकता है.
चित्र काव्य को रोचक, अधिक ग्राह्य तथा स्मरणीय बनाने में चित्र अलंकार की महती भूमिका है. अत: इसे हे, न्यून या गौड़ मानने के स्थान पर विशेष मानकर इस क्षेत्र के समर्थ रचनाकारों को प्रत्साहित किया जाना आवश्यक है. चित्र काव्य कविता और बच्चों, कम पढ़े या कम समझदार वर्ग के साथ विशेषज्ञता के क्षेत्रों में उपयोगी और प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकता है.
इस दृष्टि से अभिव्यक्ति विश्वम ने २०१४ में लखनऊ में संपन्न वार्षिकोत्सव में उल्लेखनीय प्रयोग किये हैं. श्रीमती पूर्णिमा बर्मन, अमित कल्ला, रोहित रूसिया आदि ने नवगीतों पर चित्र पोस्टर, गायन, अभिनय तथा चलचित्रण आदि विधाओं का समावेश किया. आवश्यक है कि पुरातन चित्र काव्य परंपरा को आयामों में विकसित किया जाए और चित्र अलंकारों रचा, समझ, सराहा जाए.
यहाँ हमारा उद्देश्य काव्य का विश्लेषण नहीं, चित्र अलंकारों से परिचय मात्र है. कुछ उदाहरण देकर इस प्रसंक का पटाक्षेप करते हैं:
उदाहरण:
१. धनुर्बन्ध चित्र: देखें संलग्न चित्र १.
मन मोहन सों मान तजि, लै सब सुख ए बाम
ना तरु हनिहैं बान अब, हिये कुसुम सर बाम
देखें संलग्न चित्र १.
२. गतागति चित्र: देखें संलग्न चित्र २.
(उल्टा-सीधा एक समान). प्रत्येक पंक्ति का प्रथमार्ध बाएं से दायें तथा उत्तरार्ध दायें से बाएं सामान होता है तथापि पूरी पंक्ति बाएं से दायें पढ़ने पर अर्थमय होती है.
की नी रा न न रा नी की.
सो है स दा दास है सो.
मो हैं को न न को हैं मो.
ती खे न चै चै न खे ती.
३. ध्वज चित्र: देखें संलग्न चित्र ३.
भोर हुई सूरज किरण, झाँक थपकति द्वार
पुलकित सरगम गा रही, कलरव संग बयार
चलो हम ध्वज फहरा दें.
संग जय हिन्द गुँजा दें.
*
भोर हुई
सूरज किरण
झाँक थपकती द्वार।
पुलकित सरगम गा रही
कलरव संग बयार।।
चलो
हम
ध्वज
फहरा
दें।
संग
जय
हिन्द
गुँजा
दें।
४. चित्र: देखें संलग्न चित्र ४.
हिंदी जन-मन में बसी, जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर छा रहा कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
अंग्रेजी-प्रेमी कुढ़ें, देख रहे हैं घूर
हिंदी जग-भाषा बने, विधि को है मंजूर
हिंदी-प्रेमी हो रहे, 'सलिल' हर्ष से चूर
हिंदी
जन-मन में बसी
जन प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे जिनको वे जन सूर.
जन आकांक्षा गीत है,जनगण-हित संतूर
ज कै
ग सा
वा अ
णी ॐ द
प भु
र त
छा नू
रहा र।
अंग्रेजी - प्रेमी कुढ़ें , देख रहे हैं घूर
हिंदी जग - भाषा बने , विधि को है मंजूर
हिंदी - प्रेमी हो रहे , 'सलिल' हर्ष से चूर
५. लगभग ५००० सम सामयिक काव्य कृतियों में से केवल एक में मुझे चित्र मूलक लंकार का प्रभावी प्रयोग देखें मिल. यह महाकाव्य है महाकवि डॉ. किशोर काबरा रचित 'उत्तर भागवत'. बालक कृष्ण तथा सुदामा आदि शिक्षा ग्रहण करने के लिये महाकाल की नगरी उज्जयिनी स्थित संदीपनी ऋषि के आश्रम में भेजे जाते हैं. मालव भूमि के दिव्य सौंदर्य तथा महाकाल मंदिर से अभिभूत कृष्ण द्वारा स्तुति-जयकार प्रसंग चित्र मूलक लंकार द्वारा वर्णित है.
