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शनिवार, 20 मई 2023

अपूर्णान्वयी छंद, Enjambment poetry, हास्य, रूपमाला छंद, द्विपदी, आँख

दोहा सलिला
*
मन बच्चा-सच्चा रहे, कच्चा तन बदनाम।
बिन टूटे बादाम हो, टूटे तो बेदाम।।
*
कैसे हैं? क्या होएँगे?, सोच न आती काम।
जैसा चाहे विधि रखे, करे न बस बेकाम।
*
कांता जैसी चाँदनी, लिये हाथ में हाथ।
कांत चाँद सा सोहता, सदा उठाए माथ।।
*
मिल कर भी मिलती नहीं, मंजिल खेले खेल।
यात्रा होती रहे तो, हर मुश्किल लें झेल।।
*
मार न पड़ती उम्र की, बढ़ता अनुभव संग।
तब करते थे जंग, अब जमा रहे हैं रंग।।
२०-५-२०१८
***
पुस्तक चर्चा-
संक्रांतिकाल की साक्षी कवितायें
आचार्य भगवत दुबे
*
[पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण २०१६, आकार २२ से.मी. x १३.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ १२८, मूल्य जन संस्करण २००/-, पुस्तकालय संस्करण ३००/-, समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१]
कविता को परखने की कोई सर्वमान्य कसौटी तो है नहीं जिस पर कविता को परखा जा सके। कविता के सही मूल्याङ्कन की सबसे बड़ी बाधा यह है कि लोग अपने पूर्वाग्रहों और तैयार पैमानों को लेकर किसी कृति में प्रवेश करते हैं और अपने पूर्वाग्रही झुकाव के अनुरूप अपना निर्णय दे देते हैं। अतः, ऐसे भ्रामक नतीजे हमें कृतिकार की भावना से सामंजस्य स्थापित नहीं करने देते। कविता को कविता की तरह ही पढ़ना अभी अधिकांश पाठकों को नहीं आता है। इसलिए श्री दिनकर सोनवलकर ने कहा था कि 'कविता निश्चय ही किसी कवि के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। किसी व्यक्ति का चेहरा किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलता, इसलिए प्रत्येक कवी की कविता से हमें कवी की आत्मा को तलाशने का यथासम्भव यत्न करना चाहिए, तभी हम कृति के साथ न्याय कर सकेंगे।' शायद इसीलिए हिंदी के उद्भट विद्वान डॉ. रामप्रसाद मिश्र जब अपनी पुस्तक किसी को समीक्षार्थ भेंट करते थे तो वे 'समीक्षार्थ' न लिखकर 'न्यायार्थ' लिखा करते थे।
रचनाकार का मस्तिष्क और ह्रदय, अपने आसपास फैले सृष्टि-विस्तार और उसके क्रिया-व्यापारों को अपने सोच एवं दृष्टिकोण से ग्रहण करता है। बाह्य वातावरण का मन पर सुखात्मक अथवा पीड़ात्मक प्रभाव पड़ता है। उससे कभी संवेद नात्मक शिराएँ पुलकित हो उठती हैं अथवा तड़प उठती हैं। स्थूल सृष्टि और मानवीय भाव-जगत तथा उसकी अनुभूति एक नये चेतन संसार की सृष्टि कर उसके साथ संलाप का सेतु निर्मित कर, कल्पना लोक में विचरण करते हुए कभी लयबद्ध निनाद करता है तो कभी शुष्क, नीरस खुरदुरेपन की प्रतीति से तिलमिला उठता है।
गीत-नवगीत संग्रह 'काल है संक्रांति का' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका 'दिव्य नर्मदा' के यशस्वी संपादक रहे हैं जिसमें वे समय के साथ चलते हुए १९९४ से अंतरजाल पर अपने चिट्ठे (ब्लॉग) के रूप में निरन्तर प्रकाशित करते हुए अब तक ४००० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुके हैं। अन्य अंतर्जालीय मंचों (वेब साइटों) पर भी उनकी लगभग इतनी ही रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। वे देश के विविध प्रांतों में भव्य कार्यक्रम आयोजित कर 'अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण' के माध्यम से हिंदी के श्रेष्ठ रचनाकारों के उत्तम कृतित्व को वर्षों तक विविध अलंकरणों से अलंकृत करने, सत्साहित्य प्रकाशित करने तथा पर्यावरण सुधर, आपदा निवारण व् शिक्षा प्रसार के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने का श्रेय प्राप्त अभियान संस्था के संस्थापक-अध्यक्ष हैं। इंजीनियर्स फॉर्म (भारत) के महामंत्री के अभियंता वर्ग को राष्ट्रीय-सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत कर उनकी पीड़ा को समाज के सम्मुख उद्घाटित कर सलिल जी ने सथक संवाद-सेतु बनाया है। वे विश्व हिंदी परिषद जबलपुर के संयोजक भी हैं। अभिव्यक्ति विश्वम दुबई द्वारा आपके प्रथम नवगीत संग्रह 'सड़क पर...' की पाण्डुलिपि को 'नवांकुर अलंकरण २०१६' (१२०००/- नगद) से अलङ्कृत किया गया है। अब तक आपकी चार कृतियाँ कलम के देव (भक्तिगीत), लोकतंत्र का मक़बरा तथा मीत मेरे (काव्य संग्रह) तथा भूकम्प ले साथ जीना सीखें (लोकोपयोगी) प्रकाशित हो चुकी हैं।
सलिल जी छन्द शास्त्र के ज्ञाता हैं। दोहा छन्द, अलंकार, लघुकथा, नवगीत तथा अन्य साहित्यिक विषयों के साथ अभियांत्रिकी-तकनीकी विषयों पर आपने अनेक शोधपूर्ण आलेख लिखे हैं। आपको अनेक सहयोगी संकलनों, स्मारिकाओं तथा पत्रिकाओं के संपादन हेतु साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा ने 'संपादक रत्न' अलंकरण से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग ने संस्कृत स्त्रोतों के सारगर्भित हिंदी काव्यानुवाद पर 'वाग्विदाम्बर सम्मान' से सलिल जी को सम्मानित किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सलिल जी साहित्य के सुचर्चित हस्ताक्षर हैं। 'काल है संक्रांति का' आपकी पाँचवी प्रकाशित कृति है जिसमें आपने दोहा, सोरठा, मुक्तक, चौकड़िया, हरिगीतिका, आल्हा अदि छन्दों का आश्रय लेकर गीति रचनाओं का सृजन किया है।
भगवन चित्रगुप्त, वाग्देवी माँ सरस्वती तथा पुरखों के स्तवन एवं अपनी बहनों (रक्त संबंधी व् मुँहबोली) के रपति गीतात्मक समर्पण से प्रारम्भ इस कृति में संक्रांतिकाल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए चेतावनी व् सावधानियों के सन्देश अन्तर्निहित है।
'सूरज को ढाँके बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग-सांप फिर साथ हुए
गुँजा रहे वंशी मादल
लूट-छिप माल दो
जगो, उठो।'
उठो सूरज, जागो सूर्य आता है, उगना नित, आओ भी सूरज, उग रहे या ढल रहे?, छुएँ सूरज, हे साल नये आदि शीर्षक नवगीतों में जागरण का सन्देश मुखर है। 'सूरज बबुआ' नामक बाल-नवगीत में प्रकृति उपादानों से तादात्म्य स्थापित करते हुए गीतकार सलिल जी ने पारिवारिक रिश्तों के अच्छे रूपक बाँधे हैं-
'सूरज बबुआ!
चल स्कूल।
धरती माँ की मीठी लोरी
सुनकर मस्ती खूब करी।
बहिम उषा को गिर दिया
तो पिता गगन से डाँट पड़ीं।
धूप बुआ ने लपक उठाया
पछुआ लायी
बस्ते फूल।'
गत वर्ष के अनुभवों के आधार पर 'में हिचक' नामक नवगीत में देश की सियासी गतिविधियों को देखते हुए कवी ने आशा-प्रत्याशा, शंका-कुशंका को भी रेखांकित किया है।
'नये साल
मत हिचक
बता दे क्या होगा?
सियासती गुटबाजी
क्या रंग लाएगी?
'देश एक' की नीति
कभी फल पाएगी?
धारा तीन सौ सत्तर
बनी रहेगी क्या?
गयी हटाई
तो क्या
घटनाक्रम होगा?'
पाठक-मन को रिझाते ये गीत-नवगीत देश में व्याप्त गंभीर समस्याओं, बेईमानी, दोगलापन, गरीबी, भुखमरी, शोषण, भ्रष्टाचार, उग्रवाद एवं आतंक जैसी विकराल विद्रूपताओं को बहुत शिद्दत के साथ उजागर करते हुए गम्भीरता की ओर अग्रसर होते हैं।
बुंदेली लोकशैली का पुट देते हुए कवि ने देश में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, विषमताओं एवं अन्याय को व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है।
मिलती काय ने ऊँचीबारी
कुर्सी हमखों गुईंया
पैला लेऊँ कमिसन भारी
बेंच खदानें सारी
पाँछू घपले-घोटालों सों
रकम बिदेस भिजा री
समीक्ष्य कृति में 'अच्छे दिन आने वाले' नारे एवं स्वच्छता अभियान को सटीक काव्यात्मक अभिव्यक्ति दी गयी है। 'दरक न पायेन दीवारें नामक नवगीत में सत्ता एवं विपक्ष के साथ-साथ आम नागरिकों को भी अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेष्ट करते हुए कवि ने मनुष्यता को बचाये रखने की आशावादी अपील की है।
कवी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने वर्तमान के युगबोधी यथार्थ को ही उजागर नहीं किया है अपितु अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सुदृढ़ आस्था का परिचय भी दिया है। अतः, यह विश्वास किया जा सकता है कि कविवर सलिल जी की यह कृति 'काल है संक्रांति का' सारस्वत सराहना प्राप्त करेगी।
आचार्य भगवत दुबे
महामंत्री कादंबरी
***
दोहों के रंग आंख के संग
*
आँख लड़ी झुक उठ मिली, मुंदी कहानी पूर्ण
लाड़ मुहब्बत ख्वाब सँग, श्वास-आस का चूर्ण
*
आँख कहानी लघुकथा, उपन्यास रस छंद
गीत गजल कविता भजन, सुख-दुःख परमानंद
*
एक आँख से देखते, धूप-छाँव जो मीत
वही उतार-चढ़ाव पर, चलकर पाते जीत
*
धूल झोंकते आँख में, आँख बिछाकर लोग
चुरा-मिला आँखें दिखा, झूठ मनाते सोग
*
कभी किसी की आँख का, बनें न काँटा आप
कभी आप की आँख में, सके न काँटा व्याप
*
***
नवगीत:
*
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
रही बाकी न दम.
*
इंद्र है युग लीन सुख में
तपस्याओं से डरे.
अहल्याओं को तलाशे
लाख मारो न मरे.
जन दधीची अस्थियाँ दे
बनाता विजयी रहा-
हुई हर आशा दुराशा
कभी कुछ संयम वरे.
कामनाओं से ग्रसित
होकर भ्रमित
बिखरे हैं हम.
वासनाओं से जड़ित
होते दमित
अँखियाँ न नम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
चलो मिलकर सनम.
*
पडोसी के द्वार पर जा
रोज छिप कचरा धरें.
चाह आकर विधाता-
नित व्याधियाँ-मुश्किल हरें .
सुधारों का शंख जिसने
बजाया विनयी रहा-
सिया को वन भेजता जो
देह तज कैसे तरे?
भूल को स्वीकार
संशोधन किये
निखरे हैं हम.
शूल से कर प्यार
वरते कूल
लहरें हैं न कम.
जिंदगी के गणित में
कुछ इस तरह
उलझे हैं हम.
बंदगी के गणित
कर लें हल
बढ़ें संग रख कदम.
*
***
द्विपदी सलिला:
*
जो दिखता होता नहीं, केवल उतना सत्य
छोटे तन में बड़ा मन, करता अद्भुत कृत्य
*
ओझा कर दे टोटका, फूंक कभी तो मन्त्र
मन-अँगना में भी लगे, फूलों का संयंत्र
*
नित मन्दिर में माँगते, किन्तु न होते तृप्त
दो चहरे ढोते फिरे, नर-पशु सदा अतृप्त
*
जब जो जी चाहे करे, राजा वह ही न्याय
लोक मान्यता कराती, राजा से अन्याय
*
पर उपकारी हैं बहुत, हम भारत के लोग
मुफ्त मशवरे दें 'सलिल', यही हमारा रोग
*
वक़्त सुनता ही नहीं सिर्फ सुनाता रहता
नजर घरवाली की ही इसमें अदा आती है
*
दिखाया आईना मैंने कि वो भी देख सके
आँख में उसकी बसा चेहरा मेरा ही है
*
आसमां को थाम लें हाथों में अपने हम अगर
पैर ज़माने के लिये जमीं रब हमें दे दे
*
तुम्हें जानना है महज इसलिए ही
दुनिया के सारे शिखर नापते हैं
*
दिले-दिलवर को खटखटाते रहे नज़रों से
आँख का डाकिया पैगाम कभी तो देगा
*
बेरुखी लाख दिखाये वो सरे-आम मगर
नज़र जो मिल के झुके प्यार भी हो सकती है
*
अंत नहीं है प्यास का, नहीं मोह का छोर
मुट्ठी में ममता मिली, दिनकर लिया अँजोर
*
लेन-देन जिंदगी में इस कदर बढ़ा
बाकी नहीं है फर्क आदमी-दूकान में
*
साथ चलते हाथ छूटे कब-कहाँ- कैसे कहें
बेहतर है फिर मिलें मन मीत! हम कुछ मत कहें
*
सारे सौदे वो नगद करता है जन्म से ही रहे उधार हैं हम
सारी दुनिया में जाके कहते हैं भारत में हुए सुधार हैं हम
२०-५-२०१५
*

छंद सलिला:
रूपमाला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति चौदह-दस, पदांत गुरु-लघु (जगण)
लक्षण छंद:
रूपमाला रत्न चौदह, दस दिशा सम ख्यात
कला गुरु-लघु रख चरण के, अंत उग प्रभात
नाग पिंगल को नमनकर, छंद रचिए आप्त
नव रसों का पान करिए, ख़ुशी हो मन-व्याप्त
उदाहरण:
१. देश ही सर्वोच्च है- दें / देश-हित में प्राण
जो- उन्हीं के योग से है / देश यह संप्राण
करें श्रद्धा-सुमन अर्पित / यादकर बलिदान
पीढ़ियों तक वीरता का / 'सलिल'होगा गान
२. वीर राणा अश्व पर थे, हाथ में तलवार
मुगल सैनिक घेर करते, अथक घातक वार
दिया राणा ने कई को, मौत-घाट उतार
पा न पाये हाय! फिर भी, दुश्मनों से पार
ऐंड़ चेटक को लगायी, अश्व में थी आग
प्राण-प्राण से उड़ हवा में, चला शर सम भाग
पैर में था घाव फिर भी, गिरा जाकर दूर
प्राण त्यागे, प्राण-रक्षा की- रुदन भरपूर
किया राणा ने, कहा: 'हे अश्व! तुम हो धन्य
अमर होगा नाम तुम हो तात! सत्य अनन्य।
२०-५-२०१४
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)



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अपूर्णान्वयी छंद:
(Enjambment poetry in Hindi)
झूठ न होता झूठ
संजीव
'झूठ कभी मत बोलना', शिक्षक ने दी सीख
पूछा बालक ने: 'कहाँ इससे बढ़कर झूठ।
झूठ न बोलें तो कहें, कैसे होगा काम?
काम बिना हो जाएगा, अपना काम तमाम।
झूठ बिना क्या कहेगा? नेता, पंडित, चोर।
रहे मौन तो नहीं क्या, होगा संकट घोर?
झूठ बिना थाने सभी, हो जायेंगे बंद।
सभी वकील-अदालतें, गायेंगे क्या छंद?
झूठ बिना क्या कहेंगे, दफ्तर जाकर लेट?
छापा मारे आयकर, जिस पर वह अपसेट।
झूठ बिना खुद सत्य भी, मर जाए बिन मौत।
क्या कह दें? पूछे पुलिस कौन हुआ है फौत?


'झूठ न होता झूठ गर सच दें उसको नाम।'
शिक्षक बोला, छात्र ने सविनय किया प्रणाम।।
*****
***
हास्य रचना
बतलायेगा कौन?
*
मैं जाता था ट्रेन में, लड़ा मुसाफिर एक.
पिटकर मैंने तुरत दी, धमकी रखा विवेक।।
मुझको मारा भाई को, नहीं लगाना हाथ।
पल में रख दे फोड़कर, हाथ पैर सर माथ ।।
भाई पिटा तो दोस्त का, उच्चारा था नाम।
दोस्त और फिर पुत्र को, मारा उसने थाम।।
रहा न कोई तो किया, उसने एक सवाल।
आप पिटे तो मौन रह, टाला क्यों न बवाल?
क्यों पिटवाया सभी को, क्या पाया श्रीमान?
मैं बोला यह राज है, किन्तु लीजिये जान।।
अब घर जाकर सभी को रखना होगा मौन।
पीटा मुझको किसी ने, बतलायेगा कौन??
२०-५-२०१३
+++

शुक्रवार, 19 मई 2023

जिकड़ी, दोहे, आँख, नाक, मुक्तिका, मुक्तक

दोहा सलिला:
दोहा का रंग नाक के संग
*
मीन कमल मृग से नयन, शुक जैसी हो नाक
चंदन तन में आत्म हो, निष्कलंक निष्पाप
*
बैठ न पाये नाक पर, मक्खी रखिये ध्यान
बैठे तो झट दें उड़ा, बने रहें अनजान
*
नाक घुसेड़ें हर जगह, जो वे पाते मात
नाक अड़ाते बिन वजह, हो जाते कुख्यात
*
नाक न नीची हो तनिक, करता सब जग फ़िक्र
नाक कटे तो हो 'सलिल', घर-घर हँसकर ज़िक्र
*
नाक सदा ऊँची रखें, बढ़े मान-सम्मान
नाक अदाए व्यर्थ जो, उसका हो अपमान
*
शूर्पणखा की नाक ने, बदल दिया इतिहास
ऊँची थी संत्रास दे, कटी सहा संत्रास
*
नाक छिनकना छोड़ दें, जहाँ-तहाँ हम-आप
'सलिल' स्वच्छ भारत बने, मिटे गंदगी शाप
*
नाक-नार दें हौसला, ठुमक पटकती पैर
ख्वाब दिखा पुचकार लो, 'सलिल' तभी हो खैर
*
जिसकी दस-दस नाक थीं, उठा न सका पिनाक
बीच सभा में कट गयी, नाक मिट गयी धाक
*
नाक नकेल बिना नहीं, घोड़ा सहे सवार
बीबी नाक-नकेल बिन, हो सवार कर प्यार
*
आँख कान कर पैर लब, दो-दो करते काम
नाक शीश मन प्राण को, मिलता जग में नाम
*
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
१६-५-२०२०
मुक्तिका
कोयल कूक कह रही कल रव जैसा था, वैसा मत करना
गौरैया कहती कलरव कर, किलकिल करने से अब डरना
पवन कहे मत धूम्र-वाहनों से मुझको दूषित कर मानव
सलिल कहे निर्मल रहने दे, मलिन न पंकिल मुझको करना
कोरोना बोले मैं जाऊँ अगर रहेगा अनुशासित तू
खुली रहे मधुशाला पीने जाकर बिन मारे मत मरना
साफ-सफाई करो, रहो घर में, मत घर को होटल मानो
जो न चाहते हो तुमसे, व्यवहार न कभी किसी से करना
मेहनतकश को इज्जत दो, भूखा न रहे कोई यह देखो
लोकतंत्र में लोक जगे, जाग्रत हो, ऐसा पथ मिल वरना
***
मुक्तिका
इसने मारा उसने मारा
क्या जानूँ किस-किस ने मारा
श्रमिक-कृषक जोरू गरीब की
भौजी कहकर सबने मारा
नेता अफसर सेठ मजे में
पत्रकार-भक्तों ने मारा
चोर-गिरहकट छूटे पीछे
संतों-मुल्लों ने भी मारा
भाग्यविधाता भागा फिरता
कौन न जिसने जी भर मारा
१९-५-२०२०
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
***
६.७.२०१८
दोहा सलिला
देव लात के मानते, कब बातों से बात
जैसा देव उसी तरह, पूजा करिए तात
*
चरण कमल झुक लात से, मना रहे हैं खैर
आये आम चुनाव क्या?, पड़ें पैर के पैर
*
पाँव पूजने का नहीं, शेष रहा आनंद
'लिव इन' के दुष्काल में, भंग हो रहे छंद
*
पाद-प्रहार न भाई पर, कभी कीजिए भूल
घर भेदी लंका ढहे, चुभता बनकर शूल
*
'सलिल न मन में कीजिए, किंचित भी अभिमान
तीन पगों में नाप भू, हरि दें जीवन-दान
*

मुक्तिका
कल्पना की अल्पना से द्वार दिल का जब सजाओ
तब जरूरी देखना यह, द्वार अपना या पराया?
.
छाँह सर की, बाँह प्रिय की. छोड़ना नाहक कभी मत
क्या हुआ जो भाव उसका, कुछ कभी मन को न भाया
.
प्यार माता-पिता, भाई-भगिनी, बच्चों से किया जब
रागमय अनुराग में तब, दोष किंचित भी न पाया
.
कौन क्या कहता? न इससे, मन तुम्हारा हो प्रभावित
आप अपनी राह चुन, मत करो वह जो मन न भाया
.
जो गया वह बुरा तो क्यों याद कर तुम रो रहे हो?
आ रहा जो क्यों न उसके वास्ते दीपक जलाया?
.
मुक्तिका
जिनसे मिले न उनसे बिछुड़े अपने मन की बात है
लेकिन अपने हाथों में कब रह पाये हालात हैं?
.
फूल गिरे पत्थर पर चोटिल होता-करता कहे बिना
कौन जानता, कौन बताये कहाँ-कहाँ आघात है?
.
शिकवे गिले शिकायत जिससे उसको ही कुछ पता
रात विरह की भले अँधेरी उसके बाद प्रभात है
.
मिलने और बिछुड़ने का क्रम जीवन को जीवन देता
पले सखावत श्वास-आस में, यादों की बारात है
.
तन दूल्हे ने मन दुल्हन की रूप छटा जब-जब देखी
लूट न पाया, खुद ही लुटकर बोला 'दिल सौगात है'
.***
मुहावरेदार दोहे
*
पाँव जमकर बढ़ 'सलिल', तभी रहेगी खैर
पाँव फिसलते ही हँसे, वे जो पाले बैर
*
बहुत बड़ा सौभाग्य है, होना भारी पाँव
बहुत बड़ा दुर्भाग्य है होना भारी पाँव
*
पाँव पूजना भूलकर, फिकरे कसते लोग
पाँव तोड़ने से मिटे, मन की कालिख रोग
*
पाँव गए जब शहर में, सर पर रही न छाँव
सूनी अमराई हुई, अश्रु बहाता गाँव
*
जो पैरों पर खड़ा है, मन रहा है खैर
धरा न पैरों तले तो, अपने करते बैर
*
सम्हल न पैरों-तले से, खिसके 'सलिल' जमीन
तीसमार खाँ हबी हुए, जमीं गँवाकर दीन
*
टाँग अड़ाते ये रहे, दिया सियासत नाम
टाँग मारते वे रहे, दोनों है बदनाम
*
टाँग फँसा हर काम में, पछताते हैं लोग
एक पूर्ण करते अगर, व्यर्थ न होता सोग
*
बिन कारण लातें न सह, सर चढ़ती है धूल
लात मार पाषाण पर, आप कर रहे भूल
*
चरण कमल कब रखे सके, हैं धरती पर पैर?
पैर पड़े जिसके वही, लतियाते कह गैर
*
धूल बिमाई पैर का, नाता पक्का जान
चरण कमल की कब हुई, इनसे कह पहचान?
१९-५-२०१६
***
दोहा सलिला:
दोहा के रंग आँखों के संग ४
*
आँख न रखते आँख पर, जो वे खोते दृष्टि
आँख स्वस्थ्य रखिए सदा, करें स्नेह की वृष्टि
*
मुग्ध आँख पर हो गये, दिल को लुटा महेश
एक न दो, लीं तीन तब, मिला महत्त्व अशेष
*
आँख खुली तो पड़ गये, आँखों में बल खूब
आँख डबडबा रह गयी, अश्रु-धार में डूब
*
उतरे खून न आँख में, आँख दिखाना छोड़
आँख चुराना भी गलत, फेर न, पर ले मोड़
*
धूल आँख में झोंकना, है अक्षम अपराध
आँख खोल दे समय तो, पूरी हो हर साध
*
आँख चौंधियाये नहीं, पाकर धन-संपत्ति
हो विपत्ति कोई छिपी, झेल- न कर आपत्ति
*
आँखें पीली-लाल हों, रहो आँख से दूर
आँखों का काँटा बनें, तो आँखें हैं सूर
*
शत्रु किरकिरी आँख की, छोड़ न कह: 'है दीन'
अवसर पा लेता वही, पल में आँखें छीन
*
आँख बिछा स्वागत करें,रखें आँख की ओट
आँख पुतलियाँ मानिये, बहू बेटियाँ नोट
*
आँखों का तारा 'सलिल', अपना भारत देश
आँख फाड़ देखे जगतं, उन्नति करे विशेष
१९-५-२०१५
*