देखें संलग्न चित्र ५.
मालव पठार!
मालव पठार!!
सतपुड़ा, देवगिरि, विंध्य, अरवली-
नगराजों से झिलमिल ज्योतित
मुखरित अभिनन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
चंबल, क्षिप्रा, नर्मदा और
शिवना की जलधाराओं से
प्रतिक्षण अभिसिंचित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
दशपुर, उज्जयिनी, विदिशा, धारा-
आदि नगरियों के जन-जन से
प्रतिपल अभिवन्दित पठार,
मालव का अभिनन्दित पठार,
मालव पठार!
मालव पठार!!
***
नवगीत:
संजीव
*
समय-समय की बलिहारी है
*
सौरभ की सीमा बाँधी
पर दुर्गंधों को
छूट मिली है.
भोर उगी है बाजों के घर
गिद्धों के घर
साँझ ढली है.
दिन दोपहरी गर्दभ श्रम कर
भूखा रोता,
प्यासा सोता.
निशा-निशाचर भोग भोगकर
भत्ता पाता
नफरत बोता.
तुलसी बिरवा त्याज्य हुआ है
कैक्टस-नागफनी प्यारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
शूर्पणखायें सज्जित होकर
जनप्रतिनिधि बन
गर्रायी हैं.
किरण पूर्णिमा की तम में घिर
कुररी माफिक
थर्रायी हैं.
दरबारी के अच्छे दिन है
मन का चैन
आम जन खोता.
कुटी जलाता है प्रदीप ही
ठगे चाँदनी
चंदा रोता.
शरद पूर्णिमा अँधियारी है
समय-समय की बलिहारी है
*
ओम-व्योम अभिमंत्रित होकर
देख रहे
संतों की लीला.
भस्मासुर भी चंद्र-भाल पर
कर धर-भगा
सकल यश लीला.
हरि दौड़ें हिरना के पीछे
होश हिरन,
सत-सिया गँवाकर.
भाषा से साहित्य जुदाकर
सत्ता बेचे
माल बना कर.
रथ्या से निष्ठा हारी है
समय-समय की बलिहारी है
***
मुक्तक:
हर रजनी हो शरद पूर्णिमा, चंदा दे उजियाला
मिले सफलता-सुयश असीमित, जीवन बने शिवाला
देश-धर्म-मानव के आयें काम सार्थक साँसें-
चित्र गुप्त उज्जवल अंतर्मन का हो दिव्य निराला
२८-९-२०१५
***
दोहा सलिला:
पितृ-स्मरण
*
पितृ-स्मरण कर 'सलिल', बिसर न अपना मूल
पितरों के आशीष से, बनें शूल भी फूल
*
जड़ होकर भी जड़ नहीं, चेतन पितर तमाम
वंश-वृक्ष के पर्ण हम, पितर ख़ास हम आम
*
गत-आगत को जोड़ता, पितर पक्ष रह मौन
ज्यों भोजन की थाल में, रहे- न दिखता नौन
*
पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़े, वंश वृक्ष अभिराम
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़े, पाने लक्ष्य ललाम
*
कल के आगे विनत हो, आज 'सलिल' हो धन्य
कल नत आगे आज के, थाती दिव्य अनन्य
*
जन्म अन्न जल ऋण लिया, चुका न सकते दाम
नमन न मन से पितर को, किया- विधाता वाम
*
हमें लाये जो उन्हीं का, हम करते हैं दाह
आह न भर परवाह कर, तारें तब हो वाह
२८-९-२०१३
*