जबलपुर

चमकते पत्थरों का शहर - जबलपुर

प्रकृति की गोद में पर्यटन करना माँ की आँचल में किलकारी भरते हुए करवट बदलने की तरह है। पर्यटन आत्मिक शांति देने के साथ साथ सांस्कृतिक-सामाजिक संबंधों को सुदृढ़ करता है। अशांत मन कोशांत करने के लिए पर्यटन करना चाहिए। पर्यटन से पर्यटक का ज्ञान वर्धन होता है। पर्यटन स्थल की लोक संस्कृति और लोक जीवन के बारे में बहुत सारी गूढ़ जानकारी प्राप्त होती है। भारतवर्ष भिन्न-भिन्न विविधताओं, संस्कृतियों, संस्कारों, धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थलों से भरा हुआ देश है। हमारे देश के प्रत्येक राज्य में धार्मिक, प्राकृतिक, ऐतिहासिक महत्व के पर्यटक स्थल मिल जाएंगे जो भारत की विशालता और वैभवशाली प्राचीन विरासत को दर्शाते है। आइये, आज जबलपुर की सैर करते हैं। जबलपुर मध्यप्रदेश का प्रमुख महानगर है। यह समुद्र तट से ४१२ मी. की ऊँचाई पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल ५२११ वर्ग किलोमीटर तथा जनसंख्या लगभग २५ लाख है। जबलपुर के निकट नर्मदा क्षेत्र साधना भूमि के रूप में प्रसिद्ध रहा है। महर्षि अगस्त्य, जाबालि, भृगु, दत्तात्रेय आदि ने यहाँ तपस्या की है। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार त्रेता में राम सीता लक्षमण तथा द्वापर में कृष्ण व पांडवों का यहाँ आगमन हुआ था। यह गोंड़ तथा कलचुरी राजाओं के समय समृद्ध क्षेत्र रहा है। भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रथम प्रयास इसी अञ्चल में बुंदेला क्रांति १८४२ के रूप में सामने आया जिसने अग्रेजों का हृदय कँपा दिया था। सन १७८१ के बाद ही मराठों के मुख्यालय के रूप में चुने जाने पर इस नगर की सत्ता बढ़ी, बाद में यह सागर और नर्मदा क्षेत्रों के ब्रिटिश कमीशन का मुख्यालय बन गया। यहाँ  १८६४ में नगरपालिका का गठन हुआ था।

पुरातन वैभव


जबलपुर के समीप राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान, घुघवा (डिंडोरी) में ७५ एकड़ में पत्तियों और पेड़ों के आकर्षक और दुर्लभ जीवाश्म हैं जो ४ करोड़ से १५ करोड़ साल पहले मौजूद थे।नर्मदाघाटी के भू स्तरों की खोजों से पता चलता है कि नर्मदाघाटी की सभ्यता सिन्धु घाटी की सभ्यता से बहुत पुरानी है। लम्हेटा घाट के चट्टानों को कार्बन डेटिंग परीक्षण में लगभग ६ करोड़ वर्ष पुराना अनुमानित किया गया है। आयुध निर्माणी खमारिया के समीप पाटबाबा की पहाड़ियों से लगभग २ करोड़ वर्ष पूर्व विचरनेवाले भीमकाय डायनासौर राजासौरस नर्मदेडेंसिस के जीवाश्म तथा अंडे शिकागो विश्वविद्यालय के पेलियनोलिस्ट्स पॉल सेरेनो, मिशिगन विश्वविद्यालय के जेफ विल्सन और सुरेश श्रीवास्तव ने खोजे। नर्मदाघाटी में प्राप्त भैंसा, घोड़े, रिनोसिरस, हिप्पोपोटेमस, हाथी और मगर की हड्डियों तथा प्रस्तर-उद्योग संपन्न यह भूभाग आदि मानव का निवास था। १८७२ ई. में मिली स्फटिक चट्टान से निर्मित एक तराशी पूर्व-चिलयन युग की प्रस्तर कुल्हाड़ी भारत में प्राप्त प्रागैतिहासिक चिन्हों में सबसे प्राचीन है। भेड़ाघाट में पुरापाषाण युग के अनेक वृहत् जीवाश्म और प्रस्तरास्त्र मिले हैं। जबलपुर से लगभग २० कि.मी. दूर भेड़ाघाट विश्व का एकमात्र स्थान है जहाँ बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ के बीच से नर्मदा की धवल सलिल धार प्रवाहित होती है। पंचवटी घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय आकर्षित करते रंग-बिरंगे पत्थर मानो हमसे कहते हैं, आओ मुझे छूकर तो देखो… नर्मदा अञ्चल के ग्रामों में बंबुलिया और लमटेरा लोकगीतों की मधुर ध्वनि आज भी गूँजती है -

* नरबदा तो ऐसी मिलीं रे
जैसैं मिल गए मताई उन बाप रे

इस बंबुलिया लोकगीत में नवविवाहिता अपने मायके को याद करते हुए नर्मदा को माता और पिता, दोनों के रूप में देख रही है। प्रकृति का मानव के साथ घनिष्ठ संबंध म,आँव सभ्यता की धरोहर है।

* नरबदा मैया उल्टी तो बहै रे,
उल्टी बहै रे तिरबैनी बहै सूधी धार रे।

भारत उपमहाद्वीप की शेष नदियों के सर्वथा विपरीत दिशा में नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ  बहती हैं। यह भौगोलिक तथ्य एक लोक कथा के प्रचलित है है। तदनुसार व्यासजी से मुनियों ने प्रार्थना की, जिससे व्यासजी ने नर्मदा का स्मरण किया और नर्मदा ने अपने बहाव की दिशा बदल दी।

* नरबदा अरे माता तो लगै रे,
माता लगै रे तिरबैनी लगै मौरी बैन रे, नरबदा हो....।

कालक्रम की दृष्टि से नर्मदा बहुत ज्येष्ठ और गंगा कनिष्ठ हैं।  उक्त पंक्तियों में में नर्मदा को माता कहा गया है और त्रिवेणी को बहिन कहकर इस तथ्य को इंगित किया गया है। दश के विविध अंचलों को एक सूत्र में बाँधने की यही लोक रीति सफलराष्ट्रीय एकता का मूल है।

नर्मदा विश्व की एकमात्र नदी है जिसके उद्गम स्थल अमरकंटक पर्वत से सागर में विलय स्थल भरूच गुजरात तक सैंकड़ों परकम्मावासी (पदयात्री) पैदल परिक्रमा करते हैं। वे टोलियों में नदी के एक किनारे से चलकर भरुच में सागर में दूसरे किनारे पर आकर वापिस लौटते हैं। जबलपुर में नर्मदा के कई घाट हैं। हर घाट की अपनी कहानी और मनोरम छटा मन मोह लेती है। सिद्ध घाट, गौरीघाट, दरोगाघाट, खारीघाट, लम्हेटा घाट, तिलवाराघाट भेड़ाघाट, सरस्वती घाट आदि का सौन्दर्य अद्भुत है। चौंसठ योगिनी मंदिर के केंद्र में गौरीशंकर की प्राचीन किन्तु भव्य प्रतिमा है जिसके चारों ओर वृत्ताकार में चौंसठ योगिनियों की मूर्तियाँ हैं। समीप ही धुआँधार जल प्रपात की नैसर्गिक दिव्य छवि छटा अलौकिक है। सरस्वती घाट से बंदरकूदनी तक नौकायन करते समय दोनों ओर बहुरंगी संगमरमरी पहाड़ की छटा मनमोहक है। यह विश्व का एकमात्र स्थल है जहाँ सौन्दर्यमयी नर्मदा संगमरमारी पहाड़ के बीच से बहती है। जिस देश में गंगा बहती है, प्राण जाए पाए वचन न जाए, अशोका, मोहनजोदाड़ो आदि अनेक फिल्मों में यहाँ के भव्य दृश्यों का फिल्कमांन किया जा चुका है।   

गिरि दुर्ग मदन महल 

जबलपुर एक पहाड़ी पर गिरि दुर्ग मदन महल स्थित है जिसे ११०० ई. में राजा मदन सिंह द्वारा बनवाया गया एक पुराना गोंड महल है। इसके ठीक पश्चिम में गढ़ा है, जो १४ वीं शताब्दी के चार स्वतंत्र गोंड राज्यों का प्रमुख नगर-किला था। मदन महल के समीप ही कौआ डोल चट्टान (संतुलित शिला) है। यहाँ एक शिला ऊपर दूसरी विशाल शिला इस तरह रखी है कि मिलन स्थल सुई की नोक की तरह है। देखने से प्रतीत होता है कि कौए के बैठते ही ऊपरवाली चट्टान लुढ़क जाएगी पर भूकंप आने पर भी यह सुरक्षित रही। 

भारत का वेनिस 

संग्राम सागर, बाजना मठ, अधारताल, रानी ताल, चेरी ताल आदि जबलपुर को गोंड काल की देन है। जबलपुर ५२ तालाबों से संपन्न ऐसा शहर था जिसे भारत का वेनिस कहा जा सकता था। इनका निर्माण भू वैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार किया गया था कि वर्षा जल सबसे पहले ऊपरी तालाब को भरे, फिर दूसरे, तीसरे चौथे और पाँचवे तालाब को भरने के बाद नर्मदा नदी में बहे। वर्तमान में अधिकांश तालाब पूरकर बस्ती बसा ली गई है तथापि कई तालाब अब भी अवशेष रूप में हैं। रामलला मंदिर, बड़े गणेश मंदिर ग्वारीघाट, गुप्तेश्वर, चित्रगुप्त मंदिर फूटाताल, राम जानकी मंदिर लाल माटी, पुष्टिमार्ग प्रवर्तक गोस्वामी  विट्ठल दास जी की बैठकी देव ताल, ओशो आश्रम, ओशो संबोधि वृक्ष भँवरताल, राजा रघुनाथ शाह बलिदान स्थल, त्रिपुर सुंदरी मंदिर, ब्योहार निवास साठिया कुआं, गोपाल लाल मंडी हनुमानताल, बड़ी खरमाई मंदिर, बूडी खरमाई मंदिर आदि महत्वपूर्ण स्थल हैं।


साहित्यिक अवदान


जबलपुर अञ्चल में आधुनिक हिन्दी अपने शुद्ध साहित्यिक रूप में आम लोगों में बोली लिखी पढ़ी जाते है। हिंदी का पहला व्याकरण जबलपुर में ही कामता प्रसाद गुरु जी द्वारा लिखा गया। पिंगल शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ छंद प्रभाकर रचनेवाले जगन्नाथ प्रसाद भानु भी जबलपुर से जुड़े हुए थे। जबलपुर की समृद्ध सारस्वत साधना के कालजयी हस्ताक्षरों में जगद्गुरु ब्रह्मानन्द सरस्वती जी, स्वरूपानन्द सरस्वती जी, क्रांतिकारी माखन लाल चतुर्वेदी, क्रांतिकारी ज्ञानचंद वर्मा, महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेव प्रसाद 'सामी', केशव प्रसाद पाठक, रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी', पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', ब्योहार राजेन्द्र सिंह, भवानी प्रसाद तिवारी, सेठ गोविन्द दास, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश (ओशो), द्वारका प्रसाद मिश्र, जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण', हरिशंकर परसाई, प्रेमचंद श्रीवास्तव 'मज़हर', इंद्र बहादुर खरे, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अमृत लाल वेगड़ आदि अविस्मरणीय हैं।

वर्तमान काल में हिंदी भाषा विज्ञान के विद्वान डॉक्टर सुरेश कुमार वर्मा, ५०० से अधिक नए छंदों की रचना करनेवाले तथा शिशु मंदिर विद्यालयों में गाई जाती दैनिक प्रार्थना 'हे हंसवाहिनी, ज्ञान-दायिनी,अंब- विमल मति दे' के रचनाकार आचार्य संजीव वर्मा "सलिल", राम वनवास यात्रा के अन्वेषक डॉ. गिरीश कुमार अग्निहोत्री, पाली विशेषज्ञ आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, वैदिक वांगमय विशेषज्ञ डॉ. इला घोष, ख्यात वनस्पति शास्त्री डॉ. अनामिका तिवारी, समाजसेवी साधन उपाध्याय, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त रसायनविद डॉ. अनिल बाजपेयी आदि सारस्वत साधन की अलख आज भी जलाए हुए हैं। जबलपुर के ख्यात चित्रकारों में ब्योहार राममनोहर सिन्हा, अमृत लाल वेगड़, हरी भटनागर, हरी श्रीवास्तव, सुरेश श्रीवास्तव, राजेन्द्र कामले, अस्मिता शैली आदि उल्लेखनीय हैं।   

तिलवारा एक्वाडक्ट 

जबलपुर में एशिया का सबसे अधिक लंबा एक्वाडक्ट तिलवारा घाट नें है। एक्वाडक्ट एक जटिल  संरचना अभियांत्रिकी संरचना होती है जिसमें नदी के ऊपर से नहर बहती है। तिलवार एक्वाडक्ट की खासियत यह है कि नर्मदा नदी के ऊपर से नर्मदा की ही नहर बहती है और उसके ऊपर से जबलपुर नागपूर राष्ट्रीय राजमार्ग का भारी सड़क यातायात भी जारी रहता है। 

भारत रत्न विश्वेश्वरैया की ९ मूर्तियाँ 

जबलपुर ने एक कीर्तिमान इंजीनियर्स फोरम के माध्यम से स्थापित किया है। किसी देश के निर्माण और विकास में अभियंताओं का योगदान सर्वाधिक होता है किन्तु सामन्यात: उसे पहचान नहीं जाता। आधुनिक भारतीय अभियांत्रिकी के मुकुटमणि डॉ. भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हैं जिनके जन्म दिवस को 'अभियंता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जबलपुर के अभियंताओं ने विश्वेश्वरैया जी को शरुद्धाञ्जली देने के लिए उनकी ९ मूर्तियाँ नगर में स्थापित की हैं। अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' की पहल और प्रयासों से शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, मुख्य अभियंता लोक निर्माण विभाग कार्यालय, शासकीय कला निकेतन पॉलिटेकनिक, नर्मदा सर्किल कार्यालय, हितकारिणी अभियांत्रिकी महाविद्यालय, इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स कार्यालय, अतिथि गृह बरगी हिल्स, अधीक्षण अभियंता लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी कार्यालय तथा विद्युत मण्डल रामपुर में स्थापित एम. व्ही. की प्रतिमाएँ अभियंताओं की प्रेरणा स्रोत हैं। विश्व में अन्यत्र किसी भी नगर में एक अभियंता की इतनी मूर्तियाँ नहीं हैं। 

शिक्षा केंद्र 

जबलपुर में ५ शासकीय विश्वविद्यालय हैं। यह महाकौशल बुंदेलखंड का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र है। यहाँ हर विधा और शाखा की उच्च शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, सुभाषचंद्र बोस मेडिकल यूनिवर्सिटी, पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय तथा विधि विश्वविद्यालय जबलपुर की शान  हैं। जबलपुर  में आई.आई.आई.टी. तथा आई.आई.एम. दोनों राष्ट्रीय संस्थान हैं। अभियांत्रिकी शिक्षा के २० संस्थान, मेडिकल शिक्षा के २८ संस्थानों सहित जबलपुर में २३० विविध शिक्षा संस्थान हैं। 

भारत का रखवाला 

जबलपुर अपनी भौगोलिक स्थितियों के कारण चिरकाल से सुरक्षा का केंद्र रहा है। यहाँ आयुध निरामनीनिर्माणी खमरिया, सेंट्रल ऑर्डिनेंस डिपो, भारी वाहन कारखाना, धूसर लोहा फ़ाउन्ड्री आदि कारखानों में देख की रक्ष में महती भूमिका निभानेवाले अस्त्र-शस्त्र, वाहन आदि का निर्माण होता है। जबलपुर रक्षा क्लस्टर बनना प्रस्तावित है। बांग्ला देश के स्वतंत्रता के पश्चात आत्मसर्पण करनेवाली पकिस्तानी सेना के कमांडर नियाजी तथा सनिक जबलपुर में ही बंदी रखे गए थे।   

जाकी रही भावना जैसी

जबलपुर भारत का हृदय स्थल है। यह मध्यप्रदेश राज्य का सर्वाधिक प्राचीन पवित्र शहर है। सनातन सलिला नर्मदा की गोद में बसा जबलपुर श्यामल बैसाल्ट शिलाओं से संपन्न है, इसे 'पत्थरों का शहर' कहा जाता है। संत विनोबा भावे ने जबलपुर के साँस्कृतिक वैभव से प्रभावित होकर इसे 'संस्कारधानी' का विशेषण दिया तो नेहरू जी ने अपनी सभा में शोर कर रहे युवाओं पर नाराज होकर 'गुंडों का शहर' कहकर अपनी नाराजगी व्यक्त की। जबलपुर अनेकता में एकता परक समन्वय और सहिष्णुता की नगरी है। यहाँ के खान-पान में भी मिश्रित संस्कृति झलकती है। इडली-डोसा', 'वड़ा-सांभर' से लेकर 'दाल-बाफला' ठेठ मालवा फूड, खोवे (मावे) की जलेबी खाने के बाद तो बस आपको आनंद ही आने वाला है। जबलपुर के चप्पे चप्पे में इतिहास है। निस्संदेह आपने जबलपुर नहीं देखा तो आपका भारत भ्रमण पूर्ण नहीं हो सकता। 


गुरुवार, 18 मई 2023

रसाल छंद, सुमित्र छंद, मुक्तक, दोहा, आँख, हास्य कुण्डलिया, कोरोना,

मुक्तिका

हाशिए पर सफे रह रहे
क्या कहानी?; सुनें कह रहे
अश्क जंगल के गुमनाम हो
पीर पर्वत की चुप तह रहे
रास्ते राहगीरों बिना
मरुथलों की तरह दह रहे
मुंसिफ़ों की इनायत हुई
टूटता है कहर, सह रहे
आदमी- आदमी है नहीं
धर्म के सब किले ढह रहे
सिय गँवा क्षुब्ध हो राम जी
डूब सरयू में खुद बह रहे
एक चेहरा जहाँ दिख रहा
कई चेहरे वहाँ रह रहे
१८-५-२०२२
•••
मुक्तिका

गीत गाते मीत जब दिल वार के
जीत जाते प्रीत हँस हम हार के
बीत जाते यार जब पल प्यार के
याद आते फूल हरसिंगार के
बोलती है बोल बिन तोले जुबां
कोकिला दे घोल रस मनुहार के
नैन में झाँकें नयन करते गिले
नाव को ताकें सजन पतवार के
बैर से हो बैर तब सुख-शांति हो
द्वारिका जाते कदम हरिद्वार के
१८-५-२०२२
•••
सत्रह मई बहुभाषाविद धीरेन्द्र वर्मा जयंती
*
*संस्कृत, हिंदी, ब्रजभाषा,अंग्रेज़ी और फ़्रेंच के विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा की जयंती पर सादर नमन*
धीरेन्द्र वर्मा का जन्म १७ मई, १८९७ को बरेली (उत्तर प्रदेश) के भूड़ मोहल्ले में हुआ था। इनके पिता का नाम खानचंद था। खानचंद एक जमींदार पिता के पुत्र होते हुए भी भारतीय संस्कृति से प्रेम रखते थे।
प्रारम्भ में धीरेन्द्र वर्मा का नामांकन वर्ष १९०८ में डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून में हुआ, किंतु कुछ ही दिनों बाद वे अपने पिता के पास चले आये और क्वींस कॉलेज, लखनऊ में दाखिला लिया। इसी स्कूल से सन १९१४ ई. में प्रथम श्रेणी में 'स्कूल लीविंग सर्टीफिकेट परीक्षा' उत्तिर्ण की और हिन्दी में विशेष योग्यता प्राप्त की। तदन्तर इन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में प्रवेश किया। सन १९२१ ई. में इसी कॉलेज से इन्होंने संस्कृत से एम॰ए॰ किया। उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय से डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की थी।
धीरेंद्र वर्मा हिन्दी तथा ब्रजभाषा के कवि एवं इतिहासकार थे। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रथम हिन्दी विभागाध्यक्ष थे। धर्मवीर भारती ने उनके ही मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य किया। जो कार्य हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया, वही कार्य हिन्दी शोध के क्षेत्र में डॉ॰ धीरेन्द्र वर्मा ने किया था। धीरेन्द्र वर्मा जहाँ एक तरफ़ हिन्दी विभाग के उत्कृष्ट व्यवस्थापक रहे, वहीं दूसरी ओर एक आदर्श प्राध्यापक भी थे। भारतीय भाषाओं से सम्बद्ध समस्त शोध कार्य के आधार पर उन्होंने १९३३ ई. में हिन्दी भाषा का प्रथम वैज्ञानिक इतिहास लिखा था। फ्रेंच भाषा में उनका ब्रजभाषा पर शोध प्रबन्ध है, जिसका अब हिन्दी अनुवाद हो चुका है। मार्च, सन् १९६९ में डॉ॰ धीरेंद्र वर्मा हिंदी विश्वकोश के प्रधान संपादक नियुक्त हुए। विश्वकोश का प्रथम खंड लगभग डेढ़ वर्षों की अल्पावधि में ही सन् १९६० में प्रकाशित हुआ।
*कृतियाँ*
१. बृजभाषा व्याकरण
२. 'अष्टछाप' प्रकाशन रामनारायण लाल, इलाहाबाद, सन १९३८
३. 'सूरसागर-सार' सूर के ८१७ उत्कृष्ट पदों का चयन एवं संपादन, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
४. 'मेरी कालिज डायरी' १९१७ के १९२३ तक के विद्यार्थी जीवन में लिखी गयी डायरी का पुस्तक रूप है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५४
५. 'मध्यदेश' भारतीय संस्कृति संबंधी ग्रंथ है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के तत्त्वाधान में दिये गये भाषणों का यह संशोधित रूप है। प्रकाशन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, १९५५
६. 'ब्रजभाषा' थीसिस का हिन्दी रूपान्तर है। प्रकाशन हिन्दुस्तानी अकादमी, १९५७
७. 'हिन्दी साहित्य कोश' संपादन, प्रकाशन ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, १९५८
८. 'हिन्दी साहित्य' संपादन, प्रकाशन भारतीय हिन्दी परिषद, १९५९
९. 'कम्पनी के पत्र' संपादन, प्रकाशन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, १९५९
१०. 'ग्रामीण हिन्दी' प्रकाशन, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
११. 'हिन्दी राष्ट्र' प्रकाशन, भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद
१२. 'विचार धारा' निबन्ध संग्रह है, प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद
१३. 'यूरोप के पत्र' यूरोप जाने के बाद लिखे गये पत्रों का महत्त्वपूर्ण संचयन है। प्रकाशन साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबा
डॉ धीरेंद्र वर्मा व्यक्ति नहीं, एक युग थे, एक संस्था थे। हिन्दी के शिक्षण और प्रशिक्षण की संभावनाएं उन्होंने उजागर की थीं। शोध और साहित्य निर्माण के नए से नए आयाम उन्होंने स्थापित किए थे।
डॉ. वर्मा ज्ञानमार्गी थे। अज्ञात सत्य का शोध करना ही उनके जीवन का चरम लक्ष्य था। ऋषियों की भांति उन्होंने लिखा है- ''खोज से संबंध रखने वाला विद्यार्थी ज्ञानमार्ग का पथिक होता है। भक्तिमार्ग तथा कर्ममार्ग से उसे दूर रहना चाहिए। संभव है आगे चलकर सत्य के अन्वेषण की तीन धाराएं आपस में मिल जाती हों, कदाचित्‌ मिल जाती हैं, किंतु इसकी ज्ञानमार्गी पथिक को चिंता नहीं होनी चाहिए।''
ऋषियों जैसा पवित्र और यशस्वी जीवन जी कर वह २३ अप्रैल, १९७३ को प्रयाग में स्वर्गवासी हो गए।
गीत
*
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
***
मुक्तक
भावना की भावना है शुद्ध शुभ सद्भाव है
भाव ना कुछ, अमोली बहुमूल्य है बेभाव है
साथ हैं अभियान संगम ज्योति हिंदी की जले
प्रकाशित सब जग करे बस यही मन में चाव है
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
हो पतवार 'सलिल' अनजानी
***
नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
18-5-2020
***
कोरोना- बेमौत मरते मजूरों के नाम
*
द्रौपदी के चीर जैसे रास्ते कटते नहीं
कट रहे उम्मीद के सिर कुर्सियाँ मदहोश हैं
*
पाँव पहँचे लिये भूखे पेट की जब अर्थियाँ
कर दिया मरघट ने तालाबंद अब जाएँ कहाँ
*
वाकई दीदार अच्छे दिनों का अब हो रहा
कुर्सियों की जय बची अखबारबाजी आज कल
*
छातियाँ छत्तीस इंची और भी चौड़ी करो
मरेंगे मजदूर पूँजीपति नवाजे जाएँगे
*
कर्ज बाँटो भीख दो जिंदा नहीं गैरत रहे
काम छीनो हाथ से मौका मिला चूको नहीं
*
निकम्मी सरकार है मरकर यही हम कह गए
चीखती है असलियत टी वी पटे जयकार से
***
संजीव
१५-५-२०२०
***
हास्य कुण्डलिया

नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई


बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, परेशां अपनी विगें सम्हाल
घूमें रँगे सियार, डाई कर अपने असली बाल



पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला


***
छंद कार्यशाला
दोहा - कुंडलिया
दोहा - आशा शैली
रोला - संजीव
*
जीव जन्तु को दे रहा, जो जीवन की आस।
कण-कण व्यापक राम है, रख मनवा विश्वास। ।
रख मनवा विश्वास, मारता वही श्रमिक को
धनपति बना रहा है, वह ही कुटिल भ्रमित को
आशा पर आकाश टँगा, देखे बेबस जीव
हैं दुधमुँहे अनाथ, नाथ मूक संजीव
१८-५-२०२०
***
मुक्तिका
*
धीरे-धीरे समय सूत को, कात रहा है बुनकर दिनकर
साँझ सुंदरी राह हेरती कब लाएगा धोती बुनकर
.
मैया रजनी की कैयां में, चंदा खेले हुमस-किलककर
तारे साथी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं हुलस-पुलककर
.
बहिन चाँदनी सुने कहानी, धरती दादी कहे लीन हो
पता नहीं कब भोर हो गई?, टेरे मौसी उषा लपककर
.
बहकी-महकी मंद पवन सँग, कली मोगरे की श्वेताभित
गौरैया की चहचह सुनकर, गुटरूँगूँ कर रहा कबूतर
.
सदा सुहागन रहो असीसे, बरगद बब्बा करतल ध्वनि कर
छोड़ न कल पर काम आज का, वरो सफलता जग उठ बढ़ कर
हरदोई
८-५-२०१६
***
एक प्रयोग:
जान में जान है जान यह जानकर, जान की जान सांसत में पड़ गयी
जानकी जान जाए न सच जानकर, जानकी झूठ बोली न, चुप रह गयी
जान कर भी सके जान सच को नहीं, जान ने जान कर भी बताया नहीं
जान का मान हो, मान दे जान को, जान ले जान तो जान खुश हो गयी
***
दोहा सलिला:
दोहे के रंग आँख के संग
*
आँख न दिल का खोल दे, कहीं अजाने राज
काला चश्मा आँख पर, रखता जग इस व्याज
*
नाम नयनसुख- आँख का, अँधा मगर समाज
आँख न खुलती इसलिए, है अनीति का राज
*
आँख सुहाती आँख को, फूटी आँख न- सत्य
आना सच है आँख का, जाना मगर असत्य
*
खोल रही ऑंखें उषा, दुपहर तरेरे आँख
संध्या झपके मूँदती, निशा समेटे पाँख
*
श्याम-श्वेत में समन्वय, आँख बिठाती खूब
जीव-जगत सम संग रह, हँसते ज्यों भू-धूप
*
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
*
आँख मार आँखें करें, दिल पर सबल प्रहार
आँख न मिल झुक बच गयी, चेहरा लाल अनार
*
आँख मिलाकर आँख ने, किया प्रेम संवाद
आँख दिखाकर आँख ने, वर्ज किया परिवाद
*
आँखों में ऑंखें गड़ीं, मन में जगी उमंग
आँखें इठला कर कहें, 'करिए मुझे न तंग'
*
दो-दो आँखें चार लख, हुए गुलाबी गाल
पलक लपककर गिर बनी, अंतर्मन की ढाल
*
आँख मुँदी तो मच गया, पल में हाहाकार
आँख खुली होने लगा, जीवन का सत्कार
*
कहे अनकहा बिन कहे, आँख नहीं लाचार
आँख न नफरत चाहती, आँख लुटाती प्यार
*
सरहद पर आँखें गड़ा, बैठे वीर जवान
अरि की आँखों में चुभें, पल-पल सीना तान
*
आँख पुतलिया है सुता, सुत है पलक समान
क्यों आँखों को खटकता, दोनों का सम मान
*
आँख फोड़कर भी नहीं, कर पाया लाचार
मन की आँखों ने किया, पल में तीक्ष्ण प्रहार
*
अपनों-सपनों का हुईं, आँखें जब आवास
कौन किराया माँगता, किससे कब सायास
*
अधर सुनें आँखें कहें, कान देखते दृश्य
दसों दिशा में है बसा, लेकिन प्रेम अदृश्य
*
आँख बोलती आँख से, 'री! मत आँख नटेर'
आँख सिखाती है सबक, 'देर बने अंधेर'
*
ताक-झाँककर आँक ली, आँखों ने तस्वीर
आँख फेर ली आँख ने, फूट गई तकदीर
*
आँख मिचौली खेलती, मूँद आँख को आँख
आँख मूँद मत देवता, कहे सुहागन आँख
18-5-2015
***

छंद सलिला:
रसाल / सुमित्र छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति दस-चौदह, पदारंभ-पदांत लघु-गुरु-लघु.
लक्षण छंद:
रसाल चौदह--दस/ यति, रख जगण पद आद्यंत
बने सुमि/त्र ही स/दा, 'सलिल' बने कवि सुसंत
उदाहरण:
१. सुदेश बने देश / ख़ुशी आम को हो अशेष
सभी समान हों न / चंद आदमी हों विशेष
जिन्हें चुना 'सलिल' व/ही देश बनायें महान
निहाल हो सके स/मय, देश का सुयश बखान
२. बबूल का शूल न/हीं, मनुज हो सके गुलाब
गुनाह छिप सके न/हीं, पुलिस करे बेनकाब
सियासत न मलिन र/हे, मतदाता दें जवाब
भला-बुरा कौन-क/हाँ, जीत-हार हो हिसाब
३. सुछंद लय प्रवाह / हो, कथ्य अलंकार भाव
नये प्रतीक-बिम्ब / से, श्रोता में जगे चाव
बहे ,रसधार अमि/त, कल्पना मौलिक प्रगाढ़
'सलिल' शब्द ललित र/हें, कालजयी हो प्रभाव
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)

***
मुक्तक सलिला
*
मेरे मन में कौन बताये कितना दिव्य प्रकाश है?
नयन मूँदकर जब-जब देखा, ज्योति भरा आकाश है.
चित्र गुप्त साकार दिखे शत, कण-कण ज्योतित दीप दिखा-
गत-आगत के गहन तिमिरमें, सत-शिव-सुंदर आज दिपा।
*
हार गया तो क्या गम? मन को शांत रखूँ
जीत चख चुका, अब थोड़ी सी हार चखूँ
फूल-शूल जो जब पाऊँ, स्वीकार सकूँ
प्यास बुझाकर भावी 'सलिल' निहार सकूँ
*
भटका दिन भर थक गया, अब न भा रही भीड़
साँझ कहे अब लौट चल, राह हेरता नीड़
*
समय की बहती नदी पर, रक्त के हस्ताक्षर
किये जिसने कह रहा है, हाय खुद को साक्षर
ढाई आखर पढ़ न पाया, स्याह कर दी प्रकृति ही-
नभ धरा तरु नेह से, रहते न कहना निरक्षर
*
खों रहे क्या कुछ भविष्य में, जो चाहेंगे पा जायेंगे
नेह नर्मदा नयन तुम्हारे, जीवन -जय गायेंगे
*
दीखता है साफ़-साफ़, समय नहीं करे माफ़
जो जैसा स्वीकारूँ, धूप-छाँव हाफ़-हाफ़
गिर-उठ-चल मुस्काऊँ, कुछ नवीन रच जाऊँ-
समय हँसे देख-देख, अधरों पर मधुर लाफ.
*
लाख आवरण ओढ़ रहे हो, मैं नज़रों से देख पा रहा
क्या-क्या मन में भाव छिपाये?, कितना तुमको कौन भा रहा?
पतझर काँटे धूल साथ ले, सावन-फागुन की अगवानी-
करता रहा मौन रहकर नित, गीत बाँटकर प्रीत पा रहा.
*
मौन भले दिखता पर मौन नहीं होता मन.
तन सीमित मन असीम, नित सपने बोता मन.
बेमन स्वीकार या नकार नहीं भाता पर-
सच है खुद अपना ही सदा नहीं होता मन.
*
वोट चोट करता 'सलिल', देख-देखकर खोट
जो कल थे इतरा रहे, आज रहे हैं लोट
जिस कर ने पायी ध्वजा, सम्हल बढ़ाये पैर
नहीं किसी का सगा हो, समय न करता बैर
*
तेरे नयनों की रामायण, बाँच रही मैं रहकर मौन
मेरे नयनों की गीता को, पढ़ पायेगा बोलो कौन?
नियति न खुलकर सम्मुख आती, नहीं सदा अज्ञात रहे-
हो सामर्थ्य नयन में झाँके बिना नयन कुछ बात कहे.
18-5-2014
*

बुधवार, 17 मई 2023

'सुमित्र'



संशय के शैवाल

दोहा संकलन

डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र'

*

'टच' करते ही बदलते, मोबाइल के दृश्य।
राजनीति में सभी कुछ, रहता सदा अदृश्य।।
*
नियम सभी पड़ते शिथिल, यदि हों रिश्तेदार।
फ़र्क नहीं तिल भर पड़े, कोई हो सरकार।।
*
अच्छे दिन आए नहीं, बुरे जमाए पैर।
साँस सिसककर माँगती, अपने 'जी' की खैर।।
*
तरस रही है बूँद को, सूख रही है दूब।
बारिश होगी ख्वाब में, खूब खूब और खूब।।
*
आँसू की ताकत तुम्हें, कहाँ पता है यार?
अविरल आँसू धार में, बह जाती सरकार।।
*
थी गुलाब सी ज़िंदगी, कैसे हुई बबूल।
निर्वाचन हमने किया, बने विधायक शूल।।
*
जिनके खाते में लिखा, लूट फिरौती खून।
वे ही अब करवा रहे, संशोधित कानून।।
*
तालाबंदी सत्य की, झूठ फरेब स्वतंत्र।
बच पाएगा क्या भला, बेचारा गणतंत्र।।
*
मोर पपीहा कोकिला, खोजें गुमा बसंत।
हा हा हु हू कर रहे, कागा बने महंत।।
*
जीना हम भी चाहते, सुख-सुविधा के साथ। 
लेकिन वे ही पा रहे, जिनके लंबे हाथ।।  १० 
*
पानी पानी हो गया, जीवन का इतिहास। 
रेत भरी है आँख में, होठों पर है प्यास।। 
*
रावण क्यों जलता नहीं, जला रहे प्रति वर्ष। 
शायद बैठा हृदय में, निकल रहा निष्कर्ष।। 
*
जितने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन। 
ऊपर ओढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।। 
*
सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान। 
भरे पेट रहते अगर, मरते नहीं किसान।। 
*
सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान। 
हाथ-पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।।  
*
भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील। 
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।। 
*
जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम।
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।। 
*
उसके पल्ले है पड़ी, गई ज़िंदगी ऊब। 
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।। 
*
सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़। 
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहें उखाड़।।
*
शिक्षा मंत्री बन गए, बाप पढ़े ना पूत। 
पढ़े-लिखे की हैसियत, हैंडलूम का सूट।। २० 
*
जिनकी पूछें कट गईं, रही न पूछ पछोर। 
बेचारे अब क्या करें, शोर शोर बस शोर।। 
*
क्या है उनकी कुंडली, क्या है उनका ज्ञान। 
अरे! अरे! मत पूछिए, सुनिए सिर्फ बयान।। 
*
बहन- बेटियों समझ लो, समय साँड़ बिगड़ैल। 
सोच-समझकर निकलिए, राजनीति की गैल।।
*
कितना क्या हम सह रहे, किसे बताएँ यार।
जीवन नैया बह रही, बिना किसी पतवार।। 
*
है शूकर सी ज़िंदगी, जीते हैं इंसान। 
फ़ोटो उनकी खींचकर, लोग हुए धनवान।। 
*
चूहे हैं अच्छे-भले, बदतर हैं इंसान। 
चूहेदानी है उन्हें, इनको नहीं मकान।।      
*
ईश्वर अल्ला एक है, अनगिन पूजा स्थान।           
मगर आरती के लिए, मुश्किल एक मकान।। 
*
अनदेखा भगवान है, सुना नाम ही नाम ।  
चाहे जितना लूटिए, ख्वाबों का गोदाम।। 
*
रंग रँगी थी ज़िंदगी, हुई आज बदरंग। 
रिश्ते-नाते काटते, जैसे जूता तंग।। 
*
उद्घाटन की लालसा, करती गई कमाल।
पाँच बरस में खुल गई, रुपयों की टकसाल।। ३० 
हवामहल में बैठकर, देखा करें जमीन।
जिनको समझ साधु सा, निकले वही कमीन।। 
*
राजनीति के पंक में, लिपटे राज्य रंक। 
एक ध्येय सबका यही, मिले पुष्प पर्यंक।। 
*
किसका कितना भरोसा, कितना क्या विश्वास। 
बनी हुई है झोपड़ी ,गत करियो के पास।।
*
दल के दल में फँसी, चुनी हुई सरकार
 चुने चुनाए बिक रहे, अब तो हाट बाजार
*
कैसे क्या खाएँ जिएँ, पिएँ कौन सा नीर
भक्तों ने तो बदल दी, नदियों की तासीर
*
मत कोई बाबा कहो, मत बोलो महराज
गाली से बदतर हुआ राम रहीमी ताज 
*
जेल खेल सा हो गया, लगता है पाखंड
वी.आई.पी. ठाठ से, पेल रहे हैं दंड
*
उसने जो कुछ कहा था, सब है मुझको याद
लेकिन उसने क्या कहा, उसे नहीं है याद
*
रुपया पैसा प्रतिष्ठा, सभी हाथ का मैल
उसी मेल के मोल पर, दुनिया बनी रखैल
*
क्या देखा अल्लाह को, या देखा भगवान
अरे मूर्खो! पूज लो, प्रभु रूपी इंसान  ४० 
*
प्रभु प्रमाण से परे हैं, होता है आभास। 
मिलता है बस उसे ही, जिसको हो विश्वास
*
सब कुछ तुमको मिलेगा, जो कुछ होगी चाह। 
लेकिन तुम भी तो करो, औरों की परवाह।। 
*
तुम तक पहुंचेगी नहीं, अब तो मेरी बात।  
सोच सोच कर बात, यह करती सारी रात।।
सत्ता दल के प्रवक्ता, शेखी रहे बघार। 
उनकी मुद्रा कह रही, दिल्ली में दमदार।।
*
हाय! पटकनी खा गए, बहे धार ही धार।  
किता आत्म विश्वास ने, ऐसा बंटाधार
*
नारे लगे विरोध में, किए रस्ते जाम।  
लेन देन  पक्का हुआ, मिल जुल बैठे शाम।।
*
राजनीति  की चाल को, समझ न पाए आप।  
बेटा भी कहने लगा, हमीं तुम्हारे बाप।।
*
मूर्ति लगाई इन्होंने, चढ़े गले में हार।  
बाँह चढ़ा वे आ गए, करने को मिस्मार।।
*
शुद्ध हरामी रहे थे, और बहुत बदनाम। 
दल बदला तो हो गए, पावन सीताराम।।
*
अच्छे दिन आए नहीं, शुरू बुरे का दौर।  
कुआ खाई के बीच में, नहीं ठिकाना ठौर।। ४० 
*
भूमंडल की बाँसुरी, सुनी हुए बेहोश। 
जिनको समझे बैद्य जी, निकले उम्र फरोश।।
*
सपने देखे आँख ने, मन भी हुआ प्रसन्न। 
लेकिन थी सारी ख़ुशी,  गरम तवे पर छन्न।। 
*
इंकलाब की बोलियाँ, हुईं सभी खामोश। 
आई सत्ता शेरनी, चुप साधे खरगोश।।
*
फिल्म नहीं है ज़िंदगी, सीढ़ी सच्ची बात। 
क्या बतलाऊँ दर्द का कितना है अनुपात।।
*
कंप्यूटर हम है नहीं,  थोड़ी बहुत डिमांड। 
किन्तु सहन हमको नहीं, माउस करे कमांड।।
*
माना पुरखे विदेशी, ह्रदय बसा अब देश। 
सभी लोग अब मानते, संविधान आदेश।।
*
स्वार्थ पूर्ति की जुगत में, कितने रचे उपाय। 
जाने किसको ख़ुशी दी, जाने किसकी है।.
*
कितना मैं सहयोग दूँ, कितने मीठे बोल। 
किन्तु सदा वे उगलते, कडुवाहट के घोल।।
*
बंदी कब तक रखोगे, तुम मेरी आवाज़। 
बार बार मैं कहूँगा, छोड़ो रीति रिवाज़।।
*
मन तो तुममें ही सदा, रहता है तल्लीन। 
यादें ऐसी उछलतीं, जैसे जल में मीन।।  ५० 
*
ऐसे मन का क्या करूँ, कसती नहीं लगाम। 
मालिक था मैं हो गया, उसका क्रीत गुलाम।।
*
ठुमक ठुमक यादें चलीं, छाया का अनुमान। 
मेघों से आच्छन्न नभ, दिखे नहीं दिनमान।।
*
यादें कच्ची निबौली, जो थीं कभी रसाल। 
आँखें भी अब हो गईं, यादों की टकसाल।।
*
अभी याद को याद है, कल तक थे खुशहाल। 
पल भर में ही हो गया, शहंशाह कंगाल।।
*
यादें मर मर जी रहीं, होकर नित्य नवीन। 
यादों में साँसें बसीं, करना पड़ा यकीन।।
*
सिसक सिसक यादें कहें, झेल रहे संत्रास। 
जीवन भर का मिल गया, हमको तो वनवास।। 
*
दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल। 
सरकारों के हाथ में, आश्वासन टकसाल।।                मुहावरा 
*  
दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल। 
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।। 
*
मँहगाई की मार से, सभी लोग बेहाल। 
ढेर-ढेर भूसा दिखे, खिंचे हमारी खाल।।
*
गाँवों की क्या ज़िंदगी, कैसे जीते लोग। 
बिना सहे कैसे पता, क्या होता दुःख भोग।।  ६० 
*
जो थी दशा किसान की, लगभग वैसी आज। 
हाड़ तोड़ मेहनत करे, जुटता नहीं अनाज।।      मात्राधिक्य 
*
देता ने है सुख दिया, बाँट रहे दुःख आप। 
मीठी बानी बोलकर, हरें ह्रदय संताप।।
*
राजनीति से प्रदूषित, हरा भरा संसार। 
अब अपनों का प्यार भी, लगता है व्यापार।।
*
किसको अपना मानिए, किसे पराया यार। 
घटनाओं से है भरा, जीवन का अखबार।।
*   
कवि लेखक हैं बाप जी, क्या कुछ लिया उखाड़। 
नहीं लगाकर हैं गए , वे रुपयों का झाड़।। 
*
मूरख मन जाने नहीं, आया कैसा दौर। 
कविता फ़विता छोड़ दे, मिले न रोटी कौर।। 
*
वंशवृक्ष है कीमती, माने नहीं फिजूल। 
वृक्ष बता देता हमें, कितना गहरा मूल।। 
*
कौन सही या है गलत, कैसे हो अहसास। 
जिनकी जो प्रतिबद्धता, लिखें वही इतिहास।।
*
जीतने दल हैं देश में, सब हैं सत्यविहीन। 
ऊपर पढ़े धवलता, भीतर माहा मलीन।। 
*
फटी पुरानी पुस्तकें, या फिर मूल्य विचार। 
सबकी हालत एक सी, ज्यों रद्दी अखबार।। ७० 
*  
दाल गलाने की जुगत, सबकी पतली दाल। 
सरकारों के हाथ में, आश्वासन की ढाल।। 
*
दाल गलाएँ किस तरह, सबकी पतली दाल। 
आश्वासन की खोल दी, सत्ता ने टकसाल।। 
*
मँहगाई की मार से, सभी लोग बहाल। 
ढेर ढेर भूसा दिखे, खींचे हमारी खाल।। 
*
महापुरुष थे तो रहें, हमसे क्या संबंध। 
इस युग में तो स्वार्थ से होते हैं अनुबंध।। 
सभी पुरानी कवि हुए, पाठ्यकर्मों से गोल। 
नए नवाड़े रच रहे, समकालिक भूगोल।। 
*
तुलसी सूर कबीर को, पढ़ें न समझें लोग।  
बस इतना जानें पढ़ें, है समाधि संभोग।। 
*
है प्रसिद्धि का शॉर्टकट, लिख दें होकर बोल्ड। 
वरना लेखन व्यर्थ है, होगा सब अनसोल्ड।। 
*
अगर चाहते शीघ्र ही होना तुम मशहूर। 
जिस सीढ़ी से हो चढ़े, उसे फेंक दो दूर।। 
*
शरुद्ध या विश्वास से, रहो दूर ही दूर। 
मस्तक को ऊँचा रखो, रक्खो गर्व जरूर।। 
*
रिश्तों का क्या मूल्य अब, पैसा रक्खो पास। 
पैसे हैं तो है सुलभ, बंधु बांधवी दास।।   ८० 
*
जन्म दिया माँ बाप ने, किया नहीं अहसान। 
कहते सुत हमसे मिली उन्हें नई पहचान।। 
*
कहाँ भाव की माधुरी, कहाँ प्रेम के बैन।
लगते मुँह के बोल यान, जैसे लगे कुनैन।। 
*
मूल्यहीन है जिंदगी, मूल्यवान बाजार। 
बुद्धिमान भी बिक रहे, अब रुपए में चार।। 
*
दूषित भाषा रच रही, टीखर तेज बयान। 
पाणिनि अब कैसे कहें, मेरा देश महान।। 
*
रूखी सुखी रोटियाँ, पतली बासी दाल।
बिना प्याज के खा रहे बाबू वंशीलाल।। 
*
देखी मैंने चिरमिरी, दहकी कोल खदान। 
धधक रहा है आज ज्यों, मेरा हिंदुस्तान।।   
*
कंबल कीड़ा रेंगता, चले बिना आवाज। 
लच्छन ऐसे दिख रहे, गिरी हार की गाज।। 
*
घर में सब है खैरियत, तबीयत मगर उदास। 
लेबनान में ईद को, दिया गया वनवास।। 
*
दुनिया में उत्पात का बड़ा सबब है तेल। 
डाकू मीर फकीर में, हो जाता है मेल।। 
*
दोहा क्या सुनिए जरा, मल्लाहिन की नाव। 
पहुँचाएगी घाट पर, लेती हुई घुमाव।।   ९० 
*
दोहा है मेरे लोए, ज्यों अनहद का नाद। 
बिना तार के तार से, होता है संवाद।। 
*
दर्द हमारा मित्र है, दौलत शत्रु समान। 
दर्द जगत सगापन, दौलत दे अभिमान।। 
*
विज्ञापन का दौर है, चमक दमक भरपूर। 
छलकाते हैं शब्द छल, सच से कोसों दूर।। 
*
भाषा की रक्षा करो, उसका रखो अचार। 
भाषा की टकसाल वह, जिसको कहें बाजार।। 
*
मन व्याकुल होने लगे, पाकर देह सुगंध। 
समय कसौटी पर सभी, टूट गए अनुबंध।। 
*
उसके पल्ले है पड़ी, गई जिंदगी ऊब। 
एक नदी घर से निकल, गई नदी में डूब।। 
*
सूखे सूखे खेत हैं, भूखे हैं खलिहान। 
भरे पेट रहते अगर, मरते नहेने किसान।। 
*
सुलगी बीड़ी हाथ में, गरमा गया किसान। 
हाथ -पैर ठंडे पड़े, आया घर का ध्यान।। 
*
भ्रष्टाचारी जब हँसे, मन में गड़ती कील। 
खौल रही आक्रोश से, स्वाभिमान की झील।। 
*
जो सपने थे आँख में, सभी हुए नीलाम। 
लेकिन है मजबूत मन, होगा नहीं गुलाम।। १०० 
*
देवालय पर क्या भला, चल किसी का जोर। 
दिल दहलता रोज ही, विहीयपन का शोर।।
*
कोई सरबस ले अगर, तो ले ले भगवान। 
मगर पास में छोड़ दे, बच्चों की मुस्कान।। 
*
गायत्री के विरह से, होता हृदय अधीर। 
किन्तु प्रियम को देखकर, मन पाता है धीर।। 
*
सेवा से बीटा बहु, रक्खे हैं जीवंत। 
ह्रदय वेदना का नहीं, हो पता है अंत।। 
*
सत्ताधारी जब रहे, सूजी उनकी दाढ़। 
फिर जिनका कब्जा हुआ, डाढ़ें रहे उखाड़।। 
*



 

सोनेट, बुद्ध, कुण्डलिया, हास्य, गीत, मुक्तिका, दोहा,

सॉनेट
बुद्ध १

हमें कुछ नहीं लेना-देना
जब जहाँ जो जी चाहे कहो
सजा रखी है सशक्त सेना
लड़ो-मारो-मरो, गड़ो-दहो
हम विरागी करें नहीं मोह
नश्वर जीवन माटी काया
हमें सुहाए सिर्फ विद्रोह
माटी को माटी में मिलाया
कुछ मत कहो उठो लड़ो युद्ध
मिटा दो या मिट जाओ बुद्ध
मन के पशु का पथ न हो रुद्ध
जागो लड़ो होकर अति क्रुद्ध
तुम्हारी खोपड़ी सजा ली है
सभी शिक्षाएँ भुला दी है
१७-५-२०२२
•••
सॉनेट
बुद्ध २
*
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
शांति हमारा ध्येय नहीं है
मार-मार खुद भी मरते हम
ज्ञाता हैं भ्रम; ज्ञेय नहीं है
लिखें जयंती पर कविताएँ
शीश तुम्हारा सजा कक्ष में
सूली पर तुमको लटकाएँ
वचन तुम्हारे वेध लक्ष्य में
तुमने राज तजा, हम छीनें
रौंद सुजाता को गर्वान्वित
हिंसा है हमको अतिशय प्रिय
अशुभ वरें; शुभ हित आशान्वित
क्रुद्ध रुद्ध तम ही वरते तम
युद्ध बुद्ध तुमसे करते हम
१७-५-२०२२
***
कुंडलिया

बाल पृष्ठ पर आ गए, हम सफेद ले बाल
बच्चों के सिर सोहते, देखो काले बाल
देखो काले बाल, कहीं हैं श्वेत-श्याम संग
दिखे कहीं बेबाल, न गंजा कह उतरे रंग
कहे सलिल बेनूर, परेशां अपनी विगें सम्हाल
घूमें रँगे सियार, डाई कर अपने असली बाल


पाक कला के दिवस पर, हर हरकत नापाक
करे पाक चटनी बना, काम कीजिए पाक
काम कीजिए पाक, नहीं होती है सीधी
कुत्ते की दुम रहे, काट दो फिर भी टेढ़ी
कहता कवि संजीव, जाएँ सरहद पर महिला
कविता बम फेंके, भागे दुश्मन दिल दहला


नई बहुरिया आ गई, नई नई हर बात
परफ्यूमे भगवान को, प्रेयर कर नित प्रात
प्रेयर कर नित प्रात, फास्ट भी ब्रेक कराती
ब्रेक फास्ट दे लंच न दे, फिरती इठलाती
न्यून वसन लख, आँख शर्म से हरि की झुक गई
मटक रही बेचीर, द्रौपदी फैशन कर नई

***
गीत
*
नेह नरमदा घाट नहाते
दो पंछी रच नई कहानी
*
लहर लहर लहराती आती
घुल-मिल कथा नवल कह जाती
चट्टानों पर शीश पटककर
मछली के संग राई गाती
राई- नोंन उतारे झटपट
सास मेंढकी चतुर सयानी
*
रेला आता हहर-हहरकर
मन सिहराता घहर-घहरकर
नहीं रेत पर पाँव ठहरते
नाव निहारे सिहर-सिहरकर
छूट हाथ से दूर बह चली
खुद पतवार राह अनजानी
*
इस पंछी का एक घाट है,
वह पंछी नित घाट बदलता
यह बैठा है धुनी रमाए
वह इठलाता फिरे टहलता
लीक पुरानी उसको भाती
इसे रुचे नवता लासानी
१६-५-२०२०
***
गीत
गीत कुंज में सलिल प्रवहता,
पता न गजल गली का जाने
मीत साधना करें कुंज में
प्रीत निलय है सृजन पुंज में
रीत पुनीत प्रणीत बन रही
नव फैशन कैसे पहचाने?
नेह नर्मदा कलकल लहरें
गजल शिला पर तनिक न ठहरें
माटी से मिल पंकज सिरजें
मिटतीं जग की तृषा बुझाने
तितली-भँवरे रुकें न ठहरें
गीत ध्वजाएँ नभ पर फहरें
छप्पय दोहे संग सवैये
आल्हा बम्बुलिया की ताने
१६-५-२०२०
***
कार्यशाला
दोहा से कुण्डलिया
*
रदीफ़ क़ाफ़िया ढूंढ लो, मन माफ़िक़ सरकार|
ग़ज़ल बने चुटकी बजा, हों सुंदर अशआर||
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
हों सुंदर अशआर, सजें ब्यूटीपार्लर में।
मोबाइल सम बसें, प्राण लाइक-चार्जर में
दिखें हैंडसम खूब, सुना भगे माफिया
जुमलों की बरसात, करेगा रदीफ-काफिया
*
दोहा- आभा सक्सेना दूनवी
पपड़ी सी पपड़ा गयी, नदी किनारे छांव।
जेठ दुपहरी ढूंढती, पीपल नीचे ठांव।।
रोला- संजीव वर्मा 'सलिल'
पीपल नीचे ठाँव, न है इंची भर बाकी
छप्पन इंची खोज, रही है जुमले काकी
साइकल पर हाथी, शक्ल दीदी की बिगड़ी
पप्पू ठोंके ताल, सलिल बिन नदिया पपड़ी
१७-५-२०१९
***

रसानंद दे छंद नर्मदा ८१:
दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक (चौबोला), रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​, गीतिका, ​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन/सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका , शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रव​​ज्रा, इंद्रव​​ज्रा, सखी​, विधाता/शुद्धगा, वासव​, ​अचल धृति​, अचल​​, अनुगीत, अहीर, अरुण, अवतार, ​​उपमान / दृढ़पद, एकावली, अमृतध्वनि, नित, आर्द्रा, ककुभ/कुकभ, कज्जल, कमंद, कामरूप, कामिनी मोहन (मदनावतार), काव्य, वार्णिक कीर्ति, कुंडल, गीता, गंग, चण्डिका, चंद्रायण, छवि (मधुभार), जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिग्पाल / दिक्पाल / मृदुगति, दीप, दीपकी, दोधक, निधि, निश्चल, प्लवंगम, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनाग छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए मधुमालती छंद से
मधुमालती छंद
*
छंद-लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ७-७, चरणांत गुरु लघु गुरु (रगण) होता है.
लक्षण छंद
मधुमालती आनंद दे
ऋषि साध सुर नव छंद दे।
गुरु लघु गुरुज चरणांत हो
हर छंद नवउत्कर्ष दे।
उदाहरण:
१. माँ भारती वरदान दो
सत्-शिव-सरस हर गान दो
मन में नहीं अभिमान हो
घर-घर 'सलिल' मधु गान हो।
२. सोते बहुत अब तो जगो
खुद को नहीं खुद ही ठगो
कानून को तोड़ो नहीं-
अधिकार भी छोडो नहीं
***
मुक्तक
जीवन-पथ पर हाथ-हाथ में लिए चलें।
ऊँच-नीच में साथ-साथ में दिए चलें।।
रमा-रमेश बने एक-दूजे की खातिर-
जीवन-अमृत घूँट-घूँट हँस पिए चलें।।
१७-५-२०१८
***
मुक्तिका
जितने चेहरे उतने रंग
सबकी अलग-अलग है जंग
.
ह्रदय एक का है उदार पर
दूजे का दिल बेहद तंग
.
तन मन से अतिशय प्रसन्न है
मन तन से है बेहद तंग
.
रंग भंग में डाल न करना
मतवाले तू रंग में भंग
.
अवगुंठन में समझदार है
नासमझों के दर्शित अंग
.
जंग लगी जिसके दिमाग में
वह नाहक ही छेड़े जंग
.
बेढंगे में छिपा हुआ है
खोज सको तो खोजो ढंग
.
नेह नर्मदा 'सलिल' स्वच्छ पर
अधिकारों की दूषित गंग
१७-५-२०१६
***
द्विपदी
वफ़ा के बदले वफ़ा चाहिए हो यार तुम्हें
'सलिल' की ओर ज़माने को छोड़ मुख करना
एक दोहा
आँखों का काजल चुरा, आँखें कहें: 'जनाब!
दिल के बदले दिल लिया,पूरा हुआ हिसाब'
***
मुक्तक :
*
अब तक सुना था, दिखा बाड़ खेत खा गयी
चंदा को अमावास की रात खूब भा गयी
चाहा था न्याय ने कि उसे जेल ही मिले
कुछ जम गया जुगाड़ उसे बेल भा गयी
*
कितना शरीफ है कि कुचल भूल गया है
पी ली तो क्या, दुश्मन ने अधिक तूल दिया है
झूठे गवाह लाये उसका पेट पालने-
फूल रौंद भोंक उसे शूल दिया है
*
कितने शरीफ हो न बताने की बात है
कैसे भी हो गुनाह छिपाने की बात है
दुनिया से बच गये भी तो देगा सजा खुदा
आईने से भी आँख चुराने की बात है
*
***
दोहा गाथा : २
दोहा छंद-नरेश :
*
दोहा छंदों का राजा है. मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया.
दोहा में दो पंक्तियाँ होती हैं. हर पंक्ति में दो चरण होते हैं. पहले-तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ तथा दूसरे-चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ होती हैं. इस प्रकार हर पंक्ति में १३+११ कुल २४ मात्राएँ होती हैं. तेरह मात्राओं के बाद जो क्षणिक ठहराव या विराम होता है उसे यति कहा जाता है. दोहा में १३, ११ मात्राओं पर यति अपरिहार्य है. यदि यह यति ११-१३ या १२-१२ पर हो तो वह दोहा नहीं रह जाएगा.
दोहा की दोनों पंक्तियों अर्थात सम चरणों के के अंत में गुरु लघु मात्रा होना जरूरी है. स्पष्ट है कि दोहा के पंक्त्यांत में गुरु मात्रा नहीं हो सकती.
मात्रा गणना:
हिंदी में स्वरों तथा व्यंजनों के उच्चारण काल के आधार पर उन्हें लघु / छोटा (कम उच्चारण काल) या गुरु, दीर्घ या बड़ा (अधिक उच्चारण काल) वर्गीकृत किया गया है.
लघु मात्रा : अ, इ, उ, ऋ,
गुरु मात्रा : आ. ई. ऊ. ए, ऐ. अं. अ:, संयुक्त अक्षर क्त, क्ख, ग्य, र्य,
संयुक्त अक्षर का आधा अक्षर अपने पहले वाल्व अक्षर के साथ उच्चारित होता है. इसलिए पहले वाले लघु अक्षर को गुरु कर देता है किन्तु पूर्व में गुरु अक्षर हो तो आधे अक्षर का कोई प्रभाव नहीं होता।
उक्त = उक् + त = २ + १ =३
विज्ञ = विग् + य = २ + १ =३
आप्त = आप् + त = २ + १ = ३
दोहा के विषम चरण में एक शब्द में जगण अर्थात जभान = १२१ वर्जित है. इस संबंध में विविध ग्रंथों में मत वैभिन्न्य है. कहीं विषम चरण के आरम्भ में कहीं अंत में , कहीं पूरे विषम चरण में जगण को वर्जित कहा गया है. इसका कारण सम्भवत: जगण से लय भंग होना है. प्रसिद्ध दोहाकारों के प्रसिद्ध दोहों में जगण पाये जाने के बाद भी इस मान्यता को अधिकांश दोहाकार मानते हैं.
गण की जानकारी: गण का सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है. सूत्र का हर अक्षर गण का संकेत करता है. गण का नाम प्रथमाक्षर के साथ अगले दो अक्षर जोड़कर बनता है. गण-नाम के ३ अक्षर मात्राओं का संकेत करते हैं, जिनसे लयखंड बनता है.
गण नाम गण सूत्र गण मात्रा
य गण यमाता १२२=५
म गण मातारा २२२=६
त गण ताराज २२१=५
र गण राजभा २१२=५
ज गण जभान १२१=४
भ गण भानस २११=४
न गण नसल १११=३
स गण सलगा ११२=४
य गण, म गण, र गण, तथा सगण के अंत में गुरु मात्रा है. अतः, इन्हें दोहा के सम चरण अथवा पंक्ति के अंत में प्रयोग नहीं किया जा सकता।
दोहा के दरबार में, रस वर्षण हो खूब
लिख-सुनकर आनंद हो, जाएँ सुख में डूब
.
हँस दोहे से प्रीत कर, बन दोहे का मीत
मन दोहे का मान रख, यही सृजन की रीत
.
शेष छंद हैं सभासद, दोहा छंद-नरेश
तेइस विविध प्रकार हैं, दोहाकार अशेष
.
***
मुक्तिका:
*
आशा कम विश्वास बहुत है
श्लेष तनिक अनुप्रास बहुत है
सदियों का सुख कम लगता है
पल भर का संत्रास बहुत है
दुःख का सागर पी सकता है
ऋषि अँजुरीवत हास बहुत है
हार न माने मरुस्थलों से
फिर उगेगी घास बहुत है
दिल-कुटिया को महल बनाने
प्रिये! तुम्हारा दास बहुत है
विरह-अग्नि में सुधियाँ चन्दन
मिलने का अहसास बहुत है
आम आम के रस पर रीझे
'सलिल' न कहना खास बहुत है
*
करें आरती सत्य की, पूजें श्रम को नित्य
हों सहाय सब देवता, तजिए स्वार्थ अनित्य
*
गर किताब पढ़ बन रहा, रिश्वतखोर समाज
पूज परिश्रम हम रचें, एक लीक नव आज
१७-५-२०१५
***
दोहा सलिला:
संजीव
*
प्रहसन मंचित हो गया, बजीं तालियाँ खूब
समरथ की जय हो गयी, पीड़ित रोये डूब
.
बरसों बाद सजा मिली, गये न पल को जेल
न्याय लगा अन्याय सा, पल में पायी बेल
.
दोष न कारों का तनिक, दोषी है फुटपाथ
जो कुचले-मारे गये, मिले झुकाए माथ
.
छद्म तर्क से सच छिपा, ज्यों बादल से चाँद
दोषी गरजे शेर सा, पीड़ित छिपता मांद
.
नायक कारें ले करें, जनसंख्या कंट्रोल
दिल पर घूँसा मारता, गायक कडवा बोल
.
पट्टी बाँधे आँख पर, तौल रही है न्याय
अजब व्यवस्था धनी की, जय- निर्धन निरुपाय
.
मोटी-मोटी फीस है, खोटे-खोते तर्क
दफन सत्य को कर रहे, पिला झूठ का अर्क
.
दौलत की जय बोलना, दुनिया का दस्तूर
एकांगी जब न्याय हो लगे वधिक सा क्रूर
.
तिल को ताड़ बना दिया, और ताड़ को तिल
रुपयों की खनकार से घायल निर्धन-दिल
*
हिंदी जगवाणी बने, वसुधा बने कुटुंब
सीख-सीखते हम रहें, सदय रहेंगी अम्ब
पर भाषा सीखें मगर, निज भाषा के बाद
देख पड़ोसन भूलिए, गृहणी- घर बर्बाद
हिंदी सीखें विदेशी, आ करने व्यवसाय
सीख विदेशी जाएँ हम, उत्तम यही उपाय
तन से हम आज़ाद हैं, मन से मगर गुलाम
अंगरेजी के मोह में, फँसे विवश बेदाम
हिंदी में शिक्षा मिले, संस्कार के साथ
शीश सदा' ऊंचा रहे, 'सलिल' जुड़े हों हाथ
अंगरेजी शिक्षा गढ़े, उन्नति के सोपान
भ्रम टूटे जब हम करें, हिंदी पर अभिमान
१७-५-२०१४
***
दोहा गाथा ७
दोहा साक्षी समय का
युवा ब्राम्हण कवि ने दोहे की प्रथम पंक्ति लिखी और कागज़ को अपनी पगड़ी में खोंस लिया। बार -बार प्रयास करने पर भी दोहा पूर्ण न हुआ। परिवार जनों ने पगड़ी रंगरेजिन शेख को दे दी। शेख ने न केवल पगड़ी धोकर रंगी अपितु दोहा भी पूर्ण कर दिया। शेख की काव्य-प्रतिभा से चमत्कृत आलम ने शेख के चाहे अनुसार धर्म परिवर्तन कर उसे जीवनसंगिनी बना लिया। आलम-शेख को मिलनेवाला दोहा निम्न है:
आलम - कनक छुरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
शेख - कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धर दीन।
संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ' अपभ्रंश.
दोहा सबका लाडला, सबसे पाया अंश.
दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर.
मौन करे रसपान जो, उसे न रुचता शोर.
सुनिए दोहा-पुरी में, श्वास-आस की तान.
रस-निधि पा रस-लीन हों, जीवन हो रसखान.
समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन दिन-रात.
सत्य न लेकिन बदलता, कहता दोहा प्रात.
सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी मान.
जन्म सार्थक कीजिए, कर कर दोहा-गान.
शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर.
भूला-बिसरा याद कर, मिटे ह्रदय की पीर.
दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद.
गति-यति-लय का संतुलन, देता है आनंद.
पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ.
दे उजियारा विश्व को, नित दीपक बन विज्ञ.
अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर.
जो वे आँखें मूँदकर, बने हुए हैं सूर.
जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश.
हिंदी तजकर हिंद में, हैं बेशर्म अशेष.
सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत.
मन जीतें मन हारकर, जैसे संत पुनीत.
स्रोत दिवाकर का नहीं, जैसे कोई ज्ञात.
दोहे का उद्गम 'सलिल', वैसे ही अज्ञात.
दोहा की सामर्थ्य जानने के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग की चर्चा करें। इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदी सम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहे ने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बता दी। असहाय दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनी हार को जीत में बदलने का अवसर दिया, ऐसी है दोहा, दोहाकार और दोहांप्रेमी की शक्ति। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.
इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडली महाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..
शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भी संभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो.
किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण.
किं जनेन धनेन किं मम, जीवितेन गृहेऽण.
हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.
दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारू.
चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पायेगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.
निवेदन है कि अपने अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोजकरभेजें:
दोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य।
ध्यान समय का जो रखे, उसको मिलता गत्य॥
दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारित समयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गाया जा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होना अनिवार्य है।
दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदस मर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावन के वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमाने तरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती। किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों को निर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है।
किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयन करना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूल हो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो। मात्रा गणना के प्रकरण पर पूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही है कि शंकाओं का समाधान हो सके.
"मात्रा" शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतक है। तद्‌नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २. गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरु गिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथा लगनेवाला समय है।
१. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः
अ.सभी ह्रस्व स्वर, यथाः अ, इ, उ, ॠ।
ॠषि अगस्त्य उठ इधर ॰ उधर, लगे देखने कौन?
१+१ १+२+१ १+१ १+१+१ १+१+१
आ. ह्रस्व स्वरों की ध्वनि या मात्रा से संयुक्त सभी व्यंजन, यथाः क,कि,कु, कृ आदि।
किशन कृपा कर कुछ कहो, राधावल्लभ मौन ।
१+१+१ १+२ १+१ १+१ १+२
इ. शब्द के आरंभ में आनेवाले ह्रस्व स्वर युक्त संयुक्त अक्षर, यथाः त्रय में त्र, प्रकार में प्र, त्रिशूल में त्रि, ध्रुव में ध्रु, क्रम में क्र, ख्रिस्ती में ख्रि, ग्रह में ग्र, ट्रक में ट्र, ड्रम में ड्र, भ्रम में भ्र, मृत में मृ, घृत में घृ, श्रम में श्र आदि।
त्रसित त्रिनयनी से हुए, रति ॰ ग्रहपति मृत भाँति ।
१+१+१ १+१+१+२ २ १+२ १‌+१ १+१+१+१ १+१ २+१
ई. चंद्र बिंदु युक्त सानुनासिक ह्रस्व वर्णः हँसना में हँ, अँगना में अँ, खिँचाई में खिँ, मुँह में मुँ आदि।
अँगना में हँस मुँह छिपा, लिये अंक में हंस ।
१+१+२ २ १+१ १+१ १+२, १‌+२ २‌+१ २ २+१
उ. ऐसा ह्रस्व वर्ण जिसके बाद के संयुक्त अक्षर का स्वराघात उस पर न होता हो या जिसके बाद के संयुक्त अक्षर की दोनों ध्वनियाँ एक साथ बोली जाती हैं। जैसेः मल्हार में म, तुम्हारा में तु, उन्हें में उ आदि।
उन्हें तुम्हारा कन्हैया, भाया सुने मल्हार ।
१+२ १+२+२ १+२+२ २+२ १+२ १+२+१
ऊ. ऐसे दीर्घ अक्षर जिनके लघु उच्चारण को मान्यता मिल चुकी है। जैसेः बारात ॰ बरात, दीवाली ॰ दिवाली, दीया ॰ दिया आदि। ऐसे शब्दों का वही रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
दीवाली पर बालकर दिया, करो तम दूर ।
२+२+२ १+१ २+१+१+१ १+२ १+२ १ =१ २+१
ए. ऐसे हलंत वर्ण जो स्वतंत्र रूप से लघु बोले जाते हैं। यथाः आस्मां ॰ आसमां आदि। शब्दों का वह रूप प्रयोग में लायें जिसकी मात्रा उपयुक्त हों।
आस्मां से आसमानों को छुएँ ।
२+२ २ २+१+२+२ २ १+२
ऐ. संयुक्त शब्द के पहले पद का अंतिम अक्षर लघु तथा दूसरे पद का पहला अक्षर संयुक्त हो तो लघु अक्षर लघु ही रहेगा। यथाः पद॰ध्वनि में द, सुख॰स्वप्न में ख, चिर॰प्रतीक्षा में र आदि।
पद॰ ध्वनि सुन सुख ॰ स्वप्न सब, टूटे देकर पीर।
१+१ १+१ १+१ १+१ २+१ १+१
द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें, उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगे कि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्त होने लगेंगी।
अंत में एक किस्सा, झूठा नहीं, सच्चा...
फागुन का मौसम और होली की मस्ती में किस्सा भी चटपटा ही होना चाहिए न... महाप्राण निराला जी को कौन नहीं जानता? वे महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। उन्हें असत्य सहन नहीं होता था। भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। बिना किसी लाग-लपेट के सच बोलने में वे विश्वास करते थे। उनकी किताबों के प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव द्वारा रचित दोहा संकलन का विमोचन समारोह आयोजित था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते-खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कह दिया तो निराला जी यह चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खड़े होकर बडी-बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए एक दोहा कहा। उस दिन निराला जी ने अपने जीवन का पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया।
इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए।
वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारेलाल जी और उनके चमचों की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है-
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
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कुण्डलिया
हरियाली ही हर सके, मन का खेद-विषाद.
मानव क्यों कर रहा है, इसे नष्ट-बर्बाद?
इसे नष्ट-बर्बाद, हाथ मल पछतायेगा.
चेते, सोचे, सम्हाले, हाथ न कुछ आयेगा.
कहे 'सलिल' मन-मोर तभी पाये खुशहाली.
दस दिश में फैलायेंगे जब हम हरियाली..

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दोहा
होता रूप अरूप जब, आत्म बने विश्वात्म.
शब्दाक्षर कर वन्दना, देख सकें परमात्म..
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मुक्तक
भारत नहीं झुका है, भारत नहीं झुकेगा.
भारत नहीं रुका है, भारत नहीं रुकेगा..
हम-आप मेहनती हों, हम-आप एक-नेक हों तो-
भारत नहीं पिटा है, भारत नहीं पिटेगा..
१७-५-२०११